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________________ भाषांतर सहित ॥३१॥ और मातापितृवंधुभिः संसारस्थैः पूरितः लोकः बहुयोनिनिवासिभिः नच ते त्राणां पुनः शरणं पुनः शतकम् मायापियवंधूहिं । संसारच्छेहिं पूरिउं लोउं ॥ बहुजोणिनिवासीहि । नये ते ताणं न सरणं चं ॥१९॥ ॥३१॥ अर्थः-(संसारच्छेहिं के०) संसारने विषे रहेलां एवां, ने (बहुजोणी के०] घणी एवी योनी एटले चोराशी २ लाख योनि, तेने विषे (निवासीहि के०] निवास करीने रहेलां एवां [मायापियबंधुहिं के०] माता पिता ने JE बन्धु, तेमणे करीने (लोउं के०) लोक जे ते (पूरिओ के०) पूरेलो छे. (ते के०) ते सर्वे (च के०) वली ता-JE हरं (ताणं के०) रक्षण करनार, अने (च के०) वली ताहरे (सरणं के०) शरण करवा योग्य (नय के०) Idl नधीज. केमके जे पोतेज बन्धनमा पड्या होय, ते सामाने बन्धनथी शी रीते छोडावे ? ॥१९॥ भावार्थ:-हे जीव ! आ जगत्मा रहेला सर्वे जंतु कदाचित् तहारं पालण पोषण करवा माटे, माता, पिता तथा बन्धुरूपे थयां छे, ने तेमणे करीने आ सर्व लोक पुरेलो छे, परंतु ते सर्वेथी पण आज सुधी |तहारं रक्षण थइ शक्यु नथी. माटे ते ताहरे शरण करवा योग्य पण नथी, कारण के, संसारना महा Je// दुःखरूप प्रवाहमां खेंचाता प्राणियोने, जेमां सारो कर्णधार [नावनो चलावनार] छे, एवी नौका [नाव] रुप' | जिनधर्म जे तेज, शरण करवा योग्य तथा ग्रहण करवा योग्य छे, पण माता पितादिक शरण करवा ] योग्य नथी ॥ १९॥ ____JainEducation intermaNPL10.05 For Private & Personal use only Marww.jainelibrary.org ION
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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