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________________ वैराग्य शतकम् ॥ ६४ ॥ Jain Education Inter अर्थ संसारने विषे मनुष्योने वे प्रकारना प्राण छे. तेम एक अंतःमाण, ने बीजो बहि:प्राण. तेमां अंत:| प्राण तो प्रसिद्ध छे, अने यहि प्राण ते धन छे. केमके, प्राण जतां जेवुं दुःख थाय छे, तेयुंज दुःख धन जतां पण थाय छे, एटलाज माटे ज्ञानी पुरुषोए आ दुःखनी पंक्तिमा धनने पण गण्युं छे. केमके, (अर्थानां के०) धन मेलवतां | पण दुःख थाय छे तेमज उपार्जन करेला धनने साचववामां पण दुःख छे, माटें धन आव्ये पण दुःख छे, अने गये | पण दुःख छे. अर्थात् ते धनज दुःखदायक छे. माटे दुःखनुं साधन एवा धनने धिक्कार थाओ ! ! ॥ ४ ॥ एरीते जन्म, जरा, रोग, मरण अने धन, ते संबंधी दुःखनो विचार करवो, पण अंधपरंपराए न चालबुं. ए उपदेश. || आर्यावृत्तम् ॥ यावत् न इंद्रियाणां हानिः जावे ने इंदियेहाणी | यावत् न रोगविकारा जीव ने रोगविओरा । 2010_05 यावत् न जराराक्षसी परिस्फुरति जॉब नं जरख्वंसी परिप्फुरई ॥ यावत् न मृत्युः समाश्लिष्यंति जीव ने मंच्च समुल्लिअई ॥ ३४ ॥ अर्थ - हे जीव ! (जाव के०) ज्यां सुधी ( इंदियहाणी के० ) इंद्रियोनी हामी, एटले इंद्रियोनुं क्षीणपणुं (न के०) नथी थयुं, तथा (जाव के० ) ज्यां सुधी ( जरख्खसी के० ) जरारूप राक्षसी (न परिप्फुरई के० ) नथी, प्रकट थइ, तथा (जाव के०) ज्यां सुधी ( रोगविआरा के०) रोग विकार ( न के० ) नथी प्रकट थया तथा (जाव के० ) 无儿无號 For Private & Personal Use Only भाषांतर सहित ॥ ६४ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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