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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાન ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૨૧૮
ન્યાયગ્રંથ
'તાર્કિકરક્ષા સાર સંગ્રહ
': દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરિજી સમુદાયના દીક્ષા દાનેશ્વરી પૂ. આ. શ્રી ગુણરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા. તથા . આ. શ્રી રસિમરત્નસૂરિજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી
શ્રી જિનગુણ આરાધના ટ્રસ્ટ
જ્ઞાનખાતામાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૨
ઈ. ૨૦૧૬
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
-टी515२-संपES 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
पू. मेघविजयजी गणि म.सा. | 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 015 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 | જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | 028 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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013
018
020
हार
454 226 640
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034
().
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30 | શિન્જરત્નાકર
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री प्रासाद मंडन
| पं. भगवानदास जैन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ पू. लावण्यसूरिजी म.सा. | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ પૂ. ભવિષ્યસૂરિની મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા 038 તિલકમશ્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 તિલકમગ્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી સપ્તભફીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
| સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ 044 વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી 054 | જ્યોતિર્મહોદય
સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
228
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(04)
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ (४-भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तडी www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड झरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ
ભાષા
र्त्ता-टीडाडार - संपा
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
ક્રમ
055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प
057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
| 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश)
062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
067
068 मोहराजापराजयम् 069 | क्रियाकोश
-
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
072 | जन्मसमुद्रजातक
073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
सं
.:
सं
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
| श्री धर्म
श्री धर्मदत्तसूर
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य
सं
सं
गु.
सं
सं
F
सं
सं
सं
शुभ.
सं
सं/हिं
सं.
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
श्री अंबालाल प्रेमचंद
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
પૃષ્ઠ
296
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164
202
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406
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128
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075
076
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २
082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3
O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨
084 ल्याए 125
ORS विश्वलोचन कोश
086 | Sथा रत्न छोश भाग-1
0875था रत्न छोश भाग-2
હસ્તસગ્રીવનમ્
088
089
090
એન્દ્રચતુર્વિશનિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
शुभ.
शुभ.
गुभ.
गुभ.
शुभ
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
सं.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
गु४.
शुभ.
गुठ
शुभ,
गु४.
सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा
गुभ.
गुभ.
सं
सं.
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम
कर्त्ता / टीकाकार
संपादक / प्रकाशक
91
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग - १
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग - ५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
क्रम
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ 118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १
123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - ५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 विजयदेव माहात्म्यम्
पुण्य
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर
सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
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सं./अं
सं.
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सं.
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हिन्दी
सं.
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सं.
सं.
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
अरविन्द धामणिया
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
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272
240
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754 84 194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब
गुज. | साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. | हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. ब्रज. बी. दास बनारस 133 | | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसुरिजी
गुज. यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. | शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी | गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151| सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. ब्रीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय
सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274
168 282
182 384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
|
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122
208 70
310
शा
462 512 264
| तीर्थ
144 256
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण
| संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156| प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव
| पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत | पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास । तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी
संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय
गिरिधर झा
न्याय संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम्
पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध
शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
75 488 | 226 365
संस्कृत
190
480 352 596 250
391
114
238 166
368
88
356
168
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
Page #10
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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REPRINT FROM THE PANDIT.
तार्किकरक्षा | श्रीमदाचार्यवरदराजविरचिता ।
तत्कृत सारसङ्ग्रहाभिधव्याख्यासहिता ।
महोपाध्यायकोलाचलश्रीमल्लिनाथसूरिविरचितया freeveerorer व्याख्यया ज्ञानपूर्णनिर्मितया लघुदीपिकाख्यया टीकया च समन्विता ।
वाराणसीस्य राजकीयप्रधान संस्कृत पाठशालीय पुस्तकालयाध्यक्षेण पण्डित विन्ध्येश्वरीप्रसादद्विवेदिना संस्कृता ।
वाराणस्याम्
मेडिकल हाल्नामकयन्त्रालये १९०३ ईसवीयवर्षे
मुद्रिता ।
घ -
- No. 1, Vol XXV. — January, 1903.
३५
Page #12
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________________
3 &
Page #13
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॥ श्रीः॥ ॐ नमः परमात्मने । सटीकतार्किकरक्षायाः
भूमिका। माधवाचार्याणां सर्वदर्शनसङ्ग्रहे(१) पूर्णप्रज्ञदर्शननिरूपणे(२)
(१) पशिटिक्सोसाइटीसमादेशेन कलिकातानगरे मद्रिते सर्वदर्शनसङ्ग्रहपुस्तके तन्मलतया मुद्रिते पुस्तकान्तरे ऽपि समाप्तावेचं लिखितमस्ति । “इतः परं सर्वदर्शनशिरोमणिभतं शारदर्शनमन्यत्र लिखितमियोपेक्षिमिति।" पदमेवावलम्ब्येदानों विद्वांसः कल्पयन्ति यत् शारदर्शनं पञ्चदशीयन्ये तथा विवरण प्रमेयसङ्ग्रहयन्ये च माधवाचार्य संन्यासाश्रमे नाम्बा विद्यारण्यस्वामिना लिखितं तस्मात् सर्वदर्शन संयहस्य पञ्चदशीग्रन्येन विवरणप्रमेयस हेण च सम्बन्ध इति । किंतु धाराणसीनिवासिनीयुक्तबाबगोविन्ददासमहोदयानां निकटे वर्तमाने सर्वदर्शनमाहान्तिमभागे पातज्जलदर्शननिरूपणानन्तरं शारदशंननिरूपणस्य विद्यमानत्वादनुमीयते मुद्रितपुस्तकमूलभूतलिखितादर्शपुस्तकस्य परमादर्शपुस्तकम्य वा खण्डितत्वात् “इतः परं सर्वदशनशिरोमणिभत"मित्यादिलेखो लेखकगोधकल्पितः, सर्वदर्शनसंग्रहलेखशैली. भित्रशैलीकत्वात पञ्चदशीविवरणप्रमेयसंग्रहसम्बन्धोऽप्यसङ्गत एति । | জবিন নাজিয়ামযিঘনাথন মঘনঘিামাঘ মাখাचार्यकृतसर्वदर्शनसङ्ग्रहस्य व्याख्यामिति धर्णन्ति । तदप्यदर्शनमलकम यत एलएल. डी., सी. आई. ई. उपाधिधारिणा राजेन्द्रलालमिया नोटिसेस् आफ संस्कृतमेनुसनफ्ट्स पुस्तके १८४७ संख्यायां तन्यस्य वर्णनं लिखि. तमिति । सोऽपि सन्यो माधवाचार्यशतसर्घदर्शनसंपहषदेव बोध्यः ।
(२) एशियाटिक्सोसाइटोमुद्रितपुस्तके 60 पृष्ठे ।
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सटीकतार्किकरक्षायाः
wwwwwwwww
wsapna
"तार्किकरक्षायां ९) च । धर्मस्य तदतपविकल्पानुपपत्तितः ।
धर्मिणस्तद्विशिकृत्वनको नित्यसमा भवेत् ॥" इति लेखदर्शनात् कोसौ तार्किकरक्षाग्रन्थः केन चाचार्येण रचितो यो हि वेदभाष्यादेः प्रणेतृभिमाधवाचार्य(२)रुइत इति पर्यालोचयता मया चिरं तदन्वेषणे कृते भूतपूर्ववाराणसीस्थैविदरैः श्रीहरिकृष्णव्यासैः सम्पादित तज्येष्ठ सूनुश्रीविद्याधरव्यासेन दत्तं वरदराजाचार्यकृतताकिंकरक्षापुस्तक(३) तत्कृततयाख्यानसारसङ्ग्रहपुस्तकं (४)
(१) अन्न मुद्रितपुस्तके पृष्टे ३०० । (२) सर्वदर्श नसड्यहारम् ।
" श्रीमत्सायगानुराधाब्धि स्तुभेन महाजमा कियते माधवार्य सर्वदर्शनप्ताङ्ग्रहः ॥
पूर्व पामतिदुस्तराणि सुतरामालोझ शास्त्राण्यसो ... श्रीमत्सायणमाधम प्रभुरूपन्यास्थत सत प्रीतये ॥” इत्यादि।
স্বাযযালাৰাৰায় সাহান্নাঘাষমাথাलमाधवजैमिनीयन्यायमालाविस्तरादियन्याः प्रणीता इति नेवतिरोडि. तमस्ति विदुषाम् । . (३) पुस्तकमिदं कागजाख्याधाएँ प्राचीनदेवनागरातः कुटिलेतिसिद्धलिखितं विशुद्ध मूलमाचं समा र्णम् ।
| () বুদ্রমভি মঈনুন। অগ্রজ কক্সম নিবন্ধায় ঘর্ম লিপ্পি " संवत् ५७ श्रावणसुदि २” परन्तु संवत् १४५७ इति बोधः निरूप्यमा
लघुदीपिकापुस्तकान्ते लेखोन लिपिकालस्य " संवत् १४५८ वर्ष वैशाख(ख)श.२" एवंलिखितत्वात तयोः कागजाख्याधारस्य लिपेश्चै काकारस्वादेशलेखकलिखितत्वाच। . .
Amounाबाद
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भूमिका ।
ज्ञानपूर्ण विरचितलघुदीपिकाख्यत हिप्पणपुस्तकं (१) च ल
व्धम् ।
तलध्या जानोत्साहेन मया व्याख्यानान्तरान्वेषणे कृते एकस्य वृद्धस्यामत्सम्बन्धिनेो गृहे ब्राह्मणसम्पादनीयत्वेन (२) स्थापितेषु वस्तुषु संख्यापूरकत्वेन निक्षिप्तेषु दुर्दशापन्नेषूत्तमेषु हस्तलिखित पुस्तकेषु हठादाकर्षितेषु भूयोभूयेा निवार्यमाणेन मया कोलाचलमल्लिनाथसूरिकृतस्य निconverter fire सारसङ्ग्रहानुगततार्किकर चाव्याख्यानस्य पुस्तकं प्रथमपरिच्छेदमात्रं ( ) लब्धम् । तदनन्तरमस्यैव ग्रन्थस्य पुस्तकान्तरमपि वाराणस्यामेवैकस्य संन्यासिनो निकटे वर्तमानं कृमिभक्षितसर्वदेशं विशीर्णमन्ते खण्डितं च (४) लब्धम् । अनन्तरं वाराणसीस्थराजकीयाङ्गलपाठ
(१) हृदमपि सम्प किन्त्वनेकस्यलेण्व लग्न पाठमशुद्धं च । (२) अध्ययनाध्यापनादिब्रह्मणधर्मः स च पुस्तकेन विना न भवतीति पुस्तकं शालग्रामशिलासमीपे स्याप्यं वा गङ्गायां प्रक्षेपणीयमिति तस्य वृद्धस्य सिद्धान्तः ।
(३) दहं पुस्तकं कागजात्याधारे देवनागराक्षरैर्लिखितं जीर्ण त्रुटितपार्श्वभागं स्पशीनर्हमशुद्धम् । श्रात्र यद्यपि लेखक्रेन लिपिकाला न लिखितस्तथापि जीर्णत्वादयाकारेणानुमीयते यत् वर्षसार्द्धशतद्वयात पूर्व लिखितमिति ।
(४) अनारम्भपत्रस्य पूर्वपृष्ठे एवं लिखितमस्ति 'श्रीसर्वाधियानिधानकवीन्द्राचार्य सरस्वतीनां धरदराजीयटीका निष्कटिका पुस्तकम् ॥" एवं हस्ताक्षरमुद्रा चिह्नितान्यनेकानि पुस्तकानि वाराणस्यां कचि द्वेशान्तरेष्वपि महापुस्तकालयेषु वर्तमानानि दृश्यन्ते । तस्मादनुमीयते यत् वाराणस्यां कोऽपि महान् पुस्तकालय उक्तमहात्मन ग्रासीदिति ॥
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| গাজনার দুত্তিাঘাবল অবিভাগীহামিথাঠিন্য জন শাহভুলি লাহিঙ্গাল গলাহিঙ্গ(৭) জন্য অভিনন্দীহীলাঅঙ্গাঙ্গি দাখিল সাজি মহিভাগ ) সম্বলু।
fলাম্বিয়া । জ্বালল সী স্তুজা সাহাখিল মুক্ষী স্বাহা তাহসিন্ধীজুলহাতাশালা মলহান্য স্ত্রী লালু হানিনাস্থলাহাআলা লিগায় । বলম্বা ঘূৰ ৰিজালীলাক্ষাদা অ জাহিল মহঃ জ্বি না লিঙ্গালআলু ক্ষাবিলাখানিখিলাল ক্লালিন স্থানী সুন্নি আলু।
থাকল স্বল সাথে সালঃ লালাহ সুহ্মাহ ভঙ্গ লমঃ মাহি। দুষ্ট গুণান্বিক্ষই নাথি শহীঘল
আৰুলত্মা স্ব স্বীকাহালক্ষুণোদালাভা . . স্বীকৃষ্ণু, ভ, মাহাত্মঘানি লিভক্ষাবৃক্ষ অক্সক্স(জুলা)ঘভালুবন্ধা
স্তু লাহাবঃ দ্ৰুত্ব সৰু লালাযিল। নল হনথিভ নলহিলাথি অহল্লাহাঃ কালিগীগুল্মাত্মা থালিঃ ।
Mensation=sinessmaniramasonenesmeusesseeee eeeeeeesomessio
হচ্ছে।
(৭) মঙ্গলাফল দ্বিজাল নলিনি। হ ম ৭৭ । গাহিনীর ৭৪ ইহা লিনিয়ম গুদষ্ট গন্যমান্য লাল মাথমন মহানা থাবার্থ গ্রন্থকাঠা ।
(২) ক্ষ যাথি লক্ষ্মল সিথিহ্মালা ল লিমিদ্যাথি ভীষ্টস্বাস্থরাঙ্গাবালীঘন ঘন দু লিয়িনাল গ্রাম: দুৱঙ্গ।
হলে remares
-লজকে জানোনয়ন পেশোয়-অর-খাল-বিকাশে
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मिका । अत्र वाराणसीस्थराजकीयसंस्कृतपाठशालीयन्या
কই শুনা मिना प्रपत्रसमालोचनया उपकृतोऽस्मि ।
एतावतापीदं मुद्रितं पुस्तकं विशुद्ध जातमिति वक्तुमशक्यं किं त्वस्मिन कार्ये ऽननुभूतपूर्वजातीयो महानाऽऽयासः कृता मयेति ।
प्रथमपरिच्छेदस्य ज्ञानपूर्णकृता लघुदीपिकादीका स्वन्ते मुद्रिता भविष्यतीत्यादर्शपुस्तकस्यापाततो दर्शनेन पूर्व प्रतिज्ञातम् । किं तु पश्चात् सम्यक्समालेचनेनादर्शपुस्तकस्यात्यन्ताशुद्धत्वं त्रिस्थलेषु ग्रन्थनुदि चावगम्येदानी तन्मुद्रणं साहसं मन्यमानेन मयापेक्षितमित्यादशान्तरदानेनानुग्राहोऽहमुत्साहवर्धकैर्देशोपकारपरैः पुस्तकान्वेषकैः पुस्तकोडारकैर्विरैयतो द्वितीयसंस्करणे तसम्पन्नं भवेदिति ।
दुर्लभेन पुरातनेन न्यायदर्शनानुरागिजनानन्दवर्धकेनामुना निबन्धेन भनस्तावद् विनादयन्तो बिवरा मामकीनं परिश्रममिदानी सफलयन्तु इति जगदीश्वरं प्रार्थय इति ॥
सटीकतार्किकरक्षायाः प्रणेता प्राचार्यवरदराजश्व(१) कस्मिन् देशे कस्मिन् काले आसीदितीदानीपर्यन्तं
(१) अपरेऽपि वरदराजा वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीप्रणेतृणां भट्टोजिदीक्षितानां शिष्य आसीन् । अनेन सासिट्टान्तकौमुदी लघुसिद्धान्तकौमुदी मसिद्धान्तकौमुदी च रचिता । यधाह मध्यसिडा. লনা ।
'मत्वा वरदराजः श्रीगुरुन् भट्टाजिदीक्षितान् । करोति पाणिनीयानां मसिद्धान्तकौमुदीम् ॥”
0
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বীনাজিজামা: - ফলাফানালীগিদ্রেক্ষায ৫ খ্রীনিলিখিতমখাজাল ফিৰিম। স্বাহালকা স্ত্রী ফলদন। জ্ঞান অলিস্তিতীক্ষা নিনজাযাল মীম। মুখ লুকাজ্জিীনিল। মা যখনী । ১া ভিবিনযাখ ৭৩-৭৩৭ স্বাক্স: ঘনঘন হিজল গাছ মোহাম্মঘাল নিমনা বান্নাঘবৃথিভযান খাজা।থাগলাম যল * মাজিদিনমান।যমান্য রূহুলনা: খুলকা: চুদন: ননন ল াহ্মাহাতাজা মামলায়হে নিই মনন রনি বহুল নীতিন জায়াহান মুমিঘায় ২৪ ফুট লিলি। গ্লন যা মাজীনিল দাযিলদ অনায় মলাহায়না লাঘবৃথিভাষাভ মী ঐনি ভুল ঞ্জিনী দ ন দুশি।
বি লায়ন বাসীসালানাথ “ফিীলিমএলাকমান’স্থিনি নাঘল সায়লা ৫ স্মীয় জান্নাসাকি গ্রীলুল্লাযীলিমাৰিশ্ৰস না লাহাগা ভাৰস্ত্রীদিনায়ঃ । লঘু হলুন ‘‘মালিনীকানবালানিনাৰণি - আন” মুনি লগলা জীঘিনা মালিনীঘিনালা যায়। নালজালিঙ্গা নাগাসল ২ য়া কান্না কায়স্থ বাঘবজনাক্স ৭ss ইন্দ্রাভিনা মানা না নাজিল জাভাষি মনন চললত্ব ঘঃ ঘা: মুত্র লিখিতন। চলন ক্রয়লাল জামা না হয়। নই লাঘৰন য যন্ত্র প্রায় নিভিয়
| মাযমাদীয়মামলীqনাল ঘান্নাঘ নয় - गणितपुस्तकस्ति तच्च पुस्तकं ग्रन्टा कर्तुराजया लिखितं तथाश्चि ।
युगव मुनगभूघर्ष १७८४ शुचिश युतथा रोवारे। অফিল্লাহ্মমবি: জিল মা তা না না না ॥ মিনিমামঙ্গল লাইল সদাশিৱন্ত শানি মিনি ব্যাখ্যঙ্গচ্ছিযা লিখিন সামারামখান্তিমি:।
महामहोपाध्यायदुर्गाप्रसाढस्तु काव्यमालामुद्रितरसगङ्गाधरभूमिकायां गृष्ठ १६२८-१६६६ खस्ताब्दे शाहजहाभिचयवनसार्वभौमसमये जगन्नाथ समाजा भिन्नस्य জালাযিনালয় তিনি নিয়নি। স্থানীয় সরলা যেন নমিনি।
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भूमिका ।
सम्यङ्कनिश्चयो न भवति किं तु ग्रन्थान्ते
"आलोब्य दुस्तरगभीरतरान् निबन्धान् वाचस्पतेरुदयनस्य तथापरेषाम् । सारो मयात्र समगृह्यत धावदूकैर्नित्यं कथासु विजिगीषुभिरेष धार्यः ॥ ७)
इत्युक्तत्वादुद्यनाचार्यकृतात्मतत्त्व विवेकन्यायकुसुमाञ्जलिप्रबोधसिद्धि (२) ग्रन्थानामनेकन्त्रोद्धृतत्वात् उदय
एवं
पचाङ्का अभिवर्तते तस्मात् तत्पुस्तकं नागेशभट्टपरिशो पहितं चेत्यनुमीयते । एतेनापि १६७६- १२१६ संवत्सरकाले भट्टाजिदीक्षितानां स्थितिरासीदिति सुवचम् ।
अपरं च वाराणसीत्यराजकीयाङ्गलपाठालयाध्यापक पण्डित गणेशतपाठिनिक वर्तमाने सिद्धान्तकौमुदी पुस्तके लेखकलिखितेन लिपिकालेन संवत् १७३८ एतदात्मकेन पूर्वोक्ता स्थितिरविरुद्वैव ।
सामवेदीय कल्पसूत्र व्याख्याकारो वरदराजेो भिचः । यथाह "इति वामनाचार्यसूनुः कौशिकान्वयसम्भवो वरदराजः कल्प संवत्सरकल्प (१)व्याख्यां च पाठोऽयं वाराणसीस्थराजकीय संस्कृत पाठशालीयपुस्तके पत्रे वर्तते ।
अन्योऽपि वरदराजेो येन मीमांसाशास्त्रे नयविवेकटीकाख्यो महानिबन्धा रचितो यथाह "आत्रेयस्य श्री दर्शनाचार्यस्य शिष्यस्य श्रीरहना सूनावरदराजस्य कृतौ नर्याववेकटीकाया” मित्यादि । इदं पुस्तकं वर्षचतुःशत्याः पूर्व लिखितमिवाभाति वाराणसी स्यराजकीय संस्कृतपाठशालीय पुस्तकालये खण्डितं भग्नं तृतीयाध्यायमाचं वर्तते ॥
(१) श्रस्मिन् मुद्रितपुस्तके ३६४ पृष्ठे ।
(२) आत्मविवेकः १७९ | १८९ | १९४ | २०३ | पृष्ठेषु । न्यायकुसुमाञ्जलिः १०० पृष्ठे । प्रबोधसिद्धिः १८९ । ३०५ । ३५० पृष्ठे ।
४३
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सटीकताकिकरताया: नाचार्येण लक्षणाचलीग्रन्थस्य ६०६ शाकवर्षे (१०४१ संवत्सरे) प्रणयनात् १) ज्ञानपूर्णकृततार्किकरक्षाटिप्पणलघुदीपिकापुस्तकस्य १४५६ संवत्सरलिखितस्यास्मन्निकटे वर्तमानत्वात् १४५६ संवत्सरात् पूर्व १०४१ संवत्सरतश्च पश्चात् तार्किकरक्षाकर्तृवरदराजस्य स्थितिरासीदित्यत्र नास्ति। वादावकाशः।
विशेषजिज्ञासायां तु ज्ञानपूर्णेन लघुदीपिकासमासो "विष्णुस्वामिगुरुं नुमः" इत्युक्तत्वात् विष्णुस्वामिनः शिष्य इति कथितं भवति । यजेश्वरभट्टेन आर्यविद्यासुधाकरे २३१ पृष्ठ "ततः शहरमतानुयायिना यादवनामा(८) मातुलेनाध्यापितोऽयं रामानुजोऽभिनववैष्णवसम्प्रदायप्रवर्तको बभूव । अयमाचार्यों विष्णुस्वामिशिष्यसन्ताने गृहीतजन्मनो बिल्वमङ्गलस्य ३) पश्चादि"त्यादि लिखितम् । प्रपन्नामृतनामधेये रामानुजचरिते तु १०१२ शाकवर्षे (११४७ संवत्सरे) यादवाद्रि पर्वते नारायणप्रति
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(१) बनारससंस्थतसीरीजमुद्रिते ऽस्म छोधिने प्रशस्तपादभा. ध्यपुस्तके २ खण्डे ऽन्ते ।
নালোভুমিনীন থাহ্মানন। वर्षपदयनश्च सुबोधां लक्षणावलीम् ॥ (२) यो हि यादवप्रकाश इति पूर्णनाचा प्रसिद्धः ।
(३) बिल्वमङ्गलस्य लीलाशुभ इति नामान्तरम् । अनेन श्रीक्षध्याकामृत काव्य रचितम् ।
(४) प्रपन्नामृते ४४-४८ अध्यायेषु । अथ भक्तनगरे सार्दु शिष्यसडून निवसतस्तस्य स्वमदर्शनानन्तरं भगवन्मयंदुरणार्थ यादवादिग
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भूमिका ।
व आर्यविद्यासुधाकरे २२८ पृष्ठे विष्णुस्वामिन इतिहासनिरूपणप्रसङ्गे इदमपि लिखितम् "अयं च शङ्कराचापदवीचीनः ।" "यतेऽनेनाद्वितीय निराकार ब्रह्मप्रतिपादकं शङ्करसम्मत वेदान्तसिद्धान्तं प्रतिक्षिप्य साकारनप्रतिपादकं स्वमतं प्रवर्तितमिति माधवीया पर्वदर्शनसंमहाभिषग्रन्थाल्लभ्यते ।"
नीलकण्ठ भट्टकृतशङ्करमन्दारसैारभे तु "प्रात तिष्यशरदामतियातवत्या
मेकादशाधिकशतेोनचतुः सहख्याम् ।"
इत्युक्तया ३८८६ कलिवर्षे ८४५ वैक्रमसंवत्सरे शकराचार्यविभवः सिद्ध्यति ( । । एतेन ८४५ संवत्सरस्य च पश्चात् १९४७ संवत्सरात् पूर्व विष्णुस्वामिनः स्थितिरिति(२) सिद्धम् । अपरं च लक्षणावलीग्रन्थात् १०४१ संव
मनकथनम् १०१२ शकाब्दे चैत्रशुक्लचतुर्दश्यां रामानुजाचार्यस्तत्र नारायाप्रतिमां प्रतिष्ठापितवानित्यादि सर्व निरूपितम् ।
(१) प्रस्थानत्रयमाय्यकर्तुः शिवावतारस्य श्रीशङ्कराचार्यस्याविभीसजीवनचरितादिविषये बहवो विकल्पा ददानों दृश्यन्ते ते व परीक्षापूर्वकं न्यायवार्तिकभूमिकायां निरूपयिष्यन्तेऽस्माभिरास्तां तावत् । (२) यज्ञेश्वरभट्टेन आर्यविद्यासुधाकरे पृष्ठे २३४ "विक्रम संवत्सरकालस्य प्रयोदशे शतके मध्वाचार्यः समभवत् । गुर्जराधिपतेः कुमारपालाभिधस्य राज्ञो राज्यसमये सम्प्रदाय प्रदीपलता मध्वाचार्यस्य समुद्भव
नात् । विक्रमार्कसमयात् प्रगतेषु ११९८ नवनवत्यधिकैकादशशतोमितेषु संवत्सरेषु कार्त्तिकशुनदशम्यां कुमारपालस्य राज्याभिषेको बभूवेति प्रबव्यचिन्तामणिद्यन्ये मेरुतुट्टाचार्येण लिखितत्वाच्च ।" इति लिखितम् । भविष्यपुरा परिशिष्टे भगवदुक्तमाहात्म्ये २१ अध्याये तु
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“মন্ত্রোসী সমন না ক্লিনীযঃ।
কালামীয । ৰামঃ না !! ” | ব্রন লিখ্রিন হালালুজান সু মিয়া মহাহাহা মঙ্গ মানারি নিঃনালিনান মুন্ন হিমীনি জলাহি ৭০৪৭ লাখ ৫৭৪৩
বয়ান সু চি তামিলঃ হিনি ল স্নিায়নি। যা যামাজ: জুন মুনি মজিহায়ত্বখিহি - | লিল্লাহ্মাযহামজা লা মনস্থ কালে প্রায় অাঘনামালহা সহীঅল্লালঘলাদানায়নি। | মায়াব্যাপ্লিামাহ হি ছামাহনীযমাত্রলঐয়ি লিঘিনঃ। যন্ত্রথি আঙুষালাযাযাপ্লিনিকালা মাঘীমহাসুখমিলা সাজাবে বাধাগাদ নন্স, যাত্রাব্বাযাথা দু
সূন মায়ায মামুনুই লিঙ্কদিন ( নাহি ল এয়ান: জ্জি ন মহামান্য দক্ষ। স্থাৰা ননন হল, ললনায় মন্মিগ্রী অনন, যন্ত্র মানুষ মাত্রান নাযি দুষন্ধ সিৰাখা হিহি মন নি। | : নাযায়াধীশ্রাতক্ষীয় নয়।
তাসবিনাময়নাস্বাযা নয়, হাসানুলঃ কন ভুয়ারি মাত্রা নিয়নি।
द्वापरान्ते कलेरादी प्रोक्तः सङ्कर्षणोन य इति महाभारतादितविधया वतीणाऽनन्तमतिर्भगवान् रामानुजमुनिराव्रिह्ममीमांसासिद्धान्तप्रत्यवस्थानेन श्री गहमाचार्य ण सूत्राभिप्रायसंवत्या स्वाभिप्राय प्रकाशनादिति तत्सयूथ्यभास्कराचायायुक्तरीत्या যদিন নয্যি মাঘানক্লিাবৰাহ্মঘময় আত্মঘানালিল্লালনিনিয়ামাহা সিত্তাল লাল নিয়ে ১৪ানাৰায়ন। সুনিনিন্মামিনিনাভাব ন নিত্তাযযিনালা বন্ধানি নয়। বলা মুনি ন মাঠি৭ সা লৰি ন মিলানিসানিমিংমননৱগ্ৰানহাঙ্গন নয়া ভিল্লালননিতানালিল্লাহ। মুঘলীয়াহা স্মরি যামাল। zিয্যায়। তিনি নিনিনিফারমিন্যাধি হয়ন্ধিয়দারাব: ক্সামলান্ধীমিনি না সলিমায়ূঃ। জামানারা খাযঘুঘুড়লামাল ন সমসলিন। নয়। লায় নালিনি আমলাৱায়ি হ্মমদায় ল সমাধিঃ মুনি।
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भूमिका ।
११
त्सरे उदयनाचार्याणां स्थितिरासीदित्यप्युक्तम् । तस्मात् "वाचस्पतेरुदयनस्य तथापरेषा"मिति वदतस्तार्किकरक्षाकतरुदयनाचार्यसमयपश्चाद्भाविना वरदराजाचार्यस्य तथा अमात् किञ्चित्पश्चाद्भाविन एतत्समानकालिकस्य वा तार्किकरक्षाटीकालघुदीपिकाकर्तुर्विष्णुस्वा मिशिष्यस्य ज्ञानपूर्णस्य च १०४१ संवत्सरादनन्तरं ११४७ संवत्सरात् पूर्व स्थितिरासीदित्यनुमीयते ॥
वरदराजाचार्येण 'आलोय दुस्तरगभीरतरान् निबधान्" इत्याधुक्तत्वात् तार्किकरक्षाग्रन्थसमालोचनात् मल्लिनाथेन चापाद्धाते "इह खलु तत्रभवान् बालानुकम्पी वरदराजः सकलन्यायशास्त्ररहस्योपदिदिक्षया स्वविरचिततार्किकरक्षाश्लोकव्याख्यानाय सारसङ्ग्रहं नाम प्रकरणमारममाण" इत्याधुक्तत्वात् सिहं भवति यत् सूत्राणामतिसंक्षिप्तत्वात् भाष्यवार्त्तिकादिग्रन्थानां विस्तृतत्वाद्दरूहत्वाच न्यायसिद्धान्तसिद्धान् प्रमाणादिपदार्थान प्रथमतः श्लोकात्मकेन ग्रन्थेन निबबन्ध पश्चात् तस्याप्यस्फुटार्थत्वं विचार्य सारसंग्रहटीकाग्रन्थेन व्याख्यातवान् ।
केचित्तु तार्किकरक्षाग्रन्थं तर्ककारिकानाना व्यवहूतवन्तोऽदः पुरातनं न्यायप्रकरणं वरदराजाचार्येण स्वकृतया सारङ्ग्रहाभिधटीकया विशदीकृतमिति वदन्ति । तन्मन्दम् ज्ञानपूर्णेन लघुदीपिकायाम्
"पुरा वरदराजेन न्यायशास्त्रार्थसंग्रहः । कृतः परत्वता बुद्धा (?) पद्यानां दुर्ग्रहार्थताम् ॥
तेनैव रचिता व्याख्या सा च शास्त्रपदं गता। । ततस्तदर्थसिड्यर्थ करोमि लघुदीपिकाम् ॥"
इत्याधुक्तत्वात् । ।
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१२
सटीकतार्किकरतायाः
ग्रन्थोऽयमतीवोपयुक्तो यतो विस्तृतदुरूहशङ्कासमाधिवाग्जालाकाण्डताण्डवादिराहित्येन सरलरीत्या न्यायसूत्रभाष्यादिप्रतिपादिताः प्रसङ्गात् कणादसूत्रप्रशस्तपादभाष्यप्रतिपादिता अपि सर्वे प्रमाणादयः पदार्थी द्रव्यादयश्च पदार्थ अत्र परिच्छेदत्रये निरूपिताः । तत्र प्रथमपरिच्छेदे प्रमाणादयश्छलान्ताः पदार्थ निरूपिताः । द्वितीयपरिच्छेदे जातिपदार्थों निरूपितः । तृतीये निग्रहस्थान पदार्थ इति । अत्रत्या विशेषविषयास्तु मुद्रितात् पदार्थनिरूपणक्रमसूचीपत्त्रादद्वगन्तव्या इति ।
वरदराजाचार्येण न्यायकुसुमाञ्जलिटीकापि रचिता मल्लिनाथेन तार्किकरक्षाटीकायां ४६ पृष्ठे उक्तत्वादिति ।
सटीकतार्किकरक्षा टिप्पणलघुदीपिकाकारस्य ज्ञानपूर्णस्य समयस्तु यथेोपलधं निरूपितप्राय एव प्राक् । इदानीं freeण्टकाकर्तुः कोलाचलमल्लिनाथसू रेर्जीवनचरितविषयेो यथेोपलब्धि निरूप्यते ।
तब तावदनेके मलिनाथनामानो विद्वांसेो बभूवुः । तथाहि भोजप्रबन्धे (१) ।
"अन्यदा राजा कीडोद्याने रममाणः श्रान्तः चिरेण सहकार तरोरधस्तात् तस्थौ । ततस्तत्र सहकारतरुमूले
(१) वाराणसी स्यराजकीय संस्कृतपाठशालीयलिखित पुस्तके १७२ संख्यके १२५ पत्ते लेखोऽयं वर्तते । अस्मिन् पुस्तके लेखकेन लिपिकाल एवं लिखितः ॥ " श्रीसंवत् १८५४ आाबाठपुदि पूर्णमासी वार शनि लिखितं भोजप्रबन्ध धनीराम ब्राह्मण ।”
पण्डितजीवानन्द विद्यासागरेण कलिकातानगरे प्रकाशित पुस्तके ऽपि ६० पृष्ठे पाठोऽयं वर्तत इति ।
४८
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নাগাস্বত্ব সুললিস ?০ই স্পন্সल्लालसेनराज्यादा" इत्यादिलेखदर्शनात् १२१७ संवব, অজ্ঞা স্কুল ?০৩২ নম্বী স্মৃঘিত্বকাল
(१) इतिहाससंशोधकास्तु बल्लालसेनस्य पुत्तो लक्ष्मण सेन इति লিথযালন। মগ্ন হন না মানা লালনযিনি ১লা’ মুনি লর অনালান। স্মরি সু মিয়া দুমনিন ০ ০ ন্যাঙ্গাষষ্য মামলায় ৭০০ গ্রাফাত লকুলব্যালয় স্কুল মান্না। লিফন বান্নানিभूमिकायामनुसन्धेयः ।
(২) দিয়াহিয়া খাল ষ্মান্ধী িন = মুভি,
বন্ধাতক্ষoisonoাতালেবক্ষোগজপ্রয়ংকালে মেয়ে ওঠলােক,
সঙ্গেণহত দহকোণ
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सटीकतार्किकरक्षायाः
राजसमये ) मल्लिनाथकविरासीदित्येको मल्लिनाथकविः ।
केचित्तु
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"मल्लिनाथकविः सायं मन्दात्मानुजिघृक्षया । व्यावष्टे कालीदासीचं काव्यत्रयमनाकुलम् ॥" इति रघुवंशटीकास्थश्लोकदर्शनात् कविशब्दसाम्याद् भोजराजकालिक एव रघुवंशादिकाव्यटीकाकारो महिलनाथ इत्याहुः । तन्मन्दम् रघुवंशादिटीकासुद्धतानां प्रन्यानां नवीनत्वात् । तचाग्रे निरूपयिष्यामः । अथापरोऽपि मल्लिनाथ आसीत् तथाहि सरस्वतीतीर्थ कृतायां काव्यप्रकाशटीकायाम् ( ) | “विधातुकामः सुकृतं गरीयः क्षमातलं स्वर्ग हवावतीर्णः ।
(१) भोजराज समयस्तु ९६४ शककाल इति महामहोपाध्यायसुधाकरोद्ववेदिना गणफतरङ्गियां ३१ पृष्ठे लिखितम् । भट्टवामनाचार्यकृत टीकासहित मुम्बईनगरे द्वितीयावृत्तिमुद्रिते काव्यप्रकाशपुस्तके भूमिकायां ५ पृष्ठे "भोजराजस्य स्थितिकालस्तु खुप्त रह६ वत्सरादारभ्य १०५१ वत्सरपर्यन्तः " ५०२२ मिते स्तवत्सरे भट्टगोविन्दसुताथ धनपति भट्टाय ब्राह्मणाय दत्तं दानपत्रमपि भोजराजस्य पूर्वी. तमेव स्थितिकालं स्पष्टं कथयति । तच्च दानपत्रं महामहोपाध्यायदुर्गाप्रसादेन प्राचीन लेखमालायामयि प्रसिद्धि प्रापितमिति तच्च दानपत्रं धाराधिपभोजराजस्यैत्र दर्शनादेव व्यक्तं भवतीति ॥ (२) भट्टवामनाचार्यकृतीक मुद्रिते काव्यप्रकाशपुस्तके भूमिकार मल्लिनाथ रघुवंशादिकाव्यटीकार मनाचार्यैः ।
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मुम्बईनगरे द्वितीयावृत्तिपृष्ठे लेखोऽयं वर्तते । नाथं कृषि निपितं तचैष भट्टवा
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বিশমিঃ হালকা লিঙ্গ শ্রীলহছিন শও। শৱম্বলি লক্ষনঃ রুক্ষ্মী মালালাগ্র হলি লামুতীক্ষ্ম সুল। : লালখাতামিনা ফালালি| যাননি শিক্ষা স্তু অখা । । তাজি সুজান খ্রহলাহি-আফিঙ্গা। সত্য কামুখীল্লা বা স্বাভা। ০। যাল লিখাহিঙ্গালাবী'TS
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(৭) হাঃ নলকুঘ: . - No. 2, VOL. XXV. - Fejruary, 1903.
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सटीकतार्किकरक्षायाः विरिञ्चे पर्यायो भुवि सदवतारः फणिपतेस्त्रिदोश दोषाणां सकलगुणमाणिक्यजलधिः। अवाचा पाचां वा सकलविदुषां मौलिकुसुम कनीयास्तत्सूनुर्जयति नयशाली नरहरिः ॥ १२॥ सवसुग्रह इस्तेन्ड ब्रह्मणा १२६८ समलते । काले १) नरहरेर्जन्म कस्य नासोन्मनोरमम् ॥१३॥"
एतेन आदेशे त्रिभुवनगिरिनानि नगरे वत्सगोत्रे १२९८ विक्रमवत्सरे नरहरिनामा विचर: समजनि तस्य पिता महिनाथ आसीदिति निष्पन्नम् ।
केचित्त अयमेव मल्लिनाथो नैषधचरितं विहाय रघुबंशादिपञ्चकापटीकां छकार मल्लिनाथपुन्लाभ्यां नाराय
नरहरिभ्यां नैषधचरितटीके चक्राते इति वदन्ति । तन्त्र थतः १२६८ संवत्सरादपि पूर्वकालवी मल्लिनाथ रघुवंशादिकाव्याटीकासु अर्वाचीनान नियन्धान कथमुद्धरेदिति । इदं सर्व वृत्तं मल्लिनाथेन नैषधचरितमपि व्याख्यातमिति चाग्रे प्रपञ्चयिष्यामः ।। । येन नारायणेन नैषधचरित व्याख्यातं सोऽन्यो नारायणा वेदकरोषनामको महालसानरसिंहपुत्रो नतुनागम्मामल्लिनाथपुत्री यथाह नैषधचरितटीकारम्भे
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(१) ब्रहति एकसंख्याबोधक्षम एकद्वितीयं ब्रह्मेति श्रुतः । জাল প্লিাসষ্ট-
সৰ নি জাল এনঃ বঃনীল হযেহ্যায় নি | सता ढीका कृतता कारणस्थयां तु विक्रम संवत्सश्लेखस्योल प्रचारात् अग्निমুঘলজ্জল লখিমাল জ্ঞয়স্কৃত্রিনিষ্টলত। স্কয়ারী মাসলায়ন্তঃমজি ।
হঠনষ্টছঃ
মাঃয়িলহোল ইনক্স মিষসীলা ক লিভিমান।
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"नत्वा श्रीनरसिंहपण्डितपितुः पादारविन्द्रयं । मातुश्चापि महालखेत्यभिधया विख्यातकीर्तःक्षित। श्रीरामेश्वरसीतयो सुमनसोपेारगा यथाबुद्धि श्रीनिषधेन्द्रकाव्यविवृति निमाति नारायण ॥"
नरहरिणापि नैषधचरितं व्याख्यातं सोऽन्यो नरहरिः यथाह नैषधचरितटीकाप्रथमसान्ते
“य प्रास्सूत त्रिलिङ्ग
क्षितिपतिसतताराधिताधिः स्वयम्भूः पातिव्रत्यैकसीमा
सुकविनरहरि नालमा यं च माता । यं विद्यारण्ययोगी
कलयति कृपया तत्कृता दीपिकायामायः सलिमाद्य
कविकुलविजयी चारू नीराजिताऽभूत् ॥इति।
mamanenshamiraranmainainamainama
ततश्चान्योऽपि मल्लिनाथ आसीत् । वाराणसीस्थराजकीयसंस्कृतपाठशालीयसामवेदोयराणायनिशाखीधारण्यगानपुस्तके (७ संख्यके) लेखकेनोद्धता यथा "संवत् १५६७ वर्षे चैत्रसुदि ४ बुधवासरे मझिआरी(१) * * * * *ष्ठ पुत्वमल्लिनाथपाठार्थे विश्वनाथसुत-आदित्येनालेखि।" पुस्तकमिदं कागजाख्याधारे आर्यावर्तप्रचलिताकारविशिशुदेवनागराक्षरैलिखितम् ॥
. (१) अस्मिन्नेव पुस्तके ५४ पन्ने “भारण्यकं समाप्तमिति" । | "मझिारीग्राम्" इति च लिखितमस्ति ।
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নীহ্মনজিন্ধা | লেলিথি ললিথ আলী। অস্ত্র সুময় তিনি জুলাফালাহ্মভূখীলফলাৰিহাজ - বিন্যায্যকৰজ্ঞায়িত অন লক্ষ স্থিত্মিা' (যু লিলি।
"संवत् १६०३ वर्षे आनन्दनामसंवत्सरे ज्येष्ठवादि ? জালা লি জ্বালানি হিমালা লাড়িলাখাল তাহাভিন ভিন অথক্ষার্থী লিখিললি ওলু।”
| নীথি নানাস্বা ল অ স্মিান্ধাহাঙ্গি লিখাঃ স্কুল অাহু ' তু লালাখা। 4াক বাপ্পি ? ২৪ লালিখা ত্মিঅহঃ । মুঃ আলালাশফি ঘাথালিত্বাবলু ৷৷” হালসুল ?99 লিঙ্গলবল ললিথ স্মলনি।
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| লালু ঘামলাগলাহিল লালশ্রণী ম্যালিশে জ্ব এলাহী ললিথ ফুলি লাল লাল সুক্ষার্মীক্ষা চাল্লিলাখঃ(৫) ঘূহ্ম জনঃ অানুষ্কা? মূলঃ লক্ষ দুৰ ললঃ ঘাবু জাহ বিঘা মাথা মিথ্যাঙ্গালুম্বিনি হিলিহাবলানা হাজহাদাयादीनामितिहासग्रन्थाद्वगतेरिति वदन्ति । तत्तपहासाবসু লিবিন লালিত্মালা জাবি সুখ সহ| (৫) মলিগ্রহালুয়াঘ “মা স্কালা সলিম ছিল মা
লম্বিয়ান ফিলান্ডাল হানা গাঃ হাঃ। ক্লম খান গ্রিলানি মন্ত্র +খান্য ভুল শুন্য। ৪। ৭৭৩। ডুয়াল লিনামিনি সুনহ ও মালায়া যয় স্ব মহিলাথা না ঘামান। হিনী হানয়ন দ্র জলায় দুন স্কুল ও মু।
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भीमका ।
म्भसमाप्तिवाक्येष जैनत्वानुपलब्धेः नाममात्रसाम्यादेव जैनत्वे गैतममहावीरस्वामिसंवादात्मकानां जैनागमानां दर्शनात् महावीरस्वामिशिष्यस्य गणधरस्य जैनमुख्यस्य गौतमस्यापि ब्राह्मणत्वापत्तेरहल्यापतिगौतमस्यापि जैनत्वापत्तश्च ।
A. C. Burnell. ए.सी. बर्नल महाशयप्रकाशिते वंशब्राह्मणे तु प्रतिपादितम् काकटयराज्ये १३१० ईसवीयवर्ष राजा प्रतापरुद्रदेवाभिध आसीत् तत्समये सरस्वतीविবালাফ আ ফুলি জুনি ঈস্বললাখ ৪ कुमारस्वामी निरूपयति ।
रामकृष्णगोपालभाण्डारकर, एम्. ए., पीएच्. डी., महाशयसङ्कलिते १८६७ इसवीयवर्षसम्बन्धिरिपोर्ट पुस्तके प्रतिपादितम् उत्कलदेशे १२८२-१३०० ईसवीयवर्षे नरसिंहराज आसीत् तत्समये विद्याधरेण एकावलीग्रन्थो रचितः स च मल्लिनाथेन व्याख्यात इति।।
Theodor Aufrecht's Catalogus Catalogorum. आखिटमहाशयसङ्कलिते सूचीपमाण सूचीपत्र पुस्तके २३६ पृष्ठे लिखितमस्ति आदित्यवर्मणः पुत्रो मल्लिनाथ: तत्पुत्र स्त्रिविक्रमदेवोऽनेन प्राकृतच्याकरणवृत्तिर्निर्मितेति।
अस्माभिस्त्वेवमनुमीयते । वाराणसीस्थराजकीयसंस्कृतपाठशालीये (१०० संख्यके) कोलाचलमल्लिनाथसूरिकृतकिरातार्जुनीयटीकाघण्टापथपुस्तके लेखकेन लिपिकाल: १५८० शाकवर्षों लिखितः(१) । तेनैव मल्लिनाथेन.
(৭) “ হন ৭০ জঘন্ন লিযন ছানা দানি সাঞ্জ वरिष्ठपक्षे द्वादशीपूर्वत्रयोदश्यां तिथी सायं सुरारिगुरुवासरे हरिहरेश्वर पुण्यत्तीर्यवासिनटभट्टात्मजकाव्यवक्तासुधीनारायणाभिधानेन गौतमी
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অনিহালালীগীকা৭) ৪ লাখ বাংলা ক্লালি ২০ মাস্বত্বাত্যাগ ৫ ঘণত্মকালী(২) হালাললাগি समासान्तमाहे"त्युक्तम् । पीयूषवर्षस्तु तत्त्वचिन्ताখালানীয়ঙ্কমলদ্বাহাত্মনাদ্ধাত্মিফল অনুনজালাল দিঘানাযাযঘদ্বিগ্রাসূন লিখ্রিনালন্দায়াষ্ট্র অৰহঘন্ধাহ।” জুনি নন্মময়ালিনী লিনিমা।
| (৭) যক্ষ্মানিনীক্ষাথঃ লীদাখিলীক্ষাঅহল্লাল্লল নল নালাগ্রন দ ন ত্যা প্রিয় মুখ ব্যায় হয়নি লিমিস ।
(২) স্বীয়স্বজন। জিনাতনীযঃীদ্ধা ন না:হাজাহ্মীযমানহালীমুনমুনাগাল ঘিাঠিনলয় হামযা নিই ক্ষী। স্থান মানাথনীক্ষাজী নু গীয়াই = গ্রোল “সদাহাই ” =ান দলীলাখন। স্মাদ্দাহাযজুলিনমুখী
নাম ফ্লাহ মাঘি জাৰি যিমাজলীয়জো ননন নাম যা নম ন নীন মিন্নাৱ: সুন্নালালীয়। | যান হরিন মালালাগনানিয়াল ও ফাৰৰ মন নিখ হলীলামনি ২ হাজ্জাল “ নাম ললাজৰীক্ষায় ময়মনন ‘ক্লিখানালা স্ফিক্স ৰিান্ধা প্রিন্থি: জিম নাহলঃ। =নি স্বযানুফল মল গুলা ঘৰৱৰ যুগ। ”নি যা । অয় স্ব জাহিলিনি সিযতাবিদ লিভিন: লালু যন্ত্র চাদন যন লাভলাঘমীদাঘন ৭৭২ লিনিয়াসহ: খ্রিন্যাশয্যে স্ব ৭৩৪০ ফাল নমাজগয়ে যায় যানিলা নাহালী জীযাগ
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(৫) অল্পীহা বা অমনীখিনিৰীয়া ৱিালয়যে “ যখলিলুলমনান” “ হামহােদ : ভালাে স্বমনি।” গন্ধয়া না হয় আমন্ত্রনাল্লা ভাল যা লয়: বয়ে মাই নিচ্ছি মামলায় রূক্ষ্মানি হজ্জ্বল দৃশ্য g। লালম্বি থানীনি প্রথম মুনি হ্মিসুলনী।
(২) হাইহিল জমি দায়ভ নল দি লীলায় গ্রিন্থি না মানহল মিঘিলাহাখি সাচ্ছ যুন্ম যুক্ত ছিল না | দ্বিমিনি মিলল সই হক্কায লুৱাথায় যা অন্যান্য না যা সান। মহাত্নার জন্য ১ৰীংঘ অন্তু "স্ট্রি হল অনু হই নিগ্ধজনভদ্রাঘি ন” মুনি মলিখালী বন্ধঃস্থন্নীতলা ওয়া জয়
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इति ताटी कान्ले बर्तले ।। প্রশ্ন এ জুলল নিন । যায়; যিম্মাগজিৎ'মঙ্গালই মনমান ব্ৰহ্ম ও ঘালি মালয় লিজিঙ্গালdল লিনিস্তান্।
সনম ৱিনৰনাৰ এল বিদায্য বিড়ালের তল স্যাল বিল| करीत्यपरनामधेयं मुक्तावलीनकाशाभिधे प्रणीतम् ।
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सटीकतातिरक्षायाः तथाहि चन्द्रालेाकारम्भे
" चन्द्रालेाकमयं स्वयं वितनुते पीयूषवर्षः कृती।" प्रथममयूखसमासावपि
"महादेवः सवप्रमुखमश्वविध्येकचतुरः सुमित्रा तद्भक्तिप्रणिहितमतिर्यस्य पितरी। अनेनासावा सुऋविजयदेवेन रचिते चिरं चन्द्रालेाके सुखयतु मयूखः सुमनसः ॥
झति पीयूषवर्षपण्डितजयदेवविरचिते चन्द्रा लाके प्रथम मयूखः ।।"
अन्ते
"पीयूषवर्षमभवं चन्द्राले मनोहरम् । सुधानिधानमासाध अयध्वं विबुधा मुदम् ।। তাহান আলিঙ্গন কাজললঃ
सन्तपीयूषवर्षस्या जयदेवकवेगिरः।" অন্যান্য মুদি াঅনাথাল "विलासे यहाचामसमरसनिष्यन्दमधुरः
হক্কাক্সিক্ষমুহল আকস্তি। कवीन्द्र काण्डिन्यः स तव जयदेव श्रवणयो
स्यासीदातिथ्यं न किमिह महादेवतनयः ।। पण्डितत्वं कवित्वं निबन्धकर्तृत्वं च भगीरथस्य विशाढे * सम्पन्नमासीदि. ति तस्यामि वृद्धत्वसम्मकिरातार्जुनीयटोकाया येरावने प्रणीतत्वे तदानों शिरातार्जुनीयटीकायाः ७५ वर्ष प्राचीनत्वकल्पनमपि सम्भवतीति ।
गीतगोविन्द कता जयदेवस्त्वस्माद्वित्र एवेति प्रसन्नराधभूमिकायां प्रतिपादितं. पण्डितगोविन्ददेवशास्त्रिणा काशीविद्यासुधानिधी ।
___विंशतिवर्षमिते वयसीत्ययः ।
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भूमिका ।
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लक्ष्मणस्येव यस्यास्य सुमित्रागर्भजन्मः | रामचन्द्रपदाम्भोजे भ्रमद्भृङ्गायते मनः ॥ नटः । एवमेतत् । नन्वयं प्रमाणप्रवणेोऽपि श्रूयते । तदिह चन्द्रिका चण्डातपयेोरिव कवितातार्किकत्वयेोरेकाधिकरणतामा लोक्य विस्मितेोऽसि &
सूत्रधारः । क इह विस्मयः ।
येषां कोमलकाव्यकौशल कला लीलावती भारती तेषां कर्कशतचक्रवचनाद्वारे ऽपि किं हीयते । यैः कान्ताकुचमण्डले कररुहाः सानन्दमारोपितास्तैः किं मतकरीन्द्रकुम्भशिखरे नारोपणीयाः शराः ॥ इति ।
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चिन्तामण्या लोकारम्भे च
" श्रधीत्य जयदेवेन हरिमिश्रात् पितृव्यतः । तत्त्वचिन्तामणेरित्थला लोकोऽयं प्रकाश्यते ||" एतेन जयदेव मिश्र एक (१) पीयूषवर्षपण्डितस्तार्ककः कविश्व | कास्य माता सुमित्रा पिता महादेवो गुरुः पितृव्यश्च हरिमिश्र इति निष्पन्नम् ।
भगीरथठक्कुरेण च द्रव्यप्रकाशिकायां द्रव्यकिरणाक्लीप्रकाशटीकायामन्ते
विंशान्दे जयदेवपण्डितक वेस्तकीब्धिपारं गतः श्रीमानेष भगोरथः समजनि श्रीचन्द्रपत्यात्मजः । श्रधीरातनयेन तेन रचिता श्रीमन्महेशाग्रजश्रीदामोदर पूर्वजेन जयतादाचन्द्रमेषा कृतिः ॥ " इति । (१) पितृव्यः पितुश्रीता स च मिश्रोपनामक इति जयदेवोऽपि मिनोऽत्र नास्ति बादावकाशः ।
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লিথিলাহা লক্ষ্য লালু প্ৰাহৰ হালালিত খুলঃ লুলা ভূলিহিল জু দই অঙ্খলা গৃহ লিখলার। {{ মাহ্মী লিঙ্কাঘিালা সুলাঙলাহয়। সালঃ হ্যাঙ্কুলা(ভিহিলাফল দায় স্বী । সুস্ব জললিনী = মানিন সুল। অাত্মত্মাহ আল লিথিয়াঃ ফুললিলঃ ॥ | অলকালি ঘানি অল্প স্বলন । গাছ গণঅফলাফলস্বৰ গাছস্ব স্ব নাইক্ষত্মহলাইল(৭) স্খান ত্যা | লিঃ হিসু বলুঙ্গস্বঃ । | স্বাত্ব দা ।
শ্ৰা অহালাল মুখ নীলাঙ্গ| কুহ অঙ্গাল ক্ষুি হই আঁঙ্গল কাব্য| অাজল লীলালুজাল অাল হালদা' মন্ত্রিস্থ (৭) “হাই হিলিয়ানজা মাছ ঋীলাঙ্গলা | নাজা নুর মুল অায় ক্ল: জানান।
দুনি ১৯ীঘলয় হিজাযী নুমালাম ম মানুষলায় সুনাহে লাদুন্নাথৰলাহ হ লন্য দুনি।
{২) মুল্য ছিল সুলালল দুলাজান অচল হুঙ্কাযি মন । ক্ষ্মা ‘স্নী গোলাথিয় হিজালাযন্ত্রযানমানযাত্রীসাম্বাজাজাহানালি কাব্যি: সুমন জুলকিা বিভিনালসিয়াম জালি? কিন্তু সি| ঘছিল। ক্লাহ মিষ স্নায়ু !” দুয়ারি। | জান্ধা লজ্জল লিহ্মিালা বর্ন নিন।
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भूमिका
"खगुर्णायुतेश्चन्द्रेये । जिते ऽब्दे १७३० तु वै। नमोऽग्नितिथी शुभे छाया हृदयनन्दने ॥ लिखितं नीलकण्ठेन दुर्गपुस्तं सटीककम् | लिखितं खलु घनेन यश्चारयति पुस्तकम् ॥
शूकरी तस्य माता स्यात् पिता तस्य च गर्दभः ॥” इति । मल्लिनाथवीद्रोऽपि महावैयाकरणोऽस्यां टीकायां प्रतिश्लोकं बहूनां पदानां पाणिनिव्याकरणेन साधुत्वं दर्शयति । कचित् कचिदेकस्यैव वाक्यस्य प्रकाशन्त रैनानाविधानर्थान् निरूपयति प्रमाणयति च तैत्तिरीयोपनिषदं भगवङ्गीतां व्यासं पाणिनिं याज्ञवल्क्यं मातृगुप्ताचायें मुरारिमिश्रममरकोशं विश्वकोशं यादवकोशं मेदिनीकरकोशं च । अस्यां टीकायां कस्यापि टीकाकारस्य नाम न लिखति कि तु प्रतिश्लोकं “कस्यचिन्मते” “अपर ग्राह" एवं रूपेण मनान्तरमुपन्यस्यति स च कश्चिदतिप्राचीनष्टीकाकारो यतस्तेन पाणिन्यम रहेमचन्द्र यादवतीरतहिण्यादयो यन्याः प्रमाणत्वेनोपन्यस्ताः ।
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परोऽपि वीरभद्र ग्रासीद् येन वात्स्यायनकामसूत्रव्याख्यानभूत आयच्छन्दसा निबद्धः कन्दर्पचूडामणियन्यो रचितः । कन्दर्पचूडामणियन्ये च भोजराजनान्न उल्लेखात् स्वस्य च वीरशब्देनोल्लेखनात् स क श्चिदनतिप्राचीनो राधिरान इत्याभाति । यथाह कन्दर्पचूडामणी ।
"अधिकरणे पञ्चम के कुरुते व्याख्या तृतीयके ऽध्यायें । भचक्रचक्रवर्ती वीरः श्रीवीरभद्रोऽसौ ॥
मनिकटे वर्तमान पुस्तकं चादान्तहीनम् श्राकारेण वर्षाणां त्रिशत्याः पूर्व लिखितमिवाभाति ।
परोऽपि दीक्षितभीमसेन आसीद् येन सुधासागर नामक काव्यप्रकाशव्याख्यानं १०७० वैक्रमसंवत्सरे कृतं चण्डीसप्तशतीव्याख्यानमपि । अयं च कान्यकुब्न इति मट्टीकादर्शनात् व्यक्तमवगम्यते ।
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सटीकतार्किक्ररक्षायाः १६३३ संवत्सरोऽपि पूर्वोक्ता मल्लिनाथस्य स्थितिं द्रढयति । तथाहि
तयाख्याने प्रथमाध्यायान्ते 'यो नित्यं गुरुपादपूजनरतः श्रीमल्लिनाथात्मजः क्षेमश्रीवदनाम्वुजाहिमकरः श्रीवीरभद्रो द्विजः । देवीचारूपदाब्जदत्तदयो लोकप्रियस्तत्कृता टीकायां किल चण्डिकानुचरिते ऽध्यायायमाद्यो
गतः॥"इति एवमेव द्वितीयतृतीयचतुर्थानामध्यायानामन्ते।।
पचमाध्यायान्ते तु "यस्मै वाग्वादिनीयं वरममलमदाच्छीभवानी पुनय । कारुण्यादात्मभृत्यं कलयति सुषुवे मल्लिनाथः सुतं यम । क्षेमश्रीवर्धयन्ती सुखमतुलसलं प्राप चाझे गतं यं तस्यागात् पञ्चमासा स्तुतिललितगुणाऽध्याय एवात्र
देव्याः ॥" इति । अमाध्यायान्ते तु "येन द्विजातिनिवहः समाहता वीरभद्रेण । तेन व्यधाथि देव्याधीकायाममोऽध्यायः ॥"इति।।
दशमाध्याकान्ते तु "शास्त्रयुक्ता जिता येन वीरभद्रेण वादिनः । तत्स्योटीकायाध्यायो दशमा गतः ॥"इति। ___ एकादशाध्यायान्ते तु "शब्दशास्त्रार्थसाहित्यच्छन्दोव्याख्यानकोविदः । यस्तेन वीरभद्रेण चण्डिकाविवृतिः कृता ॥"इति ।
समाप्ती तु "शास्त्रयुक्ता जिता येन वीरभद्रेण वादिनः । तत्पृदुगाटीकायां गताध्यायस्त्रयोदशः ।।
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भूमिका |
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यो वै भूपाल डामणिनिकरकरैरर्चिताङ्घ्रिर्द्विजेन्द्रः कागादे चाक्षपादे कपिलफणिपतिप्रोतो च तत्र ॥ वैयासे पाणिनीये प्रतिहतधिषणाऽलङ्कता काव्यमूले टीकां कृत्वाग्रगण्येोऽभवदिह विदुषां मल्लिनाथः कवीन्द्रः ॥ तत्सूनुर्चीरभद्रः कुलपतिपद्भाग्भीमसेनानुजेो सौ चण्ड्याः स्तोत्रस्य टीकां विबुधजनमनोमादसम्पादयित्रीम् । वर्षे रामाङ्गवन् शिवनयनयुते १३३३ चित्रकूटोपकण्ठे चण्डीप्रसादात् प्रतिपद्ममलं भावयंस्तत्पदाब्जम् ॥” इति ।
मल्लिनाथेन काव्यटीकासु तार्किकरक्षाटीकायामपि "कोलाचलमल्लिनाथसूरिविरचितायां "मित्यादेर्लिखितस्वात् कोलाचलनिवासीत्युक्तं भवति को प्रधानोऽचल इति कोश्वासावचलश्चेति वा व्युत्पत्या कोलनामकः कश्चित् पर्वतः स च चित्रकूट समीपस्थ इति महाभारशात् मार्कण्डेयपुराणाञ्च प्रतिभाति । तथाहि
(1) कपिलप्रोक्ततन्त्रे सांख्ये फणिपतिप्रोक्तन्त्रे योगशास्त्र तन्त्रे जैमिनि पूर्वमीमांसाशास्त्र ।
(२) पर्वताः । द्विगोत्रगिरियावाचलेत्यमरः ।
केचित्तु वराहः करो दृष्टिः कोलः पोत्री करि: किटित्यमरकोशात् कोलाचले कूर्माचलवत् वाराहक्षेत्रं वर्णयन्तः कान्यकुब्ज देशे गङ्गातटे वर्तमानमनेक पुरातनविभ्रष्टराजहम्यादियुतमुच्चावच प्रदेशमिदानों "सोरों वदरिया " इति प्रसिद्धमेवेति वदन्ति ।
मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत दण्डी सप्तशत्यां 'कोलाविध्वंसिनस्तथे”ति यदुक्तं तत्र कोलानाम नगरी सुरयराजस्य राजधानीति टीकाकाव्याख्यातत्वात् सा कोलाचलशब्देन कथमपि न व्यपदेशमर्हतीति विद्वद्भिर्विवेचनीयम् 1.
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सटीकता किंकरक्षाया:
महाभारते सभापर्वणि ३० अध्याये (१) " वशे चक्रे महातेजा दण्डकाश्च महाबलः । सागरद्वीपवासाँश्च नृपतीन् म्लेच्छ्योनिजान् ॥ निषादान पुरुषादाच कर्णप्रावरणानपि । ये च कालमुखा नाम नरराक्षसयोनयः ॥ कृत्स्नं कोलगिरिं चैव सुरभीपट्टणं तथा । द्वीपं ताम्रायं चैव पर्वतं रामकं तथा ॥” इति ।
अत्र रामकं पर्वतमित्युक्या चित्रकूट एवं बोध्यः मल्लिनाथेनैव कश्चित् कान्ताविरहगुरुणेति मेघदूतारम्भश्लोकव्याख्याने " रामगिरे चिनकूदस्ये" ति व्याख्यातत्वात् । सुरभीपट्टणस्येदानीं किमपि नामान्तरं जातमित्यतस्तन्न विज्ञायते ।
मार्कण्डेयपुराणे कूर्मनिवेशाध्याये
"आवन्तयो दासुपुरास्तथैवाकरिणो जनाः (P) महाकर्णः सकर्णीच गोनन्दाश्चित्रकूटकाः ॥ arar: कोलगिराचैव कौभ्वद्वीषाः जटाधराः । कावेरा ऋष्यमूकस्था नासिक्याश्चैव ये जनाः ॥ शङ्खमुकाश्च वैदूर्यशैलप्रान्तरिताश्च ये (२)||" इत्यादि ।
इत्यनेन मल्लिनाथस्य चित्रकूटसमीपस्थत्वात् वोरभद्रेण च चित्रकूटोपकण्ठे सप्तशतीटीकाप्रणयनाद् द्वयोरप्येकदेशनिवासित्वं सिद्धम् । वाणों काणभुजी मिति श्लोकस्य काणादे चाक्षपादे इत्यनेन श्लेोकेनानूदितत्वात्
(१) बहुदेशस्य - एशियादि सोसाइटी द्वारा मुद्रिते महामारतपुस्तके ३५० पृष्ठे द्रष्टव्यम् ।
(२) पाठोऽयं वाराणसी स्यराजकीय संस्कृतपाठशालीयपुस्तके १४३ पत्रे वर्तते ।
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भूमिकाः ।
रघुवंशादिकाव्यटीकाकर्तुमल्लिनाथस्य पुत्रो वीरभद्र इत्यपि सुवचम् । मल्लिनाथः शिशुपालवधादिटीकासु मेदिनीकरकृतनानार्थकाशं प्रमाणयति ॥ वीरभद्रोऽपि सप्तशतीटीकायां १ अध्याये २ श्लेाकव्याख्याने "माया स्याच्छा म्बरबुझेोरिति मेदिनीकर: । " २ अध्याये ३० इलाकव्याख्याने ऽपि श्रहं भक्ते व शुले व क्षौमे ऽत्यर्थे गृहान्त तारे इति मेदिनीकरः ।" इति । मेदिनीकरश्च खस्ताब्दस्य चतुदशशतके समभवदिति रामकृष्णगोपालभाण्डाकर, एम: ए, पीएच. डी., महाशयेन मालतीमाधव भूमिकायां निरूपितम् तदप्यसमन्निरूपितमल्लिनाथतत्पुत्र स्थिती साम्रकमेवेति ।
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कोलाचलमल्लिनाथेन रघुवंशटीकायां "व्याचष्टे कालिदासीयं काव्यत्रयमना कुल" मित्युक्तत्वात् रघुवं शकुमारसम्भवमेघदूतटीकानां सञ्जीविनीत्येकनामत्यात् तासु वाणी कापभुजी मितिमुद्राश्लोकदर्शनात् तासामे
कर्तृत्वं सर्वजन सुप्रसि इम् । शिशुपालवधटीकायां १ सर्गे अभूदभूमिरिति ४२ श्लोकव्याख्याया 'मित्युक्तमस्माभिर्देवपूर्व गिरिं ते इति धनुरुपपदमस्मै वेदमभ्यादिदेश इत्येतद्व्याख्यानावसरे सञ्जीविन्यां घण्टापथे च ।" शिशुपालवधटीकायां १३ सर्गे मुदितैरिति २४ श्लेाकव्याख्याने "तदेतत्सर्वमस्माभिः कालिदासन्त्रय सञ्जीविन्यां विवेचितम् ।" अपि च शिशुपालवधटीकायां १२ सर्गे उत्क्षिप्तगोत्र इति ५ इलाकव्याख्याने "तदेतत् सम्यग् विवेचितमस्माभिः किरातार्जुनीयटीकायां घण्टापथे" । इत्यनेन कालिदासत्रय सञ्जीविन्याः शिशुपालवध सर्वङ्कषा
(१) शिशुपालवधटीकायां २ सर्गे "यजतां पाण्डव" इति ६५ लोकव्याख्याने सर्ग "निर्जिता खिले” ति २९ श्लोकव्याख्याने द्रष्टव्यम् ।
१०५.
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নি ‘ঞ্জুেরুল ঈমালঃ ত্বফালগ্রাীিক্ষাজুলি লাঞ্ছিনালী খালু নাহি হয় লালনআলু ফিল শন ল স্বাস্থল। মুক্তির তালুনা নজ্বলিহা খুলি জ্বল শিশু বৃথিন সুন্ধজিলাখ লাখ অনিল সেদ্ধ দুলাল - মুহীহ্মা ও যত্মকাহিৰাতীঘলি ৪৫ মুস্তাফা বু হান স্ব স্ব বাড়ি সুধা ল লাহিরুহ কা মূয়ামিঃ স্বল সুন্নাহ (২) ভুল। দ্বিাঘাইহ্মাঙ্গাফলত্বিই এল ক্ষানিলি ?ঃ মাক্ষলাহল ‘চুমীক্ষা
লক্ষাঙ্গ শক নিহত্যা"ফাজিল শস্য: নিক্লখ আনুশল নির্বামিলা খা ফুলিলিঙ্গত্য স্ব’ লু লা লীফা ফমুলাস্থল নাহিল হাখুিলা ঝুল স্ম নাহি লাক্তাকুস্ফিাকা ক্ষা (১) স্লালিত্মর্জা আলু| (৭) কষে যা লক্ষ্যময় ঘনি-এনজাইমালম্বি মিনুয়াহে চমলায় যুদ্ধ তে ৪ দ্বায়িত্ব ন নক্ষদ্ধ গুন শিৱালী সন্ত্রন ন ৯মান ?
(২) নর্থ স্বাক্ষর ( () স্ন্যাসীহ্মাখা মুখ থই ২২ হায়গনস্থিনি গাখ যায়যাহ্মীয়নকালীযদুনা হ ই অন ও সুস্বাদ্বা ঘ দুইলি.
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মিঃ।4ীস্বলন্ত আগামিদ্বিখ্যাঙ্কিান ছানি নীহঙ্খঃ
पण्डितजीवानन्दविद्यासागरमुद्रिते जीवातुसहित বাহিনুল ৪ « ৫৫ ক্লিান্মি। হিন্দু #rআত্মাঃ স্বঃ হীমুজ্জাহিলিললিহহীসুম্বা লিঙ্কামু না থাথিক্ক’লি ? বিনের অজু ভোলা মিলায় নয়জ থানাগুঃ ভ্রাম লি লিভিনালি নয়া যায়। এনালি যশোর রেহনুনুখ্য লিন্দ্রিমালীনীৰ ঘন ঠান্ধাযন হাখিন হালানি মহলুলীযন । ময়কা পূৰিলে —লাই -হিলহ-
-ছাক-ভীস্বাগনিমিঃ গ্রীলালশাষি লাগান। ভাল কান্ধৰ ললোলাল ছযনি সীদ্ধা জাখ। স্ম লন্দ্রিমা এলুন— —লুৰতফি-লাম-লীলামন্থন-৯ীহ-হু-ঈম-মমঅভিজাহ্মাহফুনা তী। এলায় কী জানায় আগুন শ্রী! মুত্রা মানহীমলন ‘জুন জুলাম্বলীলায় তরজমকা হাজৰিযক্ষ্মীমানালল স্বীরা লগ্লিাবিন বলিভিনঅবাস্নাঘীনালা লম্বায়ীত্ববিৰঘিনায়মান আমি জা নন। স্ব স্ব | ‘ দ্ধ মিলা যা বাগীঘি &ীজান । বৃহহীন যখন লাঞ্জ ন লাগী না হয়েনি ॥ আই (?) ।” জুন।
নাফিল যা কম লাভলীমনি। * – No. a, Vol. X8. V.3Poliuary, 103,
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सटीकतार्किकरक्षायाः नैषधगूढार्थदीपिका १ सगै अथि स्वयूथयैरिति १३६ इलाकव्याख्यानो "पुनः प्रियां प्रत्याह । आथीति । अथि प्रिये संबुद्धिरिति नहरिः । अपीति पाठ इति जीवातुः । अपि चेत्यपेरथः ।
पण्डितजीवानन्दविद्यासागरमुद्रिते जीवातुसहिते नैषधचरितपुस्तके ५५ पृष्ठ । 'अपीति । अपि चेत्यपेरर्थः।"
नैषधगूढार्थदीपिकायां १ सर्ग तथापि हाहा विरहात् क्षुधाकुला इति १४१ श्लोकव्याख्याने 'तेषु प्रसिद्वेषु" "स्वसम्पादितेषु तेषु इति जीवातुः।"
पण्डितजीवानन्दविद्यासागरमुद्रितो जीवातुसाहिते नैषधचरिते ५६ पृष्ठे "क्षुधा कुलाः क्षुत्पीडिताः तेषु स्वसम्पादितेष्वित्यर्थः।"
नैषधगूढार्थदीपिकायां २ सर्ग स गरुम्नदुर्गदुहान इलि४इलाकव्याख्याने "हस्वान्तं पृथक्पदमिति जीवातुः। यत्तु गोस्त्रियोर्हस्व इति तेनोक्तं तन्न स्त्रीप्रत्ययान्तत्वाभावात् अत हस्वो नपुंसके हति हस्व इत्याहुः" ॥ - पण्डितजीवानन्दविद्यासागरमुद्रिते जीवातुपुस्तके ६० "पृष्ठे तनुकण्डु यथा तथा गास्त्रियोरुपसर्जनस्यतिह स्वः । नुनदे निवारितवान् स्वरितजित इत्यात्मनेपदम् ।"
एवमग्रे ऽपि अनेकस्थलेषु वर्तन्ते ।
यद्यपि माघे मेवे गतं वय इति मल्लिनाथविषयककिंवदन्त्याऽनुमीयते वृद्धावस्थायां तेन नैषधचरितं स्याख्यातम् तथापि रघुवंशादिटीकास्विवानेकानाचार्याननेकान् प्रन्यांश्च प्रमाणयति । तद्यथा मनुः विष्णुपुराण महाभारतं सामुद्रिक वैजयन्तीकोशः हलायुधकोशः बर्द्धमानः काव्यप्रकाशः क्षीरस्वामी पाणिनिः अमर
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শাহ নূনাহ্মহঃ শ্রিাহাঃ ন্যাত্মাহাঃ লাশি उपाध्यायविश्वेश्वरमद्वारक:(१) एवमन्ये ऽपि ।
मल्लिनाथेन तार्किकरक्षाटीकायां ७६ पृष्ठे प्रशस्तपादभाष्यनिकषटीकायामस्माभियाख्याता (२) द्रव्य" एवमेव १३६ पृष्ठेऽप्युक्तत्वात् प्रशस्तपादभाष्यमपि विस्तरतो व्याख्यातमिति निष्पन्नम् । | ললিথাস্থায় কাদিক্ষাদীক্ষামন্ত্রীटीकादयो ग्रन्था न समालोचिता मयेति।
वात्स्यायनापरनामधेयो मल्लिनागस्तु. ३) नामत एव भिना महर्षिरित्येतत् सर्वन्यायवार्तिकभूमिकायां विस्तरेण निरूपयिष्यत इत्युपरम्यते ॥
वाराणसीस्थराजकीय- ) संस्कृतपाठशालीयपुस्तकालये विन्ध्येश्वरीप्रसादविवेदी
२२ जनवरी १९०३ ।
-
(৭) লিনহাজ্জা নয়থনীহ্মান্ধা।
(३) आदर्शपुस्तके "प्रशस्तपादभाष्यनिष्कण्टिकायामिति" पाठो दृश्यते स प्रामादिकः १४२ पृष्ठे “निकले द्रष्टव्य" इत्यस्य वर्तमानत्वात्। . (३) क्वचित मल्लनाग इति पाठः ।
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(१) वासामशुद्धीनां दर्शनमात्रादेव बोधो भवति तासां नात्र समुल्लेखः छतः यथा ३ पृष्ठे १३ पङ्की "वाऽपिकस्य चित्" । एवं मग्रे ऽपि ज्ञेयम् ।
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भूविकारत्वम् क्यार्थकथन
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खेतन ग्रन्थ
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यथाऽनित्यः ল। ঘন গ্রহণ आजाली नन्तरमा लक्षणोक হলের স্বাদ समाहत्य दूपणास सह उत्त नाचित মালিন साढेिकर्तृमत्वे तस्मात शब्दनित्य যাদুর মুনি सिकृत्व মাত্র শুরফতার सिद्धार्थ
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नाचिकेत गमात् नित्यः सानिद्धिकलम न तस्मात् शब्दानित्य ফাহমান स्वित्व মাহাত্ব उत्कर्षसमाव सिद्धार्थ
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प्रतिपत्त्यादि
धर्मसमातो
योगित्वेन
सहाभावे
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सटीकतार्किकरवाया:-द्विपत्रम् । पको , अशुद्धम्।
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क्षमतिना साध्यधर्मा साध्यधर्म ज्ञत्वविधा সন্মায়। वृत्तः
वृतः
भङ्गान्तर सिद्धीरिति सिद्धीति ३४४
शब्दोनित्यः शब्दोऽनित्यः सात
দানি शब्दावयवयाः शब्दार्थयोः
प्रतिभायाः प्रतिभयाः ३५८१८ शब्दा
शब्दः ३५८ ३० नित्यं कृत ३५८ २३ নান अान्तमिति.
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৭৪= | গুৱায্যলয নানাঃ ম্বিীনি
লাফল্য নানাফি ৭২
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ইং | ময়লকাব্য গালিগালাঘন ২২ ৪ানালা
| মালদায্য স্বান্তনজন ও জানালাঃ
| দুলাবালি লযায়িনাৱাৰ ই সানাঃ সুইৎ | মায়ানি বাষাযিজনাৱান্তি ও স্নানালিঃ
| সায্যালি সায়মনৱিালি Je অনিদ্যালন
| प्रमाणानि भाट्टमसिद्धानि ५६ গনিঘষম জানিঃ
प्रमाणानि वेदान्तिमसिद्धर्शन ५६ রুবি
সমস্যানি হানাল্লালি ও प्रत्यक्षभेदे नैयायिकमतम् ৪ | সময় বামনায় ধ্বন্যায্য
SS | মা জননী ঘন্যদলদাষ হালদমন | ৭ ঘসা নমনার মলল মনসন | গঙ্গামা গহানিযহ্মথন
সালাম মায ঋনাঙ্গগনধিত্ব 1 সমযালয়ে অসাযথা হয় লিঙ্ক যলবাম
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৫২ | স্বাযা অধ্যানমলায্য সনানা
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এছয় অনলাখিল হলঃ
২৪০ জুমারবা ৭২ হাজ্জাজােব্য।
৭৪৩ বলা
१४२ समवायलक्षणम् মুহঃ
২৪ | গঙ্গানাহ্মঘল ৭১২ মালয়
২৭০ কাঠালমালালাগায়ঃ ৭৭ वायुगुणकथनम्
৭৪৩ ফাঙ্গসন্যদায্য মালিকাখ্যা
হa৪ | সামালিন্য ২৫ विकल्पसमः
২৪ | ক নীনিঃ প্রামীন।
সমলিষT: নিয়াল
২৭ ২ | বাঘা বাঘালয়ািভাযাহ্মন্থন
ण्डनम् নিমযাল
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২০ নিহালকা
१५८ | सामान्यगुणकथनम् ৫০
१५०
৭০
২১২।
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सटीकतार्किकरक्षायन्ये निरूपिताना पदार्थाः प्रष्ठाङ्का
पदार्थाः सिद्धान्तभेदाः १७० हेतुलक्षणम्
१७७ सिद्धान्तलक्षणम्
१७० | हेतुलमः स्नेहलतणाम्
हेल्वन्तरम् হালকা
१४२ हेत्वाभासनिरूपणम स्मृतिलक्षणम्
हेत्वाभासभेदाः
२१६ स्वानयव्यापिगुणकथनम् १५४ हेत्वाभासष्टुशङ्कासमाधिः २३५ स्वाश्रयसमवेतारम्भकगुण
कथनम्
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সুনিল কাযালয়।
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৫২৩ শয্যা লেবাম
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दुःखलक्षणम् ফললাম
अपवर्गलक्षणम् সলমনুঃ
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দুসলম व्याप्तिलक्षणाम्
द्रव्यपरिसंख्यानम् মালালামা
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দুই। ৭৪! শুধু মুলাঘা শ্রানিমূনীলা | ২৪ না নিস্ট্রি
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सटीकताकिरक्षाग्रन्ये उडतानां ग्रन्थानां
सूचीपत्रम् ।
अन्याः
ক্ষ্মালমশ্ৰিহ্মঃ ৫৩। ৭ | লালা
१६ १९४ । २०६३
वार्तिकम् २०३ । २०९ । २४९ দামিল।
२५० । ३०८ कुमारसम्भवम् ४ श्रुतिः
१४८ टीका २०३ । २०६ । ३०८ सत्रम् १६१ ॥ १६ ॥ १६७ । १७१ । न्यायकुसुमाञ्जली १०७ २४७ । २५३ । २५६ । २६८ । प्रबोधसिद्धिनानि परिशिष्टे ३१०
२०१ । २८० । २८१ ॥ २ ॥ प्रबोधसिवा १८९ । ३०८ ॥ ३५७ २८४ । ३८५। २९२ । २९८ । भारते
३०० । ३०३ ॥ ३०८ ५ ३१८ । भाष्यम्
३२४ । ३२५ । ३४३ ॥ ३४४ ॥ मीमांसा
१९५ मीमांसादृष्ट्या
२१५
५
३६०
MurprmananmarwINATORREOIMES
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________________
HARIWARENDHANAPIPANISHADAAVed
সুস্থ सटीकतार्किकरक्षाव्याख्यायां कोलाचलमल्लिनाथसूरिविरचितायां निष्कण्टकायामुहतानामाचार्याणां
सूचीवनम् ।
५५
कचित्
प्राचार्याः एण्ठाङ्काः। प्राचार्याः
पुष्ठाङ्काः अक्षचराः
आहाः
१४१ क्षपादः
भाज्यकार:
४ । १५२ १६४ अषणाः
१४१ वाचार्याः ३।४४ । । १० । अषणीयाः १४६
मनः
१६५ उदयनाचार्थ: ६५ । १६० मीमांसकः ५१ । ७३ । १०३ । १२४ । उदयनः १२ । ५२ १८९ | १५५ । १८२ । २२० । २४४
७७ । ६४ । १०१ । १३१ । १७६। मीमांसागुरुः
१८६। २०३ । २०५ । २१३मीमांसाचायो: कणादः
१४१ वाचस्पतिः किरणावलीकारः
१५९ वाचस्पत्याचार्याः २०८ १२ । ६५ । १६० वार्तिककारः ভূমি :
१४० गुरूपतम्
११५ १७३ चानाकः
হবিলজয়ী নয়ারি:
२२७ । २०४
वैशेषिकः न्यायाचा::
शवरः पक्षिलः
शाक्याः पीलुपाकवादी
१५५ शाब्दिकाः प्रामाकराः १९ । ३०१ १११ । ११५ । सांख्या: १४१ । १४४ । १६६ १४१ । १५५ । १६१
सौगताः
६१ । २ १५ । २०६ सत्रकारः ४।४४। ६३ । ६६ । १२० । बौद्धः ७४ । ८४ } १८९ १२५ । २२६ भट्टपादः
६० ७६०
गुरवः
२१
२
१३३
क
साwwwanNIVAAROHTOmadarasaar
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
सटीकता किंकरक्षाव्याख्यायां कोलाचलमल्लिनाथसूरिविरचितायां निष्कण्टकायामुद्धृतानां ग्रन्थानां सूचीपत्रम् ।
ग्रन्याः
आचार्य वाचस्पतिटीका
आत्मतत्त्वविवेकः
उदयनाचार्यवचनम्
उदयनादिवन्यः
कणादसूत्रम्
कारिका किरणावली
गुरुमतम् जरनैयायिकमतम्
प्रथ
पृष्ठाङ्काः ग्रन्थाः
निकषः
39 | परमगुरु भट्टपादमतम् १८६ | परिशिष्टम्
३
୩୦
१९०
૧૪
१३२ | प्रशस्तपादभाष्यनिष्कण्टका ७६
१२ प्रबोधसिद्धिः
५४ । १७५ प्रमेयपारायाम्
३। ३२ । ४० । ९२ १३९
६८ || भट्टकारिका
११ । २८ | भाष्
१८४ मीमांसामतम्
टीका
तात्पर्यटीका तात्पर्य परिशुद्धिनामयनविरचि
=१५
५ । ३०९ | वार्तिकम् ५ | १११ । १४६ । १७० २०९ शालिका ९ । २० । २२ । ३० । ९५१
ता वाचस्पतिकृतवार्त्तिक्रतात्प- श्रुतिः र्यटीकाव्याख्या
११३ | १३३
१८६ | समानतन्त्रसूत्रम्
१६१
४६
न्यायकुसुमाञ्जलिटीका
न्यायकुसुमाञ्जलिः ५८ ६८७६
न्यायैकदेशिमतम्
न्यासोद्योतः
पञ्चकाव्यटीका
पृष्ठाङ्काः
सूत्रम्
१००। ११७
२३५
सोगतमतम्
३० सोगतवाक्यम्
रेल
81५1५५1१।११९।
१२० । १२२ । १३८ । १९२१२०५ ।
३११।२१८
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२१५
१४
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দেশকে।
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কাশফায়েল পালক
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________________
सटीकतार्किकर चाव्याख्यायां ज्ञानपूर्ण विरचितायां लघुदीपिकायामुतानां ग्रन्थानां
सूचीपत्रम् ।
ग्रन्थाः
सूत्रम्
०००
वार्त्तिक्रम् व्याकरणादिमतम्
900
22
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पृष्ठाङ्काः
२५२ । ३१०
२५२
३२०
२५।। २२१ । ३१० । ३२४
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No. 11, Vol. XXI. November, 1899.
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PREFATORY NOTICE.
Varadarāja's Tärkikarakşā and commentary entitled Sarasamgraha were briefly noticed by Dr. R. G. Bhandarkar in the Report for 1883-84, p. 81. Further information is now appended. Varadaraja is silent in regard to himself. But he must have lived after Vācispatimicra and Uday:mācārya to whom he constantly refers as authorities, sind before Madhavācārya by whom the Tärkikarakşa is mentioned in the Survarlarçauasaingraha. The two earlier Schoolmen were literary contemporaries. Vācaspatimiçra wrote his Nyāvasūci in the year 976 A. D. (vide Bibliotheca Indica ed. Pandit Vindhveçvarīpresarla Dvivelin, Librarian, Sanskrit College, Beoares). Ulayinācārya wrote his Lakpaņā vali in 984-5 A. D. (vide Benares Sanskrit Series ed. P. Vindhyeçvarīprasāda Dvivedin). But Udayanācārya was probably much the younger man, as his Pariçuddhi is a commentary on Vācaspati's Tātparyaţikā. He may be supposed to have lived as late as 1050 A. D. This date would furnish the terminus a quo for the time of Varadarāja. The terminus ad quem would be about 1300 A.D., that is to say, fifty years roughly before the time of Madhavācārya.
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Possibly Varadarāja may have to be placed not later than the first half of the XII Century. This conjecture is based on the exis. tence of a commentary on the Tārkikarakşā entitled Laghudīpikā composed by Jñana pūrņa. The Layhudipikā is not mentioned in the Catalogus Catalogorum ; nor has a notice of it been met with elsewhere. A copy of the work (on paper), transcribed in Samvat 1459, exists in the possession of P. Vindhyeçvarīprasäda (vide Appendix A.) Jñanapūrņa mentions as his guru Vişnusvāmin, the son of Yajñeçvarahari, but gives no certain indication of his date. If Jñānapürna be identified, conjecturally, with Jñānadeva who was the immediate successor of Vişņusvāmin the accepted founder of the Vallabhācārīs (vide Wilson's Religious Sects of the Hindus pp. 34 and 120), a nearer approach may be male to the date of Varadarāja. Viņņuswāmin is represented in the Bhavisyapurāna as preceding Nim bāditya and Madhvācārya (vide Appendix B.).
Page #71
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IV
PREFATORY NOTICE.
SEMESTER
Madhvācārya is known to have lived during the first half of the XII Century. Vişņusvāmin may have preceded him by a few years only; for the word prathamataḥ of the Bhavisya purāņa does not necessarily imply any considerable interval of time. And Varadarāja may thus have been one of Vieņusvāmin's contemporaries.
We may be pretty sure that Vişnusvāmin did not live after 1300 A. D., as he is mentioned in the Sarvadarçanasamgraha; which fact in itself is an indirect confirmation of the account given of the Vaignava Schools in the Bhavisyapurana So little seems to be known for certain about these earlier writers that the present conjectures may be just worth recording.
