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________________ वैराग्यशतकम् ॥९१॥ Jain Education Intern विगेरे एम जाणे छे के, महारो दीकरो जवान थशे एटले महोटो थशे, एम समजे छे, परंतु वास्तविक रीते विचाएतो, ते दिवसे दिवसे नहानो थाय छे. केम के, तेणें जेटलं आयुष्य बांध्युं छे. तेमांथी तेलो काल उछो यो. एजतना विपरित ज्ञानना वेगे चढी जवाथी आ जीव समजतो नथी, माटे ग्रंथकार कहे छे के, हे पापजीव ! एटले हे पापरूप थड़ गयेला प्राणिन् ! आ कछु तेवु अस्थिरपणुं देखीने पण तु हजु केम ब्रझतो नथी ! ॥ ४५ ॥ ॥ आर्यावृत्तम् ॥ अन्यत्र अन्यगतौ मताः अन्यत्र गेहिनी परिजनोऽपि अन्यत्र अन्त्य सुआ भव्य । गेहिणी परिअंगोऽवि अनंत्य || भूतभ्यो वलिखि कुटं प्रक्षिप्तं हतकृतांतेन भूअलिव कुंडुवं । पवखेत्तं ह्यकेयंतेण ॥ ४६ ॥ अर्थ - (कण के० ) निंदा करवा जोग्य एवा जे यमराज (माटुं कर्म) तेणे (कुदुयं के०) आंगल कशे एवा, सर्व कुटुंब [भूअल के० ] भूतने जेम बलिदान आपे, एटले जेम बाकला छुट्टा छुट्टा फेके, तेम (सुआ के०) पुत्र पुत्रीयोने (अन्नस्थ के ० ) अन्य गनिने विषे, तेमज (गेहणी के०) वल्लभ स्त्रीने पण (अन्नस्थ के०) अन्य गतिने विषे. तेज (परिणोऽवि के ० ) परिजन ने एटले परिवारने पण [अन्नस्थ के] अन्यगतिने विषे (परिकसं के०) पहोंचाडयां छे. अर्थात् पुत्र, पुत्री, स्त्री, अने परिजनादिक सर्वने जूदी जूदी गतिमां फेंकी दीघां है. 2010 05 For Private & Personal Use Only भाषांतर सहित ॥९१॥ www.jainalibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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