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________________ भाषांतर REI नो त्याग करीने चाली निकल्यो. ए जाणीने अहं ममत्व न करवो. बैराग्य गजकर्णवचंचलाः लक्षम्यः त्रिदशचापसदृशं चंचलं शतकम् सहित गयकन्नचंचलाओ । लथिओ तिअसचावसारित्थं ।। विषयमुखं जीवानां बुध्यस्व रे जीव मा मुद्यस्त्र विसयसुहं जीवाणं । बुझसु रे जीवं मा मुंज्झं ॥ ३७ ॥ अर्थ:-(जीवणं के०) जीवोनी (लथिओ के०) लक्ष्मीयो जे ते (गयकन्न चंचलाओ के०) हाथीना कान जेवी 24 चंचल छे. अने (विसयसुहं के०) विषयसुख जे ते (तिअसचावसारित्यं के०) इंद्रना धनुष (आकाशमा लीलां पीलांpal धनुषनी आकृतिवालां वादलां देखाय छे ते) सरखां चंचल छे. ए हेतु माटे (रे जीव के०) हे मृढ जीव ! (बुझसु के०) Ka बोध पाम. अने(मामुन्झ के०) मोह न पाम. केम के, फरीथी आवी मनुष्य देहादिक सामग्री मलवी घणीज दुर्लभ माटे धर्मने विषे बोध पाम. ॥३७॥ भावार्थ:-रे आत्मन् ! जे लक्ष्मीओने देखीने तुं अहंकार धारण करे छे के, आ लक्ष्मी जीवतां सुधीमां महारी पासेथी जवानीज नधी; परंतु ए लक्ष्मीयो हाथीना काननी पेठे चंचल छे. केम के, थोडा काल उपर से जेओने मोटा dil | धनाढ्य दीठा हता, तेओज कर्मना वश थकी थोडा कालमां दरिद्र थएला तहारा जोवामां आवे छे. माटे लक्ष्मीओk CADEMONOCADDELhor एमपीएससीमार Jain Education Inter 2 010_05 For Private & Personal use only pw.jainelibrary.org
SR No.600040
Book TitleVairagya Shataka
Original Sutra AuthorPurvacharya
AuthorGunvinay
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size9 MB
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