CELEBRADACAC
CHARACASSSSSSS
S
The Tärkikarakṣā, as its name implies, is a controversial treatise in defence of the Nyāya and Vaiçeşika Systems. Aproppriating largely the labours of Vācaspatimiçra and Udayava, it attempts, in a concise and fairly easy manner, to make good the ground which these systems had lost in the Schools. It is divided into three chapters whose order of discussion adheres mainly to that of the original Nyāyasūtras. As might be expected, it discusses at some leugth such topics as the nature of true knowledge, and of the ineans whereby such knowledge may be attained and of the things that can be truly known and, as subservient to these, the nature of reasoning and logical fallacies and the rhetorical methods of debate. A fuller treatment of the work is reserved for the Introduction to the present edition.
The MS. materials employed are as follows:--- (1). MS. of Kārikā only, designated A. (2).
and Sārasamyra ha designated B. This MS. is dated Sam. 57, which must be read 1457; because this MS. and No. 7 below were evidently written by the same band, the form and size of the letters and of the paper corresponding exactly.
(3). MS. of Kārika and Sārasamgraha designated C.
This MS. was transcribed by Mādhavabhatta, son of Kraņa. bhatta in Sam 1061.
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Page #72
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Monikakenilewan
meriowwwininitinensideranicientisinusitinuenaraininewlantonmalnirnarasiniliutionscidentirintinentainlentinenesintinoidananasamatarnamauniRRIANDINITION
PREFATORY NOTICE.
PREPARADHEmmom
(4). Do. do. designated D. Comprises 1st Pariccheda only: undated but old. (5). Mallinatha's Nigkantaka designated E. Comprises 1st Pariccheda only.
(6). Pariccheda only.
___(7). Jnanapurnia's Laghudipika G.
As the remaiving chapters of the Nişkanţaka are not available, their place will be taken by thise of the Laghudipikās, and the first chapter of the latter work will be printed separately at the end of this edition.
A. V.
UNakanamaANANAanemenuyanwwamilindnesamataomdeampiewvasamoomerantonangwapARMAKASONSawantwdnsaAISROUNDREDummaNEL
Appendix A.
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लघुदीपिकाया आरम्भः ।
॥ ॐ नमो गणेशाय ॥ वन्दे मानससंफुल्लसरोजाननहंसगां। सरस्वती चतुर्वक्रां चन्द्ररेखावतंसका। न्यायरत्नाकरोत्था या विद्याश्रीरग्विलार्थदा । तस्यास्तार्किकरक्षायाः करोमि पदचिन्तनं ।। पुरा वरदराजेन न्यायशाखार्थसंग्रहः ।। कृतः परत्वता बुद्धा पद्यानां दुग्ग्रहार्थतां ।। तेनैव रचिता व्याख्या सा च शास्त्रपदं गता। ततस्तदर्थसिद्धार्थ करोमि लघुदीपिकां॥
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६१३
Page #73
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________________
PREFATORY NOTICE.
-
-
पुस्तकस्य १५ पचे। एवं तार्किकरक्षायां ज्ञानपूर्णमुखोद्गता । प्रमेयस्य पदार्थस्य संपूर्णी लघुदीपिका ॥
यन्थसमाप्ती । सवैश्वर्यनिजावासं सर्व विद्यानिषेवितं । श्रीयज्ञेश्वरहरेः सूनुं श्रीविष्णुस्वामिगुरुं नुमः ।। वरदराजीयटीका समाप्ता ॥ मंगलमस्त ॥ संवत् १४५९ वर्षे वैशाष (ख) शु२ व्यासगोवर्द्धन एतेषाम् । ध्यासकाह एतेषां।
-
Appendix B.
भविष्यपुराणे भक्तिमाहात्म्ये २१ अध्याये । अतः परं त्वनुक्तानां पुराणे चरितं ब्रुवे । आसन सिडान्तकारश्चत्वारो वैष्णवा विजाः ॥ यैरयं पृथिवीमध्ये भक्तिमार्गो दृढीकृतः। विष्णुस्वामी प्रथमतो निम्बादित्यो द्वितीयकः॥ मध्वाचार्यस्तृतीयस्तु तुर्यो रामानुजः स्मृतः ॥
६१४ ।
Page #74
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श्रीवरदराजकृता। লক্ষন শ্রাগ্রামানা।
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২১ জন্যে নমঃ ত্ব অন্যাশাল হল: বানিয়ে ।। নিলালা লাজশাৰ লিলিল জানান বি ।।
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লবঙ্খলা বান্দাকে আলাৱালু। অন্যায় অত্যন্ত অগ্নাক্ত लेके ऽभूद्यपजमेव विदुषां साजन्यजन्यं यशः॥२॥ সালাখাৰগ ৰূহল হ্মা
वाणीगणेशचरणाम्बुरुहावलम्बी । নিঃস্থালি ক্ষতাল লাঙ্গা লিঙ্কা জানিনা। ৪।
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प्रारिप्सितस्य ग्रन्थ ल्य(१) प्रेक्षावदुपादित्सानयोजिकामभिमतफलसाधनतामभिधाय श्रोत बुद्धिमলললু বিলম্বায়ী হন।
इह खलु तत्रभवान् बालानुकम्पी वरदराजः सकलन्यायशास्त्ररहस्योपदिदिक्षया(२) स्वविरचिततार्किकरহাসালা ফাঙ্গ লাল গ্রহ্মঘালকাতাस्तदविघ्नपरिसमाप्तिसम्प्रदायाविच्छेदलक्षणफलकाम्यया विशिामि च देवतामभिवादयते । नमामीलि(३) | परमात्मानमिति परमः सर्वोत्कृयो जीवात्मभ्यो विशियः तमात्मानमीश्वरमित्यर्थः । सन्महत्परमेत्यादिना समासः। परमत्वे हेतुमाह सार्थवेदिनमितियोगिसाधारण्यं परिहरति स्वत इति। नित्यसर्वज्ञतया स्वाभाविकमस्य सार्वज्य नतुयोगप्रसादासादितमिति भाव (४) तत्सद्भावे प्रमाणहयं सूचयति। विद्यानामिति । चतुर्दशाविद्यानामपीति भावः । आदिकतारं सादा प्रणेतारं तथा जगतां जनिमतां निमित्तमादिकतारम् ईशानः सर्वविद्यानां तस्मात्तपस्तेपनाचत्वारो वेदा अजायन्त यतो वा इमानि भूतानि जायन्त इत्यादिश्रुतेरिति भावः । एतेन वैदिकः सन्दर्भः केनचित् प्रणीतः सन्दर्भवाद्रामायणवत् । तथाङ्करादिकं सर्व सकतक कार्यत्वात् घटवदिति चानुमानयादीश्वरसिद्धिरिति सिद्धम् । अत्रैव केवलव्यतिकिद्धयां भानुमाने स्वयं वक्ष्यति।
(१) प्रारिप्सितयन्यस्य--प. B . । (२) संक्षिप्य - इयधिकम् E गुः ॥ (३) नमामि परमात्मानमिति-पा.EL. ।
(४) नित्यसर्वज तया स्वाभाविकी सार्थवेदिता न त योगप्रसादासादिततया सादियामिति माय-पा• E ए. ।
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TRACTORIMEROINESSIONERBALTRamasomramommavtaasmat
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प्रमाण प्रकरणाम् । (१)निःश्रेयसफलं प्राहुर्येषां तत्त्वावधारणम् । प्रमाणादिपदार्थास्ते लक्ष्यन्ते नातिविस्तरम् ॥१॥
येषां प्रमाणादिनिग्रहस्थानान्तानां पाडशपदायानां तत्त्वताऽवधारणमात्यन्तिकदुःखविच्छेदलक्षणएतेन देवताया वैदिकत्वाविद्याकर्तृत्वाच्च वैशिष्ट्यमित्वं चोक्तमिति द्रव्यम् । ननु यदभिधित्सितं तदभिधीयतां फले व्यक्तिर्भविष्यतीति न्यायात् किं मृषाग्न(२) वक्ष्यमाणार्थप्रतिज्ञाडम्बरविलम्बैरित्यावश्लोकाक्षेपमाशङ्ख्य समाधत्ते । प्रारिप्सितस्येति । प्रेक्षावतां धीमतामुपादित्सा स्वचिकीर्षा तत्र प्रयोजिकां हेतुभूतामित्यर्थः । प्रेक्षावत्प्रवृत्तः प्रयोजनज्ञानाधीनत्वात् तज्ज्ञापनायाग्ने प्रतिज्ञा कार्येति भावः । यथाहुः कारिकायामाचायाः ।
सर्वस्यापि हि शास्त्रस्थ कर्मणा वाऽपिकस्य चित् । यावत् प्रयोजन नोन्तं तावत् तत् केन गृह्यत ॥ इति
ततस्तदर्थपरामर्शितामाह । येषां पदाथानामिति । कि षण्णां नेत्याह । षोडशेति । दिकसंख्ये सज्ञायामिति समासः सप्तर्षिवत् अन्यथा बहुत्वाद्यसिद्धः । यहा पूरणप्रत्ययान्तोऽयं षोडशशब्दः तेषां च प्रत्येकमेव षोडासंख्यापूरकत्वात् सर्वे षोडशा तेच ते पदार्थाश्चेति विग्रहः । ते च सूत्रीदिशा एवोति स्मारयति । प्रमाणादीति । तत्वा
(१) अत्र प्रथमं “ नमामि परमात्मान"मिति पदां A पुस्तके অনল মর তীক্ষা লাঙ্গলা মামি অন্য কান্নাঘর নিজ্জোহা “মাঙ্গিলাহাহ্মাত্মাল ফাযা নাম দ্বজয়मारममाण" इत्यादाल्का “ इष्टा देवतामभिवादयते । नमामि परमा मानमिति” उक्तम् ।
(२) कि मुधाय --- प. E पुः । २ च-... No. 11, Vol. XXL... November, 1899.
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सटीक गर्किकरक्षायाम् ।
निःश्रेयस फलत्वेनाक्षचरण (१) पक्षिलमुनिप्रभृतयो वर्णयन्ति । यथा प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्वान्तावयव तर्क निर्णयवादजल्पवितण्डा हेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्यानानां तत्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगम इति । तदानीं पदार्थ लक्ष्यन्ते समानासमानजातीयव्यवच्छेदकधर्मवत्तया प्रदर्श्यन्त इत्यर्थः । ननु वधारणं याथात्म्येन निर्णयः । निश्चितं श्रेयो निःश्रेयसं मोक्षः । अचतुरादिना निपातनात् साधुः । तत्स्वरूपे वादिविप्रतिपत्तेर्विवक्षितं लक्षणमाह । आत्यन्तिकेति । एतचोपरि विवेषयिष्यते । प्राहुरित्यस्य प्रशब्दस्य सामर्थ्यीप्रतिपादनमा नोक्तिमात्रमित्याह । वर्णयन्तीति । तस्य काङ्क्षा पूरयति । अक्षचरणेति । अक्षचरणपक्षिला सूत्रभाष्यकारी प्रभृतिशब्दाद्वार्त्तिककारादिसंग्रहः । तत्र सूत्रं संवादयति । यथा प्रमाणेत्यादि । प्रमाणं विना प्रमेयाद्यसिद्धेः । विषयं विना प्रमाणाप्रवृत्तेः । असन्दिग्धस्याप्रतिपित्सितत्वात् । सन्दिग्धस्यापि निःप्रयोजनस्याप्रतिपित्सितत्वात् । प्रतिपत्तेश्च दृष्टान्तमुखत्वात् । अवयवादिनियमस्य सिद्धान्तानुसारित्वात् । प्रमाकरणशरीनिर्वर्तकाङ्गत्वात् । प्रमाणानुग्राहकत्वात् । तत्फलत्वात् । तस्यापि कथासाध्यत्वे वादस्य तस्वनिर्णयफलत्वात् । जल्पस्योभयपक्षसाधनवत्वसाम्यात् । वितण्डायाः कथापारिशेष्यात् । निग्रहहेतुषु सर्वथा हेयत्वात् । दोषेष लघुत्वात् फलत्वाच्चेति प्रमाणादिपदार्थोद्देशक्रमः । यत्तदेोः
४
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(१) अक्षपाद - पा.
पु.
(२) न्यायम्यादिमं सून - मित्यधिकं पु. |
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समाजकारणम् ।
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দ্দিনলালালালি নন নন্ম ন্মিলন না জমি
ष्येभ्यो व्याक्रियन्तां किमनेनापूर्वनिर्माण (१)ोशेनेत्यत ভলু। লনিনিলিনি। নিখিলনাস্থলবনীस्तैरलसमायाः शिष्या न व्युत्पादयितुं शकान्त इत्यर्थवानेवायमारम्भः । शब्दमात्रस्यैदेहर) प्रपञ्चो निषिध्यते नार्थस्यति विस्तरशब्दं प्रयुञ्जानस्याशयः(३) ॥ १ ॥ सामानाधिकरण्येनोत्तरार्द्ध योजयति । तइदानीमिति । लक्ष्यन्ते इति लक्षदर्शनार्थत्वात् तस्य चोपलब्धिपर्यायस्योदेशादिनये ऽपि सम्भवात् त्रयस्यापि कर्तव्यत्वाचार्थसन्देहे लक्षणपरत्वेन व्याचष्टे । लक्ष्यन्ते समानेति । अत्रोदेशस्य सौत्रस्यैव स्थितत्वात् परीक्षायास्तु लक्षणशेषत्वादाहत्य तस्यैव तत्त्वावधारणहेतुत्वाल प्राधान्येन लक्षणतः प्रदर्शनं लक्षेरर्थ इति भावः । नातिविस्तरमिति न वक्तव्यं विस्तरेऽपि समयोजने प्रवृत्तिसिद्धरित्याशक्यान्यथासिद्धिमूलानारम्भशकोत्तरत्वेनावतारयति । ननु चिरन्तनेति । निबन्धनानि सूत्रभाध्यवार्तिकप्रभृतीनीत्यर्थः । एतावता कथमारम्भसिद्धिरत आह । अति विततेति । विततं विस्तृत टीकादि । गहनमकृत्स्नार्थतथा लाकाङ्क्षप्रकरणान्तरं गम्भीरं गुर्वर्थ सूत्रभाष्यादि । अतिशब्दः प्रत्येक सम्बन्धनीयः । नन्वस्यापि सक्षेपादकस्नार्थतादोषः इत्यत आह । शब्दमात्रस्यैवेति । प्रथने वावशब्द इति तन्मात्र विस्तरशब्दानुशासनादिति भावः ।
(१) ग्रन्यसन्दर्भनिर्माणा-पा. ( पु. । (३) माचस्यैवान-पा. B पुः ।। (३) माय:- पा. Bए ।
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सटीकताधिकरतायाम् ।
प्रमाणाधीनसिद्धित्वात् इतरपदार्थानां प्राधान्येन (१) प्रथमाद्विष्टं प्रमागां लक्षयति तावतू(२) ॥ লক্ষ্ম লাফ মন্ত্রী লাক্স মলিলিস্তাঘল ।। प्रमाश्रयो वा तयाला यथार्थानुभवः प्रमा॥२॥
(মলঅ অালদ্বয়া জানল सम्बन्धः प्रामाण्यम् । यथाहुः नैयायिकाः । प्रमायोगव्यवच्छेदसम्बन्धाः प्रामाण्यम् । तद्वत्प्रमाणम् । प्रमाणसम्बन्धश्चानयत्वेन करणत्वेन च विवक्षितः। तेन न केवलं साधनमेव प्रमाणम् अपि त्वाश्रयोऽपीअतिशब्दाच्छन्दविस्तरस्यापि स्तोकशोङ्गीकारान्नास्त्यवै
द्यदोषोऽपीत्यभिसन्धिरनुसन्धयः । एतेन पदार्थतत्वं विषयः । तत्त्वज्ञानं प्रयोजनम् । (३)साध्यसाधनभावः सम्बन्धः । मुमुक्षुरधिकारीत्यनुबन्धचतुझ्यसम्भवादिह प्रेक्षावतां प्रवृत्तिलाभ इति सिद्धम् ॥ १॥
अथोत्तरइलाके प्रथमतः प्रमाणलक्षणे हेतुमाह । प्रथमोदिमिति । सूत्र इति शेषः । सात्रे प्रथमद्देशे हेतुमाह । प्रमाणाधीनेति। तत्र तेषां पदार्थानां मध्ये इत्यर्थः । इह इलेके वाशब्दात् प्रमाव्याप्तपदावृत्त्या च साधनमाश्रयो वान्यतरममाव्याप्तं प्रमाणमिति ब्रीहियववदैच्छिको विकल्पः प्रतीयते । तदसत् । उभयप्रामाण्यवादिनामन्यतराव्याशेरपसिद्धान्ताचेत्याशळ्या साधनमात्रायश्चेति इयमपि प्रमाव्याप्रमाणं वाशब्दश्चार्थः ।
(१) प्रधानत्वेन-पा. पुः । (२) ता/ति-C घु. नाल । (३) हलेन-दयधिक F पु ।
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प्रमाणाप्रकरणाम ।
त्येतावत्प्रदर्शनायोक्तम् । प्रयोगव्यवच्छेदेनेति । साधলল সালাফিলি। অলিवृत्तिमात्रेण प्रामाण्यमित्येतावदुक्तं भवति ।)(१)
साधनाश्रययोरन्यतरत्वे सति प्रमाव्याप्त प्रमाযালু। ননক্ষুন্ন হ্যাথি সমাহনা মালাদিরলাাহিৰিাশি : ল ল খাইযলীলখানালিঃ प्रमाकरणैश्च यादृच्छिकसंवादिलिविनमादिभिरतिव्याग्निः । तेषां प्रभासम्बन्ध नियमाभावात् । न तीन्द्रियलिङ्गशब्दाः प्रमाणं भवेयुः तेषामपि नियमाभावादिति चेत् । मानवन् । न हि जयं तेषां प्रामा
।
प्रमाव्याप्तपदावृत्तिव प्रत्येक विशेषणार्थेति मावा व्याचष्टे । साधनाश्रययोरिति । साधनाश्रययोरन्यतरत्वं नाम तदुभयव्यतिरिक्तत्वानधिकरणत्वम् । एवं चानुगताथलाभान्नान्यतरशब्दार्थखण्डनावकाशः । अत्राश्रयपदोपादानस्य फलमाह । ततश्चेति । साधनपदस्य तु स्फुटमेव करणव्याप्तिः फलमिति भावः । शेषमतिव्याप्तिनिरासार्थमित्याह । न चेति । लिङ्गविनमो वाष्पादिः । आदिशब्दाशान्तादिवाक्यानां गवयादौ महिषादिसादृश्यस्य च संग्रहः। कुतो नातिव्याप्तिरित्याशङ्ग्य प्रमाव्याप्त्यभावादित्याह । तेषामिति । हन्तकं सन्धित्सताऽपरं प्रच्यवते यताऽतिव्याप्ति प्रतिक्षिपन्तमव्याप्तिरास्कन्दनीति शङ्कते । न तीति। अव्याप्तौ हेतुमाह । तेषाम्पीति। तेषाभादासीन्यस्यापि सम्भवादिति भावः । इधापत्त्या परिहरति । माभू
(१) ( ) तन्मयाप्स्य: B पु. नास्ति ।
६२५
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सटीकतार्किकरतायाम्। एयमभ्युपगच्छामः। इन्द्रियार्थसन्निकर्षविशेषस्य लिङपरामर्शदेश्च प्रामाण्याभ्यपगमात् । ते च प्रमान व्यभिचरन्तीति नाव्याप्तिः । एवं प्रमासम्बन्धे ऽपि प्रमयस्य व्यभिचारान प्रामाण्यप्रसङ्गः । किमर्थं तर्हि साधनमात्रया वेति विशेषणम् व्यायपादानादेव प्रमेयादिव्यावृत्तिसिद्धरिति चेत् सत्यम् । तयोरेव प्रमाव्याप्तिः सम्भवतीत्येतावता तदुपादानम् न तु लक्षगाशरीरानुप्रवेशेन सुखादिप्रमेयव्यावर्त्तनेन वा तदनुप्रवेश इति(१) न वैयर्थ्यम् ।
यथार्थानुभवः प्रमा। यशार्यानुभव इति प्रमावन्निति । किं तर्हि प्रमाणमत आह । इन्द्रियार्थेति । सन्निकर्षविशेषस्यालकादिमहकारिसाकल्यमेव विशेषः। लिङ्गपरामर्शस्तृतीयः प्रत्यथः आदिशब्दाच गृहीतसङ्गतिकशब्दविशेषसादृश्यविशेषयाः संग्रहः । न चैवमव्यातेरवकाश इत्याह । ते चेति । नापि प्रमेये ऽतिव्याप्तिः व्याप्त्यभावादेवेत्याह । एवमिति । तर्हि व्यावृत्त्यभावात् साधनाश्रयग्रहणं व्यर्थमिति शकते। किमर्थमिति । प्रौढवादेनाङ्गीकृत्योत्तरमाह । सत्यमिति । प्रमाव्यासमित्येतावदेव लक्षणं शेषं तदाहरणार्थमिति भावः । अथवा वास्तवपरिहारमाह । सुस्वादीति । सुखदुःखयरनुभूतैकसत्त्वेन प्रमाव्यातत्वमिति भावः । किं चेश्वरप्रमया नित्यसाथगोचरया प्रमेयमात्रस्थापि प्रमाव्याप्तेस्तन्निरासेनार्थवत्त्वं द्रव्यम् ।
ननु प्रमाणलक्षणप्रस्ताव प्रमालक्षणमसतमित्या(१) तदुपादानं स्यादिलि पा. C पुः ।
amasteeumarnapURNER
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प्रमाण प्रकरणम् ।
लक्षणम् । तत्र यथार्थेत्पययार्थविषयाः पीतशङ्खादिविभ्रमा व्यदस्यन्ते तत एव तर्कसंशययेोरपि व्यवच्छेदसिद्धिः । तर्कस्याहार्यलिङ्गजनितत्वेनारोपितविबयत्वस्याग्रे समर्थयिष्यमाणत्वात् । विरुद्धानियतकोटिद्वयावलम्बिनश्च संशयस्य तादृशविषयासम्भवेनायथार्थत्वात् । अनुभव इति स्मृतेर्निरासः । किमिदमनु
शय प्रकृतेrपयोगान्न दोष इत्यभिप्रेत्याह । यथार्थानुभव इति । तत्राद्यविशेषणस्य व्यावर्त्त्यमाह । यथार्थेति । अयथार्थविषयत्वं तु तेषां बाधदर्शनादिति भावः । तस्यैव व्यावन्तरमाह । तत एवेति । अयथार्थविषयत्वादेवेत्यर्थः । ननु तर्कस्य व्याप्त लिङ्गसमुत्थस्य प्रमाणाङ्गभावेन प्रमितिजनकस्य कथमयाथार्थ्यमित्याशङ्क्य बाधादित्याह । तर्कस्येति । व्याप्तलिङ्गस्याप्यारोपितत्वाद्दोष मूलारोपवबुडिमूलारोपेsपि विषयापहारस्य तुल्यत्वादयाथार्थ्यं तथात्वेऽप्यनिप्रसञ्जनद्वारा साध्याभावशङ्गोच्छेदकत्वात् प्रमाणाहृत्वं वेति भावः । तर्हि संशयो नायथार्थः तद्विषयस्य विभ्रमन्नेदमिति बाधादर्शनादित्याशङ्कयाह । विरुद्धेति । यस्य ज्ञानस्य यावद्विषयः तस्य तथैव सत्त्वे तद्यथार्थ नान्यथेति स्थितिः । संशयस्य हि विरुद्धा नियतकोटिद्वयात्मा विषयः । तस्य च तादृशस्यानन्तरमेव नियतैकको टिग्राहिणा तदुपमर्दकज्ञानेन बाधादसम्भवादयथार्थमित्यर्थः । तदुक्तं शालिकायां पूर्वपक्षे |
स्थाणुवी पुरुषो वेति सन्देहो योऽपि जायते । अभावात् तादृशार्थस्य स यथार्थः कथं भवेत् ॥ इति । अधानुभव पदव्यावर्त्त्यमाह । अनुभव इति । तस्याः
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सटीकतार्किकतायाम् ।
भवत्वं नाम । प्रत्युत्पन्नासाधारणकारण प्रसूत प्रत्ययत्वं वा (१) तदविदूरप्राक्कालोत्पत्तिनियतासाधारणकारणप्रसूतप्रत्ययत्वं वा । स्मृतेरुत्वसाधारणकारणं संस्कारः । तस्य तदुत्पादने तात्कालिकत्वनियमाभावान्न स्मृतेर्भेदकं वाच्यम् । अन्यथा तयावर्तकत्वासम्भवादिति पृच्छति । किमिदमनुभवत्वं नामेति । कारणवैलक्षण्यं ताव
कमाह । प्रत्युत्पन्नेति । प्रत्युत्पन्नं प्रत्यग्रजातम् । ननु स्मृतावपि समानमेतत् तत्कारणसंस्कारस्यापि स्वोत्पसिकाले प्रत्ययत्वादित्याशङ्क्य एतदेव निर्ब्रते । तद्विद्रेति । तस्य कार्यभूतस्य योsविदूरः प्राक्कालसन्निहितपूक्षणः तत्रोत्पत्या नियतव्याप्तं तत्कालैकजन्यमित्यर्थः । स्मृत्यसमवायिकारणात्ममनः संयोगनिरासार्थमसाधारणेत्युक्तम् । घटादिव्यभिचारवारणार्थ प्रत्ययपदं स्वत्पत्तिसन्निहितपूर्वक्षणजन्यासाधारणकारणोत्थज्ञानत्वमनुभवत्वमित्यर्थः । स्मृतेरेतद्व्यतिरेकमभिव्यक्तुं तत्कारणं चाह । स्मृतेस्त्विति । संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिरित्यर्थः । मात्रपदेन प्रत्यभिज्ञा दिव्युदासः । तत्र सन्निकर्षप्राधान्यात् । यथाहुः । अथ ग्रहणस्मरणयेोः कियती सामग्री । अधिकार्थसन्निकर्षो ग्रहणस्य संस्कारमात्रसनिकर्षः स्मरणस्येति । ननु प्रत्युत्पन्नसंस्कारोत्थस्मृतावतिव्यातिरित्याशङ्कय तन्निरासार्थमेव नियतपदमित्याह । तस्येति । एतेनानुभवत्यं नामपाधिकं सामान्यमित्युक्तम् । सम्प्रति मुख्यमेवास्तु ज्ञानत्वव्याप्यमित्याह । ज्ञानत्वेति । प्रमाऽप्रमावृत्तिज्ञानत्वसाक्षाद्यान्यसामान्यमनुभवत्वं पूर्वोक्तस्यैव व्यवस्था
(१) प्रत्युत्पत्यादि नास्ति B पु. |
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तत्र प्रसक्तिः । ज्ञानत्वावान्तरजातिभेदा वा अनुभवत्वम् । स्मृतिव्यतिरिक्तज्ञानत्वं वेति ॥ २ ॥
साधनमाश्रया वेत्युक्तमेवार्थं विषयविशेषव्यवस्या प्रपञ्चयति ॥ नित्यानित्यतया द्वेधा प्रमा नित्यप्रमाश्रयः । प्रमाण मितरस्यास्तु करणस्य प्रमाणता ॥ ३ ॥
एवं च नित्यप्रमाश्रयत्वादीश्वरस्यापि प्रतितन्त्र सिद्धान्तसिद्धं प्रामाण्यमपि लक्षितं भवति । तदुक्तम् । श्राप्तप्रामाण्यादिति । तन्मे प्रमाणं शिव पकमिति भावः । प्रमेतिस्मृतित्वसंशयत्वा दिव्युदासः । अप्रमेति प्रमात्वादिनिरासः (१) । शेषं सत्तागुणत्वज्ञानत्वनिरासाय | साक्षात्पदेन परोक्षत्वादिव्यावृत्तिः । अथ रूढिवा गुरुमतवादित्याह । स्मृतिव्यतिरिक्तज्ञानत्वं वेति । न च स्मृतिरप्यनुभवव्यतिरिक्तेत्यन्योन्याश्रयता | स्मृतेः पूर्वज्ञानजसंस्कारमात्रजन्यत्वेन लक्षणे तदनपेक्षणादिति ॥ २ ॥
उत्तरलोकं पूर्वपनरुक्त्येनावतारयति । साधनमाश्रयो वेति ।
नित्यप्रमाया आश्रय एव प्रमाणं तस्याः करणासम्भवात् । अनित्यायास्तु करणमेव प्रमाणम् । सम्भवे ऽप्याश्रयस्य प्रमाव्याप्त्यभावादिति भावः । नित्यप्रमाश्रयप्रामाण्यकथनफलमाह । एवं चेति । तदलक्षणे सिद्धान्तविरोध सूचयति । प्रतितन्त्रसिद्धान्तसिद्धमिति । स्वतन्त्रमात्रसिद्धमित्यर्थः । तत्र सूत्रसंवादमाह । तदुक्तमिति । मन्त्रायुर्वेद
(१) व्युदासः-पा. E पु. |
a - No. 12, Vol. XXI. - December, 1899.
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सटीकताधिकरताधाम् ।
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ক্ষুনি । গ গ্রাহ্মক্ষন গ্রহালয়ালি न्यायविदा लक्षणाचनानि लेकिकप्रमाणमात्रयস্থায্যি । ন ন দি ফার্ম মালিশवेन प्रामाण्यमुपपादयन्त प्राहुः । मितिः सम्यकपरिच्छित्तिस्तद्वत्ता च प्रमातता।
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प्रामाण्यवत्तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यादिति सूत्रो वेदप्रामाण्यं प्रतीश्वरप्रामाण्यस्याप्तप्रामाण्यादिति हेतुत्वेन सिद्धवदुपादानात् सिद्धमीश्वरप्रामाण्यमित्यर्थः । उद्यनसंवाद चाह। तन्मे प्रमाणमिति । परोक्तलक्षणानां गतिमाहाम्रोति । अकरणत्वेऽप्याश्रयत्वादेव प्रामाण्यमीश्वरस्थ प्रमाव्याप्तरित्याब्रोदयनाचार्यवचनं संवादित्वेनावतारयति । अत एवेति । करणप्रामाण्यनियमाभावादेवेत्यर्थः । प्रमाश्रयत्वेनैवास्य प्रामाण्यं न तु लौकिकवत् करणत्वेनेत्याह । प्रमातुरेवेति । अकरणत्वे कथं प्रामाण्यमत आह । प्रमाविनाभावेनेति । अत्र संवादः । तदद्योगव्यवच्छेदः प्रामाण्यामिति । तस्याः प्रमाया अयोगोऽसम्बन्धः लयवच्छेदः प्रमाव्याप्तिरिति थावत्। तदेवप्रामाण्यं तच्चेश्वरस्यापि सम्भवत्येवेति भावः।।
नन्वीश्वरस्य कुतः प्रमाव्याप्तिः तज्ज्ञानस्याकार्यस्याफलत्वेनाप्रमात्वादित्याशय प्रमाणलक्षणमाह । मितिः सम्यक्परिच्छित्तिरिति । अकार्यत्वे ऽपि सम्यगनुभूतित्वादीश्वरज्ञानं प्रमेति भावः । तथापि नेश्वरः प्रमाता नित्यप्रमाप्रति चाकर्तृत्वादित्याशय प्रमातृलक्षणमाह । तहत्ता चेति। प्रमासमवायित्वं प्रमातृत्वं न तु कर्तृत्वमितीश्वरोऽपि प्रमातेति भावः । तहि नेश्वरः प्रमाणम् प्रमातस्वकरणत्वयाविरोधादित्याशा प्रमाव्याप्तं प्रमाण अति
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নাথান মান্না বানল গান ॥ জানি(৭) ৷ | সুগ্ধ হতেনখালাকানত্মা নল মই লিখালি গ্রনি লালঃ জানুালা লাগা पक्षाणा(२)न्युपन्यस्यति । জুনিয়াকিলিজাল খালিনি নাঃ अनुभूतिः प्रमाणां सा स्मृतेरन्येति केचन ॥४॥ अज्ञात चारतत्त्वार्थनिरचायकमथापरे(३) । प्रमेयव्याप्यनपरे प्रमाणमिति मन्यते ॥५॥ प्रमानियतसामग्री प्रमाणं केचिदूचिरे ॥ नो मतं न तु तत्करणमिति अतो न विरोध इत्याह । तद्योगेति । प्रमाश्रयत्वात् प्रभातृत्वं प्रमाव्याप्तत्वात् प्रमाणत्वं च । न चानयोर्विरोधः करणत्वेन प्रामाण्यं तु लौकिकविषये न च तन्नाश्रयत्वमिति न कुत्रापि विरोधवातति भावः । न चेन्द्रियलिङ्गादिचतुष्करणकोटिष्वनन्तभावादीश्वरस्य पदमप्रमाणत्वप्रसङ्गः साक्षात्कारिप्रमाव्यातत्वेन प्रत्यक्षान्तभावादिति ॥ ३ ॥
अथ यदेतदविसंवादिविज्ञानमित्यादिना साहलाकहयेन परेषां लक्षणपञ्चकमुपन्यस्तं तदप्यप्रतिषिद्धत्वादनुमतमिति शहां शमयंस्तवतारयति । अथेति । भावा
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अन्येषामपि दृश्यत इति पूर्वस्य दीर्घः ।।
अज्ञातचरोऽज्ञातपूर्वः । भूतपूर्व चरट् इति । (৭) বায়মাৱা ৪ নম্বল ও জামিয়া। (२) लक्षणवचना-पा• C पु० । (৪) রূদীননগ্রামনাৰাঘৰ থিয়--- A. ।
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सटीकताकिकरक्षायाम् । तथागतमतानुवर्त्तिना विसंवादिविज्ञानं प्रमाणम् अविसंवादश्चार्थक्रियास्थितिरिति लक्षयन्ति । तथाहुः ।
অলালৰিমাৰিক্সালজিআত্মিনি:
মিনাললিনি। নফা। সুনসানিषयेष्वनुमानेष्वव्याप्तः । न हासतभितभविष्यताः काचिदर्थक्रिया नामास्ति(१) । स्मृतिज्ञानसविकल्पकचानाभ्यां चातिव्याप्तः। न हि ततः प्रवृत्ता विसंवादाते। विकल्पस्य(२) चाविसंवादानकीकारे निर्विकल्पकस्यापि तन्न स्यात् । तदद्वारकत्वात् तत्संवादनस्य ।
अविसंवादिविज्ञानमित्यनाथं क्रियाध्याहारण व्याचष्टे । तथागतेति । नन्वविसंवादिविशेषणमनर्थक सर्वस्यापि विज्ञानस्य विज्ञानत्वे विसंवादाभावादित्याशयार्थद्वारको विसंवादो दृषो न स्वरूपप्रतिबन्धन इत्यभिप्रेत्याह । अविसंवादश्चेति । अर्थक्रियासमर्थविषयत्वमविसंवादित्वमित्यर्थः । अत्र सौगतवाक्यं संवादयति। तथाहुरिति । तदेत हषयति । तदसदिति । अव्याप्तिं ताबदाह । भूतेति । कुत इत्याशक्य त्वदुक्ता विसंवादासम्भवादित्याह।नहीति।अतिव्यासिं चाह स्मृतीति। तदेव स्फोरपति।न होति।अभिमतविषयं स्मृत्वा विकल्प्य वा प्रवृत्तस्य विसंवादाभावादित्यर्थः । विकल्पस्याविसंवादानङ्गीकाराशातिव्याप्तिरित्याशङ्याह । विकल्पस्येति । तदविसंवादनं कुतो न स्यादित्यत्राह । तहारकर, दिति। सविकल्पकावि
(१) अर्थ क्रियास्थितिनामास्ति-पा० C पु. । (२) सविकल्पकस्य च-पा: C पु. ।
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प्रमाण प्रकरणम् ।
१५
न च शुक्तिकारजतादिविकल्प निदर्शनेन तस्य विसंवादः साधयितुं शक्यते । पक्षादिग्राहिभिरेव विकल्पैः सकल लैङ्गिक विकल्पैश्चानैकान्त्यात् । तन्मिथ्यात्वे चाश्रयादा सिद्धिः प्रसज्येत । अनुमानप्रामाण्यमप्युत्सनसंकथमापदोत । एतेनार्थजत्वमर्थविषयत्वमपि (१) अविसंवाद इति निरस्तम् । विकल्पस्यापि तथाभावेन प्रामाण्य प्रसङ्गात् । अथैवं मनुषे स्वलक्षणप्रभवनिसंवादप्रमाणकत्वान्निर्विकल्पका विसंवादनस्येत्यर्थः । विमतो विकल्पो विकल्पत्वाद् विसंवादी शुक्तिरजत विकल्पवदित्यनुमानं स्यादित्याशङ्कयाह । न चेति । कुत इत्यत आह । पक्षादीति । पक्षहेतुदृष्टान्तग्रा हि विकल्पमामाण्ये तत्रैव विकल्पत्वहेतेारनैकान्तिकत्वं तदप्रामाण्ये हेत्वासिद्धिः स्यादित्यर्थः । किं चेत्थं प्रलपतो बौद्धस्य मूर्द्धनि भगवता बुद्धेनापि दुर्द्धर्षो महानयं वज्रपातः कृत इत्याह । अनुमानेति । विकल्पत्वाविशेषादिति भावः । उक्तदोषं पक्षान्तरे ऽप्यतिदिशति । एतेनेति । अर्थक्रियास्थितिलक्षणाविसंवादस्य विकल्पे ऽतिव्याप्तिकथनेनेत्यर्थः । साक्षात्स्वलक्षणप्रभवत्वमर्थजत्वम् अनारोपितार्थत्वमर्थविषयत्वमिति विवेकः । क थमन्यनिरासादन्यनिरास इत्याशङ्क्य दोषसाम्यादित्याह । विकल्पस्यापीति । विकल्पस्य प्रामाण्यप्रस अकमाह । तथाभावेनेति । अर्थजत्वेनार्थविषयत्वेन चेत्यर्थः । अन्यथा प्रवृत्तिसंवादौ न स्यातामिति भावः । ननु भ्रान्त्यैव प्रवृत्तिः अर्थक्रियासंवादस्तु यादृच्छिक इत्यप्रमाणमेव विकल्प इति नातिव्याप्तिरिति शङ्कते । अथैवमित्यादिना । अप्रामा(१) श्रार्थविषयत्वं वा- पा. B.
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নাজিয়া। নিন্মরূভাষা নানাবিনা দামিষাসুল লিঃ হয়েফী প্র মনি কান্নাকানি লিমাক্সিক্ষত্মবিশ্বালিঙ্গাল ঘষামানিত্যানু(৭) ল লাস্যাস্থাগ্রবিন্দ্র চাহনীলাঙ্গালা মান। না নন জালালুংলালারি
বানু(২) সুক্ষ্ম অভ্রিল ফাখ্যালঘলাঁ মनुभवः तस्माद्धमविकल्पः ततो दहनविकल्प इति परখঅাত্মজন্দ্রলালুমলাথাম্বন। নচ্ছি অ্যালিল। সসালা ক্ষাঘাঙ্কা। ল লানি।
জান্নাবিষযহলাল লাল । দ্যা লালিলিন্ধলকলি। সঞ্জলসলুনা ল ফযুভর অর্থঃ । ললল চলথাৰি শ্ৰী অফথালাঃ লহাজ্ব আ ত্মফা সমূলিঃ লাঙ্গল প্লান্ত। तदारोपितार्थप्रतिभासश्चेति । नन्वारोपितावभासात् মন্তি হাবিত্যান্ধি ৰান্ত স্বাম আর লমিলনি'। হথ মিশা লঞ্চিালুখীলা চবি লালিমালিপ্ৰশা অফ থার্থী শ্রাহ্মিা আহ্মিা ঃ অস্থা লিখ্যাশ্রেষ্ঠ অধ্যমনঃ আহকাফালাজি আলাদা ভূঞ্জঃ লীলালিৰিক্ষাৰকাৰাহিত্য। শনি। সম হ্মাস্যালালাব্যাক্ষ লালনিখি । লুলানসানিলিয়াল। খালি। গলুঃ সালিশিক্ষাৰ খাল। (৭) ঘাঘ c q (২) নালাগ্নি প্রায় ল হান্য C :
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নন এই লিঙ্কাৰ লাহৰাই ॥ तत्रापि पारम्पर्यस्य सुवचत्वात् । एतेन बाधविरहाऽविसंवाद इति च प्रत्यक्तम् । न चावस्तुभूतसाলন্সিয়া মাহফি । লুলালহা तथाभावप्रसङ्गात् । ततश्चैतन्निरस्तम् । यथाहुः । विकल्पोऽवस्तुनिभर्भासादसंवादादुपलवः । इति । तथा। ন ফল ফালালি লঙ্কাকলি আনঃ ।। व्यावृत्तमिव निस्तत्वं परीक्षानभावतः ॥ इति। तयव्याप्तिं परिहरतः पुनः सैवातिव्याप्तिरावर्तते इत्यही कधृमायुष्मतः स्वनाभ्रमध्ये प्रवेश इत्याह । तीति । |तत एव पारम्पयेणार्थजत्वादेवेत्यर्थः । तत्र विकल्पस्यार्थ| जनिर्विकल्पकात्यत्वादर्थजत्वम् । स्मृतेस्तु तादग्विकल्पाहितसंस्कारप्रभवत्वादिति पारम्पर्येणार्थजत्वस्य सुवचत्वादित्यर्थः । अबाध्यत्वमविसंवादनमिति पक्षान्तरमाशाह । एतेनेति । विकल्पे ऽतिव्याप्तिकथनेनेत्यर्थः । विकल्पस्यापि बाध्यत्वान्नातिव्याप्तिरित्याशय किं तस्य बाध्यत्वमलीकसामान्यगोचरत्वात् । अशब्दात्मकस्यार्थस्य शब्दात्मकत्वेनावभासनादेति द्वेधा विकल्प्याचं दूषयति । न चेति । कुत इत्याशयाबाध्यत्वस्यानुमानाव्यारित्याह । अनुमानस्यापीति । अनुमानस्यापि सामा
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प्रामाण्य
युक्तमिति भावः । एतेन परेषां प्रलापाः परास्ता इत्याह । ततश्चेति । सामान्यालीकत्वायोगादित्यर्थः ॥
विकल्पः सविकरूपकम् उपल्लवो भ्रान्तिः कुतः अब
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सटीकताभिरक्षाया। .
| সুলুলল জালায় জ্বালারি । ল चाशब्दात्मकस्यार्थस्य शब्दात्मनावभासास्मिथ्यात्वं विकल्पस्य । न हि घटेाऽयमित्यस्यायमा घटशब्दाऽयमिति किं तु घट शब्दवाच्याऽयमिति । यथाहः ।
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स्तनस्तुच्छस्य निर्मासात् तन्त्र वा स्वतन्त्रो हेतुः असंवादादिति। तस्यां विकल्पसंविदिबाह्य विज्ञानातिरिक्तमिव एकमिव वस्तुनः परमाणुपुञानतिरेके ऽप्यतिरिक्तमेकमाश्रितं स्थलमिव तथा अन्यतो व्यावृत्तमिव व्यावर्त्तकसामान्यालीकत्वे ऽपि तत्कृतव्यावृत्तिविशिमिव पदपमाकारो भाति तन्निस्तत्त्वं तुच्छम् ।कुतः परीक्षानङ्गभावतः विचारासहत्वादित्येतत्सर्व पूर्वोक्तानुमानाप्रामाण्यप्रसङ्गादपास्तमित्यर्थः। द्वितीयं दूषयति। न चाशब्दात्मकस्यति । कुत इत्याशय उक्तत्व सिद्धरित्याह । न हीति। घटोऽयमिति घटशब्दवाच्यत्वावभासोऽयं न तु तत्तादात्म्यावभासः सामानाधिकरण्यनिर्देशसाम्यात्तु तादात्म्यावभासनमा भवताम् । अन्यथाक्षादिशब्दशवणादेवनाचनेकार्थेष्वेकत्वावभासः घटादिभूतार्थेष्व मूर्तत्वावमासः यजेतेत्यादितिङन्तार्थेषु साध्यरूपेषु सिद्धरूपतावभासश्च स्यात् । सर्वस्यापि शब्दस्य निष्पन्नरूपत्वाविशेषादिति भावः ।
माभूत् तादात्म्यावभासः तथापि सज्ञायाः स्मर्यमाविशेषणतया १) पारोक्ष्यात् तनिशिसज्ञिविकल्पस्थापि पारोक्ष्यापत्तो प्रत्यक्षत्वयाधः २) स्यादिति शहां वृद्धसंवादमुखेन परिहरति । यथाहुः सज्ञा होत्यादि । यद्यपि प्रति(१) घट शब्दवाच्याऽयर्भाित निर्विकल्पकजाने वाच्यदर्शनाद्वाचकस्मृतिः।
(२) घटस्य यत् प्रत्यतत्वं तस्य बाधः स्यादित्यष्टः।
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प्रमाण प्रकरणम् ।
सज्जा हि स्मर्यमाणापि प्रत्यक्षत्वं न बाधते । सञ्ज्ञिनः सा तटस्था हि न रूपाच्छादनक्षमा ॥ इति । ( इति बौद्धवादप्रकरणम्) । (१)
74
प्राभाकरास्तु अनुभूतिः प्रमाणम् । स्मृतिव्यसम्बन्धिसञ्ज्ञिनिर्विकल्पको डोधितसंस्कारोत्थस्मृतिपथपचिकतया परोक्षैव सञ्ज्ञा तथापि सञ्ज्ञिनो घटादेर्विकल्प्य मानस्य (2) प्रत्यक्षत्वं न बाधते परोक्षतां नापादयतीत्यर्थः पराकृत इत्याश का तदशक्के रित्याह । न रूपाच्छादनक्षमेति । सञ्ज्ञिन: प्रत्यक्षत्व तिरोधानाशक्तेरित्यर्थः । अशक्तौ हेतुI माह । सा तटस्था हीति । हि यस्मात् सा सञ्ज्ञा तटस्था स्मृतिद्वारा इन्द्रियस्य स्वसम्प्रयुक्तसञ्ज्ञिविकल्पजनने सहकारित्वेन सन्निहिता न तु समबलत्वेनेति यावत् । अन्यथा स्मृतिसम्प्रयोगयेोस्तुल्यबलत्वे मिश्रकार्योत्पत्तौ परोक्षत्वापरोक्षत्वसङ्करप्रसङ्गः । तस्मात् पूर्वकालतास्मृति: प्रत्यभिज्ञायामिष सञ्ज्ञास्मृतिरपी न्द्रिय सहकारितया न सञ्ज्ञिविकल्पे प्रत्यक्षतां बाधते । यथा सुरभि चन्दनमित्यादा प्राणजन्या गन्धबुद्धिरिन्द्रियान्तरसहकारिणी गन्धविशिचन्दनविकल्पस्य चाक्षुषत्वं स्पार्शनत्वं वा न विरुन्धेत् तद्वदिति सुष्ठुक्तं तटस्थेति ।
अथ प्राभाकरीचं प्रमाणसामान्यलक्षणं दूषयितुमुपन्यस्यति । प्राभाकरास्त्विति । अनुभूतिः प्रमाणमित्यत्र भावसाधनोऽयं प्रमाणशब्दः । येयमिन्द्रियलिङ्गादिजन्या संघित् सानुभूतिरनुभवः । सा सर्वा प्रमाणं प्रमिति
(१) ( ) एतन्मध्यस्थो नास्ति B पु· । (२) सविकल्पविषयस्य ।
a -No 12, Vol. XXI.-December, 1899.
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सटीकतामिकरक्षाणाम् । तिरिक्ता १) संविदनुभूतिः । स्मृतिश्च संस्कारमात्रज ज्ञानमिति वर्णयन्ति । यथाः ।। प्रमाणमनुभूतिः सा स्मृतेरन्या स्मृतिः पुनः । पूर्वविज्ञानसंस्कारमात्रज ज्ञानमुच्यते ॥ इति ।
तत्र तावत् प्रमाणलक्षणे प्रथमाध्याये वेदाWাত্রা নিলা না"ীলু স্থান নাজলিনহত্যা ज्ञानस्य स्वतः प्रामाण्यं प्राध्येदानी स्मृति व्यवरित्यर्थः । तस्याश्च हानादिव्यवहारानुगुणत्वात् स एव फलम् । यदा त्विन्द्रियतत्सन्निकर्षादेः प्रमाणत्वं विवक्षित सदा प्रमाणशब्दः करणसाधनः अनुभूतिः फलमिति च द्रव्यम् । तदुक्तं शालिकाया प्रमाणफलविभागप्रस्तावे।
मानत्वे संविदो भाव्यं हानादानादिकं फलम(३) । ज्ञानस्य तु फलं सैव व्यवहारोपयोगिनी ।। इति ।
ज्ञानस्य ज्ञानकरणस्येन्द्रियादेरित्यर्थः । न च स्मृतावतिव्याप्तिरित्याह । स्मृतीति स्मृतिव्यतिरेकज्ञापनाय । तामपि लक्षयति । स्कृतिश्चेति । संस्कारपदेनेन्द्रियलिङ्गादिजन्यज्ञानव्यवच्छेदः मात्रपदेन त्ववधारणार्थन प्रत्यभिक्षाव्यावृत्तिः । तत्र सम्प्रयोगस्यापि करणत्वादिति।।
अत्र शालिकासंवादमाह । यथाहुरिति । तदेतत्तुरगाधिरूढस्य तुरगविस्मरणम् यदप्रामाण्यसाधने प्रवृत्तस्य मीमांसागुरोस्तत्प्रमाद् इति सोपहासं परिहरति ।
तत्र तावदिति । तावच्छब्द एष्यहोषसूचनार्थः । कथं तत्प्रमाद इत्याशय स्वोक्तप्रमाणलक्षणस्य प्रकृतयेदवा.
(१) स्मृतिरन्या च-पा. B पुः । (२) संविदो मानवे हानादानादिकं फलं भाष्यमित्यन्वयः ।
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সমাজ।
লালমুনিল আলা সন্ধান জনি - दिदं व्याख्यानकौशलमायुष्मताम् । किं च स्मृतिज्ञानानामात्मस्वात्मनारभिमतं प्रामाण्यं न सिध्येत् ফলুনীল ফমিশ্রনৰিাফফফালাল নিশ্বানু। মিনায়য়ানা বা যক্ষ্ম জ্বালিतत्वेन स्मृतित्वं न त्वंशान्तरयोरिति चेत् न तयाः
क्याव्याप्त्यनवेक्षणादित्याह । प्रमाणेत्यादि । वाक्यजन्यस्य ज्ञानस्यानुभूतित्वेन प्रामाण्यं तज्जनकवाक्यस्यातल्लक्षणस्वादप्रामाण्यं दुर्वारमिति भावः । तावच्छन्दसूचितं दूषणान्तरं च प्रस्तौति । किं चेति । द्विविधं हि विज्ञानं ग्रहणं भरणं च तदुभयमपि पानप्रदीप इवात्मानमाश्रयतया स्वात्मानं स्वप्रकाशत्वेन विषयतया बायं चावभासयतीति त्रिपुटीप्रत्यक्षतामाचक्षते गुरवः । तत्रात्मस्वात्मांशयारुभयं प्रमाणे प्रत्यक्षं च वेद्यांशे स्मरणमप्रमाणमप्रत्यक्षं च । ग्रहणं तु पनाविधमपि।१) प्रमाणमेव तद्यथायथं प्रत्यक्षमप्रत्यक्षं चेति मन्यन्ते । तत्र मायारात्मस्वात्मांशयोः प्रमाजाभिमतयोरनुभूतित्वलक्षणभव्याप्तमित्याह । स्मृतिज्ञामानामिति । असिद्धौ कारणमाह । स्मृतीनामिति । आत्मस्वात्मांशयारपीति शेषः । स्मृतिप्रयोजकसंस्कारजत्वाभावेन स्मृतित्याभावादात्मस्वात्माशयोः स्मृतिब्यतिरिस्तत्वं व्याप्तमिति शकते। त्रितयेति । तत्रापि तत्प्रयोजकसम्भवादव्याप्तिस्तदवस्थैति परिहरति । न तयोरिति । नन्वस्त्येव कारणान्तरं तयोस्तत्रैव २) यदन्यदात्ममन:संयो
(१) प्रत्यवादीनि चत्वारि अापत्तिश्चति पविधम् । (२) तयारात्मस्वात्मांशावभासयोः तत्र स्मृती !
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सटीकतार्किकरवायाम् ।
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স্বাভালিনাশান ফাৰ্যনিৰ লাজ । লা জি জমি মিম্মমাজাহ্মানি অাৰব্যালন লালিত । আঁশী মাখন
মুলা লিন্ধালাইল। सर्वविज्ञानहेतूत्था मितो मातरि च प्रमा। साक्षात्कर्तृत्वसामान्यात प्रत्यक्षत्वेन सम्मता॥ इति । गादिकमित्याशझ्याह । न हीति । स्मृत्यादिषविधज्ञानेज्वपि संस्कारसम्प्रयोगादिविशेषयोगिन्यात्ममनःसंयोगादिसामग्री हि विषयप्रकाशांशे कारणं सैवात्मस्वात्मांशयोरपि कारण वाच्यम् । अन्यथा सामग्र्यैकदेशानामशतो विरुहानेकजाति १)मद्विज्ञानजनकत्वे घटादिकार्येष्वपि तथाभावप्रसङ्ग(२) इत्यर्थः । अन्यथा प्रमाणविरोधस्वाभ्यु-- पगमविरोधा स्यातामित्याशयेनाह । दृधमिष्टं वेति । उक्तः प्रमाणविरोधः।
स्वाभ्युपगमं दर्शयति । यथोक्तमिति । मेये त्विन्द्रिययोगोत्येत्युक्त्वोच्यते । सर्वेत्यादि । येयं जगति ग्रहणरणात्मिका संवित् सा सर्वापि मिती स्वात्मांशे माताहमांशे च सर्वैः समरेव विज्ञानहेतुभिः संस्कारसम्प्रयोगादिभिरुत्थिता न तु सामग्र्यैकदेशेनेत्यर्थः । सा च प्रमा प्रमाणमेव किं च यथा मेयांशं साक्षात्कुर्वन्ती प्रत्यक्षा भवति एवमात्मस्वात्मांशयोरपि साक्षात्कर्तृत्वसाम्यात् प्रत्यक्षा च किं तु मेयमात्रंशयास्तदतिरिक्ता 'मित्यंशे तु मितेरव्यतिरिक्तति विशेष इति शालिकार्थः । तमादा
(१) स्मृतित्वहणत्वादि । (२) कुत्रचिद् घटत्वं कुचिदन्यत् ।
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प्रमाणाप्रकरणम् ।
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एतेन स्वोत्पत्तौ संविदन्तरानपेक्षत्वमनुभूतित्वमित्यपास्तम् । पूर्वी सकल दोषानतिवृत्तेः । अपि च सविकल्पक प्रत्यक्ष स्यानुमानादीनां च संविदन्तरापेक्षात्पत्तित्वेनाननुभूतित्वात् (१) तत्प्रामाण्यं न स्यात् । स्वसमानविषयसंविदन्तरानपेक्षत्वमभिमतत्मस्वात्मांशयेोरपि स्मृतेः संस्कारजत्वाविशेषात् तत्रानुभूतित्वमव्याप्तमिति सिद्धम् । एवं परेषां कण्ठेोक्तमनुभूतिलक्षणं निरस्य सम्प्रति सम्भावितानि लक्षणान्तराण्यपि निरसिष्यन् स्वोत्पत्तौ संविदन्तरानपेक्षा संविदनुभूतिरिति पक्षं तावदतिदेशेन निरस्यति । एतेनेति । कण्ठेोक्तलक्षणनिरासेनेत्यर्थः । अत्रापि स्वात्पत्सावित्यादिविशेषणात् स्मृतिव्यावृत्तिः । कुतो निरस्तमित्याशय पूर्ववद्वेदवाक्येषु विशेष्याव्याप्तेः सार्त्तयोरात्मस्वात्मांशयेोर्विशेषणाव्याप्तेश्वेत्याशयेनाह । पूर्वोक्तेति । अन्यश्रपि विशेषणाव्याप्तिं समुचिनोति । अपि चेति । निर्विकल्पकलिङ्गशब्दसदृशवस्त्वनुपपद्यमानार्थज्ञानसापेक्षत्वा
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त् निर्विकल्पक व्यतिरिक्तप्रत्यक्षादिप्रभितिपञ्चकस्यापि अप्रामाण्यप्रसङ्ग इत्यर्थः । अनन्तरोक्तदोषनिरासाय लक्षणं विशिनष्टि । स्वसमानेति । स्वोत्पत्तावित्येव सविकल्पकादीनां निर्विकल्पकादिसापेक्षत्वेऽपि तत्समान (2) विषयत्वाभावान्न तेष्वव्याप्तिः । स्मृतिस्तु स्वोत्पत्तौ स्वसमानविपूर्वानुभव सापेक्षत्वान्न तत्रातिव्याप्तिश्वेत्याशङ्कितुराशयः । तथापि लैङ्गिकशाब्दयोरव्याप्तिर्षिमर्शे ऽतिव्याप्तिध
(१) अननुभूतित्वे - पी. B. पु. (२) तेन निर्विकल्पकादिना समानम् ।
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अटीकतार्किकरक्षायाम् । বিনি । না হয় আদ্রিয়াঙ্কমলাফালম্বিনিন্মঅসুলালম্বিযুষা মা জালামনিয়াজালাক্বীহ্মাৰা নহালনিন্ম ল - स्याच बिमास्येत्यात्मीय एव बाणा भवन्तं प्रहমনি। স্নগ্রাখি কলা অক্ষা বালা
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स्यातामिति परिहरति । नहींति । व्याप्तिग्राहक प्रमाण नाम यन्त्रदं तदमिति लिङ्गलिजिनानिहपाधिकसम्बन्धग्राहक प्रत्यक्षादि । तदुक्तम् ।
यः कश्चिद्येन यस्येह सम्बन्धी निरुपाधिकः । प्रत्यक्षादिप्रमासिद्धः स तस्य गमको मतः ॥ इति ।
विमर्शस्तु शब्दप्रमाणानुग्राहकस्तकरूपाः स्मृतिविशेषः । नन्वस्य स्मृतित्वे कथं स्वोत्पत्तो स्वसमानविषयसंविदन्तरानपेक्षत्वं तथात्वे वा कथं स्मृतित्वमतस्तत्रातिध्यातिवाचा युक्तिनातीव युक्तिमतीति चेत् सत्यम् तस्य सापेक्षत्वे ऽपि स्मृतिप्रमोषवदनुभूतविषयत्वाभिमानाभावादनपेक्षत्ववाचा युक्तिः शब्दानुमानयोः स्वसमानविषयविमादिसापेक्षत्वाभ्युपगमलक्षणं स्वचेषितमेव स्वस्य बाधकं जातमित्याशयेनाह । आत्मीय एवेति । अथ शाब्द-- लैङ्गिकयोः स्वोत्पत्ता विमादिसापेक्षत्वेऽपि स्वकार्येतदभावात्तथा विशेषणे व्यापक लक्षणमिति शत। अथेति । तच स्वकार्यमर्थपरिच्छेदार्थव्यवहारश्चेति दयमस्ति । तत्र तावदाधावलम्बनाह । अर्थपरिच्छेदेति । किं परिच्छित्तिः परिच्छेद इति भावसाधनोऽयं शब्द उत परिच्छिद्यतेऽनेनेति परिच्छेद इति करणसाधनो वेति धाविकल्प्याये इन्द्रियलिङ्गादिकरणफलस्य संविदा स्वातिरिक्तपरिच्छेदाभावात्।
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অখিলল জ্বালানি ম ল দুনিয়া - জ্বাই ইলিশ মা । খালি গা মনি रपि तथा स्यात् । तस्या अपि स्वोत्पत्तावेव परापेक्षा नार्थपरिच्छेदे । अर्थव्यवहारः संवित्कार्य इत्यभ्युपगमे ऽपि तथा शब्दानुमानयोरिव स्मृतेरपि वेदन
স্থায় সুই আ ম্মালামা। ফার্ম ক্লা - মালালাথি মামলালুনিলে স্যান। तयोरंशयोः सर्वसंविसाधारणत्वेन परानपेक्षत्वमिति स्वत्यैव स्वकार्यत्वे आत्माश्रयणाल्लक्षणमसम्मवि स्यादित्याशझ्याह १)। न स्वति। द्वितीये स्मृतावतिव्याप्तिरित्याह। भावे बेति कुत इत्यत आह । तस्या अपीति । अर्थपरिच्छेद इति । हेयत्वादिज्ञानरूपकार्य इत्यर्थः । व्यवहारपक्षावलम्बे ऽप्ययमेव दोष इत्याह । अथैति । अत्रापि व्यवहारशब्दो भावार्थः करणार्थी वेति विकल्प्याथे पूर्ववदात्माश्रयस्य(२) स्फुटत्वादवितीये स्मृतावतिव्याप्तिमतिदिशति । तथेति । कथं तथेत्यत आह । शब्देति । यथा शाब्दलैङ्गिकयोरुत्पत्तावेव संविदन्तरापेक्षा नार्थव्यवहारकार्य तबस्सतेरपीति तत्रातिव्याप्तिरित्यर्थः । अथातिव्याप्तिपरिहाराय
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सन्धित्सतोऽपरं प्रच्यवत इत्याह । भावे वेति । अथात्म
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(१) इत्याशयेनाह-पा. पु.।
(२) इन्द्रियलिङ्कादिकरणफलस्य विदः स्वातिरिक्तस्वकार्यार्थ. গ্রন্থামান্নান হত্যাঘন্যান্য মালাম্ময়।
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सटीकतार्किकतायाम् ।
चेत् न अंशान्तरस्यापि साधारणत्वात् । न चात्मस्वात्मव्यवहारसमर्थत्वेन जातायाः संविदो वेदाव्यवहा रसामर्थ्यं हेत्वन्तरेण पश्चाद्रवतीति वाच्यम् । कार्यगतशक्तीनां कार्यकारणादेव कार्येण सहोत्पत्तेः । अन्यथा विरम्यव्यापारप्रसङ्गात् । न च बुद्धिशब्दकर्मणामनावृत्तानां विरम्यव्यापार उपपद्यते । स्वसमा
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तयोरव्याप्तिरिति शङ्कते । तयोरिति । तर्हि वेद्यांशस्यापि तथात्वात् तन्त्रातिव्याप्तिरिति सेयमुभयतः पाशारज्जुरायुष्मत इति परिहरति । नेति । न त्वात्मस्वात्मव्यवहारजनने सहजशक्तियुक्तत्वात् तत्रानपेक्षैव संविद् वेद्यव्यवहारजन ने त्यागन्तुकशक्तिकत्वात् तत्र तत्संविदन्तरसापेक्षेति न कुत्राप्यव्याप्तिरतिव्याप्तिर्वेति शङ्कामनूद्य शकलयति । न वेति । कुतो न वाच्यमित्याशका स्वस्वाकाराधेय (१) शक्तीनां सर्वसंविदामागन्तुकशक्तत्ययोगाद्वेद्यांशे sपि स्मृतेरनपेक्षत्वेनातिव्याप्तिरित्याह । कार्येति । आगन्तुकशक्तिवादे ऽनिष्टमाह । अन्यथेति । सहजागन्तुकशक्तिकार्ययोः क्रमेण करणं विरम्यव्यापारः । इष्टापति परिहरति । न वेति । ननु वीणादिशन्दस्य श्रमिकानेकज्ञानजनकत्वात् तज्ज्ञानस्य च क्रमिकानेकसुखव्यक्तिजनकत्वात् कर्मणश्चेष्टादेः क्रमिका नेकाकाशादिदेशसंयोगविभागजनकत्वाचrस्त्येव शब्दबुडि कर्मणां च विरभ्यव्यापार इत्याशड्याह । अनावृत्तानामिति । असन्तन्यमानानामित्यर्थः । तथा च तेषामेकसन्तानवर्त्तिनामनेकेषामेव क्रमकारित्वं न स्वेकस्यैव विरम्यव्यावृतिरिति भावः । लक्षणा
(१) स्वस्वलत्तणाधेय - पा. E पु. |
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লৰছাৰনন্দিনলীলাঘালালুনিচ্ছে। मिति चेत् । तर्हि स्मृतिज्ञानस्य वेदांशे ऽप्यनुभूतित्वापत्तिः । न हि तदितिव्यवहारस्य पूर्वानुभवজাযাকলিনগ্রন্থায় লালম্বি হয় অনলালালালাল্লিঘিা সুনীমালুম জালালিলিহাত্মায়। স্লা - যাব নালালি না হয় ङ्गात् । शब्दानुमानयोरपि विमादापेक्षत्वेन वेदो न्तरमाशते । स्वसमानेति। तेरात्मस्वात्मांशयारीहक्संविदन्तरानपेक्षत्वाद्धेद्यांशे तदपेक्षत्वाच नाव्याप्तिरित्याशयः। माभूदव्याप्तिरतिव्याप्तिस्त न शक्रेणापि शक्यते वारयितुमित्याह । तीति । कुत इत्याशङ्कय तत्तेद-- न्ताव्यवहारयोरसमानविषयत्वादित्याह । न हीति । ननु तदिदंशब्दपरामार्थस्यैकत्वात् कथं विषयभेद इत्या-- शङ्या विशेषणकालभेदाणूंद इत्याह । एकस्येति । अनुभवकार्यस्येदमितिव्यवहारस्येत्यर्थः । अन्यस्येति । स्मृतिकार्यस्य तदितिव्यवहारस्येत्यर्थः । तथापि विषयभेदानङ्गीकारे दण्डमाह । अन्यथेति। तच्छब्दादिदमर्थे प्रवृत्तिरिदंशब्दाच तदर्थे प्रवृत्तिरुभाभ्यानुभयन्त्र वा प्रवृत्तिमयोः पोयतापत्तिश्च स्यादिति सकारार्थः । अव्यातिं चाह । शब्देति।अतिव्याप्त्यन्तरमाह । भवेच्चेति । कुत इत्याशय तन्त्रोक्तलक्षणसंक्रमादित्याह । स्वसमानेति । विमर्शस्य स्मृतिरूपत्वादीहकपूर्वानुभवसापेक्षत्वेऽपि स्मृतिप्रमोषवत् तथाभिमानाभावादनपेक्षत्ववाचा युक्तिः । अथान्यथालक्षणमाशङ्कते। ग~~No. 1, Vol. XI.January, 19.0.
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सटीकताकिकरवाया । नानुभूतित्वं भवेद् भवेच्च विमर्शस्य स्वसमान व्यवहारहेतुसंविदन्तरानपेक्षत्वात् । स्वहेतुसंविदन्तरानवच्छिन्नार्थविषया संविदनुभूतिरिति चेत् । तहि स्मृतिप्रमाणे वेदो ऽप्यनुभूतिः स्यात् । वक्तज्ञानानुमितेऽर्थ लौकिकवाकाजन्यस्य वेदेऽपि य एवं विद्वानित्यायनुवादवाक्यजन्यस्य(१) च ज्ञानस्यानुभूतित्वं स्वहत्विति । माभूदेवं स्मृतिवेद्यांशे ऽतिव्याप्तिः स्मृतिप्रमोषवेद्यांशे ऽतिव्याप्त का प्रतीकार इत्याह । तीति । इदं रजतमित्यादिविभ्रमस्थलेऽवख्यातिपक्ष नैकमिदं विज्ञानंकिंत्विदमितीन्द्रियादिदोषवशादगृहीतशुक्तित्वादिविशेषपुरोवर्तिद्रव्यमानग्रहणं रजतमिति तु दोषप्रमुषिततत्तांशस्मरणं स स्मृतिप्रमोष इत्युच्यते । तस्य वस्तुनः स्वहेतुसंविदन्तरावच्छिन्नार्थत्वे ऽपि तथाभिमानाभावात् तदभाव इत्यनुभूतित्वापत्तिरित्यर्थः । अव्यातिं चाह । वक्तज्ञानेति । वक्तज्ञानावच्छिन्नार्थानुमानकाले ऽनुमिता(२) इत्यर्थः । विषयघटितस्यैव ज्ञानस्यानुमेयत्वादिति भावः । गुरुमते सर्वत्र मामानयेत्यादिषु वाक्येषु वाक्यश्रवणानन्तरमेतद्वाक्यार्थज्ञानवानयं वक्ता एतद्वाक्यप्रयोक्तत्वात् यो यद्वाक्यं प्रयुक्त स तस्यार्थ वेद यथाहम् ।। अन्यथा तत्प्रयोगायोगादित्यनुमित एवार्थ वाक्य बोधकमित्युच्यते। किं च वेदे ऽपि य एवं विद्वानमावास्यां यजते य एवं विद्वान् पौर्णमासी यजत इति विद्वाक्याभ्यामानेयादिषवाक्यावगत एव यागषट्के त्रिकमयानु
(१) निनस्य-पा. C . ((२) वक्तज्ञानानुमानकाले ऽनुमित-पा० E धुः ।
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न स्यात् । स्याञ्च विमर्श स्यानुभूतित्वेन प्रामाण्यम् । জি ভান্স বনাৰি শ্ৰীষ্মাঝিনিসুলা লাখ
যুঃ নন ঘিানিলনমালা গালাঘিৰজনীলিমুলত্বনা লজ্জিাই লাষি वादेन ज्ञानं जन्यते तत्रोभयत्रापि स्वहेतुसंविदन्तरानवच्छिन्नार्थविषयत्वाभावाव्याप्तिः स्यादित्यर्थः । पुनश्चातिव्याप्तिमाह । स्याचति । अयोक्तसकलपक्षसाधारणी(१)मतिव्यामिमाह । किं चात्रेति । सर्वत्रापि स्मृतिव्यतिरिक्तस्यैव संविदः प्रामाण्ये प्रयोजकत्वोक्तस्तस्य पीतश
खादिविभ्रमेष्वपि सम्भवात् तेष्वतिव्याप्तिरित्यर्थः । आदिशब्दाच्छुक्तिरजतादिसङ्ग्रहः । ननु सति कुड्ये चित्रकर्म तथाहि दोषच्छन्नधवलिन्नः शङ्खमात्रस्याग्रहीताश्रयसम्बन्धस्य पित्तपीतिमश्च गृह्यमाणयोरवासंसाग्रहात् २) तथा शुक्तिरजतादौ च विषयेन्द्रियमनोदोषमहिना शुक्तिस्वतत्तांशतिरोधानेन पुरोवर्तिरजतमात्रयोहणस्मरणाभ्यामेव भेदाग्रहाच विनापि विभ्रमं विपरीतव्यवहार(3... सिद्धनिराश्रयो व्यभिचारो दुर्वच इत्याशझ्याह । तत्रेति । रूपरूपिणारिति । शङ्खपीतिनोरित्यर्थः । इदं च धारोपोदाहरणम् रजतादिधयारोपस्याप्युपलक्षणम् । निरन्तरभानमात्रेणेति । पूर्वोक्तप्रकारेणाधिष्टानारोप्ययोर्यधायथमसंसगांग्रहणं भेदाग्रहेण वा यद्भानं तन्निरन्तरभान तन्मात्रेणेत्यर्थः । सामानाधिकरण्यप्रतीतिमन्यथाख्यातिमित्यर्थः । बहिष्कार इति । प्रमाणसिद्धार्थापोतुरप्रामा
(१) अनुभतिः प्रमाणं सेत्यत्रोताम् । (२) विदामानोऽप्यसंसगा दोषान रहाते। (३) अयथार्थ व्यवहारः।
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३०
सटीकतार्किकत्तायाम् ।
कैः करणीय इति । एतेन साक्षात्प्रतीतिः प्रत्यक्षमिति तेषां प्रत्यक्षलक्षणमपि निरस्तम् ( ) । यथाहुः । साक्षात्प्रतीतिः प्रत्यक्षं मेयमातृप्रमासु सा । इति ।
न तावत् त्वन्मते गुणस्य सता ज्ञानस्य णिकत्वं स्यादित्यर्थः । विमतः शङ्खः पीतज्ञानगोचरः पीतव्यवहारविषयत्वात् हरिद्रादिवदिति तु प्रमाणमन्यथाख्याता । तदेवं प्राभाकरीयं प्रमाणसामान्यलक्षणं पराणुद्य सम्प्रति तन्मतस्यातिफल्गुत्वप्रकटनार्थमप्रस्तावे - ऽपि तदीयं प्रत्यक्षलक्षणमपि पराणुदति । एतेनेति । सामान्यलक्षणप्रतिक्षेपेणेत्यर्थः । तथाहि साक्षात्प्रतीतिरित्यत्र प्रतीतिशब्देन किं संविन्मात्रमुच्यते अनुभूतिवा । आये भावनाप्रकर्षपर्यन्तजस्मृती साक्षात्कारवत्यामतित्यातिः स्यात् । द्वितीये तु पूर्ववत् (२) स्मार्तयोरात्मस्वात्मांशयाः प्रत्यक्षाभिमतयोरव्याप्तिरिति ॥
अथ लक्षणांशे शालिकासंवादमाह । यथाहुः साक्षात्प्रतीतिरिति । साक्षात्कारिण्यनुभूतिः प्रत्यक्षमित्यर्थः । अन्यथा पूर्वोक्तस्मृतिविशेषे ऽतिव्यापनात् लैङ्गिका दिव्युदासाय साक्षाद्विशेषणं मेयेत्यादि तु विषयप्रदर्शनपरम् । तत्र विशेष्यदूषणमतिदेशग्रन्थे गतमिति साक्षाद्विशेषणं दूषयिष्यन् किमिदं साक्षात्त्वं नाम मुख्यमेव ज्ञानत्वावान्तरसामान्यं वा भूतत्वादिवत् किविदीपाधिकं सामान्यं वेति द्वेधा विकल्प्याचे लक्षणमसम्भवीत्याह । न तावदिति । साक्षात्त्वजात्यभावे कार
(१) परास्तम्- TT. B पु. (२) अनुभूतिः प्रमाणमित्यादिवत् ।
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३५
साक्षात्वं नामावान्तरजातिरस्ति । गुणानामवान्तरजात्यनभ्युपगमात् । न च तद्वातिरेकेण साक्षात्त्वमिति किञ्चित् सम्भवति । तथाहि तत् किं प्रतीतेः प्रतीत्यन्तराव्यवहितेन्द्रियजत्वम् (१) १ स्वविषये प्रतीत्यन्तराव्यवहितत्वं वा २ स्वकालाकलितवस्त्ववभासित्वं वा ३ पदार्थ स्वरूपविषयत्वं वा ४ सजातीयविजातीयसमस्त वस्त्वन्तरव्यावृत्तवस्तुस्वरूपविषयत्वं वा ५ वस्त्वन्तरप्रतीति निरपेक्ष स्वगृहीतभेदवशेन दृष्टसमस्तवस्त्वन्तरव्यावृत्तवस्तु व्यवहारोत्पादनशक्तत्वं वा() ६ इदमहं जानामीति त्रितयव्यवहारानुगुणत्वं वा ० किद्विमन्तरं वाद |
णमाह । गुणानामिति । रूपरसादीनां सर्वत्र गोघटादिष्वेकाकाराव मासादेकव्यक्तिकत्वेनावान्तरजात्यभाव इति तेषां समयः । ननु माभूद् गुणानामवान्तरजातिः ज्ञानस्य किमिति नास्तीत्याशड्य तस्यापि गुणत्वादित्याह । गुणस्य सत इति । ज्ञानस्यापि तन्मते सर्वत्रैकत्वादिति भावः । द्वितीये त्वसम्भव इत्याह । न चेति ।
असम्भवमेवाभिव्यक्तुमष्टधा साक्षात्वं विकल्पयति तथाहि तत् किमित्यादिना । यदेतत् प्रतीतेः साक्षात्वं तत् किमिति सर्वविकल्पशेषत्वेन योज्यम् । अनुभवव्यवधानेनेन्द्रियजत्वं स्मृतेरपीति तन्निरासार्थमुक्तं प्रतीत्यन्तराव्यवहितेति । शेषं चोदनाजन्यप्रतीतिनिरासार्थम् । एवं विकल्पान्तरेष्वपि यथायथं विशेषणफलमर्थश्च तत्तन्नि
(१) जन्यत्वम् - पा. C. 1 (2) ¶fmara a1-qı. O g. 1
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सटीकताकिकरक्षायाम् । तत्र न प्रथमः कल्प:१) ॥ अनुमानादिसंविदा खात्मात्मनारप्रत्यक्षत्व प्रसङ्गात() ।
का न द्वितीयः । चौदनाजनितायाः संविदा वे. दो ऽपि प्रत्यक्षतापातात् । सापि विमर्शव्यवहितेति चेत् । तर्हि विमर्शस्य वेदो ऽपि प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् (३) । रासदशायामेव सूत्प्रेक्ष्याः प्रेक्षावद्भिरित्युपेक्ष्यन्ते विस्तरभयात् । किञ्चिद्धर्मान्तरं वेति पूर्वोक्तसप्तमडिव्यतिरितमित्यर्थः। - तन्नाद्यमव्याप्त्या दूषयति । न प्रथम इति । व्याप्त्यादिज्ञानान्तरितलिङ्गादिजन्यत्वादनुमित्यादीनामात्मस्वात्मांशयोः प्रत्यक्षाभिमतयोरुक्तलक्षणमव्यातमित्यर्थः ।
- अयोक्तदोषपरिजिहीर्षया द्वितीयपक्षावलम्बे सोऽप्यतिव्याप्तिहत इत्याह । न द्वितीय इति । तत्र स्वविषय इति विशेषणात् प्रागुक्ताव्याप्तिनिरासः । अनुमानादिसंविदामप्यात्मस्वात्मविषये वेद्यांशवत् प्रतीत्यन्तरापेक्षाविरहादिति । चोदना विधिवाक्यम् । चोदना चोपदेशश्च विधिश्चैकार्थवाचिन इति कारिकोक्ततजन्यबुद्ध()रत्यन्तापूर्वार्थगोचरत्वेन स्वविषये वेये ऽपि संविदन्तरायोगात् तत्रेदं लक्षणमतिव्याप्तमित्यर्थः । उक्तातिव्यामिपरिहाराय परः शकते । सापीति । विमर्शी व्याख्यातः । तदेतदगीकृत्यान्यत्रातिव्यातिमाह सिद्धान्ती। तीति । तत्रापि
(१) कल्प - इति नास्ति B पुः । (२) प्रत्यत्तत्वापातात-पा. B . । (३) प्रत्यक्षत्वं स्यात-पा. B. । (४) चोदनाजन्यबुद्धः ।
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प्रमाणत्वे सतीति विशेषयिष्याम इति चेत् । तर्ह्यपमानस्य () प्रत्यक्षत्व प्रसङ्गः ।
न तृतीयः । अनुमानादावपि तथाभावप्रसङ्गात् । स्वकाले सत स्वार्थस्यावभासकत्वनियम इति चेत् । न अन्नायं नियमो नान्यत्रेति विवेक्तुमशकात्वात् । यत्र विषयस्य ज्ञानं प्रति हेतुत्वं तत्रायं नियमः । प्रतीत्यन्तरव्यवधानकल्पनायामनवस्था स्यादिति भावः । अत्र विशेष्यप्रतीतिशब्देनानुभूतित्वस्य विवक्षितत्वाद् विमर्शस्य चास्मन्मते स्मृतावन्तर्भावान्न तत्रातिव्याप्तिरिति शङ्कते । प्रमाणत्व इति । तर्ह्यपमितावतिव्याप्त्या स्वस्थो भवेत्याह । तर्ह्यपमानस्येति । अनेन सदृशी सा गौरिति पुरोवर्तिप्रतियोगिक परोक्षवस्तुनिष्ठ सादृश्यज्ञानस्य स्वविषयप्रतीत्यन्तराव्यवहितत्वादिति भावः । अथैतत्कल्पा निर्वाह निर्वेदात् तृतीयकल्पाश्रवणे सोsपि तथेत्याह । न तृतीय इति । कुत इत्याशङ्क्य किं तत्र स्वकालाकलितत्वं नाम वस्तुनः स्वकाले सत्त्वं वा स्वकालविशित्वं वा । आये स्वकाले सतोऽप्यवभासकत्वं स्वकाले सत एवेति द्वेधा विकल्प्याथे त्रैकालिकाथवभासिन्यनुमानादावतिव्याप्तिरित्याह । अनुमानादावपीति । तथाभावः सतोऽप्यवभासकत्वम् । द्वितीयमाशङ्कते । स्वकाल इति । ज्ञानकाल इत्यर्थः । सत एवेति । वर्तमानस्यैवेत्यर्थः । गूढाभिसन्धिरुत्तरमाह । नेति । अत्र प्रत्यक्षे । अन्यत्रानुमानादी । विवेक्तुं नियन्तुमित्यर्थः । अज्ञातपराशयः परो नियामकमाशङ्कते । यत्रेति । यस्मिन् प्रमाण (१) वेदोऽपि -- इत्यधिकम् C पु.
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सटीकतार्किकरक्षायाम् । असता ज्ञान प्रति हेतृत्वायोगादिति चेत् । एवं सति सर्वसंविदा स्वात्मन्य प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गः । स्वात्मनि स्वस्य हेतुत्वायोगात् स्वविषयत्वानभ्यपगमाच्च। स्वकाल. विशेषिताविभासित्वमिति चेत् । तर्हि निर्विकल्पकस्य सर्वसंविदा स्वात्मात्मनारप्रत्यक्षत्वापातः ।
न चतुर्थः । तत्र यदि वस्तुस्वरूपं साक्षादित्युइत्यर्थः । ज्ञान प्रति हेतुत्वमेव अन नियामकं तच्च प्रत्यक्ष एव सम्भवति नान्यत्रेति भावः । अन्यत्रासम्भचे कारणमाह । असत इति । भूतभाव्यनुमानादिविषयभूतार्थस्य तत्कालासत्त्वेन हेतुत्वादित्यर्थः । अथ सिद्धान्ती प्रत्यक्ताभिसन्धिरव्याप्त्या दूषयति । एवं सतीति । कुत इत्याशय स्वोक्तनियामकाभावादित्याह । स्वात्मनीति । चिषयत्वादेव हेतुत्वमित्याशय तदपि नास्तीत्याह । स्वविषयत्वेति । तदभ्युपगमे त्वात्माश्रयः स्यादिति भावः । विशिपक्षमाशङ्कते। स्वकालेति । अत्राज्यव्याप्तिमाह । तहीति । निर्विकल्पकस्याविशिविषयत्वाद् ज्ञानात्मनः स्वमते विषयतयानवभासाचा १) तेषु कालविशिाांवभासकत्वमव्याप्तमित्यर्थः। ... अथ चतुर्थपक्षीपन्यासोऽपि व्यर्थ इत्याह । न चतुर्थ इति । कुतो नेत्याशय यदेतत्प्रतीतेः साक्षात्वं नाम पदार्थस्वरूपविषयत्वमित्यात्य तत् किं पदार्थमात्रस्वरूपविषयत्वं साक्षाद्भूतपदार्थस्वरूपविषयत्वं वा । आधे ऽनुमानादावतिव्याप्तिरित्यास्तां तत् । द्वितीये तु साक्षाभूतपदार्थ एव स्वरूपमात्मा तद्विषयत्वं वा उता साक्षाभूतप
(१) विषयत्वानवमापाच्च-पा.पु.
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त्का तद्विषया संवित साक्षादित्य भिधीयते । ततः प्रत्यक्षसमानविषया स्मृतिरपि तथा स्यात् । यदि स्वस्य रूपं स्वरूपमिति जात्यादिधर्मभेदप्रतीतिः । तर्ह्यनुमानादेरपि तथात्वं प्रसज्येत । यदा स्वस्यैव दार्थे यत् स्वरूपमित्यनवधारित षष्ठीसमासाश्रयणात् तन्निष्ठसामान्यादिसाधारणधर्मस्तद्विषयत्वं वा अथवा स्वस्यैव रूपमित्यवधारणात् तन्निष्ठासाधारणधर्मस्तद्विषयत्वं वा स्वमेव रूपमिति सावधारणकर्मधारयाश्रयणान्नामाद्यविशिष्टापरोक्षवस्तुविषयत्वं वा यद्वा स्वरूपशब्दस्य प्रतीत्यन्तरसंस्पर्श निषेधपरत्वमाश्रित्याज्ञातचर साक्षाद्भूतवस्तुविषयत्वं वेति पञ्चधा विकल्प्याद्यमनुवदति । तत्र यदीति । साक्षात्वस्य विषयधर्मतामाह । वस्तुस्वरूपं साक्षादित्युतवेति । सर्वविकल्प शेषं चैनत् । अत्र वस्त्वेव स्वरूपमात्मेति विग्रहार्थः स्वरूपशब्दश्चात्र रूढवृत्तिः । तथा च साक्षाद्भूत पदार्थस्वरूपविषयत्वं (२) साक्षात्स्त्वमित्यर्थः । एतस्प्रत्यक्षानुभवजन्यस्मृतावतिव्याप्तमित्याह । तत इति । द्वितीयमनुवदति । यदि स्वस्येति । आदिशब्दात् संख्यादिसंग्रहः । अत्र प्रतीतेः साक्षाद्भूतवस्तुनिष्ठ साधारणधर्मविषयत्वं साक्षात्वमित्यर्थः । अस्य धूमानुमानादावतिव्यातिरित्याह । तहति । अत्रादिशब्दात् स्मृतेरपि संग्रहः । तृतीयमनुभाषते । यदा स्वस्यैवेति । साक्षाद्भूतवस्तुनिष्ठासाधारणधर्मविषयत्वं साक्षात्त्वमित्यर्थः । इदं तावदयं स्वरो मत्पुत्त्रीयः विशिष्टस्वरत्वात् पूर्वानुभूतैत
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(१) साक्षात्प्रतीतिरित्य-पा. C प (२) वस्तुविषयत्व पा. पु० ।
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सटीकता किकरतायाम् ।
रूपं स्वरूपमित्यसाधारणधर्मप्रतीति: (१) तदा पुत्रादिस्वरादनुमाने ऽतिव्याप्तिः (१) न व्याप्नोति च साधारणधर्मदर्शनम् । अथ स्वयमेव रूपं स्वरूपं रूप्यते ऽनेन संविदिति च रूपम् । तेन या स्वरूपेण स्वात्मना वस्तु विषयीकरोति सा साक्षात्प्रतीतिः नैवमनुमानादिरिति चेत् । तर्हि सविकल्पकस्याप्रत्यक्षत्वप्रसङ) । तत्र नामादिरूपेण विषयीकरणात् ।
स्वविषयान्तर्गत प्रतीत्यन्तराव्यवहितत्वं स्वरू
1
त्स्वरदेवेत्याद्यसाधारणधूमानुमाने ष्वतिव्याप्तमित्याह । तदा पुत्रादीति | आदिशब्दाद्रात्रादिसंग्रहः । स्वरादीत्यादिशब्दाद देशभाषादिसंग्रहः । अथ सङ्ख्यादिसाधारणधर्म प्रत्यक्षेष्वव्यातिश्चेत्याह । न व्याप्नोति चेति । चतुर्थमाशङ्कते । अथ स्वयमेवेति । नन्वेकस्यैव कथं धर्मधर्मिभाव इत्याश का रूपशब्दं च निरुक्तिभेदेन धर्मपरत्वेन व्याचष्टे । रूप्यत इति । तथा च रूपमिति निरूपकमित्यर्थः । फलितमाह । तेनेति । स्वरूपशब्दस्य पूर्वोक्तनिरुक्तिसिद्धार्थमाह । स्वात्मनेति । अविशिष्टाकारेणेति यावत् । इत्थम्भावे तृतीया । तथा च यद्वस्तु यथाभूतं तत्तथैवोल्लिखति न तु विशिष्टमित्यर्थः । एतेन नामाद्यविशिष्टसाक्षाद्भूतवस्तुविषयत्वं साक्षात्त्वमिति सिद्धम् । तथा च पूर्वोक्तातिव्यातिर्निरस्तेत्याह । नैवमिति । अनुमानस्य विशिष्टविषयत्वादिति भावः । तर्हि मूले कुठार इत्याह । तहौति ।
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(१) धर्मभेदप्रतीतिः - पा० पु. (२) अतिव्याप्नोति पा० B. | (३) प्रसक्ति:- पा० Bपु० ।
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पप्रतीतित्वमित्ययं पक्षः स्मृतेः स्वात्मात्मनारप्रत्यक्षत्वापातेन निरस्त एव ।।
न पञ्चमः । पुत्रादिविषयस्वरादानुमाने ऽतिগ্রাঃ । ভাশীশিতানীঅজানমালামাस्तरावृत्तप्रत्ययासम्भवाच्च । वस्तुता व्यावृत्तविषयत्वमात्रेण प्रत्यक्षत्वे ऽनुमानादेरपि तथात्वं स्यादिति । .. नापि षष्ठः । निर्विकल्पकसापेक्षमेव विकल्पेन विकल्पितरूपग्रहणमिति विकल्पस्याप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । उत्पत्तावेव विकल्पस्य तदपेक्षा न
पञ्चमोऽप्यव्याप्तिग्रस्त इत्याह । स्वविषयेति । अत्र | स्वरूपशब्देनाज्ञातचरत्वं विवक्षितं तच्च स्मार्तयोरात्मस्वामांशयोः प्रत्यक्षाभिमतयोरनुभवपूर्वकयोरव्याप्तमित्यर्थः ।
अथ पञ्चम दूषयति । न पञ्चम इति । अत्र वस्तनः समस्तवस्तुव्यावृत्तिज्ञाततया विशिष्यते सत्तया वा । आये ऽपि किं ज्ञातुं शक्यते वा न वा । आद्येऽतिव्याप्तिरित्याह । पुत्रादीति | विषयशब्दः सम्बन्धिवचनः गतमन्यत् । द्वितीये त्वसम्भव इत्याह । सजातीयति । सत्तापक्षे त्वतिव्याप्तिरित्याह । वस्तुत इति ।.... __अथ षष्ठोऽप्यपहित्याह । नापीति । ननु कथं तस्यापटुत्वं वस्त्वन्तरेत्यादिविशेषणेन पूर्वोक्तपुत्रादिस्वरानुमाने स्वगृहीतेत्यनेन स्मृता चातिव्याप्नत्यनेन प्रागुत्तासम्भवस्य च निरासादित्यत आह(१ । निर्विकल्पकेति । विकल्पितेति विशिष्टेत्यर्थः । उक्ताव्याप्तिपरिहारमाशइते । उत्पत्ताविति । तहि पूर्वोक्तातिव्याप्तिन मुवति ।
(१) दिल्याशड्याह-पा. E पु. !
