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________________ भाषांतर शतकम सहित ॥१३२॥ ॥१३२॥ जीवित पण नाश पामे छे. माटे एबुं जाणीने एटले क्षणमात्र जीववानो विश्वास न राखीने धर्मसाधन करवामां सावधान था. ॥ ७४ ॥ ॥ आर्यावृत्तम् ॥ त्रिभुवनजनान् म्रियमाणान् दृष्ट्वा भापयंति ये न आत्मानं धर्मे तिहुयणजगं मरतं । दलँग नयंनि जे ने अप्पाणं ।। निवर्तते न पापत् धिकधिक धृष्टत्वं तेषां विरमंति ने पाबाओ । 'धीधी भीत्तणं ताणं ।। ७५ ।। अर्थ-(जे के०) जे पुरुष (मरंतं के०) मरतो एवो (तिहुयणजगं के०) त्रण भुवनना जनने (दगुण के०) देखीने | | (अप्पा के०) आत्माने (न नयंति के०) धर्मने विषे जोडता, अने (पावाओ के०) पापथकी (न विरमंति के०) नथी | | विराम पामता (ताणं के०) तेमना (धी तणं के०) धिठहपणाने एटले निर्लजपणाने (धीधी के०) धिक्कार थाओ ! | धिक्कार थाओ !! ॥ ७५ ॥ | भावार्थ-स्वर्ग मृत्यु ने पाताल ए प्रकारे त्रग लोकना रहेनारने, अर्थात् सर्व संसारी जीवने, मरता देखोने pril अने जाणीने पण पोताना आत्माने धर्मने विषे नथी जोडता, तथा हिंसादिक थकी निवृत्ति नथी पामता, अर्थात् जे RI कल्यथी पाप बंधाय छे, तेवा कृत्यथी पाछा नथी ओसरता, तेवा निर्लज जीवोना धिठइपणाने धिक्कार थाओ! धिक्कार | थाओ ! ! एम अतिषे धिक्कारपणुं जणाववाने म.टे वेवार धिक्कार शब्द कयो छे. ॥ ७ ॥ Jww.jainelibrary.org Jain Education Inter 2 010_05 For Private & Personal Use Only
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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