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________________ वैराग्य भाषांतर सहित | ॥११७॥ | प्रकारनो भावार्थ जाणवो. के हे जीव ! तने अनंती तृष्णा उत्पन्न थइ ठे, ते तृष्णा शमाववाने माटे, सर्व समुद्रोनां STORIES/ पाणीनां बिंदु जेटलां धनादिकवडे पण तहारी तृष्णा पूरी थाय नेम नथी. को छे के: यत्पृथिव्यां वी हियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ॥ नालमेकस्य तत्सर्व । मिति पश्यन्न मुह्यति ॥ १ ॥ ॥११७॥ अर्थ-सघली पृथ्वीमा उत्पन्न थएली अनेक प्रकारनी डांगेर तथा अनेक प्रकारना घडं अने जव विगरे स | धान्य, जो एक जणने प्राप्त थाय, तो पण तेने धान्य संबंधनी तृष्णा पूरी न थाय. तेमज सघला जगत्मा रहेलं हीरा | | माणेक. मोती, सोनु, रू' विगेरे धन, एक पुरुषने प्राप्त थाय, तोपण ते पुरुषनी धन संबंधिनी तृष्णा पूरी न थाय. | तेमज जगत्ने विषे जेटला हाथी, घोडा, उंट, बलद, गायो, भेशो विगेरे चतुष्पद जीवो छे, ते जो एक जणने प्राप्त थाय, तोपण ते पुरुषनी चतुष्पद संबंधी तृष्णा पूरी न थाय. तेमज जगत्ने विषे रूपालीमा रूपाली देवांगनाओ vel तथा महोटा महोटा राजानी राणीयो तथा महोटा महोटा धनाढ्यनी स्त्रीयो जेवी के, अत्यंत लावण्यवाली अत्यंत रूपवाली, अत्यंत गुणवाली अने संदर सगंधीवाली एवी जवान स्त्रीयो जो एक पुरुषने प्राप्त थाय तोपण, ते पुरुषनी | स्त्री संबंधि तृष्णा पूरी न थाय. ए प्रकारनो विचार करीने जे डाह्यो पुरुष वैराग्यने पामे छे, तेज पुरुष संसारने | | विषे मोह पामतो नथी. l माटे हे आत्मन् ! उपर कह्या प्रमाणे तुं अनंतीवार विषय भोगवी चुक्यो छे, परंतु जे सुखनो तें एक वखत Jad] पण अनुभव नधी कर्यो, एवा आत्म सुखनी प्राप्तिने विषे उद्यम कर ! ॥ ६६ ॥ Jain Education Intern 2010 05 For Private & Personal Use Only ww.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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