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सटीकतार्किकरक्षायाम् ।
स्वविषयभेदग्रहण इति चेत् । न पुत्रादिविषयस्वराद्यनुमाने ऽपि सुवचत्वात् । असाधारणधर्मदर्शनसापेक्षभेदप्रतीतेरप्रत्यक्षता च स्यादिति ।
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निर्विकल्पक संविद स्त्रितयव्यवहारानुगुण्याभावेन सप्तमः पक्षोऽपि न कक्षीकार्यः ।
अष्टममपि विकल्पं विकल्पयामः । किं तहमीन्तरमनुमानादिसंविदामस्ति वा न वेति । यदास्ति तासामपि प्रत्यक्षत्व प्रसङः । साक्षात्त्व विशेषणस्य व्यवच्छेद्याभावेन वैयर्थ्यं चापोत । यदि नास्ति तासां तत्राप्यनुमितेरुत्पत्तावेव लिङ्गज्ञानापेक्षा नार्थपरिच्छेद इनि सुवचत्वादित्याह । नेति । अन्याप्तिश्चापरा लगतीत्याह । असाधारणेति । स्थाण्वादिधर्मिविशेषावधारणस्य वक्रकोटरादिविशेषज्ञानापेक्षत्वेन त्वदुक्तलक्षणायोगादित्यर्थः ।
सप्तमस्तु निर्विकल्पक एवाव्यात इत्याह । निर्विकल्पकेति । वेद्यवेदकवित्तिस्फुरणमात्रात्मकं तत्र तहिशेषोल्लेखियवहारानुगुण्यायोगादिति भावः ।
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अटमस्तु कष्टादपि कष्ट इत्याशयेनाह । अषृममपीति । विकल्पयति । किं तदित्यादि । तस्य स्वरूपं यद्वा तद्वास्तु किं तु तदितराव्यावृत्तं तदितरव्यावृत्तं वा तावदेव ब्रूहीति भावः । अव्यावृत्तिपक्षे ऽतिव्याप्तिरित्याह । यद्यस्तीति । किं चास्मिन् पक्ष साक्षात्प्रतीतिरित्यत्र विशेष्यवद्विशेषणस्यापि सर्वसंवित्साधारणत्वे विशेषणवैयर्थे च स्यादित्याह । साक्षात्वेति । द्वितीये त्वव्याप्तिरित्याह । यदि नास्तीति । व्याकोपो हानिः । तत्रापि तदभावादिति
४४
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३०
स्वात्मात्मनेारपि प्रत्यक्षताव्याकोपः स्यादिति कृतं विस्तरेण । अनतिभेदा अप्येते पक्षभेदा मन्दमतीनां विश्वमा माभूदिति पृथगुपन्यस्य निरस्ता इति ।
अनधिगततथाभूतार्थनिश्चायकं प्रमाणमिति मीमांसाचार्याः । यथाहुः ।
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भावः । नन्वज्ञानकरणत्वे सत्यनुभूतित्वं तद्भविष्यति तच्चेतरव्यावृत्तमेवेत्याश का ज्ञानकरणानामनुमानादिसंविदां स्मृतेश्चाननुभूतेरात्मस्वात्मांशयोरव्यातिं किं न पश्यसीत्याशयेनाह । कृतमिति । निषेधार्थे ऽव्ययमेतत् । विस्तरेण साध्यं नास्तीत्यर्थः । गम्यमानसाधन क्रियां प्रति करणत्वात् तृतीया । तदुक्तं न्यासोद्योतेन । न केवलं श्रूयमाणैव क्रिया निमित्तं करणभावस्य अपि तु गम्यमाना पीति स्फुटीकृतं चैतदस्माभिः पञ्चकाव्यादिटीकासु अलं महीपाल तव श्रमेणे(१)त्यादौ । ननु विस्तरमनिच्छतो. किमनेनातिविलक्षण बहुपक्षोपन्यासेन दिङ्मात्रप्रदर्शनेनापि सुगमत्वादित्याश च मन्दानुग्रहार्थमित्याह । अनतिभेदा इति । अत्यन्त भेदरहिता अपीत्यर्थः । इतिशब्दः समाप्तौ ॥
तदेवं गुरुमतं निरस्येदानीं परमगुरुमद्यपादमतं निरसितुं तत्सङ्ग्राहक मज्ञातचरेत्यादिश्लेाकमर्थता व्याचष्टे । अनधिगतेत्यादि । तथाभूतोऽन्यथात्वमप्राप्त इत्यर्थः । निश्चायकं निश्चयकरणमित्यर्थः । करणे कर्तृत्वापचारात् ण्वुलूपत्ययः । क्रमात् पदत्रयेण स्मृतिविपर्ययतर्कसंशयानां व्यवच्छेदः । संग्रहस्थापरशब्दार्थ (माह । मीमांसाचार्य इति ।
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(१) रघुवंशे (२) कारिकास्थस्यापरशब्दस्यार्थम् ।
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सटीकताकिरक्षायाम् । । तस्माद् दूढं यदुत्पन्न न विसंवादमृच्छति । नानान्तरेण विज्ञानं तत्प्रमाणं प्रतीयताम् ॥ इति।
तदपि न चतुरनमिव दृश्यते ।
यादृच्छिकसंवादिनां दुष्टेन्द्रियाणां बाष्पादिত্মিহম্মুলাবিলিম্বিসুলাযছা। ভালার্জি क्यानां च प्रामाण्यापत्तेः । सकलवेदाप्रामाण्य प्रसडाच्च यत्र वचन जन्मनि वेदार्थस्य सवैरधिगतत्वेनानधिगतपूर्वकत्वाभावात् । अधिगतत्वसन्देहे ऽपि
अत्र कारिकां संवादयति। यथाहुः तस्मादिति।प्रागुक्तरीत्या प्रामाण्यस्य गुणसंवादार्थक्रियाज्ञानादिपरानपेक्षत्वादित्यर्थः । दृढमवधारणात्मकम् तेन तर्कसंशययोव्युदासः । उत्पन्न प्रथमात्पन्नमनधिगतार्थगोचरमित्यर्थः । तेन स्ट. त्यनुवादयोनिरासः । अथवा उत्पन्नमित्यनेनानुत्पत्तिलक्षणाप्रामाण्यनिरासः । न विसंवादमृच्छति ज्ञानान्तरेणेति विषयतथाभाव उक्तस्तेन विपर्ययपयदासः। विज्ञायते ऽननेति विज्ञानमिन्द्रियलिङ्गादि यद्विज्ञानकरणं तत्प्रमाणमिति प्रत्येतव्यमिति कारिकार्थः । तदेतत्सविनयसोचमिव निराचष्टे । तदपीति । चतस्रोऽस्रायो यस्य ।) तच्चतुरस्रं समीचीनमित्यर्थः । सुप्रातसुश्वेत्यादिना समासान्ते निपातः।
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दिनामिति । कदाचित् तथाभूतार्थानामित्यर्थः । किंच कि जन्मान्तरे ऽप्यनधिगतत्वमियमेतस्मिन्नेव वा । आयें त्वव्याप्तिरित्याह । सकलेति। ननु जन्मान्तराधिगतिः सन्दि
(१) अन्नयोऽस्य - पा. घुः ।
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জালালিমুআলু। ইন্ধান জালাল মিয়ানলুললে तत्त्वमिति चेत् । न तन्त्रवाधिगतविस्मृतवेदार्थानां
অথ্যা মামলাজা। ল্য নাস্থানप्रतिसन्धानमस्तीति चेत् । न अनुवादकवाक्यानां स्मृतिप्रमाषाणां प्रामाण्यापातात् । अधिगतविषঅন্য সাক্ষাত্র লালায়ালাখানীহ্মাস্ত্রী वाक्यान्याप्रमाणं भवेयुः । न च तेषां प्रतिपत्तव्यवस्थयाऽनधिगतत्वं वाच्यम् न चैक प्रति शिष्यत(१) ग्धेत्याशङ्याह । आधिगतेति । द्वितीयं शकते। एकसिनिति । तथाप्यव्याप्तिरस्तीति परिहरति । न तन्त्रवेति । तहि ज्ञातं सदप्रामाण्यकारणमाधिगतत्वं न सत्तामात्रेणेति शते । न तत्राधिगतत्वेति । तहतिव्याप्तिरित्याह । नेति । योऽश्वमेधेन यजत इत्यादीन्यनुवादवाक्यानि जातमात्राणां च जन्मान्तरानुभूतस्तनपानेसाधनतास्मृतयस्तत्रांशाप्रमोषात् स्मृतिप्रमोषा उच्यन्ते । तेष्वधिगतत्वप्रतिसन्धानाभावात् प्रामाण्यापत्तिरित्यर्थः । किं च एवं प्रतिशाखमामातेषु ज्योतिष्टोमादिवाक्येष्वनाधिगतार्थत्वासभवादव्याप्तिः स्यादित्याह । अधिगतेति। तत्तच्छाखिनामेव तानि बोधकानीति नियमाङ्गीकारान्नायं दोष इत्याशसामनूद्य निरस्थति। न चेति । कुतो न वाच्यमित्याशश शाखान्तराधिकरणसिद्धान्त न्यायविरोधादित्याह। न चैक प्रतीति। न होकस्यां शाखायामानातमग्निहोत्रादिकं कर्म एक तच्छाखाध्यायिनं प्रत्येव शिष्यत उपदिश्यते किंतु विशेषाश्रवणात् सवानेव शाखिनः प्रतीति सूत्रार्थः । स व
(१) प्रति क्रियात-पा. पुः ।
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सटीकताकिकरवाया।
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इति न्यायात् । सर्वशाखाविहितेतिकर्तव्यताकलापोঅাললল লল লল মালাক্ষা किंनिबन्धनचाधिगतविषये प्रद्वेषः । किं तत्राधिगत्यन्तरानुत्पत्तेः उत्पत्तावपि वानपेक्षितत्वात् पूर्वाविशिष्टत्वाहा । न प्रथमः । सामग्य प्रतिबन्धेन प्रमिते ऽपि प्रमान्तरोत्पत्तिदर्शनात् । न द्वितीयः । प्रतिपत्तव्यवस्थाश्रयणे विरुड्यत इत्यर्थः। तथाप्यनङ्गीकारे ऽभ्युपगमविरोधश्च स्यादित्याह । सर्वशाखागतेति । शाखान्तरे कर्मभेदः स्यादित्यत्र कस्यानिच्छाखायामानातमग्निहोत्रदर्शपूर्णमासादिकं कर्म शाखान्तरानाताद्भिन्नमभिन्नं वेति विचार्य न्यूनाधिकाङ्गतया श्रवणाद्भिन्नमेवेति प्राप्ते ऽनुक्तमन्यतो ग्राहमिति न्यायेन साङ्गोपसंहारात् सर्वशाखाप्रत्ययमेकं कर्मेति सिद्धान्तकरणादित्यर्थः । तदेवमनधिगतार्थत्वं न प्रामाण्ये प्रयोजकं विरोधादित्युक्तम् । सम्प्रति तद्यावय॑मधिगतार्थत्वमप्रामाण्य न प्रयोजक विरोधादिति वक्तं पृच्छति । किंनिवन्धनश्चेति। प्रद्वेषः प्रामाण्यासहनमित्यर्थः । ननु दुर्घटार्थे कि पक्षपातेनापी-1 त्याशय दौर्घट्यमेव कुत इति त्रेधा विकल्पयति । किंतत्रेति। ध्वस्तस्य पुनर्वसवत् ज्ञातस्य पुनानान्तरानुत्पत्तेरप्रामाण्यम् उत उत्पन्नस्यापि भुक्तभाजनवत् अनपेक्षितवादा अपेक्षितस्यापि दीपवर्तिदेशे दीपान्तरवत् कार्यतः स्वरूपतो विषयतः प्रमातता वा विशेषाभावाद्धेत्यर्थः । आद्यं परिहरति । न प्रथम इति । कुता नेत्यत आह । सामग्रीति । सामग्रीसद्भावासद्भावनिबन्धने हि ज्ञानोत्पत्यनुत्पत्ती न त्वधिगतत्वानाधगतत्वानिवन्धने इत्यर्थः ।
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प्रमाण प्रकरणम् ।
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মামলীলা মালা। दिफलानामप्रामाण्यापातात् । न तृतीयः । उत्तराविशिष्टत्वेन पूर्वाप्रामाण्यस्यापि सुवचत्वात् । अविशेषे ऽपि तदनपेक्षत्वेन तस्य प्रामाण्यमिति चेत् ।
নিমণি । খিয়ানমিক্স ফ্যামি সালাম स्मृतिहेतारपि तथात्वप्रसङ्ग इति चेत् । न स्मृतेरननुभवत्वेनाप्रमाणत्वात् । याथार्थ्यमेव प्रमात्वनिमि
दर्शनादिति । प्रत्यक्षस्य दुरपयत्वादित्यर्थः । प्रामाण्यस्य पुरुषाकाङ्क्षानिबन्धनत्वे ऽनिर्णमाह । अन्यथेति । आदिशब्दाद् द्वेषजुगुप्सादिसंग्रहः । अन्न प्रमाणविशेषाणामिति शेषाः । यदि पूर्वस्योत्तराविशेषे ऽप्युत्पत्तो विषयपरिच्छेदे वानुत्पन्नोत्तरानपेक्षत्वात् प्रामाण्यं ततरस्यापि पूर्वाविशेषे ऽप्युत्पत्तिविषयपरिच्छेदयानपूर्वानपेक्षितत्वात्(१) प्रामाण्यं दुर्वारमिति समः समाधिरित्याह। तुल्यमितरत्रापीति । ननु यद्येवमधिगतार्थत्वमप्रामाण्ये हेतुर्न स्यात् जितं तहि संस्कारणेति शकते। अधिगतेति(२) । यथार्यानुभवकरणत्वं प्रामाण्ये व्यापकं तदभावादप्रामाण्य संस्कारख्या न त्वधिगतार्थत्वादिति परिहरति । नेति । अप्रमाणत्वादित्यतः प्राक् तत्साधनसंस्कारस्येति पूरणीयम् । तहि यथार्थज्ञानकरणत्वमेव प्रामाण्ये प्रयोजकमस्तु किमनुभवत्वेन । अस्ति च याथायें स्मृतेरपि समानतन्त्र प्रत्यक्षलैङ्गिकस्मृत्यार्षलक्षणेति विद्याप्रभेदेषु भाष
(१) नपेतत्वात-पा. E घुः । (২) গলায় মাননিযহ দুনিনা: ক্রাফ। छ-No. 2, Vol. XXII.February, 1900,
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सटीकताविरक्षायाम् । तमस्तीति चेत् । न स्मृति हेतः संस्कारस्य महদ্বিীন্সিঃ সুলায্যালাৰিলালান। লালনभावः। असाक्षात्कारिफलत्वेनाप्रत्यक्षत्वात् । सत्तामा
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पादित्याशयेन शकते। याथार्थ्यमेवेति । तहि किमस्य प्रत्यक्षादिवत् पृथक प्रमाणत्वमिमा पत्यादिवदन्तर्भावा बेति वैधा विकल्प्य नायः प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानीत्यादौ सूत्रकारैः प्रत्यक्षादिवत् संस्कारस्य पृथगनुशादित्याह । नेति । न च द्वितीय इत्याह । नापीति। कुत इत्याशय न तावत् प्रत्यक्षे ऽन्तर्भवति संस्कारः तल्लाक्षणरहितत्वादनुमानादिवादित्याह । असाक्षात्कारीति । नाप्यनुमानादी अज्ञातकरणत्वात् प्रत्यक्षवदित्याह । सत्तामात्रेणेति । न च तल्लक्षण)बलादेव संस्कारे ऽपि प्रामाण्यव्यवहारः प्रवर्तयितव्य इति वाच्यम् लेाकसिद्ध व्यवहारे निमित्तान्वेषणमात्राधिकारिणां परीक्षकाणांन स्वोत्प्रेक्षाकल्पितलक्षणैर्व्यवहारोऽन्यथाकरणशक्तिविरहात् । तस्माद् यथार्थापि स्मृतिरननुभवत्वादप्रमा न त्वाधिगतार्थत्वादिति स्थितम् । ननु कोऽयं नियमो ऽयथार्थाप्यनुभूतिरेव प्रमान तु स्मृतिरिति सत्यम् । विषयपरिच्छेदे निरपेक्षत्वादनुभूतिरेव प्रमा न तु स्मृतिनित्यमनुभवपारतन्त्र्यात् । तदुक्तमाचार्य।
यथार्थानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यते । इति ।
अस्तु वा यथार्थज्ञानकरणमित्येव प्रमाणलक्षणं तथाप्ययथार्थत्वादेवाप्रामाण्यं स्मृतेनाधिगतार्थत्वादिति वक्तं
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(१) ययार्थज्ञानकरणमिति ।
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प्रमाणाप्रकरणम् ।
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त्रेण बोधकत्वेनानुमानादयनन्तभावाच्च । न च याथार्यमपि स्मृतेरस्ति । न हि यदा यादशोऽर्थः स्मर्यते तदा तादशोऽसा पूर्वावस्थाया निवृत्तत्वात् । न च निवृत्तपूर्वावस्थतया स्मृतिरालम्बते तथाननुभूतत्वात्। নল ফাল শ্রিল ১ৰি মূখার্যাম লুনা ১ মাত্রা নিজা নামাজ याथार्थ्यमन्य स्थायथार्थत्वमप्युपपात एव । पूर्व तदवस्थमित्युत्तरत्रापि याथार्थं पाकरतो ऽपि श्यामताप्रत्ययो यथार्थः स्यात् । तेनायथार्थस्यापि यथार्थानुयाथार्थ्यमेव निराचष्टे । न चेति । कुत इत्यत आह । न हीति । यवस्थोऽनुभूयते तदवस्थ एव स्मयंते सा चावस्था स्मृतिकाले नास्तीत्यसविषयत्वादयथार्थी स्मृतिरित्यर्थः । ननु यावदस्ति तावदेव स्मर्यताम् अस्ति च निवृत्तपूर्वावस्थं वस्त स्मृतिकाले ऽतो यथार्थी स्मृतिरित्याशझ्याननुभूतार्थस्मरणापत्ते तयुक्तमित्याह । न चेति । ननु तयोः समानविषयत्वे कथमनुभवस्य याथार्थ्य स्मृतेस्त्वयाथार्य व्याघातादित्याशझ्याह । तेन समानेति । ननु स्मृतिकाले ऽपि भूतपूर्वगत्या वस्तुनस्तावस्थ्याद याथार्थ्यं स्मृतरित्याशयातिप्रसङ्गान्नेत्याह । पूर्वमिति । पाकरक्त घटादा भातपूव्यात् श्यामोऽयमिति प्रत्ययोऽपि यथार्थः स्यादित्यर्थः । कथं तर्हि काणाविद्यात्वेनोक्तिरित्याशय कार्ये कारणधीपचारादित्याह । तेनायथेति । फलं तृपचारस्थ परोक्तमधिगतार्थत्वप्रयुक्तमविद्यात्वं नास्तीति सूचनमित्यनुसन्धेयम् । अथ तेषामपि मुख्यमेव स्मृतेविद्यात्वमित्यभिमानः तर्हि | प्रमाणपथातिक्रमे ते ऽपि नः परिहार्यो एवेत्यलं सुहृदन
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सटीकताकिरक्षायाम् । भवजनितत्वेन यथार्थवाव्यपदेश इति याचितकमण्डनकमनीयमेव स्मृतेयाथार्थम् । किं चालिन् पो धारावाहिकद्वितीयादिबुद्धयो न प्रमाणं भवेयुः(२) । ল অ নহ্মালম্ফলানিয়াজাকালিনলিমালাरोधेन । ननु काशकुशवदौपचारिकमापि कचिदुपयुज्यत इत्याशय सत्यमार्थेष्वगत्या तथास्तु प्रार्थेषु न तथेति दृशान्तता निराचष्टे । याचितकेति । याचितकमण्डनवादस्थिरत्वादप्रयोजकमित्यर्थः । याजया लब्धं याचितकम् अपमित्ययाचिताभ्यां ककनाविति ककप्रत्ययः । ननु स्मृतेरयथार्थत्वे यथार्थानुभवः अमेत्यादी यथार्थपदेनैव स्मृतिव्यवच्छेदादनुभवग्रहण किमर्थम् सत्यम् अनुभवत्वैकनियतं याथार्थ्यमिति सूचनार्थम् ज्ञानत्वसाधात् स्मृतिरप्यनुभूतिरेवेति भ्रान्तिनिवारणार्थ च न च स्मृतिव्यवच्छेदार्थमिति सन्ताव्यम् । कथं तहि लतेरननुभवत्वेनाममाणत्वादित्युक्तं प्रागभ्युपगम्यवादेनेति रहस्यम्(३) । एतच्च अन्यकृतव स्पीकृतं न्यायकुसुमाञ्जलिटीकायामित्यास्तां तावत् । तदेवं प्रामाण्याप्रामाण्ययोरधिगतानाधिगतार्थत्वे न प्रयोजले इत्युक्त्वा पुनश्चानधिगतार्थत्वमेवाव्याप्त्यन्तरेण दूश्यति । किं चेति । अविच्छिन्नैकार्थगोचरानेकबुद्धिप्रवाहे मितीयादिवुद्धिष्वनधिगतार्थत्वासम्भवाव्यातिरित्यर्थः । नन्वेकस्यापि घटस्योत्तरोत्तरकालभेदादू भिन्नतया विशिदादनधिगतार्थत्वमस्तीति शवामनूच निरस्यति। न चेति । कालकलाः कालैकदेशा औपाधिकाः तनिशेषाः
(६) यथार्थता-पा. D पुः । (२) स्थ:-पा• B. D पुः । (३) निरस्त रहस्यम्-पा. F घुः ।
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नधिगतविषयत्वं वाच्यम् । कालाकाशदिशामरूपिद्र
লালা অস্ত্র ৰিজালা নিমন্তমুল লাগত্যে লজ্বিনাথ।
इयन्तं कालं घटमहमान्चसूवमित्यनुव्यवसायदर्शनात् कालभेदाउनुभूयत(२) एवेति चेत् । तीयन्तं कालं
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क्षणलवादिभेदास्तदाकलितस्य तदिशियस्य वस्तुनो निभासेनेत्यर्थः । कुतो न वाच्यमित्याशय कालविशिषार्थग्रहणे ऽपि नागृहीतविशेषणेति न्यायेनावश्यग्राहस्य कालस्य किं रूपविशिषार्थ ग्रहणे रूपस्येव चाक्षुषत्वं यदा गन्धादिविशिर्थग्रहणे गन्धादेरिवेन्द्रियान्तरप्रत्यक्षत्वं चेति विकल्थ्योभयमप्यनुमानयन निरस्यति । कालाकाशेत्यादिना। अन्यथाकाशदिशोरपि प्रत्यक्षत्वापत्तिरिति तर्कसूचनाय तयोरुपादानम् हेतुदयेऽपि क्रमात् पदव्येन घटादी रूपादौ च व्यभिचारनिरासः । उक्तहेतुझ्यस्य कालग्राहिप्रत्यक्षबाधं हदि निधाय कालस्य प्रत्यक्षतामाशते । इयन्तामिति । झानगोचरज्ञानमनुव्यवसायः तन्त्रेयन्तं कालमिति कालक्रोडीकारेणैव घटानुभवस्थानुव्यवसानात्(३) घटप्रत्य
र्धारावाहिभिः कालोऽपि तविशेषणतया गृहीत इति निश्चीयत इत्यर्थः । परमाणुमहमजासिषमित्यादावप्रत्यक्षार्थेष्वनुव्यबसायदर्शनान्न तहलेन कालमत्यक्षत्वकल्पना युक्ता अन्यथा स्वत्यनुव्यवसायबलात् स्मृतिध्वपि कालकलावभासकल्पनासाकर्यात् तास्वेवातिव्याप्तिरनिवार्यो
(१) स्थितत्वात-पा. B घुः । (2) वसीयत-पा. B. D पु. । (३) अनुव्यव लानाद् भासनात् ।
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सटीकतार्किकरवायाम् । ঘল লালশায়ে জ্বালাখিল লুঙ্গি प्रामाण्यं स्यात् । अप्रत्यक्षत्वे कालस्यासिद्धिरेव स्यादिति चेत् । न दिग्व्यतिरेकेण परापर(१)प्रत्ययों द्रव्यान्तरसंयोगनिमित्ता परापर प्रत्ययत्वात् दिक्तयोगनिमित्तपरापर प्रत्ययवदित्यनुमानादेव तसिद्धेः। न च सूर्यपरिवृत्तिरेव निमित्तम् अविभुत्वेन तस्याः অাখা । ল কালাঙ্খায়ী। মা মল্লিন্সিল অামিনিয়ন্স অখিল নানালিশাখাस्यादित्याह। तीयन्तमिति । ननु कालस्य प्रत्यक्षत्वानगीकारे तत्साधकमानान्तराभावेनासिडावुक्तहेत्वाराश्रयासिद्धिरित्याशयेन शकते । अप्रत्यक्षत्व इति । परिशेषानुमानात् तत्सिडेनैष दोष इत्याह । नेति । दिशा सिडसाधनता(२) परिहरति। दिगव्यतिरेकेणेति । दिक्कृतपरापरप्रत्ययविपरीतपरापरप्रत्ययावित्यर्थः । ननु सूर्यगतिसाध्ययोस्तयोः किं द्रव्यान्तरेणेत्याशझ्यान्यथा तस्याः परापरपिण्डसम्बन्धायोगादित्याह । न चेति । स्वाश्रयदारैव तत्सम्बन्धोऽस्त्वित्याशमाह। अविभुत्वेनेति । स्वाश्रयस्येति शेषः। एतेनक्षित्यादिमूर्तपञ्चकस्य दूरादेव निवृत्तिः। तात्मादिभिरान्तरलेत्याशयाह। न चेति । न च घटादी मूतत्वमुपाधिः दिशि विपरीतपरापरप्रत्ययनिमित्तत्वाभावे साध्ये सत्यपि मूर्तत्वाभावेन साध्याव्यापकत्वात् तस्या अपि तन्निमित्तत्व प्राच्या दिव्यवहारवहतमानव्यवहारस्याप्यसाधारणत्वप्रसङ्गः । एवमद्रव्यप्रतिषेधे गुणा
(१) परावर-पा. B पुः । (२) सिदुसाध्यता- पा. E पुः ।
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प्रमाण प्रकरणम् ।
( १ ):
गात् । प्रत्यक्षत्वे ऽपि कालस्य स्वता भेदाभावात् । औपाधिकभेदस्य चोपाधीनां सूर्यगत्यादीनामनवभासे saभासा सम्भवान्न तद्विशिष्टवस्तुप्रतीतिः सम्भवति । प्रतिक्षशवर्तिन्यबुभुत्सितग्राह्या जिज्ञासैवापाधिरिति चेत् । तर्हि जिज्ञासातज्ज्ञानान्तरितत्वेन दावप्रसङ्गादटेतरद्रव्यपरिशेषात् स एव काल इत्यर्थः । नन्वनुव्यवसाये पूर्व ज्ञानोपनीतस्य परमाण्वादेरिव चाक्षुषे स्पार्शने वा चन्दनप्रत्यक्षे प्राणोपनी तगन्धस्येवानुमानेोपनीतस्यापि कालस्य तत्सहकारादेव विशेषणतया विशिष्धारावाहिप्रत्यक्षेष विषयत्वसिद्धी सिद्धं नः समीहितमित्याशक्य किं सत्यं वर्तमानत्वैकाकारेण कालमात्रस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि तद्भेदानामतिसूक्ष्मतया दुर्लक्षत्वान्न सिद्धं नः समीहितमित्याह । प्रत्यक्षत्वे ऽपीति । कालमात्रस्येति भावः । ननु
प्रत्यक्षत्वे as अपि प्रत्यक्षा एवं पृथिव्यादी तथा दर्शनादित्याशा किं ते पृथिव्यादिभेदवदेव स्वाभाविका मताः श्रीमतां दिगादिभेदवदीपाधिका वा । नायः काललिङ्गा विशेषादञ्ज सैकत्वसिद्धेस्तेषां स्वपुष्यकल्पत्वादित्याह । स्वत इति । नापि द्वितीय इत्याह । औपाधिकेति । आदिशव्दाचन्द्रगत्यादिसंग्रहः । अथावभासयोग्यं कालोपाधिमाशङ्कते । प्रतिक्षणवर्तिनीति । प्रतिक्षणमन्यान्यैव जायमानेत्यर्थः । अन्यथा तस्या अप्येकत्वे वैयर्थ्यादिति भावः । ननु तस्या अप्यज्ञाताया अनुपाधित्वात् ज्ञानस्य च पुनर्जिज्ञासापूर्व कत्वा जिज्ञासानवस्था स्यादित्याशङ्कयाह । अबुभुत्सितेति । परिहरति । तति । आदी घटज्ञानं पुनर्घटजिज्ञासा ततस्तज्ज्ञानं ततस्तदुपहितकालज्ञानं ततस्तत्काल
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(१) नवभावनाभाता-पा· पु.
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सटीकता किकरक्षायाम् ।
घटज्ञानसन्तानविच्छेदः स्यात् स्याञ्च तदुपाधिककालभेदाकलनेनैव स्मृतीनामपि प्रामाण्यम् । एतेन ज्ञाततैवोपाधिरिति निरस्तम् । तस्यां च न किञ्चित् प्रमाणं पश्यामः । शातो घटः प्रकटो घट इति विषयविशेषणत्वेन सांध्यदक्षमीक्ष्यत एवेति चेत् । न ज्ञान
५०
विशिष्टघटज्ञानमिति विजातीयव्यवधानाद् घटज्ञानधाराविच्छेदः स्यादित्यर्थः । ननु न हि स्वाङ्गं स्वस्थ व्यवधायकमिति न्यायाज्जिज्ञासादीनां तदर्थतया तदङ्गत्वान्न पटादिज्ञानवद घटज्ञानसन्तानविच्छेदकत्वमित्याशङ्का तर्हि तेनैव न्यायेन स्मृतीनामपि धारावाहिनीनां सुस्मृषीतज्ज्ञानादिक्रमेणानधिगतार्थत्वसम्भवादतिव्याप्तिः स्यादित्याह । स्याश्चेति । इममेव परिहार कालोपाध्यन्तरे ऽप्यतिदिशति । एतेनेति । तत्रापि ज्ञानस्यैवोपाधित्वाद घटज्ञानानन्तरं ज्ञातता तज्ज्ञानं तद्विशिष्टकालज्ञानं ततस्तकालविशिष्टघटज्ञानं चेति क्रमे पूर्ववत् तेषां व्यवधायकत्वे सन्तानविच्छेदः अव्यवधायकत्वे स्मृतावतिव्याप्तिरित्यर्थः । एतेन ज्ञाततयैव विषयाधिक्यमित्यपि निरस्तम् स्मृतावतिव्याप्तेरिति । एतच्च ज्ञाततामङ्गीकृत्योक्तम् । अथास्या मूले कुठारं प्रयुङ्क्ते । तस्यां चेति । अस्ति तत्र प्रत्यक्षमेच प्रमाणमित्याशङ्कयाह (१) । ज्ञात इति । अत्र प्रकट इति माक्षात्कृत इत्यर्थः । तथा च ज्ञात इति सामान्यतः साक्षात्कृत इति विशेषतश्च इत्यर्थ आचार्येोक्तः सिद्ध्यति । अध्यक्षमिति क्रियाविशेषणम् । तस्या अन्यथा सिद्धिमाह ।
(१) शहूते - पा. पु. 1
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प्रमाणाप्रकरणम।
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स्यैव तथा प्रतीतः । कथमात्मसमवेतस्य ज्ञानस्य(५) / লিলাখি খাল মনীনিযিনি আলু ॥ জাষ্টা
घटा द्विष्टो घटः प्रध्वस्तो घट इति सामानाधिकरঘশ্বাশ্বালা জ্বালানিনি। ননসু
শ্রালভম্বলজ্বলালনৰ্যাঃ অস্ত্র হৃত্রি স্বাক যাআলা (২) ৰালিন। স্ক্রাজিলাৰ লার্ন বি হ্ম যা মাহৰিাম্য ন্সলান। नेति । तथेति विषयविशेषणत्वेनेत्यर्थः । अन्यसमवेतस्यान्यविशेषणत्वं विरुद्धमिति शते । कथमिति प्रतिचन्द्या समाधत्ते । इष्ट इति । अन्यथा तनापीकृत्वादयो धमाः कल्प्येरनिति भावः । ननु ज्ञाततानङ्गीकारे परसमवेतक्रियाजन्यफलशालि कर्मेति कर्मलक्षणायोगात् कथा घटादेज्ञानकर्मत्वमिति यदिह चोय मीमांसकस्य तदपि खुररवेण गतमित्याह । ततश्चेति । ज्ञानमत्रपरसमवेतक्रिया परस्मिन् घटादो साक्षात्कृत्यान्यस्मिन्नात्मनि समवेतत्वात् क्रिया चात्र धात्वर्थलक्षणा तजन्यफलं ज्ञालता तदाश्रयत्वमन्तरेणेत्यर्थः । इष्टो घट इत्यादी विशेष्ये क्रियाजन्यफलाश्रयत्वं विनापि यथा कर्मत्वं तदिति परिहारस्य चोद्योचारणसमय एक मीमांसकस्य मनसि प्रादुर्भावेनान्तरा विशरणसाम्यात् गर्भावणेत्युक्तम् । ननु तज्जन्यफलानाधारत्वे ऽपि तत्कर्मत्वे घटज्ञाने पटस्थापि कर्मत्वं स्यात् नियामकाभावादित्याशय नियामकलक्षणं स्वयमाह । करणेति । अन्न विनाश्यवादिति शेषः । यथा विनाश्यस्य घटादेर्मुद्गरमहारादिकरणव्यापारविषयत्वमेव तत्फलविनाश
(१) संवेदनस्य-पा• D पुः। (२) साधण-पा. Cः ।
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सटीकताकिरक्षायाम् ।
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লাল বা ক্রি ি অামি জালাল ফাললक्रियावद् इत्यनुमानादेव ज्ञाततासिद्धिरिति चेत् । न कार्यत्वे सति विभुद्रव्यसमवायेन सिद्धगुणभावस्या ज्ञानस्य क्रियात्वासिद्धः । क्रिया हि धात्वर्थमात्र स्यादित्यभ्युपगमेऽपि संयोगादिभिरनैकान्तिकत्वात्। तेषामपि किजित्करत्वाभ्युपगमे उनवस्था स्यात् । तथाहुः ।
अनैकान्त्यादसिद्धेवा न च लिङ्गमिह क्रिया। तडैशिष्टयप्रकाशत्वानाध्यक्षानुभवाधिके ॥ इति । नक्रियाकर्मत्वं न तु तज्जन्यफलाश्रयत्वम् । एवमिन्द्रियलिङ्गादिजानकरणव्यापारविषयत्वमेव तत्फलज्ञानकर्मत्वमित्यर्थः । माभूत् प्रत्यक्ष लिङ्गं तु भविष्यतीति शङ्कते। ज्ञानमिति । ग्रामादिप्राप्तिर्गमनफलमिति न दृष्टान्ते साध्यवैकल्यम् । किमिदं क्रियात्वं स्पन्दनत्वं धात्वर्थत्वं वा। आये स्वरूपासिद्धिरित्याह । नेति । अक्रियात्व हेतुमाह । सिद्धगुणभावस्यति । ज्ञानं न क्रिया गुणत्वाद्' रूपवदित्यर्थः । गुणत्वे हेतुमाह । कार्यत्वे सतीति । एतेन सत्तादिव्युदासः । शेषं कर्मघटादिव्युदासार्थम् । ज्ञानं गुणः विभुद्रव्यसमवेतकार्यत्वात् सुखवादित्यः । द्वितीये व्यभिचार इत्याह । क्रियेति । अत्रोदयनसम्मतिमाह(१) ।
अनैकान्त्यादित्यादि। इह ज्ञाततायां क्रियात्वं न लिङ्ग कुतः क्रियाशब्दस्य धात्वर्थपरत्वे संयोगादिष्वनैकान्त्यात् स्पन्दपरत्वे त्वसिद्धेरिति । वाशब्दो व्यवस्थितविकल्पार्थः । तहि ज्ञाता घट इति विषय विशेषणतया स्फुर
(१) संवादमाह-पा. F पुः ।
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प्रमाणप्रकरणम् ।
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.. शाततानुमेयस्य ज्ञानस्य कथं तदभाव सिद्धिरिति चेत् । न क्षणिकात्मविशेषगुणत्वेन तस्य सुखदुःखादिवन्मानसप्रत्यक्षतासिद्धः । तर्हि तद्वदेলালমনিয়াস্কাল নিৰাই জ ঞ্জাदिति चेत् । न निश्वासप्रश्वासहेतुभूतप्रयत्नेनानैकाणात् प्रत्यक्षैव ज्ञाततेत्याशझ्याह । तद्वैशिष्ट्येति । ज्ञानविशित्वेनैवार्थस्य प्रकाशमानत्वादधिके ज्ञाततारूपाधिकार्थे प्रत्यक्षानुभवोऽपि न प्रमाणमित्यर्थः।
ननु माभूध्यक्षमनुमानं वा तथापि ज्ञानसिड्यन्यथानुपपत्तिरूपयार्थीपत्त्या ज्ञाततासिद्धिरिति शङ्कते । ज्ञाततेति । ज्ञातता क्रियाजन्या फलत्वात् ग्रामप्राप्तिवत् सैव क्रिया ज्ञानमिति ज्ञानसिद्धिः । अन्यथा तदेकसाध्यस्य तदभावे कथं सिद्धिरित्यर्थः । अापत्तिमन्यथोपपत्त्या दूषयति । नेति । ज्ञानं मानसप्रत्यक्षं क्षणिकात्मविशेषगुणत्वात् सुखादिवदिति प्रत्यक्षत्वसिद्धावप्यनुमेयत्वे सुखादेरपि तथात्वप्रसङ्ग इत्यर्थः । क्षणिकात्मविशेषपदैस्त्रिभिः क्रमाद्धर्मादेः शब्दस्यात्मगतद्रित्वादेश्च व्युदासः। गुणग्रहणं स्फुटार्थम् । गुणव्यतिरेकेण क्षणिकविशेषाणामात्मन्यमावात् सामान्यविशेषान्त्यविशेषयाश्च क्षणिकपदेनैव नित्तेः। उक्तानुमानस्य प्रतिकूलतर्कपराहतिमाशङ्कते। तहींति। तदेवेति । तेनैव हेतुना सुखादिवदेवेत्यर्थः । यदि ज्ञानमुक्तहेतुना सुखादिवन्मानसप्रत्यक्ष स्यात् तहि तहदेबाबुभुत्सितग्राहामपि स्यात् । तथा च ज्ञानैकनियतसत्ताकत्वात् पूर्वपूर्वज्ञानग्राहकोत्तरोत्तरज्ञानसन्तानाविच्छेदे विषयान्तरोपलब्धिर्न स्यादित्यर्थः। नैष दोषः। जीवनपूर्वकप्रयत्ने हेताव्यभिचारादिति परिहरति। नेति । तस्या
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মীনাক্ষিৰলাগা। न्तिकत्वात् । तस्याप्यबुभुत्सितग्राह्यत्वेन विषयाলক্ষ্মযালঘুথ সুমিষ যজ্জামিনसङ्घारा न स्युरिति दुस्तरं व्यसनमिति कृतं प्रसत्त्यानुमसत्त्येति ॥ ४ ॥ ५॥ 5 ॥ पि पक्षकाटिनिवित्वे ऽनिकृमाह । तस्येति । जीवनपूर्वकप्रयत्नस्याबुभुत्सितग्राह्यत्वे सुषुप्तावपि तत्सद्भावात् तज्ज्ञानानुवृत्ती सुषुप्तिरेव न स्यात् एवमन्तिमादिश्वासहेतुमयत्रज्ञानेन मरणमूर्छनयोनिवृत्तिः स्यात् यावज्जीवं सतः प्रयत्नसन्तानस्यैवाजस्रोपलम्भादु विषयान्तरोपलम्भस्याप्यनवकाश एवेत्यर्थः । दुष्परिहारश्चायमनिप्रसङ्ग इति सोपहासमाह । दुस्तरमिति । ननु माभूदू ज्ञानमवुभुत्सितग्राह्य तथापि कथं प्रत्यक्षं न तावत् केवलनिर्विकल्पकवेयं विकल्पाभावे तदेकानेयनिर्विकल्पकसद्भावे प्रमाणाभावात् न च केवलविकल्पमेयं निर्विकल्प बिना तदनुत्पत्तः नापि तत्पूर्वकविकल्पवेद्यं पूर्व निर्विकल्पकगृहीतस्य तस्य तेनैव अस्यमानस्याविकल्पमनवस्थानादित्याशझ्यान्त्यपक्ष एव सिद्धान्तः तत्र निर्विकल्पकगृहीतज्ञानव्यक्तिनाशेऽपि तनिष्ठज्ञानत्वसामान्यविशिकृतथा तद्ग्राहकनिर्विकल्पकसहकृतेन मनसा तत्समानविषयं व्यस्यन्तरं प्रथमत एव विकल्प्यत इत्यादि सर्वमुदयनादिग्रन्थेषु क्षुण्णमेवेत्यलं प्रासङ्गिकप्रमेयोपन्यासव्यसनेनेत्याह । इति कृतमिति । अयमितिशब्दः प्रकारवचनः । प्रमेयव्यायमित्यादिसङ्ग्रहोक्तं लक्षणव्यमेकदेशिमतत्वादनतिप्रसिद्धत्वादनतिभेदाचोपेक्ष्य प्रमाण सामान्यलक्षणप्रकरणं समापयति । इतीति ॥४॥५॥ ॥
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प्रमाणप्रकरणम् ।
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एवं प्रमाण सामान्य लक्षयित्वा तद्विशेषान् জামিলু লিঙ্গালায়িনি।
प्रत्यक्षमनुमानं स्यादुपमान(१) तथागमः ॥६॥ "प्रमाणं प्रविभज्यैवमक्षपादेन लक्षितम् ।।
| নালী কালি লাম্মালি লাব্বিানি ল ভলালি স্বনি। লুলাম্বিশনা विभागोदेशस्य प्रयोजनम् । वादिप्रसिद्धितारतम्यमनात्य सान्त्रक्रमानुरोधेनाद्विष्टानीति(२) । तदुक्तम् । 'प्रत्यक्षानुमानापमानशब्दाः प्रमाणानीति ॥६॥ऽऽ ॥
ननु सामान्यलक्षणानन्तरं विशेषलक्षणप्रस्तावादकाण्डे प्रत्यक्षादिपरिसंख्यानमुत्तरश्लोके न सङ्गच्छत इत्याशय सङ्गमयन्नवतारयति । एवमिति । अनुद्दिस्य लक्षणायोगादिदानी विशेषाद्देशः सङ्गच्छत एवेत्यर्थः ।
अक्षपाद्ग्रहणं मतान्तरेष नैवमिति सूचनार्थम् त - देशस्य प्रयोजनं वाच्यमित्यपेक्षायामाह ।
एतानीति। परिगणितान्येवेत्यर्थः । इयन्त्येवेति । चत्वार्यवेत्यर्थः । उभयत्र क्रमाद् व्यावय॑माह । नेत्यादि । ननु बह्वाहताच्छन्दादुपमानस्य प्रथमोद्देशे को हेतुरत आह। वादीति । तारतम्य क्रमः । किं तत् सूत्रं तदाह । प्रत्यक्षेत्यादि । ननु सूत्रे ऽप्येवमुद्देशे को हेतुरिति चेत् । उच्यते। तत्र सर्वप्रमाणापजीव्यत्वात् प्रत्यक्षस्य प्राथम्यं तदितरসজখালালসালু মস্থলললুলান ঘূহ प्रामाण्यदा सूचनार्थमुपमानस्य शब्दात् प्राथम्यं परिशेषाच्छन्दस्यान्ते निवेश इति ॥६॥ऽऽ ॥
(१) प्रत्यक्षमनुमानाख्यं मुपमान-पा. A D. पु. । (२) उद्दिष्टवानिति--पा. B पुः ।
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सटीकता किरक्षायाम् ।
अक्षपादग्रहणेन सूचितं मतान्तरेषु न्यूनाधिकसयाकप्रमाणाङ्गीकारं विवृणेति । प्रत्यक्षमेकं चावीकाः कणाद सुगतैौ पुनः ॥ १ ॥ अनुमानं च तचाथ साङ्ख्याः शब्दं च ते अपि । न्यायैकदेशिनेोप्येवमुपमानं च केचन ॥ ८ ॥ अर्थापत्त्या सहैतानि चत्वार्याह प्रभाकरः । अभावषष्ठान्येतानि भाट्टा वेदान्तिनस्तथा ॥६॥ सम्भवैतिह्ययुक्तानि तानि पौराणिका जगुः |
(Q)
अर्थापत्त्यादीनामनुमानादावन्तभीवं वक्ष्याम इति उद्देशक्रमानुरोधेन प्रत्यक्षं लक्षयति ।
नन्वग्रिमश्लेोकेषु मतान्तरोपन्यासस्य कः प्रसङ्ग इत्याश क्याक्षपादपदेनाकाङ्क्षोत्थापनादित्याह । अक्षपादेति ।
५६
न्यायैकदेशिनो भूषणीयाः केचन न्यायैकदेशिनः स्वयमित्यर्थः ॥ ७ ॥ ८ ॥ ९ ॥ ऽऽ ॥
नवपत्यादीनामप्रामाण्यमन्तर्भावो वा वक्तव्यः अन्यथा चतुष्वानिर्वाहात् तदिदानीमपरोक्षेत्यादिना विशेषलक्षणेोक्तिरयुक्तेत्याशङ्कयाह । अर्थापत्त्यादीनामिति । प्रमाकरणत्वान्नाप्रामाण्यं तावदेषामन्तभीवस्तु तलक्षणयोग निबन्धनस्तज्ज्ञानापेक्ष इति विशेषलक्षणानन्तरभावी न तत्प्रवृत्तिं प्रतिवघ्नातीत्यर्थः । इतीति मत्वति शेषः । तत्र प्रत्यक्षलक्षणस्य प्राथम्ये हेतुमाह । उद्देशेति । उद्देशे तु सर्वप्रमाणोपजीव्यत्वं हेतुरित्युक्तम् ।
(१) अनुमानादान्तभानं - पा.
पु.
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प्रमाण प्रकरणे प्रत्यक्षनिरूपणम् ।
अपरोक्षप्रमाव्याप्तं प्रत्यक्षम् । अपरोक्षत्वं () साक्षात्त्वम् तञ्च लैङ्गिकादिज्ञानव्यावृत्त ऐन्द्रियकज्ञानानुगतः कश्चिद् ज्ञानत्वावान्तरजातिभेद इत्यग्रे दर्शयिष्यति । अपरोक्षप्रमाव्याप्तं
५०
अपरोक्षेत्यनेन लैङ्गिकादिव्युदासः । गतमन्यत् । अत्राविघ्नमन्ब्राह्मण इतिवन्नञस्तद्भावतद्न्यवृतित्वे प्रमासामानाधिकरण्यायोगादधर्मवत् तद्विरुद्धवृत्तित्वमित्याशयेनाह । अपरोक्षत्वमिति । तच्च न भूतत्वादिवदौपाधिकं सामान्यं किं तु मुख्यमेवेत्याह । तञ्चेति । अत्राद्यविशेषणेन ज्ञानत्वानुभवत्वादेर्व्युदासः । द्वितीयेन स्मृतित्वस्य । तत्रापि तद्वृत्तिरित्युक्तं चाक्षुषत्वादिधर्मेध्वतिव्याप्तिः स्यादत उक्तम् अनुगत इति । तद्व्यावृत्तत्वानधिकरणमित्यर्थः । जातिग्रहणाद व्यञ्जकधर्मस्यैन्द्रियकत्वस्य निवृत्तिः । ज्ञानत्वावान्तरेति स्फुटार्थम् । सत्तागुणत्वयोश्च प्रथमविशेषणेनैव पलायनात् । एतच्च लौकिकप्रत्यक्षाभिप्रायमीश्वरज्ञानाव्याप्तेः तेन लैङ्गिकादिव्यावृत्तमिन्द्रियजन्याजन्यज्ञानव्यावृत्तत्वानधिकरणसामान्यं साक्षात्वमिति योज्यम् । अजन्यज्ञानमीश्वरस्येति न तत्राव्याप्तिः । अग्र इति । प्रमेयेवक्षलक्षणप्रसङ्गादिन्द्रियं तच साक्षात्त्वं जातिभेद इति स्थितिरिति वक्ष्यतीत्यर्थः । प्रसिद्धानुरोधेन प्रमाकरण
( १ ) अपरोक्ष्यं - पा. B पु.
(२) निवेदयिष्यति - पा· B पु० ।
(३) शरीरयोगे सत्येव साक्षात्प्रमितिसाधनम् । इन्द्रियं तच्च साक्षात्त्वं जाति भेद इति स्थितिः ॥ इति E पुस्तके टिप्पण्याम् ।
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सटीकताकिरक्षायाम् । মলিন মললীফাৰি অহা মানা হত্যাदिति । यथाहुः।
तन्मे प्रमाणं शिव इति । मिति वक्तव्ये प्रमाव्याप्तमित्युक्त प्रयोजनमाह । अपरोति । अलैकिकप्रत्यक्षस्थापि संग्रहार्थमित्यर्थः।
न चेदमीश्वरप्रामाण्यमसाम्प्रदायिक न्यायाचायस्तथासमर्थनादित्याह । यथाहुरिति । न्यायकुसुमाञ्जलावीश्वरप्रामाण्यसाधनं चतुर्थस्तवकार्थः । तत्रेश्वरस्य कथं प्रामाण्यं कुत्र वा प्रमाणे ऽन्तभाव इत्यपेक्षायामुक्तार्थस्यायमुपसंहारश्लोकः(१) । साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि परद्वारानपेक्षस्थिता भूतार्थानुभवे निविनिखिलप्रस्तारिवस्तुक्रमः । लेशादृधिनिमित्तदुशिविगममनशकातुषः शोन्मेषकलङ्किभिः किमपरैस्तन्मे प्रमाणं शिवः॥इति।
अनुभवं तावत् त्रिभिर्विशिनधि । साक्षात्कारिणि साक्षात्कारिधर्मिण्यपरोक्ष इत्यर्थः । नित्ययोगिनि ईश्वरेण नित्यसम्बद्ध इत्यर्थः । एतेनेश्वरस्य प्रमाव्यातत्वात् प्रामाण्यम् । तत्रापि साक्षात्कारिसमायोगात् प्रत्यक्षत्वं चोक्तम् । परदारानपेक्षस्थिता कारणान्तरनिरपेक्षसत्ताके नित्यसिद्ध इति यावत् । एतेनेश्वरानुभवस्य कारणासंस्पर्शित्वेन पूर्वोक्तनित्ययोगित्वमस्मृतिरूपत्वं कारणदोषानवकाशाद् वक्ष्यमाणभूतार्थत्वं सङ्कोचे कारणाभावात् सर्व विषयत्वं च सिद्धम् । भूतार्थी यथार्थः तस्मिन्ननुभवे निविशे विषयतया स्थितोनिखिल प्रस्तारिणःसार्वत्रिकस्य
(१) मुलायन्यायोपसंहारश्लोकः-पा. F पुः ।
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জুম্মা নাকিজম্বালানি লিলি जन्यप्रमासाधकतम प्रत्यक्षमित्यलक्षयिष्यदिति ।
तद्विभागमाह। द्विविधं च तत् ॥ १० ॥ ते एवढे विधे विभज्य दर्शयति । सविकल्पकमित्येकमपरं निर्विकल्पकम् । तयोर्लक्षणमाह।
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वस्तुनो जगज्जालस्य क्रमाविशेषा यस्य स तथोक्तः नित्यसर्वज्ञ इति यावत् । लेशस्याप्यल्पस्याप्यप्रिनिमित्तस्याज्ञातकरणस्या दुषस्य विगमाभावात् प्रनरी निवृत्तः शातुषोऽनातत्वशझालेशो यस्य स परमाप्त इति यावत् । शिवः सर्वात्मनांवोच्छेदकरः परमात्मा मे मम नैयायिकस्य तत् प्रत्यक्षाख्यं प्रमाण कारणाधीनज्ञानतया भ्रान्त्यादिशोत्थानकलङ्गिभिरपागिभिः किं न किञ्चित साध्यमस्तीत्यर्थः ।
नन्विदं लक्षणं लौकिकप्रत्यक्षाभिप्रायमेव किं न ल्यादित्यत्राह । अन्यथेति ।
विविध च तदितिश्लोकशेषेण एतल्लौकिकालाकिकरूपं दैविध्यमेवालूद्यते प्रागुक्तलक्षणविशेषतयेत्याशय नेस्याह । तलिभामिति ॥ १० ॥ | অন্ধনি-আকিলা ইনিগুত্বালাকি হাজাজাमाह(१) । ते एवति।
(१) द्वैविध्यान्तरशडायामाह-पा. E पुः ।
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सटीकता किंकरक्षायाम् ।
नामादिभिर्विशिष्टार्थविषयं सविकल्पकम् ॥ १९ ॥ श्रविशिष्टार्थविषयं प्रत्यक्षं निर्विकल्पकम् (१) ।
नामजातिद्रव्यगुण क्रियाभिर्विशिष्टमर्थं विषयीकुर्वत् सविकल्पकं प्रत्यक्षम् । यथा देवदत्तोऽयं ब्राऋणः शुक्लो दण्डी गच्छतीत्यादि । नामादिविशेषणवैधुर्येय स्वलक्षणमात्रविषयं निर्विकल्पकम् । यथाहुः ।
श्रस्ति ह्यालोचनञ्चानं प्रथमं निर्विकल्पकम् । बालमूकादिविज्ञानसदृशं शुद्ध ( ) वस्तुजम् ॥ इति ।
निर्विकल्पकमेव प्रत्यक्षमा स्थिषत सागताः । यथाहुः । कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षमिति । तदसत् ।
६०
हानादिव्यवहारहेतुत्वात् सविकल्पकस्य प्राथम्यं रादुन्नेयत्वादन्यस्य तदानन्तर्यम् । उद्दिष्टयेोः पुनरुद्देशः पुनरुक्तिरत आह । तयोरिति ।
आदिशब्दार्थ दर्शयन्नाद्यं विवृणोति । नामजातीति उदाहरति । यथेति । द्वितीयं विवृणोति । नामादीति । अन भट्टपादसम्मतिमाह । यथाहुरिति ।
आलोचनज्ञानं व्यवहारानङ्गमाकलनमा त्रमित्यर्थः । आदिशन्दाज्जडमुमूवी दिसंग्रहः । शुद्धवस्तुजं विशेषणविशेष्यभावानुल्लेखीत्यर्थः ।
अथ सविकल्पकस्य प्रामाण्यपरीक्षार्थी परेषां विप्रतिपत्तिं तावदुपन्यस्यति । निर्विकल्पकमेवेति । आस्थिपत प्रतिज्ञातवन्त इत्यर्थः । आङः स्थः प्रतिज्ञायामित्या
।
(१) प्रत्यक्षमितरद्भवेत् - पा. पु. । (२) मुग्धेति क्वचित् ।
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प्रमाणप्रकरणे प्रत्यक्षनिरूपणम् ।
ग्राह्मांश कल्पनानां भ्रान्तत्वेनाभ्रान्तपदेनैव (१) व्यावूत्तिसिद्धेः कल्पनापोढविशेषण वैयर्थ्यात् । किं च () बिवादाध्यासिता विकल्पः स्वगोचरे प्रत्यक्षं प्रमाणत्वे सत्यपरोक्षावभासित्वात् निर्विकल्पकवत् । न चात्र विशेषणासिद्धिः । यतः साधितमधस्ताद् विकल्पानां प्रामाण्यम् । शाब्दिकास्तु सविकल्पकमेव प्रत्यक्षमाहुः । यथाहुः ।
न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन गृह्यते ॥ इति । त्मनेपदम् । कल्पनापोढं नामजात्यादियोजनारहितम् । दूषयति । तदसदिति । बाह्यांगे ज्ञानस्यैव नीलाद्याकार sere: | aforeपकप्रामाण्ये प्रमाणमप्यस्तीत्याह । किं चेति । प्रत्यक्षं प्रत्यक्षप्रमाणमित्यर्थः । अन्यथा प्रत्यक्षाभासेनार्थान्तरता त्यात् । प्रमाणत्वे सतीति अधिसंवादित्वे सतीत्यर्थः । अन्यथा साध्यावैशिष्ट्यात् । एतेन प्रत्यक्षाभासव्युदासः । शेषं लैङ्गिकादिनिरासार्थम् । अधस्तात् सौगताक्तप्रमाणसामान्यलक्षणनिरासावसर इत्यर्थः । प्रामाण्यमविसंवादित्वमित्यर्थः । निर्विकल्पकं व परीक्षितुं तत्रापि विप्रतिपत्तिमुपन्यस्यति । शाब्दिका - स्विति । सविकल्पकस्यैव प्रत्यक्षत्वे तदुक्तामेव थुकिं लिखति ।
न सोऽस्तीति । धशब्देनानुविद्धमित्यन्वयः । घटः पट इति शब्दविशिषृविषयघटितमेव सर्व विज्ञानं गृह्यते ऽनु
(१) अभ्रान्तपदोपादानेन - पा. D पु. | (२) किंतु-पा. D पु.
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सटीकतार्किकरक्षायाम् । तदपि न । अगृहीतसम्बन्धानां शब्दानुल्लेखिनः प्रत्ययस्योत्पत्तेः । इतरेषां चेन्द्रियसंयोगानনামিমিহাৰাজ্জালুল) লা(২) দ্য ফিনলুয়াঘ মাঘললঙ্কি নিৰিাজ্বলুনিছিল। অঙ্খা। অন্ জমাফাযখাঁ ন ল
নানুহ্মম্ ।। पिण्ड एव हि दृष्टः सन् सच्चा स्मारयितुं क्षमः॥ इति।
বিমল অলিল্লিনিৰ জন্য व्यवसीयते ऽतः सर्व प्रत्यक्ष सविकल्पक विशिधार्थग्राहिस्वाल्लैङ्गिकवादिति भावः ।।
नैतद्युक्तमव्युत्पन्न प्रत्यक्षेषु हतोबाधादित्याह । तदपि नेति । व्युत्पन्न प्रत्यक्षेष्वपि कचिद्धाध इत्याह । इतरेषां चेति । अनुभवसिद्धस्थापि तस्यापहवे ऽनिर्णमाह । अन्याथेति। कुत इत्याशय तस्यैव तत्कारणवाचकस्मृतिबीजा)बोधकत्वादित्याह । याच्येति ।।
उक्तमर्थ वृद्धसंवादेन स्पपीकरोति । थथाहुरिति । तत्र सजिविकल्पे कारणमिति शेषः । यः सन्नालोचितः सन्नित्यर्थः । सज्ञिनिर्विकल्पकमेव साहचर्यात् संस्कारोडोधद्वारा प्रतियोगिसज्जास्मृतिहेतुरित्यर्थः ।
तहि पिण्डज्ञानं प्रमाणान्तरकार्यत्वात्(४) न प्रत्यक्षमित्याशयेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानादिन्द्रियकार्यमे
(१) परोक्षाखभालस्य-पा. B. D. पु. । (२) अपनेतुमशस्यत्वादित्यर्थः । (३) स्मृतिबीजं संस्कारः। (४) दन्द्रियकार्यत्वात् ।
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জাহান ) না নরমত্মবি সুজানি লিখ্রিষ্টা। অনুমকিকিশ্রোবল্লি
ক্স স্নানয়ন্ত্রশিৰি স্বাস্থল মলিনি। নগ্ন কি স্মথ অন্বেক্ষবিশি অলিফিলজ্জায়। যক্তিত্ব
মামি ১ললাম তথা নিজস্ব এল ক্ষয় হয় মা লাম্বাস্যাৰ নল যমুন্ত্র মন্ত্রালাম অাল। সুম বল। অন্যালাক্সি লুক লিঃী অফা ঘিাঁ সুখলাফ। অধু সুগাভী কী
না। ঘিউনি। ভানি। শানিনি। নায়িকা দ্বোস্য স্বাস্থ ও সুখী Sলনায় স্থান কলকা। ' অশালিন্স হসুসন্ধাহা ।
আািনি | নল মুন্সী নালালাথি শ সুষমা স্যাহায়াৎ । লগন'। থলাকালিনা হালিম্বনালিত্যাহা লালথল ত্যান্ত লালসকাল সাফা। তখনিন স্থা। ওহহ লিशार्थत्वं वारयति । व्यवच्छिद्यत इति । प्रत्ययार्थमाह । সন্ধললি। লুলিশ। জীর্থ যমত্মকাঃ বিকাথায়অন্যাশলা। ওনি। বঙ্গনি। ফিফাঅন্ন অঙ্গ। লালখিন্দকা হালালাবাদ স্বাশিতা লিঙ্গৰিলক্ষি থালি। খালি। তখন
(৫) লন— B : ৫ (২) রুমান-স• E ।
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লাল জ্বালানি ।। স্যানিয়া লিনী: জ্বাল ঘি। ২৷৷ লুলালবিনি। | গ্রাম খাদ্যাথ্যা স্থায্যক্ষ মেলিনি:
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হল নমী অঙ্কুলালি হয়। লিজার ৪ জ্বালা । সানি । কন্যাৰহ্ম বি লালন্ত জা। ননি । জিলা জিম্বকাল গুহ্মাণ্ডু। ভৰা মুৰ। সালহা ললথ Sলশান্ত্মাত্মাহু। জান্দা আলাল। সুমী ভাঙ্খিাবি সামাখি। লিখালল্লিম্বন্ধ জানাপ্পিানি লালাখালু ॥ ২॥ 5S | স্বাক্ষমাঘলললললললল। ওখায় মন্ত্রনাৰদ্বাজ্জ্বল সাঃ সলিস্বিত্বালালা খুলল স্বত্ব স্ব স্থা। লুলাম অনলাল শ’্যা সুস্থ।
तदेतनिवृणाति । व्याप्तेरिति । केयं व्याप्तिरित्यत আস্থা অ্যাখানি। ল সাথি ৰিলা সখা (৭)সন্ধুঃ আত্মিাৰিাকৃতিস্বাধহত্যাকা
(৭) মুন্সয়ালাজাসুস্থ ।
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-এ ভয় ও এক ছেলেরা
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प्रमाण प्रकरणे ऽनुमाननिरूपणम् ।
साधनमनुमानम् । प्रत्यक्षादीनां तु प्रमेयव्याप्तिसद्भावे ऽपि तद्ग्रहणापेक्षा नास्तीति ग्रहणविशेषयोन तेषां निरासः । लिङ्गपरामर्शेौऽनुमानमित्याचार्याः । तत्र लिङ्गलक्षणमुत्तरत्र भविष्यति । परामर्श इति च प्रतिसन्धानात्मकं तृतीयलिङ्गज्ञानमभिमतमिति ॥ १२ ॥
0
व्याप्लिक्षणमाह ।
ब्यामिः सम्बन्धो निरुपाधिकः । सोपाधिकसम्बन्धवतां मैत्रीतनयत्वादीनां व्याहिमभूदिति निरुपाधिक इत्युक्तम् । स्वाभाविकः सम्बन्धो व्याप्तिरिति यावत् ।
याह । प्रत्यक्षादीनामिति । प्रमेयादीत्यादिशब्देन सहकायदिसंग्रहः । तच व्याप्तेः प्रायेण सत्तेवापेक्षिता न तु तज्ज्ञान (समित्यदोष इत्यर्थः । उदयनाचार्यैरपीदमेव लक्षणं भङ्गयन्तरेणेोकमित्याह । लिङ्गेति । तस्यार्थं वर्णयम् लिङ्गलक्षणाकाङ्क्षायामाह । तत्रेति । उत्तरत्रेति हेतुलक्षणावसर इत्यर्थः । द्वितीयलिङ्गपरामर्शस्य कारणत्वं केचिदिच्छन्ति तन्निरासार्थमाह । परामर्श इति । किं तत् तृतीयलिङ्गज्ञानं तदाह । प्रतिसन्धानात्मकमिति । तथा चायं धूमवानिति व्याप्तस्य लिङ्गस्य पक्षधर्मतानुसन्धानं प्रतिसन्धानं तदात्मकमित्यर्थः ॥ १२ ॥
ननु श्लेाकशेषेण प्रकृतानुपयुक्तं किमप्युच्यत इत्याशङ्खय नेत्याह । व्याप्तिरिति ।
विशेषणफलमाह । सेोपाधिकेति । निरुपाधिकशव्दार्थमाह । स्वाभाविक इति । अनन्यप्रयुक्त इत्यर्थः । (१) प्रत्यचादी | (२) ज्ञानं - पा. D .
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আহসান হয়েছে এলাকায়ছবিংহest-st-
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নাজিরা জাহাখিলীল নিয়ে জখম ক্রান্বিশিল্পাঞ্জ | স্বাক্ষাঃ শাহ আল
(৭) ॥ দুই ॥ | জালালিয়ালমালা যাত্রনিত্যাথি। অঙ্গ জ্বালা বিশাল ছাত্রী লিলিমাঝি। না হাথৰ অন্যত্র স্রাহী নি ল গ্রায়োনি কা ফাখনিন পিজ্জা আদায় ম্ন অলিগা ঘি শিা না ।
লা জ্বললাললাল লিম্বন জুন অস্ত্র বাঘিঃ বহালু। সুলুন লিখা জুন ন্যান্য স্বাবলাল আখলাঘশ্ৰোনু নন * গ্রাহ্ম = হ ল -
ললুসহাক ভাখিয়া ক্ষা বালিকা উচ্ছ। कोऽसाविति। | আ লিখানি স্বাক্ষ্মাত্।ি আলু খলা। শ্রাদাল আত্মঘাথা হিলাল সাবলীলঃ ঘামলা অন্যান্য অঙ্গ। আলাগো সূত্মিঘা অদ্ভূক্ষ্মাতি ফালঘলা ভাল ভাল স্ব স্ব ভবন। ভুলুস্থ হল। অস্বনি। তী লুথা অমান। দিচ্ছি। মানি তাল শনি ? । তালহাম্বলা। ফামলা অত্যক্ষ খালি। দ্যালু সাল ছিখাখা(৭) বই :-: A ।।
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प्रमाण प्रकरणे ऽनुमाननिरूपणम् ।
वत्वं साध्यमनित्यत्वं व्याप्नोति प्रनित्येष्वेव क्रियादिस्वभावात् । अथ साध्यव्यापक इत्येवाभिधीयेत ततश्चानित्यत्वसाधने सावयवत्वे कृतकत्वमुपाधिः स्यात् । तस्य साध्यानित्यत्वव्याप्तेः । साधनाव्यापक इत्युक्ते पुनस्तस्य सावयवत्वव्यापकत्वादनुपाधित्वं निरुपाधिकसाध्यसम्बन्धं चाभयम् । यथाहुः । कृतकत्वसावयवत्वादिप्रयुक्ता च विनाशितेति । तस्मात् प्रयोजनवदेव विशेषणद्वयोपादानम् । यथाहुः । एकसाध्याविनाभावे मिथः सम्बन्धशून्ययोः । साध्याभावाविनाभावी स उपाधिर्यदत्ययः ॥ इति ।
६०
नमित्यन्तेन सन्दर्भेण । अनित्यत्वसाधने कृतकत्व इति । । अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदित्यत्र साधनाव्यापकत्वाद् घटे सावयवत्वमुपाधिः स्यादित्यर्थः । अनित्यत्वसाधने सावयवत्व इति । क्षित्यादिकमनित्यं सावयवत्वाद् घटवदित्यत्र साध्यव्यापकत्वात् कृतकत्वमुपाधिः स्यादित्यर्थः । ननु कृतकत्व सावयवत्वयोरेकस्य सोपाधिकत्वमस्तु तथा च साधनाव्यापकत्व साध्यव्यापकत्वयोरन्यतरेणैव लक्षणसिद्धी लाघवादित्याशङ्कयाह । निरुपाधिकेति । अनित्यत्वसाधने द्वयोरपि दृष्टशक्तिकत्वान्नान्यतरपरित्यागो न्याय्य इति भावः । द्वयोरप्यनित्यतासाधकत्वे वृद्धसम्मतिमाह । यथाहुरिति । प्रकृतमुपसंहरति । तस्मादिति । समपदं तु पक्षेतरत्वनिरासार्थमिति शेषः ।
उपाधिलक्षणमुदयनवाचा संवादयति । एकसाध्ये
ठ - No. 3, Vol. XXII. - March, 1900.
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सटीकताधिकरवाया अन्यत्राप्युक्तम् । कः पुनरुपाधिः । साध्यप्रयोजक निमित्तान्तरमिति । किमस्य लक्षणम् । साधজাল নি তা অলিনি (৫) । বিশ্ব ति। मिथः सम्बन्धशून्ययारन्यन्न परस्परपरिहारवृत्त्यापोहत्वोः कचिदेकेन साध्येन सहाविनाभावे दृष्टे सति तत्र यदत्ययो यदभाव: प्रकृतसाध्याभावेनाविनाभावी पन्निवृत्त्या साध्यं निवर्तत इत्यर्थः । स उपाधिः स एव प्रयोजकः इतरस्त्वप्रयोजकः । यथा हिंसात्वनिषिद्धत्वयोः क्रतुहिंसायां कलशभक्षणे च पृथगवृत्त्योः क्रतुहिंसायामधमत्वे साध्ये तेन सह बाह्यहिंसायां दया (२)रविनाभावे होऽपि कदलीफलभक्षणादौ निषिद्धत्वानिवृत्त्या अधर्मत्वानिवृत्तिदर्शनानिषिद्धत्वमुपाधिस्तवदित्यर्थः ।।
अत्रापि साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्यापकत्वमेव भणयन्तरेणोक्तं तदेतदात्मतत्त्वविवेके ऽप्युक्तमिस्याह । अन्यन्नापीति । तद्ग्रन्थ लिखति । कः पुनरित्यादि । निमित्तान्तरं हेत्वन्तरमित्यर्थः । अयं किरणावलीअन्थ इति कैश्चिदुक्तं तदाकरदर्शनाशक्ति) विलसितमित्यपास्तम् । तत् न्यायकुसुमाञ्जली त्वेतल्लक्षणोक्त्यनन्तरमुपाधिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं चोक्तम् । तद्धर्मभूताहि व्याप्तिजपाकुसुमरक्ततेव स्फटिके साधनाभिमते चकास्तीत्यसावुपाधिरुच्यत इति । तदर्थता दर्शयति । स्फटिकेत्यादि ।
(१) साध्यसमव्याप्तिरूपाधिरिति-पा. C पु. । (२) हिंसानिषिदुत्वयोः । (३) तदपरिचयप्रदर्शनाशक्ति-पा. E घु० ॥ (४) तदास्ताम्-पा• E पुः ।
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प्रमाण प्रकरणे ऽनुमाननिरूपणम् ।
तत्वेन रक्तताप्रतीता जपाकुसुमवत् साधनाभिमतगतत्वेन स्वधर्मभूताया व्याप्तेः प्रतिभासनिमित्तत्वेनास्योपाधित्वव्यपदेश इति ॥ १३ ॥
उपाधिद्वैविध्यमाह । भवन्ति ते च द्विविधा निश्चिताः शङ्किता इति' 7(9)
निर्णीतेाभयविशेषणवान् निश्चित उपाधिः । यथोदाहृतमेव निषिद्धत्वम् । उक्तयोर्विशेषणयेोरन्यतरसदसद्भावशङ्कायां तु शङ्कित उपाधिः स्यात् । यथा मैत्रीगर्भत्वेन सम्प्रमगर्भस्य श्यामत्वे साध्ये शाकादयाहारपरिणतिः । पक्षभूते हि सप्रमगर्भ श्यामत्वोपाधेः
उप समीपस्थे स्वधर्मीधानादुपाधिरुच्यत इत्यर्थः ॥ १३ ॥ ननु सम्प्रति प्रकृतानुमान विभागप्रस्तावादुत्तर इलाके बहुवचननिर्देशः कथमत आह । उपाधीति ।
शङ्किताः सन्दिग्धा इत्यर्थः ।
तत्र निश्चितोपाधेर्लक्षणमुदाहरणं चाह । निर्णीतेति । शङ्कितोपाधेरप्याह । उक्तयेोरिति । साधनाव्यापकत्वसाध्यव्यापकत्वयोरित्यर्थः । गर्भस्य श्यामत्व इत्यनेन प्राणिश्यामत्व एवायमुपाधिर्न सर्वत्रेति सूचितम् । तेनेन्द्रनीलादिश्यामत्वे साध्यव्याप्तिभङ्ग इति चाद्यं गर्भश्रावेण गलितम् । अस्य शङ्कितोपाधित्वं कथमत आह । पक्षभूते हीति । ननु साधनाव्यापकत्वं सन्दिग्धं चेत् तस्या
(१) अधि-या A .
१८७
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सटीकतार्किकरक्षायाम् মান্ধাকান্থাবলিহালিযা লাঘলাव्यापकत्वं सन्दिग्धमिति भवति शहितोपाधित्वम् । साधनाव्यापक इत्यनिश्चितपक्षवृत्तित्वस्य विवक्षिा तत्वात् न लक्षणासंग्रहः । तदेतदुभयविधापाधिविधुरः सम्बन्धी व्याप्तिरिति ।।
अनुमानस्यावान्तरभेदमाह ।
লুলাল লিখা শিল্প। সুনালালালাল ত্রি যাত্মিীয় काहीचकार इत्यर्थः । ता एव विधा विमजते ।
सत्समत्वाल्लक्षणमसम्भावि स्थादित्याशमाह । साधनाव्यापक इति । अनिश्चितपक्षवृत्तित्वस्येति । निश्चितपक्षवृत्तित्वाभावस्येत्यर्थः । निश्चितपक्षवृत्तिरहितत्वस्येति पाठे निश्चितायाः पक्षवत्त राहित्यमभावस्तस्येत्यर्थः । उभयथापि पक्षवृत्तिनिश्चयाभावस्थ लक्षणत्वात् तस्य च पक्षवत्तित्वाभावनिश्चये तत्सन्देहे च सम्भवानासम्भवदोष(१) इत्यर्थः । प्रकृतव्याप्तिलक्षणमुपसंहरति । तदेतदिति।।
ननु लक्षितमनुमानमयोपमाने लक्षयितव्ये किमर्थ पुनरनुमानोत्कीर्तनमुत्तरश्लोक इत्याशय तद्विभागार्थमित्याह । अनुमानस्येति ।
ननु स्वार्थाचनेकभेदसम्भवे कथं त्रैविध्यमत आह । अवान्तरेति । अथान्वयीत्यादिना पुनस्त्रविध्यान्तरमुच्यत इति भ्रमं निरस्यति । ता एवेति । अन्नोभयव्याप्तिकान्व
।
(१) नासम्भवाद्वोन--प्रा. पु. ।
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प्रमाण प्रकरणे ऽनुमाननिरूपणम् ।
अन्वयि व्यतिरेकि च ॥ १४ ॥ अन्वयव्यतिरेकीति ।
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तदुक्तम् । तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेबवत् सामान्यता दृष्टं चेति । तत्र तदिति व्याप्तिज्ञानं ( पक्षधर्मताज्ञानं ) लिङ्गदर्शनं च परामृश्यते । ते पूर्वे यस्य लिङ्गप्रतिसन्धानस्य ( ( ) तत् तत्पूर्वकं ततश्च तत्पूर्वकमित्येतावता सामान्यलक्षणमुच्यते । शेषेण सामान्यतो विशेषतश्च विभाग द्वेश इति ।
यव्यतिरेकिणः पूर्वमेकैकन्या तिकयोरितरयेोरुद्देशः तत्रापि व्यतिरेकस्यान्चयपूर्वकत्वादन्वयिनः प्राथम्ये ऽर्थतिरेfour माध्यस्थ्यमिति क्रमः ।
अन सुसंवाद (माह । तदुक्तमिति । सूत्रार्थमाह । तत्रेति । तच्छन्दस्य बुद्धिस्थार्थविशेषपरत्वमाह । तदितीति । लिङ्गदर्शनं द्वितीय लिङ्गज्ञानमित्यर्थः । लिङ्गप्रतिसन्धानस्येति । तृतीयलिङ्गपरामर्शस्येत्यर्थः । तथा च तत्पूर्वकशब्देन लिङ्गपरामर्शेौऽनुमानमिति सामान्यलक्षणमुक्तमित्याह । ततश्चेति । शेषेणेति । त्रिविधमिति सामान्यतेा विभागः पूर्ववदित्यादि विशेषतः । व्यतिरेकापेक्षया पूर्वभावित्वात् पूर्वशब्देनान्वय उच्यते तद्वदन्वयीत्यर्थः । शेषशब्देन पञ्चाद्भावित्वाद्व्यतिरेकस्तद्वद्व्यतिरेकीत्यर्थः । सामान्यतः कैवल्यपरिहारेणाभयविशिष्टतया दृष्टत्वात् सामान्यता दृष्टमित्यन्वयव्यतिरेक्युच्यते । केचित् तु पूर्वव
घु.
( १ ) परामर्शस्य-पा. D (२) सूत्रसम्मति - पा. E पु· ।
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२२
नाति तावत् ।
सटीकतार्किकतायाम्
तेषां त्रयाणां विशेषलक्षणाभिधानं प्रतिजा
तेषां लक्षणमुच्यते ।
तत्र केवलान्वयिनो शक्षणमाह । सर्वेषु केषुचिद्वापि सपक्षेषु समन्वयि ॥ १५ ॥ विपक्षशून्यं पक्षस्य व्यापकं केवलान्वयि ॥
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वक्ष्यमाणलक्षणाः पक्षादयः । तत्र पक्षीकृतेषु सर्वेषु व्याप्त्या वर्तमानं सर्वेषु सपक्षेषु कतिपयेषु वा वर्तमानमविदद्यमानविपक्षं केवलान्वयि । यथा सर्वी
दिति कारण लिङ्गकं शेषवदिति कार्यलिङ्गकं ततोऽन्यत् सामान्यता मिति व्याचक्षते तत्प्रकृतविसंवादाचिन्त्यम् । ननु तेषां लक्षणमुच्यत इति प्रतिज्ञा न युज्यते व्याप्तिग्रहणसापेक्षमित्यत्रैवाक्तत्वादित्याशङ्क्य सत्यं सामान्यलक्षणमुक्तं विशेषलक्षणं तु प्रतिज्ञायत इत्याह । तेषां त्रयाणामिति । प्रतिजानातीति परस्मैपदं चिन्त्यम् । सम्प्रतिभ्यामनाध्यान इत्यात्मनेपदस्मरणात् ।
१६०
तञ्चद्देशक्रमादेवोच्यत इत्याशयेनाह । तत्रेति । अत्र विपक्षशून्यमित्यनेनास्य इतराभ्यां भेद उक्तः ।
पक्षादीनां किं लक्षणमत आह । वक्ष्यमाणेति । यत् प्रथमार्द्ध सपक्षेषु कृत्स्नैकदेशवृत्तिभेदाद्धेतेार्दैविध्यमुक्तं तत् क्रमेणेादाहरति । यथेत्यादि । हेतोरसाधारण्य
(१) कृतान्ययम् - पा. A पु.
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স্নায়ুক্ষযয় চললালqযাম্।। नित्यत्ववादी कश्चिदनित्यत्वेन सम्प्रतिपन्नान् घटादीन् सपक्षीकृत्य प्रयुड़े विप्रतिपनं सर्वमनित्यं प्रमेयत्वाद् घटवदिति । तदिदं सकलसपक्षवर्तिन उदाहरणम् । सपक्षोकदेशवर्तिनस्तु धर्मादयः कस्यचित् प्रत्यक्षाः मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वादस्मत्सुखादिवदिति । मीमांसकानामप्रत्यक्षत्वं हि घटादिषु(१) न वर्तते वर्तते चास्मत्सखादिष्विति भवति सपक्षकदेशवृत्तिः। अत्र चाभयत्रापि विश्वस्यापि पक्षसपक्षकाटिद्वयान्तभावात् विपक्षाभाव इति ॥ १५ ॥ 5 ॥
केवलव्यतिरेकियां लक्षयति। असपक्ष विपक्षभ्यो व्यावृत्तं पक्षभूमिषु ॥१६॥ सर्वासु वर्तमानं यत् केवलव्यतिरेकि तत् ॥
अत्र विपक्षाव्यावृत्त्यभिधानेन(२) विपक्षसत्ता परिहारार्थमुक्तं मीमांसकानामिति । लक्ष्ये लक्षणं योजपति । अन्न चेति ॥ १५ ॥ 5 ॥
कस्येदं लक्षणमिति मन्दानामसन्देहार्थमाह । केवलख्यातिरेकिणमिति।
असपक्षामित्यनेन इतरभेदाभ्यामसाधारणाच भेदः विपक्षव्यावृत्तिकथनाविरुद्धभेदः । तथापि सर्वमनित्यं सत्त्वादित्यादिकालातीतभेदात् को भेद इत्यत आह । अन्नति । सति विपक्षतता व्यावृत्तिलक्षणं न तु निर्वि
(१) सपक्षेषु घटादिषु-पा. C पुः । (२) ख्यात्तिकथनोन-- पा. B . ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम् । মিমা। না আনকালিঘালা । অন্যা सर्वनप्रणीता वेदा वेदत्वात् । यः सर्वज्ञप्रणीता न भवति नासा वेदः। यथा कुमारसम्भवादिरिति । यथा वा सर्व कार्य सर्ववित्कर्टपूर्वकं कादाचित्कत्वात् । यदुक्तसाध्यं न भवति तदुक्तसाधनमपि न भवति यथा गगनमिति । अत्र हि सर्वस्यापि कार्यजातस्य पक्षत्वेन कक्षीकरणात्१) । अकार्यस्य तु विपक्षत्वाद् भवति सपक्षाभाव इति ॥ १६ ॥ ७ ॥
शिष्यव्युत्पादनार्थक) प्रासङ्गिक किजिदाह । पक्षत्वमेवाता नोक्तदोष इत्यर्थः । तर्हि
तस्माद्वैधय॑दृशान्तेनेटोवश्यमिहाश्रयः । तभावे च तन्नेति वचनादपि तद्गतेः ।।
इति ब्रुवता बौद्धस्य किमुत्तरमत आह । असत इति । अन्यथा तछत् साधर्म्यान्तस्यापि निवृत्तावनुमानस्यैव निवृत्तिरिति भावः । उदाहरति । यथेति । विषयव्याप्त्यर्थमुदाहरणान्तरमाह । यथा वोति । अत्र पूर्वानुमाने घेदनित्यत्ववादिन प्रति वेदानां सर्वज्ञप्रणीतत्वे साध्ये तानान्तरीयकतया कार्यत्वमपि साधयम् उत्तरानुमाने तु सिद्धकार्यभावस्य जगतः सर्वविककत्वमेव साध्यमिति विशेषः ॥ १६ ॥ ७ ॥
ननूत्तरा? लक्षणस्य व्यतिरेकित्वसाधनं प्रकृतास(१) स्वीकारात-पा. B . । (२) व्युत्पादनाय-पा. B पुः ।
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ছি। হিল। মা অস্বাভানি। স্বনিই কি| সনুভাশি : (গ)। | লাঅ সুনিয়ন্ধিক্ষত্রে দিল কি লিজন্ম সংস্থা জাজাঙ্গামাজ কি কিন্তু
কিন্তু নয়া অঞ্জু। তা না নয়। কন্তু নিক্ষি না হয় ভূৰ্ত্তি তা সাপ্লবর্ষালি গুপ্ত শিক্ষাঅ ত্বাহা স্ব স্বলুনি দিল কি
অঙ্গ দু ল' ইন্ধি বলিনি। ওম শামঃ। শুন্যতা জন্য ক্ষমা স্বতন্ত্র হলো -- ঘি শিহঙ্গালোৰ। কিন্তু স্কুল হললিহ্ম স্থান স্থানা। স্কুল জুনি? ওনি dলন হিন্দুস্থ স্বত্ব নি। শুধু তাতাল: দন্ত লতানি লা:। নহ্মত্য কালিহা। ঈশুলিব্দি স্বৰ। ই নি। ওলা
মালনি ফুকাহঃ ওসঙ্গ লাল। সাল। सास्नादिमत्त्वलक्षणस्यानुमानत्वे किं लक्ष्यस्य गवादेः स्वমূল । চলুন জ্বেলিনি। লায়; শিল্প
(৭) সন্ত্রণ জালিয়:- u: E । No. 4, Vol. XXII.~-April, 1900.
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জানুনখণক অফখরুল ৪ দফজ কাগজ এম এস দিয়ে
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सटीकताकिफरक्षायाम | অলঅ নিবনিনি ) ৫ সুফল স্বয় गारिति व्यावहूर्तव्यः सानादिमत्त्वात् न. यदेवं न तदेवं यथा माहिषादिरिति । तयोरेव हेतुष्टान्तयाः गारितारेभ्यो भिदात(२) इति प्रतिज्ञा द्रष्टव्या । ना। चैतदसाम्प्रदायिकम् । अथ किंलक्षणाः कासावितिः प्रश्नार्थः तदा केवलव्यतिरिकिपर स्यात् । लक्षणस्य साधनात् । नेतरः सन्दिग्धस्य तस्य कस्यचिद्भावात् कथः मनुमानत्वमिति भावः । तश्रुितचरं लक्षणार्थरहस्यमाकपीतामायुष्मतेत्याह । श्रूयतामिति । व्यावत्तिव्यवहारयारन्यतरस्य साध्यत्वान्नोत्तदोषावकाश. इत्याह । अयं गारित्यादि । एवं च प्रमाणलक्षणाभ्यां वस्तुनः सिद्धिरित्यस्यापि स्वरूपसाधकप्रमाणेन व्यावात्तिसाधकप्रमाणेन लक्षणापरनाना स्वरूपता व्यावृत्तितश्च वस्तुसिद्धिरिति प्रशास्तपादाप्यनिष्कण्डकाया ममाभिव्याख्याता द. धृव्यः ॥ नन्वेतत् स्वकालकल्पितमित्याह । न चैतदिति । कुत इत्याशङ्ख्य न्यायकुसुमाञ्जलापमानाधिकारे नागरिकबनेचरप्रश्नोत्तरवाक्यार्थविचारग्रन्थ लिखति । अथेत्यादि। प्रश्नार्थ इति । कोसा गवय इति(४) प्रश्नवाक्या इत्यार्थः । तदा केवलव्यतिरेकिपरं स्यादिति गोसदृशो गवय इत्युत्तरवाक्यमिति शेषः । अयमसो गवय इति व्यवहर्तव्याः,
(१) यालारकिरूपतेति चन- पा. B पु... (१२) व्याधर्तते-पा. B पु .. !!
