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________________ वैराग्य शतकम् ।।११६ ।। Jain Education Intern अर्थ - (जीवो के०) जीव जे ते (संसारे के०) संसारने विषे (सारीरा के०) शरीर संबंधी (ब के०) वली (माणता) मन संबंधी (जावंति के०) जेवलां (केवि के०) कोइ पण (हुक्खा के०) दुःख छे, तेने (संसारकनारे के०) सस:ररूप अटवीमां परिभ्रमण करतां आ जीव सर्वे दुःख सहन करो आव्यो छे. ॥ ६४ ॥ भावार्थ - आ संसारने विषे दुःख वे प्रकारनां छे, एक शरीर संबंधी रोगादिके करीने दुःख छे, अने बीजुं मन | संबंधी इष्ठ वस्तुना वियोगादिक थकी दुःख छे. ते सर्वे दुःख आ संसाररू अश्वीने विषे भ्रमण करना, आ जीवे अनंतीवार भोगव्यां छे. ॥ ६४ ॥ तृष्णा अनंतकृत्वः संसारे तादृशी तव आसीत्नर के हा अतखुतो । संसारे तारिसी तुम आसी ॥ यां तृष्णां प्रशमितुं सर्वोदधीनां उदकं न तीरीकुर्यात् न समर्थभवेत् ॐ पर्समे वो । दहीमुदयं ने तिरी ॥ ६५ ॥ अर्थ - हे जीव ! (तुमं के० ) हने (एहा के०) तृष्णा. अर्थात् तृषा (तारिसी के०) ते प्रकारनी (अनंतखुत्तो के ० ) अनंतीवार (संसारे के०) नरकरूप संसारने विषे (आसी के०) उत्पन्न थइ हती. (जं के०) जे तृषाने (पसमेउं के० ) शमाववाने अर्थे (सव्वोदहीणं के० ) सर्व समुद्रोनुं पण ( उदयं के०) जल जे ते (नीरिजा के ० ) नं समर्थ था !!!||६५॥ आ प्रकारनो अर्थ प्रथम नरकनी वेदनामां कही गया छोए, माटे पुनरुक्ति दोषनुं निवारण करवा माटे आ 2010 05 For Private & Personal Use Only भाषांतर सहित ॥ ११६ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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