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॥उपजातिवृत्तम्॥ वैराग्ययथा इहलोके सिंहः इव मृगं गृहीत्वा मृत्युः नरं नयति निश्चयेन अंतकाले
भाषांतर शतकम्
सहित जैहे हे सीहो वे मियं गहाय । मच्चू नेरे णेई हुँ अन्तका ॥८६॥ न तस्य माता च पिता च भ्राता काले तस्मिन जीवितभागधारकाः भवन्ति
॥८६॥ नै तस्सै माया वै पिया वे भाया । कालेमि तमि ऽसहरा भवन्ति ।। ४३ ॥ ___ अर्थः-(इह) आ लोकने विषे (जह के०) जेम (सीहो के०) सिंह (मयं) मृग जे तेने (व० के) जेन [व शब्द PM नो अर्थ इव जाणवो ] (गहाय के०) ग्रहण करीने एटले पकडीने नाश करे छे तेम (ह) निश्चयथी (मच्चूके०) मरण | 5 जे ते (नरं के०) मनुष्यने (अंतकाले के०) आयुष्य पूरुं थये (णेइ) लेई जाय छे. (तस्स के०) ते माणसने (तमि के०) |
त (कालम्मि के०) समयने विषे एटले मरणनी वखते (माया के०) माता जे ते (व के०) वली (पिया के०) पिता
जे ते (व के०) वली (भाया के०) भाई जे ते (असंहरा के०) अंशमात्र पण धारण करवाने, एटले लगारमात्र पण | JE रक्षण करवाने ( न भवन्ति ) समर्थ नथी थतां ॥ ४३ ।।
भावार्थ:-हे जीव गमे तेवो धिरजवालो मनुष्य होय, तो पण अंतकाले मरणनी घणी वेदनाथो ते माणस hd Ka मृग जेवो निर्बल थई जाय छे, त्यारे तेने सिंहरूप काल पकडीने लइ जाय छे. ते वखते मनुष्यनां माता पिता, भाई
| इत्यादि कोइपण लगारमात्र राखवा समर्थ धता नथी. एटले गमे तेटला उपाय करे, तो पण तेने राखी शकतानथी ।
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2010_05
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