(३.) नि:कण्टिकाया-पा• E पु. । प्रशस्तपादमानिसपटीशा.या-पा.. F पुः ।
(४) कीदृग्गवम इति-पा- E पुर।
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অাখাফা ক ল যাবিঘঅন্যাশ্রী নী নাৰ ব্যালানা জলাশা স্কা মস্যিা । লঘদ্ধা জানি স্বাবঃ আযাদী।
দানি বন্ধ নাশকাল: অালমন্বনী মুম্বা খানজান্দিনা বা লালমা: হত্যা। অদ্য মুলি(২) তাহা অসুখ ল সন্তান লার্না হাঃ অথ হল য গাড়ি । বন্য থালাব্যাক্তিনি केवलव्यतिरेकित्वादित्यर्थः । अयमप्येकः किरणावलीসুখ সালমা জলি জ্বলিয়ান নন তাল গ শ্রাহ্মঘাহিঙ্গাললামতাজন হত্যা লি অন জিঘ্য বৃথিসঙ্কর জ্বালাঙ্কিাৰহা কাে লুলিস্যাক্তি লখা স্বাক্ষাবান্ধা লালালালালীबच्छेदो लक्षणार्थ इति च तत्सक सङ्गह्यते । आचार्यैरुदयলন্যাসিলিলিঃ । ৩ । | নলু দশ
হ জ মক্কা যাবাখ লালশুন্য- অশ্বিস্থায় প্রাক্কালোলালি, ঘালি।
ললঃ জ্বালানিবিদ্যাল্বানু ঈ ঈ ভ इत्याशय सपक्षसत्त्वासत्त्वाभ्यां भेद उक्त इति व्याचले। | (৭) লিলা মুমি:-q• B ।।
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বীনাদিং নাম হুনিনি। গচ্ছি বায়ালা কিন্তু জাহেল্প কাহালি নাঅলাল গুলা তুমুল জন্ম জন্য লোনাজা ক্ষনে নিশ্বত্ব লঙ্কঃ জালালুমিইজুলফি সাক্ষ্মঃ
স্নান আনি। শ্রাল অন্তু দ্বিীঃ গ্রীনু জালাল ? ভাঙ্গা জ জ কফহা ইল'ৰাই ঋতুলু। | লিখা ভূমি অজস্র ল স্বজালিত্ব স্থানিষ্মিানা। নালিনি মন্ত্র বজ্জাজঅলাম আজদ্দিন ল র ঘিাহিনি অন্ধী স্কুলস্বলক্ষাখি হত্যায়: ঘুমাৰিাথি দ্বািশনে জামিনে মাত্রায় অন্ধ শীল। হিমু নালিকা। নিল"শক্ষি। उदाहरणं चोक्कमेवेति भावः । | ভন্ডাজ ১ণি ঘুমজনু মাহজলাক্সক্স । অজান। | লন্তু ৰিথশিশলান্যাল ল ললঅল ন্যাক্কা। কিন্তু ছলি। নলি ঝিলিतस्य सपक्षसत्वस्य लाघवाद् वृत्यादिशब्दैरपि सुवचत्वात् খিলিশ্বহাল ঘি অহিজাহাফিল আনন্দ आह । कृतेति । अन्यथा सपोष्विति बहुवचनसामोत् पूर्ववत् व्याप्तिप्रतीतो सपक्षव्यापकस्यैव संग्रहा भवेन्न त्वेআবাবিল হান লাল, স্যালিৰিকাথায় মাল माह। पक्षीकृतेति। पूर्वयोरिवेति । केवलयोरिवेत्यर्थः। व्या
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प्रमाण प्रकरणे ऽनुमाननिरूपणम् ।
वर्तमानमिति । यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति सपक्षव्यापकः कृतकत्वस्य सर्वेष्वनित्येषु वृत्तेः । तयोरेव साध्यदृष्टान्तयोः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्येन्द्रियग्राह्यत्वादिति सपक्षैकदेशवृत्तिः । अनित्येषु द्वाणुकादिष्ववृत्तेः घटादिषु च वृत्तेरिति ॥ १६ ॥ ऽऽ ॥
पक्षादिलक्षणमाह ।
पक्षः साध्यान्विता धर्मो साध्यजातीयधर्मवान् ॥ १६ ॥
सपक्षोऽथ विपक्षस्तु साध्यधर्मनिवृत्तिमान् ।
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पकमुदाहरति । यथेति । व्यापकत्वं व्यनक्ति कृतकत्वस्पेति । एकदेशवर्तिनमप्युदाहरति । तथेोरेवेति । अत्र सामान्यवस्वे सतीत्यनेन सामान्यसमवाययोर्व्युदासः । अस्मदादिवाशेन्द्रियपदैः क्रमाद्योगिवाह्मेन्द्रियग्राह्यपरमा
ग्वादीनामसदाचन्तरिन्द्रियग्राह्यात्मादीनां शब्दलिङ्गैकग्राह्येश्वरपरमाण्वादीनां च निरासः । ग्राह्यपदेनासिद्धिपरिहारः । अस्य सपक्षैकदेशवृत्तित्वं व्यनक्ति । अनित्येष्विति ॥ १८ ॥ ss ॥
उत्तरइलाकस्योक्तवक्ष्यमाणानुमानसामान्यविशेषलक्षणानन्तर्भावादसाङ्गत्यमाशङ्कयोक्तलक्षणाकाङ्गितपक्षादिलक्षणपरत्वात् सङ्गतिरित्याशयेनाह । पक्षादीति ।
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सटीकता किकरतायाम्
साध्यधर्मवत्त्वेन सपक्षत्वे पक्षोऽपि सपक्षः स्यादित्युक्तं साध्यजातीयधर्मवानिति । एवं साध्यधमनिवृत्तिमानित्यत्रापि साध्यधर्मविशेषस्य तज्जातीयधर्मस्य च निवृत्तिमान् विपक्ष इति विवक्षितम् । अन्यथा साध्यधर्मविशेषनिवृत्तिमात्रेण विपक्षत्वे सपक्षस्यापि तथाभावाद् विपक्षत्वप्रसङ्ग इति ॥ १९ ॥ ऽऽ ॥ प्रकारान्तरेणानुमानद्वैविध्यमाह ।
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अत्र सपक्षलक्षणे जातीयरः प्रयोजनमाह । साध्यधर्मवत्त्वेति । सपक्षलक्षणस्य पक्षे ऽतिव्याप्तिनिरासार्थीsयं प्रत्यय () इत्यर्थः । विपक्षलक्षणे तु जातीयरः प्रत्ययाarshi faar इत्याह । एवमिति । अन्यथा सपक्षे ऽतिव्याप्तिः स्यादित्याह । अन्यथेति । साध्यधर्मविशेषवान् ) धर्मी पक्षः । तज्जातीयधर्मवान् सपक्षः । तदुभयविरही विपक्ष इति लक्षणार्थः ॥ १९ ॥ ss ॥
दृष्टमित्याद्यनन्तरइलाके ऽस्येति सर्वनाम्ना सन्निहितपक्षादित्रयपरामशीत् तस्य च दृष्टादिद्वैविध्यायोगादसाङ्गत्यमित्याशङ्क्य प्रकरणात् सन्निधेर्दुर्बलत्वादने के टिपशुसामात्मक राजसूयगतानामभिषेचनीयाख्यसामयागसन्निधिबाधेन विदेवनादिधर्माणां सर्वात्मकप्रकृतराजसूयसम्बन्धवत् सन्निहितपक्षादिसम्बन्धबाधेन तदाश्रितप्रकृतानुमानविषयत्वेनावतारयति । अनुमानद्वैविध्यमिति । तर्हि पूर्वीतत्रैविध्यविरोध इत्यत आह । प्रकारान्तरेणेति ।
(१) प्रयास - पा० E पु. 0 (२) विशिष्टवानिति कचित् ।
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प्रमाणप्रकरणे ऽनुमाननिरूपणम् । दृष्टं सामान्यता दृष्टमिति चास्य विधाद्वयम् ॥ २० ॥ पूर्व प्रत्यक्षयोग्यार्थ तदयोग्यार्थमुत्तरम् ॥
विशेषतेश दृष्टं सामान्यता इष्टमिति च द्विविधमनुमान भवति । तत्र प्रत्यक्षयोग्यार्थानुमापकं विशेषता दृष्टं यथा धूमादिरिति । नित्यातीन्द्रियाय
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লন্ত লালাখালী সূত্র প্রনালি নিহাল জুमिति निर्देष्ट्र युक्तं न तु दृमिति अन्यथा नीलोत्पलस्य | रक्तोत्पलवदुत्पलमात्रस्यापि प्रतिकोटित्वापत्तरित्याशङ्का सत्य इलाके वृत्तसहोचात् कण्ठतो नोक्तं सामान्यशब्दसामर्थ्य लभ्यत्वादित्याशयेनाह । विशेषता दृमिति । ननु सर्वस्याप्यनुमानस्य प्रथम व्याश्या सामान्य एव प्रवृत्तः पश्चात् पक्षधर्मतावशेन विशेषपर्यवसानाच सामान्यता दृष्टं विशेषता दृष्टं चेति कुतो भेदसिद्धिरित्याशयान्यथा लक्षजोदाहरणाभ्यामुभयं विविच्चन्नुत्तराई व्याचष्टे । तन्नेत्या-1 दि। पूर्व व्यवधानादिना अप्रत्यक्षत्वे ऽपि पाश्चात् तदपाये विशेषतो व्यक्तितः प्रत्यक्षदृश्यार्थत्वाद्धमाद्यनुमान विशेषता दृमित्यर्थः । विशेषत दृष्टे तिव्याशिपरिहारार्थ विशिनधि नित्येति । रूपादिज्ञानं करणसाध्यं क्रियात्वात्। छिदिक्रियावत् ज्ञानत्वाहा लैङ्गिकचदित्यन नित्यानुमेयस्य चक्षुरादेः कुठारदिशु करणत्वसामान्येन दृशृस्य विषयत्वादिदं सामान्यता मित्यर्थः । यदुत्कं प्राक् निरूपा
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লুঙ্গামঃ। মুহাঃ হারু খাল । য়িকা মুনুলঃ স্বনি স্বস্থি অ মুন্না : যুক্ষ্ম: । | অক্ষাৰহাখা হয় তা তিন লক্ষ । লিলালিনী সুলাল্ল লীলা। নি।
নক্ষ। স্নাইলাল হাজ্জা হল| স্কুল কান লা লা লু :। ন্ধি | শিক্ষা দামে বিক্রি ৱল মহালিশ ন্য | হলিকাৰ লিঅ' লাখ অলি| নলু। শনি হাশাঃ ওল কালিজুরিযদি নায়াদি । ননি ? অাহত ? | বৃদ্ধা মহিলাঙ্গন ()। " অনু বলি ! ভুগ্ৰা আঁশ। হালকা লালা লজ্জা ল নখহনস্থ সুৰাৰ লাহ! ত্মি
হানালিন্য শুলাভালিহা খ ল ভূলাব্বালানি অশ।
तदेतद्धयति तयुक्तमिति । तादात्म्यतनुत्पत्ती ৰিলালানাইলাতুগন্ধফি খায় । ওান্ধায়নি। জম্ম হাল থালাল আহি থাকিজিবি অস্বলমলললিহানুলাল। - | বাস্থ্য খালালালা লাখ দুই (৭) নিৰামযাই:-- E ।
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হিনি লা ইদামি ফ্যান। ব্যায়মুম্বাঝাল শীল্কাৰী চলুন আকাক্সঃ। ল দেহ উন্স ৰিক্সীখালী বা স্ত্র । ক্ষি স্ব স্বামিহলি! শুধুঃ শ্বশ্ব ঐলি তুঃ। ওখালুনা শাখায় জল হত্যা। ক্ষি জানি। কথা ল লাল লি গান কি কাজ
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নয়ন্ধিায় सम्भवः सामान्यमनिश्चितं निश्चितस्तु विशेष इति । न च तस्मिन् सति भावमा तत्कार्यमपि तु तस्मिन्
ন্য ক্ষমাঃ । জা আনিলয়ন মমি নহ্মোহ নালা মন অনাকালিহিলি স্কুল विस्तरेण ॥ २० ॥ 558 | যা সহ্মঃ ৰ ")
ফাস্কাল লাহিন্দ্রা ভাল लक्षयति
हेतुः स्यादित्यर्थः । अथ तदुत्पत्तावप्यसाधारण दोषं वक्तं तदुत्पत्तिं तावद् विचिनक्ति । न चेति । अन्यथैवं प्रलपता चौडस्य स्वनिषेककाले यदृच्छासन्निहितरासभकार्यत्वं केन वार्यत इति भावः । ततः किमत आह । स चेति । इतिशब्दो हेत्वर्थे तत्कार्यत्वात् तदविनाभाव इत्युक्त तयोर्थटकलशादिशब्दवत् पर्यायत्वात् तदविनाभावात् तदविनाभाव इत्युक्तं भवेत् तथा च स्वमिद्धा स्वापेक्षणादात्माश्रय इत्यर्थः । तहि भवतामपि कार्यलिङ्गकानुमानेष व्यात्रिज्ञाने का गतिरित्याशोदानां सर्वेषामपि भवतामेवान्वयव्यतिरेकावन्तरेण कान्या गतिरस्तीत्याशयेनाह इति कृतमिति । इत्यनुमानम् (२) ॥ २० ॥ ss ||
नन्वद्यापि स्वार्थपरार्थ भेदानुक्तरसमास एवानुमाने कथामिदानीमुपमानोक्तिरुत्तरश्लोक इत्याशयाह । एवं सप्रकारमिति । स्वाथादिभेदस्तु उत्तरत्र यः परार्थानुमा
(१) सप्रपञ्च-पा• D पु० १ (२) इत्यनुमानम-इति नास्ति F' पु० ।
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प्रमाण प्रकरणे उपमाननिरूपणम् ।
अव्युत्पन्नपदापेतवाक्यार्थस्य च सञ्ज्ञिनि ॥ २१ ॥ प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञानमुपमानमिहोच्यते ।
अव्युत्पन्नेनागृहीतसङ्गतिना पदेनेोपेतं यद्वाक्यम् प्रतिदेशवाक्यमिति यावत् । तस्य येोऽर्थः साधर्म्यादिस्तस्य पूर्ण वाकयेनानुभूतस्य पश्चात् सञ्ज्ञिनि गथयादौ यत् प्रत्यक्षेण प्रत्यभिज्ञानं तदुपमानम् । अकृ
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नस्येत्याद्यवयवलक्षणादेवार्थात् प्रतीता न कण्ठोक्किमपेक्षत इति भावः । सङ्गतिस्तूद्दश एवोक्ता ।
अव्युत्पन्नेतिपदमव्युत्पन्नपमिति स्वरूपपरत्वशकानिरासार्थमाह । अव्युत्पन्नेनेति ।
अव्युत्पन्नशब्दार्थमाह । अगृहीतेति । प्रभिन्नकमकोदरादिवाक्याद्भिनन्ति । अतिदेशेति । स चार्थे नियत एवेत्याह । साधस्यादिति । आदिशब्दाद् वक्ष्यमाणवैधर्म्यधर्ममानयोर्ग्रहणम् । नन्वपूर्वदर्शनस्य कथं प्रत्यभिज्ञाजमत आह । पूर्वमिति । प्रत्यक्षेण प्रत्यक्षप्रमाणेनेत्यर्थः । तदुपमानमिति । प्रत्यक्षफलं यत्प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षं तदुपमीयतेऽनेनेत्युपमानम् उपमितिकरणमित्यर्थः । उपमितिश्च सञ्ज्ञासज्ज्ञिसम्बन्धप्रतिपत्तिरिति भावः । उक्तार्थे च आचार्य सम्मतिमाह । अकृतेति । अत्र सज्ञायाः समर्यमाणतयैवोपयोगकथनात् तदतिरिक्तातिदेशवाक्यार्थप्रत्यभिज्ञैवोपमानमिति केचिद्याचक्षते ते प्रवृव्याः गोसट
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(१) स्वरुपलक्षणत्व - पा. मघु. १ (२) न्यायाचार्य - इति कचित् ।
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স্থায় প্রায় অঙ্গ জাস্বত্ব স্বল্প লাল লাল ফিফন্তি আহ্বালঘলাল রুম ল স্বত্ব স্বাক্ষর न चावाक्यमुपदेशाय कल्पते कि चाचैव तत्समभिव्याहললিহাদ্বা জুয়া ও অন্যান্য স্ব লংকা
সুজ্জামুল হক ঘা। ললিথলী স্বাক্ষস্বাস্থ: ল ন্যায় স্বচ্ছ কিন্তু সত্যি ফল নাযামিলি অ ল স্কুণললং ত্বল্পআৰিঃ স্ফীত্ব ভূমি আত্মহা সুফিলি ফিন্য অহী জুহত্য
স্বাস্থ্য না লিলক্ষমাণু অস্ত্রখালা যায় যায় হুনি। অ অ অাবা অস্থা স ত্ৰ অৱক্ষণ চালি’ ক্লীলাঅশা সুদ্ধ হয় না সুখ লুথালাল নি। সন্ত্রালো শ্বাশ: স্বাদমাল লিলি s িাল্লা ত্তিয়ালা যা ১ লাফালুদাহ অলিনি। লাল খাফা কী লুঙ্কল এক্স ৰিহা অলু - যুব স
ম্প্ৰয়ত্ব অলি ললল ললুসিহস্কুলবাললিন লাখ ঙ্গ লম্বাহানা
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प्रमाण प्रकरणे उपमाननिरूपणम् ।
अन्त्रातिदेशवाक्यार्थस्त्रिविधः परिगृह्यते ॥ २२ ॥ साधर्म्य धर्ममात्र च वैधर्म्यं चेति भेदतः ।
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साधर्म्यादिभेदेनातिदेशवाक्यार्थस्त्रिविधा(२) भवति । तद्वेदात् तस्प्रतिसन्धानात्मकमुपमानमपि त्रिधा भिदात इति भावः । तत्र यथा गौस्तथा गवय इति श्रुतातिदेशवाक्यस्य पश्चाद् वनं गतस्य नागरिकस्य वाक्यानुभूतस्य मोसादृश्यस्य गवये यत् प्रतिसन्धानमयमती गोसदृश इति तत्साधम्योपमानम् । वैधयमानं तु कीगाव इति प्रश्ने गवादिवद् द्विशफेो न भवत्यश्व इत्यतिदेशवाक्याद्द्ववादिवैसा - श्यमधिगतवतः पश्चादेकशफत्वादिरूपस्य वैसादृश्यस्य तुरङ्गमे प्रत्यभिज्ञानम् । धर्ममात्रोपमानं तु उदीच्येनादीरितं दीर्घग्रीवः प्रलम्बोष्ठः कठोरतीक्ष्णक
द्वितीयार्थे त्रैविध्यान्तरोकिशङ्कां निरस्यन श्लोकं व्याचष्टं । साघम्यदीति । वाक्यार्थत्रैविध्यस्योपमानत्रैविध्यप्रयोजकत्वं व्यक्ति । तद्भेदादिति । प्रतिसन्धेयमेदात् प्रतिसन्धानभेद इत्यर्थः । प्रतिसन्धानं प्रत्यभिज्ञानम् । त्रिविधमप्युदाहरति । तत्रेत्यादि । अत्रान्वयरूपत्वात् पूर्व साधर्म्य ततो व्यतिरेकरूपत्वाद्वैधर्म्यं ततः परिशेषाद्धर्ममात्रमिति न्याय्यः क्रमः । श्लोके तु वृत्तानुसाराह्यत्ययः ।
(१) परिकल्प्यते-पा· A पु. (2) चित्रकारो - पा. Bपु.
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হিনি ন্যান্সিয়াল । নন মলিকুলাঙ্খা জাগুয়াল লালকিনিক্ষন সাথীণ ী ফায় জাফকাত্মত্য বলযা নীলুম চন স্থ
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ঈলঃ ৰূল সুষ্ঠু স্থলথনাহ। অন্য স্কিজুলীলান্সविषयस्येतरभेदबदुपमानोपमेयकोटियाभावानोपमानत्व किं त्वसाधारणधर्मत्वाद् गन्धवत्वादिवल्लक्षणमात्र तच केवलव्यतिरेक्येवेति चौद्यमुत्पाद्य सत्यम् यदन्न वाक्ये. লালন স্ত্রী অন্যায্য অ অঙ্গানু লাল হয়লাল নামবেহালাল-অলঅাম্মা লাল লিলি - ছানিল বা লক্ষীক্ষিীখাদ্যালয়অনলাঃ মনিষ্ট্র ল অফ সাঃ ও আ খা িকনक्तयोर्मयाभदाऽस्ति वा न वा अस्ति चेत् कथं तदेवेदলিস্তি সত্যনিষ্কালি ল অলু স্বত্বালাফেলা লদি ফুলপ্পিলি অভিযন্তািিল মুল। সাত্বি জ্বলাঙ্গল সুস্বললদু মজুলিনি অপু ফান্ধুনাআলি মূলা কালজ্জিন্ম ল ভ্যালিস্কি sঙুল: ফলজিজা ল গান্ধী মুনি নীলাল বিকাল इति समाधेयम् । उक्तवैविध्यस्य सूत्रविरोध परिहरति ।। লক্ষ্মীনি। কিন্তু কাফীলু মালিউল জালালি গায় শাহালু সন্যাশনাল স্থায় জাতি| সূক্ষ্মাক্ত স্বাক্ষনমুলাললিলি সুমাঞ্জা ভুলুল্ম |
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प्रमाणप्रकरणे उपमाननिरूपणम् ॥
साधर्म्यमानेोदाहरणानि बहूनि दर्शयित्वा अन्यान्यप्याहस्म भगवान् भाष्यकारः । एवमन्योऽप्युपमानस्य विषयो बुभुत्सितव्य इति ॥ २२ ॥ ऽऽ ॥ वादिविप्रतिपन्तेरुपमानस्य प्रमेयं फलं च
दर्शयति ।
प्रमेयं तस्य सम्बन्धः सञ्ज्ञायाः सञ्ज्ञिना सह ॥ २३॥ तत्प्रतीतिः फलं चास्य नासैौ मानान्तराद्भवेत् । सञ्ज्ञासज्ञ्जिसम्बन्ध उपमानस्य प्रमेयम् फलं च तत्सम्बन्धप्रतीतिः (१) । यथाहुः |
सम्बन्धस्य परिच्छेदः सञ्ज्ञायाः सजिना सह । प्रत्यक्षादेरसाध्यत्वादुपमानफलं विदुः ॥ इति ।
प्रमाणमाह । अत एवेति । तस्य प्रामाण्यसूचनार्थमुक्त भगवानिति । भाष्येोक्तः साधयौदाहरणान्तरत्वशङ्कां निरस्यति । बहूनोति । तत्र निराकाङ्क्षत्वाद्वैधर्म्यादिविषये वेत्यर्थः ॥ २२ ॥ ऽऽ ॥
नन्वस्योत्तरश्लोके प्रमेयफलकथन प्रक्रमविरुद्धं प्रत्यक्षादेस्तदनुक्तेरत आह । वादिविप्रतिपत्तेरिति । पार्थक्ये लक्षणे चेति शेषः ।
इलाकाक्षराणि योजयति । सज्ञेति ॥ अत्रोदयनसम्मतिमाह । यथाहुरिति । नासौ माना
न्तरादित्युक्तम् ।
अतिदेशवाक्यादनुमानाद्वा तत्प्रतीतेरित्याशङ्क्य न
( १ ) प्रतिपत्तिः - पा· B पु.
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ল দুই স্ত্রী নিয়াজাল জনশ্রী অল্প স্বল্প শিক্সি যাকামনীন: শিলা ১লা গম্ব সুন্তাস্যা যা
কাল কেহৰ অনাকানি। জন্ম মন্ত্র স্বাক্স খুয়া লাঙ্গ হৃত্মি স্নান স্মৰয়া আয যীদারুরূহ কালান। ল স্থি -
লঞ্চ সহাভ: মু অনুমান! 'নীন ঈক্ষ কীয় আত্মঅহমিলিশিক্ষিন । ল
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লামা শ্রা। ল ঘোলা ' স্বলল। ওনাশস্থ। অাখি মুক্তফলন কম ? যদি জা। হজ্জ্বেল । হা লয়ে রুশলমুললেখ লাখান্ত্রিসু Sষঙ্গিয়া
সুবা জন্ম স্ব স্ব ? ফায়াदेवति । ताहि लेन तद्ग्रहे सम्बन्धग्रहः सम्बन्धग्रहे च লন্দু শাস্ত্র স্বত্ব লতীস্থাগজুলু নমুখী ফুসু গ্রীলায়িত্ব ক্ষকাকো । এ শিক্ষ। শস্য হলরা। ওইলি। ক স্বচ্ছামত্ম
ক্ষা ও কলা । ” নি। সত্মা সু স্থা গাবতল হিউ জালালাবাঃ লালী = জাফর আলাতাত্ত্বিা অঙ্গसज इति भावः। तीप्रतीतगवयत्वं गवयपप्रवृत्तिनिमित्तं লালু মাৰ ৰা সত্ম কাহিনীনি জ্বল।
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प्रभागप्रकरणे उपमाननिरूपणम् ।
तस्य प्रतियोगिनिरूप्यत्वेन प्रतियोगिनमनभिधायाभिधानानुपपत्तेः प्रतियोगिना गोरप्यभिधाने गौरवप्रसङ्गात् अप्रतीतगूनामारण्यकानां तत्सादृश्यानवगमेन गवयपदव्यवहाराभावप्रसङ्गाञ्च । ननु गवयशब्दा गवयत्वस्य वाचकोऽसति वृत्त्यन्तरे वृद्वैस्तत्र प्रयुकत्वात् येोऽसति वृत्त्यन्तरे यत्र प्रयुज्यते स तस्य वाचकः यथा गोशब्दो गोत्वस्येत्यनुमानादेव तत्सम्बन्धप्रतीतिरिति चेत् । न तद्वाचकत्वज्ञानमन्तरेण लिङ्गविशेषणासिद्धेः । उपचारेणापि तत्र प्रयोगोपपत्तेः । यथाहुः ।
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प्रतीतमिति । परिहरति । नेति । तस्येति । सादृइयस्येत्यर्थः । तस्याप्यभिधाने दोषमाह । प्रतियोगिन इति । गौरवादयवीक्षतोऽनिष्टमाह । अप्रतीतगूनामिति । अप्रतीता गौयैरिति विग्रहः । गोस्त्रियोरुपसर्जनस्येति ह्रस्वः । अथानुमानात् सञ्ज्ञा सञ्ज्ञिसम्बन्धप्रतीतिरिति द्वितीयं पक्षमाशङ्कते । नन्विति । गौणलाक्षणिक प्रयोगेषु व्यभिचारवारणाय हेतु विशिनष्टि । असति वृत्त्यन्तर इति । सम्बन्धज्ञानात् प्रागस्यैव सन्दिग्धत्वात् सन्दिग्धविशेपणासिडो हेतुरिति परिहरति । नेति । अथ प्रयोगान्यथानुपपत्त्या तत्सिद्धिरत आह । उपचारेणापीति ।
अत्राप्युदयनसम्मतिमाह । यथाहुरिति । उक्तरीत्या सादृश्यस्य निमित्तत्वायोगान्निमित्तस्य सतो गवयत्वस्य
2 – No. 4, Vol. XXII. - April, 1900.
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सटीकतार्किकरतायाम्
सादृश्यस्यानिमित्तत्वान्निमित्तस्याप्रतीतितः ।
समयो दुर्ग्रहः पूर्वं शब्देनानुमयापि च (१) ॥ इति ।
।
मीमांसकास्तु गृह्यमाणपदार्थगतसादृश्यविज्ञानात् तत्प्रतियेोगिकस्मर्यमाणपदार्थगतसादृश्यविज्ञानमुपमानमिति वर्णयन्ति । यथा गामनुभूतवतो वनं गतस्य गवये गृह्यमाणाद्गा सादृश्यात् स्मर्यमाणे नगकेनापि प्रमाणेनाप्रतीतेः पूर्व प्रत्यभिज्ञानात् प्राक् शब्देनातिदेशवाक्येन समयः सतो दुर्ग्रहः अनुमयानुमानेनापि तथा स्वदुक्तलिङ्गविशेषणासि डेरित्यर्थः । अतः सम्बन्धपरिच्छेदार्थ प्रामाणान्तरमास्थेयमित्युपमानसिद्धिरिति ॥
अथ शावरमुपमानलक्षणं दूषयितुमनुभाषते मीमांसकास्त्विति । अत्र गृह्यमाणपदार्थगतसादृश्यज्ञानस्य पथ्यमीनिर्देशात् करणतयेतरत् प्रथमानिर्दिष्टं फलम् तत्सामानाधिकरण्यनिर्देशादुपमानशब्दोऽप्युपमितिवचनस्तदेतदुदाहरणेन स्पष्टीकरोति । यथेत्यादि । तदुक्तं शालिकायाम् । सादृश्यदर्शनात्थं ज्ञानं सादृश्य विषयमुपमानमिति । अन सादृश्यदर्शनं गृह्यमाणपदार्थगतसादृश्यज्ञानं तदत्र करणं तदुत्यं ज्ञानं सादृश्यविषयं स्वर्यमाणपदार्थगतसादृश्याख्यप्रमेयादिविषयं यत् तदुपमानमुपमितिस्तदेव प्रमाणमिति शालिकार्थः । कारिकायां तु सादृश्यदर्शनात्थं ज्ञानं साहश्यविषयमुपमानमित्यत्र विशिष्ट सार्यमाणं वस्तु सहितद्विशिष्ट वा सादृश्यं प्रमेयमित्युक्तम् ।
(१) बा - पा. C पु.
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प्रमाणप्रकरणे उपमाननिरूपणम् ।
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रस्थ गवि गवयप्रतियोगिकसाश्यज्ञानमेतत्सदशः सगारिति । तदिदमनमानानातिरिच्यते । तथाहि ।। गार्गवयसदृशः गव्यस्थसादृश्यप्रतियोगित्वात् या यद्दतसादृश्यप्रतियोगी स तत्सदशः यथा यमा यमान्तरेणेत्यनुमानादेव तत्सिद्धः(१)। न च व्याग्निग्रहणविधुराणामपि प्रतीतिदर्शनादननुमानत्वमिति वाच्यम् सर्वेषावान्ततः करतलयोरिव गृहीतव्याप्तिकत्वात् । किं च सदशदर्शनात् स्मर्यमाणपदार्थगतसादসুয়াল লাব্বালাল বিলরুমালা(২)
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तस्माद्यत् स्मर्यते वस्तु सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयम्पमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ इति । __ तदेतदषयालि । तदिमिति । अनुमानान्तभावमभिव्यक्तं प्रयोगमारचयति । तथाहीत्यादि । अत्र गोर्गवयसहशत्वं नाम तत्प्रतियोगिकसादृश्याधिकरणत्वं तत्प्रतियोगिकत्वं तु तत्प्रति सम्बन्धित्वमिति न साध्यविशिघृता । ननु यमदृशान्तादगृहीतच्याप्तिकानामपि साहश्यप्रतीतेनीनुमानान्तभाव इति शङ्कामनूद्य निरस्यति । न चेति । माभूदविशिष्टे यमान्ते व्याप्त्यनुसन्धान तथापि सर्वस्यापिनित्यनिर्दिषयोनिजकरतलयोरिव योन सदृशं तदपि तेन सदृशमिति व्याप्तिग्रहणसम्भवादनुमानमेवेत्यर्थः । अथास्मिन् पक्ष प्रमाणातिरेकलक्षणम
(१) यथा गोर्गवान्तरेणेत्यनुमानयोः-पा. C पु. । अनुमानप्र. वृत्तः-पा. B पु.॥
(२) विसदृशज्ञानात-पा. C पु.।
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
तत्प्रतियोगिक स्मर्यमाणवस्तुगत वैसादृश्यज्ञानस्यापि प्रमाणान्तरत्वमास्थेयं तुल्यन्यायत्वात् । यथाहुः । साधर्म्यमिव वैधर्म्य मानमेवं प्रसज्यते । अर्थापत्तिरसे) व्यक्तमिति चेत् प्रकृते न किम् ॥ इति ॥ २३ ॥ ऽऽ ॥ अथागमं लक्षयति ॥ यथार्थदर्शिनः पुंसेो यथादृष्टार्थवादिनः ॥ २४ ॥ उपदेशः परार्थे यः स इहागम उच्यते ।
६४
तिप्रसङ्गं चाह । किं चेति । न्याय उपपत्तिः ।
अत्रोद्यनसंवाद (२)माह । यथाहुरिति । साधर्म्य सादृश्यं वैधर्म्यं वैसादृश्यं मानं मानान्तरं तथा च साहइयदर्शनात्थायाः सादृश्यबुद्धः प्रमाणान्तरत्वे वैसादृश्यदर्शनेात्थायास्तद्बुद्धेरपि तथात्वापत्तिरित्यर्थः । अथ गृह्यमाणस्य गोः स्मर्यमाणमहिषवैसादृश्यान्यथानुपपत्त्या तस्वाप्येतद्वै सादृश्यकल्पनादियमर्थी पत्तिरित्यभिमानस्तर्हि
वगत गोसादृश्यान्यथानुपपत्त्या गोरप्येतत्सादृश्यकल्पनमर्थापत्तिरेवेति कष्ट (1) मुपमानस्वरूपमेव नष्टमित्याहा - थापत्तिरिति । इत्युपमानम् ४) ॥ २३ ॥ ऽऽ ॥ उद्देशक्रमादुपमानानन्तर्यमागमस्येत्याशयेनाह । अ
थेति ।
७५२
(१) अर्थापत्तरसा - पा. C. | (२) सम्पति - पा· E पु. (३) क्लिष्ट - पा· E पु.
(४) इत्युपमानम्-इति नास्ति E पु· ।
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प्रमाण प्रकरणे शब्दनिरूपणम् ।
यथावस्थितार्थदर्शी यथादृष्टार्थवादी चाप्तः । तस्य श्रोतृप्रवृत्तिनिवृत्त्युपयोगिवचनमागमः । यथावचनमप्रमाणं यथा वि
र्थदर्शिनेोऽप्ययथार्थवादिना प्रलम्भकस्य वाक्यम् । यथार्थवादिनेाऽयथार्थदर्शिनाऽपि वचनं तथा यथा भ्रान्तस्यायथार्थदर्शिना यथार्थवादिनाऽप्यष्टौ काकदन्ता इति । श्रोतृप्रवृत्तिनिवृत्त्यनुपयेोगिवचनमनुपादेयमिति तन्निवृत्त्यर्थमुक्त परार्थ इति । तदुक्तम् । प्राप्तोपदेशः शब्द इति । उपदिश्यते ऽनेनेति उपदेशो वाक्यं तदर्थज्ञानं वा । पूर्वत्र वाक्यार्थज्ञानं फलमुत्तरत्र हानादिबुद्धिरिति ॥
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नवाप्तोपदेश आगम इति प्रसिद्धं लक्षणं किं नेष्यत इत्याशङ्का तदेवेदमित्याह । यथाव स्थितेति । एवं च सति पुनरातलक्षणोक्तगौरवं नास्तीति भावः । परार्थ शब्दार्थमाह । श्रोतृइति । उपदेशशब्दार्थमाह । वचनमिति । वाक्यमित्यर्थः । क्रमाद् विशेषणत्रयस्यापि व्यावर्त्यमाह । यथार्थेत्यादि । शास्त्रं हि तच्छासनादित्युक्तत्वादपरार्थस्य प्रामाण्यमेव नास्तीत्यर्थः । अत्र सूत्रसम्मतिमाह । तदुक्तमिति । ननूपदिष्टिरुपदेशः भावे घञः स्मरणात् तत्कथमस्य शब्दशब्देन करणवृत्तेन सामानाधिकरण्यमित्याश का अकर्तरि चकारके सज्ञायामिति करणार्थत्वमाह । उपदिश्यते ऽनेनेति । पक्षsa sपि फलभेदं दर्शयति । पूर्वत्रेति । इत्यागमः ॥
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(१) यथादर्शनवचने ऽपि - पा. B पु. ।
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सटीकताकिरक्षायाम् যু বালি স্বল্পায়ন অন্যায্য লি(৭) সুনলে रेषां यथासम्भवमन्तभावः । अर्थापत्तिसम्भवयोरनुলালনশাআ ইন্যি স্ত্রী গ্রান্সনক্সা মানত্য অসন্যাকানিজ্জা। নমস্কে ল चतुष्टमैतिझार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यादिति(२) परिचोदनापूर्वकं शब्द एतिह्मानान्तरभावादनुमाने স্বাধিকাথামালামালামাল মুন -
इत्थं प्रमाणचतुयं निरूप्य तत्रैवेतराण्यन्तभावयितुमुपोद्धालयति । एवमिति । नन्वर्थापत्यादिषु जाग्रत्तु कथं चत्वार्यवेत्यवधारणमत आह । एतेष्वेवेति । कुन कस्यान्तभाव इत्यत आह । अापत्तीत्यादि । न चैतचतुष मसाम्प्रदायिक सूत्रकारेणैवाक्षेपपूर्वकं सर्थितत्वादित्याह । तदेतदिति । चतुष्वमित्यर्थः । अनान्तरभावात् प्रमाणान्तरत्वाभावादित्यर्थः । अप्रतिषेध इति सूत्रशेषः चतुष्ठस्याप्रतिषेध इत्यर्थः । आदिशब्दादापत्तिरप्रमाणमनैकान्तिकत्वान्नानकान्तिकत्वमर्थापत्तेरनापत्तावापत्त्यभिमानात् तथा नाभावः प्रमाणम् प्रमेयासिरित्याद्यन्तभावोपयोगिप्रमाणपरीक्षासूत्राणां संग्रहः । एवं चादिशब्दाझाष्यवचनादिपरामर्श इति केषाचियाख्यानं प्रत्याख्यातं सम्भवति सूत्रपरामर्शित्वे तस्यान्याय्यत्वादिति । अथ सङ्ग्रहे प्रमाणचतुश्यमानलक्षणा
(৭) ১ নিহা এন্ধাৰ: নন-জুনधिकं पु.।
(२) सम्भवाभावानाति चित।
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प्रमाणाप्रकरणे ऽयोपत्त्यादान्तभावनिरूपणम् । क्षादानान्तरभावादित्यादि समर्थितम् । तथाहि । अनुपपदामानार्थदर्शनात् तदुपपादकभूतार्थान्तरकल्पनमापत्तिः। यथा जीवता देवदत्तस्य गृहाभावदমুল ব্রাঘিনাথ বসাললল লা খিল জ্বালা । নঙ্গ নালিলন গান कानुपपत्तिरिति वाच्यम् । तमन्तरेणासो न भवतीति चेत् । न भवतीत्यस्य कार्थः । किं न जायत इति किंवा नावतिष्ठत इति । न प्रथमः । बहिभावाकार्यत्वाद् गृहाभावस्य । न द्वितीयः । शब्दाলাগিলামাজীক্ষা। আলাল ছি মিলা दर्थसिद्धमितरान्तर्भावं स्वयं समर्थयितुमारभते । तथाहीति । तत्रादावर्थापत्तेरन्तभावं वक्तं तत्स्वरूपं तावदाह । अनुपपद्यमानोति । उदाहरति । यथेति । उक्तवैपरीत्येनाप्यापत्तिमुदाहरति । गृहभावेति । अथैनामनुमानेन्तभावयितुमनुपपत्तिशब्दार्थ तावत् पृच्छति । तत्रेति।तं विना तस्या भवनमेवानुपपत्तिरिति परः शकते। तमिति । तत्यमेवानुमानजीवातुव्याप्तिरिति वक्तं प्रश्नपूर्वकममवनं देधा विकल्पयति । न भवतीत्यस्येति । बहिनीवमन्तरेण गृहाभावस्याभवनं नामानुत्पत्तिरनवस्थानं बेत्यर्थः । बहिर्भावाकार्यत्वादिति । देवदत्तस्य गृहाभावो नाम गृहसंसगाभावस्तस्य प्रागभावत्वे कार्यत्वात् प्रध्वंसत्वे प्रागेव देवदत्तनिष्ठक्रियाजन्यविभागजनितत्वादित्यर्थः । शब्दान्तरेणेति । अनुपपत्तिशब्देनेत्यर्थः । तं विनानवस्थानस्याविनाभावत्वमाभिव्यक्तुमविनाभावस्वरूपमाह।
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गमकस्यानवस्थान मेवाविनाभावः। कीदृशं च बहिावस्योपपादकत्वम् । न तावत् तज्जनकत्वं तदकार्यत्वात् तस्येत्युक्तत्वात् । स्वासद्धाव एव गृहामावस्यावस्थानमिति चेत् । तहि व्यापकत्वमेवाभिहित ) स्यात् । प्रमाणद्वयविरोध एवानुपपत्तिरिति चेत् । मैवं व्याहृतं भाषिष्ठाः । प्रमाणयोः सतार्विरोध एवानुपपन्न:(२) शुक्नोऽयं घटोऽयमितिवत्सहभागम्येनेति। यथाग्निं विना धूमानवस्थानं तयोर्व्यतिरेकन्याप्तिरेव तदनयोरपीत्यर्थः । एवमनुपपद्यमानार्थस्य गमकस्य व्याप्यत्वमुक्त्वा तदुपपादकस्यापि तद्गम्यस्य व्यापकत्वं वक्तुं तत्स्वरूपं च पृच्छति । कीदृशं चेति । तच तजनकत्वं वा तदवस्थानप्रयोजकस्वावस्थानकत्वं वा । नाद्यः उक्तोत्तरत्वादित्याह । न तावदिति। द्वीतीयमाशङ्कते। स्वेति । तर्हि सिद्ध नः समीहितं नामान्तरेणान्वयव्याप्तेरेवाभिधानादित्याहातहीति। व्याप्यव्यापकभाव एवाविनाभाव इत्यर्थः । तर्हि गृहाभावजीवनग्राहिणोः प्रमाणयोर्विरोध एवानुपपत्तिरिति गुरुः शङ्कते। प्रमाणेति।गोत्वाश्वत्वयोरिव नित्यसहानवस्थायिनो:(३) प्रमाणत्वविरुद्धत्वयोः सामानाधिकरण्यं व्याहतमिति परिहरति । मैवामिति । व्याहतिं ब्यनक्ति। प्रमाणयोरित्यादिनाभावादित्यन्तेन । सति प्रामाण्ये विरोधाभावमुदाहरति।शुक्लोऽयमिति। एकस्मिन्नेव पटे पद
(१) अभिमतं-पा• B पु. (२) एव न सम्भवति-पा• B पुः । (३) नित्ययाः सहानवस्थायिना:-पा• 'पु. ।
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মাধ্যম দ্যালফ্যালাথিয। '' জানূ ! জিবীয় ল আলাঘ অনুলা ব্রাজাকাৰ মৰি জৰাথলনিন স্লাহ্মাण्याभावात्(५) ॥ न चात्र जीवनगृहाभावयाविरीधाऽस्ति । जीवत एव स्वात्मना गृहाभावदर्शनेन জীলাছাঃ লক্ষনানু । জীলাম্বলাল जीविते अमित(a) जीवता कचित् स्थातव्यमिति देशলাফালাফা লাষন নক্স জীমল খাই না লাচ্ছি वैति विषये ४) सन्देहमानं जायते न प्रमाणमेव प्रवत्वशुक्लत्वग्राहिणाः प्रमाणत्वमस्ति न तु विरुद्धत्वमिन्यर्थः । विरुद्धत्व प्रामाण्याभावं चोदाहरति । रजुरिति। एकस्मिन्नेव पुरोवर्तिनि रज्जुत्वसत्वग्राहिणास्तु विरुद्धयोन प्रामाण्यमन्यतरबाधावश्यम्भावादित्यर्थः । बाधे हेतुमाह । वस्तुन इति । प्रकृते तु द्वयोः प्रामाण्यमेव न च विरोध: स्वानुभवस्यैव तन साक्षित्वादित्याह । न चान्नेति । ननु गृहाभावग्राहिणः प्रत्यक्षस्य गणिताप्तवाक्यादिना जीवनग्राहिप्रमाणेन गृहावस्थानव्याप्तिविषयेण विरोधः सम्भविव्यतीत्याशझ्याह । जीवनप्रमाणेनेति । अयमर्थः । न हि जीवनं गृहावस्थानेन व्याप्तं येन तग्राहिममाणेन विरोधः स्यात् किं तु देशसामान्येन व्याप्तं न च तापता विरोधः बहिःसद्भावेनापि तदुपपत्तरिति तहि येन
(१) सह सम्भवात-पा• B C पु. । (२) अन्यतराप्रामाण्यावश्यम्भावात-पा• C पु. । (३) जीवने मिते-पा• B घु.॥
(४) विशेष--या• B पु. । न:---.No. 5, Vol. XXII. May, 1900.
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নিম্নভাল ৱিমিত ব্যায় লিলা । অধ্যা আ
ম্বিয়ীআলি চৰি জন্মমাঙ্গলিক্সজ্জ্বল শান্ধিজিআই গ্রাম
লিঃ এ প্রয়াঙ্কামু অনী স্থিলিন লিঙ্গালী স্থান ব্যক্ত চলা। ঐ ঝিলালা অম দিন – ননাঙ্গালি ঘালিনি। নম্বল বা অস্থি অিস্থায় স্থান নীল জ্বিহাখা মালিভাষাজা জয় ল केनापि गृह्यते किं तु सन्दिात इत्याह । तच्चेति । फलिললাই। কাল নি। মিৰা আমাৰাত্ম: । লন্ত লাশ লক্ষ ছাৰিীষ্মানিস্থায় লাগান্ধীজি বল কাশ্যিাঙ্কা। লীননি। লানা লিখিলस्यैव व्यवहारहेतुत्वमुदाहरति । यथेति । यथा यदेतदूर्वद्रव्यमग्रे दृश्यते स्थाणुर्वा पुरुषो वा ततेाऽन्यद्वा अतः समीই নিস্ত নালী (?) লিস্যালিঞ্জিনিয়ায় দুলা ভাল নথি জালান্স हेतुत्वमित्यर्थः । प्रतिपादितमर्थ प्रयोगारूढं करोति । प्रयोখাঞ্জানি। অঙ্গাঅৰিখীল মূলস্তু সালাত কা লুঙ্গিআলিহাঃ জিলল হুম্বননি। ভিলাষী মুন্নি
মনে
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(৫) ল স্বল্পায় লিঙ্গ নগ: B : ৪ (২) জীলংয়ে শ্রাথলিহুদ্বা • B দু হানিফাল--গু• C • ।
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प्रमाण प्रकरणे ऽर्थापत्त्यान्तर्भावनियम् ।
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नास्ति मूर्तत्वे सति गृहे सत्त्वात् यथाहमिति । तस्मात् सिद्धमेव अनुपपदामानदर्शनात् तदुपपादकार्यान्तरकल्पन ) मनुमानमिति । अन्यथानुमानतया प्रसिद्धे धूमेोदाहरणे ऽपि धूमः स्वकारणं दहनमाक्षिपति प्रतिक्षिपति चानुपलब्धिरिति प्रमाणद्वयविरोधात् पर्वतावाग्भागे दहनाभावः परभागे च दहनावस्थानमित्यर्थापत्तितापतिः । यथाहुः ॥ अनियम्यस्य मायुक्तिनीनियन्तोपपादकः । न मानयोर्विरोधोऽस्ति प्रसिद्धे वाप्यसौ समः ॥ इति । प्रयोगमाह । तथैवेति । क्रमात् पदद्वयेनाकाशादौ वहिष्टेषु च व्यभिचारनिरासः । परमप्रकृतमुपसंहरति । तस्मादिति । अनुपपद्यमानोपपादकयोर्व्याप्यव्यापकभावादविरोधाचेत्यर्थः । तथाप्यनुमानत्वानङ्गीकारे धूमाद्यनुमानस्याप्यर्थीपतित्वापतेर्जगत्यनुमानकथैवास्तमियादित्याह । अन्यथेति । तत्रापि प्रमाणद्वयविरोधं सम्पादयति । धूम इति । कार्यानुपलब्ध्येोर्दहनभावाभावग्राहिणेोर्विरोधादित्यर्थः ।
अन्नोदयनसम्मतिमाह । यथाहुरिति । अनियम्यस्थाव्यान्यस्यायुक्तिरनुपपत्तिः न अनियन्ता अव्यापक उपपादको न भवति तथा मानयोर्भीवाभावग्राहिप्रमाणयेोः पूर्वोक्तरीत्या विरोधच नास्ति अतोऽर्थापत्तिरनुमानान्न भिद्यत इति भावः । अन्यथा प्रसिडे धूमाद्यनुमाने चासो विरोधः समः तस्याप्यर्थापत्तित्वापत्तिरित्यर्थः । इत्यथीपश्यन्तर्भावः ॥
(१) तदुपपादक कल्पन - पा· B पु. ।
३१५.
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सटीकता किंकरक्षायाम्
अथाभावस्य च प्रत्यक्षादिषु यथासम्भवमन्तर्भीवः तत्र तावदिह भूतले घटा नास्तीति प्रतीतिरिन्द्रियजन्या अनन्यत्रो पक्षीणेन्द्रियव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् रूपादिबुद्विवत् । अधिकरणग्रहणोपक्षी
मिन्द्रियमिति चेत् न त्वगिन्द्रियेण घटादिग्रहणे प्रतियोगिस्मृतिमतान्धस्य शुक्लादाभावप्रतीतिप्रसङ्गा
१०२
तू । प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियेणाधिकरणप्रतीतिरपेक्षणी
इत्थमथापत्तिमनुमाने ऽन्तर्भाव्य सम्प्रत्यभावं प्रत्यक्षादिषु यथायथमन्तर्भायितुमाह । अथेति । अधिकरणग्रहणप्रतियोगिस्मरण सहकृतयानुपलब्ध्या षष्ठप्रमाणेनाभाar गृह्यते नेन्द्रियादिनेति मीमांसकाः । यथाहुः ।
गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायते ऽक्षानपेक्षया ॥ इति । तान् प्रति कचिदभावस्य प्रत्यक्षत्वं साधयति । तन्त्र तावदिति । अत्र प्रतिपत्ते रापरोक्ष्यादित्याद्युदयनेनेोकहेत्वकस्येत्वात् प्रथमं हेतुमुपेक्ष्य द्वितीयं प्रयोगता दर्शयति । इहेत्यादि । अनयोरेव प्रतिज्ञादृष्टान्तयो: साक्षास्कारिप्रतीतित्वादिति हेतुप्रयोगे प्रथमहेतुव्याख्यानं चेति द्रष्टव्यम् । न च प्रतिवाद्यसिद्धी हेतुः तस्यापरोक्षत्वे लैङ्गिका दिवदज्ञातकरणत्वानुपपत्तेरिति लिङ्गग्रहणपक्षीणेन्द्रियव्यापारानुविधायिनि लैङ्गिकज्ञाने व्यभिचारनिरासार्थमुक्तम् अनन्यत्र पक्षीणेति । विशेषणा सिडिमाशङ्कते । अधिकरणेति । किं येन केनचिदिन्द्रियेणाधिकरणग्रहणमिषं प्रतियोगिग्राहकेन्द्रियेण वा नायः अतिप्रसङ्गादि
246
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प्रमाणप्रकरणे ऽभावान्तभानिरूपणम् । १०३ येति चेत् न त्वगिन्द्रियग्राहो वाया चाक्षुषरूपाभावानवगमप्रसङ्गात् । अभावप्रतीतो चाधिकरणप्रतीतेरनुपयोगान तनेन्द्रियमुपक्षीयते । उपयोगे वा तन्तुলায়ানা লিসানু। নয় জি प्रतियोग्यधिकरणाधारत्वेन तन्त्वाश्रयत्वात् तेषां च विनष्टत्वात् । भवतु वाधिकरणग्रहणावश्यम्भावः । तथापि न तन्नेन्द्रियमुपक्षीयते तदवान्तरव्यापारत्वात् तस्य । न चैवं लिङ्गन्नानस्यापि इन्द्रियावान्त
त्याह । नेति । द्वितीयमाशङ्कते । प्रतियोगीति । तत्राप्यनियमाह । नेति । किं चाधिकरणग्रहणस्थानुपयोगाच न तत्रेन्द्रियस्योपक्षय इत्याह । अभावप्रतीताविति । उपयोगित्वोक्तौ यत्राधिकरणमेव न सम्भवति तत्राभावोपलम्भो न स्यादित्याह । उपयोगे वेति । अधिकरणाभावं सूचयति । तन्तुनाशोत्तरकालमिति । अभावस्य तन्त्वाश्रयत्वे युक्तिमाह । तस्येति । तर्हाधिकरणाभावः कथमत आह । तेषामिति । कारणविभागात् कारणनाशाखा कार्यद्रव्यनाशः । तत्र द्वितीयप्रक्रियायामधिकरणं न सम्भवतीति भावः । ननु तन्तुनाशे ऽपि तवयवपरम्परायामापरमाणोरस्त्येवाधिकरणं यत्किञ्चिद्दधृमनुमितं वा अन्यथा निराश्रयस्येन्द्रियेणापि दुर्घहत्वादित्याशझ्याह । भवतु वेति । अनुपक्षये मण्डूकप्लत्या व्यापाराव्यवधानत इति हेतुभुपादत्त । तद्वान्तरेति। न हि स्वाङ्ग स्वस्य व्यवधायकमिति भावः । तर्हि लिङ्गज्ञानस्याप्यवान्तरव्यापारत्वे लैङ्गिकस्याप्पैन्द्रियकत्वापत्तिरित्याशयाह । न चैव
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१०४
सटीकतार्किकरक्षायाम् रव्यापारत्व प्रसङः । यद्धि यज्जनयित्वैव यज्जनयति तत्र तस्य तदवान्तरव्यापारत्वात् । इन्द्रियस्य च লিঙ্গললনামি লিলি লীলফান । ল অ নুন্যাবিলিলিহ্মীশান্ত। সত্য সুজা चानेन विषयत्वेन सन्निकृष्यते तथेन्द्रियेणापि सनिकपिपत्तेः। न च तुच्छत्वमप्यभावस्य अभावप्रतियोमिति । कुत इत्याशक्य तल्लक्षणाभावादित्याशयेन तल्लक्षणमाह । यद्धीति । यस्य कारकस्य स्वकार्यकरणे यवश्यापेक्षितमवान्तरकार्य स तस्यावान्तरव्यापारो यथेन्द्रियस्यार्थसन्निकर्षों यागस्यापूर्व कुठारस्योद्यमनादिक चेत्यर्थः । प्रकृते नैवमिन्द्रियस्य लिङ्गिग्रहणे लिङ्गनरपे-- क्ष्यदर्शनादित्याह । इन्द्रियस्येति । नन्विन्द्रियस्य सन्निकृष्धार्थग्राहित्वादभावस्य च तुच्छत्वेन() सान्निकर्षायोगादनैन्द्रियकत्वमिति बाधः प्रतिरोधो वेत्याशय किमिदं तुच्छत्वं निषेधात्मकत्वं वा निरूपाख्यत्वं वा तत्राद्यो परस्परसन्निकृतृत्वहेतोरसिद्धिरित्याह । न चेति । कुत इत्यत आह । यथेति । इन्द्रियसन्निकर्षः संयुक्तादिविशेषणविशेष्यभावः द्वितीये तु तदेव नास्तीत्याह । न चेति। तुच्छस्वाभावे ऽभावत्वमेव न स्यादित्याशयोभयं विविनक्ति। अभावेति । विधिर्भावः । तनिषेधा ह्यभावः । तदर्तमानदशायां तत्प्रतियोगिनो विधित्वेन निषेधत्वेन च दुर्निरूपत्वान्निरूपाख्यत्वलक्षणं तुच्छत्वम् अभावत्वं तु নিভিৰি জনাৎক্তত্ব মালাবিহ্মা সলাम्बन्धवप्रतिबन्धः प्रमाकरणसम्बन्ध इति भावः । अथा
(१) अभावोऽसनिकृष्टः तुच्छत्वात् । अभाव: ऐन्द्रियको न भवति असचिकृष्टत्वात् तुच्छत्वाद्वा ।
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मा प्रकरणे ऽभावान्तभावनिरूपणम् । १०५ गित्वं हि तुच्छत्वं नाभावत्वम् । किं च षष्ठप्रमाणवाনিলালুবানা হক্স কালজলহ্মন্দ্রক্ষা यम् । अन्यथा तस्या अप्यभावरूपत्वेनानुपलब्ध्यन्तरा
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रूपादिजानवदेवाभावतानस्यन्द्रियजन्यत्वं स्वध्यवसाলা। স্ব স্ব লঙ্কা সামলাবাল ফালা ऽपि ज्ञानहेतुत्वं इष्टमित्यभावाने ऽपि तथात्वमुपगम्यत इति अनुपलब्धिसहायत्वं (२) नापपदाते। किं च भावज्ञानजननसमर्थस्य लिङ्गशब्दादेस्तदभावज्ञानजनने ऽपि सामर्थ्यमुपलब्धमिति इन्द्रियज्ञातकरणत्वादिति यद्धत्वन्तरं तदाह । किं चेति । अस्य प्रतिवाद्यसिद्धि परिहरति । षष्ठति । तदनिवनिम्बाह । अन्यथेति । अभावरूपत्वेनेति । उपलब्ध्यभावत्वेनेत्यर्थः । फलितमाह । ततश्चेति । स्वध्यवसानं सुनिश्चयम् आतोयुजितिस्यते खलथै युच्प्रत्ययः । अथ भावावेशाच्च चेतस इति य त्वन्तरं तदाह । सर्वत्रोति । विमतमभावज्ञानं भावप्रमाणाकृमनोजन्य बायार्थज्ञानत्वाद्रूपादिज्ञानवदिति प्रयोगः । बाह्यपदेनात्मतर्मज्ञानव्युदासः । अथ प्रतियोगिनि सामादिति बद्धत्वन्तरं तदाह । किं चेति । इन्द्रियमभावग्राहि भावग्राहित्वाच्छब्द लिङ्गादिवदिति प्रयोगः । अस्य व्याप्तिमाह । भावज्ञानेति । उपनया
(१) भावजानकारणत्व-पा. C पु० । (३) सहकारित्वं-पा• B पु.॥
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१०६
सटीकतामिकरक्षायाम्
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যালয়নিযামিলি নানা স্বত্র নামनजनने ऽपि सामर्थ्यमनुमीयते । किं च इन्द्रियदाমীয় কুলাফালাক্ষা নম্বললঃ জ্বষীজানি অাকাঙ্খা ল্কি কানাঃ "নুসন্মালিন(৭)। মলथातिप्रसङ्गात् । किं चाचट भूतलमिति विशिष्टज्ञानस्येन्द्रियजन्यत्वावश्यम्भावाद् विशेष्यांश इव विशेषणांशे ऽपि तज्जन्यत्वमकामेनापि स्वीकरणीयम् दिकमाह । इन्द्रियस्येति । अक्षाश्रयत्वादोषाणामित्येतयाचष्टे । किं चेन्द्रियेति । यन्त्र सत्वे वस्तुनि नास्तीति भ्रमो जायते सेोऽभावभ्रमः स इन्द्रियजन्यः तदोषदुकृत्वात् पीतशडवनमवदित्यर्थः । हेत्वसिडिं परिहरति । कारणदोषादिति । विपक्ष बाधकमाह । अन्ययेति । ज्ञानस्य स्वता दोषाभावादधिकरणग्रहणप्रतियोगिस्मरणानुपलब्धीनां दुधृत्वायोगाद्रिन्द्रियदोषदुधत्वानङ्गीकारे नूनमाकस्मिकत्वप्रसङ्ग इत्यर्थः । आचार्यस्तु इन्द्रियमभावप्रमाकरण तहिपर्ययकरणत्वाद् यद्यद्विपर्ययकरणं तत् तत्प्रमाकरणं यथा रूपप्रमायां चक्षुरिति प्रायु
क्त । विकल्पनादिति यद्धत्वन्तरमवशिष्टं तयाचष्टे । किं चाघटामिति । हेत्वसिद्धि परिहरति । इन्द्रियजन्यत्वावश्यम्भावादिति। अनन्यत्रोपक्षीणेन्द्रियव्यापारानुविधानादिति भावः । विमतं विशिज्ञानं विशेषणांशे ऽपीन्द्रियजन्य ऐन्द्रियकविशिज्ञानत्वाद् दण्डीतिज्ञानवदिति प्रयोगः । लैङ्गिकादिव्यभिचारनिरासार्थमैन्द्रियकविशेषणमुपसंहरति । तस्मादिति । अभावमात्रस्य प्रत्यक्षत्वसाधने
(१) प्रादुःन्ति-पा० C घुः ।
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१०७
मायाक करतो ऽभावान्तभावनिरूपणम् । तस्मात् प्रत्यक्ष योग्यार्थ । नुपलब्धौ तदभावोऽपि प्रत्यक्षः नन्वेवमनुपलब्धिः कारणं स्यादिति चेत् हन्तेवमभावानुपलब्धिरपि भावग्रहणकारणमापनमायुष्मताम् । भाबोपलम्मे ऽप्यभावानुपलम्भस्य नित्यं सन्निधानादिति । तदेतत्सर्वं न्याय कुसुमाञ्जली प्रपञ्चितमावायैः । यथा ।
परमाण्वाभावेषु वाघः स्यादित्यत उक्तं प्रत्यक्षयेोग्येति । नन्वेवमनुपलब्धेरप्यावश्यकत्वादुभयवादिसिहा सैव प्रHreafteratन शङ्कते । नन्वेवमिति । आवश्यकरवे कारणत्वं स्यात् न तु प्रमाणत्वम् अन्यथाभावोपलम्भे ऽप्यभावानुपलब्धिरेव प्रमाणं स्यात् नेन्द्रियमिति सोपहासं परिहरति । हन्नैवमिति । अत्र कारणशब्दः प्रमाणवचनः । सैव कुत इत्यत आह । भावोपलम्भे ऽपीति । अपिशब्दादभावेोपलम्भे भावानुपलम्भवदिति दृष्टान्तः सूचितः । नन्वघट भूतलमिति विशिष्टबुद्धाविन्द्रियग्राह्यत्वे ऽप्यभावस्य केवलस्यातत्त्वान्नास्ति अस्तित्वे वा केवलसौरभव्य चाक्षुषत्वप्रसङ्गः तस्मात् पूर्व केवलग्रहणायानुपलब्धिराश्रयणीया अन्यथा नागृहीतविशेषणेतिन्यायाद् विशिपृधीरेव न स्यात् किं च यदिह भूतले घटो नास्तीत्यभाव इन्द्रियेण विकल्प्यते तदा प्रथमं निर्विकल्पकेनापि ग्राहा: अन्यथा विकल्पानुदयात् न च प्रतियोगिनिरूप्यस्यास्य तधुज्यते प्रमाणान्तरे तु नेयमनुपपत्तिरित्याशङ्क्याह । तदेतत्सर्वमिति ॥
ब - No. 6, Vol. XXII. - June, 1900.
३६५
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१०८
सटीकताकिकरक्षायाम
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प्रतिपत्तेरापरोक्ष्यादिन्द्रियस्यानुपक्षयात् । জ্ঞানহ্মঘালু ান্নাজা অন: {
तथा प्रतियोगिनि सामर्थ्याद् व्यापाराव्यवधानतः । अक्षाश्रयत्वाद्वाषाणामिन्द्रियाणि बिकल्पनात् ॥ इति।।
तत्रैव तदुभयमप्येवं समाहितम् अनन्यनिरूप्यस्वभावानां दण्डकुण्डलादीनामेव विशेषणीभविष्यतां पूर्व कैवल्येन ग्रहणं तादृशामेव च विकल्पानां घटादीनां विकल्पनीयानां पूर्व निर्विकल्पकग्राह्यत्वं विषयसम्बन्धिप्रतियोगिनिरूप्याणां तु ज्ञानसमवायाभावानां नित्यसनिरूप्यस्वभावतया विशेषणत्वे वा विशेष्यत्वे वा विकल्पसामग्रीसमवधानवत एवेन्द्रियस्य सामावधारणान कैवल्ये निर्विकल्पकग्रहणापेक्षेति न कुत्राप्यनुपलब्धिपैशाच्याः प्रवेशावकाश इति । अथ तत्रापि कुन प्रपञ्चितं तदाह । यथा प्रतिपत्तेरापरोक्ष्यादित्यादि । अभावप्रतिपत्तिरिन्द्रियजन्या अपरोक्षत्वाद् रूपादिप्रतिपत्तिवत् । परोक्षत्वे वा लैङ्गिकादिवदज्ञातकरणत्वानुपपत्तिः । एवम. न्ये ऽपि हेतवः पूर्वोक्तरीत्या योजनीयाः। भावावेशाद्भावप्रमाणपरतन्त्रत्वादित्यर्थः । प्रतियोगिनिषेधोभाव इत्यर्थः । व्यापारेति । द्वितीयहेतुविशेषणासिद्धिपरिहारार्थोऽयं हेतुः सा च पूर्वमभावग्रहणे ऽधिकरणग्रहणस्यानुपयोगादिति पर्यहारि इदानी तूपयोगमङ्गीकृत्य परिहियते अधिकरणग्रहणस्थावान्तरव्यापारत्वेनाव्यवधायकत्वादिति । अक्षति । अभावविपर्ययस्यौन्द्रियदोषोत्थत्वादैन्द्रियकत्वमित्यर्थः । विकल्पनादिति । अघट भूतलमित्यभावविकल्प
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प्रमाणप्रकरणे ऽभावान्तभावनिरूपणम् । १०६
ननु गृहादिमात्रमनुसूयान्यन्त्र गतवतः प्रतिআৰিাণৰ বা সান সৃজিয়াঘাষনঘাত্রিী ऽनुमीयते(१) । यथाहुः ।। হলান বি সুক্ষ্মা লিলি বলম্বি। तत्रान्यनास्तितां पृष्ठस्तदैवा(२) प्रतिपदाते ॥ इति ।
सत्यम् । न तत्राभावः प्रत्यक्षः किं तु स्मरणयोन्द्रियकत्वाद् विशेषणख्याभावस्याप्यन्द्रियकत्वमित्यथः । इन्द्रियाणीति पक्षनिर्देशः अभावज्ञानकरणमिति साध्याध्याहारः।
इदानीं पर प्रकारान्तरेणाभावप्रतीतेरनैन्द्रियकत्वमाशङ्कते । नन्विति ।
अन्न भकारिकां संवादयति । स्वरूपमात्रमिति । गृहादिस्वरूपमेव । न तु देवदत्तभावाभावावित्यर्थः । किञ्चिदिति प्रतियोगीत्यर्थः । तत्र गृहादावन्यनास्तिता देवदताद्यभावमित्यर्थः । तदैव प्रश्नसमय एवातीन्द्रियलिङ्गा-- देरनवकाश उक्तः तस्मादनुपलब्धेरैवेयं बाहालीत्यर्थः ।
नूनमन्त्राभावल्याप्रत्यक्षत्वे ऽप्यनुमेयत्वान्न षष्ठप्रमाणावकाश इति परिहरति । सत्यमिति । अनुमापकलिङ्गमाह । किं स्विति । देवदत्तस्तदा तन नास्ति योग्यत्वे सत्यनुपलभ्यमानत्वादु गण्डशैलवत् नोपलब्धश्च स्मृतियोग्यत्व सत्यस्मयमाणत्वात् तदेवेति प्रयोगः । नन्वनुमानस्य ज्ञातकरणत्वेन स्मृत्यभावस्याप्यनुपलब्ध्यन्तरगम्यत्वे
(१) अनुभयते - प्रा. C पु. (३) तथैव-पा. C . ।
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सटीकता किंकरक्षायान
योग्यस्य स्मरणाभावादनुमीयते । स्मरणाभावश्च मानसप्रत्यक्ष इति नानवस्था । अनयैव दिशा प्रातगंजाभावविज्ञाने ऽपि ज्ञेयम् (")। कथमन्यथा प्रमाणान्तरवादिनः सायन्तनसमये ऽनुभूयमानस्य गजादेः प्रातःकालीनाभावविषयेो ऽनुभवो जायेत । न हि तदानीं तस्यानुपलब्धिरस्ति । प्रातःकालीनैवानुवर्तत इति चेत् न तत्रापि दृश्यत्वाभावेन योग्यानुपलब्धेरभावात् । स्मर्तव्यस्य स्मरणाभावस्तत्राभावज्ञाने का
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पुनस्तस्य तस्याप्येवमनवस्था स्यादित्यत आह । खरणाभावश्चेति । अभावस्य प्रतियोगिग्राहककरणग्राह्यत्वाचास्य मानसत्वं स्मरणानुपलब्धिस्तु यथा वः सन्तयैव करणं तथा नः सत्तयैव मनः सहकारिणीति नानवस्थेति सर्व सुस्थम् । उक्तं न्यायमन्यत्राप्यतिदिशति । अनयैवेति । तदपि स्मरणाभावलिङ्गानुमेयमित्यर्थः । तदनङ्गीकारे बाधकमाह । कथमन्यथेति । ननु तस्यानुपलब्धिरेव प्रमाणमस्तीत्याशङ्का किं सायंतनगजानुपलब्धिः प्रातस्तन गजानुपलब्धिवी नाद्यः तदानीं तस्योपलभ्यमानत्वादित्याह । न हीति । द्वितीयमाशङ्कते । प्रातःकालीनेति । प्रातःकालीनगजसम्बन्धिनीत्यर्थः । तत्रापीति । तदानींतनगजस्येदानों कालविप्रकृष्टतथा दर्शनयोग्यत्वाभावेनायोग्यत्वानुपलब्धिः सती न कालान्तराभावमवगमयितुमीष्ट इत्यर्थः । तर्हि स्मृतियोग्यस्यास्मर्यमाणत्वात् स्मरणाभावलक्षणायाग्यानुपलब्धिरेवास्तीति शङ्कते । सर्तत्र्यस्येति । तर्हि प्रमित्यभावलक्षणाया एवा(१) विज्ञानमपि नेयम् - प. B. ।
६६४
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ব্যালিন মু ল না মাৰি মাধৱাখনা লাশীঘ্ৰত্যাহ্ন নিজামুকানমলান শস্য হত্যা ॥ | সু লিঙ্গললন: মালিবিলালন ল সস্থল। নাজিঙ্ক সুনৰ ঘা লামীনি মমীলিলিশি অত্যা মন্ত্র। লানীনি - লুথালুখলাল মালিত্বানুলা স্বাক্ষা
নিষ? অাছি। লনি। লক্ষ না আলি। স্বাভানি। ওসমান্য স্থান তালিকা সাস্বস্তি এলাকা লিঃ । সুখলালাল জুলি শুন্যতা মফিললাল মুখ। লক্ষ্য অসায়। লাঞ্ছত্রাখনি। মালা থাখী অঞ্জঃ সাজ্ব লি হলঃ। জন্তুনল সঞ্চাখ অন্ধ অঙ্গ ল অান। অনু-অম্বাশা মালায়ালা । নি। অশিক্ষাখশ্রনি কালু।
লালু লৰি জী অিক্ষর বান্ধ দালালবাগ হল লাদি লক্ষ ছয় মালাখালী কৰি স্বত্বাজ্বালিঃ গ্রাহ্মহাহিস্কন্তু মশলান্যা। জল খিঢিনি। এলাকায় ছি লাঘ ল স্যালাসা ক্ষালললুফশ ওলা তথ্য অলি আনলিহিৰি भावः । संविदेव हि भगवतीविषयसत्वोपगमे शरणলিহাল স্মৃহিল। নাবালি। লালিত্বানা লু হেলি বন্ধ সহ সুললিল ললঃ। স্বল্প লা লীনিন্ম লাব্বানি মা জালালানি। দালাগালিলव्यापार एवेत्यर्थः । प्रतीत्यपहव एको दोषः अङ्गीकृतस्य
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सटीकताकिरक्षायाम ভাণান্মান্মানি ল নিনিনি অম্ । না আঁৰি दपलापदोषस्तावदापोत । व्यवहारालम्बनं च न किञ्चित् पश्यामः । भूतलमात्रमिति चेत् न पटवति भूतले भूतलमात्रत्वाभावेन 'घटाभावव्यवहारो न स्यात् । तन्मात्रशब्दस्य भूतलादन्तिरव्यावृत्तिपरत्वे १) त्वभावस्वीकरणात् । अन्यथा घटवत्यपि प्रसङ्गः। यादशस्य भूतलस्य विज्ञानमभावज्ञान(कारणं মান্নান মালালা খালव्यवहारमात्रस्यापि निरालम्बनत्वं द्वितीयो दोष इति दूषयति । तहीति । आलम्बनमाशङ्कते । भूतलमात्रमिति । कोऽथः किं मात्रशब्दस्यावधारणार्थत्वमाश्रित्य सर्वभावान्तरविविक्तं भूतलमुच्यते उत मीयते परिच्छिचते ऽनेनेति व्युत्पत्त्या तद्गतं किञ्चिद्वान्तरमुच्यते उतायोगव्यवच्छेदेन भूतलस्वरूपमुच्यत इति त्रेधा विकल्याचं दूषयति । पटवतीति । अघटे ऽपीति शेषः। द्वितीये सिद्धं नः समीहितमित्याह । तन्मात्रेति । अर्थान्तरत्वे धर्मान्तरत्व इत्यर्थः । तृतीयं निरस्यति । अन्यथेनि । अनान्तरत्व इत्यर्थ । तयधिकरणग्रहणस्य यादगालम्बान वस्तन्नो व्यवहारालम्बनमिति शकते । यादृशस्यति । तत्राधिकरणग्रहणस्यावश्यम्भावादिति शकितुराशयः । आश्रयनाशहेतुकद्रव्यनाशज्ञाने तयभिचारात् किं तेने त्युक्तमस्माभिस्तद्विस्मृतमायुष्मतेत्याह। न आश्रयज्ञानस्ये
(१) अर्थान्तरत्वे - पा• B घुः । परत्वेन घटामाजस्वीकारात्मा. C पु. ।
(३) ग्रहणा-पा. B . ।
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| ময়লা আছি। শান্তান লালঙ্কা
।।
ক্ষিনি স্ব ল শ্লাঘালা জানাল তালা। সুনল লাল জবা লোকাল ভার্জি লক্ষ্মল
নিঃ। লনি মনি মুক্ত স্কুল ফুল ফল নুজীজ্ঞাবানু। নয় অ নাম। মা ? ফলমিলনামানাষ্ম যন্ত্রণা স্থানিয় নি । অস্থি স্ত্রী ক্ষুন্ডয়াক হাস্ময়
গল্পল মঞ্জ
নি। জামায়াহু। ফুলন্তানইনি। আঁখ লালা লাস্বল জাল সালাম জানু
ফল লাল এখথি নানী ) এ যাহালনা
অন্যান্য দিখি সম্বনান। ল ানি। স্কুল ভুল । নি। হালন স্বাভালুথমিঃ হৃঙ্খফলৰ ৰান্ধলিলিদিহিত্য ও ননি। হত্যলম্বী। মানি। মাশখ। কলা ও হত্যহালক্ষ্মীক্ষাই জাহিলি লাঃ। শুঙ্খা লাব্যঙ্গএলিল জাজ্বল। বলি। ওবঙ্গাবাহাত্মা লাব্যপ্রশ্ন ও অক্সিঃ । লনিহিঙ্গ' শব্দঅশি সঃ নবীল অনুসূলাল্লাঙ্গ ভূসুখী নন্মান্ধত্বলাম্বাললিখ। না হুঙ্কঃ = ভূষিহ জঙ্খি লাগান। इति तदपहबोऽपि सुकर इति प्रतिवन्धा परिहरति । तीति । ननु भावान्तरसंवित्तिरभावः तदुक्तं शालिकायाम् ।
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| (?) নয় । সন্তান- 1) (২) নানিমাগী-U• F ।
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সখিলখিলি আৰ। ফল হি হি হয় নুলা মাজলশ ইথ। নিবিমলালা লাম্বা ৫' জাল সনিকা লাঅন । লনি । সুনন্তৰিা ঈশ্ব স্বল্প - নানাঃ না অন্য নাম্বাস্বত্ব স্যাল লু ন্যাত্ৰি কঁৰালহা বংলা সংস্থা । ফালিছাত্মঅৰিহালয় ঃ না স্যা। নগ্ধা িিিল হীরু বই নগই লাঃ নাথই ঘি রূনিমান। জিলা ভিক্ষা মন্ত্র ৱা শৰ্মা গ: শ্বশু দত্যাবহ?স্বল সুতা ষ্ট,
(৭) ঘিাতে ১২ নংঃ নিজ. E ।
(২) য ক ন ল ন ম্লান হাত নি । নাস্তিমাত না লয় : নিহত হয়। অর্থ: ।
| (৪) ঘন! নিয়ঃ হীন ক্লয়ালালাহর অন না বানগ্রো সন্তান।
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११५
प्रमाण प्रकरण भावान्तर्भावनिरूपणम् । वर्तते केवले भूतले वा । नादाः घटघटिते ऽपि प्रसङ्गात् । नाप्युत्तरः । कैवल्यस्याभावपर्ययत्वेनात्माश्रयाऽनवस्थयेोरन्यतरस्य प्रसङ्गात् । अनुपपदामानाश्रयत्वेनाभावमपहृवानस्तुल्यन्यायतया शुक्लादिधर्मजातमप्यपवीतं । स्वतोऽवान्तर विशेष विरहिवास्तुच्छस्य कथं तस्य प्रमेयतेति चेत् । न ज्ञानादिवदुपपत्तेः । निःस्वभाव एवायमिति चेत् । न सङ्ख्या
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(१) स्यात् । अथ शौ यस्य पदमात्रमाश्रयः न च नीले ऽपि प्रसङ्गः तस्यैव प्रतिबन्धकत्वादिति चेदभावस्यापि तन्मा( - ) माश्रयः न च घटवत्यपि प्रसङ्गस्तस्यैव प्रतिबन्धकत्वादिति तुल्यम् तर्हि प्रतियोग्येकनिरूप्यस्य स्वता निर्धर्मकस्य खपुष्पकल्पस्य तस्य कथं प्रमाविषयत्वमिति शङ्कते । स्वत इति । ज्ञानादिप्रतिबन्धा समाधते । नेति । ज्ञानं सर्वत्रैकं नित्यं च एवं शुलमधुरादिरूपरसादिभेदाश्चेति प्राभाकाराः तथा च यथा तेषामवान्तरविशेषविरहे ऽपि प्रमेयत्वं तद्वदभावस्यापीति भावः । ननु तेषां भावस्वभावत्वात् प्रमेयत्वं युक्तम् अभावस्तु निःस्वभावः कथं प्रमीयत इति शङ्कने । निःस्वभाव इति । अभावोऽपि भावविलक्षणस्वभावो न तु गगनकुसुमादिवत् निःस्वभाव इति परिहरति । नेति । अत्र वृद्धसम्मतिमाह |
(१) मूल दूतं यच्छक्यं तस्योच्छेदः स्यात् ।
(३) भूतलमात्रम् । (३) घटस्यैव ।
६६
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११६
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सटीकताकि रक्षायम वृत्तिरूपस्य स्वभावस्य बिदामानत्वात् । यथाहुः । স্নামি খালা অত্যান জাীিন জনमिति । तस्मान्न किञ्चिदेतत् ॥
सम्भवा नाम सहनादेः शतादिविज्ञानम् । तदশ্রোবলশান মিলল জান দুলু লালননি।
इतिहाचुर्वृद्धा इत्यनिर्दिष्टप्रवक्तकं प्रवादपा
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यथाहुरिति । असदसदिति । गृह्यमाणमिति प्रमाणाक्तिः । अभावोभाव इति भावनिषेधात्मकतया सर्वजनसंवेदनसिहमित्यर्थः । अत एव यथाभूतं पारमार्थिक न तु तुच्छमित्यर्थः । सविपरीतं भावविलक्षणस्वभावं न तु भावान्तरस्वभावमिति लक्षणोक्तिः । चकारः पूर्वोक्तप्रमाणसमुच्चयार्थः । तत्त्वमेतदभावस्वरूपमित्यर्थः । पूर्वपक्षनिरासमुपसंहरति । तस्मादिति । प्रमाणविरुडत्वादित्यर्थः । एतदभावनिराकरणं न किम्झन्निरासार्हमपि न भवतीत्यर्थः । इत्यभावान्तभावः ॥
अथ सम्भवस्य स्वरूपमन्तीवं चाह । सम्भवो नामेति । अनुमानत्वो प्रयोजकमाह । अविनामावेति । प्रयोगस्तु शतं सहस्र सम्भवति न्यूनसंख्यात्वात् योरेकत्ववत् अन्यथा कारणाभावात् सहस्त्रसंख्यैव न स्यात् एवं खायों द्रोण इत्याधुन्नेयम् । इति सम्भवान्तभावः ॥
अथैतिह्यामप्यन्तभावयितुं तत्स्वरूपं तावदाह । इतिहेति । इतिहेति निपातसमुदायः प्रवादवाची इतिहैवैतिचं प्रवादः अनन्तावसथेतिहभेषजाजा इति स्वार्थ भ्यः ।
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प्रमाणप्रकरणे ऐतिहातभावनिरूपणम् ।
११७
रम्पर्यमैतिह्माम् । यथा ।
वटेवटे वैश्रवणश्चत्वरेचत्वरे शिवः । पर्वतेपर्वते रामः सर्वत्र मधुसूदनः ॥ इत्यादि।
| নন্ মামলাল। গলায় ফান शब्द एवान्तीव इति । यथाहुः ॥ इह भवति शतादा सम्भवाद् या सहलान्मतिरवियुतिभावात् सानुमानादभिन्ना। जगति न बहु तथ्यं नित्यमैतिह्मा मुक्तं भवति तदपि सत्यं१) नागमाद्विदयते तत् ॥ इति ।
स्पष्टमस्पष्टमिति च द्विविधं प्रमाणमिति जैলাল। নৰনাল বাইজানা লজিনালি ।
अस्यानिदित्यादि लक्षणम् इतिहोचुरिति स्वरूपप्रदर्शनम् । उदाहरति । यथेति । एतप्रमाणस्योदाहरणं कारम्भ मङ्गलाचरणाद्विघ्नोपशान्तिरिति तु प्रमाणस्योदारहणम् । अनयोर्यथायथं शब्दतदाभासयोरन्तभाव इत्यभिप्रेत्याह । तत्प्रायेत्यादि । अत्र भकारिकां संवादयति । यथाहुरिति । शतादी विषये सहस्रादिरूपात् सम्भवात् सम्भवाख्यप्रमाणाद्या मतिरस्त्यन्वयार्थी वियुतिरविनाभावस्तस्य भावात् सद्भावादित्यर्थः । शेषं सुगमम् । नन्वाहतैः स्पमस्पर्ध चेति प्रमाणवयमुच्यते तेन प्रमाणषट्कमायातमिति शङ्कते। स्पमिति । एतेषामेव शब्दान्तरेण व्यपदेशान्नातिरेक इति परिहरति । तैरपीति ।
(१) भवति तु यदि सत्यं-पा. B पुः ।।
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परमात्मारकर
सटीकतार्किकरक्षायाम तस्मात् सिद्धं चत्वार्यव प्रमाणानीति ॥ २४ ॥ 5 ॥
इति प्रमाणपदार्थः ॥
अथ प्रमेयं सामान्यलक्षणापुरःसरं विभागेनाক্লিয়ানি ।। प्रमेयमपवर्गार्थ शेयं द्वादशधा च तत् ॥ २५ ॥ आत्मा देहोक्षमा धीर्मनादोषाः प्रवृत्तयः। प्रेत्यभावः फलं दुःखं मोक्षश्चद्धा प्रकीर्तिताः॥२६॥
साक्षादेवापवर्गापयोगिज्ञानविषयत्वेन मोक्षास्पy प्रत्यक्षमस्पमप्रत्यक्षमित्यर्थः । परमप्रकृतमुपसंहरति । तस्मादिति । अनतिरेकादित्यर्थः ॥ २४ ॥ ७ ॥ इति प्रमाणपदार्थः समासः ॥ निरूप्यैवं प्रमाणानि चत्वार्यपि सविस्तरम् ।
यदर्थस्तु प्रयासोऽयं तत्प्रमेयं निरूप्यते ॥ ननु प्रमाणनिरूपणानन्तरं प्रमेयनिरूपणे कर्तव्ये - मेयमपवाथ ज्ञेयमित्यपवार्थिनः प्रमेयज्ञानविधानं श्रा बादशधेति संख्याविशेषानुवादः आत्मादिपरिगणनं चेति सर्व दशदाडिमादिवाक्यवदसतमित्याशयाह । अथेति । न ज्ञानविधिरयं किं त्वषवर्गार्थं यद् ज्ञेयं तत्प्रमेयमिति प्रमेयसामान्यलक्षणं शेषे तस्यैव विभागाद्देशाविति सर्वसङ्गमित्यर्थः।
ननु प्रमाणादिसूत्रे षोडशपदार्थतत्त्वज्ञानस्याप्यपवापयोगित्वोक्त प्रमाणसंशयादाविदं लक्षणमतिव्यातमित्याशय व्याचले । साक्षादिति । प्रमाणादिज्ञानस्यैवं साक्षादनुपयोगान तेष्वतिव्याप्तिरित्यर्थः । अत एव प्रमा
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प्रमेयप्रकरणे प्रात्यनिरूपणम् ।
9963 थिभिः प्रकर्षण मेयं प्रमेयम् । एतदुक्तं भवति । यद्वि. षयं मिथ्याज्ञान संसारमातनोति यद्विषयं च तत्त्वतानं तनिवर्तयति तत् प्रमेयमिति तात्मादिक्षान्तं द्वादशविधम् । तदुतम् । प्रात्मशतीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषनेत्यभावफलदुःखापवास्तु प्रमेयमिति ॥ २५ ॥ २६ ॥
নগাল স্থান। आत्मात्र चेतनोऽयं तु सुखदुःखादिलिङ्गकः ।
णविषय:(९) प्रमेयमिति स्थिते ऽपि विशेषव्युत्पत्तिमेषां दर्शयति । प्रकर्षेणेति । कथमेषां साक्षादपवौपयोगिज्ञानत्वमित्यत्राह । एतनुत्तमिति । अनात्मनि देहेन्द्रियादावात्मवुड्याहित रागद्वेषादा हितबुद्ध्या चात्मा वाते तद्विवेकज्ञानाच मुच्यत इत्यात्मादिज्ञानं साक्षादपवर्गापयोगि प्रमाणादिज्ञानं तु तज्जननद्वारा परम्परयोपयुज्यत इति भेदः । सूत्रं तूपयोगित्वमात्राभिप्रायमित्यविरोध इत्यर्थः । द्वादशधेत्यादिकं तु किं तत् प्रमेयं कतिविध चेत्याकाङ्क्षापूरकं चकारस्य चोत्तरेण सम्बन्धः अतो न दशदाडिमादिवाक्यतुल्यमित्याह । तचेति । अत्र सूत्रसम्मतिमाह । तदुक्तमिति ॥ २५ ॥ २६ ॥
ननूद्देशश्लोकान्त आत्मनः पुनरुपादानं चेतन इति पर्यायोपादानं च न सङ्गच्छते इत्याशझ्याह । लत्रेति ।
(१) प्रमाविषय:--पा. E घुः ।
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१२०
सटीकतार्किकरक्षायाम चैतन्यं वानं तदाश्रय प्रात्मा। यदा कदाचिच्चेনলাম লাযালো লুঙ্খিনীলামি:। सूत्रकारस्तु पूर्वदर्शनप्रतिसन्धानहेतुकेच्छादिलिङ्गत्वमात्मना लक्षणमाह । यथा इच्छाद्वेष प्रयत्नसुखदुःखचानान्यात्मनो लिङ्गमिति ॥
अत्र सूत्रकारशैलीमनुविदधानः शरीरस्य लक्ष
इतरेषामात्मशेषतया तस्य प्राधान्यात् प्राथम्यमिति निडारणाभिप्रायः । ननु पर्यायशब्दस्यैव लक्षणत्वे ऽतिप्रसङ्ग इत्यत आह । चैतन्यमिति चेतयते जानातीति व्युत्पत्त्या चेतनश्चैतन्याश्रय इति लक्षणं लभ्यत इत्यर्थः । चेतयतेः कर्तरि ल्युट चेतनस्य कर्म चैतन्यं ज्ञानमिति फलितोक्तिः ब्राह्मणादित्वात् व्यञ्प्रत्ययः । मुक्तमूर्छितादिष्वव्याप्तिं परिहरति । यदा कदेति । चैतन्यात्यन्ताभावानधिकरणत्वं विवक्षितमित्यर्थः । सूत्रकारोक्तिव्याजेन लक्षणान्तरमप्याह । सूत्रकारस्त्विति । इटानिसाधनस्य वस्तुनः पूर्वानुभवः पूर्वदर्शनम् प्रतिसन्धानं नाम पुनः कदाचित् तजातीयदर्शने तत्साधनत्वानुमान तडेतुकं तदुत्पन्नं यदिच्छादिकं तल्लिङ्गत्वमात्मनो लक्षणमित्यर्थः । इच्छादयः क्वचिदाश्रिताः गुणत्वाद् रूपवदित्यनुमानं यत् पुनः पृथिव्यादिपरिशेषेणाऐतर द्रव्यनिष्ठत्वसाधनादात्मनस्तल्लिङ्गत्वलक्षणसिद्धिः । सूत्रं पठति । इच्छारेषेति।
ननु त्रयाणामन्यतमस्यैव व्यावर्तकत्वादितरवैयर्थे
(१) कदाचिने न्यासमवायस्य-पा. B . । (२) परिशेषावष्टेतर-पा. F पु. ।
३७४
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प्रमेय प्रकरणे शरीनिरूपण ।
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रणनयमाह । शारीरमन्त्याव पवि चेष्टामागेन्द्रियाश्रयः॥२॥
अन्त्याववि चेष्टाय इत्येकं लक्षणम् । मन्त्र चेष्टा नाम प्रयत्नवदात्मसंयोगासमवायिकारणिका क्रिया विवक्षिता । ततश्च दृष्टवदात्मसंयोगासमवायिकारणकक्रियानायाण दहनपवनादीनां निरासः । तदुक्तम् । आग्ने ज्वलनं बायोस्तिर्यक्पवनम् अणुमनसाश्चादा कर्मत्येतान्य दृष्टकारितानीति । সুশ্যাম্বীনি অবলুকিং : । অক্সি भोगाश्रय इति द्वितीयं लक्षणम् । भोगाश्रयत्वं नाम भागायतनत्वम् । यदाश्रित्य आत्मा भगवान् भवतीति
किमर्थमुत्तरश्लोके शरीरस्य लक्षणत्रयोक्तिरित्यत आह । सूत्रकारेति । स तु विषयव्याप्तिकामुक इति भावः।
ननु चेषादीनामे कैकस्यैव लक्षणत्वादितरानर्थक्यमित्याशातल्लक्षणत्रयमिति व्याचले । अन्त्येति । चेालक्षणं तावदाह । अन्नति । अथैतद्विशेषणव्यावर्त्यमाह । ततश्चेति । दहनपवनादीनां तथात्वे समानतन्त्रसूत्रसम्मतिमाह । तमुक्तमग्नेरित्यादि । द्रव्यानारम्भकमवयविद्रव्यमन्त्यावयवीति तेन पदेन शरीरारम्भकाणां करचरणादीनां व्युदास इत्यर्थः । ननु सुखदुःखानुभवो भागः तदाश्रयत्वमात्मनो न तु शरीरस्येत्यसम्भवि लक्षणमित्याशय व्याचष्टे । भोगायतनत्वमिति । नन्वनयो को विशेष इत्यत
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यावत् । अन्त्येति पूर्वधर व्यवव्यावृत्तिः । अवयवीति বদল: সুশ্রমনীঘিা জমি নীয় জামাক্ষ । সত্যাশ্রীশীল অবস্থা দু লিঃ। तदुतम् । चेष्टन्द्रयार्थाश्रय. शरीरमिति । न च मृतস্লা ইয়াম: । অঙ্কিা প্রজ্জলি শ্লোহ लक्षणत्वात् तेषामपि तथाभावादिति ॥ २० ॥
इन्कियलक्षामाह।
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आह । यदाश्रित्येति । शरीरावच्छेदेनैवात्मनो भागाश्रयत्वात् तदवच्छेद्यधौवच्छेदके शरीर उपचर्यल इत्यर्थः । एवं विध भागाश्रयस्या हस्तादेर्भमसश्चक्रमादन्त्यावयविपादाभ्यां व्युदास इत्याह । अन्त्येतीत्यादि । ननु तृतीयलक्षणे शरीरस्य कुण्डवदरबत्संयोगवृत्त्येन्द्रियाश्रयत्वे तावतेवेन्द्रियारम्भकारमावादेर्निरासादन्त्यावविपदवैयर्थ्यम् तन्तुपदवत्सनवायवृत्या चैतल्लक्षणमसम्भावि स्यात् सत्यम् किं तु विशेषानादरेण सम्बन्धमात्रविवक्षयाच्यत इति ग्रन्थगतिः। परमार्थ वस्तु संयोगवृत्त्यैव न च विशेषणवैययं शरीरवच्छरीरावयवानामपि इन्द्रियसंयोगाश्रयत्वेन तन्निरासार्थत्वादिति द्रव्यम् । यदनुसारेण लक्षणत्रयमुक्तं तत्सूत्रं दर्शयति । तदुक्तमिति । अर्थ्यत इत्यर्थी भोगः लक्षणत्रयस्थाप्यव्याशिमाशझ्याह । न चेति । कुत इत्याशक्य चेषादिसम्बन्धात्यन्ताभावानधिकरणत्वस्य लक्षणत्वात् तस्य तेष्वपि सम्भवादित्याह । कादाचित्कस्थति ॥ २७॥
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प्रमेयप्रकरणे इन्द्रियनिरूपणम् ।
शरीरयोगे सत्येव साक्षात्प्रमितिसाधनम् । इन्द्रियं तत्र(१)मातात्त्वं जातिभेद इति स्थितिः
॥ २८ ॥
शरीरयोग इति इन्द्रियसन्निकर्षो व्युदस्यते स्वकारेण कादाचित्कशरीरयोगिन श्रालेाकादयः साक्षादिति च शरीरयोगीनि चेष्टादीनि लिङ्गानि प्रमितीत्यप्रमातवो दोषाः साधनमिति चेन्द्रियसंस्काराः तेषां साधनानुग्राहकत्वेन स्वयमसाधनत्वात् । उत्तरश्लोके साक्षात्त्वस्यापि लक्ष्यमाणत्वादसन्देहार्थमाह । इन्द्रियेति ।
शरीरयोगस्तत्संयोगः तेन सन्निकर्षव्युदासः । ननु प्रमितिपदापादानादद्ममाजनकस्येन्द्रियत्वं न स्यादिति चेन्न प्रमासाधनत्वात्यन्ताभावानधिकरणत्वस्य विवक्षितत्वादिति । यदा फले ऽतिव्याप्तिभिया हेत्वादिपदेोपादानं तदाञ्जनादिसंस्कारद्रव्येष्वतिव्याप्तिः स्यात् तदर्थं साधनग्रहणमित्याह । साधनमिति । कथं तेन तन्निवृत्तिरत आह । तेषामिति । कारणत्वे ऽपि करणत्वाभा वादित्यर्थः । ननूक्तरीत्या शरीरेन्द्रियलक्षणयेोरन्योन्यसापेक्षत्वादन्योन्याश्रय इति चेन्नैष दोषः यदेन्द्रियाश्रयः शरीरमितीन्द्रियज्ञानसापेक्षत्वं शरीरस्य लक्षणमुच्यते तदेन्द्रियस्य रूपाद्युपलब्धिलिङ्गत्वादिकं शरीरज्ञाननिरपेक्षं लक्षणान्तरमाश्रयणीयम् एवमिन्द्रियस्यापि पूर्वोक्तशरीरज्ञानसापेक्षलक्षणाभिधाने शरीरस्य चेष्टाश्रयत्वादिन्द्रियज्ञाननिरपेक्षं लक्षणमाश्रयणीयमिति व्यवस्थानात् । इलो
(१) तच्च साक्षात्वं- प्रा. C पु. |
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सटीकताकिकरक्षायाम साक्षात्त्वं तु ज्ञानत्वावान्तरजातिभेद इत्युक्तम् ॥ २८ ॥
अर्थबुद्धिमनसा लक्षणमाह । अर्थाः स्युरिन्द्रियग्राह्या बुद्धिरर्थप्रकाशनम् । सुखादेरापरोक्ष्यस्य साधनं मन इन्द्रियम् ॥ २६॥ __ अत्रेन्द्रियग्राहमा एवार्थत्वेन विवक्षिताः। ते च द्रव्येषु पृथिव्यादयश्चत्वारः प्रात्मा च । गुरुत्वधाधर्मसंस्कारव्यतिरिक्ता विंशतिर्गणाः । पञ्चापि कर्माখি ও কালা মাখশাঙ্গুল্ম। অল্প অনিতা - र्थगतस्य प्राकट्यादिपवेदनीयस्य प्रकाशान्तरस्या
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कशेषं व्याचले। साक्षात्वमिति । उक्तमिति । एतदेव प्रत्यक्षलक्षणे स्वयं व्याख्यातमित्यर्थः । संग्रहकाराभिप्रायेण तु तत्र वक्ष्यमाणाक्तिरित्यविरोधः ॥२८॥
स्फुटार्थमाह । अथैति।
नन्विन्द्रियग्राह्याणामेवार्थत्वं कथमन्यत्रापि भयोगदर्शनादित्यत आह । अत्रेन्द्रियति । अन्येषां मोक्षानुपयोगिज्ञानत्वादेष्वेव सोचित इत्यर्थः । स्वमते वायाः स्पर्शनत्वाचत्वार इत्युक्तम् । आत्मा मानसप्रत्यक्षस्तथा बुड्यादयाश्च षट् समवायस्य सम्बन्धिप्रत्यक्षत्वे प्रत्यक्षत्वम्
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व्याप्तिमाशयाह । अत्रेति । ज्ञानातिरिक्तस्यार्थप्रकाशस्य मीमांसकाभिमतस्य प्रागेव परास्तत्वान्न कुत्राप्यतिव्याप्तिरिति भावः । नन्वापरोक्ष्यं साक्षात्वं तच जातिभेद इत्युक्तम् तस्य च नित्यतया तत्साधनं
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प्रमेयप्रकरणे ऽर्थबुद्धिमनसां निरूपणम् । १२५ नभ्युपगमादर्थप्रकाशा बुद्धिरित्युक्तम् । सुखादिविषयापरोक्षजानसाधनमिन्द्रियं मनः । साधनमिति कर्त
লা লিঃযিলিনি ফলঃ প্লিজ। श्रादिशब्देन बुद्धिदुःस्वेच्छाषिप्रयत्ना गृहमन्ते । এনালানত্মাঘল
। লুঙ্গাব্দ নিন্মলাস্থিনির্মিg লালাবি অনু হাম্বানু লালদিনকালঃ জ্বলন নাল इति युगपद्ज्ञाना(१)नुत्पत्तिलिकत्वं मनसो लक्षणमाह।। मन इति लक्षणमसङ्गतमत आह । सुखादीति । ननु फलाइँदज्ञानार्थ हेतुपदं प्रयुज्यतां कि साधनपदेनेत्यत आह । साधनामितीति । तहि युगपत्सुखादिज्ञानासम्मावाल्लक्षणमसम्भवोत्यत आह । सुखाद्यन्यतमेति । एवं चैकैकविषयज्ञानसाधनत्वस्यैव लक्षणत्वात् सुखसाक्षाकारसाधनं दुःखसाक्षात्कारसाधनमित्यादीनि षल्लक्षणानि भविष्यन्तीत्यर्थः । एवं संग्रहोक्तं लक्षणं व्याख्याय सूत्रकारोक्तव्याख्यानपूर्वकमाह । सूत्रकारस्त्विति।नन्वीনিন্মাঞ্জলা থিঙ্গলাজা জাनक्रम इत्याशझाह । विभुनेति । प्रक्रमते प्रवर्तते व्यासड्रेति शेषः । विमता ज्ञानक्रमः आत्मेन्द्रियार्थसम्बन्धातिरिक्तकरणसम्बन्धक्रमनिबन्धनस्तभावे ऽपि भाविक्रमत्वात् शब्दकर्मसन्तानक्रमवदिति मनसस्तल्लिङ्गत्वमित्यथः । ननु सर्वदा स्पर्शरहितद्रव्यत्वादिसाधनैर्मनसोऽपि विभुत्वसिद्धावात्मक्रमकरणासम्भवाल्लक्षणमसम्भवीत्या
(१) युगपद्धानानुत्पत्ति-पा. D घुः ।
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নি। নক। বিবাৰিীৰৰকল হাজ্ঞা। ( অনি। সন্তু লাঘিাননাগ্ৰহ্মান্ধাত্মা গলিআন্ধাৰ হিল
मित्यर्थः । अनङ्गीकारे दण्डमाह । अन्यथेति । तर्हि জিললুন জ্বা তালিহল ওবাহু। নখ অলি। জানলা ভূথিকাৰ কান্ধুি স্ব স্কলামু আলহলিহাঃ। জানা গিজালাখিकारणाधारत्वादिसङ्ग्रहः । न च दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ জালাফালানি লাশ আঞ্চ। হালঅসহানাহানিঅলা যথাশান অন इति सर्वमवदातम् ॥ २९ ॥ | ঙ্গই লুলাহালু ত্বাক্ষুিথি সমূলি মুন্সসুস্বাদু মঙ্খ ঘন শ্যই। সম্পূননি। | সম্মিলি।
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মঙ্গলযা সানাগালিম। ২০ इति । अत्र बुद्धिशब्देन बुझते ऽनेनेति मना विवনিশিৰি ।।
दोषलक्षणमाइ । प्रवर्तनालक्षणाः स्युषा रागादयश्च ते ॥३०॥
प्रवर्तयन्तीति प्रवर्तनाः प्रवृत्तिहेतवा दोषा इत्यर्थः । ते च रागद्वेषमाहाः । तत्र रागद्वेषी वक्ष्यामाणलक्षाणा। मिथ्याप्रत्ययो मोहः। मोहल्या प्रवृत्तिहेतुत्वं न स्वातन्त्र्येण किं तु रागद्वेषानुग्राहकत्वेन । मूढमेव हि रागद्वेषी प्रवर्तयत इति । तदुन्तलम् ।। গুগলনা । কালা জুন মুe
प्रेत्यभावं लक्षयति(१) । मृत्वोत्पत्तिः प्रेत्यभाव उत्पत्ति हसङ्गतिः ।
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दात् संग्रहस्सूत्रयोर्विसंवाद इत्यत आह । अन्न बुद्धिशब्देनेति ।
खूनानुसारादेवेदानों दोषो लक्ष्यत इत्याह । दोषलक्षणमिति ।
प्रवर्तना प्रेरणा सैव लक्षणं येषां ते तथोक्ताः प्रवर्तका इत्यर्थः । तदेतदर्थत व्याचले । प्रवर्तयन्तीति । उपलक्षणं चैतत् । निवृत्तिहेतवश्चेति द्रव्यम् । वक्ष्यमाणलक्षणाविति वैशेषिकगुणाधिकरण इत्यर्थः । मूढस्यापि रागद्वेषमन्तरेणावैषम्यमाह । मोहस्यति ॥ ३० ॥
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(१) प्रेत्यभावस्य लक्षणामाह-पा. C पु. ।
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सटीकताकिरक्षायाम् .. नित्यस्यात्मना जननमरणासम्भव त्तरदेहविश्लेषसंश्लेषा मरणोत्पत्ती इति। तदुक्तम् । पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभाव इति ।
फलं लक्षयति । फलं प्रवृत्तिसाध्यं स्यात्तच्च देहसुखादिकम्॥३१॥
प्रवृत्तिः पुण्यापुण्यरूपेत्युक्तम् । तदुक्तम् । प्रवृत्तिदोषजनितार्थः फलमिति ॥ ३१॥ .
दुःखं लक्षयति।
तया वेद्य दुःख देहेन्द्रियादिकम् ।
प्रतिकूलतया वेदा(१) दुःखम् । तच्च देहः पडिन्द्रियाणि पविषयाः षड्बुद्धयः सुखं दुःखं चेत्येकविशतिधम् । तत्र दुःखं स्वत एक निरुपाधिकम् । इत
उत्पत्तिदेहसङ्गतिरित्यत्र तद्विशेष एव मरणमिति शेषः । ननु प्रागसतः सत्वमुत्पत्तिः सतोऽसत्त्वं विनाशस्तदेव च मरणमिति न्यायः तत्कथमन्यथोच्यत इत्याशयाह । नित्यस्येति । स्वकमार्जितस्य मनसः पूर्वदेहान्निक्रमणं विश्लेषः उत्तरदेहप्रवेशः संश्लेषः ते एव मरणात्पत्ती इत्यर्थः ॥
देहसुखादिकमित्यादिशब्दादिन्द्रियदुःखादिसङ्ग्रहः । प्रवृत्तिदोषजनित इति दोषमूलप्रवृत्तिजनित इत्यर्थः ॥३१॥
एतत्कर्मफलमेव अनेकधात्मपघातकत्वाद् दुःखमिस्याह । प्रतिकूलतयेति ।
(१) वेदनीयं-पा. ( पु. ।
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प्रमेयप्रकरणे फलदुःखापधनिरूपणम् । राणि तु सुखस्पर्श ऽपि दुःखानुषङ्गाद् विषसम्पृक्तानवापाधिकदुःखानीति । तदुक्तम् । बाधनालक्षणं दुःखमिति।
| শ্রীসন্ধায় জালিহ্মলিমি(१)रुपवर्ग इत्याह । दुःखात्यन्तसमुच्छेदमपवर्ग प्रचक्षते ॥ ३२ ॥
तदुक्तम् । तदत्यन्तविनाक्षाऽपवर्ग इति । दुःखनिवृत्तेरात्यन्तिकत्वं नाम सजातीयस्य(२) तनवात्मनि पुनरनुत्पाद इति ॥ ३२ ॥
ननु निःश्रेयसापयोगीनि द्रव्यादीनि प्रमेयाদাবি মালিন নলি কুন: জুম্মন্ধাইল লজিনালি
ननु नस्य दुःखस्य पुनरनुत्थानादात्यन्तिकदुःखनिवृत्तरमुक्तात्मस्वतिव्याप्तिरित्यत्यन्तशब्दार्थ निर्वक्ति । दुःखनिवृत्तरिति । दुःखान्तरप्रागभावासहचारतदुःखध्वंसो माक्ष इत्यर्थः । इदमप्यात्मान्तरापेक्षयास्मदादिदुःखध्वंसे ऽतिव्याप्तिमाशाह । तन्त्रवात्मनीति। तथा चैकात्मनिष्ठनिखिलदुःखध्वंससाकल्यं मोक्षः मुमुक्षणांच प्रत्येकमेकत्वान्नाव्याप्तिश्चेति विलासकारोक्तलक्षणमुक्तमित्यनुसन्धेयम् ॥ ३२ ॥
अथ मोक्ष साक्षादित्यादिश्लोकस्यानुपयोगमाश
(१) प्रान्तको नित्ति-पा. C पु. । (२) निवृत्तसजालीयस्य-पा. पुः ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
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मोक्षे साक्षादनङ्गत्वादतपादैर्न लक्षितम् । तन्त्रान्तरानुसारेण षद्धं द्रव्यादि लक्ष्यते ॥ ३३ ॥
सत्यम् । द्रव्यादीन्यपि निःश्रेयसेोपयोगीनि विद्यन्ते तानि त्वाहत्य निःश्रेयसानङ्गत्वादक्षपादा न लक्षयाञ्चक्रुः । वयं तु तेषामपि परम्परया तदुपयोगोऽस्तीति काणादतन्त्रमनुसृत्य लक्षणमाचक्ष्मह इति । तानिदानों पदार्थानुद्दिशति ॥ ३३ ॥
द्रव्यं गुणस्तया कर्म जातिश्चैतत्रयाश्रया । विशेषः समवायश्च पदार्थाः षडिमे मताः ॥ ३४ ॥
द्रव्यगुणकर्मणामेव जातिमत्त्वं न सामान्यादीनां त्रयाणामित्युक्तमेतत्रयाश्रयेति । तेषामपि जातिमत्त्वे जात्यनवस्थितिः । विशेषस्य स्वरूपव्याघातः ।
sure | ननु निःश्रेयसेति । अन्यत् प्रतिज्ञायान्यदुद्दिश्यत इति शङ्कां निरस्यति । तानिति ॥ ३३ ॥
st सर्वाश्रयत्वेन प्राधान्यात् सामान्यवदुपक्रमानिःसामान्येषु महाश्रयत्वात् समवाप्युपक्रमात् तच्छेपत्वाच्च द्रव्याद्युद्देशक्रमः । उद्देशमध्ये प्रक्रमभेदेन जातेरेव विशेषणोपादानं किमर्थमत आह । द्रव्यगुणेति । ननु सामान्यादीनामपि सामान्यवत्वे किं बाधकमत आह । तेषामपीति । प्रादुष्यादित्यत्रोपसर्गप्रादुभ्याम
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प्रमेयप्रकरण द्रव्यादिपदार्थनिरूपणाम् । १३१ समवायस्य संयोगसमवाययोरन्यतराभावेना(१)सम्बन्यश्च प्रादुःण्यात् । यथाहुः । व्यक्तरभेदस्तुल्यत्वं सरोऽथानवस्थितिः।। रूपहानिरसम्बन्धी जातिबाधकसंग्रहः ॥ इति ।
শ্রাবন্ধিাবস্থা ক্লিদিলিলিঃ। सामान्ययाः समावेशो जातिसकर उच्यते(२) ॥ इति ॥ ३४ ॥
स्तिर्यचपर इति षत्वम् ।
___ अत्रोदयनसम्मतिमाह । व्यक्तरित्यादि । तत्राकाशकालदिशामेकैकत्वेनानेकवृत्तित्वासम्भवानाकाशत्वादिजातिसम्भवः सम्भवे वा व्यक्तिभेदः स्यात् सच धर्मिग्राहकप्रमाणबाधित इति भावः । तुल्यत्वं पर्याय स्वम् तत्र व्यञ्जक भेदाभावात् परापरभावाभावाच्च न घटत्व कलशत्वया दः भेदे वा पर्यायत्वहानिः सा च व्यवहारविरुद्धति भावः । अन्यत्र परस्परपरिहारवता एकत्र समावेशः यथा नभसि मनसि च परस्परपरिहारिणाभूतत्वमूर्तत्वयोः पृथिव्यादिचतुपये तयोरपि जातित्वे परस्परपरिहारः स्यात् परापरभावश्च स्यात् तदुभयमपि बाधितमिति भावः । सामान्यस्यापि सामान्यवत्त्वे ऽनवस्थानात् । विशेषाणां च व्यावृत्तकस्वभावानां सामान्यवत्त्वे स्वभावहानिः स्यात् । संयोगल्य
(१) समवाये संयोगसमवाययोरसम्भवेना--पा. C पु.। (२) अन्योन्यतिकारिका नास्ति B. ।
-No. 8, Vol. X.XII.--August, 1900.
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| সুস্থ স্বা শিশু স্কুফ লজ্জিাणमित्यपरम् । तदुताम् । क्रियावद्दणवत्समवायिकारणं द्रव्यमिति ।
द्रव्याणि परिवाष्ट। भूरायोज्योतिरनिलोनमः कालस्तथा दिशा॥३५॥ आत्मा मन इति प्राहु व्याणि नव तद्विदः । न त विद इत्यनेन पदार्थविदामा सिद्धान्तः । গুন লম্বা কাহালক্ষ্ম সূক্ষ ফলबायस्य सामान्यवत्वे बाधकमिति संग्रहार्थः ॥ ३४ ॥
इतः परं कणादसूत्राण्येव संवादयिष्यति तत्र द्रव्यलक्षणे तत्संवादमाह । तदुक्तमिति । गुणवत्वात्यन्तामावानधिकरणत्वं गुणवत्त्वं क्रियावत्वं तु द्रव्यस्यैवेति प्रतिपादनार्थ विभुष्वव्याप्तेः प्रयोजनं तु मनःप्रभृती द्रव्यत्वसाधनम् ॥
ननु द्रव्यत्वसामान्यलक्षणानन्तरं तविशेषलक्षणे वक्तव्ये किमुत्तरश्लेाके कथ्यत इत्याशय सत्यं तदर्थ मेतान्युद्दिशतीत्याह । द्रव्याणीति ।
टावन्तत्वं हलन्तानामिति वचनात् दिशाशब्दः साधुः । पृथिव्यााहे शक्रमस्तु भाग्यगुणाश्रयत्वेन भूतपक्षे केप्राप्ते भाग्यगुणभूयस्त्वानुसारेण चतुणी क्रमः। भूतापक्रमादाकाशम् । एकैकद्रव्योपक्रमाद् दिकाला तयोस्तु सोपनेयक्रियासंयोगमात् क्रमः। विभुक्रमादात्मा। परि
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प्रमेयप्रकरणे द्रव्यनिरूपणाम
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সুত্র ল লক্ষঃস্থ হাথত্রি রুব্বি জানি স্বনি। यथाहः । হালা ই ক্লান্ত লা: ফখলা। पृथगद ब्यालयाते तु न गुणाः कस्यचिन्मताः॥ इति। तथा ।
ফা: হ জ ল লু লু । प्रसिदुद्रव्यवैधालवस्या अन्तुमर्हति ॥ इति ।
केचित्त वियति विततानां सूहमाणां पृथिव्यवयवानां कृष्णा गुमास्तम इति वर्ण यन्ति २) । मनाव्यतिरिकत्वे सत्यस्पर्श त्वेन क्रियावत्वरूपवत्त्वासि
शेषात् तदुपकरणस्वामा मन इति । अतदिदां विप्रतिपतिमाह । अन्ये विति।।
सर्वगता इत्यनेन वानां परममहत्त्वमुक्तगुणवस्वाद द्रव्यत्वम् । अमूर्तये सति बाह्येन्द्रियग्राह्यद्रव्यत्वात् पृथकदव्यत्वं च। ततश्च कस्यचित् कस्यापि द्रव्यस्य गुणा मता इत्यर्थः । तम इत्यादि। चलमित्यनेन क्रियावत्त्वानीलमित्यादिना गुणवत्वाच द्रव्यत्वं तमसः रूपित्वे सत्यसर्शवत्वात् प्रसिद्धद्रव्यवैधयं चेति नवैवेत्यनवधारणसिद्धिरिति भावः। तमसो गुणान्तर्भावात् न द्रव्यातिरेक इति केषांचिद्वैशेषिकैकदेशिनां समाधानभुपन्यस्यति । केचित्त्विति । तदेतत् प्राभाकरमतमिति कैश्चिद् व्याख्यातं तदपि तन्मतापरिशीलनविलसितमेव भावाभावस्तम इत्येव तेषां मतं तदुक्तं शालिकायाम् ।
(१) वन्ति - पा• B घुः ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम লালুন: নিত্যাননজনাঅজাকসड्रेन पृथिवीगुणत्वानुपपत्तेचालोकाभावस्तम इति काणादाः। शब्दस्य तु गुणत्वमुत्तरत्र वक्ष्यामः । तस्मानवैव द्रव्याणीति सिद्धम् । तदुक्तम् । पृथिव्यापस्तेजावायुराकाशं काला दिगात्मा मन इति द्रव्याणीति ॥ ३५ ॥ ss ॥ तत्र गन्धवती भूमिरापः सांसिद्धिकद्रवाः ॥३६ ॥ उष्णस्पर्शगुणं तेजो नीरूपस्पर्शवान् मरुत् ।।
भूमिभेदाश्च मणिवजादयः पाषाणाः । सांसि
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यत्र तेषामसंयोगः स महानन्धकार इति।
तेषामल्पसोऽपि तेजोवयवानामित्यर्थः । इयांस्तु विशेषः स च भावान्तरमेव न तु निषेधात्मेति। तदप्युतं तत्रैव अपवारितालोकभूभागादिकमेव छायेति । तस्मादेकदेशिमतमेवैतत् । अथैतन्मतव्यनिरासपूर्वक भावमेव सिद्धान्तमाह । अस्पर्शवत्वेनेति । तमो निष्क्रिय प्रत्यक्षत्वे सत्यस्पर्शवत्वादात्मवत् क्रमात् पवयेन मनोघटयोर्व्यभिचारनिरासः नीरूपं चास्पर्शवत्त्वादाकाशवदिति त्वदुक्तयोः क्रियावत्त्वगुणवत्त्वयोरसिद्धौ द्रव्यत्वमेव नास्ति कुतो वातिरेक इति भावः। एवं यदि तमः पार्थिवरूपं स्यात् आलोकासहकृतचक्षुग्राह्यं न स्यात् घटनेल्यवत् न चैवं तस्मान्न तथा गुणान्तभावस्याप्यसिद्धभाव एव तम इत्याह । नल्यान्तरवदित्यादि ॥ ३५ ॥ ॥ 1. मणिवज्रपाषाणेषु गन्धवश्वस्थाव्यातिमाशङ्याह ।
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प्रमेयप्रकरणे द्रव्यनिरूपणाम् ।
द्विकत्वं द्रवत्वस्याज्ञानसिद्धत्वं तेन द्रव्यान्तरसंश्लेषपाधिकद्रवत्वानां पार्थिवानां सर्पिःप्रभृतीनां तैजसानां सोसादीनां च व्यवच्छेदः । यथोक्तम् । सर्पिर्जतुमधूच्छिष्टानां पार्थिवानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमद्भिः सामान्यमिति । तथा त्रपुसीसलोहरजतसुवर्णानां तैजसानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमङ्गिः सामान्यमिति । अपां विकारः करकादिः । उष्णस्पर्श इति शीतस्पर्शीनामनुष्णाशीतस्यशानां च सलिलपवनादीनां मिरास: (१) । न चैवं चान्द्रमसेन महसा भवत्यव्याप्तिः । उष्णभूमिभेदाश्चेति । तेषामपि भूर्विकारत्वात् गन्धवश्वमनुमेयम् । भूर्विकारत्वं च पाकजरूपवत्त्वात् अनुपलम्भा गन्धस्यानुद्भूतत्वात् सितभास्वरत्वं तूपधृम्भक तेजोवयवगतमिति भावः । आदिशब्दात् स्फटिकादिसंग्रहः । लक्षणे सांसिद्धिक विशेषणस्याथ कथनपूर्वकं व्यावर्त्यमाह । सांसिद्धिकत्वमिति । आजानसिद्धत्वमुत्पन्तिशिषृत्वमित्यर्थः । सांसिद्धिकं प्रकृतित आगतं तत् तथेोक्तम् । संसि - suती समेइत्यमरः । द्रव्यान्तरे संश्लेषोऽग्निसंयोगः । अत्र पूर्वेषां पार्थिवत्वं भौमानलेन्धनत्वात् उत्तरेषां तैजसत्वम् अत्यन्ताग्निसंयेोगेऽप्येकरूप्यादवगन्तव्यम् । गुरुत्वादिकं तूपषृम्भकपार्थिवावयवगतमित्याद्यूह्यम् (२) । अथैषां इयानामपि तथात्वे सूत्रसम्मतिमाह । ययेत्यादि । अप्लक्षणस्य करकादावव्याप्तिमायाह । अपां विकार इति । आप्यत्वात् तत्रापि सांसिद्धिकद्रवत्वमनुमेयम् । किं च प्रतिबद्धमित्यवसेयम् आदिशब्देन हिममथनफेनादिसंग्रहः । तेज लक्षणे विशेषणफलमाह । उष्णेति । अव्यारिमाशङ्क्य
(१) व्युदासः - पा. B. 1 (२) इत्यादा महनीयम् - वा. E . ।
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যা অঘক্ষান্তঃকালা মিয়া ফানি কথালিড়াকু আস্থাও। না ভাবি হস্থান্ধা ‘াঃ হাফিজ দুকু কীভাস্থা ছায়াবালিঘাললঃ মহাত্বা
ঘিানাস্থ নি হাত্তা অলিৰিঃ স্বস্ব লগাব্দ নূতন ঘূনিঃ অনললিঅমৃতা আ ফস্কান্তালাক্ষাঙলভিক্ষুনিনু নগ্ধাঙ্গুলি অৰুমূল নী স্বাহাদ্বারাহ স্বাভালনি শূনথি আশিভিঃ । না দুদ্ধিঃ সন্ধিা হত্যাসত্য হৃত্বানু লাহাহাহ্মান্ধত্ব থাকাঐশ্বাসঃ বাহাদুষ্টুম্বিস্বাভা জানি স্বার্থ সন্ডিভিঃ। ওখ হোৱাৰ ঘূথিনিম্বানন্মলিথি যুবক লাখানালা। ৪৩১
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স্কুললালিনাক্সানুলঘ। হলুল না লালস্বাৰালিহুদি খ্রিঃ মূল স্ব স্ব সবিঘালালা লা লা ভূৰি নলীন অসুভালল শন্তু মুসলমূখ। এই এলিলা যুঃ জলিলালাজআঃ লনি
- গাজাসু। দলিল স্বাৰ্থ ৰাঃ ভালুক্কাহলি মুল বাশাইল্লালু বৃহহহুবলীঙ্গুল আম্মুঃ ভাঁঙ্গা
ফালাহাবাজনস্বাগ্রহ লাভলম্বান্দ্রি। । ss।
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হালাল। দক্ষ নয়त्वे किं प्रमाणमत आह । तच्चेति । शब्दो गुणः गुणत्वात् ত্বকালু জণ্ডিাঙ্গিনঃ নু লাহাস্য বহিষ্কালু টু
ম্যাগি নুলালাস্কা স্বান্তকাল জিলি
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चिरचिरं युगपदित्यादिप्रत्ययव्यवहारयोर्निमित्तं হ্মালঃ। অাত্মনিৰালুক জ্বাল নি জ্বালাक्षणम्(१) । तदुक्तम् । अपरस्मिन् परं युगपचिरं क्षि
বিনি অ জ্বাল লিঙ্কালীনি। নামৰলি অলিনি ৰিভুলিনি ল ক্লানিস্বার্থ । হলি কয় - कस्य भावाभावव्यवहारस्थापकः काल इति केचित् । एकस्यापि कालस्योपाधिभेदात् क्षणलवादिभेदव्यपदेशः। पूर्वापरादिदेशप्रतीतिव्यवहारयोर्निमित्तं दिक् । तदुक्तम् । इत इदमिति यतस्तदिशा लिङ्गमिति। इत चेत् सत्यम् इदं सर्वपक्षलिङ्गमाकाशस्य परिशेषात् शब्द इति सिद्धान्तस्सून वश्याति तस्येमुपलक्षणमित्यदोषः ॥
काललक्षणं विवृणोति । चिरमिति । चिरादिव्यवहारासाधारणकारणद्रव्यं काल इत्यर्थः । लक्षणान्तरमाह । परापरेति । व्यतिकरो वैपरीत्यम् । एतस्य सूत्रोक्तषड्लिडोपलक्षणत्वाद् विपरीतपरत्वानुमेयः काल इत्यादीनि पल्लक्षणानि भविष्यन्तीति भावः । तदेव सूत्रं पठति । अपरस्मिन्नित्यादि । मतान्तरेण लक्षणान्तरमाह । एकस्मिन्निति । एकस्यैकत्र भावाभावी यद्भदादुपपद्यते स काल इत्यर्थः । ननु काललिङ्गाविशेषात् एकस्य तस्य कुतो भेद इत्याशङ्याह । एकस्यापीति ॥
दिगलक्षणं विवृणाति । पूर्वापरेति । पूर्वीपरादिप्रत्ययलिङ्गा दिगिति लक्षणमित्यर्थः । यत इति प्रथमाथै सार्व
(१) इत्यादि च लक्षणम्-पा• B पु. । .
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লয়সী যুবলি । इदं पूर्वण इत इदं परेणेत्यादिज्ञानं यत् तदिशा लिसमिति सूत्रार्थः । सा च कालवदेका विभ्वी नित्यैव तत्तदुपाधिभेदात् प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्भवतीति दर्शयितुं दिशेत्येकवचनम् । तदुक्तम्(१) । कार्यविशेषण नानात्वमिति । प्रादित्यसंयोगः कार्यविशेषो विवक्षिন:। জুঘলালা লমু বীৰ সৰলী নন্দিনमिति ॥ ३० ॥ ॥
प्रथा गुणलक्षणमाह । कर्मणा व्यतिरिक्तत्वे जातिमात्राश्रयो गुणः॥३८॥
जात्याश्रय इति सामान्यादित्रयन्यदासः । मात्रेति गुणादेरप्याश्रयो द्रव्यं व्युदस्यते । कापि जातिमात्राश्रय इति तनावृत्त्यर्थ व्यतिरिक्तत्वे २) सतीत्युक्तम् । तदुक्तम् । द्रव्याश्रयोऽगुणवान् संयोगविविभक्तिकस्तसिः । ज्ञानं यत् तद्दिशो लिङ्गमित्यर्थः । औपाधिकनानात्वे सूत्रसम्मतिमाह । तदुक्तमिति । प्रथमचरमादित्यसंयोगोपाधिक: प्राचीप्रतीच्यादिभेद इत्यर्थः । दिकालसाधनप्रपञ्चस्त्वस्मत्प्रणीतप्रशस्तपादभाष्यनिष्कण्टिकायां द्रव्यः । शेषं सुगमम् ॥ ३७॥ 5 ॥
गुणलक्षणे कमव्यतिरिक्तत्वं नाम संयोगविभागयोरनपेक्षकारणत्वाभावः अन्यथापेक्षितव्यावृत्तरतिप्रसङ्गित्वादिति । एतच्च साने लक्षणे व्यक्तमित्याह । तदु
(१) तच्चतम्-पा• B पु. । (२) कमान्यत्वे-पा• B पु० ।
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বন্ধ লিরি। সঙ্গ জঙ্গল জ্বালানি ঋণ ভাল। শুঙ্গা মুন স্পা হাঘিক্ষামূহে বিনাশ স্মৃহিঃ । আ অ অ স্থিৰ লিখালেনছিলাম স্ব স্থালি লা। লীনাক্ষী লালিলাইন স্থাশ্যাাচ্ছি ঋণাত্যাহাঙ্খলাপি হাজী নন। লুভ্যশ্বজুহ্মাস্ত্রস্ব খাদ্য লক্ষাশ্রাঞ্জ মহম্মাম্বলিত দ্বিাহান খ সু
শাঝখাকা য় মজা না খাঅলাখ জিলি! স্বনীলি। আখলাৰ গ ঘা। - লাল। লা ত্বি ল ললাম হীনি। কায়ালি। कथं तहि रूपसमवायवान् घटः पदध्वंसवन्तस्तन्तव इति অ সাঃ স্ব ত্বা স্থা । মিষি! লল ৰিহাখাবিহীঘলাইথি জঘালু ভীষা সুখ
সুক্ষ হ য়ু ত্যক্ষ লা লিঃ অলালিয়ানী সান্দি হালাশ্মি। স্ব অলি। জাঙ্গালাঅলিনি। লিখ। ঘষা হল
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বিছা বিন্তি সুস্বাদু অমুলা । হজম্বাঃ জুয়েলাঘাট ল ই বা ফমুভী । ৩ ।
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বিন্দিীগ জ্বালালি। 'ন্য সুঞ্জিযুদ্ধকালু নাফাভিৰিালি ক্লাব। | সুস্বাস্থ্য ঘূৰালৰাষনা। বাল।লিपेक्षया रूपशब्दयोराद्यन्तत्वमत आह । सूत्रेति । तानि সুকালি হাঁফালি। ত্বত্যাদি। মুহাগল।
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सटीकता पार्किकरक्षायाम्
न्यस्पर्शीः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्व संयोगविभागा परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणा इति । चशब्देन गुरुत्वद्रवत्वस्नेहसंस्कारधर्मीधर्मशब्दाः सङ्गृहीताः । ततश्च कण्ठेोक्ताः सप्तदश चशब्दसमुचिताः सप्प्रेति गुणाश्चतुर्विंशतिः । तेषां विशेषलक्षणं वक्ष्याम इति ॥ ३८ ॥ नेत्राद्येकाक्षगम्यत्वमर्थत्वे सति लक्षणम् । रूपस्य च रसस्यापि गन्धस्य स्पर्शशब्दयोः ॥ ४० ॥
१४२
चक्षुग्राह्यत्वेन घटादिद्रव्यस्य तद्गतस्य च सत्तादिसामान्यस्य च संख्यापरिमाणादिगुणस्य च रूपत्वं मानसांक्षीदिति एकत्वं विशेषणम् तेषां त्वगिन्द्रियस्यापि विषयत्वात् । एवं स्पर्शनै केन्द्रियग्राह्य इत्यत्रापि विशेषणफलं वाच्यम् । गन्धरसशब्दानां तु घ्राणरसनश्रोत्रग्राह्यत्वमेव लक्षणम् । एकत्वविशेषणस्य व्यवच्छेद्याभावेनाविवक्षितत्वात् । लक्षण सौकर्येण क्रम
निकषे द्रष्टव्यः ॥ ३९ ॥
अथ प्रतिज्ञातानि विशेषलक्षणान्याह । नेनेति । चक्षुरेकग्राह्येोऽथ रूपमिति रूपलक्षणम् ।
तत्रैकविशेषणं द्वीन्द्रियग्राह्यनिरासार्थमित्याह चक्षरिति । तदेतत्स्पर्शलक्षणे ऽप्यतिदिशति । एवमिति । गन्धादित्रयलक्षणे त्वेकशब्दत्यागे घाणग्राह्येोsar गन्ध इत्यादि याज्यमित्याह । गन्धेति । पश्चादुद्दिष्टस्य शब्दस्यादौलक्षणे कारणमाह । लक्षण सौकर्येणेति । ननु शब्दो द्रव्यं कथं
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प्रमेयप्रकरणे गुणनिरूपणम् ।
१४३ मुल्ला शब्दोऽन्त्र लक्षितः । ननु साक्षादिन्द्रिय(१)सम्बজল াহ্মজ্জায়া গালি মুন্দ্রা ল যায্য इति चेत् न शब्दो गुणः बहिरिन्द्रियव्यवस्था हेतुत्वात्
ঘৰ আগ জাযাকালানী মন্ত্রমাণ আাन्द्रियत्वात् प्राणवदित्यादिभिर्गुणत्वस्यैव सिद्धः॥ ४० ॥
अर्थशब्दस्या विवक्षितमर्थ प्रयोजनं चाह ।
गुणेषु लक्ष्यत इति चादयति।नन्विति । साक्षादित्यादिना पदत्रयेण क्रमात् घटरूपादौ समवायाभावयोरिन्द्रयरूपादा च व्यभिचारनिरासः । असिद्धिं परिहरति । नेति । शब्दस्य स्वोपलब्धिकारणत्वेन श्रोत्रव्यवस्थापकत्वात्न हे. त्वसिद्धिरिति भावः। अन्तरिन्द्रियव्यवस्था हेतोः सुवादिज्ञानस्य गुणत्वेऽपि युगपद्ज्ञानानुत्पत्तिलिङ्गे तद्धता व्यभिचारनिरासाय बहिरित्युक्तम् । शब्दस्य गुणत्वे प्रमाणान्तरमाह । श्रोत्रमिति। सजातीयपदं दृशन्ते साध्यवैकल्यनिरासार्थम् । तच्च पक्षे ऽपि सम्भवतीत्यविरोधः । आदिशब्दात् सामान्य ववे सति बाहोन्द्रियग्राह्यत्वादित्यादिसंग्रहः। द्रव्यत्वे तु शब्दस्य नित्यविभुत्वेन सर्वोपलब्धिरनुपलब्धिरेव वा स्यान्न तु कदाचिदुपलब्धिरिति प्रतितर्कपराहतेः गुणत्वमेव सिड्यतीति भावः । यदुक्तं शब्दस्य गुणस्वमुत्तरन्न वक्ष्याम इति तदेतदिति बोध्यम् ॥ ४० ॥
ननूत्तरश्लोके अर्थशब्दार्थकथनं प्रकृतासङ्गतमित्याशझ्याह । अर्थशब्दत्येति । रूपादिलक्षणस्थस्येति शेषः ।
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(१) सातादन-पा. B पु. ।
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৭৪৪ | তীসনান্ধিলায়। মুক্তিত্ব মুল কায়ুৰ অৰিহঃ। ক্সবা কাৰিাজ্জাজ বানিজ্য নিশ্মি ৪ | | জালা দিয় দ্বিবিধাম।।
না থাকিলাবস্থা কাজ করিমূল চবি খালা ননিমি: ৪৭। লশ্রাত্রাঃ ৰিাঝা জন্য স্ব) লালু। गुणत्वे खलि हेतुत्वं तत्तद्धीव्यवहारयोः ॥४२॥ | স্থালিমাহজালি ফিল ল যু: স্বয়ে। ভীঘনিক্সাল স্ত্রী। লিলিম যু: যিলেখা । নমুখি । জন লক্ষ্ম অশে ঘুর হল - নি। জমিনি স্কুল স্থালি স্ব স্ব ব্যা: স্কুললিনি। ৪২। স্বাস্থ ৰিাখী স্বলি জ্বলা | হালু মাৰিা জিয়া: স্ব যু! ফল।
| ৰ নি। হিলাঙ্ক্ষিাখি । খানিতামিঃ নাৰি লাঅঃ ॥৪॥ | সুস্বাঝাড়ু লিলস্নালিত্যাখাহান্ধাতালিকা। तत्समवाधिकारणव्युदासार्थ गुणत्वे सतीत्युक्तम् ॥ ४२ ॥
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৭৪৪ জৰিয় শ্রী অনুযায়ঃ স্ব হয়ঃ সুমহঃ বলল । ঘন আঠাঃ মাস্ক দ্বিাহাফহা মিম্বালানি - মিনু। জয়ান্বিৰীশ্রী যুথী ত্মিক্ষমৃত্ব সুনি। ৪ঃ ঃ এষাৰ হিয়া জিলাদ্বা হা। যক্ষ অস্ত্র প্র জাজনী না ॥ ৪ঃ {} | কিত্তাহী দ্বা জাবদা না থাকুলিশিন স্থা: স্ব স্থ। নাইম্বাবল্লাহ অনুলিব্ধি তাহ্মাতুলালন ॥ ৪৪৪ লজ্বিালা মিহল্লা: সু : কাঙ্গ লাল । জুলাভা দ্বমঃ জ্জিাস্থায্যঃ ॥ ৪ ॥
| লিয়া ভান্দ্রানী ৪। সল্পস্বাস্থঃ দাই থমালা দ্য ঃ | | স্নাথ: হৃত্বিার স্বাস্থ সঙ্কল: ৮
লশান্ত অন্যায় ক্ষান্ত্যলিখ । লাস্থ্য খালা । সুপৰিাহিনি'। কথা জানি ব্দখিনি । মুক্মিভি দ্বাহু যুলান্টি| শ্রনি । ২২
विकलकालकृतत्वदेन द्विविधे परत्वापरत्वे इत्याह। বিষ্কানি ২৪
লিঃ দাঃ স্বত্ব স্ব যান অস্ত্র থাকলু আঠাবৰ অনাদিত্য: ৫৭। সকাল। মদিনানি। তাহা লিঙ্ক
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सटीकताकिफरक्षायाम स एव भावनेति व्यपदिश्यते । यथाहुः ।
भावनैव प्रयत्नात्मा सर्वत्राख्यातगोचरः। इति । गुरुत्वं तु गुणो हेतुराये पतन कर्मणि ॥ ४६ ॥ द्रवत्वं तु गुणा हेतुराये स्यन्दनकर्मणि(१) ।
द्वितीयादिपतनस्य स्यन्दनस्य च वेगहेतुत्वादादा इत्युक्तम् । पतनस्यन्दनयोराश्रयद्रव्यस्यापि समवायिकारणत्वेन हेतुत्वाद् गुण इत्युक्तम् ॥४६॥ssil | ब्याह । आत्मेत्यादि । अत्रोत्साह इति लक्षणम् उत्साहपदा
र्थः प्रयत्नः कचिल्लोके हर्षेऽप्युत्साहपदप्रयोगदर्शनात तथा न भ्रमितव्यमित्याहा कृत्यादीति । आदिशब्दादुपयोगादि(२) शब्दसंग्रहः । तथा च कृत्यादिपर्यायपदार्थ उत्साहः प्रयत्न न हर्षपदार्थस्तस्य गौणत्वादित्यर्थः । न च कायिकव्यापारविशेषे ऽपि प्रयत्नभ्रमः कार्य इत्याशयेनाह । आत्मधर्म इति । ननु कृत्यादिपवाच्यः प्रयत्न इत्युक्तं कृतितत्साध्यमध्यस्थ इत्यादि भावनायास्तवाच्यत्वदर्शनादित्याशझ्याह । स एवेति । योऽयमुत्साहापरनामा लोके प्रसिद्ध प्रयत्नः स एव वेदे पुरुषप्रवर्तनात्मशब्दभावनाविषयभूतपुरुषप्रवृत्तिरूपा भावनेति व्यपदिश्यत इत्यर्थः । अत्राचार्यसंमतिमाह । यथाहुरिति । किं करोति पचति कि करोति गच्छतीत्येवं सर्वत्र करोतिसामानाधिकरण्यदर्शनात् सर्वधात्वर्थवर्तिसामान्यरूपं करोत्यर्थभूतभावना पूर्वोक्तप्रयत्नलिङाद्याख्यातप्रत्ययवाच्यतया प्रतीयत इति वार्तिकार्थः ॥ ४६ ।। ७ ॥
(१) स्पन्दनकर्मणि-पा. A पु. । (२) उद्यागादि-पा० E पु. !
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प्रमेयप्रकरण गुणनिरूपणम् ।
१४७ लिम्धधोर्यविशिष्टे ऽर्थे नेहश्चिक्कणता च.) सः ॥ ४७ ॥
चिनात्वं देह इति लक्षणान्तरमिति ॥४७॥ ভজন হত্যাভাষীয় জ্বালা। स्वयं यस्तद्विजातीयः संस्कारः स गुणा मतः ॥४॥
स्वोत्पादकसजातीयत्योत्पादकः स्वयं च तद्विजातीयो गुणः संस्कार इति । यथा स्मतिहेतुः संस्कारः स ानुभवज्ञानजन्यः स्मृतिज्ञानहेतुः स्वयं न ज्ञानजातीयः २) । यथा वा वेगः कर्मजः(३) कर्महेतुः स्वयं
स्निग्धेति । स्निग्धव्यवहारासाधारणं कारणं गुणः स्नेह इत्यार्थः। चिकणविशेषणवैयर्थ्यमाशङ्याह । चिकणत्वमिति॥४७॥
संस्कारलक्षणे संस्कारः स गुणा मत इति संस्कारानुवादेन गुणत्वं विधीयत इति तच्चायुक्तमित्याशयेन वैपरीत्येन योजयन् लक्षणार्थ निष्कृष्याह । स्वोत्पादकेति । अत्र गुणग्रहणं संयोगापेक्षया ताहककर्मव्युदासार्थम् । तथापि कमीपेक्षया ताइक्संयोगव्युदासार्थमद्विष्ठत्वे सतीति विशेषणीयम् । तथापि विहितनिषिद्धक्रियापेक्षया तादृगधर्माधर्मव्यवच्छेदाय सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तत्वरहित इति विशेषणीयम् । लक्ष्ये लक्षणं योजयति । यथेत्यादि । वेग
(१) स खेहश्चिकणश्च-पा• B पु. । (२) स्वयं ज्ञानविजातीयः-पा. C पुः ।
(३) कर्मजन्यः-पा. Bपु.। १ ख-No. 9, Vol. XXII. --September, 1900.
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१४८
सटीकतार्किकरक्षायाम कर्म न भवति । ( यथास्थितिस्थापकः वेष्टनादिकर्मजन्यः वेष्टनादिकर्मकारणं स्वयं च न कर्मरूपः १) ।) वेगा भावना स्थितिस्थापकश्चेतित्रिविधः संस्कार इति॥४॥ विहितक्रियया साध्यो धर्मः पुंसो गुणो मतः । प्रतिषिद्धक्रियामाध्यः पुणोऽधर्म उच्यते ॥४६॥
श्रुत्यादिविहितानुष्ठानसाध्यः पुगुणो धर्मः । श्रुत्यादिप्रतिषिद्धानुष्ठानसाध्यः पुगुणस्त्वधर्म इति ॥४६॥
अन्न पृथिव्या रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाण
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ग्रहणं स्थितिस्थापकस्याप्युपलक्षणम् । ननु संस्कारलक्षणं वेगादिषु कथं युज्यते अन्यलक्षणस्यान्यत्रासम्भवादित्याशय नैष दोषः तेषां तद्विशेषत्वादित्याशयेन संस्कार विभजते वेग इत्यादिना । एषां च त्रयाणां पूर्वोक्तकलक्षणव्यवस्थापितसंस्कारत्वाख्यैकसामान्ययोगादेकगुणत्वं धर्माधर्मयोस्तु ताहगव्यवस्थापकाभावान्नाहकृत्वाकारणैकगुणत्वमिति निकषे निरटति ॥४८॥
विहितनिषिद्धेकक्रियासाध्यावात्मगुणा धमाधावित्याह । विहितेत्यादि । अतिरोहितमन्यत्॥४९॥
निरूप्यैवं गुणान् सर्वान् कस्य द्रव्यस्य के गुणाः । कियन्त इत्यपेक्षायां विभज्य प्राह समप्रति ॥ अत्रेत्यादिना विभाग इत्यन्तेन । तत्र पृथिव्या
(१) कर्म न भवति--पा• B पु.। ( ) एतन्मध्यस्थः पाठो नास्ति D पु. । । (२) प्रतिषिक्रियासाध्योऽधर्मः पुंसा गुणो मतः-पा. A पुः ।।
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प्रमेयप्रकरणे गुणनिरूपणम् ।
पृथक्त संयोग विभागपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्व संस्काराचतुर्दश गुणाः । तत्र रूपं शुक्लादानेकविधम् अग्निसंयोगविरोधि | रसस्तु षद्विधा मधुरादिः । द्विविधा गन्धः सुरभिरसुरभिश्च । स्पर्शेऽनुष्णाशीतः पाकजश्च । अपामपि स्नेहगन्धयोः प्रक्षेपप्रतिक्षेपमात्र विशेषितास्त एव गुणाः । प्रपसु रूपरसस्पर्शी : शुक्लमधुरशीतःः । रसस्नेहगुरुत्वव्यतिरिक्तास्त एव तेजसः । अत्र रूपं शुकं भास्वरं च उष्ण एव स्पर्शः । वायोस्तु रूपद्रवत्वव्यतिरिक्तास्त एव गुणाः । स्पर्शाऽनुष्णाशीतोऽपाकजश्च । स्पर्शव्यतिरिक्तास्त एव मनतः । त एव परत्वापरत्वसंस्कारव्यतिरिक्ताः (१) शब्दसहाया विहायसः । दिवालयोश्च शब्दपरिहारेण (२) त एव भवन्ति । बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्मीधर्मसंस्कारस
१४६
विशेषगुणानाह । तत्र रूपमित्यादि । तत्र रूपरसस्पर्शी : स्वाश्रयव्यवच्छेदसमर्थवान्तरसामान्यवत्वेन विशेषगुणाः गन्धस्तु तदेकनियतत्वात् स्वरूपत एव । एवमेवाबादिष्वपि रूपादीनां विशेषगुणत्वं स्नेहसांसिद्धिकद्रवत्वशब्दबुद्ध्यादीनां तु स्वरूपत एवेति बेोद्धव्यम् । तत्र क्षित्युदकात्मानश्चतुर्दशगुणाः एकादशगुणं तेजः नवगुणा वायुः अष्टगुणं मनः षगुणं नभः पञ्चगुणैौ दिक्काला विति विवेक्तव्यम् ।
(१) विधुराः - पा. B . (२) प्रहाणेन - पा० B.
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सटीकताभिरक्षायाम গীকাল স্থলল জনি মানিয়াঃ ।
ননয় বাবাवत्वस्नेहवेगाः दश मूतैकगुणाः । बुद्ध्यादय आत्मविशेपगुणाः शब्दश्चेति दशाभूतैकगुणाः । इतरे तूभयगुणाः । रूपरलगन्धस्पर्शलेहसांसिद्धिकद्रवत्वबुद्ध्याবঃ মুনি লাভ নলিহ্ম্য : ৪ জনই ক্ষাगुणाः । संयोगविभागा द्वित्वद्विपृथकादयश्चानेकाश्चिताः । अन्ये त्वकैकवृत्तयः। केचन गुणा बाहीकै केन्द्रियग्राह्माः यथा पञ्चापि रूपादयः केचित्त बाहोन्द्रि
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____ अथैषां मिथः केषाञ्चित्साधय केभ्यश्च वैधयं चाह । ततश्चेति । वेगग्रहणं स्थितिस्थापकोपलक्षणम् । तयोः संस्कारात्मनैकत्वाद् शत्वाविरोधः । एकशब्देन मूतीमूर्तगुणव्युदासः । भूतत्वव्याप्यगुणत्वं वा मूर्तगुणत्वम् । एवं बुड्यादीनाममूर्तगुणत्वं नामामूर्तेकगुणत्वमभूर्तत्वव्याप्यगुणत्वं वा व्यावयं तु पूर्वकथितमेव । इतरे संख्यादय उभयगुणाः सूतामूर्तगुणाः द्रव्यत्वव्यापकगुणा इत्यर्थः । विशेषगुणा एव वैशेषिकगुणाः नवान्यतममात्रनिष्टत्वोचितावान्तरसामान्यवन्तः स्वाश्रयव्यवच्छेदसमी अवान्तरसामान्यवन्तो वेत्यर्थः । तद्रहिताः सामान्यगुणा इत्याशयेनाह । इतर इति । अनेकत्र व्यासज्यवृत्त्येकव्यक्तिका इत्यर्थः । आदिशब्दात् त्रित्वत्रिपृथत्तवादिसंग्रहः । एकैकवृत्तय इति । गुणत्वे सत्यव्यासज्यवृत्तय इत्यर्थः । बाझेकैकेन्द्रियग्राह्या इति।।
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प्रमेयप्रकरणे गुणनिरूपणम् ।
१५१
यद्वयग्राह्याः यथा संख्यापरिमाणपृथक्त संयोग विभागपरत्वापरत्वद्रवत्वलेह वेगाः । केचिदन्तःकरणग्राह्याः । यथा बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेष प्रयत्नाः । धर्मधर्मभावनागुरुत्वानि नित्यातीन्द्रियाणि । अत्र एकादश गुणाः कारगुणपूर्वकाः । यथाऽपाकजरूपरसगन्धस्पर्शपरिमाणैकत्येक पृथक्तगुरुत्वद्रवत्वस्त्रे हवेगाः । दश त्वनेवंविधाः बुद्ध्यादय श्रात्म विशेषगुणाः शब्दश्चेति । तूलपरिमा
narasaच्छेदार्थ बाह्यपदम् । अन्यथैकेन्द्रियग्राह्यत्वासम्भवात् । एकपदं हीन्द्रियग्राह्यनिरासार्थम् । तथापि परमाणुरूपादावव्याप्तेः तन्निष्ठगुणत्वावान्तरजातिमत्त्वेन नियात् । एवं हीन्द्रियग्राह्यत्वमपि निर्वक्तव्यम् अन्यथा परमाणुगतेष्वव्याप्तेः । अन्तःकरणग्राह्या इति । गुणत्वे सति aroorat इत्यर्थः । तेन सुखत्वादेबीन्द्रियग्राह्माणां च निरासः । नित्यातीन्द्रियाणीति । अस्मदादीन्द्रियग्रहणयोग्यतारहितानीत्यर्थः । भावनेति स्थितिस्थापकस्याप्युपलक्षणम् । कारणगुणपूर्वका इति । स्वसमवायिसमवायिकारणगुणा समवायिकारणका इत्यर्थः । अपाकजपदेन द्रवत्वमपि विशेषणीयम् पार्थिवपरमाणुगतरूपादिवत् पार्थिवतैजसपरमाणुगत नैमित्तिकद्रवत्वस्यापि व्यावर्तनीयत्वात् । वेगेन स्थितिस्थापकोऽप्युपलक्षणीयः तयोरप्य क्रियाजन्यत्वेन परिमाणस्य संख्या प्रचयाजन्यत्वेन च विशेषणात् तज्जन्येषु लक्ष्यबहिष्कारान्नाव्याप्तिदोषः । दश त्वनेवंविधा इति । अकारणगुणपूर्वका इत्यर्थः । एतच पाकजपरत्वापरत्वादीनामप्युपलक्षणम् । अन्यथा तेष्वेवा तिव्याप्तेः ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम
योत्तरसंयोगनैमित्तिकद्रवत्वपरत्वापरत्वापाकजाश्च संयोगजाः । संयोगविभाग वेगाः कर्मजाः । शब्दोंत्तरविभागौ विभागजी । परत्वापरत्वद्वित्वद्विपथक्कादयश्च बुद्ध्यपेक्षा : (१) तद्विनाशात् तद्विनाश ( २ ) इति । रूपादयः पञ्चापि भूतगुणाः । रूपरसगन्धस्पर्शशब्दपरिमाणैकत्वैकपृथक्त स्नेहाश्च समानजात्यारम्भकाः । सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्ना असमान
१५२
दशग्रहणं तु भाष्यकारीयकण्ठात्यभिप्रायमिति । संयोगजा इति । गुणत्वे सति संयोगासमवायिकारणका इत्यर्थः । कर्मजा इति । वेगेन स्थितिस्थापकोऽप्युपलक्ष्यते तावप्यकारणगुणपूर्वको संयोगविभागाव प्याद्यौ ग्रा । एवं विभागजत्वं च विभागासमवायिकारणत्वम् । शब्दोऽत्र शब्दसंयोगजन्यो विवक्षितः । बुद्धिरसाधारणनिमित्तत्वेनापेक्ष्यत इति बुद्धापेक्षा: अपेक्षा बुद्धिजन्या इत्यर्थः । रूपादयः पञ्चापीति । अपिशब्दाद् गुरुत्वद्रवत्वस्नेहकालकृतपरत्वापरत्वकारणगुणपूर्वक वेगस्थितिस्थापकानां संग्रहः । भूतगुणाः भूतैकगुणा इत्यर्थः । एतेनात्मविशेषगुणा नवाप्यभूतगुणाः शेषास्तु भूताभूतगुणा इत्यर्थात् सिद्धमिति बेोद्धव्यम् । रूपादयः स्नेहान्ताः समानजात्यारम्भका इति । सजातीयमात्रारम्भका इत्यर्थः । अन्यथा भयारम्भकेष्वतिव्याप्तेः । आरम्भकत्वं
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(१) अपेक्षा बुद्धिजन्या:- पा. D पु.
(२) तद्विनाशविनाशिन:- पा. B पु· ।
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प्रमेयप्रकरण गुणनिरूपणम् ।
जात्यारम्भकाः । संयोगविभागसंख्या गुरुत्वद्रवत्वोष्णस्पर्शस्नेहज्ञानधर्माधर्मसंस्काराः समानासमानजात्यारम्भकाः । बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषभावनाशब्दाः स्वाश्रयसमत्रेतारम्भकाः । रूपरसगन्धस्पर्शपरिमाण स्नेह प्रयत्नाः परत्रारम्भकाः । संयोग विभागसंख्ये कत्वैकपृथक्त गुरुत्वद्रवत्वस्नेह वेगधर्माधर्मास्तूभयत्रारम्भकाः । गुरुत्वद्रचात्रेोपादानेतरकारणत्वमसमवायिकारणत्वं वेत्ति इयमपि विवक्षितम् । तत्राद्ये स्नेहोष्णस्पर्शवर्जितानामेवेदं साधर्म्यम् तयोः संग्रहरूपादे र्विजातीयस्याप्यारम्भकत्वात् । अत्रानुष्णेति निषेधः स्नेहस्याप्युपलक्षणम् (!) । एतच्चात्मधर्मेतर कार्यविषयमिति ज्ञेयम् । द्वितीये तु तयोरप्यवर्जनमिति विवेकः । सुखादयो विजातीयमात्रारम्भकाः संयोगादयस्तु भयारम्भकाः तत्र स्नेहोऽपि ग्राह्यः । आरम्भकत्वं चात्र सर्वत्राप्युपादानंतर कारणत्वमेव । स्वाश्रयसमवेतारम्भका इति । स्वाश्रयमात्रसमवेतबुझपेक्षेतर कार्यारम्भकनिष्ठगुणत्वव्याप्यजातिमन्त इत्यर्थः । एवं चापेक्षा बुडावन्त्यशब्दे च नाव्याप्तिः । परत्रारम्भका इति । परत्रैवारम्भका इत्यर्थः । ते व संग्रहज्ञानादृषृतरस्वाश्रयसमवेतानारम्भकत्वे सत्यारम्भका इति निवीच्याः । तेन स्नेहवैधप्रयत्नादौ नाव्याप्तिः । परिमाणस्यारम्भकत्वेन विशेषणान्नानारम्भकेष्वव्याप्तिरिति । उभयत्रारम्भका इति । एकत्रैवारम्भकत्वे सत्यारम्भका इत्यर्थः । अत्र वेगेन स्थितिस्थापकोऽपि ग्राह्यः स्नेहस्य संग्रहातिरिक्त कार्यपेक्षया पूर्व परत्रारम्भकेषु संग्रहः इदानीं तदपेक्षयेोभयत्रारम्भकेषु ग्रहणमित्यविरोधः । गुरुत्वेत्यादि ।
પુરા
१५३
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१५४
सटीकतार्किकरतायाम् वत्ववेगप्रयत्नधर्माधर्मसंयोगविशेषाः क्रियाहेतवः ।
শ্রয়দৰিখাৰীক্ষা - ফাযিাখালি। লম্বালমিথা। লিলিক্ষাरणानि । संयोगविभागोष्णस्पर्शगुरुत्वद्वत्ववेगास्तूमयकारणानि । परत्वापरत्वद्वित्वद्विपृथवादीनि श्रकारणानि । संयोगविभागशब्दाः आत्मविशेषगुणाश्च प्रदेशवृत्तयः । शेषाः स्वायव्यापिनः । अपाकजरूঅালমৰিশ্ৰহ্মঘান্দ্রাফিद्धिकद्रवत्वानि यावद्व्यभावीनि। शेषास्त्वयावद
वेगेन स्थितिस्थापको ग्राह्यः । संयोगविशेषो नोदनाभिघाताख्यः । क्रियाहेतव इति । उपादानेतरत्वे सति क्रियां प्रत्यसाधारणकारणानीत्यर्थः । रूपेत्यादि । उष्णस्पर्शस्य पाकजोत्पत्तौ निमित्तत्वात् तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तमनुष्णेति । परिमाणं चात्र द्रव्यारम्भकद्रव्यनिष्ठमहत्वं विवक्षितं तेनाण्वाकाशान्त्यावयविपरिमाणबहिष्कारः एतेषामसमवायिकारणत्वमेवेत्यर्थः। तच निमित्तोपादानत्वासहचरितकारणत्वं स्नेहादीनां च संग्रहादिनिमित्तत्वे ऽपि तयतिरिक्तकार्यापेक्षया चेदमवधारणमित्यदोषः। नवेति। निमित्तत्त्वमेवेत्यर्थः तत्र समवाय्यसमवायित्वासहचरितकारणत्वम् । उभयथाकारणत्वं च निमित्तासमवायिव्यतिरिक्तत्वानधिकरणत्वम् । ज्ञानेतरकार्याजनकत्वमकारणत्वम् । स्वात्यन्ताभावसमानाधिकरणत्वं प्रदेशवृत्तित्वम् । तद्वैपरीत्यमेव स्वाश्रयव्यापित्वम् । यावद्व्यभावीन्याश्रयविनाशैकविनाश्यानीत्यर्थः । स्वाश्रये सत्येव विनाशि
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লম্বন্ধ নিব।
१५५ व्यभाविन इति।
कथं पार्थिवद्रव्ये पाकजगुणात्पत्तिप्रकार इति चेदित्यम् । श्यामस्य घटायामद्रव्यस्य दहनस
শ্রী নলিঘানাল্লীলা না অন্যান্য कमात्पत्ती तेषां विभागेन संयोगनाशे सति कार्यगव्यं विनश्यति । ततस्तत्परमाणुषु चोष्ण्यापेक्षाहहলঞ্চঘালানিমিলায় স্বনি কলিयोगात्(१) पाकजाः परमाणुषु रक्तादया जायन्ते । तदनन्तरमदूष्टवदात्मसंयोगात् तेषु कमौत्पत्तौ तेषां परस्परसंयोगाद् दाणुकादिप्रक्रमेणात्पत्तो कार्य कात्वमयावहव्यभावित्वमिति ।। इति साधर्म्यम् ॥
अथायावद्रव्यभाविप्रसङ्गात् पाकजोत्पतिप्रकारं वक्तुं पृच्छति । कथमिति । अवस्थित एव कार्यद्रव्ये तत्रैवामिसंयोगात् श्यामादयो नश्यन्ति रक्तादय उत्पद्यन्ते इति मीमांसकादयः। प्राभाकरास्तु रूपादीनां सामान्यवनित्यतया तत्सम्बन्धानामेवाग्निसंयोगाद् विनाशोत्पादाविति वर्णयन्ति । तदुभयमप्यसहमानः पीलुपाकवाद्याह । इत्थमिति। नोदनाभिघाता संयोगविशेष निगव्याख्यातमन्यत् । नन्वस्मिन् पक्ष पूर्वपरिमाणावरणावधारणरेखोपरेखादिविन्यासादितावस्थ्यं नोपपद्यते इत्याशय क्रमात् कतीनामेवावयनामनतिदूरविशिलानां पुनर्सटिति घटनान्न किज्जिदनुपपन्नमित्यादि सर्वमन्यत्र द्रव्य
(१) दहनसम्बन्धात-पा• B पुः ।
પદ
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१५६
सटीकतार्किकरक्षायाम रणगुणप्रक्रमेण रक्तादिगुणात्पत्तिरिति कृतं विस्तरेण ॥
সুত্ব ফল যায় । कर्म चासमवायि स्याद्यत्संयोगविभागयोः।
समुच्चितयोः संयोगविभागयोरसमवायिकारणं कर्म तेनैकत्र कारणयोः संयोगविभागयोनातिव्याग्निः।
লম্বাবিলাযা অ লাহিজ্জাহ্ম সন্যা (৭)। द्विविधा च प्रत्यासत्तिः । समवायिकारणसमवेतमित्याशयेनाह । इति कृतमिति । प्रक्रिया तु विस्तरभयान्न लिख्यते । प्रमाणं तु पीलुपाके विमताः पिठरे रूपादयः कारणगुणपूर्वका अवयविरूपादित्वात् पटरूपादिवदित्याधुन्नेयम् । इति पाकजोत्पत्तिः ॥
सामान्यवत्सु शिकृत्वात् सामान्यादेः प्राकर्मलक्षणमाह। अथेति । ननु संयोगविभागयोरसमवाय्यसमवेतमित्यर्थश्चेत् सामान्यादावतिव्याप्तिः असमवायिकारणमित्यर्थश्चेत् संयोगविभागयोरपि तथात्वात् तयोरेवातिव्याप्तिरित्याशय व्याचले । समुचितयोरिति । समुच्चयफलमाहै । तेनेति । संयोगस्य विभागाजनकत्वे सति संयोगजनकत्वं विभागस्यापि संयोगाजनकत्वे सति विभागजनकत्वं कर्मणां तूभयजनकत्वमिति भेद इति भावः । एवं कर्मलक्षणस्यासमवायिकारणज्ञानसापेक्षत्वात् तल्लक्षणं चाह । असमवायिकारणं चेति । कथञ्चित् प्रत्यासन्नेषु अादिध्वतिव्याप्तिपरिहारार्थ विशेषमाह । विविधेति । समवा. (१) अवधृतसामर्थ्य-इयधिकं B पुः ।
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प्रमेयप्रकरणे कर्मनिरूपणम् ।
१५७ त्वं तत्कारणसमवेतत्वं च । तत्रानं यथा पटस्य तन्तुद्वयसंयोगः। द्वितीयं तु पटगताकल्यस्य तन्तुगतं शाकल्यमिति । तदुक्तम् । एकद्रव्यमगुणं संयोगविমাশীল'দ্য জাগালিনি লালু।
कानि काणि कियन्ति चेत्याह । उतक्षेपणमपक्षेप आकुञ्चनमथापरम् ॥ ५० ॥ प्रसारण गतिशूचेति भिदाते कर्म पञ्चधा।
तदुक्तम् । उत्क्षेपणापक्षेपणाकुचन प्रसारणगमनानि कर्माणीति ॥ ५० ॥ ७ ॥ यिकारणसमवेतत्वामिति । कार्यस्य यत् समवाथिकारण तत्रैव समवेतत्वं कार्यैकार्थप्रत्यासत्तिरिति यावत् । तत्कारणसमवेतत्वमिति । तस्य कार्यसमवाथिकारणस्य यत्कारणं समवायिकारणं तत्समवेतत्वं कारणैकार्थप्रत्यासत्तिरिति यावत् । क्रमेणादाहरति । यथेत्यादि । एवमपि तन्तुरूपस्य पटं प्रत्यसमवायिकारणत्वं स्यात् कार्यैकार्थप्रत्यासत्तिभावात् तनिवारणार्थमवधृतसामर्थ्य मिति विशेषणीयम् । अथ कर्मलक्षणे सूत्रसम्मतिमाह । तदुक्तमिति । एकद्रव्यमुपादानतया यस्येत्येकद्रव्यमिति गुणान्यता व्यवच्छेदः गुणा न भवतीत्यगुणमिति गुणाच व्यवच्छेदः । आर्ष नपुंसकत्वम् । एतावदेक लक्षणं शेषमन्यत् । तदेव स्वोक्तलक्षणसमानार्थ चेति भावः । अनपेक्षत्वं चास्य पश्चादाविभावरूपकारणानपेक्षत्वम ।
ननु कर्मप्रस्ताव का सङ्गतिरुत्क्षेपणादिनिरूपणस्यत्याशङ्याह । कानीति ॥५०॥ ७ ॥
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१५
तेषां विशेषलक्षणमाह । ऊर्ध्वं चाधश्चाभिमुखं तिर्यग्विष्वगिति क्र
मात् ॥ ५१ ॥
तानि पञ्चापि कर्मणि देशसंयोग हेतवः ।
ऊर्ध्वादिदेश संयोगासमवायिकारणत्वं (१) यथा संख्यमुत्क्षेपणादिलक्षणम् । विष्वगित्यनियतदेशविशेषमित्यर्थः । अत्र गमनग्रहणेन भ्रमणरेचनस्पन्द
नार्ध्वज्वलनतिर्यक्पवननमनोलमनानि सङ्गृह्यन्ते
॥ ५१ ॥ ऽऽ ॥
सटीकतार्किकरक्षायाम्
५७३
अथ जाति: ( ) ॥
कर्मलक्षणस्योक्तत्वात् पैौनरुक्त्यमाशङ्क्याह । तेषां
विशेषेति ।
नवी दिदेशसंयोगहेतुत्वं समवायिनिमित्तयोरतिव्याप्तमित्याशङ्क्य हेतुशब्देना समवायिकारणत्वस्य विवक्षितत्वान्नैष दोष इति व्याचष्टे । उर्ध्वादीति । ऊर्ध्वदेशसंयोगासमवायिकारणमुत्क्षेपणम् । अधोदेश संयोगासमवायिकारणमपक्षेपणमित्यादि याज्यमित्यर्थः । ननु भ्रमणादिभिरतिरेकात् कथं पञ्चैवेत्यवधारणमित्याशड्याह । अत्र गमनेति । तेषामप्यनियत दिग्देश विशेषसंयोग हेतुत्वविशेषाद्गमनान्तर्भावान्नातिरेक इति भावः ॥ ५१ ॥ ऽऽ ॥
अथ निःसामान्येषु बहाश्रयत्वात् तावज्जातिर्लक्ष्य इत्याशयेनाह । अथेति । अत्र मध्ये तिङन्तप्रयो(१) उर्ध्वादिदेशैर्द्रव्यसंयोगस्यासमवायिकारणत्वं - पा. B पु. ! (२) अथ सामान्यमाह - पा: B पु. ।
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স্বাস্বা লিজ হত্যাৰাত্ৰি ৷৷ ৪২ | লিলস্বা যি ঘাঙ্গালি: লিলিহজ ব্যায়ালাবাল ফায়াজাল
মাশ্রী হল । লম্বাশ্রীর মালিলক্ষ্ম জন্ম কাক্লিস্য বিষয়ু পদ । লিলিকাশ্রীশ্রী লিলাবদ্ধqায়ানগালাজি ম হভাজঁ মূহ্যানিন সু ॥ ২॥ | মিক্স অনি।
লালিঙ্কলিনু বিদ্যায় ভুনি নি। | জামিল আত্ম যাবি জাশিল্পা শিল্পকাহ্মনযিনি । সুললি না।
আলালসহ্মনিাজানিবলু। না জানিন । : ললনা মিয়া - আমা: নাহ্মা নি সুখলালাখালীজান অন্ধাক্স তাজম হাজৰিকাশ তা। লিলিলি। ।
সখা দ্বিাৰা ৰিদ্ধাৰ সম হত্যানা। মিতালিল। | জালালিলি ফুলঅলক্ষ্ম দু লুলयमपि व्यावर्तकमिति भावः । अथ व्युत्पत्यतिशयार्थ किरणावलीकारोक्तलक्षणं पदप्रयोजनं चाह । | (৫) লিমন্দ স্ব-যা B । (২) অন-য C ।
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सटीकताळिकरक्षायाम
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दासः(१) । स्वरूपसन्त इति सत्तासमवायेन सतां द्रव्यगुणकर्मणामिति । समानजातीयाः समानगुणकाः परमाणावा मुक्तात्मानश्च परस्परव्यावर्तकधर्मसमवायिनः द्रव्यत्वाद् घटवदित्यनुमानाद् विशेषसिद्धिरिति ॥
লাঙ্গল গল ।
समवायस्तु सम्बन्धो नित्यः स्यादेक एव | सः(२) ॥ ५३ ॥
नित्य इति संयोगादेयंदासः । सम्बन्ध इति नित्याकाशादेः । न च नित्यविभूनां संयोगैरतिव्याप्तिः संयोगहेतूनामन्यतरकमाभयकर्मणामसम्भवेन तेषां एकद्रव्या इत्यादि । विप्रतिपन्नत्वाद् विशेषसद्भावे प्रमाण चाह । समानजातीया इत्यादिना । अन्न पक्षाविशेषणैः जात्यादिना अर्थान्तरत्वनिरासः । एतेन व्यावर्तकधर्ममानसिद्धौ ते च सम्प्रतिपन्नजात्यादिव्यतिरिक्ताः तदात्मकत्वे बाधकोपपन्नधर्मत्वाद् व्यतिरेकेण जात्यादिधर्मवदिति परिशेषाद् विशेषसिद्धिरित्यर्थः ।।
अथ परिशेषात्(३) समवायो लक्ष्यत इत्याह । समवायस्त्विति। विभवो नित्यसंयुक्ताः। कदाचिन्न विभज्यन्ते चेति केचित् । तथा च तेष्वतिव्याप्तिरित्याशय तेषामेवाभावान्नैष दोष इत्याह । न चेति । संयोगाभावे कारणमाह । संयोगहेतूनामिति । तदसम्भवश्च तेषां
(१) व्यवच्छेदः-पा• B घुः । (२) एव तु-पा• A पु. । (३) अथार्थान्तरत्वरिशेषात-पा. F पु.।
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५७४
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प्रमेयाप्रकरणे समकार्यानरूपणम् । संयोगस्यैवाभावात् । एक एवायं समवायः । सत्तासामान्यवत् तत्सम्बन्धिभेदाढेदेन व्यपदिश्यत इति । सनं तु इहेति यतः कार्यकारणयोः स समवाय इति ।
कार्यकारणयोरित्ययुतसिद्धयोरुपलक्षणम् । तेनाকি যা আজমিলা আনয্যি লাঃ কি আদ্ধিजातिव्यत्तयाविशेषतद्वताश्च योऽयमिह तन्तषु (इत्यादिरिह प्रत्ययो भवति स समवाय इति सूत्रा
अयुतसिद्धयोरिति युतसिद्धकुण्डरदरादिसंयोगনিভিক্ষাগ্নিহলানি স্বাক্স। সম্মা ল संयोगव्यवहारदर्शनानाजः संयोगोऽस्तीति भावः । ननु विभवो मिथः संयुज्यन्ते द्रव्यत्वात् सम्मतवदिति तत्सिडिरिति चेन्न युलसिद्धेस्तत्रोपाधित्वात् प्रकृते तदभावादिति सक्षेपः । विस्तरस्तु निकषे द्रव्यः । श्लोकशेष व्याचष्टे । एक एवेति । ननु घटसमवायः पटसमवाय इति भेदव्यवहारदर्शनात् समवायो नानेति प्राभाकरास्तान प्रत्याह । सत्तोति । घटसत्ता पटसत्तेत्यादिवदापाधिक इत्यर्थः । अन्न सौन्त्रं लक्षणं(९) चाह । सूत्रं विति। ननु कार्यकारणयोरेव समवायश्चेत् कथमस्य पञ्चपदार्थवृत्तित्वमित्याशा व्याचष्टे । अति । उपलक्षणफलाभिधानपूवकं लक्षणं निष्कृष्याह । तेनेत्यादि । अयुतसिद्धयोरिहप्रत्ययहेतुः सम्बन्धः समवाय इत्यर्थः । अत्र सम्बन्धपदेन अादिहेत्वन्तरब्युदासः । तथा कार्यकारणभावादीना
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(१) मनातं लक्षण-पा. E पुः ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम व्युदासः । इहेति चायुतसिद्धयोरेव कार्यकारणभावादिसम्बन्यो व्युदस्यते। युतसिद्धिः पृथसिद्धिः सा चासम्बद्धयोर्विदा मानतेत्युक्तम् । तदभावोऽयुतसिद्धिः । স্থান অক্ষ যাত্ম আ: গঞ্জি সুহ্মনজ্বালানি ও মৎস্য বিজ্ঞ স্বল স্বত্ব গ্রা
तमित्यर्थः । इह गवि गत्वमिति प्रत्ययोऽधि মাথিন জলিল: মাখিল হয় दिह कुण्डे वदणीतिप्रत्ययवदित्यनुमानात् । वायसिद्धिरिति ॥ ५३ ॥
एवं लक्षिता षट्पदार्थी एतल्याने भावात्मक मपि मुख्यार्थवृत्तिना तेनैव व्युदासादिहेत्यादिविशेषणं व्यर्थमेव तथापि स्पार्थमुक्तमिति द्रव्यम् । युतसिद्धिपदार्थाभिधानपूर्वकमयुतसिद्धिपदार्थमाह । अयुतसिद्धिरित्यादि । मिथ आश्रयायिभावनियमानपेक्षसत्ताकत्वं युतसिद्धिः तत्सापेक्षसत्ताकत्वमयुतसिद्धिरिति पीडार्थः(१) । सूत्रे तत्त्वशब्देन बुद्धिस्थमेकत्वं पराश्यत इत्याह । तत्त्वमेकत्वमिति । सत्तया व्याख्यातमिति । यथैकापि सत्ता सम्बन्धिभेदाङ्देन व्यपदिश्यते तद्वत् समवायोऽपोत्यर्थः । अनुपदमेवोक्तं चैतदिति भावः । अथेहप्रत्ययं प्रमाणपरत्वेनापि व्याचष्टे । इह गवि गोत्वमित्यादि । भ्रान्तेहप्रत्ययव्यभिचारनिवारणार्थमबाधितेत्युक्तम् । घटादिप्रत्ययव्युदासार्थमिहेति विशेषणम् ॥ ५३ ॥
प्रासङ्गिक निगमयति । एवमिति । ननु षडेवेति(१) पदार्थ इति क्वचित् ।
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प्रमेयप्रकरणे समवायनिरूपणम् ।
५६३
विश्वमन्तर्भवति (१) । भावव्यतिरिक्तोऽभाव इति तेन सह सप्तैव पदार्थ इति नियम: (२) । कौमारिलास्तु सूपान्यान्तानेव चतुरः पदार्थानुररीकृत्य विशेष अवायं चापलपन्तीत्याह ।
युत विशेषसमवायैौ है। नाङ्गीचक्रुः कुमारिलाः । बता प्राभाकरास्तु विशेषमवजानते प्रतिजानते पट रतिसंख्यासादृश्यादयः पृथक् पदार्थ इत्याह । यञ्चाथान गुरवः प्राहुर्विशेषेण विवर्जितान् ॥५४॥
नियमः कथमित्याशय किं न्यूनत्वादनियमः आधिक्याद्वा । नायः पण्णां साधितत्वादित्यर्थः । न द्वितीयः भावस्याधिक्यासम्भवादित्याह । एतस्यामेवेति । अभावाधिक्यं वेदिष्टमेवेत्याह । भावव्यतिरिक्त इति । अभावस्तु भावव्यतिरिक्त इति हेतास्तेनैव पदार्थ तिरेको न तु भावान्तरेण स चेट एवेति षडेव पदार्थ इति नियमसिद्धिरित्यन्वयार्थभिप्रायः । षडेवेत्यवधारणं न्यूनाधिकसंख्याव्यवच्छेदार्थमित्युक्तम् ॥
तत्र न्यून संख्यायाः कुतः प्रसक्तिरित्यत उक्त संग्रहे विशेषेत्यादि । तच गुरुमतवत् केषादिदावापोऽपि स्थादित्याह । अनादिकारणेषु घटपटादिकार्य जननानुकूलाः शक्तयोऽतीन्द्रियाः नित्याः सर्वत्रैकजातिवत् प्रत्येकपरिसमाप्ताश्च संख्या चैकत्वद्वित्वाद्यनेकरूपा सर्वत्रैकैका
(१) विश्वमपि जगदन्तर्भवति - पा· Bपु· | (२) इति स्थिति:-पा. B. 1
-No. 10, Vol. XXII.-October, 1900.
४२५
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
तदेतद्द्द्वयं वार्तम्() । विशेषसमवाययेोः समर्थनात् (२) । स्वरूपसहकारिव्यतिरेकेण शकेरभावात् । गुणगणनायामन्तर्भावात् सामान्य व
संख्याया
सादृश्यस्यान्तर्भावाञ्च । यथाहुः ।
૧૯૪
नित्या व जातिवत् प्रत्येकपरिसमाप्तिशक्तिवत् स्वातिरिक्त सप्तपदार्थवृतिरपेक्षा बुद्धिव्यया उत्पादविनाशौ तु शक्तिवदेव तत्समवायानामेव न सङ्ख्याया इति । सादृश्यं तु सदृशबुद्धिषेचं द्रव्यगुणकर्मवृत्सित्वात् ततोन्यदनुवृत्तिबुद्ध्यविषयत्वादसम्बन्धरूपत्वाच्च समवायातिरिक्तं पृथगेवेति तेषां मतम् । अत्र सादृश्यादय इत्यादिशन्द: प्रामादिकः अष्टपदार्थवादिभिस्तैः शतपादित्रयादन्यस्यादिशब्दग्राह्यस्यानभिधानात् यथोक्तं प्रमेयपरायणे द्रव्यगुणकर्मसामान्यशक्ति सङ्ख्या सादृश्यसमवाया अष्टौ पदार्थ इति । तथाग्रेलरग्रन्थे तावत एव पार्थक्यनिरासाचेत्यास्तां तावत् ॥
तदिदं मतद्वयमयुक्तमित्याह । तदेतदिति । वार्त्त फल्गु निःसारमयुक्तमिति यावत् । वार्त्त फल्गुन्यरोगे चेत्यमरः । तत्र न्यूनत्वशङ्का दत्तोत्तरेत्याह । विशेषेति । आधिक्यशङ्कां च सङ्कोचयति । स्वरूपेति । मृदादिकारणस्वरूपसह का रिसाकल्यातिरिक्त शक्तिपदार्थसद्भावे प्रमाणाभाव इत्यर्थः । सख्याया इति द्रव्यगताया इति शेषः । गुणादिगतत्वारोपितेति भावः ।
६२६
(१) ऋयुक्तम्- प्रा. B पु. (२) सर्मार्थतत्वात् - पा· B
पु.
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संशर्यानरूपणम् ।
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স্বালা বুলুলি বাৰহ্মা ।। भिन्नप्रधानसामान्यवर्ति सादृश्यमुच्यते॥ इति ॥५४॥
एवं प्रमेयप्रसङ्गात् पदार्थषटू लक्षयित्वा प्रकृसमेवानुक्रम्य १) संशयलक्षणमाह । संशयः कथितो ज्ञानमवधारणवर्जितम् ।
লঘাম যা : হাই জানি।
सामग्रीभेदेन संशयविध्यमाह। समानानेकधमाभ्यां विमतेश्च तदडवः ॥ ५५ ॥
স্বলজ্বলন্সল ফলাখাৰী। অলঃ স্বঃ सामान्यानीति । गोसहशोर गवय इत्यत्र यानि गवि गुणावयवकर्मसामान्यानि तान्येव भूयांसि गवये दृश्यमानानि गोसादृश्यमित्युत्तमित्यर्थः । नन्वेतद्वान्तरे ऽपि समानमत आह। भिन्नति । भिन्नं गोत्वादन्यत् प्रधानसामान्य गवयत्वरूपं यस्य पिण्डस्य तस्मिन् वर्तमानमित्यर्थः । इति प्रमेयपदार्थः ॥ ५४ ॥
ननु षट्पदार्थनिरूपणानन्तर्य कथं संशयस्य प्रमेयानन्तरोहित्येत्याशझ्याह । एवं प्रमेयेति । _ अवधारणजितमित्यस्यार्थमाह । अनवधारणात्मक
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ननूत्तरा? कारणभेदकथनस्य किं प्रयोजनमत आह । सामग्रीति।
इन्धान्ते श्रुतस्य धर्मशब्दस्य प्रत्येकसम्बन्धनासङ्ग्रह व्याचष्टे । समानधर्म इति । अनेकधर्म इत्यत्रानेकेषां धर्म
(१) मेधोपसङ्कभ्य-पा• B घुः ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम् साधारणः अनेकाऽसाधारणः । अनेको धर्मः एकस्यैवासाधारणा धर्म इति यावत् । विमतिर्वादिविप्रतिपत्तिः । एतस्मात् कारणत्रयात् परस्परविरुद्धारीप्यविशेषस्मरणसापेक्षादन्यतरकोटिनिर्णायकप्रमाणवैधुर्य सति यथायथं संशयो भवति । तत्रादयो यथा হালুষাঙ্খাদ্যনালিল হয় দুলা ননি। লিনী আম্মা জুগ্রিমী লিলিत्या वेति । तृतीयस्तु भौतिकाहारिकत्वेन सांख्यवैशेषिकविप्रतिपत्तेः किंप्रकृतीनीन्द्रिया(गीति । - इति षष्ठीसमासे पूर्वाभेदेन पोनरुत्यादश्रुतसम्बन्धलक्षणाषाच निषादस्थपतिवत् कर्मधारय एवेति व्याचष्टे । अनेकोऽसाधारण इति । सामर्थ्यलभ्यं धर्मिणमाह । एकस्यैवेति । एवं पदार्थ मुत्तवा कारणान्तराणि समुचिन्वन वाक्यार्थमाह । एतस्मादिति । विरुद्धारोप्यविशेषः स्थाणुत्वपुरुषत्वनित्यत्वानित्यत्वादयः तेषां स्मरणमित्यग्रहणस्याप्युपलक्षणम् । निर्णायकप्रमाणं वक्रकोटरादिशिरःपाण्यादिबन्धवत्त्वादिति अनित्यव्यावृत्तनिरवयवत्वादिधर्मकस्याकाशादेनित्यत्वं दृएं तथा नित्यव्यावृत्तसावयवत्वादिधर्मकस्य घणुकादेरनित्यत्वं च दृष्टम् गन्धस्तूभयव्यावृत्तधर्मत्वाकुभयरूपतां पृथिव्याः सम्पादयन् नित्यानित्या वेत्यनवधारणज्ञानं कोटीत्यर्थः । भौतिकानीति वैशेषिकाः । आहङ्कारिकाणीति सांख्याः । ननु यथा संख्यं पाठक्रमादर्थक्रमस्य बलीयस्त्वादिति विप्रतिपत्ते
(२) किंप्रकृतिकानीन्द्रिया-पा. B पुः ।
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संशर्यानरूपणम् । ঙ্ঘিামীঘি অন্ধ জাফিन्ति । यथा कूपखननानन्तरमुदकमुपलभ्य किं पूर्व सदेवोदकमिदानीमभिव्यक्तमुपलभ्यते किंवा पूर्वमसदेव खननव्यापारजनितमुपलभ्यत इत्युपलब्धः संস্মথ।
জ্জি বল্লম ফি লালন দ্ধি লাশল্লিনি । হা লালালালাবাজান আদিহ্মক্ষায়: । নাড়ি দুই জন ক্ষিঙ্গিस्कनचिनापारणाभिव्यक्तमुपलभ्यते । यथा प्रदीपारोपेण न घट:(९) किचासदेव जातमुपलभ्यते । অত্যা সুজ্জালা শিশ্রাথৰালৰ দ ন নাঃ খাযীলাতলি বাল লম্বা লম: সলুচ্ছি সুনারি সন্ধ্যাৰীলাকাশনা জ স্লামুविषाणादीनां च दृश्यत इत्यत्रापि समानधर्मादेव संशयः । अत्र सूत्रम् । समानानेकधापपन्तर्विप्रतिरिति संशयः स्यात् तटस्थस्येति शेषः। किंप्रकृतिकानीति भूतप्रकृतिकान्यहचारप्रकृतिकानि वेत्यर्थः । अथ भासर्वज्ञाय संशयपाविध्य कतुमनुवति । केचित्विति ।। क्रमाझेदवयं चोदाहरातिथियेत्यादि । तदेतद्वृद्धव प्रत्याख्यातमित्याह । अनयोरिति । अन्तर्भावप्रकारं प्रपञ्चयति । तथाहोत्यादि । उपलब्ध्यनुपलब्ध्याः सदसत्साधारणधर्मत्वात् समानधर्मान्तर्भाव इत्यर्थः । अत्र स्वाक्तत्रविध्ये सूत्रसम्मतिमाह । अन्न सूत्रमिति । हन्त सूत्रे पाच
(१) प्रदीपारोपयोरघटः-- पा. C पुः ।
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१६८
सटीकतार्किकरक्षायाम
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पत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षा वि. मर्षः संशय इति । अत्रोपलब्ध्यनुपलब्धिशब्दाभ्यां साधकबाधकप्रमाणयोहण(१) तयारव्यवस्था अभाव: तस्मिन् सति विशेषस्मरणापेक्षः समानानेकधर्मविप्रतिपत्तिभ्यः संशया भवतीति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥
प्रयोजनलक्षणमाह । यदुद्दिश्य प्रवर्तन्ते पुरुषास्तत् प्रयोजनम् । __ उद्देश्य प्रयोजनम् । तदुक्तम् यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत् प्रयोजनमिति।
दृष्टान्तलक्षणमाह । व्याप्तिसंवेदनस्थानं दृष्टान्त इति गीयते ॥५६॥ सच साधर्म्यवैधय॑भेदेन द्विविधा भवेत् ।
व्याप्तिग्रहणभूमिर्दृष्टान्त इति । स च द्विविधः ।। विध्यं प्रतीयत इत्याशय वैविध्यपरतया व्याचष्टे । अ
ति । साधकबाधकप्रमाणाभावसहकृताद विशेषाग्रहणं तत्स्मरणसव्यपेक्षात् समानधर्मादिकारणत्रयादेव संशयो जायते एतत्वैविध्यपरमेव सूत्रमित्यर्थः । इति संशयपदार्थः ॥ ५५॥
यदुद्दिश्येति । प्रेक्षावत्प्रवृत्तिफलं प्रयोजनम् । यागादिप्रवृत्तः स्वर्गादि कृष्यादिप्रवृत्तः प्रसवादिकं चेत्यर्थः । अधिकृत्य विषयीकृत्यादिश्येति यावत् । उद्देशोऽभिसन्धिः । इति प्रयोजनपदार्थः ।।
(१) सपादानम्-पा• B पु.। ।
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प्रयोजनदृष्टान्तनिरूपणम् ।
साधर्म्यवैधर्म्यभेदात् । तत्र साधनधर्मप्रयुक्तसाध्यधर्मवान् साधर्म्यदृष्टान्तः । यथा कृतकत्वेन शब्दानित्यत्वसाधने चटः । साध्यधर्मनिवृत्तिप्रयुक्तसाधनधर्मनिवृत्तिमान् वैधर्म्यदृष्टान्तः । यथा तत्रैवाकाशः । तदुक्तम् । लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्त इति । अत्र लौकिका वैदिकबुद्धिविरहिणः प्रमाणतकाभ्यामर्थपरीक्षणक्षमाः परीक्षकाः तेषामुभयेषामपि बुद्धिसम्प्रतिपत्तिर्यत्रास्ति स दृष्टान्तः । सर्वेषां सम्प्रतिपत्तिविषय इति यावत् । अत्र वादिप्रविवादिनेोः सम्प्रतिपन्तौ तात्पर्यमिति ॥ ५६ ॥ 55 ॥
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सादृान्तस्य विवक्षितं लक्षणमुदाहरणं चाह । तत्रेति । वैधदृष्टान्तस्याप्याह । साध्यधर्मनिवृत्तीति । aa or feaपरीक्षकाणां को विशेषः उभयेषां लौकिकसिद्धत्वाविशेषादित्याशङ्क्य भेदमाह । लौकिका इति । वैदिकवुद्धिविरहिण इति किं तु लौकिकव्यवहारमा
कुशला इत्यर्थः । बुडिसाम्यं ( () बुद्धित्वजातिरिति शङ्कां वारयति । बुद्धिसम्प्रतिपत्तिरिति । एतत्कोटिद्वयोपादानं सर्वोपलक्षणं काव्यन्तरपर्युदासपरं तदसम्भवादित्याह । सर्वेषामिति । तर्हि कुत्रापि सर्वसम्प्रतिपत्त्यसम्भवाद् दृष्टान्तासिद्धिरित्याशङ्कयाह । वादिप्रतिवादिनेोरिति । तत्सम्प्रतिपत्ती सर्वसम्प्रतिपत्तिः स्यादेवेति भावः । इति दृष्टान्तपदार्थः ॥ ५३ ॥ ss ॥
(१) बुद्धिमामान्यं - पा. E. |
८३१
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सटीकतार्किकरक्षायाम सिद्धान्तलक्षणं तदबान्तर विधाश्च दर्शयति । अभ्युपेतः प्रमाणैः स्यादाभिमानिकसिद्धिभिः॥५॥ सिद्धान्तः सर्वतन्त्रादिभेदात् सोऽपि चतुर्विधः । | লি: সু জানি লক্ষাবি ) সুম্মা तु नित्य इति । तत्र प्रमाणैरभ्युपगतः सिद्धान्त इत्युक्त ऽन्यतरस्य सिद्धान्तता न स्यात् । वस्तुना द्वैरूप्यासम्भवेनाभयोरपि प्रमाणमूलत्वासम्भवादत उन्क्तम् । সিক্সালিহ্মবিরলিখিনি। নাবিলা কালঘালু লালিল লিনকিন ল র ননঃ সায়াत्वमित्यर्थः । तदुक्तम् । तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थिा
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| ভাৰাক্ষ নষ্পত্তিাহী ন্যাपयोगादानर्थ क्यमाशाह । सिद्धान्तेति । आभिमानिकसिद्धिभिरिति । अभिमानमात्रसिद्धप्रमाणभावैरित्यर्थः ।
एतविशेषणप्रयोजनमाह । अनित्य इत्यादि । अन्यतरस्य सिद्धान्तता न स्यादिति। सिद्धान्तलक्षणाभावाव्यातिस्यादित्यर्थः। तत्र हेतुमाहातदुक्तमिति। तत्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थितिरिति । तन्नं शास्त्रमाधिकरणमाश्रयो येषामर्थानां ते तत्राधिकरणाः तेषामभ्युपगमसंस्थितिरित्थभावव्यवस्थाधर्मनियम इति यावत् सिद्धान्त तथा च शास्त्रसिद्धार्थस्यैवाभ्युपगमः सिद्धान्तो नान्यस्येत्यर्थः । तथा च वार्तिकम् योऽर्थे न शास्त्रितस्तस्याभ्युपगमो न
(१) केञ्चित् सिद्धान्त:-पा. B घुः ।
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सिद्धान्तनिरूपणम् ॥ ति:९) सिद्धान्त इति । स च सिद्धान्तः सर्वतन्त्रादिभेदाचतुर्विधी भवति । तत्रापि सूत्रम् । स चतुर्विधः सर्वतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थित्यर्यान्तरभावादिति ॥ ५० ॥ ॥
तत्र सर्वतन्त्र सिद्धान्तमुदाहरणं च दर्शयति । सर्वतन्त्राविरुद्धार्थः स्वतन्त्रेऽधिकृतश्च यः॥५॥ ससर्वतन्त्र सिद्धान्तो यथामानेन मेयधीः । . प्रमाणात् प्रमेयसिद्धिरित्येवं सर्वशास्त्रानुमतं स्वशास्त्रे चाभ्युपगतमिति सर्वतन्त्र सिद्धान्तो भवतीति ॥ ५ ॥ स्वतन्त्र एव सिद्धोऽर्थः परतन्त्रनिवारितः॥५६॥ प्रतितन्त्रा यथान्याये सर्वज्ञस्य प्रमाणता ।
ভুলঃ মালিনি আS (2) লাইলি। षिद्धः स्वशारत्ने चाभ्युपगता नैयायिकस्य प्रतितन्त्वसिद्धान्त इति ॥ ५६ ॥ ॥ अनुमेयस्य सिद्धार्थी योऽनुषङ्गण सिद्धमति ॥ ६० ॥ सिद्धान्त इति । तत्रापीति । चातुर्विध्ये ऽपीत्यर्थः । सर्वतनादिसंस्थितीनामर्थान्तरभावाद भिन्नार्थत्वाचातुर्विध्यं सिद्धनिति सूत्रार्थः ॥ ६७ ॥ 5 ॥ स लक्ष्य लक्षणं योजयति। प्रमाणादिति । अत्र सर्वतनशब्दः शास्त्रवचन इत्याह । सर्वशास्त्रोति ॥५८॥5॥
प्रतितन्त्रो निगव्याख्यातः ॥ ५९॥ 5 ॥ (१) प्रमाणाभ्युपगमसिद्धः-पा. B घुः । (२) मित्येवोऽर्थः-पा. Bः। .
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
स स्यादाधार' सिद्धान्तो जगत्कर्ती यथेश्वरः । अनुमेयानुषक्तसिद्धिरधिकरणसिद्वान्तः । यथा महीमहीधर महोदधिप्रभृतीनां कर्तृमत्त्वस्य कार्यत्वानुमानेन सिद्धौ ईश्वर सिद्धिः । उपादानादिगोचरापरोक्षज्ञानचिकीषी प्रयत्नादिमतः कर्तृत्वात् पक्षीकृतविषयस्य ज्ञानादेरीश्वरव्यतिरेकेणान्यन्त्रासम्भवात् । अन्ये तु हेतुसिड्यनुषङ्गिः सिद्विरप्यधिकरणसिद्धान्त इत्याहुः । यथेन्द्रियव्यतिरिक्त चेतन साधनस्य दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणादिति हेतोः सिद्धावनुषङ्गि
१७२
अधिक्रियत इत्यधिकरणमनुमेयार्थः तत्सिद्धौ सामर्थ्यादर्थान्तरसिद्धिरधिकरणसिद्धान्त इत्याशयेनाह । अनुमेयस्येति । उदाहरति । यथेति । मह्यादिकं कर्तृपूर्वकं कार्यत्वादिति कर्तृसिद्धाव पीश्वरसिद्धिरित्यर्थः । नन्वहवृद्वारा जीवानामेव कर्तृत्वे कथमीश्वरसिद्धिरित्याशड्य सामर्थ्यादिति मन्वानस्तदेवाह । उपादानादीति । आदिशब्दात् कारणान्तरसंग्रहः । प्रयत्नादित्यादिशब्देन साकल्योपनीतानुकूलकायव्यापारादिसंग्रहः । तथापि कथमीश्वरसिद्धिरत आह । पक्षीकृतेति । अथास्यैव मतान्तरेण लक्षणान्तरमाह । अन्ये त्विति । उदाहरति । यथेति । दर्शस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणादिति दर्शनगृहीतस्यार्थस्य स्पर्शनेन प्रत्यभिज्ञानादित्यर्थः । तथा चेन्द्रियचैतन्यपक्षे अन्यस्यान्यानुभूतार्थप्रत्यभिज्ञानापत्तेस्तत्करण कस्तदन्य प्रत्यभिज्ञाने त्वन्द्रियातिरिक्तात्मसिद्धिरिति भावः । तत्रोक्त हेतुसिद्धे स्तन्नान्तरीयकतयेन्द्रियनानात्वादिसिद्धि
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( १ ) स एवाधार पा. A .पु. 1
६३४
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सिद्धान्तनिरूपणम् ।
१७३ रणामिन्द्रियनानात्वादीनां सिद्धिरिति ॥ ६० ॥ ऽऽ ।
अभ्युपगमसिद्धान्तमुदाहरणं च दर्शयति । साधितः परतन्त्रे यः स्वन्तत्रे च समाश्रितः॥ ६१ ॥ स ह्यभ्युपगमा न्याये मनसोऽनुमतिर्यथा।
काणादतन्त्रसाधितस्य मनसः समाश्रयणं नैयायिकानामभ्युपगमसिद्धान्त इति ॥ ६ ॥ऽऽ ॥
तस्यैव लक्षणान्तरमाह । तद्विशेषपरीक्षा वा सदावे ऽन्यत्र साधिते ॥६२ ॥ यथान्यत्र मनःसिद्धौ तस्याक्षत्वपरीक्षणम् ।। - तन्त्रान्तरेण साधितसद्धावस्य कस्यचिदर्थस्य জিহ্বায়ীঅনুষীঘাথাব্দবিল্লাল। অঘা নক্ষত্র मनसा न्याये सूत्रकारैरेवात्मप्रतिपत्तिहेतूनां मनसि सद्धावादिति चोदापूर्वकं ज्ञात नसाधनोपपत्तेः सज्ज्ञाभेदमात्रमित्यादिभिरिन्द्रियत्वपरीक्षण मिति । रित्याह । इति हेतारिति । आदिशब्दानियतविषयत्वैककतर्यत्वादिसंग्रहः ॥६० ॥ ॥
विधान्तरभ्रम वारयति । तस्यैव लक्षणान्तरमिति । ___ यथान्यत्रेत्येतद्विवृणाति । यथा तस्यैवेति । आत्मप्रतिपत्तिहेतूनामात्मसाधकलिङ्गानामिच्छादीनां मनसि सम्मवान्मनोधर्मत्वोपपत्रात्मेदं मनःपदार्थानेन्द्रियमिति चोध सूत्रार्थः । अस्तु तस्य ज्ञातुः सुखाद्युपलम्भे कस्यचिस्कारणस्यावश्यम्भावात् तस्य सज्ञामान विवादा नेन्द्रियत्वे इति समाधानं सूत्रार्थः । आदिशब्दानियमश्च निरनुमान इत्याद्युत्तरसूत्रसंग्रहः । प्रथमलक्षणे वृद्धसम्मति
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सटीकता किंकरक्षायाम्
परतन्त्रोक्तः स्वतम्ले चानिषिद्वार्थोऽभ्युपगम सिद्धान्त
हत्याचार्याः ॥ ६२ ॥ ऽऽ ॥
१७४
अवयवलक्षणमाह ।
यः परार्थानुमानस्य प्रयोगो वाक्यलक्षणः ॥ ६३ ॥ तस्या 'वान्तरवाक्यानि कथ्यन्ते ऽवयवा इति ।
महावाक्यात्म के परार्थानुमानप्रयोगे ऽवान्तरवाक्यान्यवयवा इति । स्वार्थानुमाने वाक्यप्रयोगाभावात् परार्थेत्युक्तम् ॥ ६३ ॥ ऽऽ ॥
ते चावयवाः प्रतिज्ञादयः पचेत्याह । ते प्रतिज्ञादिरूपेण पचेति न्यायविस्तरः ॥ ६४ ॥ तदुक्तम् । प्रतिज्ञाहेतूदाहरणेोपनयनिगमनान्यवयवा इति । न्यायविस्तर इति वदता मतान्तरेषु (३) यो विशेषः सूचितस्तमेव दर्शयति (३) 1
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माह । परतत्रोक्त इति । इति सिद्धान्तपदार्थः ॥ ६२ ॥ ऽऽ ॥ पूर्ववदिदमपि सिडान्तभेदस्यैव लक्षणान्तरमिति मन्दभ्रमवारणार्थमाह । अवयवेति । ननु वाक्यस्यावयवाः पदान्येव तत्र कुतोऽवान्तरवाक्यानीत्यत आह । महावाक्यात्मक इति । दर्शपूर्णमासादिप्रकरण पठिताङ्गवाक्येष्वfour faपरिहारार्थमाह । अनुमानप्रयोग इति । परार्थविशेषणस्य प्रयोजनमाह । स्वार्थेति । अन्यथा तस्यापि लक्षणकोदिनिवेशादतिव्याप्तिः स्यादिति भावः ॥ ६३ ॥ ss ॥
(२) तन्त्रान्तरीयो - पा. C पु· |
(१) तत्रा - पा० B. (३) स्फटयति- पा. Bपु. 1
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१७५
त्रीनुदाहरणान्तान् वा यद्वोदाहरणादिकान् । मीमांसकाः सौगतास्तु सोपनीतिमुदाहति ॥६॥
मीमांसकाः प्रतिज्ञाहेतूदाहरणान्युदाहरणापनयनिगमनानि वा त्रय एवावयवा इति सङ्गिरन्ते । सुगतमतानुवर्तिनस्तदाहरणापनया द्वाविवावयवा इআলি (৭) মাথলিয়ালাঃ না বাজললামীলঙ্গ মানি জানি ল' মনন इति भावः ॥ ६४ ॥६५॥
अथ श्रीनित्याधुत्तरश्लोके मतान्तरोपन्यासस्य प्रसञ्जकमाह । न्यायविस्तर इति। वदतेति । सनिरन्ते । आतिष्ठन्त इति च प्रतिज्ञातवन्त इत्यर्थः । समः प्रतिज्ञाने आङ स्थः प्रतिज्ञायामिति चोभयत्रापि क्रमादात्मनेपदम् । तावतैव व्याप्तिपक्षधर्मतालाभादतिरिक्तावयवाङ्गीकारे प्रतिज्ञाहेत्वोर्निगमनोपनयाभ्यां पुनरुक्तिरित्यन्येषामभिसन्धिः तानयोः प्रयोजनं किमिति नोक्त संग्रहकारेणेत्यत आह । प्रतिज्ञाहेत्वोचोति । अन्यन्नोति । उदयनग्रन्थेष्वित्यर्थः । अन्न प्रतिज्ञायास्तावक्ष्यमाणसाधनस्याश्रयविषयप्रत्यायन प्रयोजनम् अन्यथानिराश्रयस्य निर्विषयस्य तस्य प्रयोगायोगाद्धतास्तु साधनस्वरूपप्रत्यायनं प्रयोजनमन्यथा साध्यख्य साधनाकासानिवृत्ताप्तिपक्षधर्मतयोश्च सम्बन्धिधर्मिनिरूप्ययोस्तप्रतीतावप्रतीतेश्चत्यनुसन्धेयम् । उदाहरणे तु न कस्यचिद् विवादः अन्यथा व्याप्त्यप्रतीतेः उपनयनिगमनयोस्तु प्रयोजनं स्वयमेव वक्ष्यतीति न किञ्चिदवशिष्यते ॥ ६४ ॥ १५ ॥
(१) इत्याचक्षते-पा. D घुः ।
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सटीकतार्किकरतायाम्
तेषु चावयवेषु प्रतिज्ञा नाम परप्रतिपादनार्थं
पक्षवचनमित्याह | तत्र प्रतिज्ञा पक्षोक्तिः प्रतिपादयितुं परम् ।
998
तदुक्तम् । साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञेति । अत्र साध्यशब्दः पक्षवचनः । पक्षः साध्यान्वितो धर्मीत्युक्तमेव । धर्मिनिर्देशपूर्वकं साध्यनिर्देशः कार्यः शब्दोऽनित्य इति । यथाहुः । सिद्धधर्मसमुद्दिश्य साध्यधमा विधीयते ।
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यद्वृत्तयोगः प्राथम्यमित्याद्युद्देश्यलक्षणम् । तद्वृत्तवकारश्च स्यादुपादेयलक्षणम् ॥ इति ।
ननु संग्रहे पक्षीक्तिः प्रतिज्ञेत्युक्तं सूत्रे तु साध्योक्तिरिति विरोधमाशङ्कयाह । अत्र साध्यशब्द इति । तर्हि धर्मिमात्र निर्देशः प्रतिज्ञेत्यर्थः स्यादित्याशङ्कयाह । पक्ष इति । ननु साध्यधर्म निर्देश एवं क्रियतां किं तद्विशिषुधमिनिर्देशगौरवेणेत्यत आह । धर्मिनिर्देशेति ।
कोsयं नियम इत्याशङ्का भित्तिकचित्रकर्मवन्निराश्रयधर्म विधानायेोगादित्याशयेनाह । सिद्धमिति । उद्देश्यविधेलक्षणपर्यालोचनयापि सिद्धसाध्यविधानं गम्यते इत्याह । तथा यत्तेति । यद्वृत्तं यच्छन्दः एवं तद्वृत्तमपि तच्छन्दः । प्राथम्यं विधेयात् प्रागुचार्यत्वम् । आदिशब्दात् प्राधान्यादिसंग्रहः । चकाराद्विधेयस्य गुणत्वादिसंग्रहः । उपादेयेति विधेयोपलक्षणम् । यथा ग्रहं समाषृत्यत्र यो ग्रहस्तं संमृज्यादिति वचनव्यक्तग्रहस्योद्देश्यत्वं संमार्गस्य विधेय
६३८
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अवयवनिरूपणम् ।
१७७
हेतुलक्षणमाह ॥ लिङ्गस्य वचनं हेतुः साधकत्वप्रकाशकम्() ॥६६॥ व्याप्यं लिङ्गं तच्च रूपैश्चतुःपञ्चसमन्वितम्() ।
साधनत्वाभिव्यञ्जकविभक्त्यन्तं लिङ्गवचनं हेतुः यथा कृतकत्वादितिासाधकत्वप्रकाशकमित्यनेन तकत्वमित्रत्यादिलिङ्गमात्रवचनस्य हेतुत्वनिरासः। लिङ्गेत्यनेन(३)
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त्वम् । एवं ब्राह्मणो न हन्तव्य इत्यादिनिषेधोऽपि यो ब्राह्मणस्तन्न हन्यादिति ब्राह्मणाद्देशेन हनन निषेधविधिः । एवं प्रकृतेऽपि शब्दोऽनित्य इत्यत्र यः शब्दः सोऽनित्य इति शब्दस्योद्देश्यत्वमनित्यत्वस्य विधेयत्वं तस्मात् सिडे धर्मिणि साध्यधर्मविधाननियमात् धर्मिणि निर्देशपूर्वकमेव साध्यनिर्देशः कार्य इति सिद्धमिति तात्पर्यम् ॥
मन्दानामसन्देहार्थमाह । हेतुलक्षणमाहेति ।। कृतकत्वमन्त्र साधनमित्यादावतिव्याप्तिपरिहारार्थ साधनत्वादिविशेषणं विवक्षितार्थपरत्वेन व्याचष्टे साधनत्वाभिव्यञ्जकेति।व्याख्यातविशेषणस्य विवक्षितं व्यावयं व्य नक्ति।साधनत्वप्रकाशकमित्यनेनेति।ताग्विभत्त्यन्तमित्यनेनेत्यर्थः । लिङ्गमात्रमतथानिर्दिलिङ्ग तयदास इत्यर्थः। अथ लिङ्गपदव्यावर्त्यमाह । लिङ्गत्यनेनेति । यत् कृतकं तदनित्यमिति व्याप्तिवचनं तस्य व्याप्तिप्रकाशनद्वारा साधनस्वप्रकाशकत्वे ऽच्यलिङ्गवचनत्वान्न तनातिव्याप्तिरित्यर्थः ।
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(१) प्रकाशकम् --पा• D पुः । - (३) पञ्चभिन्वितम्-पा. A पुः। (३) लिङ्गमित्यनेन-पा. D पु.।
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१७८
सटीकतार्किकरक्षायाम्य ध्याप्रिवचनस्य हेतुत्वव्युदासः । व्याप्तिमल्लिङ्गं तच्चतुभिःपञ्चभिवी रूपैरुपेतं रूपाणि च पक्षधर्मत्वं सपने सत्त्वं विपक्षामावृत्तिरबाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं चेति । तत्रान्वयव्यतिरेकिसः पञ्च रूपाणि इतरयोस्तु पक्षपक्षयोरभावाच्चत्वारीति व्यवस्थिता ननु लिङ्गतामपि तत्रोच्यत इति चेत् सत्यम् नान्तरीयकतया न तु व्याप्तिवत् प्राधान्यादिदोषः तर्हि मूले कुठार: ताविभत्त्यन्तत्वाभावादेव तघ्यावृत्तर्विशेषणवैयादिति सूक्ष्ममिति चेत् सत्यम् तथापि हेत्वाभासादिव्युदासः फलमिति सूक्ष्मम् विहितेति(तारिवभत्तयन्ता अपि लिङ्गाभासवचना न लिङ्गवचना इति तेन तेषां व्युदासः ग्रन्थस्तु स्थलदृष्ट्योक्त इति गतिः। लिङ्गवचनं हेतुरित्युक्तम् अथ किं तल्लिङ्गमित्याकाङ्क्षायां लक्षणव्यमुक्तं संग्रहे व्याप्यं लिङ्गमित्यादिना तत्र तच्च लिङ्गं व्याप्यमित्येक लक्षणं शेषमेकं तत्राचं व्याचष्टे । व्याप्तिमादिति। निरूपाधिकसम्बन्धशालीत्यर्थः। द्वितीयेऽपि चतुःपञ्चैरिति समासस्य समुचयार्थत्वे विरोधाद् विकल्पार्थतया निगृह्णाति । तच्चतुर्भिरिति । संख्याव्ययेत्यादिना बहुब्रीहिः । बहुब्रीहै। संख्येय इत्यादिना डस्समासान्तः । नन्वेवमपि कदाचिदन्वयव्यतिरेकेण चातुरूप्यमितरयो पाञ्चरूप्यं च स्यात् तचासङ्गतमित्याशय ब्रीहियवादिवदैच्छिकत्वेन तथा उदितानुदितहोमवयवस्थितत्वान्नायं दोष इत्याह । तत्रेति। तथा चतुःपचव्यतिरिक्तसंख्याकत्वानधिकरणरूपोपेतं लिङ्गमिति निवाच्यम् । अन्यथैकैकस्या व्याप्तर्मिलितस्यासम्भवाचान्यथा वा रूपैयाप्तिपक्षधर्मतापाधिकरूपैरुपेतं लिङ्गमिति लक्ष
(१) महिमित्यनुमीयते ।
६४०
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हेतुनिरूपणम् ।
१७६ विकल्यः । निरूपाधिकसाध्यसम्बन्धशालिलिमिति লায়লালায়। বিকাঙ্খনানাবন্ধাবন লিঙ্কলিন্যাশনালিঃ। অঘি অ নুজু व्यावृत्तये ऽभिमतानीति नाव्याप्तिः। हेतुश्च साधर्म्यवैधाभ्यां द्विविधा भवति। तदुत्तम् । उदाहरणसाधयात् साध्यसाधनं हेतुः। तथा वैधादिति ॥६६॥ऽऽ॥
णम् । चतुःपञ्चैरिति तु तानि रूपाणि यथायोगं कचित् चत्वारि कचित् पञ्च च भवन्तीति सिद्धार्थानुवादोऽयमसन्देहार्थ इति व्याख्येयम् । तत्र प्रथमलक्षणे उदयनसम्मतिमाह। निरूपाधिकेति।हितीये ऽपि तामाह । व्याप्तीति । ननु किमिदं विशेषलक्षणं सामान्यलक्षणं वा । नायः तस्याप्रस्तुतत्वात् न द्वितीयः केवलभेद्यो (१)रव्याप्तरित्याशङ्य सामान्यलक्षणमेव । न चाव्यासिरिति परिहरति । रूपाणि चेति । तथाहि यथासंख्यमसिझादिदोषपञ्चकव्यावृत्तये पक्षधर्मत्वादिपञ्चकरूपपरिग्रहः तस्य च व्याप्ति पक्षधर्मतालाभः फलम् । स च यावद्ध्यावृत्यरूपपरिग्रहस्य न्याय्यत्वात् कचिद्रपचतुष्कृयादेव भवति कचिद्रपपञ्चकादिति स्थिते व्याप्तिपक्षधर्मतोपाधिरूपोपेतमित्येव लिङ्गलक्षणमिति सिद्धम् । पञ्चग्रहणं तु चतुश्यस्याप्युपलक्षणम् । सचतुःपञ्चैरितिवत् सिद्धार्थानुवाद इति व्याख्येयम् । साधयंवैधाभ्यामन्बयव्यतिरेकव्याप्तिभ्यामित्यर्थः । उदाहरणसाधम्यादन्वयदृशान्तवृत्तित्वात् यत् साध्यसा
(१) केवलोऽन्वयी । भेदो व्यतिरेकी । -No. 11, Vol. XXII.-November, 1900.
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सटीकताकिकरक्षायाम
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सावान्तरभेदमुदाहरणमुदाहरति(१) । द्विधोदाहरणं सम्यग व्याप्तिनिर्देशपूर्वकम् ॥६॥ दृष्टान्तवचनं तत् स्यादन्वयव्यतिरेकतः । __ व्याप्तिनिदेशपूर्वक) सम्यग्दृष्टान्तवचनमुदाযে। নন্তু কুছলিাকায় আনিক্ষৈাदाहरणमिति च द्विधा भिदाते। तत्रादां साधनान्वये साध्यान्वयप्रदर्शनेन दृष्टान्तवचनम् यत् कृतकं तदनित्यं यथा घट इति । द्वितीयं तु साध्याभावेन साधनाभावप्रदर्शकदृष्टान्तवचनं ३) यदनित्यं न भवति तत्कृतकमपि न भवति । यथाकाश इति । व्याग्निनिदेशपू
कमित्यनेनापि अनुपदर्शितव्याप्तिकस्य घटपटाकाधनं स हेतुः । तथा तवैधायतिरेकान्तव्यावत्तत्वात् यत् साध्यसाधनं सोऽपि हेतुरित्यर्थः । उपलक्षणं चैतत् उभयव्यासिमानुभाभ्यां समाधाय हेतुरिति लभ्यते ॥ ६६ ॥ ॥
कृत्स्नस्यापि श्लोकस्य लक्षणपरत्वनमं वारयति । सावान्तरेति । उदाहरति । व्याहरतीत्यर्थः ।
दृशान्तभेदेनेति । अन्वयव्यतिरेकभेदेनेत्यर्थः । तथा| च वाच्यभेदावचनभेदो न्याय्य इति भावः । क्रमाद्भद-1 यमुदाहरति । तत्रेत्यादि । अन्वयः सद्भावः । उदाहर
(१) बुदाहरणमाह-पा. D. घु० ॥ (३) व्याप्तिप्रदर्शनापुरःसर-पा. B पुः । (३) साधनाभावं प्रदा दृष्टान्तवाचन--41. B D . ।
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उदाहरणनिरूपणम् ।
शवदिति च दृष्टान्तमात्रवचनस्य निरासः । सम्यगिति वैपरीत्योपदर्शितव्याप्तिकस्य यथा यदनित्यं तत्कृतकं यथा घटः । यत् कृतकं न भवति तदनित्यमपि न भवति यथाकाशमिति च । तदुक्तम् । साध्यसाधर्म्यात् तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणमिति तद्विपर्ययाद्वा विपरीतमिति च ॥ ६० ॥ ऽऽ ॥
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उपनयमाह ।
दृष्टान्तापेक्षया पक्षे हेतोर्व्याप्तिप्रदर्शकम् ॥ ६८ ॥ वचनं स्यादुपनयस्तथेति न तथेति वा ।
उदाहरणेोपदर्शिताविनाभावस्य हेतोर्धर्मक्युपसंहार उपनयः । स चोदाहरणद्वैविध्येन द्विविधा णद्वैषिष्ये सूत्रसम्मतिमाह । तदुक्तमिति । साध्यः पक्षः तत्साधर्म्यात् तशिष्टसाधनजातीयधर्मकत्वात् तद्धर्मभावी
साध्यजातीयधर्मसद्भाववान् दृष्टान्तः तद्वचनमिति शेषः । उदाहरणमन्ययोदाहरणमिति पूर्व सूत्राक्षरार्थः । -तद्विपर्ययेन तद्वैपरीस्पेन (१) साध्याभावात् साधनाभावबतो दृष्टान्तस्य वचनं विपरीतं ष्यतिरेकादाहरणमित्युक्तसूत्रार्थः । तात्पर्यार्थस्तु प्रन्येोक्त एव ग्राह्यः ॥ ६७ ॥ 5 ॥ स्फुटार्थमाह । उपनयेति ।
हान्तापेक्षयेत्येतत् विवृण्वन् निष्कृष्य लक्षणमाह । उदाहरणेति । उपसंह्रियते ऽनेनेत्युपसंहार उपसंहारवचनमित्यर्थः । चतुर्थपादं व्याचष्टे । स चेति । सूत्रे
(१) सद्विपर्ययेन उक्तवैपरीत्येन - पा. E. |
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
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भवति । तथा चायं कृतकः शब्द इति साधम्यैौवनयः । न तथा चायं कृतकः शब्द इति वैधस्यापनयः । तदुतम् । उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसंहारो न तथेति वा साध्यस्योपसंहार उपनय इति ॥ ६६ ॥ ss ॥
हेतुपूर्वं पुनः पक्षवचेो निगमनं मतम् ॥ ६६ ॥
व्याप्रिपक्षधर्मतावद्धे तु पुरःसरं धर्मिणि साध्यस्योपसंहारो निगमनम् । पुनरित्युपसंहाररूपत्वमस्य प्रदर्शितम् । तस्मादनित्यः शब्द इति । तदुक्तम् । हेत्वपदेशात् प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनमिति उपनयनिगमनयोः कृतकार्यत्वादानर्थक्यमिति चेत् न व्याप्तिमत्तया प्रतिसन्धीयमानस्य लिङ्गस्यानुमानत्वा
उदाहरणापेक्षः साधनस्योपसंहार उपनय इति लक्षणम् । तथेत्यादिस्तु भेदेोक्तिः ॥ ६८ ॥ ऽऽ ॥
निगमनलक्षणं व्याख्यातुं पठति । हेत्विति । पक्षवचः प्रतिज्ञावचनमित्यर्थः । प्राचीन हेतूक्तितो विशेषमाह । व्याप्तीति । पक्षवच इत्येतद्व्याचष्टे । धर्मिणीति । ननूपसंहाररूपत्वं संग्रहे न प्रतीयते इत्यत आह । पुनरितीति । हेत्वपदेशात् हेतूक्तिपूर्वकमित्यर्थः । प्रतिज्ञाद्यवयवत्रयपक्षावलम्बेन मीमांसकः प्रत्यवतिष्ठते । उपनयेति । कृतकार्यदिति हेतुप्रतिज्ञाभ्यामेव गतार्थत्वादित्यर्थः । परिहरति । नेति । कुतो नेत्याशङ्क्य उपनयस्य तावदर्थवत्तामाह । व्याप्तिमत्तयेति । प्रतिसन्धानं पक्षधर्मतानुसन्धा
हर च
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उपनयनिगमननिरूपणम् ।
दुपनयाधीनत्वाञ्च तत्प्रतिसन्धानस्य प्रसिद्धाविनामावस्य साधनस्य पक्षधर्मताप्रतिपादनेन स्वरूपासिद्धन्यथासिद्विनिरासेनापि प्रयोजनवत्त्वादुपनयस्य निगमनेऽपि हेत्वनुवादांशस्य तस्मादेवानित्यो नान्यस्मादिति सिद्धसाधनतोपाधिनिरास प्रयोजनत्वात् । पक्षानुवादस्यानित्य एवायं न नित्य इति नियमेन बाधप्रतिरोधयोर्निरसनेन सप्रयोजनत्वात् । केचन जर
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नम् । ततः किमत आह । उपनयेति । हेतुना तु स्वरूपमात्रस्य पक्षधर्मतोक्ता न तु व्याप्तस्येति विशेषः । न चैता - बता हेतोर्वैयर्थ्य तस्य प्रागेवोक्तार्थत्वादिति । व्याप्तस्य पक्षधर्मताप्रतिसन्धानमुपनयप्रयोजनमित्युक्तम् । अथ तद्द्वारा स्वरूपासिद्धिव्याप्यत्वासिद्धिनिरासो वा प्रयोजनमित्याह । प्रसिद्धेति । अन्यथासिद्धिः सेोपाधिकत्व व्याप्यत्वासिद्धिरिति यावत् । व्याप्त्यनुसन्धानात् तन्निरासः पक्षधर्मताप्रत्यभिज्ञानात् स्वरूपासिद्धिनिरास इति विवेकः । अथ निगमनप्रयोजनं चाह । निगमने ऽपीति । तत्र सर्वाणि वाक्यानि सावधारणानीति न्यायेन तस्मादेवेति हेत्ववधारणस्य प्रमाणान्तरसिद्धिशङ्कानिरासः फलमित्याह । हेत्विति । न चेदं हेतुकृत्यं व्याप्तिपक्षधर्मतानुसन्धानात् प्राक् तस्य तद्वधारणाशक्तेरिति भावः । अनेनैव न्यायेन साध्यावधारणात् । प्रबलक्ष्य समबलस्य वा तद्विपर्ययादेकस्य व्यवच्छेदात् पक्षांशोsपि सफल इत्याह । पक्षेति । न चैतत्प्रतिज्ञाकृत्यं विशिबुलिङ्गानुसन्धानात् प्राक् तस्यास्तदवधारणाशक्तेरिति ।
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सटीकताकिकरक्षायामः আমি জিলাৰাবাক্সারিয়াকালয়यव्युदासैः सह दशावयवा इत्याचक्षते । तदसत् । घरप्रतिपादकस्य वाक्यस्यार्थ यान्यवान्तरवाक्यानि संहএ লিলিন নালি মন্মথ। জিমন্যায়। परप्रतिपादनानत्वात् साधनवाकयैकदेशतयावयवत्वं न लभन्ते । तस्मात् सुष्ठुक्तं पञ्जावयवा इति । अत ঘন্না লাল মাখন লাঃ। অাত্মযুদ্ধ वाकास्य गुणदोषवदिति ॥ ६ ॥
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अथ जरनैयायिकमतं निराकर्तुमाह । केचनेति । तत्र साध्यार्थज्ञानेच्छा जिज्ञासा साध्यतविपर्ययगोचरो विमर्शः संशयः साधनयोग्यता शत्त्यप्रालिः तत्साध्यपुरुषार्थः प्रयोजनम् निगमनवाक्यश्रवणानन्तरमेव साध्यावधारणात् पूर्वोक्तसंशयाथितिः संशयव्युदासः । तत्राचाश्चत्वारः प्रमाणप्रवृत्तिहेतुत्वात् पौरस्त्यावयवाः । पञ्चमस्तु प्रमाणफलरूपत्वात् पाश्चात्य इति निश्चयः । अथैतेषामवयवलक्षणाभावावयवत्वं नास्तीति परिहरति । तदसदिति । किं तल्लक्षणमित्याकाक्षायां प्रागुक्तमेव दर्शयति । परप्रतिपादकस्येति । प्रकृते तदभावानावयवत्वमित्याह । जिज्ञासादयस्त्विति । एतेषामशब्दात्मकानामर्थित्वादिवत् अधिकारविशेषणतया पुरुषप्रवृत्तिमात्रोपयोगिनां न शब्दात्मकवाक्यावयवत्वं युक्त गुण इव कनकभूषणैकदेशत्वमित्यर्थः । व्यासवाक्यं चात्र प्रमाणयति । अत एवेति। जिज्ञासादीनामवयवार्थत्वायोगादेवेत्यर्थः । इत्यवयवपदार्थः ।। ६९ ॥ ....
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तर्कलक्षणमाह। तौनिष्टप्रसङ्गः स्यादनिष्टं द्विविधं मतम् । प्रामाणिकपरित्यागस्तथेतरपरिग्रहः ॥ ७० ॥
प्रामाणिकग्रहाणम्(२) अप्रामाणिकस्वीकार | इति द्विविधमनिष्टम् । तयोरन्यतरस्य प्रसञ्जन तर्कः । यथा यदादक पीतं पिपासां न शमयेत् तर्हि पिपासुना न पीयेत इति प्रामाणिकपरित्यागप्रसङ्गः। यदा
उद्देशक्रमात् तो लक्ष्यत इत्याह । तर्कति ।।
अनिथुप्रसङ्ग इति । अनिषव्यापकप्रसङ्ग इत्यर्थः । अन्यथा यद्यग्निदाहको न स्यात् रूपवानपि न स्यादित्यादेव्याप्तिविकलस्यापि तत्वप्रसङ्गः । अत एवोक्तमात्मतत्वविवेके तमधिकृत्य सोऽपि व्याप्तिबलमालम्ब्य अनिप्रसङ्गरूप इति । तथा च व्याप्यारोपे ऽनिध्यापकप्रसञ्जनं तर्क इति लक्षणं द्रव्यम् । एतच्च हेतुरारोपितं लिङ्गमित्यत्र व्यक्तीभविष्यति।
प्रामाणिकेत्याद्युत्तरार्द्धमनिस्येत्यनिविभागवाक्येनैकवाक्यतया योजयति । प्रामाणिकप्रहाणमित्यादि। द्वयोरप्यनियोः समुच्चयेन प्रसञ्जनं तर्क इति मातीरित्याह । तयोरन्यतरस्येति । अनयोरात्मतत्त्वविवेकाक्त एवोदाहरणे क्रमेण दर्शयति । यथेत्यादि । तत्र विमतमु दकं पिपासाशामकं विशिष्टोदकत्वात्(३) मत्पीतोदकवदिति प्रयोगे साध्यानङ्गीकारे प्रथमस्तकः तन्त्र प्रत्यक्षसिडपाननिषेधात् प्रामाणिकार्थत्यागः विमतमुदकं परस्या
(१) अनिष्टस्य द्वयो विधा-पा. B पुः । (२) प्रामाणिकपरित्यागो-पा. D. (३) वा शीलादकत्वादिति E पस्तके टिप्पशयाम ।।
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गच्छ
सटीकता किंकरक्षाथाम्
दकं पीतं परमन्तरधक्ष्यत् तदविशिष्टं मामपि दहेदित्यप्रामाणिकस्वीकारः । यथाहुः तर्कमधिकृत्य तात्पर्यपरिशुद्धिकाराः । तस्य च स्वरूपमनिष्टप्रमङ्ग इति ॥ २० ॥ आत्माश्रयादिभेदेन तर्कः पञ्चविधः स्मृतः । अङ्ग पञ्चक सम्पन्नस्तत्त्वज्ञानाय कल्पते ॥ ११ ॥ यथाहुः । स चात्माश्रयेतरेतराश्रयचक्रकाश्रयानवस्थानिष्टप्रसङ्गभेदेन पञ्चविध इति ॥ ७१ ॥ तर्कीङ्गानि दर्शयति ।
न्तदीहकं न भवति तत एव तहदेवेति प्रयोगे साध्यानङ्गीकारे द्वितीयस्तर्कः । तत्रोदकस्यात्यन्ताप्रसिद्धान्तदीहकत्वविधानादप्रामाणिकार्थस्वीकार इति विवेकः । अथ स्वतंतर्कलचणमुदयनोक्तलक्षणेन संवादयति । यथाहुरिति । तात्पर्यपरिशु डिनीमोदयनविरचिता वाचस्पतिकृतवार्त्तिकतात्पर्यटीकाव्याख्या । अत्राप्यनिष्टप्रसङ्गोऽनिवृव्यापकप्रसञ्जनमित्यर्थः । नन्वत्र लक्ष्यपदलाभः कथमित्याशङ्क्य प्रकरणादित्याह । तर्कमधिकृत्येति ॥ ७० ॥
अथ तर्कविभागश्लेोकं स्फुटार्थत्वान्निगदेन व्याचष्टे । आत्माश्रयेत्यादि । अथात्मतत्त्वविवेकसम्म तिव्याजेनादिशब्दार्थमाह । यथाहुः स चेत्यादि । तत्र ज्ञानघटादेरुत्व'प्तिज्ञप्तिस्थित्यादिष्वव्यवधानेन स्वापेक्षणमात्माश्रयः । aurरन्योन्यापेक्षणमितरेतराश्रयः । पूर्वस्य स्वापेक्षितमध्यमापेक्षितात्तरापेक्षितत्वं चक्रकाश्रयः । पूर्वस्योत्तरापेक्षा अनवस्था अनिष्टप्रसङ्गस्तु व्याख्यात एव ॥ ७१ ॥
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तर्कनिरूपणम् ।
व्याप्तिस्तर्की प्रतिहतिरवसानं विपर्यये । अनिष्टाननुकूलत्वे इति तर्कीङ्गपञ्चकम् ॥ १२ ॥ प्रसजकस्याहार्यलिङ्गस्य प्रसञ्जनीयेन व्याप्ति
व्याप्तिः प्रतितर्केर प्रतिघातः तर्की प्रतिहतिः प्रसजनीयस्य विपर्यये पर्यवसानम् । एवं चेदेवं स्यान्नैवमिति प्रसञ्जनीयस्यानिष्टत्वमुक्तं द्विविधमधस्तात् । चननु
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ननु यदुक्तं कौऽनिष्टप्रसङ्ग इति तत् किं तर्कस्य सामान्यलक्षणं विशेषलक्षणं वा । आद्ये कथमनिटप्रसङ्गस्येह तकीवान्तर भेदेोक्तिः द्वितीये सामान्यलक्षणमन्यद्वाच्यम् । अत्रोच्यते पूर्वश्लेोके यत्सम्पत्त्या तर्कस्य तत्त्वज्ञानसमर्थनमुक्तं कानि तान्यङ्गानीत्याकाङ्गायामाहेत्याशयेनाह । तर्कीङ्गानीति ।
तत्र व्याप्तिं व्याचष्ये । प्रसञ्जकस्येति । आपादकस्वापाद्येन सहाविनाभावो व्याप्तिरित्यर्थः । यथा मूर्तत्वाभावे मनसः क्रियावत्त्वं न स्यात् इत्यत्रा मूर्तत्वस्य निष्क्रियत्वेनेति । तर्की प्रतितिरित्यत्र तर्कशब्देन प्रतितकी विवक्षितः अन्यथा अप्रसक्तप्रतिषेधादित्याशयेन व्याचष्टे । प्रतितकैरिति । यथेोदाहृतस्यैव मनसः मूर्तत्वे स्पर्शवत्त्वापत्तिः पृथिव्यादिवत्वेन प्रतितर्केणाप्रतिघातो धर्मग्राहकविरुद्धत्वादस्येति । आपाद्यवैपरीत्यनिष्ठत्वं तर्कस्य विपर्यये पर्यवसानं यथेोदाहृत एव न च निष्क्रियं मन इत्याशयेनाह । प्रसञ्जनीयस्येत्यादि । द्विविधमिति । प्रामाणिकप्रहाणाप्रामाणिकस्वीकरणरूपेणेत्यर्थः । अथाननुकूलत्वस्यानिष्टाद्भेदं व्यतिरेकदृष्टान्तेन व्याचष्टे । अन
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ধ্বীনাদিম নাঘা कूलत्वं प्रसङ्गस्य विरुद्धहेत्वाभासवत् प्रतिपक्षासाधकत्वमित्येतानि पञ्चाङ्गानीति ॥ ७२ ॥ | অনলাঙ্গালী জানান। अङ्गान्यतमवैकल्ये तर्कस्याभासता भवेत् । | ভজ জানালা নন্দ ম্লাগান। শঙ্খ ति । यथा यदिदं पानीयं पिपासार्दुःखं नाशमयिष्यत् नुकूलत्वमिति । यथा नित्यः शब्दः कार्यत्वादित्यस्य विरुडहेत्वाभासस्य साध्यविरुद्धानित्यत्वसाधकतया प्रतिवन्धनुकूलत्वात् तदुक्ततर्कस्य मूर्तत्वविपरीतामूर्तत्वसाधकत्वाभावादननुकूलत्वं प्रतिवाद्यनुकूलत्वाभावः तच पूर्वोक्तानिपदन्यदेवेत्यर्थः । उपसंहरति । इत्येतानीति। इतिशब्दोऽयं प्रकारवचनः अन्यतमाङसमानौ ॥७२॥ | ভাষাঃ জালালখান জ্বালাল্প वैयर्थ्यमित्याह । अन्यतमेति।
तन्त्र प्रागुक्तव्याप्त्यायेकैकाङ्गवैकल्यात् क्रमेण व्यासिविकलादयः पञ्चामासाः भवन्तीत्याशयेन व्याचष्टे । उक्तष्विति । तत्राद्यस्योदाहरणद्वयमाह । यथेत्यादि । अनोभयत्रापि व्याप्तिवैकल्यं व्यक्तमेवादिशब्दादुदाहरणान्तरसंग्रहः । द्वितीयस्तु मूर्तत्वे मनसः स्पर्शववापत्तिरिति । अस्यामूर्तत्वे धर्मिग्राहकप्रमाणबाध इति अनेन प्रतिहतत्वादिति । तथा तृतीयतुरीययोरपि नित्यः शब्दः प्रत्यभिज्ञायमानत्वादिति प्रयोगे. यदि नित्यो न. स्यात् न प्रत्यभिज्ञायेत प्रत्यभिज्ञायते चेति मीमांसकोक्तस्तर्कः उदाहर्तव्यः । तस्य ज्वालाप्रत्यभिज्ञावत्
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तर्कनिरूपणम् ।
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तर्हि रूपवदपि नाभविष्यद् गगनादिवत् । यदि परमन्तरधक्ष्यन्मामपि सुरभिमकरिष्यदित्यादिस्तकाभासः । विस्तरस्त्वात्मतत्त्वविवेकपरिश्रमशालिनां सुगम एव । तत्र हि मिथेो विरोध मूलशैथिल्येष्टापादनानुकूलत्वविपर्ययापर्यवसान स्त की भासत्वादुपक्रम्य स्थूलद्रव्यमपलपता बौद्धस्य नेदं स्थलं द्रव्यं विरुद्धधर्मसंसर्गप्रसङ्गादित्यादयः प्रलापास्तकाभासाः प्रदर्शिताः । प्र
स एवायं गकार इत्यादिप्रत्यभिज्ञायाः सादृश्यमूलभ्रान्तित्वेन विपर्यय पर्यवसानानिष्टत्वयोरभावादिति । पञ्चमस्तु यदि नित्यः शब्दो न स्यात् कृतको न स्यात् कृतकश्चायमिति । अत्र प्रसङ्गस्य विपक्षसाधकत्वेन पराननुकूलत्वादाभासत्वम् । नन्वेते भेदाः किमिति नादाह्रियन्ते ऽत आह । तकीभास इति । शालिनामिति शेषे षष्ठी न लेोकेत्यादिना कृद्योगषष्ट्या एव निषेधादिति । अथाकृतपरिश्रमाणां च तन्त्राप्रवेशार्थं तदुक्तिप्रदेश दर्शयति । तत्रत्युपक्रम्य दर्शिता इत्यन्वयः । यथा नायं पर्वता निरग्निरित्यादिना सन्दर्भेणेति शेषः । इत्यादयो बौद्धस्य प्रलापा इत्यन्वयः । तदुक्ततकीणामनर्थकस्वात् प्रलापत्वोक्तिः । नेदं स्थूलमित्यादिबौद्धोक्तस्थूलद्रव्यनिरासे तकीणां मिथेो विरोधेत्यादिग्रन्था पूर्वोक्तानवैकल्यप्रयुक्तमाभासत्वं प्रतिज्ञाय पश्चाद्यथा नायं पर्वत इत्यादिना प्रपचितमित्यन्वयार्थी तत्र मिथेो विरोधेत्यनेन प्रतितर्कप्रतिधात उक्तः । तथाहि नेदं स्थूलं विरुद्धधर्मसंसर्गप्रसङ्गात् नास्थल तथा प्रतिभासप्रसङ्गादित्यनयोस्ता
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सटीकतार्किकरक्षायाम খলিল লিবলীলঙ্গা (৭)
জ্ঞানী ल्येन तकाभासत्वमुक्तम् । यथायथं तकाङ्गपञ्चकान्यतमहानिरन्त्रीहनीयति।
तर्कस्य विषयकारण प्रयोजनानि दर्शयति । अस्याविज्ञाततत्त्वोऽर्थःसन्दिग्धा विषयो मतः७३ हेतुरारोपितं लिङ्ग फलं तत्त्वार्थनिर्णयः।
अविज्ञाततत्त्वः(३) संशयविषयोर्थस्तर्कस्य वि.
munanamaanadaaseem
बत् परस्परार्थप्रतिक्षेपकत्वादुभयोरनाभासत्वानुपपत्तेरवश्यमेकस्यैकेन प्रतिघात इति मूलशैथिल्यं व्याप्तिवैकल्यम्। शेष सुगमम् । यदुक्तमान्यतमवैकल्ये तर्कस्याभासतेति तत्परिशिष्टे ऽपि स्पमित्याह । प्रबोधसिद्धावपीति। नित्यसमात्थानप्रकाराणामिति । अनित्यः शब्द इति वादिना प्रतिज्ञाते जातिवादिना किमिमनित्यत्वं नित्यमनित्यं वा সিলশিল্প বা ক্ষান্ধা অশানঘাৰিহ্মকালमनिप्रसङ्गभेदानामित्यर्थः । एतत्सर्व जातिपरिच्छेदे स्फुटीभविष्यति । परिशिग्रन्यं पठति । यथायथमिति । अत्राङ्गहान्या ताणामाभासत्वं विवक्षितमिति भावः ।
तर्कलक्षणस्य वृत्तत्वादुत्तरलोकस्य कैमर्थक्यशायामाह । तस्येति।
नन्वप्रतीते धर्मिणि प्रमाणाप्रवृत्तः प्रतीते सन्दे
(१) नित्यसमादिजातिप्रकाराणा-या• D पु० । (२) अविज्ञायमानतत्त्व:--पा. D.
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तनिरूपणम् । জ্ব। লিক আঃ ৰন জানি আন্। হ্মাৰ ন্যাভিন্দু অনান্মাষাৰীলালাবালাহ্মাत्त्वस्य लिङत्वात् । अनग्निश्चेनिर्धमः स्यादिति व्याহাজীহ্মাৰ্যালিত্যাজ্জ্বল নক্ষত্র মুনি কালা ব্যাঙ্গাलायाम् । आरोपितावेव व्याप्यव्यापकावभिमती प्रमाणाङ्गस्य चास्य तत्त्वनिर्णय एव फलम् । अङ्गानां हायोगात् कथं सन्दिग्धत्वं विषयस्येत्याशङ्गय साध्यविशेषणसन्देहादित्याशयेन विशिनधि। अविज्ञातेति । हेतुरारोपितं लिङ्गमित्यत्रोदयनसम्मतिमाह। व्याप्येत्यादि । ननु फलं तत्वार्थनिर्णय इत्यसङ्गतं तस्य प्रमाणफलत्वादित्याशझ्याह । प्राणाङ्गस्यति । अङ्गानामङ्गिफलेनैव फलवत्तेति मीमांसान्यायं सूचयति । अङ्गानामिति । फलोपकार्यङ्गानां प्रयाजादीनां पृथकफलवत्त्वे कथं तदुपकारकत्वं कथंतरां च तदङ्गत्वमिति भावः । चतुर्थे द्रव्यसंस्कारकर्मसु परार्थत्वात् तत्फलश्रुतिरर्थवादः स्यादित्यत्र चिन्तितम्। यस्य पर्णमयी जुहुर्भवति न स पापं शृणोति यदा
त चक्षुरेव भ्रातृव्यस्य वृड्ते यत् प्रयाजानुयाजा इज्यन्ते वर्मैव तद्यज्ञस्य क्रियते वर्म यजमानाय भ्रातृव्याभिभूत्या इति।अन्न पण द्रव्यम् अञ्जनं संस्कारः प्रयाजादिकं कर्म एतत्रितयं पुरुषार्थऋत्वर्थत्वेत्यादि विचार्य पुरुषार्थमेवेदमपापश्लोकश्रवणादिफलसम्बन्धादिति प्राप्ते सिद्धान्तितं शूजोत्यादिषु सर्वत्र वर्तमानापदेशतः श्रूयमाणफलस्यापि न साध्यत्वं प्रतीयते।
(१) प्रयोजनमाह-पा. . . ।
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বীক্ষনভিজঘন্য অজ্বালললল ললল লুয়ান্মুখীলাকাজী অথাजादिषु स्थितत्वात्। तदुक्तम् । अविज्ञाततत्त्वे ऽर्थ कारणापपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्त इति । अत्राविज्ञाततत्वे ऽर्थ इति विषयो दर्शितः । उत्तरेण पञ्चम्यन्तेन कारणम् । कारणस्याहार्यलिङ्गस्योपपत्तिः सद्भावस्तस्मादिति । इत्थम्भावलक्षणे तृतीयान्तत्वामङ्गीकृत्य तर्कव्यापारनिर्देश इति केचित् । कारणस्योपपत्तिः सम्भावना प्रमाणविषयाभ्यनुज्ञानमिति यावत् । तदुपलक्षित इति तत्त्वज्ञानार्थमिति प्रयोज
नासाध्ये साधनत्वं च द्रव्यसंस्कारकर्मणाम् । तस्मात् त्वर्थतैवैषामर्थवादः फलश्रुतिरिति ॥..
तस्मात् सुष्टूक्तम् अङ्गानां प्रधानकलेनैव फलवत्वमिति । अथ स्वोक्तेषु तर्कस्य विषयकारणप्रयोजनलक्षणेषु । सूत्रं संवादयति । तदुक्तमिति। अत्र सूने केन भागेन कस्याक्तिः कथं वेत्याकाजायां क्रमाद् विविच्य दर्शयति । अन्न-1 त्यादि। योऽर्थः सामान्यता विज्ञातस्तत्वता न विज्ञातः स सन्दिग्धोऽथ विषय इत्यर्थः पक्षम्यन्तेनेति। पध्वम्यर्थे तसिलन्तेनेत्यर्थः। सार्वविभक्तिक तसिमाश्रित्य तृतीयार्थत्वेन केषाधिव्याख्यानं तदाह । इत्थम्भावे तृतीयान्तत्वामिति तृतीयार्थे तालिप्रत्ययार्थत्व मित्यर्थः। अस्मिन् पक्षकारणोपपत्तिशब्दयोरन्यमर्थमाचक्षमाणस्तमेव तर्कव्यापार दर्शयति । कारणस्येति। ननु केयं प्रमाणल्य सम्भावना नाम | तत्राह । प्रमाणेति । प्रमाणस्य विषयः साध्यधर्मः तस्याभ्यनुज्ञानं कोव्यन्तरनिराकरणं न च तस्यैव साधनाहत्वा
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तर्कनिरूपणम् । অ ৷ জ মুনি লক্ষ্ম। জয়াল কাঙ্খিা লা! অজ্ঞা অন্যান্যলীলাৰঃ জালালা - अात्मा तर्क इति ॥ ३ ॥
किमयं तर्कः स्वयमेव तत्त्वनिर्णयाय न प्रभवति बाढमित्याह । प्रत्यक्षादेः प्रमाणस्य तानुग्राहका भवेत् ॥ ४॥ | নলিয়নুল লাফালালুজ্জনা तत्त्वाध्यवसायः फलं न तु स्वतः(१) अनिष्टप्रसबोधनमित्यर्थः । इत्थम्भावशब्दार्थ व्यनक्ति। तदुपलक्षित इतीति । एतेन प्रमाणप्रवृत्त्युपयोगिव्यापारवत्त्वात् प्रमाणा तर्क इत्युक्त भवति । नन्वनिप्रसङ्गस्तक इत्युक्तम् तत्कथं मूहस्तर्क इत्युच्यत इत्याशयाह । ऊहशब्देनेति । ऊहप्रसङ्गयोः पर्यायवादित्यर्थः । तदेव कुत इत्यत आह । यथाहुरिति । शब्दार्थनिर्णये वृद्धव्यवहार एव प्रमाणमिति भावः ॥ ७३ ॥ ॥ । ननूत्तरार्द्ध तर्कस्य प्रमाणानुग्राहकत्वं किमर्थमुच्यत इत्याशय शोत्तरत्वमाह । किमयामिति । न भवति किमित्यन्वयः। काकुरबानुसन्धेयाङ्गलक्षणाभावादनङ्गल्या तर्कस्य पूर्वोक्तमाफिलेनैव फलवत्त्वं न युक्तमिति शकितुराशयः। शेषः परार्थत्वादिति न्यायेनासत्वान पृथक फलत्वमिति परिहतुराशयः ।
ताहि तर्क विना प्रमाणस्यापि पश्चाध्यवसायहेतु-1
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(१) लत्याध्यक्षसायफलकत्व-पाB . ।।
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१९४
. सटीकताकिकरक्षायाम
अमात्ररूपत्वान केवलमनुमानस्यैवानुग्राहकः । किं तु सर्वस्यापि प्रमाणस्यत्त्युतं प्रत्यक्षादेरिति । सर्वस्यापि प्रमा प्रति करणत्वात् करणानां चेतिकर्तव्यतापेक्षितत्वात् । यथाहुः ।।
न हि तत्करण लोके वेद वा किञ्चिदीदृशम् । इतिकर्तव्यताखाध्ये यस्य नानुग्रहेर्थिता ॥ इति ।
কালাঘালুয়াঘালনমি কামतम् । इतरदपि प्रमाणमनुमानच्छाययैव विचारा
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अनिप्रसङ्गमात्ररूपत्वादिति । अनिप्रसजनमुखेन तत्सहकारिमात्ररूपत्वादित्यर्थः । कायोन्यथानुत्पत्तिस्तु कारणत्वमात्र प्रयोजयति न तु स्वातव्यमिति भावः । इलाके प्रत्यक्षादेरिति विशेषणस्य फलमाह। न केवलमिति । सर्वस्थापि तकापेक्षत्वे हेतुमाह । प्रमा प्रतीति । ततः किमत आह । कारणानां चेति । तस्यापीतिकर्तव्यतारूपत्वादिति भावः। . इत्थमित्थं कर्तव्यमित्युपदिष्टाङ्गकलाप इतिकर्तव्यताकरणमात्रस्योतिकर्तव्यतासापेक्षत्व सम्मतिमाह।नहीति । लोके करणं कुठारादि वेदे दर्शपूर्णमासादि तयोरनुद्यमनादिति प्रयाजादिश्चेतिकर्तव्यता तत्साध्यानुग्रह उपकारः । | इतरदपीति । अत्रानुमानस्य सतर्कस्यैव विचारा| अत्वं पूर्वोक्तं प्रमाणान्तरे ऽप्यतिदिशति । तेन तस्य सर्वप्रमाणानुग्राहकत्वं गम्यत इत्यर्थः । अनन्यथासिडिमनन्यप्रयक्तत्वमित्यर्थः । .
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तर्कनिरूपणम् ।
१९५
भवतीति तत्र तर्कमनन्यथासिद्धिं च पुरस्कृत्य प्रवर्तत (१) इति । तर्कस्य शब्दप्रमाणानुग्राहकत्वं मीमांसाचार्यै(-)
रप्युक्तम् ।
धर्मे प्रमीयमाणे हि वेदेन करणात्मना । इतिकर्तव्यताभागं मीमांसा पूरयिष्यति ॥ इति ।
भगवता मनुनापि । आषं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना । यस्तर्केणानुसन्धन्ते स धर्मं वेद नेतरः ॥ इति ॥ ७४ ॥
कोऽयं तर्कसाध्यः प्रमाणानुग्रह। यत्करणेनाधर्म इत्यादि । धर्मप्रतीता वेदः कारणं चोदनालक्षणोsur धर्म इत्युक्तत्वात् । तस्य च कृत्यं मीमांसाशा - । स्त्रमितिकर्तव्यतानुग्राहकतर्कतया तत्प्रामाण्यनिर्वाहकमित्यर्थः ।
मनुनापीति । शब्दप्रमाणानुग्राहकत्वमुक्तमित्यनुषङ्गः । आषं ऋषिप्रोक्तम् धर्मेौपदेशं मानवादिधर्मशास्त्रं च यस्तर्केणेत्यादि येोज्यम् । चकारः
प्रत्यक्षमनुमानं च शास्त्रं च विविधागमम् । त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मशास्त्रमभीप्सता ॥ इति । पूर्वश्लेोको क्तप्रत्यचादित्रयसमुच्चयार्थः ॥ ७४ ॥ नन्वनुग्रह उपकार इत्यसन्दिग्धमेव तत् किमर्थमुत्तराडी व्याख्यायत इत्याशय तद्विशेषजिज्ञासायामित्याह | कोऽयमिति । निष्प्रयोजनस्यापि अजिज्ञास्यत्वात्
(१) सिद्धं च पुरस्कृत्य प्रवृत्तेरिति पा० पु.
(२) मीमांसकै - पा. C पु. | मीमांसकाचार्यै - पा. D पु.
१८०—– No. 12, Vol. XXII. - December, 1900.
७३७
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নাবিলা ফজ গুলান না। বা স্বিদ্ধান্ত নিল। | সুখ অথবা শশূ। ফলশ্বক্সি আর নাজুঃ - ফ্লাম্মিঘল মহাগ্রন্থ না:। ক্ষ্ম সুলাল না -
নঃ সকা শ্রাজুলল গুঞ্জন চা ব্যাঙ্ক অল্প ক্ষুস্মাক্ষললল খালাখিম্বাক্ষর
নাস্তায় মুনিজালিসুল হঞ্জ জিল জিন্নাহ জানুন মুলালদি ঘনঃ নিলাল আনি নগ্ন নর্থমূহঃ। ফা স্বাক্ট স্যাল শিক্ষাক্রান্ত মালিস জল () শি জিহ্বা লিঙ্গনযমি। স্বযিলগুলি : জয় নি। মন নললা জুলল নিজস্ব ভূমি মন্ত্রএখান।
অনান। | লৰালুয়ালালাগালিদাে জুৰা মামলাঘালু ল ল ন্যায়ক্কা। ভyকালকিনি। অলিৰিত্ব না লিজাখাनप्रकारं तकण तन्निवृत्तिप्रकारं च प्रपञ्चयति । अनुमाने तावदिति । यावत् प्रत्यक्षादौ च वक्ष्यत इति तावच्छকীঃ। স্ক্রান্বিানি।
লিখিত্যঙ্গী। স্মাবীনি। গুৰুৰীযেখঃ। বিবৃতিজা হোস্যशङ्केत्यर्थः । शङ्कास्वरूपं निरूपयति। धूमवानपीति । तर्क
(৫) অললাম- C ।
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तनिरूपणम् ।
१६७ द्वारेणानुग्राहकत्वं तर्कश्य । ननु यदि तकादेव प्रति
অলিদুন্ন: ইবি নস্ত্রি মনৰ দ্বা হলঘা ফানি । স্ব সম্বিনস্ হ্মিপ্লাল शङ्कास्वरूपस्यापि व्याघालापातेनानुत्थानात्(१) न मानग्निरपि धूमवान् भवेदित्याशङ्कायामकारणककायोत्पत्तिप्रस मिहिते तथा नाम भवेदितीयमपि शापिशाची सावकाशमाखादयति । यथाहुः ।
त्यमाह। सहीलि । सवारणेति । प्रतिबन्धनिश्चयद्वारेणेत्यर्थः । एतदुक्तं भवति । धूमवत्त्वे ऽप्यनाग्निमान् भवतु हिंसात्वादिवदस्यापि कदाचित् कस्यचिदुपाधेस्तदायत्तव्य
সাহ লা ফনবিলািি মান্ধাত্মালম্নিয়ন धूम एव न स्यादिति प्रामाणिकपरित्यागरूपानिपादनमुखेन शङ्कामुच्छिन्दता तर्केण सहकृताद्भूयोदर्शनात् पूर्वपूर्वदर्शनजसंस्कारसघ्राचीनान्त्यदर्शनरूपाद् व्याप्त्यवधारणे निःशङ्कमनुमानप्रवृत्तः सिद्धं तदङ्गत्वं तत्फलेनैव फलवत्त्वं च तर्कस्यति सर्वमवदातमिति । ननु तकादेव प्रतिबन्धावधारणे तस्यापि तदेकजीवितत्वात् तान्तरापेक्षायामनवस्थापिशाच्याः को वारयितेत्याशङ्कते। मन्विति। नन्वख्या वराक्या महानयमुच्चादनमन्त्री व्याघात एवाचिन्त्यप्रभाव जागीत्याह । न भवितव्यमित्यादि। व्याघातस्वरूपं व्यनक्ति । अकारणकेति ।
अनोदयनाचार्यसम्मतिमाह । यथाहुरिति । यत्
(१) अननुभवात-पा• B पुः ।
७३६
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१९८
सटीजलाभिकरक्षायाम
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शङ्का चेदनुमास्त्येव न चेच्छ का ततस्तराम् । व्याघातावधिराशङ्का तर्कः शङ्कावधिर्मतः॥ इति ।
उपाधिविधूनने ऽप्येवं तर्कः प्रवर्तते। सर्वथा। স লমনীষী ঋন জলিল মাজুলীআননীয় স্বা। নাৰ ন্যস্থা: স্লায়ানरविषया वातत्रापि ) व्यायका प्रव्यापका वा । अव्यापकत्वेऽपि नित्या अनित्या वा। अनित्यत्वोऽपि उभयाমিহিষ শিক্ষা বিবেচনৰকাৰিদিচ্ছিালাল’লাবিহিষ্কা শাহান্ধাस्त्येवानुमानमिति चार्वाकचाचं प्रत्युक्तम् । पूर्वार्दै शङ्का चेदनुमास्त्येव न चेच्छङ्गा ततस्तरामिति । शङ्का अस्ति चेदू यं कालमाश्रित्य व्यभिचारः शकते तत्कालाकलनार्थमनुमानमवश्यमाश्रयणीयम् । अन्यथा तदाश्रितायाः शङ्काया एवानुत्थानात् । अथैतद्भयान शक्यते तहि निःशकत्वात् सुतरामनुमानसिद्धिरित्यर्थः । अथैवं स्थिते यदि सुहृद्भावेन परः पृच्छेत् अनुमानं मानमेव शङ्कोच्छित्तिस्तु कथमिति तत्रोदमुपतिष्ठते तर्कः शङ्कावधिर्मत इति । अर्थक्रमानुसारात् व्यवहितग्रहः तर्क एवैतच्छङ्कोच्छेदक इत्यर्थः । तथाक्ततानवस्थाशङ्का तु व्याघातावधिकेत्याह । व्याघातावधिराशरोति।
एवं व्यभिचारकोटी तर्कप्रवृत्तिप्रकार उक्तः अथोपाधिकोटावपि तमाह । उपाधिविधूनने ऽपीत्यादि । तत्र परेण शङ्कमानमुपाधि दशधा विकल्पयति । सर्वथेत्यादि । धूम
(१) उत्तरत्रापि-पा. B पुः ।
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४०
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तर्कनिरूपणम् ।
यो वा । अन्यतराव्यभिचारे ऽपि धूममात्राव्यभिचारिखो वह्निमात्राव्यभिचारिणो वा । वह्निमात्राव्यभिचारे ऽपि व्याव्यमात्ररूपा व्यापकमात्ररूपा उभयरूपा वा । तन्त्र न प्रथमः । सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षयोग्यत्वे ऽनुपलम्भबाधः । व्यापकानां नित्यानां चोपाधित्वे सर्वत्र सर्वदा वह्नेः सत्त्वप्रसङ्गः । उभयाव्यभिचारिणामुभयव्यभिचारिणां धूममात्राव्यभिचारिणां
शह
मात्राव्यभिचारिण इति । साधनमात्राव्यभिचारिण इत्यर्थः । वह्निमात्राव्यभिचारिण इति । साध्यमात्राव्यभिचारिण इत्यर्थः । दृष्टान्तार्थं तु विशेषेापादानम् । एवमुसरत्रापि द्रष्टव्यम् । तत्राद्ये ऽनिष्टप्रसङ्गमाह । तत्रेति । अप्रामाणिकोपाधिशङ्कायाः सर्वत्र सुलभत्वात् स्वजनकादावपि सन्देहे पित्रादिव्यवहारा अभ्युच्छिद्येरन्नित्यर्थः । द्वितीयेऽप्यनिष्टमाह । प्रत्यक्षेति । सोऽपि कदाचिदुपलप्स्यत इति शङ्कायास्तु पूर्वोक्तातिप्रसङ्ग एव निवारक इति भावः । तृतीयतुरीययेा रप्यनिष्टप्रसङ्गमाचष्टे । व्यापकानामिति । व्यापकानामुपाधित्वे सर्वत्र नित्यानामुपाधित्वे सर्वदेति व योज्यम् । अथ पञ्चमादिविकल्पचतुष्टयं युगपद्दूपयति । उभयेत्यादि । यथेषामुपाधित्वमुच्यते तदा लक्षणाभावादाभासत्वं स्यादिति भावः । तत्राद्ये साधनाव्यापकत्वाभावात् द्वितीयचतुर्थयेोः साध्यव्यापकत्वाभावात् तृतीये तृभयाभावाच लक्षणाभाव इति विवेकः । इत्थं क्रमा
(१) व्यापक नित्यत्वपक्षयोः ।
७४९
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MITnESENTENTIOur
२००
सटीकतार्किकरक्षायाम् স্বয়ম্বাৰ চৰি শ্যালা মাখা শ্রাবলামरूपाणां चोपाधिलक्षणाभावः । उभयरूपास्तु सामग्रीনা লা। বা অ লাহাগ:। মুল হত্যা ছিল না व्याप्तः साधनाव्यापकत्वाभावात्। न च कृतकत्वानुष्णाথো: স্ব স্কুল ব্যাংখিলজানীগনষিত্রেपाधिः । तस्य प्रमाणबाधमात्रैवानियतत्वादिति । एवं শ্রজেন্ত্রেী সুশল ঘন লাং সুহামারী ऽपि प्रवर्तमान या भविष्यात् घटेड भूतलमिवाद्र यत् दिकल्पायक निरख्याथ नवसं व्युत्क्रम्य दश निरस्यति । उभयरूपास्त्विति । ततः किमत आह । सा चेति । कुत इत्यत आह । साधनाव्यापकत्वाभावादिति । तदभावे ऽपि हेतुमाह । धूमयोलि । कार्यस्य कारणेनेव कारणकारणेनापि व्याप्यत्वादित्यर्थः । अथ वहिलानाव्यभिचारे ऽपि व्यापकमात्ररूपा इति नवमः पक्षः । एवंलक्षणपाधिरत्र पक्षतरत्वमस्त्येव बाधस्थले ऽङ्गीकृतश्च स च सर्वानुमानास्कन्दीति त्यज लामनुमानप्रामाण्यप्रत्याशामित्याशङ्कामुद्धाच्य विघटयति । न चोति । साध्यधर्मिजातीयेतरत्वं पक्षतरत्वमित्यर्थः । पक्षीकृतसकलव्यक्तिसङ्ग्रहार्थ प्रकारवचनस्य जातीयरः प्रयोगः । कुता नेदमिहापाधिरत आह । तस्येति । अनुष्णं तेजः कृतकत्वाजलवदित्यादिबाधितविषयेष्वेव प्रयोगेषु पक्षेतरत्वस्य समव्याप्तेरुपाधिलक्षणस्य सम्भवादन्यत्रासम्भवात्तेष्वेव तस्योपाधित्वं नान्यत्रेत्यर्थः । अथ प्रत्यक्ष ऽपि तर्कप्रकारमाह । एवं प्रत्यक्षमपीति । अभावे ऽपि प्रवर्तमानं तद्ग्रहणाय व्याप्रियमाणमित्यर्थः । तणानुज्ञायमानमनुगृहीतं सदित्य
७४२
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तनिरूपणम् ।
२०१ तस्य तेन सह तुल्यदर्शनयोग्यत्वादिति । न च दृश्यत इति तणानुज्ञायमानं घटाभावं निश्चाययतीति । एवं स्वर्गकामा यजेतेत्यत्र समानपदोपातস্যান্না ঘাই স্বাগ্র শ র গল্প মা তুজ্জা
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र्थः। तस्वरूपमाह । यदीत्यादि । अथ शब्द ऽपि तर्कহৃত্বিালা। ক্ষ স্বীকান্দি থানীয় सन्दर्भेण । ननु व्युत्पन्नस्थाकासासनिधियोग्यतावस्पदकदम्बकश्रवणसमनन्तरमेव निर्विचिकित्सवाक्यार्थप्रतिपत्ता कस्तस्यावकाश इत्याशा स्वर्गकामाधिकरणविचारोपन्यासेनावकाशं दर्शयति । स्वर्गकाम इत्यादि । तत्र स्वर्गकामा यजेत पशुकामा यजेतेत्यादी प्रत्ययार्थभूताया भावनायाः किं धात्वर्थी भाव्यः उन स्वर्ग इति संशयः कृतः तत्र पूर्वपक्षवचनव्यक्तिमाह । धात्वर्थः साध्यो भवत्विति । साध्या भाव्य इत्यर्थः । तत्र हेतुमाह । समानपदोपात्तत्वादिति । एकपद पश्रुतिगन्यत्वादित्यर्थः । स्वर्गस्तु पदान्तरोपात्तो वाक्यगम्यसम्बन्धः वाक्याच श्रुतिर्बलीयसीति भावः । हेत्वन्तरमाह । भव्यत्वाच्चेति । भवतीति भव्या जन्यः कार्य इति यावत् । भव्यगयेत्यादिना कर्तरि निपातनात् साधुः । तथाभूतं भव्यायोपदिश्यत इति न्यायात् स्वर्गण यागं कुर्यादिति भव्ययागसिद्धये भूतस्वादिद्रव्यं साधनत्वेनोपदिश्यते न तु यागेन स्वर्ग भावयेदिति भूलस्वर्गपभ्वादिगव्यसिद्धये भव्ययागोपदेशो युक्तः । तदुक्तम् ।
भूतं च स्वर्गपश्चादि द्रव्यं भव्याय कर्मणे । विधीयते न भूताय भव्यकमोपदेशनम् ॥ इति ।
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७४३
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२०२
सटीकताकिकरक्षायाम
र्थत्वात् स्वर्ग इति संशये तकावतारः । यदि साध्या धात्वर्थः स्यात् तदोपदेष्टुरातत्वं विधेश्चेष्टाभ्युपायत्वं জীবন নিঃস্ব লন। ফিশ লমু কাল प्रमाणतः सिद्धमिति तकणानुगृह्यमाणः शब्दः स्वर्गमेवा
स्वर्गशब्दश्च लेके स्त्रक्चन्दनादिषु प्रयोगाद् द्रव्यवचनः कमिश्च साधनकामानुवादः । तेन भव्यत्वात् कार्यत्वादु धात्वर्थ एव भाव्या भावनायाः किमंशपूरक इति पूर्वपक्षवचनव्यान्त्यर्थः । पुस्तकेषु तु भाव्यत्वाद् दीर्घः पाठः प्रामादिकः उक्तार्थस्याकरस्थस्यैवानेनाभिधानात् साध्याविशित्वाचेति(१) । अथ सिद्धान्तवचनव्यक्ति चाह । भवतु वेति । स्वर्गस्यैव भाव्यत्वे हेतुमाह । पुरुषार्थत्वादिति । तथाहि पदश्रुतेर्बलीयस्या विधिश्रुत्या प्रवনাদিলাহ্মথ্যা মনিকা শাঅলা মাখা प्रागेवावरुडा सती कथं कमियोगाद्वगतपुरुषार्थभावं प्रवृत्तियोग्यं स्वर्गमवधूय केवलकेशात्मकमपुरुषार्थ वा धात्वर्थ भाव्यत्वेनावलम्बिष्यत इति स्वर्ग एव भाव्या इति सिई वचनव्यत्त्यर्थः । एवं समानपदोपात्तत्वपुरुषार्थत्वाभ्यां भाव्यसन्देहे तवधारणाय तर्कः शब्दे लब्धावकाशो भविष्यतीत्याह । इति संशय इति । तर्हि स तो वाच्य इत्यपेक्षायां तर्कत्रयमाह । यदीत्यादिना । यद्यपुरुषार्थी धात्वर्थो भाव्यः स्यात् तदोपदेष्टुरातत्वमाप्तोपदेशात्मकस्य विधेरिसाधनज्ञानोपायत्वमात्मनः प्रेक्षावत्प्रवृत्तिविषयत्वं च व्याहन्यादित्यर्थः । ताणां विपर्यये पर्यव
(१) साध्यभाव्ययोः पर्यायवाच्च ।
७४४
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तर्कनिरूपणम् ।
२०३
भावना फलत्वेनावधारयति ज्योतिष्टोमेन स्वर्गं भावयेदिति । एवमन्यत्राप्यन्यथासिद्धिनिरसनादिरनुग्रह) स्तत्रतत्र दर्शयितव्यः । तस्मात् साधूकं प्रमाणानुग्राहकस्तर्क इति । अत एव प्रमाणानामनुग्राहकस्तर्कस्तत्त्वज्ञानाय कल्पत इति भाष्यम् । प्रमाणविषयविभागात् तु प्रमाणानुग्राहक इति च वार्त्तिकम् । अनुजानन्ननुगृहातीति टीकापि । अन्वयव्यतिरेकविषये भूयो दर्शन साहाय्यकमाचरन्ननुग्राहकस्तर्क इत्यात्मतत्त्वविवेकश्च । ननु तर्कस्याहार्यलिङ्गजन्यत्वेन
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सानमाह । अस्ति चेति । फलितमाह । इति तर्केणेति । भावना फलत्वेन भाव्यत्वेनेत्यर्थः । अथोपमानादावपि तकीनुग्राहकत्वमतिदिशति । एवमिति । पञ्चषादिप्रमाणवाद्यभिप्रायेण तत्रतत्रेति वीप्सा । उपमानफलस्य मानान्तरसाध्यत्वे तत्प्रकरणोक्तदोषापत्तिरिति तर्केणान्यथासिद्धिनिरासः | आदिशब्दाद् विषयाभ्यनुज्ञानसंग्रहः । परमप्रकृतमुपसंहरति । तस्मादिति । तर्कस्य प्रमाणानुग्राहकत्वे पक्षिलादिसम्मतिमाह । अत एवेत्यादि । विषयविभागाद् विषय विवेकादित्यर्थः । अनुजानन्ननुगृह्लातीति । विषयाभ्यनुज्ञानमेवानुग्रह इत्यर्थः । उदयनेोक्तमानानुग्राहकत्वमप्युपलक्षणं मत्वाह । अन्वयव्यतिरेकेति । अनुमानजीवितव्याप्तिग्राहकप्रमाणोपयोगित्वमेव तदनुग्राहकत्वमित्यर्थः । स्वयमप्रमाणस्य कथं प्रमाणानुग्राह
(१) रूपानुग्रह-पा. B पु.
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লিথালা । লিফিলানবাত্মাৰ ৷৷ ৩৪।
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জন্মলন লভিন। নলিনি। নলু হাসিঅস্ত্র হৃত্বিলিগন্না। জাঙ্গালি। নুিদুইথাথি ক্লিনিৰ শাৰ ল লালখাতা-ফান্ধা ব্দহ হৰি অল্প সহ লাল কাৰঅস্বাস্থ্য কামালম্বৰ্মান্ধাত্বালানি খুলনায়। দ্ধান্স হৃঙ্খ গ ল ই Sঙ্গুত্ব লাশলি লাখ। বনলিলি। নিস শুলজাহ হল আনিয়াছিলআলুনিরা সুললিড়াত্মিঃ। জুগাজুল
গা। স্বল। মা প্লানাস্বার্থ হাখি খাস্বালিহালাস্থান অন্ধ না হলে অলসক্লান্যাত্ব দুলাঙ্গাইল লালুথম্বলিত্বহুল। নিল স্তু ফিলি । ভূলি লহ্মব্যর্থ। | ললুম লিয়াঘাবালিনি অনল অনস্কিহিত্যক্ষ কাতালান্যান্য সু । निर्णयति । तर्कफलत्वात् लकानन्तर्यमस्येति चोक्तमेव
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৩৪ঃ
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निर्णयनिरूपणम् ।
२०५
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प्रमाणतकीभ्यां स्वपरपक्षसाधनोपालम्भ बिमर्श पूर्वको यथार्थध्यवसाय निर्णयोऽत्राभिमतः । परीक्षासाध्यमर्थावधारणं निर्णय इत्याचार्यः । तदुक्तम् । विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय इति ॥ १५ ॥ अथ कथालक्षमाह ।
1
ननु तत्त्वावधारणमित्येतावदेव लक्षणमस्तु किं तर्कमानाभ्यामिति विशेषणेनेत्याश हा व्याचष्टे । प्रमातकीभ्यामिति । यः प्रमाणतकीभ्यां स्वपक्षसाधनपरपक्षोपालम्भपूर्वको विमर्शपूर्वकः संशधोपमर्दक इति यावत् यथा स्थाणुरेवायमित्यादि स एव निर्णयपदार्थभिमतो नान्यो यथार्थेऽपीत्यर्थः । तेन घटाद्यवधारणन्युदासान्न विशेषण वैयर्थ्यमिति भावः । यथार्थेति सर्व यथाज्ञानव्युदासः | अर्थव्युदासाय प्रत्यय इति वक्तव्ये स्फुटार्थमध्यवसाय इत्युक्तम् । तयावर्त्यस्य यथार्थीनध्यवसायस्य व्याघातहतत्वादिति । अत्रोदयनसम्मतिमाह । परीक्षासाध्यमिति । परीक्षा तर्कमानाभ्यां विचारो विमर्श इति यावत् । तत्साध्यमिति । अत्र सूत्रसम्मतिमाह । विमृइयेति । पक्षप्रतिपक्षाभ्यां स्वपक्षसाधनपर पक्षोपालम्भाभ्यामित्यर्थः । इति निर्णयपदार्थः ॥ ७५ ॥
ननुद्देशक्रमाद्वादलक्षणे वक्तव्ये किमन्यदनुद्दिष्टमेareroor कथ्यत इत्याशङ्क्य वादादीनां त्रयाणां कथावान्तरभेदत्वात् प्रथमं कथा सामान्यलक्षणं कथयतीत्याह । कथेति । नन्वेवं चेत् कथैव त्रिविधाप्येकः पदार्थ इति पदार्थ न्यूनत्वापत्तिः अन्यथा वादादिवत् प्रमाणादिपदाश्रीवान्तरभेदानामपि पृथकूपदार्थत्वे तदतिरेक इत्युभयथापि षोडशैव पदार्थ इति नियमभङ्ग इति चेत् सत्यम्
७४
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ফীহ্মনাজিব রায় বিদ্যাৰৰিা লালাবন্ধা আৰিৰঃ।। कथा तस्याः षडङ्गानि प्राहुश्चत्वारि केचन ॥१६॥ | লিখাৰাথগ্রি লালা
- विस्तरः कथा । तस्याः कथायाः षडङ्गानि सनिरन्ते । निरूप्यनिरूपकनियमः कथाविशेषव्यवस्था वादिप्रतिवादिनियमः सदस्यानुविधेय संवरणम् निग्रह स्थानसामस्त्यासमस्त्याद्वावनप्रतिज्ञानम् तथापि वादस्य निःश्रेयसापयिकतत्वाध्यवसायहेतुत्वाजल्पवितण्डयोश्च तत्संरक्षणार्थत्वात् निःश्रेयसार्थिनां प्रत्येकमेव प्राधान्येनोपादेयत्वज्ञापनाय तेषां पृथकूपदार्थत्वेनोदेशः प्रमाणादीनां त्वेतच्छेषत्वेनोपादेयत्वान्न तथात्वम् न च तहिशेषवत्तच्छेषत्वमप्येकपदार्थत्वप्रयोजकमिति मन्तव्यम् तन्त्रान्तरे गुणादीनां द्रव्याभेदप्रसङ्गादिति सङ्क्षेपः ।
ननु विचारो विमर्शस्तद्विषयत्वं कथायां न सम्भवतीत्यसम्भवि लक्षाणमित्याशय इलाके विचारशब्दस्य विचार्यत इति कर्मसाधनव्युत्पत्त्या विचार्यार्थपरत्वाचायं दोष इति व्याचष्टे । विचारगोचरार्थति । क्रमापादत्रयेण कलहवाक्यपहावयवप्रयोगकथावाक्यस्थपदानां व्युदासः । तत्र षडङ्गानि दर्शयति । निरूप्येत्यादि । निरूप्यं प्रतिपाद्यमात्मतत्त्वादिकं निरूपकं तत्प्रतिपादक प्रमाणमनुमानादि तयोनियमः अनेनेदं साधयामीति प्रतिज्ञानं कथाविशेषा वादादिः तस्य व्यवस्था अनेन कथयिष्यामीति नियमकरणम् तथानयोरयं वादी प्रतिवादीति नियमो नियमनम् अनु पश्चाद्विधेयं निष्पन्नकथाफ
(१) सभ्या -पा. B पुः ।
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७४८
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बानिरूपणम् ।
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জ্বাল নিলিখিনি অঙ্গালি । অৰ ৰ
चत्वारि। वादिप्रतिवादिनियमा सदस्यानुविधेय(१) | ফালৰ অনি। লিখিত্মা বাজার জম্মিজ্জা ’শ অগী। স্বল্প জ্বা বিজ্ঞান
কাশিনাথী হত্যামা। স্ত্রী নি আমিআঁজলা ভাষা সালজা। লালशणापि विशेषनिर्णयोपपत्तेः । सदस्यास्तु वादिप्रतिलप्रतिपादनरूपमस्यास्त्यनुविधेयः सभापतिः तस्य सभ्यानां च संवरणमेते सभ्या अयमनुविधेय इति सम्परिग्रहः निग्रहलामस्त्य जल्पवितण्डयोवादे त्वसामस्त्यामिति । एतच निग्रहान्ते स्फुटीभविष्यति। कथापर्यवसानस्य कथासमाप्तसंवित्तिपक्षादा कचिदेकन समाप्तिरिति समयबन्धः । अथ चतुरङ्गानि दर्शयति । वादीत्यादि । वादिनियमः प्रतिवादिनियमः सभ्यसंवरणमनुविधेयसंवरणं चेति चत्वार्यङ्गानि । अन्यत् सर्व तन्नान्तरीयकत्वान पृथग्वाच्यमिति भावः। अन्न पक्षब्ये ऽपि पाक्षिकमङ्गान्तरमाह । लिपिकरणेति । अथ वादिप्रतिवादिनोस्तुल्यबलत्वमावश्यकमित्याह । अति । ननु तुल्यत्वं दुर्भानमत आह । सम्भावितेति । अतुल्यत्वे बाधकमाह । अन्यथेति । कथमानर्थ क्यं वादं विना निर्णयानुपपत्तरित्याशयाह । वादमिति। पुरुषगारवादेव श्रद्दधानस्य तदुपदेशमात्रादपि निर्णयसिद्धरिति भावः। सभ्यलक्षणं तत्संख्यानियमं चाह । सदस्यास्त्विति । संख्यावैषम्यस्य प्रयोजनमाह । छैधेति। है (२) सभ्यानुविधेय-पा. B पु.।
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আঙ্গিনা: বিশ্লোলনকিলা খালি মফি: অমলিশিয়া স্বাস্থ্য মালয়া।
ৰা মিল হত্যা: শ্রীহ্মা;। না স্ব জানি গ্রি লাল লাল মিয়া হত না। না স্ব শালিন। মালিক না হলে অন্য $ । মাঙ্খিতা নিমা: : যা যক্ষ্মায়ূন্নী বলা ৷ জানি। | ঐ স্কুল লজিশি আ। স্বল। নু শ্ৰম্মিা অস্থালি জিনাকি লামুন্তু লিল অভীক্ষামলায়লা জঞ্জথানাযা ফলনক্সাল লুগুত্র
অাল(') লিনি সাগ্নি। স্যানিত্রি স্বামিনিশ্বালা ফালা ল না যায় কিনা লিয়স্থলুৱস্থা: স্বামী। স্ব স্ব লিqহ্মজ্জাজ্ব মনিমালা জকন। না নানাব্যা: স্ব স্বাস্থ নিশ্রিী শিক্ষা জাগা
লালমান্দি বালা। বাড়ি । অজাবঃদুনি।
অশাহী। | অক্ষুন্নাহু। ঘানা লিনি। আখ মৃত্বনিলা। শালিনি। বন্ধু আয় । লক্ষীনি। নিম্বন্ধথদ্ধমনিকান ব্যাক্মিনিৰাখি লিঙ্কঃ অাব্দুলাল। হালু গল্পন্থি दानम् । वादे विशेषमाह । वादे विति । वादागतानां
(৭) মায-q• C । মাল-w. B ।
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নুলঃ মাস্নগ্ধা আ ল ল ল লন্দু সুনাল গাইনী ২ : নলা লালনমজল বরাদ্বশুন্ধন ৩ । লা কি লাভলন ওরা। ভ্রাণি। মন্ত্রি হিন্দিলাল্লাফাল্লত্ব অন দুন স্যাকালি মালঃ বা অঙ্গানাল লুমুম লাল। লম্বা অলি। নন্তু শালাৰ ৰিহ্মৰ হৃঙ্খলাধুলা
ত্যাহাঙ্গ বালাথি মাশালা ফাইল ও লিলালি লাকী ভাঙ্গন আশঙ্কা रित्याह । अन्न टीकेलि । ननु दैवादागतास्तत्रैव प्रतीयन्ते মুন্যাহা ক্লাহ্। হলহিৰি। হৃথন্স শাখী লিখ্রি ন্যাস্বাঞ্ছালাখালুথত্যি। ব্যাক্তিনি৷ ৩৪। | দু অস্বীল বামনাঙ্গাঙ্গি এলাযাথিখালা ভূলি লগাল্লাম মলিল
না না ভাবিস্বান্ধব মনিয়ানিজাজঃ বনাথ লহুদা ভাই স্কু ল কথালাलक्षणानन्तरं वादादीनां तवान्तरभेदत्वाभिधानपरता-1 | (৭) ল নানামনি-দ. B ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
कथावान्तरविधा दर्शयति । वादा जल्पो वितण्डेति तितस्तस्या विधा मताः । तत्र वादस्य लक्षणां फलं च दर्शयति । तत्र प्रमाणतकीभ्यां साधनादोपसंयुता ॥ 99 ॥ वीतरागकथा वादस्तत्फलं तत्त्वनिर्णयः ।
२५०
प्रमाणतर्कीभ्यामेव स्वपक्षसाधनपरपक्षोपालम्भी करणीधावित्यभिमानमात्रमत्र विवक्षितं न ( ) वस्तुतः उभयोरपि तथा कर्तुमशक्यत्वात् । यथाहुः । प्रामाणिकवचनमात्राभिप्रायपूर्विका कथा वाद इति ।
शपरमित्याशयेनाह । कथावान्तरेति । एवं पदार्थ न्यूनताशङ्का तु प्रागेव निरस्तेत्यास्तां तावत् ।
उत्तरलोके पादत्रयेणैव वादलक्षणाचतुर्थपादवैय fara फलाभिधानार्थत्वेन सार्थकत्वमाह । तत्रेति ।
ननु जल्पवितण्डयेोरपि प्रमाणतर्कसम्भवालक्षणमतिव्याप्तमित्याशङ्कयावधारणस्य विवक्षितत्वान्नायं दोष इति व्याचष्टे । प्रमाणत कीभ्यामेवेति । तेन छलादिनिवृतिः । तथा च प्रमाणतकीभ्यामेव स्वपक्षसाधनपरपक्षीपालम्भवती कथा वाद इति लक्षणं द्रष्टव्यम् । ननु पक्षद्वये sपि कथं प्रमाणतर्कसम्भव इत्यत उक्तम् अभिमानमात्रमिति । अवास्तवत्वे हेतुमाह । उभयोरपीति । वस्तुनो द्वैरूप्यासम्भवादिति भावः । प्रामाणिकमात्रं प्रामाणिकमेवेदं वचनमित्यभिप्रायाभिमानः पूर्वी यस्याः सेत्यर्थः ।
७५२
(१) न तु पा. C .
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মালিযুত্ব।
২৭৫ স্মাৰাত্ৰ(ঘলাকা অনাঘা ছিহাত্ম হাখি':(২) ফ ক্স ব্রিাজায়াকি
হৃদ্ধ মায়াজাইনি। নমু। নমিল্লা অৰিয়া খিলিলুগুৰিত্ৰাৰনি। - নানঅল মাত্র হিয়া আলিহনলালন ক্ষিঙ্খিলি :। স্নগ্ধ লিভাল মুন(২) সুমিত্র। নমুখস্থ। #ক্ষান্য নকলাঙ্খলাঘালান। লিলাখি: অগ্রাথঃ অনিনঘখিৰা আৰু জন। ৩৩১১।
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য= =
লশ সুখী আঁতাত্ব শূন্যস্থায় অঞ্চ কি নামकारिनिरूपणार्थमित्याह । तत्त्वायवसायेति । वादस्य
হাঙ্গামাঘিাহিন্দ্র সুললিলা। লক্ষ লিলি। নী অনুলিখ। প্রাশিক্ষাহিত্মিা ‘দঙ্গনিক্লাহ ওসানা। হাঅা জানাঘল লাঙ্কাশাহি জালহিন্দু হিন্দুত্বা হয়লিনলিৰি অস্বাস্থ্য সৃষ্ণু। ফুল আৰু তাঘিাহি নিত্য নগাছাকালুজাতাত্ত্বিলিনিভিজালাম্মা। ওলি ভননি। লিয়া ভূখ। জাখ কান্তজী মনিল্লা। নাবালি। লালফালৰ ব্ৰানাযালী অফিৰ ৰূ মানিঘছি
(৭) নাম্বাথ- C । (২) মাযারীলালাহা--যা B .। | (a) নিত্যানন্যানিনজা-অ• B q। —No. 1, Vol. XXII.January, 1901.
মজnren recog-সতেলে-মেয়ের
মহেশ-শ্র মে
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६१२
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বীনাদিয়া জালিন নি। খ জ্বাল্লি ()
জয় নিজ অব ৷৷ ৩৪। শুৰ নিমন্ত্রী মা সালদ্বী অাখ। | সু জানি ন ল লালিলাষিখাল নামাই(২)ব্রহ্মা বা স্ব স্ব এশিয়ায় কন্যাখ্যা লা ক্ষুন। লামায়াজালুলারিজকালিমা শনা বিষন। নাম লজ্জায় সহ আন্তু ভূৰি ৷ নিজাঙ্কভি স্থলল আহাখ Sথা ভাল লিজা ভূন লুলু। অনাস্থল লক্ষবলল স্বত্ব
স্থল হাম্বলীল অলি - অঘৰংবঘায়ঃ কাজীর্থস্যা হৃঙ্খলাসজ দুশি শাষ। ছবি অ থঃ ॥ ৩৩ | ss ৷৷ | ওখান্তা স্ব স্থালি লহ্মা সুলতানা লন্স লালিলি লঙ্গসলিখলা। जल्पवितण्डे इति ।
ननु स इति पूर्वोत्तलक्षणं वादं पराश्य पुनस्तस्यैव तद्विरुद्धधर्माभिधाने व्याघात: स्यादित्याशझ्याह । = জুলি। বিহাঅ্যাসাজলল্লাহ। ন্যানি। সন্ত্র वादाद् भेदो जल्पस्य वितण्डायास्तु कथं भेद इति शहां লি তা নিন্দুত্বা। লাঞ্জনি। ইত্যাঢ়িবিহী
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(৭) সা —• C ঘ.। (২) নামায-ঘ• C ।
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তালিথযাম্। জুঞ্জাক্ষিক্ষু অবাঙ্গালামী মিডিয়ালুঙ্খত্মা ভা। নিজগদ্যস্বত্র ব্যাখলাস্বামী । অ আশ্রয়। নগ্ন ছি - যানিলা জিবীত্মা লা ইসলু-সঃ যঈনুলকাফি বা আঞ্জামাদি নিলী অকুনিলালS নিশা ১খনৰহ্মাক্রী বা ফাক্তিমীনাঅক নিজখা মফস্বাস্রাইৰ লাখ ভূমিক্ষালাভলি মিশ্রি:। না অ অ স্বাস্থলালুজায়ফা ল জাজিনিফার্ম লিভাষী বিন লল ভয় হল স্যামু। অক্সিন স্থানশাখা মুৰ মীম: । লাল ত্রিী বৃহস্থালাথি
জ্যিাশ লন্তু দুখঃ। ক্ষাণি শিথিল্পঘিাহিনিকাথ। ওল্পনালিলা। প্রিলিজ্বলাখাবিনি। বিসিবিলাসাশিক্ষাব্বাভালিम्भेदो लभ्यते तेन वादाद भेदः । शेषेण क्रमाद् वितण्डाহৃথক । ললু বিলিৰা ৰাৰ লআলি নিচ্ছি এলাকাবাহঃ জি লক্ষ্য হাयाह । तन्नोति । यथा कथञ्चित् परभजनैकतत्पराणां किं तया चिन्तयेति भावः। अवम्भो बलात्कारः । एकपक्षसत्त्वस्वपरपक्षसाधनोपालम्भयाईयोरपि यः कर्ता स एव जेता नान्यतरकारी किं त्वभावाद' भावोऽतिरिच्यत इति न्यायादुभयनपाद वरमिति इलाधते केवलमिति सपान्तमा चष्टे । तस्यां चेत्यादि । जल्पलक्षणे खूबसम्मति
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२१४
सटीकतार्किकरक्षायाम
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না অত্যা ম্লান্যালৰজা অযথানীৰ নীৰঃ। নলজা যথা: লালবাঞ্চাল নিজবা লা
तरमात्रेति। तदुन्तत् । यथाकोपपलच्छलजातिলিজালালাগাজী জাফর নি ॥ | গ্রনিক্সাঅলালীলা জন প্রশ্ন নি। भवति। अत्र प्रतिवादी यं कजन सिद्धान्तमवलम्ब्य নাম: মনত্ম জ্বাললাগা মিযী মৰি ল আমজাদাঘললাৰী নিজ হাधन इति । सिद्धान्तावष्टम्भरुत्ववश्यं करणीयः । माह । तदुक्तमिति । अत्र तन्त्रोचारितोपपन्नपदावृत्त्या यथोक्तं वादलक्षणे यदुपपन्नं योग्यं केवलप्रमाणतर्कतत्वावसायफलातिरिक्तं तेनोपपन्नो युक्तः छलादिसस्मिन्ना जल्प इति सूत्रार्थः । इति जल्पपदार्थः ॥
लोकोत्तरार्द्ध वितण्डालक्षणमुक्तं तस्यार्थ निष्कृध्याह । प्रतिपक्षोति । अत्र जल्प एवेति मासमग्निहोत्रवत् तद्धर्मप्राप्त्यर्थी नामातिदेशस्तेन छलादिसम्भिन्न इत्यर्थः। एतचास्यापित) जल्पवजयमात्रफलत्वान्न वादवत् केवलममाणतर्कव्यवहारनियम इति ज्ञापनार्थमुक्तम । लक्षणं तु प्रतिपक्षस्थापनारहिता वितण्डेत्येव । एतावतैव जल्पाद् वादादपि व्यावृत्तः । ईदृग्वादाभासव्यावृत्त्यर्थ तस्यापि सम्भावितत्वादिति केचित् । प्रतिपक्ष त्वसाधन इति प्रतिपक्षस्थापनानिषेधादर्थादस्थाप्यावलम्बो नकार्य इति भ्रमः स्याद् अतोऽभिप्रायं व्याचष्टे । अन्नेति । तास्थाप्यपक्षस्य
(१) वितण्डाव्यवहारस्थापि ।
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প্রচলিঃ জাঃ নাৰিনি লক্ষাযিল হয়কী জজুল নবিঙাবিলালী ফীলায় সুন| দ্বিারা ক্লালি সুলঃ হাল না লায়লনাক্স বিষদালনাৱাৰিসিন্তিন: অাশ্রয়স্থ ; ঘা। ল্ল যক্ষ্ম খাবি জানি নালি স্বায়ত্বশূন্য ন লাশ লিফাম্প্রচুর স্তু নিত্রালীলা বনশাল্লাম । জন্মবিনযাক্স জ্বালা অনুন্নালী আক্কাল।
লিভেল লল ও। নিলাফাহিম। স্কুল ছাহা জ্ঞাস্যানিসক্সানিয়াহু। ওখার । - লাফল ছাত্র লিস্যালু লজ্জ্বা ছিঃ। যাখাল দুনি। সন্ত্রালীঅন্ধশ্বালালি হাঁ; শী স্কুলস্কুলে বিস্ব। নাসল লাগঞ্জ ক্লাহ্মন্দা বিদ্যালয় নিম ফালি চাহাত্মত্ব ল হয়েশ্রিঃ । কি সুনাল দুখন। প তুলি। অস্বহিস্তানজী অলিথাল সাইন্স ল ন্ত ত্বালীল ভুলি লাল ? অন্য সংস্থা বা স্বজলি মাগ্রাফি কলৰি স্বাক্ষাবলী দ্বা লম্বা নানিয়াম্মিম্মম্ম ন স্বাম্বিঅলিৰ ৰিল। জত্বवितण्डयोरेवेति । चत्वारि पञ्च वा चतुःपञ्चानि षट् सप्त বা অনুমানি না। ভু
লিয় জারি অজুলা। সেই অনুযািিল জনমালা ভঙ্গत्ययः । लेखकस्वीकारपक्षे पञ्चमसप्तमसम्भवः । अथ वादे
Tags সহ-
সমঘেমে
গেলঙ্কাল-কালেহ-লাহে
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१६
सटीकतार्किकरक्षायाम् नियमावश्यम्भावः । वादे तु तदनपेक्षमेव तत्त्वावसायफलसिद्धेः । न च न विगृह्म कथां कुर्यादित्यादिभिर्जल्पवितण्डयोर्निषेधः शनीयः । नास्तिकनिरा
ফালৰহ্মানল নানিলিঅলালি। तदुक्तम् । तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे শ্ৰীজৰাৰহ্মার্থ ক্ষান্মাকিনি নাभ्यां विगृह्मा कानमिति च ॥ ७० ॥ ॥
अथ हेत्वाभासाः। हेतोः केनापि रूपेण रहिताः कश्चिदन्विताः॥६॥
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तन्नियमाभावे हेतुमाह । वादे विति। तदनपेक्षमझानपेक्षा क्रियाविशेषणं चैतत् । ननु निषिद्धयोर्जल्पवितण्डयो: किमर्थ लक्षणमुच्यते यत् प्रक्षाल्य त्यागः स्यादित्याशझ्याह । न चेति । कुतो न शनीय इत्याशय निषेधस्य नास्तिकेतरप्रतियोगिककथाविषयत्वादित्याह । नास्तिकेति । तर्हि किं तदनयोः कर्तव्यताबोधकं शास्त्रमित्याकाक्षायां सूत्रमेवेत्याह । तदुक्तमिति । स्मृतिवत् सूत्रस्यापि आर्षत्वात् तदपवादकत्वं युक्तमिति भावः। जल्पवितण्डे इति। कर्तव्ये इति शेषः । नन्वनेन सूत्रेणानयोः कर्तव्यतामान प्रयोजन चान्तं न तु विगृह्य कथनमिति कथमस्यापवादकत्वमित्याशयात्तरसूत्रे तदुक्तमित्याह । ताभ्यामिति । इति वितण्डापदार्थः ।। ७८ ॥ ६ ॥
__ अथ कथानन्तरमुद्देशक्रमाद्धत्वाभासा लक्ष्यन्ते इत्याह । अथेति।
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हेत्वाभानिरूपणम् ।
१७ हेत्वाभासाः पचधा ते(५) गीतमेन प्रपञ्चिताः ।
ভাল অনুঃস্লালা জানালা মিক্স স্বাভিমাকান্না চবি নল() স্রাসা মলিন। ते च पञ्चविधाः । तदुक्तम् । सव्यभिचारविरुद्धप्रकব্যালানীনালা বন্যা জানি। হীনमग्रहणेन मतान्तरे विशेष दर्शयति(३) । स चापन्यस्य निरस्पत(४) इति ॥ १६ ॥ ऽऽ ॥ तत्र सव्यभिचारः स्यादनेकान्तः स च द्विधा॥८॥ साधारणस्तथा हेतुरसाधारण इत्यपि ।
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হত্বানুলখা নিশিয়গুলা। অকাनामिति । अनुमानोन्तानां पक्षधर्मत्वादीनामित्यर्थः । नन्वेतल्लक्षणं केवलान्वयिकेवलव्यतिरेकिणारतिव्याप्तमित्याह । चतुःपञ्चानामिति । तयोश्चतुरन्यतमराहित्यमितरत्र पञ्चान्यतमराहित्यं च विवक्षितम् । तथा च योग्यान्यतमरूपविकले हेत्वाभास इत्यर्थः । तत्पाचविध्ये सौत्रमुद्देश प्रमाणयति । तदुक्त मिति ॥ ७९ ॥ ७ ॥
तत्राद्यस्य लक्षणं विभागं चाह । तन्नेत्यादि ।
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(9) पञ्चाधामी-पा. A प. । (२) सम्पत्तावधि हेतव-पा. B पु. (३) होतयति-पा. B पु. । सबति-पा. C पु. । (४) निसियत इति-पा• B_पु.।
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सटीकतार्किकरतायाम्
तत्र हेत्वाभासेषु सव्यभिचारो नामानेकान्त : (१) एकत्रान्तो निश्चयो व्यवस्थितिर्नास्तीति । तदुक्तम् । अनैकान्तिकः सव्यभिचार इति । स च साधारणेोऽसाधारण इति च द्विविधो भवतीति ॥ ६० ॥ ऽऽ ॥
१८
ननु व्यवस्थान (मतिलध्यान्यत्रापि वृत्तिर्व्यभिचारः । तत्र साधारणस्य पक्षसपक्षलक्षणस्थानाति क्रमेण विपक्षे ऽपि वृत्तर्भवति व्यभिचारिता () । पक्षमात्रवृत्तेरस्वसाधारणस्य कथं व्यभिचारिता । तस्य हि स्वस्थानवृत्तिरेव सहुचिता दूरे ऽन्यत्रापि वृत्तिरित्याशङ्कामपनुदन् विधाद्वयतेव विविच्य दर्शयति । श्राद्योन्ययादनेकान्तः पक्षश्रयकृताश्रयः (४) ॥ ८१ ॥
तत्रेत्यस्य प्रकृतिप्रत्ययार्थी दर्शयन लक्ष्यलक्षणपढ़े विविच्य योजयति । तत्र हेत्वाभासेष्विति । तत्र विधादयव्याप्तिज्ञानाय लक्षणपदं व्युत्पादयति । एकश्रेति । निश्चयवाचिनान्तशब्देन नियतत्वसाम्याद् व्यव स्थितिर्लक्ष्यते तेन साधारणस्य पक्षसपक्षयेोरिव विपक्षेऽपि प्रवृत्तेरसाधारणस्य सति सपक्षे पक्षमात्रवृत्तेर्विपक्षादिवत् सपक्षादपि सर्वस्मात् व्यावृत्तेश्व स्वसीमातिकमेण व्यवस्थितत्वादनैकान्तिकत्वमित्यर्थः । अत्र सूत्रं संवादयति । तदुक्तमिति ॥ ८० ॥ ऽऽ ॥
अथ यथेrror तरश्लोकस्य पैौनरुत्तयमाशङ्क्य शङ्कोत्तरत्वेन अस्यैव विचारणान दोष इत्याशयेन शङ्का पूर्वकमवतारयति । नन्विति ।
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(१) अनैकान्तिकः - पा० C. | (२) स्वस्थान- पा. C. 1 (३) व्यभिचारः - पा· B पु. ( ४ ) कृतान्वयः - पा. A पु० ।
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নামান্য।
৭
অনিৰজালন্ধানঃ জ্বলাম্বাঃ অবঃ | স্লাই তানি হান ন নাঅন্য ফি অন্ধ নিবন্ধ মু দ্বিদ্ধ ।
জাম্বু চায় ইলি। না ঘি ১থি স্কুলঅআ ফিল্ময়: হ নিৰ্যাবি হলদ্ধি ত্ববা জুমাত্র গ্রথিষ। স্মল হক্স অজামনথি ত্রানইবি : খসালাক্সি এক্স নিমজা ল মন জুনি ল সুফি-অম্বৰঃ। স্থাঘিজামহাস্থত্রি ৱনৰাশীনি মুমিন জালালা এষ জঞ্জ। এ ক্ষাত্রা স্বল্প নি
কানেকশন
অাল্লামানুষ মৃত্যঙ্গ দাবি লা লি হাঃ। অথ জন্মকাহিন্ধিগামজা। | দু হতাশী sr্যশিল্পী লিগলিত্যাহাঙ্ক্ষা তাৎক। সংখ জ্বংশানু। লন্ত মিত্র বিদ্যাসুন্নি
স্থান লাহিত স্যাম ওহু। গল্প বা মু। লালা জুকজ্বালিহাঃ হ্মস্বাশ । নগন্মি । অ অ জনি থী অঞ্চলশিক্ষাঃ স্বলি লাগলিतिरेकीति सिद्धमित्याह । अत एवेति । ननु श्लोके व्यतिযত্ব স্বত্বালি জুলাঙ্গল জাছ। জৰিযरिति । तत्रापि मात्रपदं प्रसादलभ्यमित्याह । पक्ष एवेति। স্ক ঘিাঅান্থলি। না৷৷ ৫৫। ss।
প্রতাত্রমাথায় চাঞ্চল্যকরকরণ
কদময় হরমোয়াময় দাশগুণগতমাবেশগতক্ষত্রে,
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२२०
सटीकतार्किकरक्षायाम रेक स्वेत्यर्थः । तत्र पक्षत्रयवृत्तिः साधारणः । यथाऽनित्यः शब्दः प्रमेयत्वादिति । सति सपने पक्षमात्रवृत्तिरसाधारणः । यथाऽनित्या भूर्गन्धवत्वादित्युकमेवेति ॥ १ ॥5॥ विरुद्धः स्यादर्तमाना हेतुः पक्षविपक्षयः ॥ ८२॥
पक्षविपक्षयोरिव वर्तमाना हेतुर्विरुद्ध इत्येवজাহাঙ্গীর স্বাস্থ্যালাসিজিকির साध्यविपर्ययव्याप्ती हर्विरुद्ध इत्याचार्याः । यथा नित्यः शब्दः कायस्वादिति । तदुक्तम् । सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्ध इति ॥ ८२ ॥ प्रतिबद्धः प्रकरणसमः स्यात् प्रतिलाधनेः ।
प्रतिप्रमाणप्रतिरूद्धो हेतुः प्रकरणसम इति अथ विरूद्धं लक्षयति । बिरुड इति ।
उदाहरति । यथेति । अन्न कार्यत्वादिति हेतुः साध्याभिमतनित्यत्वविपरीतानित्यत्वव्याप्तः पक्षविपरीतयोरेव शब्दघटयोवतत इति स्याद् विरुद्ध इत्यर्थः । सिडान्तमिति। यं कञ्चन शब्दनित्यत्वादिसिहान्तं प्रतिज्ञाय तत्साधनाय तद्विरोधी तद्विपर्ययव्याप्ती हेतुः प्रयुतो विरुद्ध इत्यर्थः ॥२॥
अथ प्रकरणसमं लक्षयति । प्रतिरुद्ध इति । स च प्रकरणेन प्रतिरोधकहेतुना समबलत्वात् प्रकरणसम इति द्रव्यम ।
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ইন্নামান্য । নিহা লাল নাসিমুজ্জ্বলুমিনিজশ্রঃ। কানিজ নুঃ হ্মমাল আত্মঘাল - ল ল জ ল ল লল(৭) লা নিবাঃ । খালি ল কষান। ললল লাখিল মনৰ অজ্বালাজানু()। অনু ল ট্রাঅংলম্বী(৪)নুলশ্রাব্বা!)। লাল স্থললে হয় জামিল জ্বালানীনভুষসঙ্গনি। ফখ । আনলাখাৰ চৰি ৰান্মিয়া সংলালিলাললাল মানাল নাম্বা লিমন জানি ল লিঃ । নন মুল্ম লালুললক্স নিস্বলুলালালিঙ্গালীল অলিঞ্জি না।
ननु प्रतिरोधो नाम गतिप्रतिबन्धः स च हतार्वचनात्मकस्यासम्भवीत्यत आह । प्रतिरोधो नामेति । सत्प्रतिपक्षोऽविद्यमानप्रतीतिहेतुक इत्यर्थः । ननु सर्वथापि प्रतिरोधासम्भवात् खपुष्पकल्पोऽयं हेत्वाभास इति शकते। नन्विति । स खलु पुरुषविशेषमपेक्षमाणा हेत्वा
না ললীত্যাহাল আহিব। লাৰি । ওন্নাস্লিালিন্ধৰিহাত্মন্তু হিব্বানা। লক্ষ্মীন। সলুলালিঙ্কাফিলালিফাইল মী সালিহাম |
(৭) মুমিনুল-মা B । (২) জানা -আ• c । (২) মিলায়া B । (৪) জুলাঘাবা -মা: C ।
.
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
२२२
यथा शुक्लोऽयं शङ्खः शङ्खत्वादितरशङ्खवदिति प्रयोगे पीतत्वेन प्रत्यक्षोपलब्धेः शुक्ल एव कथं स्यादिति । तमिमं प्रकरणसमं विरुद्वाव्यभिचारीति केचिद्वापदिशन्ति यथाहुः ।
यत्राप्रत्यक्षता वायोररूपित्वेन साध्यते । स्पर्शात् प्रत्यक्षता चासैौ विरुद्वाव्यभिचारिता ॥ इति । तदुक्तम् । यस्मात् प्रकरणचिन्ता स निर्ण
1
दाहरति । श्रथेति । एवमात्मनानात्वसाधनस्य व्यवस्थादेरतवाक्येन प्रतिरोध इत्याद्याम् । नन्वस्य ( () विरुद्धाव्यभिचारिणः परोक्काद्भेदे पञ्चैवेतिनियमभङ्गादित्याश का भेदमाह । तमिममिति । अभेदव्यक्तये (-) परोक्तमुदाहरणं दर्शयति । यथाहुरिति ।
अन्न वायोरप्रत्यक्षत्व साधकहेतोररूपित्वस्य प्रत्यक्षत्वे हेतुना स्पर्शवत्वेन प्रतिरुत्वाद्विरुड: प्रतिरुड: सत्यव्यभिचारामतीतेरव्यभिचारी चेति तस्यैव तथा व्यपदेशात् स एव स इत्यर्थः ।
अथ स्वोक्तप्रकरणसमलक्षणे सूत्रसम्मतिमाह । तदुक्तमिति । यस्माद्वादिप्रयुक्ताद्धेतोरुपरि प्रकरणचिन्ता विपरीतसाध्यसाधक हेतुविचारः प्रवर्तते स निर्णयार्थ स्वसाध्यसिद्ध्यर्थमुपदिष्टो वादिहेतुः प्रकरणेन प्रतिहेतुना समबलत्वात् प्रकरणसम उच्यत इति सूत्रार्थः । अत्र
(१) अस्य प्रकरणसमस्य विरुद्वाव्यभिचारीतिव्यपदेशात् प्ररकसम एव विरुद्धाव्यभिचारोति भावः ।
(२) प्रकरणसमात् ।
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हेत्वाभासानरूपण
हेत्वाभानिरूपणम् । আলখা:(৭)সল্যান্স নি। স্লিাল - হৃদখিন্নাথ নিজ বালুঃ লক্ষ্যধৰা নি জ্বলি ভালিম । হালি: মুতঃ যক্ষ্মথদ্বাৰামলামু অজ্বালানি। না নামকামি ল ল ছয় লাথি মন্ত্রে - ননি। লিশ ফাত্র আল : অল্প অল্প विपक्षः । न त्वेक एव हेतुः सपने तन्त्र वर्तत विपজন্তু ননী খনন লনি স্বমমি বৃক্ষ জাহ্মাহঅনলানিশান্ধা ফ্লাস্কায়াগায় লংলাথিৱস্থা আঘাষনষলানি: নন মুলাম লাই নি লহ্মিান। স্মভি অলা : হৃঙ্খলা গলু
| শিল্পী : জ্বাল ভুমি হা । - भूषणोक्तं लक्षणं दूषयितुमनुभाषते । एकदेशिनस्त्विति। दूषयति । तदिमिति । कुत इत्यत आह । न हीति । সকল নকি। নিন্ম দুলানি। ি হ লাरुभयत्र त्रैरूप्यं लक्षणं तदैकत्वमेव हेतारसिद्धमित्याह । पक्षसपक्षयोरित्यादि।
সত্ম াঅল্প শুনি। জাবি লি। अत्र लक्षणांशं निष्कृष्याह । असिद्धो हेतुरिति । (৫) মাছ:-• C • ।
৪৩
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তীকীৰ লাচ্ছি জুলয়া গ্লাস লিন্সিয়াল স্বাগুহামুনি ) ও বস্তু । কাক্সিস্থি হয় কাল নি ৷ দুই ॥ | স্নগ্রাফিব্লিা জ্বষ জিজা স্কি ক্লিান্ধা সুখ সদ্ধান্সস্বিস্ক্রিান্ত। গ্রাহ অগ্রনীলিঃ বিবি(২)। স্মশিল্পিদ্যোৰ: আলীঃ ১) বা মিয়া
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গ্রাঃ যন্ত্র না তালাম্মা।
| চিলিফিল্লাল। ফিল্মি तहि साध्यतुल्यत्वादित्यस्य किं प्रयोजनमत आह ।
অলআলি। সান্তা ভাজি ছবি আৰ। খুন হল কিন্তু সুখী। এই ৷ | লা লা লাল, অশ্বলি ভাল সিমন সি থ প্রত্বতল ভূন্যাহ
খািিভজাল ভিলিয়বাবু নবান্ধুবীকালজিক্স ভিলা আহু। अथेति।
श्लोके तदभाव इत्यत्र तच्छन्देन सिंडिपरामर्श इति व्याचष्टे । सिड्यभावोऽसिद्ध इति । एषैव लक्षणपदप्रवृ
(৭) সাব্বিান-ঘ• B • ? (২) ৰিাৱন- প্রা: A ! () নানা ঘাত হানা:- A ।
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२२५
हेत्वाभानिरूपणम् । व्याप्तस्य हेताः पक्षधर्मत्वेन प्रतीतिः । ततश्च व्याবিজ্বালাম মুলাশায় ত্রিং স্মিানি জলখিষ্ট্রা ফার্মানি। গ্রাজু। সুমি কায়: স্ব অ্যাঙ্ক: আজ চলিল্লালচলিয়ালালমুনি খান। গ্রাম্বালীল অঙ্গ
নাই অস্বীকাল মালারিযিনি স্বামীऽसिद्धयः । तत्र व्याप्यत्वासिद्धो यथा गर्भस्था मैत्रीत
PadmaamaasmaaaaaawaurwwANAMANANERames
तिनिमित्तमित्याह । तवानसिद्ध इति । लोके योग्यत्वाव्यवहितयोरपि व्याप्तहेतुपदयोरन्वयं वदन् असिद्धिलक्षणं निष्कृब्याह । सिद्धिश्चति । तथा च व्याप्त्यादिस्वरूपाभावे व्याप्यत्वासिझादयत्रयो भेदाः तदन्यतमप्रतीत्यभावे त्वज्ञानासिद्धिरित्येवं चातुविध्यं सिडातीति । फलितमाह । ततश्चेत्यादिना चतस्त्रोऽसिद्धयइत्यन्तेन । लोके पक्षस्येत्येतत् तस्याप्युपलक्षकमित्याह । पक्षतइति । तथा च पक्षस्य तडर्मस्य वा सन्दिग्धस्याभावे ऽप्याश्रयासिद्धिरेवति न त्रित्वहानिः । एतेन सिद्धसाधनस्याप्यन्त्रवान्तभाव इति सिद्धम् । आद्यभेदत्रये तावदुदयनलक्षणमालां संवादयति । यथाहुरिति । अत्रासिडः साध्यसम इति सामान्यलक्षणम् । स चेत्यादिना क्रमादाश्रयस्वरूपव्याप्यत्वासिद्धीनां विभागोद्देशः संग्रह तु वृत्तानुसारादुत्क्रमः । अथान्त्यपादं तच्छब्देनानन्तरोक्तव्याप्तिपक्षहेतूनां परामर्श इति दर्शयन् व्याचष्टे । व्याप्त्यादीनामिति । अथैषां क्रमेणादाहरणान्याह । तत्रेत्या
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२२६
सटीकतार्किकरक्षायाम नयः(९) श्यामः मैत्रीतनयत्वादिति(२) सम्प्रतिपन्नवदिति अयं हि शाकादयाहारपरिणतिप्रयुक्तव्याप्तिकत्वात् (३) सोयाधिकसम्बन्ध इत्यसिद्धव्याप्तिकः । श्राश्रयासिद्धी यथा ईश्वरो न सर्वज्ञः कर्तृत्वादिति । स्वरूपासिद्धो यथा अनित्यः शब्दः चाक्षुषत्वादिति । भागासिद्धी यथा अनित्ये वाइनसे मूर्तत्वादिति । বিদ্যাসাব্বিানি ছাত্মিৰিয়া ঝিল্লিविशेष्यासियादीनां उदाहरणानि स्वयमेव द्रष्टव्यानि । अज्ञानासिद्धी यथा । देवदत्तो बहुधनो दि । ईश्वरो न सर्वज्ञ इत्यत्रेश्वरासिद्धौ धमेसिडेस्तत् सिद्धौ धर्मिग्राहकबाधात् सन्दिग्धधर्मासिद्धेश्वोभयथाप्याश्रयासिद्धिरिति भावः । स्वरूपासिद्धरेव भेदान्तरमाह । भागेति । अत्र पक्षकदेशे वाचि मूर्तत्वाभावाद् भागासिद्धिः। पुनश्च स्वरूपासिद्धभैदान्तराण्यतिदिशति। विशेषणेति । अनित्यः शब्दः मूर्तत्वे सति गुणत्वात् गुणत्वे सति मूर्तत्वात् गुणत्वे सति कृतकत्वात् इति क्रमादेषामुदाहरणानि । आदिशब्दादयं सार्वभौमो भविष्यति तादृग्भाग्यत्वे सति क्षत्रियत्वादित्यादिसन्दिग्धविशेषणासि ड्यादिसङ्ग्रहः । अथाज्ञानासिद्धेषु हेत्वज्ञानासिद्धमुदाहरति । देवदत्त इति । सर्व क्षणिक सत्वाद्
samuaaTOMARomantummammiman
(१) मैत्रतनयः-पा. B घुः । (२) मैत्रतनयत्वात्-पा. B घु. । (३) व्याप्तित्वेन-पा. B . ।
20
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हेत्वाभासनिरूपणम् ।
भविष्यति तद्धेतुभूतादृष्टाश्रयत्वादिति । व्यायाश्र ययोरज्ञानासिद्धिरुदाहर्तव्या । एताश्चासिद्धयोऽन्यतराभियाऽसिद्धिभेदेन च भिद्यन्त इति ॥ ८४ ॥ s ॥
२३०
सिद्धसाधने तु सिद्धविशेषणत्वेन पक्षाभासतामिति केचित् । तान्निराकुर्वन्नसिद्धावन्तभावमाह । श्राश्रयासिद्धता हेताः सिद्धधर्मस्य साधने (२) ॥८५॥ पक्षी हि संश्रयस्तस्य स व साध्यान्वितेा यतः ।
भविष्यन्मैत्रीपुचो वाग्मी भविष्यति विशिष्टपुरुषत्वात् इत्यज्ञानव्याप्त्याश्रयासिद्धयोरुदाहरणे । अथ सर्वसिद्धिसाधारणं द्वैविध्यमाह । एताश्चेति । अनित्यः शब्दः बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षद्रव्यत्वादिति वाद्यसिद्धिः नैयायिकैः द्रव्यत्वानभ्युपगमात् कृतकत्वादिति प्रतिवाद्यसिद्धि: मीमांसकैस्तदनङ्गीकारादित्युभयविधेयमन्यतरासिद्धिः तत्रैव चाक्षुषत्वादित्युभयासिद्धिः ॥ ८४ ॥ ॥ ॥
ननु पूर्व के पक्षतडर्मयेोरभावादाश्रयासिद्धिरिति व्याख्यानादेव सिद्धसाधनस्थाप्याश्रयासिद्धित्वमेवेत्युप्रायमेव तत् किमर्थमुत्तरश्लोके पुनरुच्यत इत्याशङ्का पक्षपक्षाभासत्वपक्षप्रतिक्षेपार्थमित्याह । सिद्धसाधने
त्विति ।
साध्यान्वित इति । सन्दिग्धसाध्यधर्मक इत्यर्थः ।
(१) सिद्धविशेषणत्वेन पचाभासः सिद्धसाधनमिच्छन्ति के चित् - प्रा. B. ।
(२) साधनात् - प्रा. C. 1
घ - No. 1, Vol. XXIII. - January, 1901.
४१
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২২
ফীদিয়ারা | মনিমালায়ি শিল্প শ্রী লাল লিখ। লাখী বাঙ্গাল্পিা মনি। জুনঃ অন্ধ। জি নাবাঃ মিহিমু অলী অন্ন
জুলু। শঙ্খ অঙ্গা নির্মীয় প্রক্রিয়া চলমাকাবিন না নিয়াজ লালাখালি নিম্নজ্জামা জ্ব মিয়া শিল্প মি লিমিলিমািলাবিন্নিবী অলিনি । । Ss জালাৰীৰা লালা লামহীন মাখিল ॥ ॥
হানিত্মি জ্বালানীনঃ আলি হু লন্দু বিন্দুজাম্মল বা দাৰ্থি অস্বাস্থ্য प्रतिवादिन प्रति सिद्धत्वात् सर्वानुमानोच्छेदः स्यादिআজায় অন্যান্যই। মানখালা জ্বালি। লন্ত ফলব্দি অলিখি থ অন্য নালাগালিভহিত্যকাল ছা জ্বল। জ্বল ভূমি। ভয় ল স্বাক্লাম্মাযঃ ক্ষিপ্ত শব্দবিভিী অশা। অস্থায় নি। সঃ ফিল আস্থ। ননি। ওকলাখনি। লিডিহিঙ্খ। স্কুল মূল না।
ছিল। ছবিহিস্যা ন বিছাৰিহাখালহাত্মা থাখি। মা নান। ওসবীনি ৷৷ ৫। ss
সথ ফাতাহ্ম যা হুশি। ক্ষান্তাশীল স্থান।
লন্তু সত্যাথি বা ঈা আম্ব হাল্কা विषयापहारलक्षण इति व्याचष्टे । प्रमाणेति । संग्रहे बलঅনৰি ৰিহা ভাষাৰঃখথখলা न तु लक्षणाङ्गमित्याह । बलिन एवेति । केनानुमानेनास्य
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স্নাথজম্বাৱলম্বন । মগ সন্যালঘিনা অঙ্খা চালুবলি) গ্রাকিনি। সুলালমাঘিনা অত্যা স্বামীঃ লামা জুনানি। হৃঙ্খলুলালখিন ক্ষুনি আমু । শুন । স্লাান্নি মূলঘৰিাযাথা লক্ষ অত্মব্বিা ঘশ্ব। যা স্মঅৰিাষানানয়ম ক্ষিঙ্গিল যিফানালা - ঘৰিক্সা নাস্থলাহ্ম)। ফ্লষ্মা জাহ্মানজামঘি ব্রহ্মজ লাঘষাঘাষাল্লালুলাল লঅমল লোম্মা লিখেল্লাহু আলালাঘিনা ও চাঙ্গাঘিনা অজা গ্রাহ: “য়ালাঅ ল ফসলি লিলানিন । গলাললাম্বিনা আম মুহাম্বল ঘূনি। ঋলিনি। স্বালিঙ্গা ।
খনি। অন্তঃ মৃত্মাহঃ অতথা ঘললি ফ্রি লুলালি হাঃ। অঞ্জ সৰুঅ্যানালজি স্কাইফ হ্মন হাম্বলামুলাল আমলা। ওবিলি? ওয়াআলাই ১লনাবাহাত্মজালালাবালিকাজ নাই। অলি। হাবিছিলাঅলাহাগালু ৰাণায়াখালী নালাল নীল লিঙ্গালি। অন্য ভূন্য। জালালি। মহেন্দুবালা
হাত্মা গীদাহালিন্যান্যালুলাল নলৰ আ আ। ত্বকালিলি। লন্ত বিদ্যাসালা
(৭) ছোলা -য • B ।।
(২) নানয়নুন-সা• B । মহিমাযমান | - C ।
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গ্রামীলী। মরূদ্মা ল গনি অনুপ্রানি লি। লুলু ঘিালাক্সি আখিন মিক্সি লাল অক্সিফি অনলালাখাদিল্লি ানু লক্ষ। লুঙ্খালে জুম্মা ত্রাবিয়্যাখ্যা স্বঘালুত্রে লিসুমে জ্বলিবি দ্বীন। স্ব স্ব অব্দী অলিনি ঘাম্বিয়াস্কন্স ল লাখিনি জ্বি মুম্বানু অন্ধানোনিঘনঃ। না লালজীঘাভী আজভীশ্রালালিনি দ্যা অাখিনাম্বয়াল্লালিনি। বিকাল
গ্রাঘিনি লক্ষ জীমললিস্মাজিবি মু। ফল লিখিঅঅ আখি আকাশ
লজিস্থিরঙ্কুশ ভূৰি শিলাস্কালাক্তি বিধিসূত্র লালা লালঙ্গত্যাদি। ক্ষি ল স্থালি হৃদ। ললি। ৰ সুগন্ধি হিছানখকাম্বলীতল সম্মান লাখ জুতা দাঙ্গাसिद्धिरिति परिहरति । मैवामिति । तत्र बाधस्य पुर:ছুলি না । লুবননি। সসসসঅনল লিখাঃ গঙ্গাত্মত্যান্য ভিত্মিাহু। অস্থান্বিবি। | দলিল। অত্যন্ত বলি। হিলাল সুমি লুম্বিন্ধस्यैव हेतोः पक्षधर्मतामात्रविरहिणोऽन्योपजीवित्वादा
যাভিনি বঙ্খলা। জিভাখল লিখি। | স্কাখান্তি কাতালালা লা ইলাঃ স্বলনহীন
ন্যালু জানালা ভূন তাল। লালু মা। -
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কােকদন সকালেই শক্তি
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andingINATurmeramanHINCRENTERToderarmiltodaunmuTMAITRINAKenmamisamwestantiaawE
हेत्वाभानिरूपणम् ।
२३१
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सतां वदन्तो निरस्ता भवन्तीति ॥८६॥ | ‘মিদাষী মালাঙ্কিা জানি।। पञ्चैव कथमाभाता विद्यते ह्यप्रयोजकः ।। इति पर्यनुयोगोऽयं तार्किकस्य न युज्यते ॥८॥ | ক্ষমাফ শুদি জমিসাণীনি অর্থ এলুৰিহালাল এলুয়ান্ধকাৰ जाननस्य न युज्यत इति ॥ ८ ॥
कथं न युज्यते तत्राह । नेति । बाधस्यैवोद्भाव्यत्वाभिधानेनेत्यर्थः । तथा च पक्षादीनां सर्वेषामपि हेतुशेषत्वेन तदोषाणामपि हेतुदोषपर्थवसानाईत्वाभास एवायं न पक्षाभास इति भावः ॥८६ ॥
ननु हेत्वाभासा: पचति पूर्व सिद्धान्तितं पञ्चत्वपरिसंख्यानं किमर्थमकस्मादुत्तरार्द्ध निरस्यत इत्याशय न तन्निरस्यते किंतु स्थाणानिखननेनाक्षिप्य दृढीक्रियते पवेत्यादिना समक्षसमित्यन्तेन साहचतुयेनेत्यवतारयति । विभागो शामिति ।
नन्वप्रयोजकसावे कथं हेत्वाभासानतिरेक इत्याशय तस्यापि तदाभासत्वादिति ब्याचष्टे । अप्रयोजक इति । कश्चिदिति । पूर्वोक्तविलक्षण इत्यर्थः । पञ्चत्वपरिसंख्यानं पञ्चत्वावधारणमित्यर्थः । पञ्चग्रहणस्य पञ्च पञ्चनवा इतिवत्पशेरनिषेधपरत्वादिति तछेदेति वेदनार्थ ठकोविधानात् । ताकिकस्तकव्यापाराभिज्ञ इलि सोलण्ठनत्व सूचनाय व्याचष्टे। तर्कव्यापार जानानस्येति ॥ ८७॥
यस्येत्यादिना सार्डश्लोकेनैतदेवोपपादयतीत्याह ।
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A REARRArammawwRAMMARRAININOSATARIANANEmmunners
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सटीकता किरक्षायाम्
यस्यानुकूलतर्केऽस्ति स एव स्यात् प्रयोजकः । तदभावे ऽन्यथासिद्धिस्तस्याः स हि निवारकः॥८॥ तोऽप्रयोजकस्य स्याद्याप्यसिद्धेरसिद्धता |
२३२
अनुकूलतर्कवत एव हेतेाः प्रयोजकत्वात् तदभावेऽन्यथासिद्धिः स्यात् । उपाधिविधूननद्वारेणान्यथासिद्विशङ्कानिरसन हेतु स्तर्क इत्युक्तत्वात् । अन्यथासिद्धोऽप्रयोजक उपाधिमानिति पर्यायाः । यथाहुः ।
समासमाविनाभावावेकत्र स्तो यदा तदा । समेन यदि ना व्याप्तस्तयोहींनाऽप्रयोजकः ॥ इति कथमिति ।
तर्कविधूतान्यथा सिद्धिशङ्कस्यैव हेतोः प्रयोजकत्वात् तद्रहितोऽप्रयोजकः स च निरुपाधिकसम्बन्धलक्षव्याप्तिवैधुर्याद् व्याप्यत्वासिद्धित्वान्नातिरिच्यत इति लोकाभिप्रायमाह । अनुकूलेति । ननु तकीभावमात्रेण कथमन्यथासिद्धिरित्यत आह । उपाधीति । पक्षे विपक्षजिज्ञासाविच्छेदस्त नुग्रह इत्यत्रेति भावः । एतावता कथमप्रयोजकस्थानतिरिक्तत्वमत आह । अन्यथासिद्ध इति । अन्यप्रयुक्तव्यातिक इत्यर्थः । स च व्याप्यत्वासिद्ध एवेति
भावः ।
अतोsप्रयोजकस्य सोपाधिकपर्यीयत्वे तावत् सम्मतिमाह । समेत्यादि । यदैकत्र साध्ये समासमा विनाभावो साध्य समव्याप्तिकस्तद्भिन्नव्याशिका हौ हेतू सम्भवतः तयोर्मध्ये यो हीनव्याप्तिको हेतुः समेन समव्याप्तिकेनाव्यासश्चेदन्यथाऽनित्यत्वसाधने सावयवत्व कृतकत्वस्योपा
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हेत्वाभासनिरूपणम् । केचिन्तु परप्रयुत्ताव्यास्युपजीवीत्यप्रयोजकाप) ध्यपदिशान्ति । यथाहुः । व्याप्तश्च दृश्यमानायाः कश्चिद्धर्मः प्रयोजकः । यस्मिन् सत्यमुना भाव्यमिति शत्या निरूप्यते ।। अन्ये परप्रयुतानां व्याप्तीनामुपजीवकाः । द्वष्टैरपि न तैरिष्टा व्यापकांशावधारणा ॥ इति । । अन्ये तु सन्दिग्धव्याप्तिक इत्याहुः । यथा । দাজ্জাল অব অনুযাথিলা। धित्वप्रसङ्गात् सोऽप्रयोजक उच्यते । तथा च सोपाधिकस्यैवाप्रयोजकव्यपदेश इति भावः । . अथास्यान्यथासिद्धपर्यायत्वं च संवादयति । केचिदिति । परप्रयुक्तव्याप्त्युपजीवी अन्यथासिद्ध इत्यर्थः । यत्रैकेन साध्येनानेकेषां धाणामापाततो व्याप्तिदृश्यते तत्र तख्या व्याप्तस्तेषु धर्मेषु कश्चिदेक एव धर्मः प्रयोजको निरूप्यते केनोपायेनेत्यत उच्यते । अस्मिन् साध्ये सत्येवामुना साधनधर्मेण भाव्यं नान्यथेत्येवमन्वयव्यतिरेकलक्षण्या शन्तया सामर्थ्येनेत्यर्थः । ततोऽन्ये धर्माः परप्रयुक्तव्याप्त्युपजीवकाः पूर्वोक्तप्रयोजकधीपरागेापलब्ध्यव्याप्तिका इत्यर्थः । अत एव तैदृष्टैरपि व्याप्तवदृश्यमानैरपि न साध्यावधारणमिष्यत इत्यर्थः । अत्रापि निषिद्धत्वनयुक्तव्याप्त्युपजीवका हिंसात्वादय एवोदाहरणम् । __ उपलक्षणं चैतत् तद्व्यपदेशान्तरं चास्तीत्याह । अन्ये त्विति । साध्यादन्येन पापसाधनत्वादिसाध्यधर्मव्यति___(१) व्याप्यु पजीवक्रमप्रयोजक-पा. C घु.।
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सटीकतार्किकरक्षायान বিলা অন্ন নি অলঃ দাজ্জাম্বিন্ধ। লন: इति ।
নমস্তু যা স্নালিল্লাহ্মিন্দ্রলান্সি सवायमप्रयोजको न तु पृथगाभास इति ॥ ८८ ॥ऽऽ ॥
সুলকুজ্জামানাঅজ গ্রনিক্ষুনর্জলাৰ চলি व्याप्यत्वासिद्ध एव हेतुः स्यादित्यत आह । ফান ঘি সান্ধুলালা লাব্যাঙ্গাত্মীলিঃ ॥২॥
किं सर्वन नेत्याह। মাঙ্গোত্র ব্রক্ষ্মাক্সঃ(৭)। रिक्तन सकलसपक्षानुगतेन धर्मण निषिद्धत्वादिना विना पक्षे स्थिता धर्मे हिंसात्वादिः परप्रयुक्तव्याप्तिकत्वसम्भावनया सन्दिग्धव्यानिको मतः कैश्चिदित्यर्थः ।
तथा च सज्ञाभेदमात्रणामासान्तरत्वे ऽतिप्रसझात् सिद्धोऽसिहावन्तभाव इत्युपसंहारपरत्वेनातोपयोजकस्येत्येतच्याचष्टे । ततश्चेति ॥ ८८ ॥ ॥
ईशी गतिरिति । अनुकूलतर्करहितस्य हिंसात्वादेरिवास्पर्शवत्त्वादसूतत्वे मनसः क्रियावत्वं न स्यादिति प्रतिकूलतर्कहतस्यास्पर्शवत्वादेरपि अनूतत्वसाधनस्य व्याप्यत्वासिद्धत्वमेवेत्यर्थः ।
ननु प्रतिकूलतर्कपराहतस्य हेताव्याप्यत्वासिद्धिमभिधाय तस्यैवोत्तरइलाके स्वरूपासिद्धत्वाभिधानं व्याहतमित्याशय सत्यम् तस्य कचिदपवादः क्रियत इत्यवतारयति । किं सर्वत्रति । नन्वते तका सर्वे ऽपि स्वरूपा
(१) चनकाहयः-पा. A पु।
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কালম্বী সজ্জা মাৰিবিঃ ॥ ৫ !! | অজুগি হন অন্ধ। মালঙ্ঘন্ধুশ্রামঃ নিলা না হয় নি শিাল্লালতলা না হয়অস্বিাক্স আ ল ত শ্রোজিলিৰিাম । । | স্থায় স্বাস্থৱ গন্তব্দে শালিখাৰীজঃ মূত্র
জুনি )।। কারাগা আজি দালন ছিল গলা।
| মন্ত্রগুলি ; যত্ন শ্রোফাস্ম ভুমি বানু। স্বত্ব স্বাস্রাঙ্ক অক্ষঃ অবেলাল বলেগুখি হন না স্ব স্ব হবার। ছয় হাফফফ - বিভিন্ন স্থালোজি : জ্জিালি ভূরা নাহিঙ্খল বাহিক্কালত্বাহাত্ম্যালা । গৃহিনী লিলি। মাঃ গ্ধি । নীলি।
লমূহঙ্গাল ন্ত তাহিন্থি গীত্বঃ। বথ ম মজুহাৰ ত্ৰি গ্ৰাম্মাদিনা ৰানি
ভদ্ধ বলিনি লালঃ ২০। | ওখান্য "জললিফ ম্যানুয়ালাহयति । एवं चेति।
ঔদয় শ্রাশীকাহিনলাল হাবিইলাহান। জলध्यवसित इति । तस्य तदुन्तलक्षणं चाह । यथेति । केवलভালই লিখা বা ছলি। দুলানানালি । সখ থানালালললললা থাকাঙ্খলনাহাবিশ্রীলঙ্কান ভাল থ| (৭) সিমাহাম্মনিয: A । ~~Wo, 3, vol. XXIII.----February, 1901.
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सटीकतार्किकरक्षायाम
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भावान्न पञ्जभ्योऽतिरेक इति(१) ॥
हेत्वाभासवद् दृष्टान्ताभासा अपि किमिति सूत्रकारैरेव नाद्विश्यन्ते न च लक्ष्यन्त इत्याशङ्कायामाह। न सूत्रितं किमिति चेद्वृष्टान्ताभासलक्षणम् ॥ ६१ ॥ अन्तीवो यतस्तेषां हेत्वाभासेषु पञ्चसु ।
पक्षाभासवढ्ष्टान्ताभासानामपि हेत्वाभासेष्वेव यथायथमन्तभावान ते पृथक सूत्रिता इति ॥१॥5॥
तेषां कस्य कुत्रान्तभाव इत्यत्राह । रिहरति । तस्येति । तत्रानित्यः शब्दः आकाशविशेषगुणत्वादित्यसाधारणः। एवमन्येषामपि सर्वमनित्यं सन्त्वादित्यादीनां व्याप्यत्वासिद्धिभागासियादिष्वन्तभावः सुगम एवेति भावः। . ननूत्तरश्लोके स्मृत्रितशब्दप्रयोगो न युक्तः संग्रहकारस्य स्वयमसूत्रकारत्वादित्याशय सूत्रकारस्यैवायमुपालम्भा न त्वस्येति दर्शयन्नवतारयति । हेत्वाभासवदिति । आशङ्कायामाहेति । आशङ्कामनूद्य निरस्यतीत्यर्थः ।।
ननु दृधान्ताभासानां कथं हेत्वाभासेष्वन्तीव इत्याशय पक्षाभासवत् तल्लक्षणलक्षितत्वादिति व्याचले। पक्षाभासवदिति ॥ ९१ ।।ऽऽ ॥
ननूक्ता अपि हेत्वाभासा कतिचित् किमर्थमुत्तराडत्रये पुनरुच्यत इत्याशयाह । तेषामिति । दृशान्ताभा
(१) यथायोगमन्तभावान पञ्चभ्योतिरिक्त दर्शत-पा. B पु.।।
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२३७
हेत्वाभासनिरूपणम् । साधारण विरुद्धी वा दृष्टान्ते साध्यवर्जिते ॥२॥ असाधारणता हेतेस्तस्मिन् साधनवर्जिते। व्याप्य सिद्धिरभावे स्यादाश्रयस्य द्वयोरपि ॥३॥
साध्यविकला हृष्टान्तो विपक्ष एव स्यात्(२) । तत्र वर्तमाना हेतुः सपक्षान्तरवृत्तौ सत्यां पक्षत्रयवृत्तित्वात् साधारणानकान्तिको भवति। यथाऽनित्यः शब्दः प्रत्यक्षत्वात् सामान्यवदिति । अत्र विपक्ष सामान्य सपक्षे घटादौ पक्षे च शब्द वर्तमानः प्रत्यक्षत्वादिति हेतुः साधारणा भवति । असत्यां तु सपक्षवृत्ती पक्षविपक्षयोरव वर्तमान इति विरुद्धो ফানি। অস্বাভলি: : সীমান্তवदिति । साध्यधर्मवति दृष्टान्ते साधनविकले सपक्षादपि व्यावृत्तरसाधारणानकान्तिको हेतुः स्यात् । सानामित्यर्थः।
ननु साध्यविकलस्य साधारणविरुद्धयोरत्यन्तविलक्षणयोरन्तभावः कथमिच्छया विकल्प्यत इत्याशय तत्र हेतोः सपक्षवृत्त्यवृत्तित्वाभ्यां वैविध्याद् व्यवस्थितविकल्प इति व्याचथे। साध्यविकल इत्यादि। द्वितीया व्याचष्टे । साध्यधर्मवतीति । ननूदाहृते साधनविकले हेतोः पक्षमात्रवृत्तित्वादसाधारण्यमस्तु यस्तूदाहृतदृशन्तव्य
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(१) तयोरधिमा• B पु. । (२) विपक्ष एव भवति-पा. B पुः ।
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আৰ। জল অনিন্ম কথা মানি রূশঃ । নাহলুৰু নিম্মবি স্ব উঃ ফকিনি বাসালালমমি মি লক্ষ। দুঙ্গা লাফিস মাখা নাকি স্বল সুজা:) স্বাসযাক্স sqমিনা (২) : ত্যা ও ত্বালিঃ মুহ:
শ্রোকিনি অস্ত্র স্বামী অগ্র ম ম মুসলিনি। ললু নাম নিৱ অ কুনানি লিলিবিললালাথি ফসকান্দাই অন স্বনামান্যান্সকলকালানু লালাহলবাহাইল হজ। লানি। লাদাখাতালাই এৰি লজ্বিালাখাঅনিন্যি ভাষাবিজ্ঞানশীল ভূস্বাদ। লিনি। অঅঙ্গা সুনফ সম্বলিলহ্মাননা স্মুহঃক্ষুনিকালুজাতন্ত্র যে
অবিন্তালিবাহন্ত সত্যাভিলিনীৰ স্থান সুলআলাহ্মন ভাই। লখি নি। দাবিলা(3)লালীদাহাজ। লবি। নিথীভা
(৫) না:-: D -। (২) স্মারুজ্জামৃ-ঘ• B • ? | (3) শান্তি নায়হলি :।
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छलनिरूपणम् ।
२३९
धाय गगनतत्कुसुमयोर्निदर्शितयोर्न व्याप्यसिद्धिरिति दृष्टान्ताभासमात्रमन्त्रेति चेत् न अत्राप्यनुपदर्शितव्याप्तिको हेतुः स्यात् प्रतिपीडायां व्याप्यत्वासिद्विरेव । एवं च वैधर्म्यदृष्टान्ते ऽपि साध्याव्यावृत्तेरसाधारण्यं साधनाव्यावृत्तेर्विशेवः साधारण्यं वा उभयाव्यावृत्तावाश्रयाभावे ऽपि व्याप्यत्वासिद्धिः । ततश्च दृष्टान्ताभासानां हेत्वाभासान्तर्भावान्ना सूत्रितत्वोपालम्भ इति ॥ ६२ ॥ ९३ ॥
हलं सामान्यतो लक्षयति ।
यामिति । कृतकत्वानित्यत्वयव्याप्तिसङ्गावे ऽपि निर्दिषृहशन्तव्यत्तयोरनुपदर्शितव्याप्तित्वमात्रेण कथञ्चिद् व्याव्यत्वासिद्धिरेवेत्यर्थः । अथ साधम्येहान्ताभावद् वैधदृष्टान्ताभासानामपि हेत्वाभासान्तर्भाव एवेत्याह । एवं च वैधम्र्म्येति । तत्र पूर्वोक्तसाधनविकलादाहरण (२)मेंवात्र साध्याव्यावृत्तस्योदाहरणं साध्यविकलादाहरणं (३) च साधनाव्यावृत्तस्येति द्रष्टव्यम् । उभयेत्यादि स्पष्टम् । उपसंहरति । ततति । इति हेत्वाभासपदार्थः ॥ ९२ ॥ ९३ ॥
ननु छलस्य बहुशो लक्षणानि वक्ष्यन्ने तत् किमुच्यते किचिदर्थमित्यादिनेत्यत आह । छलमिति । सामान्यलक्षणं विना विशेषलक्षणावृतेः प्रथमं सामान्यलक्षणमुच्यत इत्यर्थः ।
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(१) अत्यन्त पीडायां - पा. B पु.
(२) शब्दा नित्य आकाशविशेषगुणत्वात् ग्रात्मवत् । (३) प्रनित्यः शब्दः प्रत्यक्षत्वात् सामान्यवत् साधारण्यम् अनि
त्यः शब्दः श्रात्रग्राह्यत्वात् शब्दत्ववत् ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम किञ्चिदर्थ )मभिप्रेत्य प्रयुक्त वचने पुनः । अनिष्टमर्थमाराप्य तनिषेधश्छल मतम् ॥ ६४ ॥
अन्तरविवक्षया वाक्यप्रयोगे वन्तुरनभिप्रेतमेवार्थ तदर्थत्वेनाध्याराय्यारोपितार्थदूषणं छलम् । अर्थश्चाभिधेय नौपचारिकस्तात्पर्यविषयच विवक्षित इति तेन छलत्रयसंग्रह इति(२) । तदुक्तम् । वचनविघाताऽर्थविकल्पोपपन्त्या छलमिति । वाक्यस्य विविधकल्पना नानात्वकल्पानोपपत्तिकारणतया वचनविघातः छलमित्यर्थः ॥ ४ ॥ | জ্বললি অৰিলষ্ট। নস্ত্র মা আমূলাক্তিभेदात् । तदुतम् । तत्रिविधं वापछले सामान्यच्छलमुपचारच्छलं चेति । तत् तु त्रेधा वाक्छलादिभेदतस्तत्र वाक्छलम् । अभिधावपरीत्येन कल्पितार्थस्य वाधनम् ॥५॥
किञ्चिदन्यमेव । अनिश्मनभिप्रेतम् । तनिषेध आरोपितार्थनिषेधः । तदेतत्सर्व व्यनक्ति । अर्थान्तरेत्यादि। नन्वर्थशब्दस्याभिधेयवचनत्वादिदं लक्षणमनभिधेयाथै पाकछलादन्यत्राव्याप्तमित्याशझ्याह । अर्थश्चेति । मुख्यामुख्यसाधारणाऽयमर्थशब्द इत्यदोष इत्यर्थः । अर्थविकल्पोपपत्त्या अर्थान्तरकल्पनयेत्यर्थः ॥ ९४ ॥
(१) कमप्यर्थ-पा. B . . (२) इति सर्वसङ्ग्रह सिद्धिरिति-प्रा. B पुः ।
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छर्लानरूपणम् । अन्तरविषयामभिधामभिप्रेत्य प्रयुक्तस्य शভয়াললিনা হায়মিঅাখি অাত্মাৰাত্র জানামি লিখা ন্যাকুমা। বিশ্বকালনৰিঅন আ ত্ম ক্লাসিকানিমূলাৰাত্রে মক্লিখ : গ্রাজু নাজ্জালজলা প্রশ্ন तद्वाक्छल मिति । तदुतम् । अविशेषाभिहिते ऽर्थ वत्तुरभिप्रायादान्तरकल्पना वाक्छलमिति । त
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नन्वभिधावपरीत्यमापचारिकत्वं तच वाकछले न सम्भवतीत्याशयाभिधान्तराश्रयणमिति व्याचथे। अर्थान्तरेति । ननु अनेकार्थस्यापि शब्दस्य वृत्तियायोगात् एकैवाभिधेति केयभिधान्तरवाचा युक्तिरित्याशय सत्यमभिधेय भेदाभेद्व्यपदेश इत्याशयेन वास्तवमर्थमाह । अभिधेयान्तरेति । अथवा अस्त्वभिधाभेदः तथापि लक्षणे कल्पितार्थस्य बाधनामित्ययुक्तम् अभिधावपरीत्यपदेनेत्यभिधोपादानसामा विपरीताभिधादूषणस्यैव लक्षणत्वावगतेरभिधेयार्थदूषणायोगादित्याशय तत्राप्यभिधेयपरत्वमेव विवक्षितम् तत्परिहारेण केवलाभिधादूषणस्य दुष्करत्वादित्याशयेन तात्पयार्थमाह । अभिधेयान्तरमिति। वाच्यान्तरकल्पनेति । वाच्यान्तरे प्रयुक्तस्येति शेषः । कल्पना कल्पयित्वा तनिषेध(२) इत्यर्थः । अविशेषति । अर्थदये ऽप्यैकरूप्यमविशेषः तेनाभिहिते ऽर्थे प्रयुक्त
(৭) স্নখিলীলামিঘমলৰ নিৰ্মাননানি ১ানঃ (২) নমুল আলম।
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রান্তু শ্রী: ওলিদাশ্রিলাঙ্গাখি। জলা ওষত্বঃ ঠান। লাক্তনাল। অস্বাক্তি | 9 ||
ওথ লানহ্মতলা। দালালি। লানলহালিদা।
নানান। | আনহালাল ভূস্থ্য তথাঃ আনিহাজানাঘ মন্ত্রী। নিয়নি। ভালফিत्यादि । तर्हि तकिमर्थमत आह । अतिसामान्येति ।
বঙ্গাললালমনিলালালালালাই - धोगत इत्यर्थः । कथमस्य तद्वोजत्वमित्याशच यथैतत् तथा दर्शयति । एतदुक्तमिति । उदाहरति । यथेत्यादि ।
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মানা জিলা স্কুঞ্জ নীলাভ ফাহ জালা। 'কালাঙ্গালীরা খহ্যালুঘালাহানিহালাবি শুদকান্দিলালালালাল-ন্যালিকা ক্লাস ইভানুলা সত্যগীলা সলনিন্যাদ্বয়া বিশাল লালালিনি সুস্বাস্থঃ ॥ । | স্বাস্থ্য ভাল হনি। ভুখাইনি।
তাত্তিাহ্মন ছিদ্বিত্বান্ধিলাভলু प्रयोक्तरविवक्षितं मुख्यार्थमारोप्य तस्यासम्भवदोषेण জ্বালানি হন্তান্ধা। | স্ব স্বাস্থ সুখী স্ব স্বীকান্মাহিঙ্কঃ জালালি ঠান্ধা স্থল ছবিসি। দুলালিন্যক্তি। হাকিকালিম্বা শাখান্ত্মিঃ। জালি কাল
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मुख्यः । यथा गवादिशब्दानां गात्वादिजातिकोडीकृता व्यक्तिः । नौपचारिकस्तु मुख्यार्थद्वारा प्रतीयमानः । उपचारश्च द्विविधः गाणलक्षणाभेदात् । तत्र লা। লাল গালি গ্রীন মূলিঃ। গ্রা আক্কাথ : নিন অঙ্গ ধাক্কায় নम्बन्धिनि तीरे वृत्तिः गाणी तु मुख्यार्थवर्तिगुणसामान्ययोगिन्यान्तर वृत्तिः । यथा सिंहा देवदत्त इत्यत्र सिंहवर्तिशायर्यादिगुणसामान्ययोगिनि देवदत्त सिंहशब्दस्य वृत्तिः । यथाहुः । মিআনিলানমনীনিকাঘৰীন।
लक्ष्यमाणगुणैागावृत्तेरिष्टा तु गौणता ॥ इति) । न्यव्यवधानेनेत्यर्थः । जातिकोडीकृता व्यक्तिरिति । न तु मीमांसकवजातिरेवेत्यर्थः । मुख्यार्थद्वारेति । मुख्याथैनैव द्वारा उपायेनेत्यर्थः । तेन हि स्वशब्दाभिहितेनाप्यनुपपन्नत्वात् स्वसम्बन्धी स्वगुणयोगी वार्थः प्रत्याययते स शब्दस्य औपचारिकोऽर्थः । स्फुटमन्यत् ।
अन्न लक्षणागैष्ण्योभहसम्मतिमाह । अभिधेयेत्यादि। मुख्याानुपपत्ता तत्सम्बन्धाान्तरप्रतीतिर्लक्षणा। लक्ष्यमाणेति । जातिरेव शब्दार्थः तदाक्षेप्या व्यक्तिरिति मीमांसकाः । तत्क्रोडीकृताव्यत्तिः शब्दार्थ इति नैयायिकाः । उभयथापि लक्ष्यमाणतत्तदूगुणयोगिन्यथान्तरे
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(१) रिष्यति गौणति-पा. C पुः ।
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छलनिरूपणम् ।
तत्र गौणं लाक्षणिकं वार्थमभिप्रेत्य वाकाप्रयोगे वक्तुरनभिप्रेतमेव मुख्यार्थमारोप्य तदसम्भवेन दूषणाभिधानमुपचारच्छलम् । यथा गङ्गायां घोषः प्रतिवसति सिंहो देवदत्त इति वा प्रयुक्त कथं जले घोषवासः कथं देवदत्तः सिंह इति वा प्रत्यवस्थानम् । अभिधातात्पर्य थप चारवृत्तिव्यत्ययेन कल्पितार्थनिषेध इति त्रयाणां सङ्क्षेपता लक्षणम् । कूलं च
२४५
सादृश्यनिबन्धना वृत्तिगौणीत्यर्थः ।
अथैवं लक्षणवाक्यस्थपदार्थमभिधाय तद्वाक्यार्थमाह । तत्र गौणमित्यादि । उभयमुदाहरति । यथेति । अथ शिष्यासुखवार्थ छत्रयस्यापि लक्षणत्रयं सङ्गृह्याह । अभिधेति । अभिधावृत्तिव्यत्ययेनोपचारवृत्तिव्यत्ययेनेत्यादि योज्यम् । तथा च वाच्यान्तरे प्रयुक्तस्य शब्दस्याविवक्षितवाच्यान्तरारोपेण तथैौपचारिकार्थस्यानभिमतमुख्यार्थीरोपेण सम्भावनामात्राभिप्रायेणोपन्यस्तस्यार्थस्य हेतुत्वारोपेण वचनविधाताः क्रमेण वागुपचारसामान्यच्छलानीत्यर्थः । अथैषामुद्भवोद्भावनयेोरवसरमाह । छलं चेति । अत्र नवकम्बलोऽयं माणवकः मच्चाः क्रोशन्तीति च वादिना प्रयुक्ते ततो द्वितीयकक्षायां प्रतिवादिना वागुपचारच्छadraraणोद्भवः ततस्तृतीयकक्षायां वादिनोद्रावनं सामान्यच्छलस्य तु ब्राह्मणोऽयमनूचान इति वादिनाके क्रमामुद्भवः तदुत्तरकक्षायां प्रतिवादिनोद्भावनमित्यर्थः । तत्र यथाकालमनुद्भावने छलप्रयोक्तुर्निरनुयो
१०७
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
द्वितीयादिकक्षायां (1) सम्भवति उत्तरकक्षायामुद्भाव्य
मिति ॥ ९२ ॥
इति श्रीवरदराजविरचिते तार्किकरज्ञाव्याख्याने सारसंग्रहे प्रथमः परिच्छेदः ॥
२४६
ज्यानुयेोगः अन्यथेतरस्य पर्यनुयोज्यापेक्षणामुभयोः प्रमादे पक्ष्यनन्तरं सभ्यैरुद्वाव्यं फलं तु छलप्रयोगस्य परव्यामोहनात् पाक्षिकविजयलाभ इति स्थितिः । इति छलपदार्थः ॥ ९७ ॥
इति पदवाक्यप्रमाणपारावारपारीणश्रीमहोपाध्यायकोला चला श्रीमल्लिनाथसूरिविरचितायां वरदराजीव्याख्यायां (७) प्रथमः परिच्छेदः समाप्तः ॥
श्री भद्रकाल्यै नमः ॥
( १ ) कक्ष्यासु - पा. B. (२) लोकाचल - पा. पु० ।
(३) वरदराजविरचितसारसंग्रहव्याख्यायां
ख्यायां - पा० F ।
१०६
निष्कष्टकासमा
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सटीकतार्किकरक्षायाम् ব্রিলীঃ বিঃ।
স্ময় জানঃ নগ্ন স্বশাস্য স্বাস্থ্য সুক্ষ্ম। স্বানিশীঘষি
জালঘুখানা লঘুকীঘিা ভীজ্জা)।
| লম: মাল। অসুহাখাল বহিস্টালিজুলিঃ। জুলা জালিথাৰিঠালনাঙ্গল(২)।
স্তত্ব সানিঃ লালনসহ হালকা জ্বালি - ঝাল রাজ্জ্বল স্বত্ব শিষ হাঃ। লগ গুলা
(৫) মলি ব্যাগমযঘাতী হা: নন যথেষয়। মা ম ন সিৰি ন থ থঃ যাহা বলিব্যালন ফাহিম নাম নিবনীয়রা যা ল যায় না। নীzি. অাত্রা । মালহয় । কিন্তু ছিল মুনীষীষয়টি। রানালয় হাল ৰিত্ব ল া হানামি দ ক ল হ হ ( () ঘ. ৭৪) যম নিমন্ত্রি কেনানীন, নয় ( ২০ য: ৫৭) জুন লিঙ্গ দালন সতীমালনীনি মা লাঘলন লিজায় জাযাদা। সুঘাষ্ট্রিয় নগ্নীবিন্ধা নন নি। মালমীলাম ।
(২) সমাহনাননহানি ঘমহি হয় মাত্মান জুন নুরানী ভাবিবি। ক্লিনীয়। মাত্রায়ন =নি মান্না।
৭০
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তীনাদিজলাযা। অহনাশা মাল জানিনি। নাকি মনৰহ্মৰক্ষানীনালাল্লামালানা ভাঙ্গায় ফানুস্বাদস্বাস্থ্যৰ লিনি খালা মালাক্ষিীঅনাত্মকাহিন্ধিা ৰ কাৰবি জানি স্বলম সল্লাল কুন্সজ্বা নই লুসাল্লল মিনি জমি তাকান। সন্ধাৰৰলিফিীঅন্যাল যিয়ী অালা। অনাথ লাখযা সন্মালমিমিয়লাখলিনি। স্বল্প - অন্যালুঘলকাত্ম। নন অথ যুদ্ধ লাথ
यं वैधयं वा सहचरितं तयास्मदुक्तमपि । न हि অন্ধ স্বাথ লাফানু বিয়ানীঅভিলাহ্মাৰয্য যান্ত্রিস্যাজাল জাহা ন্যাথা বিলালিলনালিখালল মাল ভানিমিনি স্যামি:। মালিকান্ধাৰ ললুন
অঙ্কু জানিৰিনি মাল ভৰিাঅনলগ লাব্যথা না। বন্ধত্ব লাঅলাজনিশ্বালা । নন্দ্র মিত্ম ত্যালাক্সি এন অনুথি শ্রমিথ অনणायां जाते।प्रत्यवस्थानं परपक्षप्रत्यक्ष (?) इत्यर्थः। तदिदं लक्षणमित्युत्तरत्र सम्बन्धः । सबुत्तरेति जातिरूपप्रकरण| মত।
৫৭০
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जातिनिरूपणम् ।
२४
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নাল ফসল: মম দুলা ভাষা লাमपक्षधर्मः कल्पितष्यं बलम् । तथाहि माटोऽयं नवकम्बलत्वादिति प्रयुक्तो कुतो नवास्या कम्बला इति छलवादिना नेदं साधकमसिद्धत्वादिति हि विवक्षितम् । तत्रासिद्धत्वादितिहेतुर्दूष्यदूषणव्याला सत्यामपि पक्षभूते वादिहेतावसिद्धः अविवक्षितमेव सङ्ख्याविशेषमित्यं कल्पयित्वा प्रवर्तत इति छलं भवति । अकल्पितदूष्यस्तु केवलनिरनुयोज्यानुयोगी भविष्यति पक्षधर्मत्वे सत्यपि व्याप्तिशून्यः प्रतिषेधहेतु तिः वादिसाधनं स्वसाध्यसाधनं न भवति युक्ताङ्गानपेक्षाप्रतिधर्मप्रतिरुद्धत्वादित्यादयः प्रतिषेधहेतवः पक्षधर्मा अप्यसाधकत्वव्यास्यभावाइवन्ति जातय इति । तथा च वार्तिकम् । जातिनाम स्थापनाता प्रयुक्त यः प्रतिषेधासमा हेतुरिति स्वात्मनः परेण साम्यापादनाय प्रयुक्तमुत्तरं जातिरिति मन्वानष्टीकाकारो बुद्धिगतमेव साम्यं समशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं मन्यतेस्म। यदाह समार्थः समीकरणार्यः प्रयोगा द्रष्टव्य इति । अयमत्र भावः । वादिना तो प्रयुक्त सदुत्तरापरिस्फूर्ती प्रतिवादिनः साम्यापादनबुद्धिर्भवति अस्मदुतन जात्युत्तरेणायं पर्याकुलितमानसा यदि स्वयमप्यसदुत्तरं ब्रूयात् तदा ममेवास्यापि निरनुयोज्यानुयोगः स्यात् निष्प्रतिभश्चेत् पर्यनुयोज्योपेक्षणं भवेदि
૧૧૧
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লালকের মর্যাদায় মহল
rcযারলেসকদলখোশদেহলবশ্যালকােহeo-
৩০পএ-বধান।
২0 |
নাদিয়া সুমাথি ফালাঃ গনিQাল। গ্রা ফসলুন ব্যাহফনাদ। তামিলুর মা ল জুমলা : ট্রাম্প নিন্ম মুনি জ্বিহ্মাস্যাল শিক্ষা লিঃ স্নাঞ্চল্লাল ফিলি। ক্লাহ্মাত্মা শখ থর্শী লাল ফানি স্রান্ত্রান খান ছা জানিনৰ ফুখি শ্রাহ্মান
অফ সুখক্লায়েলুলা না: অপু জানে এখললি হাশ্বেত্বাত্রি হত্যায় স্নান: স্কন্তু হ্যালু হলদ্দিন জুলি। মঙ্গল, হাম্বানহ্মতালুম তালিখি হয় ঋণ ।
লঙ্গ শক্ত দুঃশঙ্ক হয় ছাত্মা। স্পেী হুজ্জায়া অাস্থা ভূলুলু। |
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শুক্ল ফিল্পে সি সুমাঞ্জলি। নবজুঙ্খ শিলালিমিন।
প্লক্স মিলন লক্ষ্মলা।
মা লু হাম্বালমুসনু। । জ্বালাক্সি তালা সংগ্রাল গামুনাফালাথি লক্ষ্মীবালা বাহিঙ্গা নাकादिसमानां साधर्म्य एचैकपक्षे पक्षपात इत्याशाह । নয় নাৰনি। অন্যালাকিলিঙ্গ অজিলা স্বত্বাহাহঃ (?)। | নূন্যহা জ্বালা আলঘহ তাত্বাतप्रायमिदं पद्यम् । अतिरोहितार्थमित्यर्थः ।
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শুকে দেয়া হলেও কােনোমতে হত্যাকানগুলোতে
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ভানিলিও। | গ্রাম্রানৰ লিনি। সুর জানালা দিলাবায়ালন্দু।
গান্ধাবিজলা ত্রাত্য দাঘিমক্কল বিল্ডাঙ্গালুদিনঅন্ধ
যাদুঘলুঘলকিলিস্যালিন্ধাঞ্জলা হুনি। ব্রা স্বইঃ সুঘক্ষাঃ
আলাশিফলন ভূমি সুত্র : ঝাথাভিসি ফলঃ। বালি লিল্লাল অবল জ্ব। সুত্র জানুঃ লালাগ্রন - ন্ধান জীঅজানি। ৭।। | সুত্ব মন্ত্মিফা জানি হাল। আলহাত্মাক্কালু মিখলা যয়ালু নিখখন। সালাঃ মুসলিখল মুম্বাঃ ॥ ২॥ | বিলাতামুল ন ন্তু তথাবিনি সাল। লাথি লালিত্ত্ব স্বলহা সাননি দুর্থ লথযনি (?)। জাবহ লি। সানিলিপ্সানাল বীৰব লাঞ্ছিা ল ও ধূলাবাশ্বাশীলালিযা। স্বাগলীল। অহহাব ন সন্সাসকালিলালিলি যন্তণা অস্ত্রীঃ (?)। না साधयेवैधय॑समप्रतिजातिशब्दान् किं न प्रयुक्त इत्यগ। মান্নাবলি ?
ভালল মঙ্খলানিয়া বা নললিন্ধুলা লা স্কানি। জথ সনিলাযা হনি। * জলসুখলকাক্সান্তিৰি অহ্মঘলাইন্যান্সাযাNo. 3, Vol. 88I1-=8arch, 1901
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- এই মেনন
অহনাকে
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কত জায়গা কম হয়।
কয়েকজমেনশনসেকমহকুম-হত
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স্বীকানজিদায়া। | আল জলাবস্কলাল মানিলা লাগাই রূন স্মলসুনাজল গনিশাখীল মনিহাখনঃ
ত্রান সানিগ্রফলশ: স্বনামখানালা নাযাঙ্গালী মান্নান চবি খানালিলালমৰি লাচ্ছি নিল অনুৰাৰফালা - নস্ট্রার নগ্ন বালাবিলাল নিলালা।
যাঙ্গায় জানাযা জনিৰাখন নি। নন্স লাঘল সম্রাল অাঘাৰিনি ॥ ২॥ | ললু লনীৰ আ অ মুম্বাৰানিসিলচ্চিাভিনী স্ব নিখীলাঞ্চিখালা জানি সকালনা লাব্বানীঅন স্মা। साधर्म्यवैधर्म्यसमा तज्दावेव सूत्रिता।
নুসন্ধাৰ্যাথি মঘলন: খনখলান্তদুদুৰ ৰাঅনলাম নিলা নায। নানাবিনি ফিলহ্ম নছি - বল মনিলালানাথাললিনি কস্তুৰাৰঃ সাবিনি সন্যা ফালামু মাথাবিयं जातिः प्रवर्तत इति दर्शितं भवति । प्रतिरोधत इति प्रकरणसमाख्यजातेर्व्यवच्छेदः । स साध्यस्योपसंहारे সথলল অনিয়ন। জামুল হুনঃ বাল্যন্বিীঅঙ্গজীবী অ জ্বলনঃ ন ল ভক্ষাবন্ধमादीनामवान्तरभेदाश्च स्वयमेवेति भाष्यवार्त्तिकादिषु স্থানঃ দ্বিগুন যুদ্ধ ।
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| আনলিদাম। অনু মাজ। সম্মাননাঃ স্বনি দালননি জলি। | স্বামী অগ্নি জানি লালসা: হালিম। অঙ্খা নাল জনিথনা বালঅলা ন দ্য অনাস্থলী স্থান লাইফলানাঘালা লিনি। ২ | লালনশালায় না: অনঅনিন্দারসুল লিসজল। নী। স্বলু লালিলনা সন্ধান্ত: লাল।
খি জালিল ল লুন্সিলঃ। ৪। | না স্কুলজীজুনাল মাৰিলা লানীল নিনঃ জ্বাল জাম্মলনালননাজানি খান। নাযুদ্ধ লালু
লালনশাল্পনি। সু স্কুল। সাফ অঅসুসাৰ নৰলিবর্ষাযথ অনর্থক্লান্নিান। নকিনি সাবলী। অন্যাশনা ১ লা জুলনি। অলুলালালালাখুলনাभ्यामेव प्रत्यवस्थानमिमे अजाती ख्यातां तदा ह्येवं सति লাখালি লাঃ জালালু ন্যায়বিলিয়ানিলীলা তুমি স্ব খীক্ষাখি। কথামল্য বহুল অালী হাঙ্গা। उपसंहारकर्मतयेति । उपसंहारः समर्थनं तत्कर्मतया समগলাযন। লান্সন্যাসুল সাথী
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सटीकतार्किकरवाया प्रकृतत्वात् । उपपत्तेरिति तादर्थ्य षष्ठी। साधर्म्यवैधाभ्यामित्यावर्तनीयम् । सामान्यलक्षणसूत्रात् प्रत्यवस्थानपदमनुवर्तनीयम् । लक्ष्यलक्षणपदानां यथासोन सम्बन्धः । स्वपक्षसाधनपरपक्षाप्रतिषेधाभ्यां থ্রিলাল সাল অনিশীল জানি मिति सूचयितुं पुल्लिङ्गनिर्देशः । सामान्यलक्षणेनैव सदुत्तरप्रकरणसमत्वाद्धावनव्यवच्छेदः ततश्चायमर्थः सम्पदाते साधायेण वैधयण द्वाभ्यां वा साध्योपसंहारे वादिला कृते साध्यधर्मविपर्ययधर्मसिद्धार्थमनङ्गीकृत. সুহল স্বাহান্ধ নুজ্জাল স্বাস্থফল। মন্ত্রীपसंहार तथाविधेन वैधयण प्रत्यवस्थान वैधयंसम इति । यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदित्युपसंहारे नैतदेवमस्ति ह्याकाशेनापि साधर्म्यममूर्तत्वं तद्वनित्यः किं न स्यात् न चेदेवमनित्यापि न स्यादविशेषादिति साधर्म्यसमः । तस्मिन्नेवापसंहारे प्रत्यवस्थानं जातिरित्यस्माल्लक्षणपदानां लक्ष्यपदयोलक्षणपदयोश्च पुल्लिङ्गनिर्देशः समाहत्योक्तिः । सामान्यलक्षणेन दूषणासक्तं स्वव्याघातकं चोत्तरं जातिः अनेन सह उत्तरेति हेत्वाभासरूपप्रकरणसमस्य दूषणाशक्तताधमावात् तेन तयवच्छेद् इत्यर्थः । ततश्च सूत्राङ्गानामेव संविधानसद्भावात् तथाविधेनाङ्गीकृतयुक्ताङ्गेन साधयेणैव चेति नियमः । प्रत्यवस्थानेन तु साधन इत्याह । तस्मिन्नेवेति । प्रत्येकं च द्रव्यम् । वैधम्येणेापसंहारे कृते साध
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जातिनिरूपणम् । .. घटवैधाच्छ्रावणत्वान्नित्यः किं न स्यात् इति वैधर्म्यसमः । एवं वैधय॑ण द्वाभ्यां चोपसंहारे साधयेण च प्रत्यवस्थानं प्रत्येकं च द्रष्टव्याम् । तथा प्रत्येकं समुचिताभ्यां चोपसंहारे समुचिताभ्यां साधयंवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं चोदाहर्तव्यम् । अनुमानेन साध्योपसंहारे प्रत्यक्षेणापि प्रत्यवतिष्ठते । यथा पूर्वस्मिन्नेव प्रयोग स एवायं गकार इति प्रत्यभि. जाप्रत्यक्षेण नित्यः किं न स्यात् प्रमाणत्वाविशेषादिति । तथा शब्दापमानाभ्यां प्रत्यवस्थानमुदाहर्तव्यम् । सर्वासामपि जातीनां सप्ताङ्गानि वक्ष्यति । अन्न येण प्रत्यवस्थानं साधय॑समः । वैधथैण प्रत्यवस्थान वैधय॑समः दाभ्यां साधर्म्यवैधाभ्यामुपसंहारे साथभ्येण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमः वैधम्र्येण प्रत्यवस्थानं वैधWसमः इति प्रस्तुतम् । शब्दानित्यत्वानुमाने ऽन्यौदाहर्तव्यमित्यर्थः । अथ प्रतिधर्मसमयोर्विशेषान्तरसमामाह। तथा प्रत्येकमिति । साधम्र्येण वा धैधम्र्येण वा उभाभ्यां वोपसंहारे कृत उभाभ्यां प्रत्यवस्थानं चोक्तोदाहरणे साधर्म्यवैधर्म्यसमाख्य एकः प्रतिधर्मसमविशेषो द्रव्य इत्यथः । तथा शब्दापमानाभ्यामिति । शब्दानित्यत्वानुमाने प्रयुक्त नाचिक्षेतमुपाख्यानं मत्पुत्रोक्तं सनातनमित्याद्यागमादनित्यः किं न स्यात् । तथा तस्मिन्नेव प्रयोगे अनेन सदृशः पूर्व तेनोक्तः शब्द इत्युपमानेन नित्यः किं न स्यादित्यादिप्रत्यवस्था नमूहनीयमित्यर्थः । प्रत्यक्षादिना प्रत्यवस्थानस्य प्रतिधर्मसम इत्येव सज्ञा द्रव्याविषयवृत्तित्वं
१७७
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নিথলা লাজ লঞ্চনত্মাল সকাল নিৰাখন: অক্সাললিনি দ্বষ যুদ্ধাস্থলনিমগাবালক তালীজ নিঘাষণা – নানি জল মলা অনিয়াল নননি বনি। অসুল মু নিৰি স্বাঘাষনাঘায় শনি। নগ স্বাঘাষ সন্ত্রাঘাল। প্লাম্মাষখান লিলিথ। সুস্বাচ্ছীলীগ লিং নি। সঙ্গ স্বামী নাৰ স্বাস্থ স্ব স্মলীন কাজল অাখীল গ্রানাকিনি খ্রি জাস্বাক্ষঃ জমিগী স্থা: স্ব স্ব জ্যান্সল ঘি গ্রা লিম লন্ত ক্ষুন্নু নাৰিখনিক্সালমিলাকি নি। খাবাঁ ন যুদ্ধাজল যুৱ ন্যাযজ্ঞ বল নানি। নন্ম মুঙ্গ বালারাবিনি নিরিবিলি। আত্মা লাম্বানু না বীলঙ্কা শিল্পি: লামা অশ্লাক: নগ্ধা ভাল হৃক্ষत्वादिहेतोः साध्यसिदि व्यामादमूर्तत्वादेरिति यु
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লাক্ষাৰ অঙ্কুভশ্রী কৃঘিালাজীন্ধু সুন্দাজ অস্থা ভাবিনি। সয় দ্বিঘা জীখিনি অলঃ गोत्वात् व्यतिरेकेणाश्ववदिति । अत्र गोव्यवहाराख्यसाযনালিসুল সালাকিনি লাখ লালিযথা অ লালিহিত্যঃ বহালানিনি নান মী। | চানিভিলিঃ । লাম্বানি। অনন্যা।
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annu মেমমমমমমমমমম... unresscয়ালকােলেমেহেশক্ষাবেস
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ramecanataunto
जातिनिरूपणम् । क्ताङ्गहानिप्रदर्शनं सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ कस्याप्यनिष्ट धर्मस्य वादिसाधनशक्तितः । दृष्टान्तात् पक्ष उत्कर्ष उत्कर्षसम उच्यते ॥५॥
दृष्टान्तर्मिणि दृष्टस्य पक्षे धाविदामानस्य অভ নিলাদ্ধাঙ্খলা অফালা গুঘলस्येव दृष्टान्तात् पक्षे समुत्कर्षण प्रत्यवस्थानमुत्कर्षसमः । अविशेषसमाता भेदप्रदर्शनायोक्तं वादिसाधनशक्तित इति । तत्र हि सत्त्वादिना हेत्वन्तरेणात्क वक्ष्यति । सदावोपपत्तरिति । उदाहरणं तु अनि त्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति प्रयोग अनित्यत्वेनेव मूर्तत्वेनापि सहचरितं कृतमत्वं घटादावुपलब्ध शब्द ऽपि मूर्तत्वं साधयेत् । न चेदेवमनित्यत्वमपि न साधयेदविशेषात् । तथा क्षित्यादिकं सकर्टकं कार्यत्वात् घटवदिति प्रयोगे कार्य करीमत्त्वेनेव किं विज्ञशरीरिकतमत्वेनापि सहचरितं घटादावुपल
লিলি দ্বিাস্তামৰি নাথ কানাই লাখ বিশঙ্কন গান্তি মিযীনি নিয়মিदिहेतोगुणकीदी नित्यत्वव्यभिचारेण तस्मात् तत्सिडिरित्यर्थः ॥४॥
वादिसाधनशक्तितः वाद्युक्तहेतुबलात् उदाहरणान्तरापदेशव्याजेनेश्वरानुमानं प्रति मीमांसकादीनाम् ।
एवंरूपवचनमेतज्जात्युत्तरमित्याह । क्षित्यादिकमि
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सटीकतार्किकरक्षायाम् गद्धी हेतुरिति । कः पुनरस्योत्यानहेतुः पोऽविदामानस्य दृष्टान्त वादिहेतुसहचरितस्य धर्मस्योपल: নিয়ন্ত্ৰিাৰা নালিঃ জ্বলফ লাথাযা ফুল ন ল অাগুয়া মিল্লিলালননি । নির্মঘনাৰথি মিয়ীঅন্য শিশুস্বাস্থলরূনহ্মা লিল্লালাঅর্জন
বিনি এফলি লিল্লাহ্মফালি - येदित्यभिमतमनित्यत्वासाधकात्वं विरुणद्धीति । असाগ্রাহঞ্জ ন গ্রাভেলং জ্বালাই: জাকিল
ति । अभिमतं न्यायवायभिमतम् । विरुणद्धीति । तेनाव्याप्तत्वात् तं प्रतिक्षिपति । सर्वत्र तजातिविशेष लक्ष्यः तत्तद्विशेषसूत्रोक्तं लक्षणं प्रमादः प्रतिभाहानिर्वावसर इत्येतत्त्रयमुक्तप्रायमिति । तस्याङ्गान्तराण्याह । पक्षेऽविद्यमानस्येत्यादिना । तान्तिः फलं विशेषविरोधः आयातं तताङ्ग पराजित इति वादि अमो जातिवादिनः फलमित्यर्थः । साधारणतुकृत्वमूलं स्वव्याघातकत्वं नेदं स्वसाध्यसाधकमिति वादिसाधनसाहचर्यमात्रेण दिशं तत्पक्षोनिधर्मप्रसञ्जनं हत्कर्षसमः स जात्युत्तरेऽप्यस्ति कथं नित्यत्वसाधककृतकत्वरूपे दृष्टान्तविरुद्धत्वानित्यत्वसाधकमस्ति तदसाधकत्वं जातिवादिनो विरुडत्वात् इति हेतोः पक्षभूते वादिसाधने व्यापनं ततश्च नित्यत्वासाधकत्वं जातिवाद्यभिहितमनित्यत्वादिति हेतोः कर्तृमत्वानित्यत्वादिनेव किञ्चित् शरीरिकतमत्वमूर्तत्वादिना
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স্মীযালিলি সালু দাস্য লু গ্রামানিস্তাपादनादिति ॥५॥
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লা লিজা। प्राकाऽन्यतरस्य स्यादपकर्षसमः स्फुटः ॥६॥ মান স্বার্থ মামা লাল কাল্লিমাৰত্রে অজ নাল্লি হাজাখালালাগাম জনি স্বাহ কনামা অাঘাঘবঃ यथा पूर्वयोरेव प्रयोगयोर्दृष्टान्ते घटे कृतकत्वस्य वा | अनित्यत्वस्य बा व्यापकं सूर्तत्वं तच्च शब्दादावृत्तमिति तयोरन्यतरस्य निवृत्तिः घटादा करीमत्त्वस्य कार्यत्वस्य वा व्यापकं शारीरित्वम् तच्च नित्यार्निव
জিনি না স্ত্রী লিলিহান । ভাল व्याप्तिास्ति कार्यस्य शरीरस्य कर्तृकत्वाभावात् कृतकस्य कर्मणा मूर्तत्वाभावाच ॥ ५॥
अथ तेषामपि शरीरकर्तृकत्वमूर्तत्वसद्भावे जातिवाक्यस्य सिद्धसाधकत्वात् युक्ताङ्गहानिरित्यर्थः । अपकर्षणमयकर्षण प्रत्यवस्थानं प्रथमं शब्दनित्यत्वानुमाने अपकर्षसमं दर्शयति । घटादा कर्तृमत्त्वस्यति । साध्यपक्ष इति प्रबलप्रमाणबुड्या साध्यापकर्षाभिधाने बाधित्तविषयत्वं प्रतिप्रमाणबुड्या चेत् सत्प्रतिपक्षत्वमिति विभागः हेत्वपकर्ष इति विभागः हेत्वपकर्ष इति यया कयाचिड्या हेस्वपकर्षे सिद्धत्वमारोप्य उत्कर्षसमवदिति । नेदं स्वसा
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सटीकतार्किकरतायाम् । तुस्तु दूष्टान्ते साध्यहेत्वोापकाभिमतस्यः धर्मस्य पक्षे निवृत्युपलम्भः । साध्यापकर्षे बाधितविषयत्वं सत्प्रतिपक्षत्वं वा अारोप्यम् । हेत्वपकर्ष त्वसिद्धत्वं तदाभासायं साधारणमसाधारणं च दुष्टत्वमूलमुत्क
समावदूहनीयमिति ॥६॥ हेतोस्तु यादृशं रूपं पक्षमात्रे विवक्षितम् । तपहेतुमान् साध्यः सपक्षाऽप्यन्यथा पुनः॥७॥ भवेत् साधनवैकल्यमिति वर्ण्यसमादयः ।
पक्षवर्तिना हेतारसिद्धार्थत्वादीनि रूपाणि ঝিবিনালি স্বত্বানিল ফিল্মীলি। নালি पञ्चरूपाणि च रूपाणि वक्ष्यति । तत्र सपक्षविवक्षितरूपवद्धतुमत्तया सिद्धस्य दृष्टान्तस्य पक्षमात्र विवक्षिध्यसाधकं बाधितविषयत्वात् सत्प्रतिपक्षत्वादसिद्धत्वादेति जातिवाद्युक्तहेतवाऽपि न साध्यसाधका भवितुमाहन्ति । प्रत्येकं तथाविधवाधादियुक्तत्वादित्याचूहनीयम् । तथा व्यापकव्याप्य इत्यत्रापि न तु व्यापकामासाभावादिति व्याप्त्याख्ययुक्ताङ्गहीनत्वं चाहनीयमित्यर्थः ॥६॥
अचित्यादनवसरे ऽप्युत्थानबीजमाह । तत्र सपक्षविवक्षितेति । असिडार्थहेतुमान उभयसाध्यसिद्धसाध्यधर्मसहितहेतुयुक्तः । एवं रूपान्तरेष्वतिप्रवृत्तसाध्यज्ञापनशक्तिमत्त्वादिवक्ष्यमाणरूपचतुकृययुक्तो हेतुः सपक्ष विद्यते वा न वा। आधे पक्षवत्पक्षोऽपि साध्यधर्मवत्तया वयः स्याद् द्वितीये तथाविधहेतुमत्तया सपक्षः साध्यः स्यात् । अन्यथा साध्यसाधनवैकल्ययोरन्यतरप्रस
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कूप
जातिनिरूपणम् । तरूपवद्धेतुमत्त्वेनासिद्धिः कारणं वर्ण्यसमायाः । ततश्चेयमेवं प्रवर्तते किं पक्षवदसिद्वार्थहेतुमान् सपक्षःसिद्धार्थहेतुमान् वा पूर्वन्त्र सपक्षे ऽपि साध्यधर्मवन्तया वर्ण्यः साध्यः स्यादित्यर्थः । अन्यथा साध्यधर्मस्यासिद्धत्वसाध्यविकलो दृष्टान्तः स्यात् उत्तरत्र पक्षधिवक्षितहेतुमत्तया दृष्टान्तः साध्यः स्यात् । अन्यथा तादृशस्य हेतोरभावात् साधनविकलः स्यादिति । एवं रूपान्तरेषु च त्रिष्वपि प्रवृत्तिकारः स्वयमेव बोद्धव्यः । साध्यसाधनवैकल्ये दृष्टान्तस्यारोप्ये । अतिपीडायां हेतोर्विरुद्धत्वासाधारणत्वदुष्टत्वे मूलं तु यथे। सावर्ण्यत्वप्रतिषेधहेतावपि सुवचत्वात् त्वव्याघातः । अविषयवर्तित्वं च पक्षवर्तिहेतुरूपाणां सपक्षवर्तिन्यपि सारणात् । प्रयुक्ताङ्गाधिकत्वं वा सवक्षवर्तिनो हेतार्न युक्तानामेवासिद्धार्थत्वाद्यङ्गानामुरकरणादिति ॥ ● ॥ ऽऽ ॥
ङ्गादिति बेोद्धव्यमित्यर्थः । अतिपीडायां हेत्वाभासपर्यन्तचिन्तायां विरुत्वा साधारणत्व साध्यविकलः सपक्षी विपक्ष इति तत्रापि वर्तमानो हेतुः पक्षविपक्षयोरेव वर्तत इति विरुद्धः । साध्यधर्मवति सपक्षेऽप्यवर्तमानो हेतुः पक्षमात्रवृत्तिरसाधारणो भवत्यतस्तदुभयमारोप्यमित्यर्थः । यथेोक्तवर्ण्यत्वस्येति । नेदं स्वसाध्यसाधकं विरुद्धत्वादसाधारणत्वादिप्रतिषेधहेतेाः अविपक्षविवक्षितरू पाणां सपक्ष सत्त्वमसत्त्वं विकल्प्य उभयथापि वर्ण्यत्वस्य सुवचत्वादित्यर्थः ॥ ७ ॥ ऽऽ ॥
१८
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மோன்களைmiratiகைப்பைக்க ১৮ka dancredth=-lna৫efলামা কােষস-
খেয়াল
লেখক
-সমকালকেলম
হলে জানানো
| স্বীকানজিলাখা লস্কনি লা লাগ্রাম নিলি না ॥ যুদ্ধঘি লগ্নঃ আত্মা লালকুলা(২)। লালু বা স্বচ্ছ হাজাবঃ ॥ ৫॥ | হ্মি জ্বালাঙ্খি জ্বিাইনুলাল্ল া। ল স্ব অক্ষ্মী িল জাত্য: ধনু স্বত্বলিঃ বিন্ধুত্ব নামালালা না স্ব স্বত্বালিৱী নু। মাঅনিন্মে ন ফিলিস্নািহুম্মা যা ল াহ
ক্ষু গদ্য প্রাথল। যিনি স্বচ্ছালাহসুফলঃ। ক্স জাল বন্দি বিনম্র শ্রাল জার্মানির এজি অ আ হ জ্বাঝিনিজ দালালিমদ্দিন অানুলম্বিলি - ঘাষহুলস্নাবী সুষ অথই সাজ - ক্ষু ॥ ৪ } ।
স্বত্বশথি লাহিনি হাঃ। অণী ল স্বা। আলু ফান ছানাদি ব ল ল ল ম লাফালাফাহি। যমঘাতি হয় - নম্বীনি । উনাহগাছানহাৰিান্তিজ্বলন্তকাবাল্লাৰী ঘা ল স্বামঃ মোবিনি দুষ্টুव्यमित्यर्थः । साधारणमसाधारणं चेति । प्रतिषेधहेतार-- प्यवर्ण्यस्वरूपस्य व्याघातकत्वमविषयवृत्तित्वमयुक्ताङ्गाधिकत्वं च पूर्ववद्ज्ञातव्यमित्यर्थः ॥ ८॥६॥ | (৭) সনি -q: A . (২) সুবহানিনা- B q
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জানিলিযন্ত্র। কালি সুলঃ লালমনিলা বানিজিনালি আষি জ্বালি জ্বল জ্বালান্সানেল অন্তু। ঋলিঘাঅলাঞ্জলিল।
আদিলামু অাল লয় ॥৩॥ অ ননু অলা বিলি।
हेतुरूपं सपक्षे तु तापविपर्ययः ॥ ११ ॥ | নাৰঃ খন বিশ্বখনিয়া জ্বল ভুমি অঅনু। জ দি অল বিল ফলানি। বিষানাজা স্বল্প ন বিয়ে না কার্যক্ষল্পানু অজী বাবলা সমূছুখিনাঙ্গ ল না মুম্বল লাগাইয়া যাবি যা মাঅলালমিয়া :
খুল: জুন না স্বাক্ষলিঙ্গ অন্ধ ভ্রান্নিায়ু - ন৷ ন হয় সালাহাবাৰা স্মঘৰঙ্গ লামালা বাইনামিন। এ সুলালিস্ত্রী: আয়িঅনু অন্য নানীবালা মিয়া - নালি কথা িযজম্বালা মিলছিনানি। ৭e। ৭৭ । স্বলহ্ম্য কলাম অন সিদ্ধান্ত। নায়ু বিদ্বাৰা জিলানিনা ॥ংহ৷৷
पक्षे ऽसिद्धो भवति प्रतिवादिन इति शेषः । तत्र অলি। সন্তলানিন 'দি ব লা লা प्रमाणान्तरेण तत्साध्यसाधनयोयाप्तिः पक्षेण प्रमाতানজিবি ? ?
জদ আলমকে
একদিন আমি
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* শাহজালালেমক্ষের কার্যsurশক
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२६४
सटीकतार्किकरक्षायाम् अत्र षष्ट्यन्तो धर्मशब्दो हेतुधर्मान्तरं चाह । तृतीयान्तस्त साध्यधर्म धर्मान्तरं च । ततश्चैकस्य বনুল খলীলা বা খালান
যা না | धर्मान्तरस्य धर्मान्तरेण वा व्यभिचारदर्शनमुत्थानहेतुः । तेन हतारपि साध्यव्यभिचारापादनं विकल्पसमः। तच्च दृष्टान्ते साध्येन सह वर्ततां हेतुः पक्ष ন নল নিষ ননালিনি মনোঅালী । নন্ম हेतार्धर्मान्तरं प्रति व्यभिचारस्त्रिविधः । पक्षष्टान्तयोः पक्षयोईष्टान्तयोर्वति। तत्र प्रथमो यथा । अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति प्रयोगे यथा कृतकत्वं शब्दे विभागजत्वेन सह वर्तते घटे विनैव वर्तत इति विभागजत्वं व्यभिचरति । तथा कृतकत्वं घटे अनित्यत्वेन सह वर्तता शब्द तु तेन विनैव वर्ततेत्यनित्यत्वं व्यभिचरेदिति। द्वितीयस्तु अनित्ये वामनसी कृतकत्वादिति प्रयोगे कृतकत्वं यथा वाइनसयोर्मूर्तत्वममूर्तत्वं च व्यभिचरति तथा साध्यमपि व्यभिचरेदिति । तृतीयस्तु क्रियावाना
Runnemamanna
इति व्यवस्थयैव शून्ये पक्ष वृत्तिरेव व्यभिचारः न तु विपक्षगामित्वमिति नियमः घटे ऽपि नैव वर्तते शब्दविभागयोरेव विभागजत्वं अतस्तव्यतिरिक्त घटे विभागजत्वमन्तरेण कृतकत्वं वर्तत इत्यर्थः।मूर्तत्वममूर्तत्वं चेति । यथा कृतकत्वंमनसिमूर्तत्वेनसहवर्तते।यथाहवान्यमूर्नत्वेन(?)
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जातिनिरूपणम् । त्मा क्रियाहेतुगुणयेोगित्वात् लोष्टवत् तूलबदित्यत्र क्रिया हेतुगुणयोगित्वं हेतुः यथा क्रियावतो लोष्टतूलयोर्यत्तु लघुत्वे व्यभिचरति तथा क्रियावत्त्वमपीति । धर्मान्तरस्य साध्यधर्मं प्रति व्यभिचारो यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति प्रयोगे यथा प्रमेयत्वमाकाशघटयोरनित्यत्वं व्यभिचरति तथा कृतकत्वमपीति । धर्मान्तरस्य धर्मान्तरं प्रति व्यभिचारो यथा द्रव्यत्वस्य पयःपावकयेोरुष्णत्वव्यभिचारात् कृतकत्वस्याप्यनित्यत्वा व्यभिचार इति । अनैकान्तिकाभासोयं दुष्टत्वमूलं तु अव्याप्तस्य व्यभिचारान्न व्याप्तस्यापि व्यभिचारः । तथाभ्युपगमे वा प्रतिषेधहेतेारप्यन्यव्यभिचाराद्वाभिचारः स्यादिति व्याघातः । प्रविषयवृत्तित्वं चान्यव्यभिचारादन्यस्यासाधकत्वापादनादिति ॥ १२ ॥
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सह वर्तते मनसि वर्तत एवमित्यर्थः । आत्मनि क्रियाहेतुर्गुणः प्रयत्नः प्राणादिव्यापारहेतुत्वात् लोष्टे वेगः गुरुलघुत्वविशेषतदभावौ अनैकान्तिकचादनाभासोयं पक्ष ari विनैव वृत्तिर्नाम पक्ष विपक्षयोर्वृत्तिः भवत्यतः पक्षत्रय वृत्तित्वादनैकान्तिकचोदना भासायं सत्यपक्षवृत्तित्वाareerfers इत्यर्थः । अव्याप्तस्येषृसाध्यव्यभिचारिणो विभागजत्वादेः प्रतिषेधहेतोरपीति धर्मान्तरादिकं प्रति व्यभिचाराजातिवादिहेतोरप्यसाधकत्वरूपसाध्यव्यभिचारः स्यादित्यर्थः ॥ १२ ॥
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सटीकताकिरक्षायाम दृष्टान्तहेतुपक्षाणां सिद्धानामपि साध्यवत् । साध्यतापादनं तस्मालिङ्गात् साध्यसमा भवेत्१३
চনায় মলিকুলাৰ গ্ৰন্ধা নালাল লাখ নং হল লিজাসু মাত্রাঘাষাল - ध्यतमः । तस्मादिति वर्ण्यसमा भेदं दर्शयति । एवं प्रत्यवतिष्ठमानस्थायमभिमानः। दृष्टान्ते हि प्रयोजकत्वं हेतागुहाते तच्च साध्यं प्रत्येव प्रयोजकत्वं नान्यबेति। तत्रापि साध्यसिद्धार्थमयमेव हेतुः प्रयोक्तव्यः । इतरथा पक्षे ऽपि साध्याप्रयोजकत्वं स्यात् । एवं लिङ्गঅর্মিষাবি ধ্বিালা নঃ নন্নিায়ুত্ব ল সাঘালানি কিন্তু নয়াজােল साध्ये ऽप्यप्रयोजकत्वापत्तेः। कोडीकृतलिङ्गधर्मिलिজিমি লিনিয়ালজসজ্জাপ্লিজ লস্তি লিঙ্গधर्मिणावपाह्य माध्यमात्रप्रतीतिर्लिङ्काज्जायते । श्रय
साध्यस्य साधक साधनमिति प्रसिद्धिं विहाय पक्षादीनामप्यनेनैव साधनेन साध्यत्वं वदतः कोभिप्राय इत्याशझ्याह । एवं प्रत्यवतिष्ठमानस्येति । प्रयोजकत्वं साधकत्वम् इतरथा सपक्षे ऽप्यनेनैव साधनेन साध्यसिमनङ्गीकारे कथमेवमित्यत्राह । क्रोडीकृतेति । धर्मिलिङ्गसहितसाध्यधर्मस्यानुमेयत्वादित्यर्थः । अयमेव न्याय इति दृशान्तशतसाध्यस्यापि अयमेव हेतुः साधक इति स्थिते तत्रापि धर्मिहेतुसहितस्य साध्यत्वात् तयारघ्ययमेव साधक इत्यवगन्तव्यमित्यर्थः । असिद्धत्वाय इत्यादिश
(१) सपक्षेषु-पा• B पुः ।
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Mandirma
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जातिनिरूपणम् । मेव न्यायो दृष्टान्तधर्मिणि तहर्तिनि च हेतो दर्शयितव्यः । ततश्च पक्ष हेतुष्टान्तानामपि सिद्धार्थमयमेव हेतुर्यावन्न नभुज्यते तावत् तेषामसिद्धिर्भवेदिति। মামিংন্থন্ত্রিক ম্লান অ মানबेधहेतावपि दुरत्वात् स्वव्याधातः । अयुलास्वीकारश्च पक्षादीनां तत एव लिङ्गात् सिद्धरयुকাষা মাথল শুল্ক খালা আম্মা লামাसूत्रम् साध्यदृष्टान्तयोर्धर्मविकल्पादुभयसाध्यत्वाच्चात्कर्षापकर्षवर्ण्यावयविकल्प साध्यसमाः । अन्नोत्कर्षादिसमाख्यानिर्वचनमेवासां लक्षणम् । साध्यदृष्टान्तयोधर्मविकल्पः पञ्चानां कारणम् साध्यः पक्षः धर्माणां विकल्पी नानात्वं वैचित्र्यं तच्च तत्रतत्र दर्शितमेव ।
ब्देनान्यथासिद्धत्वं साधनविकलान्ताश्रयासिद्धत्वं च गृह्यते । हेतुदोषस्थाश्रयासिद्धिः स्वरूपासिद्धिः विरुद्धत्वमसाधारणत्वं व्यापत्य सिद्धिश्च तत्तचोदनाभासोऽयं तत्तशान्तिः फलमिति च द्रव्यम् । अस्य यथोक्तसाध्यत्वस्य । अत्रोत्कर्षादीति । पक्षान्तयोधर्मविकल्पाद्युत्थानबीजभेदादुत्कर्षेण प्रत्यवस्थानं अपकर्षण प्रत्यवस्थानमित्यादिकमासां जातीनां लक्षणमित्यर्थः । वैचित्र्यं सदसत्वं वैलक्षण्यं च । तनतन्नेति । उत्कर्षसमे साधनसहचरितमात्रस्य धर्मान्तरस्य पक्षदृशान्तयोः सदसत्त्वं धर्मविकल्पः अपकर्षसमे साध्यसाधनयोः व्यापकाभिमतस्य धर्मान्तरस्य दृधान्तपक्षयोः सदसत्त्वम् वर्ण्यसमे हेता पक्षस्थिन-~-No. 4, Vol. XXIII. -~-April, 1901,
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सटीकतार्किकरक्षायाम विकल्पसमायां तु साध्यदृष्टान्तयारिति पदं साध्ययोदृष्टान्तयोः साध्यदृष्टान्तयारिति प्रत्येकसमुदायोपलक्षणपरं योजनीयम् । उभयसाध्यत्वाञ्चेति षष्ठस्य हेतुः । चकारः पूर्वोक्तं धर्मविकल्पं समुच्चिमाति । अनुमाने सिद्धमागः साध्यभागश्चाभयं नाम तयाः सिद्धसाध्यत्वं धर्मविकल्पः । तत्र साध्यभागस्येव सिद्धभागस्यापि साध्यत्वमुभयसाध्यत्वं ततश्च सिद्धभागसाधनार्थमनुमानप्रयोगप्रसञ्जन साध्यसम इत्यर्थः । श्रासामुद्धारसूत्रम् किञ्चित् साधादुपसंहारसिद्धबैधादप्रतिषेधः। किञ्चित् साधाद् व्यामात् साध्योपसंहारे सिद्धे वैधादव्याप्तात् कुतश्चिात् प्रति. बेधा न भवतीत्यर्थः । वयावर्ण्यसाध्यसमानां स्वव्याঘনবসমলা মুক্ষ স্বাক্সনিকমান্ত্র কুহালীমपत्तरिति । यतः साध्यधर्माऽन्यत्रातिदिश्यते स दृष्टातरूपाणां पक्षसपक्षयोः सदसन्त्वम् विकल्पसमे साध्यसाधनधान्तराणां पक्षान्तयोः दृधान्तयोश्च नानात्वम् साध्यसमे ऽनुमानस्य सिद्धसाध्यभागयोधर्मिहेतुसाध्यधमीणां सिद्धत्वसाध्यत्वरूपवैलक्षण्यं धर्मविकल्पः साध्यभागस्यैव सिद्धभागस्याप्यनेनैव साध्यत्वापादनादुभयसाध्यत्वमिति तत्र दर्शितमित्यर्थः । व्याप्ताद् वाद्युक्तात् कृतकत्वादिति हेतोः। अव्याप्तात् जातिवाद्युक्तात् युक्तानहीनत्वादियुक्ताद्विरुद्धादिहेतोः । यतः यस्मात् दृrन्तादन्यत्र साध्यधर्मिणि अतिदिश्यते यथा घटः तथा शब्दोऽपीति प्रतिपाद्यते उभयोरपि सिद्धत्वादित्यवर्य
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२६९
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न्तः । सिद्धेन चातिदेशा भवत्यसिद्धस्येति न्यायात् सिद्धो दृष्टान्तः । पक्षस्तु साध्योऽङ्गीकार्यः उभयोरपि सिद्धत्वे साध्यत्वे या दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकभावव्याघात इति ॥ १३ ॥ प्राध्य साध्यं साधयति हेतुश्चेत् प्राप्तिकर्मणः । साध्यस्य पूर्व सिद्धिः स्यादिति प्राप्तिसमोदयः
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জ্বানিমুল বিশ্বাৰী আনিঃ নন মাত্র कार्य जाप्यं च । तत्र कार्यमनुमितिचान ज्ञाप्यमनुमेयम् हेतुश्च लिङ्ग तज्ज्ञानं वा । प्राप्तिः संयोगादिविषयविषयिभावश्च सिद्धिः सत्त्वं शातत्वं च समयोरुत्तरम् । साध्यत्वे वेति । वर्ण्यसाध्ययोरुत्तरमिति विभागः ॥१३॥
प्राप्तिकर्मणः प्राप्त्याख्यसम्बन्धप्रतिसम्बन्धिनः । . कृतिज्ञप्तीति । अनुमितिज्ञानस्योत्पत्तिपक्ष अनुमेयप्रतिपक्षे चेयं जातिः प्रवर्तत इत्यर्थः । ततश्चेति । सिद्धिशब्दस्य कृतिज्ञप्तिवाचकत्वात् साध्यशब्दस्यानुमितिज्ञानानुमेयं च वाच्यमित्यर्थः । हेतुश्चेति । व्याप्तत्वेन परावृष्टं लिङ्गपरामर्श वा हेतुरिति पूर्वमेवोक्तमित्यर्थः । प्राप्तिः संयोगादिरिति । यदा लिङ्गं हेतुस्तदा साध्येन यथायोगं संयोगसमवायादिः सम्बन्धः यदा लिङ्गजानं हेतुस्तदाविषयविषयोभाव इत्यर्थः । सिद्धिः सत्त्वमिति । कृतिपक्षे सिद्धिरुत्पत्तिः ज्ञाप्तिपक्ष ज्ञातत्वमित्यर्थः । आहत्यपदेन किमुक्तं भवतीत्यत्राह (?) । एतदुक्तं भवतीति । तेना
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মাৰিদাৰ হন খান লিজ নজনাল না দাললুঙ্গি নিয়াল মাত্রে স্বার্থ সাহা না মাত্র বনু কা' খুব স্বল স্বাল কমিআ নল শ্রনি আর না সমুহ ফানি ফলশ্রী অমলিনীলানা লিয়া
। নঅ ল জাহাঙ্গীর্জন হল জ্বালাহাবাহণি নামি ফ্লীলা লিঃ দায় জ্বাৰখা জ্বাই মনি লিলাললুলালাগান মুনিজ জামিয: সনি: জুহি সত্রে জানাবলী - নিলজা ত্রেনি হজ্জ জিলাল লিজিলা ইয়াকিন্সালাম্ ঝিমলি আজকা। ন ল লিঙ্গল জিল্লি জিলাথি - যা আনলাক্সিীকান্ র্জি জত্ব অর্জ জাই নি। নন গ্রাম্বালমিয়া দাখিললুনিলালা লালু। মাঘানানজামুঘলললুলন্ত। স্বাক্ষ্য সুল লিনি নাযি মন্ত্রাঙ্গ লাহীনি শিল্পী। জালি অঞ্জী অনিল। লম্বা ল গাসিলিলিঙ্গ লিলুলাল ওলালিনি। লললল লুলাল মাজল নলু ফুল হত্যানুলালজযাত মুখী ব্ৰাখি । अतिप्रसङ्गातारविशेषज्ञापकत्वे प्रसङ्गात् लिङ्गज्ञानस्य लिङ्गपरामाख्यस्य हेतालिङ्गिना साध्येन संयोगादिगुणस्य
না জানাঅনিহিল ফায়ালখালআত্মিঃ । লম্বা লালী। ইন্দিভিল সাথি सिद्धत्वात् उक्तमत्र अप्राप्तिसमायां प्राप्य साधयन्नित्य
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আনিলিব । णासिद्धिरारोप्या। दुष्टत्वमूलमुत्तरत्र प्रदर्शयिष्याम इति ॥ १४ ॥ अप्राप्य साधयन् साध्यं हेतुः सर्वं च साधयेत् । अप्राप्तेरविशिष्टत्वादित्य प्राप्तिसमस्थितिः॥१५॥
মাত্রা নিরীলথ্যালাখলনা সুঙ্গা জাহয় ज्ञापनं च वक्तव्यम् । तच्चायुक्तमतिप्रसङ्गात् । न हि दाह्ममप्राप्तो दहना दहति प्रकाश्यमप्राप्य प्रदीपः प्रकाशयतीति च दृष्टमिष्टं चेत्येवम नामावतिप्रसङ्गादसाधनत्वेन प्रत्यवस्थानमप्राप्तिसम इति लक्षणम् । प्राप्तावविशेषादसाधनत्वमुत्थानहेतुः । साध्य प्राप्तिहेताविशेषणं तच्चान नास्तीति पूर्ववद्विशेषणासिद्धिখানি। লালক বান্ধু জাত্র শালা वा हेतोः प्राप्स्यविशिष्टत्वाद प्राप्यासाधकत्वाच्च प्राप्त्यप्राग्निसमाविति। हेताः साधकत्वमिति शेषः । विकल्पनास्थानहेतं दर्शयति । कार्यकारणभावापलापवादिना होवमाहुः ॥ ब्रापि साध्यहेतुव्याप्त्या शब्दानामित्यर्थः ॥ १४ ॥
पूर्ववादियमपि कृतिज्ञाप्तिसाधारणोति दर्शयति । अप्राप्य करणं ज्ञापनं चेति । अतिप्रसङ्गात् अप्राप्त्यविशेपात् सर्वस्य करणे ज्ञापने च प्रसङ्गादित्यर्थः । न हि दृमि चेति सम्बन्धविकल्पेनेति सूत्र प्राप्य साध्यमप्राप्य वा हेतारित्यन्तं न लक्षणापयुक्तमिति भावः । एवंविधं जात्युत्तरं न कश्चिदत्यस्थानोपालम्भोऽयमित्याशङ्कयाह । कार्यकारणभावति । अपलापवादिनः बौद्धचा कादयः ।
Mammam
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
স্নাল্লাজিন অফ হ্মাৰী: জিমি:। असम्बन्धस्य चात्पत्तिमिच्छता न व्यवस्थितिः ॥ इति।
स्वव्याघातकत्वमनयाः सुगममेव प्रतिषेधकहेतावपि दृष्यं प्राप्य वा अप्राप्य वेत्यादिप्रसङ्ग स्या दु:থা। মাথাৰখাঁ ও মাঝি যুঞ্জা জাঘিकत्वं कृतिपक्षे साध्य प्राप्तरयुक्ताया एव स्वीकारात् । अयुक्तिश्चाप्राप्नैरेव दण्डादिभिर्घटादिनिष्पत्तिदर्शनात् । चतिपक्षे तु लिङ्गस्य तावल्लिङ्गिना प्रतिबन्धलक्षणा प्राप्तिरस्ति । लिङ्गज्ञानस्यापि तद्व्याप्तविषयिलक्षणा लिहिना मानिरस्त्येव । साक्षाद्विषयविषयिलक्षणा नास्तीति चेत् । तलयुक्ताङ्ग स्वीकारः लिङ्गनानस्य साक्षात् साध्यधर्मविषयत्वस्थानङ्गत्वादिति । अप्राप्तिसमाप्यतेन निरस्तवायुक्ताङ्गश्च व्याप्तिलक्ष. णायाः प्राप्तरनङ्गीकारात् । साक्षात् सम्बन्धोऽङ्गमिति
नास्ति सम्बन्ध कार्यस्येति शेषः । कारणैदण्डचक्रादिभिः कारणैः सत्त्वसङ्गिभिः सत्पदार्थसम्बन्धवद्भिश्च स्वयंसिद्धेवी न व्यवस्थितिः एकस्मात् सर्वस्योत्पत्तिप्रसङ्ग इत्यर्थः।।
प्रतिषेधहेतारपि नेदं स्वसाध्यसाधकं विशेषणासिहत्वादित्यत्रापि ज्ञप्तिपक्षे ऽप्ययुक्ताङ्गाधिक्य प्रतिपादयितुमाह । ज्ञाप्तिपक्ष विति । प्रतिबन्धलक्षणा व्याप्ति रूपा। लिङ्गज्ञानस्यापोति । लिङ्गपरामर्श हेतोः साध्यव्यातलिङ्गाविषयत्व रूपः साध्येन सम्बन्धोऽस्तीत्यर्थः । साक्षाद्विषयेति । हेतुसाध्ययोरव्यवहितसम्बन्धाभावे ज्ञाप्यज्ञापकभावो न युक्त इति चेदित्यर्थः । एतेन प्राप्तिसमोक्तदोषा
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जातिनिरूपणम् ।
३७३
चेत् तीनकाङ्कीकारः । अभिचारकर्मणा भ्रातृव्यमारणादा साध्यमाने दृष्टमेतत् । यत् साक्षादप्राममपि साधनं भवतीति तदेतत् सर्वमभिसन्धायोक्तं घटादिनिष्पत्तिदर्शनात् पीडने चाभिचारादप्रतिषेध इति । केचिन्तु साधनविशेषः साध्यविशेषणा व्याप्नो न वा। न चेत् न तं गमयेदतिप्रसङ्गात् व्याप्तश्चेदाप्तिग्रहशासमय एव लिङिविशेषस्यापि बातत्वादनर्थकবাললাম বাল মাদ্বিস্বত্ব স্ব সালি लिङ्क परामर्शस्य करणत्वात् । करणानां च कर्मप्रत्याসুস্বাৰা নিয়াখালি । না चात्र नास्तीति प्रत्यवस्थानमिति लक्षयन्ति । अनৰত্ৰা কাৰান্ধনীহ্মাৰানু মানিমী অফণীचकराचायोः ॥ १५ ॥ सिद्धे दृष्टान्तहेत्वादा साधन प्रश्नपूर्वकम् (१) । णामत्रापि सुवचत्वेन । दोषान्तरमाह । अयुक्ताङ्गश्चेति । मारणादा मारणाचाटनविषणस्तम्भनादा इति मित्ते सप्तमी ।प्राप्य साध्यमिति सूत्रस्यान्तरं ववन्तरव्याजेनाह । केचिन्विति । साधनांवशेषः पक्षवर्ती हेतुः साध्यविशेषेण सिषाधिषिलधर्मेण । कारणानां चेति । वास्यादिकरणानि दावादिकर्मणा सम्बहान्येव क्रियाजननद्वारा द्वैधीभावादिकं फलं जनयतीत्येवमेतदपीत्यर्थः । एतदपि व्याख्यानममदभिमतमित्याह । अनयोरपीति । तदवान्तरविशेषत्वं प्राप्त्यप्राप्तिसमयोरपीति तदवान्तरविशेषत्वं प्राप्त्यप्राप्तिसमयारवान्तरभेदत्वम् ॥ १५ ॥
(१) कारणप्रश्नपूर्वकम् -पा• A पुः ।
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सटीकतार्किकरतायाम्
अनवस्थाभासवाचः प्रसङ्ग समजातिता ॥ १६ ॥
इयमपि कृतिचतिसाधारणी जातिः तथा च साधनमुत्पादकं ज्ञापकं वा सिद्धिश्च वरूपती ज्ञानतश्च । दृष्टान्तस्य कारणानपदेशादिति सूत्रखण्डे दृष्टान्तपदं स्वरूपता ज्ञानतश्च सिद्विमात्रमुपलक्षयति । कारणं ज्ञापकं कारकं वा कृतैा तावत् । अनुमितिज्ञानहेतूनां पक्षहेतुदृष्टान्तानां सिद्धानामपि कारणान्तरं वाच्यम् । न हि ते नित्याः कार्यस्यापि सदातनत्वप्रसङ्गात् न च तस्मादुत्पदान्ते स्वात्मनिवृत्तिविरोधात् प्रसतः कारणत्वानुपपत्तेः कार्यस्यापि स्वत एवात्पत्तिप्रसङ्गाच्च एवं तत्कारणस्यापीत्यनवस्येति ।
२०४
दृष्टान्तहेत्वादावित्यादिशब्देन पक्षी गृह्यते ।
स्वरूपतः उत्पत्तितः । पक्षहेत्वारेतजातिप्रवृत्तिः सूत्रकारस्याननुमतेत्याश स्याह । दृष्टान्तस्येति । सिद्धानामपि पक्ष हेतुदृशन्तानामनवस्थादुस्थत योत्पादकज्ञापकानभिधानात् प्रत्यवस्थानं प्रसङ्गसम इति सूत्रार्थः । नित्या अनाथनन्ताः । कार्यस्यापीति । करणसामान्या अनादित्वे तथाविधस्य कार्यस्याप्यनादित्वप्रसङ्गादित्यर्थः । असतः कारणत्वे सति स्वोत्पत्तेः पूर्वमसतः पक्षादेः स्वहेतुत्वायोगादित्यर्थः । एवं तत्कारणस्यापीति । उक्तेन प्रकारेण पक्षादीनां कारणवत्वे सिद्धे तेषामपि कारणानां कारणान्तरं वाच्यमेवं तेषामपीत्यनवस्थाप्रसङ्ग इत्यर्थः । पूर्वत्र कृतिपक्षे उत्तरत्र
३६०
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কাজগুজ্জোফলংকেলহেলশেetes৬৪২ist
অনিনি । অনু গ্রামী ১থি হ্মি সুলায্য ক্লান্দন চত্ব ক্ষয় কু
ন জুনি লাৰিষাই লালফল মুললিনি কাযা ও গুম ক্লাষ'বন্ধুত্বৰষ্ণা জালুলাৰঃ ক্ষায় ভলগালিমুঘনানিজুম্মাহজাবীহঃ লাজাযযাজনিনমানিযাত্রা নাম্বলজ্বিলাম্বা ছুলাম ঘাট অঙ্কলারিজমন্যালারি ক্লঙ্গ জ্বাস্বামী জুলাঅঃ মূল । লাঙ্খৰিাঁ মু মাত্মাজাম্বি জ্বল। অনন্য সুন্ধিযুদ্ধ থামাৰাষ্ট্র ক্ষী জালাল জানুয়ানি লায়লীলালাজাম্মান ও লিৰিাহ্মান্মান লাক্সজি আান নির্মানৰ ন লিকানাঘাখি - নত্র নাগ নানি অনু ল কামস্বীকাল লিঙ্কলিমুলত্রলয় । ज्ञप्तिपक्षे । प्रतिकूलतर्कपराहतिरिति न कश्चिद्रतुदोषोऽस्तीत्याशयाह । हेतुदोषेति। पक्षादेरिति पक्षहेतुपान्ताলালা লা শ্রান্তি - লল ভূখঃ। জালাবিত্তি জাল বাহাত্বা
জালাকিস্থান্ধি ৰাইশ ভূন্য। লুঙ্কা বৃন্দ नेदं स्वसाध्यसाधक सिद्धत्वादिति प्रतिषेधहेतोरप्युत्पत्तिज्ञप्तिपक्षयोः पूर्वोक्तदोषः सुवचन इत्यर्थः । चक्षुरादिিিল। কাকালীন অগুহা মাথাব্বিাহা নিল। বিদ্যালু জ্বালা
। साध्यविपर्ययेति । हेतोयभिचारपरिहाराणामित्यर्थः । -~~-No. 6, Vol, XXII{——June, 190,
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२७६ ।
सटीकताकिरक्षायाम् न तु लिङसहकारिमात्रत्वेनोपयुक्तानामपि । तथा चाविषयवृत्तित्वं कृता तु न तावत्कारणापेक्षैव दोषः । নবদ্বাৰাবাল ১লাফলশ্রানু। নিমিयानवस्थायां हि दोषः तस्य सिद्धविषयायामपि सजारणादविषयवृत्तित्वम् । तदुक्तम् प्रदीपापादाने प्रसজলিলুমিনু মন্ত্রি লিখিনি। বিশ্বনঞ্জি। त्यपि काचित्यससमास्तीति केचित् । यथा इह भूনল ঘন্টা লাশী ঘন্টা ল নিন নি নল घटप्राप्तिप्रसङः इति । तदसत् प्राप्तिसमायामेवान्तभीवादस्यां तत्र हि प्रतिषिध्यमपि चातव्यं तस्य चापकं चक्षरादि करणं भूतलायधिकरणं च अप्राप्य নিজ খানিক্সজানু মান অত্র জানলীনীনি वक्तव्यम् । प्राप्तिनिवृत्तिलक्षणत्वात् प्रतिषेधस्य प्राप्ता च सत्त्वोनाविशेषात् प्रतिषेधायोग इति ॥ १६ ॥ तथा चेति । ज्ञानानपेक्षेषु ज्ञेयत्वापादानाविषयवृत्तित्वमित्यर्थः । ज्ञापकस्य कारणसापेक्षस्य च प्रदीपस्योपादाने कारणपरम्परापेक्षारूपानवस्थाप्रसङ्गविनिवृत्तिवदित्यनापि तथाविधानवस्था दोषाय न भवतीति । प्रसङ्गसमाया: प्रकारान्तरमाशा निराकरोति । विपरीतप्रसनिकेति । प्राप्तिसमायामयान्तावमुपपादयति । इहेति । इह भूतले घटो नास्तीत्यज्ञातस्येति वक्तव्यम् तज्ज्ञापकं चक्षुरादि करणं भूतलायधिकरणं च अधिकरणस्य घटस्य ज्ञानयोगात् ताभ्यामप्राप्तस्य ज्ञेयत्वायोगात् प्राप्तत्वे भूतलेघटसभावप्रसङ्गात् प्रतिषेधाभाव इति प्राप्तिद्वारायामप्रसङ्ग इति तत्रान्तभाव इत्यर्थः ॥ १६ ॥
३७४
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লনল নাঙ্গলজানু ল আ মামলালনবঘা লাঘমলায্য নিম্নলিখ্রিজাল কনি। নন সুস্ফাঙ্গালিঃ। লাখ ঘিহ্মন্দ্রভ্যাজলালজী অানু নলিন্দু জানিস্তালন্ত অ লাইন ভাললঃ সুললিহীন ক্লান
ভালং লাখ লীজ ন্ধি লাখ নুল ফালু। লা বনু হাশ্বেই:। নিৰাঙ্গ নুবলল মানি ল আলট্রালয়। গুলি | গলিপ্যানিলা হকালুখালসন্ধালাই অঙ্গ সুমঘভলসুলু। স্থান লা লা লা न्तेनैव प्रतिष्पान्तहेतुत्वे च प्रतिधान्तमात्रस्य बाधहेतुत्वे
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গণহঠাণহ-সময়-গণপ্রজাতশ্রেণালয়েশিয়া এলাকায়
কীহ্মালিকানা নুলশানু গ্রনিহাল নাগান্বি যুদ্ধাঙ্গালিঃ নিৰাখা লালজী ক্ষান্। সুমন কুয়ালালা। জানালায় | ফলমুল্য ইনুল মুস্তাাবি অনুমি
লাল হত্যা নাঙ্গনিৰাখ ল অননু ইনুলাগ্রাকিনি। সুলভ ইনহিমি বন্ মাজি মনিদুস্থান নিন্দা ল মন্নান খামানিনি ন্যাঘন ছানি ॥ ৭ ॥ ললল লাখলা ইনকালঃ। মাৰিৱি সৰ ঘাদি। দলঃ ॥ং৷ | ব্যাথলজালাঁ অলিকিাদাঅানালালানা লুৰ উনুনুনলাৰানু সাবিনা মাললললিঃ । নয় খলিলুন। অগ্রা লিঃ মাঃ জাহাৰি বাৰি মুখ অন্ধ নয় আঁৰালীলাম্বাৰাঙ্গাবি। যিনি। হিজালুনী অত্যা মাৰি অনলয়জানি অনলাদ মাহ্মত্যাকালবি অক্ষয়স্ময় জাল নথি অদ্ধান্ মাঝি নিৰিনি। কামালুদ্দা মৃত্মা আল ঘর থাখিप्रतिरोधहेतुत्वे च सतीत्यर्थः । बाघहेतुः स्यादेव अतद्धय
(?) সন্তলাভলু। ও মসিৰাগ্ৰথী লাল লিন্ধা। ২৩ ৷৷
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जातिनिरूपणम् ।
२७
त्वादित्युक्ते प्रथमक्षणे गन्धवत्त्वं नास्ति घटसमवायिकारणत्वेन तदुत्तरकालीनत्वाद्गन्धस्य । तथा च व्यापकस्य गन्यवत्त्वस्याभावेन व्याप्यस्यापि पार्थिवत्वस्याभावात् भागासिद्धो हेतुरिति। दृष्टान्तानुत्पत्ती यथा द्रव्यमात्मा गुणवत्त्वाद् घटवदित्युक्ते प्रथमक्षणे घट एव निर्गुण इति दृष्टान्त भागासिद्धी हेतुरिति।र्मिचानानुत्पत्ता यथा द्रव्यं वायुः स्पर्शवत्त्वादित्युक्त नঅনাৰি আৰান্ত বিষঝিন। ল জ না हेतुः सिद्ध इति अनातभागासिद्धा हेतुरिति । एवं लि. ङ्गादिज्ञानानुत्पत्ता दर्शयितव्यम् । अकार्य च कथमनित्यं निष्यतनं च कथं गुरु अपार्थिवं च कथं गन्धवत् निर्गणां च कथं द्रव्यम् अनुपलब्धहेतुकं च कथं साध्यधर्मवदिति विरोधपर्यवसितं चेति । तदुक्तं प्रागुत्पत्तेः অাৰাগাৰুলুনি নি। খালাজালাল त्पत्तेः प्राक् कारणस्य हतारभावात् प्रत्यवस्थानमनु
तदुत्तरकालीनत्वात् द्वितीयक्षणभावित्वात् प्रथमक्षणे साध्याभावेऽपि कथं हेताभोगासिद्धिरित्यत्राह । तथा च व्यापकस्येति । दृशान्ते भागासिद्धं ततोऽसिडव्याप्तिकोऽयं हेतुरिति भावः। एवं लिङ्गादीति। प्रस्तुतप्रयोगे साध्यदृशान्तानामेकदेशाज्ञानेनापि भागासिद्धिरूहनीयेत्यर्थः । अस्या जातेरारोप्यान्तरमाह। अकार्य चेति । अकार्यमनुप| पन्नः शब्दः अपार्थिवं प्रथमक्षणे गन्धरहितत्वेनापार्थिवो घटः अनुपलब्धहेतुकं अज्ञातस्पर्शवत्वहेतुको घटज्ञानो(?)
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
त्पत्तिसम इत्यर्थः । अनुत्पन्नस्य स्वकार्यासामथ्यं द्वारं विरोधासिद्धी आरोप्ये उद्धारसूत्रं तथाभावादुत्पन्नस्य कारणेोपपत्तेर्न कारणप्रतिषेध इति । उत्पन्नस्य शब्दादेस्तथाभावात् पक्षादिभावान्नाश्रयासिद्धिः । श्रनुत्पन्नस्यापि शब्दत्वात् कथं तद्व्यवच्छेद इति चेत् न तस्य तुच्छत्वेनाशब्दत्वात् तथा चाविषयवृत्तित्वम् । असिद्विदोष एव न त्वपक्षीकृतस्येति । यदा कदाचिदुत्पन्नस्यापि पतनादेर्याबद्द्रव्यभाविना गुरुत्वेन व्याप्तेनात्पत्तेः पूर्वमसिद्धिदाषः तथा च युकाङ्गत्यागः । व्याप्तिप्रकारमनपेक्ष्य दोषोद्भावनात् साध्यदृष्टान्तद्वारिकयोरपि तथा व्यापकत्वरूपं व्याप्यत्वरूपं चानपेक्ष्य प्रवृत्तेः । अज्ञानद्वारिकायां त्वविषयवृत्तित्वम् अज्ञानं हि पक्षादेर्देोषः न त्वनुपन्यस्त त्वेनापक्षादिभूतस्येति । एवमनङ्गीकारे सर्वत्र स्वव्याहतिरूहनीयेति ॥ १८ ॥ सन्देह हेतु सद्भावात् सति निर्णयकारणे । संशयस्य प्रसङ्गो यः स संशयसमो मतः ॥ १६ ॥
३८०
वायुः सर्वत्र सामान्यनिर्देशात् नपुंसकेोक्तिः । तस्य तुच्छत्वेन भावप्रतियेोगिनमित्युक्तत्वेन (!) साध्यदृष्टान्तद्वारिकयोरपि तथा पार्थिवत्वस्य यदा कदाचिदुत्पन्नेन गन्धवत्वेन व्याप्तत्वात् यदा कदा चिदुत्पन्नस्य गुणवत्त्वस्य द्रव्यत्वेन व्यासत्वाच्च पूर्ववद्युक्ताङ्गहानिरित्यर्थः । अत एवोपपादयति | व्यापकत्वरूपमिति । सर्वत्र अषृस्वपि पक्षेषु ॥ १८ ॥
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লিমাষ্টাৰ থি ফানুলা লালীলান্সন্যাশনাল্লাল্ ল আমানুলল -
মাল লগা অস্বল্পঃ প্রথা লিঃ স্নাঃ ৰূনআল্লা লাকনি লিলিক্সিক্ষার্যনি অংক লিযঅন্ধত্নাল্লি: ফ নাকি লিস্যালিঅর্থা: স্বালাঘা: লালঞ্জিন যখন शब्दे ऽस्तीति नित्यानित्यत्वे संशयोऽपि स्यात् स्वकारणसद्धावे ऽपि वा संशयानुत्पत्ता निर्णयापि न स्याম্বিয়ীকাকিনি। ফালঘাষিয়ক্ষায্যাম্মুি লিঙ্কা যা লিঅনুলিখিশালঃ জান্। জাহ্মাণকাকা ত্যানালাৰত্রে লিঅমনিবন্ধ মীমালা। মুত্রাজায়া লিগ্যাবিক্রি লমানুষি লিম্যানুলিশিলালা না অাঅমানিনি। ক্ষয় পূ। স্বলাতানাদি অন্ধ দালাল লিলিথ্যা বক্সল নি। সু দালাল ফুলাইয়াল। লিআলিয়া থানুসন্ধানঃ লাঘব ল
समानधर्मादीनां समानधर्मानेकधर्मविप्रतिपत्त्या লালাগািিন লালা নিষিক্ষায্যমূলাদিত্যাশা নীলি' গানে হত্যাকানল সালামনি নিরীত্বঃ। অৰিহাকালু খালাৰ ৰিক্সালাই। ভালা आधानात् तस्य चात्राभावात् कृतकत्वादिनिर्णयहेतो: समानधर्मादिसंशयहेतुविरहस्याभावात् । उदाहरणप्रद
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
संशयहेतुम् । ततश्च साध्यतदभावयोः संशयकारणादित्यर्थः । एवं च विषयतः कारणतश्च व्याप्तिर्भवति । दोषमूलं तु युक्ताङ्गहानिः निर्णयकाभावविशिष्टस्य समानधर्मादेः संशयहेतुत्वमित्यनङ्गीकारात् । अन्यथा निर्णायक सद्भावे ऽपि समानधर्मादेः संशयेोत्पत्तौ तदनुच्छेदप्रसङ्गात् । अयुक्ताङ्गाधिकत्वं वा समानधर्मादिविरहस्य निर्णयाङ्गत्वाभ्युपगमात् व्याघातस्तु सुगम एव । सूनं तु साधर्म्यात् संशये न संशयेा वैधर्म्यादुभयथा वा संशये ऽत्यन्तसंशयप्रसङ्गो नित्यत्वानभ्युपगमाञ्च सामान्यस्याप्रतिषेध इति । तत्र साधर्म्यवैधयीभ्यां संशायक निर्णयकावुपलक्षयति । सामान्यग्रहणेन च संशयहेतुम् । एतेनायमर्थः समानधर्मादेः संशये जनयितव्ये निर्णायकसद्भावान्न संशयः स्यात् । तस्मिन्नपि सत्येव संशयोत्पत्तौ संशयानुच्छेदप्रसङ्गः समानधर्मीदेर्नित्यं संशयहेतुत्वं च नाभ्युपगच्छामः ।
२०२
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र्शनपरं न लक्षणोपयुक्तमिति भावः । साध्यतदभावयेोरिति । साध्यतद्विपरीतयोः संशयकारणस्य समानधमीदेः सद्भावादित्यर्थः । एवं वेति । नित्यानित्यसाधर्म्यशब्दानां एवमर्थस्वीकारे सति सर्वानुमानेषु सर्वसंशयहेतुरियं जातिः प्रवर्तत इत्यर्थः । अन्यथा युक्ताङ्गहीनत्वानङ्गीकारे । तदनुच्छेदप्रसङ्गात् संशयानवस्थाप्रसङ्गात् । स्वव्याघातस्त्विति जातिवादिनः प्रतिषेधानुमाने ऽपि समानधर्मीदिसद्भावात् प्रतिषेधवति कृतकत्वे हेतुरसिद्धो
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जातिनिरूपणम् ।
३८३
ततश्च संशयापादनलक्षणप्रतिषेधा नास्तीति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥
तुल्यत्वमभ्युपेत्यैव परहेतेाः स्वहेतुना । बाधेन प्रत्यवस्थानं प्रक्रियासम इष्यते ॥ २० ॥
अभ्युपगतानधिकबलेन प्रतिप्रमाणेन परकीयहेतेाबधाभिमानेन प्रत्यवस्थानं प्रकरणसमा जातिः । तदुक्तम् उभयसाधर्म्यात् प्रक्रियासिद्धेः प्रकरणसमं इति । साधर्म्यमत्र प्रतिप्रमाणमात्रोपलक्षणपरम् । प्रक्रियत इति प्रक्रिया साध्योर्थः तस्य सिद्धेर्निश्चयादित्यर्थः । तथा च प्रतिधर्मसमाना भेदसिद्धिः । यथा अनित्यः शब्दः कार्यत्वादित्युक्ते मैवं श्रावणत्वेन नित्यत्वस्य सिद्धेः । प्रत्यभिज्ञाबाधितत्वाद्वेति प्रतिप्रमागोपलम्भः कारणमस्याः बाध प्रारोप्यः । दुष्टत्वमूलं तु 'सौत्रः स्वव्याघातः । यथा प्रतिपक्षात् प्रकरणसिद्धेः प्रतिषेधानुपपत्तिः प्रतिपक्षेोपपत्तेरिति । श्रयमर्थः स्थापनानधिकबलात् प्रतिपक्षसाधकप्रमाणात् प्रक्रियमाणार्थसिद्धे हैतानी स्मत्पक्षस्य बाधलक्षणप्रतिषेधः । प्रतिषेधानधिकबलेनैव स्थापना हेतुता भवत्प्रतिपक्षस्यास्मत्साध्यस्य सिद्धेरिति बाधाङ्गस्याधिकबलत्वस्यानङ्गीकारी युक्ताङ्गत्यागश्चेति हृदयम् ॥ २० ॥
विरुडः कालात्ययापदिष्टः प्रकरणसमो वा न वा आये प्रस्तुतहेतुरपि तथा द्वितीये यदापन्नः स्यात् तथेति सकलहेत्वाभासप्रसङ्गो द्रव्य इत्यर्थः ( ? ) ॥ १६ ॥
A- No. 6, Vol. XXIII - June, 1901.
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
हेते। विकल्प्य साध्यार्थपूर्वापर सहोदयम् । त्रेधापि तस्य हेतुत्वभङ्गो हेतुसमेो भवेत् ॥ २१ ॥
1
इयं च कृतिज्ञप्तिसाधारणी ज्ञातिः । साध्या| यत् पूर्व पश्चात् तेन सह वा साधनस्योदयः उत्पत्तिज्ञानं वा तत्र सहभावो विशेषादहेतुः पूर्वभावे साध्यप्रतियोनित्वेन साधनत्वस्य साध्याभावे किमपेक्षेदं 'साधनं स्यादिति साधनत्वाभावः । पश्चाद्भावे पूर्वसिद्धस्य साध्यस्य कथमिदं साधनं स्यादिति । त्रेधापि हेतुत्वभङ्गेन प्रत्यवस्थानम हेतुसमः प्रतिकूलतर्केौ द्वारं साध्यसाधनभावो दूष्यः इतरेतराश्रयलक्षण प्रतिकूलतर्कप्रतिघात श्रारोप्यः सूत्रं तु त्रैकाल्यासिद्धे हैतारहेतुसम इति । सेयं ज्ञातिः सूत्रकारैरेव प्रमाणपरीक्षायामुदाहृतैव । प्रत्यक्षादीनामप्रामाख्यं त्रिकाल्यासिद्धेरिति । उद्धारसूत्रम् न हेतुतः साध्यसिद्धेस्त्रैकाल्यासिद्धिरिति । ज्ञप्तिपक्षे तावत् त्रिकाल - तादपि हेतोर्यथायथं साध्यज्ञानदर्शनान्न त्रैकाल्यासिद्विरिति । भग्नव्याप्तिकत्वात् तर्कस्य युक्ताङ्गहानिः । कृतिपक्षे तु पूर्वकालीनादेव हेतेाः पश्चाद्भाविनः साध्यस्योत्पन्तेन त्रैकाल्यासिद्धिः । साध्यप्रतियोगिनः साधनस्य कथं तदभावे सिद्धिरिति चेत् न साधनत्वव्यवहारस्तावद्वद्विस्येनापि साध्येन सिध्यतीति न स्वरूपसत्तामपेक्षते । तयापारश्च स्वशक्तिमात्रेण भवन्न
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দালাঃ ঞ্জ অফএ ছনি স্বন। মাত্র সালফয় নন্নিষ্ম জ্ব রুগুলা নলক্ষ্ণালঙ্গাঅকালঃ লাল অাত্মহত্ব - গুলিকে হেলাৰীৰৰয়ালু। স্বাস্থানসহ লম্বি স্কুলু মিখালুজ্জায় মিজান জানি। লিগ্রাম। ২৭ ॥
ত্রা নিলা দ্বিাাষ্ট্রক্ষাবিলালনঃ ॥ মিত্ৰীলালাক্সি : ইই। | এক্সকালে গ্রামী নালিলাগাছাাদি। লিখিলালা জানাৰাত্র লজ্জালীলিঃ । নাফ। অনিন: লালবাজির জামিকাল জুনি। ভাবীনাজমিস্ত্রীলিঃ ননষ্কাশালী কাথন সুইঘাষাবানু নিঅন্ধষিরিলক্ষিনস্থায় অন্যালাক্সি : অগ্রা ক্সালিঃ মুক্ত জল চালিমললল্লিলিনি মিমি। অাম্মাল অালীহ লালীফানু । ন অ অঙালিত্যানু মালিহ্মা | কুস্থান জনি নিৰীঘ। লিঙ্ক লিন্সল। দফা লিঅ্যাল্লিশ অল্পক্ষিনি নি । अनुमानादनित्य इत्युक्तेऽर्यादापन्नं प्रत्यक्षानित्य इति লাখ লালা লাৰিাক্তিয়ালা | কলিন্স জুলুম চান নাথাল্লিশ নি।
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| তামিলল সত্নিদ্বাস্তু খাবদ্ধ নঙ্গ হাঁ नास्तीति जलमस्तीत्युक्ते ऽादापन्नं तत्राग्निनास्तीत्यादि । জালালকা অৰিহাৰ্থঃ (?) ভানুक्तत्वलक्षणा अनुक्ताक्षेपलक्षणा । अनुक्तस्येति । वादिनाলুক আম্মিলিঅলাহানাবাৰিাম तिषेधे सति जातिवादिपक्षस्य च तत एव हानिरूपपन्ना। अनुक्तत्वादनुक्तवाक्षेपरूपदूषणापाघिसद्भावादिति स्वআগামঃ। নিলুফাবৃত্বালাক্ষাদালাললঃ - নিলফামাৰাদ্ধাক্সালিনি মূখ। কং।
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जातिनिरूपणम् । অলীল স্লিষ্মিীয়সম্বল। साधनप्रतिवन्द्या यत् सोविशेषसमो मतः॥२३॥ | কাঞ্জিলী লাম্বা খালা আলনিবিল জলন্সিয্য নালন্দ্রলা कारधर्मत्वेन वा यदधिशेष प्रसञ्जनं स्थापना हेतुप्रतिঅাখশাস্ত্রীয় চি নামিরাখল। ল্য: নি: একি শুনলে অব স্নাঘাষালন
লামিয়: ' মা ব্যাকিলা খা খাमपि पदार्थानामविशेषः किं न स्यात् । अन्नकत्वेनाविসুক্ষ্ম অন্ধবিশ্বাঃ খললামিজী জলাकजातीयत्वम् । एकाकारधर्मत्वेनाविशेषे सर्वस्याप्यनित्यता स्यात् । एवं च पृथिव्यादीनां नवानां द्रव्य
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एकत्वेन एकस्यैव ह्यविशेषो मुख्यः स्यादतः पक्षमावत्वेन एकधर्मत्वेन सर्वेषामेकेन धर्मेणान्वितत्वेन प्रतिएदार्थभिन्नत्वेऽप्येकरूपधर्मत्वेन । सत्त्वादिना सत्त्वप्रमेयत्ववाच्यत्वज्ञेयत्वादिधर्मसद्भावेन। पक्षाद्यविभागः सत्त्वादिहेतुना सर्वस्यापि पौक्ये सिद्धवादिहेतोः पक्षसपक्षविपक्षविभागाभावानुमानाप्रवृत्तिरिति भावः । एकजातीयत्वं सत्त्वादिना सर्वस्य साध्यधर्मजातीयत्वसिद्धौ पूर्ववदनुमानाप्रवृत्तिरिति भावः । सर्वस्याप्यनित्यता स्यादिति । सत्त्वादिना सर्वस्य प्रस्तुतसाध्यधर्मवत्त्वे सिहे. व्याप्स्यसिद्धिरनुमानाप्रवृत्तिरित्यर्थः । विषयहेतोरनियमार्थमुदाहरणान्तराण्याह । एवं च पृथिव्यादीनामिति । एवं
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জাজিং মাখা লুল হয় জিম্বালানিজ ফা। মাথাইলি গুনলামিয়াঃ মুসা। হয় জানী অল দ্বমাহ শি। জ্বিলে লল্লিক্সকায় অন্ধগ্নল জ্বায়হাকা। স্লাহ্মফাইনু। নুর লু যথাসনামী অমাম গাজ্জভানু জল্লালাহলময়ী শি! বাগনান্স স্না ভূমি লম্বাশমশিলাখ মালালাম সুন্নিান। স্থানঃ খা নন্তু স্বাস্খায্য লালাহলজাস্থা। মীন: হালিম্বাক্ষীচান্দনমায়াজ্জিীলঙ্গান্যাল ল অত্যাললিস্থ ও স্নঃ বাদ্বান স্কুল নি যুক্ত। জালা জুলা: লি: জলিল্লাএনঃ নজ্বালায় জ্বানি। খি না। না জানি নাজ্জালিন নাস্বাম্বিয়ালুঘলঃ। - ঘিালা। স্বনি নাথালিন্যাত্মিহাঅঘন নিশ্বান জ্বানি। ঘুষ দালালকালীঘাললি।
হালালৰন্ধলনিনস্কুল ম্যাথিঃ। অাল্লাহাত্ম আত্মঘানিडिस्वरूपासियसाधारणत्वादिदोषदुत्वाद्धतोरसाधकत्वमारोप्यमित्यर्थः । प्रतिवन्धभिप्रायेण दृष्टान्तबुद्धा । অৰিহাৰাবাৰুলালী স্বৰীনিয়া। ফক্স ৰ বিলীলাক্ষ লাত্মিা (?) মালালাখাস্বত্বাহিতামিল্কি আনন্দঘ- |
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বল্প নাথাকিনি লাঃ ॥ ২॥ লম্বন্ধ চন্নি ন্ধিলখি ক্লান্যা
খুলুন। জিজ নিসালিলিকা গল ৷ ২৪ ॥ | আনিলা শিল্পী ফাৰী ফি ঝম্বল | জিলা খাখা ত্রিনি শ্রদ্ধা নি গাথারাঙ্গামাল আমলকিন্স। গ্রন্থ।
লি: স্নাল অালাক্তি অনুলিশ ক্লাব জাম্বলীল: নজি লিখায় চঘি কিলম্বা ওলিনি। আমিনানিলাহ নবীলালু বৃদ্ধাল অানা গুনলামঅয়ানে ক্লিানন্যাশলিগা লক্ষ্ম জ্বল। না অ ক্সা আঃ মৰা নি। মনিরুজ্জাফণাহ্য বিজ্ঞান শ্রম মাযহীনালা নয় নিয়ে ল রুমখীল যাত্বালা স্ত্রী হত্যা: জালা লনঃ লাব্যালান্স স্কুল অলম্বন্ধাৰখীযথী অলিলাল নি।
আ লালাৰ মিলিয়ে জাহ, থ্যা সাক্ষ্মীকালাঘায়হ্মাৰাত্মকানাৰণি অস্পকাজিনালগালাগলানিয়াম হ্যাযিঃ সুশ খী। ২।
प्रकृतसन्देहविषयत्वात् शब्दो नित्यानित्यो वेति सन्देहे सतीदमनुमान प्रवर्तते ऽतस्तविषयत्वादित्यर्थः ।
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ত্মহল। ফালু। ৪। | (৭) সু ন—যা A টু ।
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মীনাক্ষি দায় এদিন: ল ন সনমানি মন লাফালানি নি। অবস্ফিাযালু আ'
লানি নি সুমাবক্ত: ত্রাঘান: শান্দি। অন: ক্ষার্থী মালাখা ন বন্ধনিনি লিজায়নামনিৰাৰিলালুনালা মনিঃ । সুলুমনিয়ান্সালমানিনি যুকাজালিনু। অমনিৰীক্ষা নিয়া এলাযান্যালুন সাবা নাল্লালখকস্বানি। ২৪।
থানায় অগ্নি নিজ আলু।
तद्वाधात् प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमा हि নঃ (৭) ॥ ২৪ | বিয়াখানায় নানামাত্র নার লি মিত্র আত্মাৰ জাল মালमुपलब्धिसमः । यथा पर्वतानिमानित्यक्ते किं पर्वत মাহি: শুন এনালিলননি। লসিঙ্গঃ লালম্বাৰীলালগ্নিলাকনা । ল ৱিনী: ক্লি শিলাবি জানিীল। নন - নাৰ ত্ৰি
খ ন নি লাখ: না না | নছিহাবমূখনিহা। কি বলল তুলি। ক্রি पर्वत एवाग्निमानुताग्निमानेव पर्वत इति विकल्प्येत्यर्थः ।
(৭) সুমা লন:-: A
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नातिनिरूपणम् । प्रतिज्ञायां धूमवत्त्वादित्युक्ते धूमः किं धर्मिणान्ययोग
কল জঞ্জন শুনাফাজ্জল । ল রুগ্রফঃ पर्वते वृक्षादेशप्युपलब्धः। न द्वितीयः धूमाभावे ऽपि कदाचित् पर्वतापलब्धः। ततश्च साधनाभावेऽपि धर्म्युपलभ्यत इत्यसिद्धिः । तथा पूर्वोक्तद्वयसमाहारण साগুলালাখালী চন্দ্বি প্রান জুনি মাথাশিল্পী। तथा तस्मिन्नेव प्रयोग किमन्त्रावधार्यते । किं पर्वत एवाग्निमान उतारिनमानेव पर्वतः किं धूमवत्त्वादेवेति। न प्रद्यमद्वितीया महानसादेरग्निमत्त्वीपलम्भात् पर्वते वृक्षायपलब्धेश्च । न तृतीयः धूमाभावे ऽपि নগন্যালাজানয়িালশানু নিল স্বালান ऽपि साध्यापलम्भादव्यानिरिति । समव्याप्तिके तु कृत. कत्वापरामर्श ऽपि प्रत्ययभेदभेदित्वादः शब्दानित्यअग्निमत्त्वोपलम्भात् ततो बाधितः प्रतिज्ञातार्थ इति शेषः । तथा पूर्वोक्तति । एकैकं विहाय प्रतिज्ञाहेतू युगपत् पूर्ववविकल्प्येत्यर्थः । एवं प्रतिज्ञाहेत्वोः प्रत्येकसमुदायपरमवधारणविकल्पं दूषयित्वा तत्साध्यस्यैकल्यावधारणं विकल्याचं दूषयति । तथा तस्मिन्नेवेति । किं पर्वत एवेति किं धूमवत्त्वात् पर्वतोऽग्निमानेवेति अथ धूमवत्त्वादेव पर्वतोऽग्निमा नितिं वासाध्यत इत्यर्थः। आलोकादेरित्यादिशब्देन महानसादिशब्दे विशेषः । अन विशेषश्च गृह्यते(?) सपक्षकदेशवृत्तिहेतावेवंविधप्रत्यवस्थानावकाशः सपक्षव्यापिनि कथमिति चेत् तत्राह । समव्याप्तिके विति।कृतकत्वापरामर्शे ऽपीति । शब्दोऽनित्यः कृतकत्वादित्युक्ते किमत्राव
- No. 9, Vol, XIHI.
September, 1901.
५४०
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লোহা হৃনললিন লাক্সানা - শিক্লিীনা। না ভাল চঘি কাঘললুন জমি নিহায়াত্ব নিন। আর অন্যান্য হিমামী ব্রাহ্মী কাল নিজাখস্বাভা লিঙ্কালিনগ্ধাৰি । স্ব সুলিহ্মিামান ঘান্সি নি। আকিলা লিকিহত্য সম্মিল আনামান সাম্রাজ্বলাফানু অন্যান্য বিঃ ফ্রীজ লু ক্যামআইনা নাম্বাৰাত্র। হাইলাঅাত্রাকাল জাৰিথিলাল লালঘাৰাজ্জিন জ্জিা নলুভিঃ লম্বা স্রাত্যা: আসু
धार्यते किं शब्द एवानित्य इति वा उतकृतकत्वादेव शब्दानित्य इति वा । नाचः घटादेरप्यनित्यत्वात् । न द्वितीय ক্ষুনত্মহান মুবি ভিলীলললঃ হা হত্যাदिविलक्षणबुद्धिपरिच्छेद्यत्वसामान्यवत्त्वे सत्यमदादिআহত্মিানা ছানিলিঃ স্কুল নামবীজসজার্থিঃ। ল ফাযা সম্মহত্যানলি জালিঃ ক্ষি শিক্ষার্থী। লঙ্গ স্বাক্ষ্যকণা' sীলি। মলিন্য ওলখিলাবিজলন্ধ ভাঙ্গাঅলঃ সত্যমূলম্বালছালখালিলঃ হিলি ছাত্মঃ। হালখাতা। গুলি ক্ষানহাথি সভালাহিঙ্গাথি আল মা মুহান্ম | দী। আখাম্বা হাম্মাম্মা খি। সভা
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| জানলিঙ্ক
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সালাজাম্বিকা । লামালখাযযয্যাত্বনামীয়াজালালআমথ্যাজ্জালু। নস্ত্রাঅন দ্বিাৰাঃ নন্দু জ্জা ঘালাৰণ অথবা নানি হলি । লল - লাজি জ্বালাজি অৱলু নামঘৰ লিঙ্গীক্ষাসম্বলিল অাজি নলজীফা নীনি। ২, স্বলু মিথিলাকা নন্দলালু। নিজসজ অনিরুজ্জালুলাচ্ছিল । অ ৷ | নিহলিন্না অলী নিমজ্বিস্থলীঃ। ন লীলাঅলী 'দালি জালা কূলনী জয়ী ভালুবনী গ্রন্থনী মানালিলা। হন আলি নানু অনন ভানাইস্বীনি বিশ্রীমত্মত্মবি অাম্বানললল - অত্যালকালুখাঃ । লৰ ৰিমঝিনিশ্বীন ফু বলাখালুবানা কাজল ভলাষ্যव्यवच्छेदमात्रेण यदा धौ तदा हेतुः स्वेन सम्बात इति पक्षं विहाय यदा हेतुः तदा धर्मिणा सम्बात एवेत्यङ्गीজ্বালায়। হালি। এলিজালাঘাতানজীন্দাহ সুন্সিলৰানিখঃ ॥ ॥
বিদ্যঅলিভলা দ্বিস্বত্ব স্ব অষণীয়ঃ কলি স্থালা ভলুথালালাখাল। দুणानुलब्ध्यादिरूपेण उताताद्रप्येण यदा तादूप्येण न वर्तन्त
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सटीकतार्किकरतायाम् यमनुपलब्धिसमेति । तीपलब्धिरेव मूर्द्धाभिषिक्तो विषयिधर्म इति तदेवापलक्षणमुचितम् भैवम् उपलब्धिसमसङ्करप्रसङ्गात्। केचित्तु भावात्मकेषु विषयिधকিন্তু অমূলন্সিল সালথাqিাঃ সুমাল লুবলীল ভুনি শ্যাম্বন। নামি अनादेशिकत्वात् । व्यवच्छेदकवाक्यार्थरुचीनां पूर्वीলাঞ্ছনালাজানিলেকাজা নামাनन्तभावात् । उपलब्ध लिकं साध्यामिति तदर्थीऽयं प्रयोगः । सा चोपलब्धिः स्वात्मन्यनुपलब्धिरूपेण वर्तते चेत् साप्युपलभ्या स्यात् नोपलब्धिः विषयइत्यर्थः अनुपलब्धिसमः। सकरोति। जातियस्योपलब्धिसम इत्येकनामप्रसङ्गादित्यर्थः । भावात्मकेषु अनन्तरप्रयोगेषु उपलब्धीच्छादेषादिषु अभावात्मकेष्वनन्तरप्रयोगेप्वनुपलब्ध्यनिच्छादिषु । अशिष्यमसाम्प्रदायिकमयुक्तं च। अनादेशिकत्वाद्भाष्यकारादिभिरनुक्तत्वात्। व्यवच्छेदवाक्यार्थरुचीनां नित्यसामान्यानङ्गीकारेण घटादिशब्दानां घटत्वादिसमारोपश्लिव्यक्तिवाचकत्वाभावेनायं घट इति शब्दस्यायं पटादिन भवतीति व्यावृत्तिरवार्थ इतिवदतां वोडानामित्यर्थः । पूर्वोदाहृतेति । उपलब्धिसमायां प्रयुक्तावधारणविकल्पस्य अजातित्वप्रसङ्गात् अङ्गाधिक्येनासदुरत्तरस्य छलाद्यनङ्गभूतस्य जात्यन्तरोत्तलक्षणहीनस्य भावाभावधर्मरहितस्य च जातावप्यन्तभावाभावप्रसङ्गः। अत एव जातिसामान्यलक्षणमतिव्याप्तं स्यादिति भावः। तदर्थोऽयमिति । लिङ्गपक्षदृशान्तादीनामुपलब्धिप्रयोजनो
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वत् । अवृत्तरुपलब्धिरूपेणावर्तमानघटादिवदुपलब्धिर्न स्यादिति तद्विषयो लिङ्गादिनीपलभ्यः स्यादिति व्यर्थः प्रयोगः। एवमनुपलब्धत्वाच्छब्दो नास्ती. त्युन्तो अनुपलब्धः स्वात्मनि तद्रूपेण वृत्तौ विषयवत् লাহলুলান নাম্বাঘালু भावश्चापलब्धिरेवेति विपरीतापत्तिः स्वात्मनि स्वरूपेणावृत्तौ तु सैव न स्यादिति तद्विषयः शब्दानुपलब्धो न स्यादित्युभयथाप्यसिद्धी हेतुः तदुक्तम् तदनुपलब्धेरनुपलम्भादभावसिद्धौ तद्विपरीतापपत्तेरनुपलब्धिसमः। यदिताद्रप्येण वृत्तावप्यनुपलब्धा न भ. वति शब्दाप्यनुपलब्धो न स्यात् अनुपलब्धापि वा यमनुप्रयोग इत्यर्थः । उपलब्धिरूपेणेति । यथा स्वस्मिन्ननुपलब्धिरूपेण वर्तमानो घटादिनीपलब्धिर्भवत्येवमित्यर्थः । तद्विषय उभयमप्यनुपलब्धिरूपोपलब्धिगोचरः । तद्धिषय उभयप्रकारेणापि अनुपलब्धिरूपानुपलब्धिगोचरः । असिद्ध इति हेतुः पूर्व श्रुतशब्दोच नास्ति अनुपलब्धत्वादितिहेतुरसिद्धस्ततः शब्दोऽनित्य इत्यभिप्रायः। तदनुपलब्धेरिति । तस्य शब्दादेरनुपलब्धेः कदाचिदनुपलब्धत्वात् कदाचिन्न तव्यसमाहारणापलब्धत्वात् कदाचित् स्वरूपाभावान स्वभावसिडा तस्य शब्दादेरनुपलब्धिरिति परोपलब्धिरुपपन्ना तत एव नित्यत्वप्रसङ्ग इति प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसम इति सूत्रार्थः । ताप्येण वृत्तावप्यनुपलब्धिः स्वस्यामनुपलब्धिरूपेण प्रवर्तत इति पक्षाङ्गीकारे ऽपि अनुपलब्धो न भवति शब्द इत्यनुवर्तते तदेवोपपाद
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सटीकताकिरक्षायाम नैव नास्तीत्युच्येत । तानुपलब्धत्वादिति हेतुस्तन्नाলালিঙ্ক: ক লাহিন ল অফকিনি । হ'লফআখি মিথিল কয়নিফ। লুফা ললিথা - লালায়ি সমান। হত্যার দা িাঅঃ শ্রম্মনন মূল্টা হালি মালু না বিশ্ব স্ব सन्दिग्धः कथं विषय सन्दिग्धं कुर्यात्। प्रवृत्तौ तु घटाনুি স্বষ্টি ল অনিনি শ্রাবলশ্রাফাল না
খিলাল ফি সুস্বাক্সানি। भ्रमः स्वस्मिंस्ताद्रप्येण वृत्ता स्वयमेव वान्तः कथं विषयं भ्रान्तं कुर्यात् । अन्यथा स्वव्याघातः । इयं संशयपरीक्षायां सूत्रकारैरुदाहता विप्रतिपत्ता च संप्रतिपत्तेः,
লম্বাললি চালাঅনাহাত্রা নি। यति । अनुपलब्धोपीति । अनुपलम्भात्मकत्वात् अनुपलब्धेरिति सूत्रकारवचनादनुपलब्धावपि भवत्येवानुपलब्धिाः ततस्तद्विषयः शब्दानुपलब्धः ततः शब्दो हेतुरिति भावः । तत्पक्षे दोषान्तरमाह। तानुपलब्धत्वादिति । तत्र अनुपलब्धत्वेऽपि सत्यामनुपलब्धौ । एवमन्यनापीति । साध्यार्थज्ञानेच्छायां सत्यां तन्निवृत्तये खल्वनुमानप्रसङ्ग सा चेच्छा स्वात्मनि ताप्येण वर्तते वा न वा उभयथापीच्छा न स्यात् अतस्तन्निवर्तकप्रयोगा व्यर्थ इत्यादिकमूहनीयमित्यर्थः । पूर्वमनुमानमवलम्ब्याख्या जाते. प्रवृत्तिरुक्ता इदानीमनुमेयमवलम्ब्य प्रवृत्तिमाह । अनुमानविषयावलम्बनेनापीति । अन्यथा ताद्रप्येणावृत्त । विप्रतिपत्तो चेति । विप्रतिपत्तिः संशयकारणमिति न वक्तव्य विप्रति
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जातिनिरूपणम् ।
तथा शब्दपरीक्षायां श्रन्यदन्यस्मादनन्यदित्यन्यताभावः अनियमे नियमान्नानियम इति । अस्यां च विषयिधर्मेोपलम्भः कारणम् । श्रापाततः प्रतिकूलतर्क आरोप्यः अतिपीडायाम सिद्विरनैकान्तिकं वा । प्रत्युत्तरं विषयिधर्मः स्वात्मनि ताद्रूप्येण वर्तत इति पक्षं कक्षीकुर्मः । न च स्वात्मना विषयीकरणं किं तु तदात्मकत्वमिति न स्वरूपव्याघातप्रसक्तिः । तदिदमनङ्गाधिक्यं स्वात्मना विषयत्वस्यानङ्गस्यैवाङ्गीकारात् । तदुक्तम् अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धेरहेतुरिति । श्रस्याप्युपलक्षणत्वादुपलम्भात्मकत्वादुप
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पत्तिरूपेण स्वात्मनि वृत्तावृत्तौ विप्रतिपत्यभावादव्यवस्थात्मकं ज्ञानं संशय इति न वक्तव्यमुभयथाप्यव्यवस्थाया अभावादिति सूत्रतात्पर्यम् । अन्यदन्यस्मादिति । पूर्वीकेभ्यः पञ्चादुक्तानां वर्णीनामन्यत्वात् न वर्ण नित्या इति न वक्तव्यम् अन्यत्वस्य धर्मेभ्योऽन्यत्वेन अनन्याभावादभिव्यञ्जकानां प्रतिवादिनामभिव्यङ्गयविशेषे नियमाभावान्न वर्णविशेषाः प्रयत्नव्यङ्गया इति न वक्तव्यम् उभयथाप्यनियमाभावादिति सूत्रान्तराभिप्रायः । प्रतिकूलतर्क आत्माश्रयरूपः न विषयीकरण विषयवन्न स्वमवलम्ब्य प्रवर्तनं तदात्मकत्वं तत्तद्रूपम् अनुपलम्भात्मकत्वादनुपलब्धिरूपत्वादनुपलब्धेर सत्त्वप्रतिपादक हेतुना स्वानुपलब्धेरहेतुरिच्छात्मकत्वादिच्छाया अहेतुरित्याद्या
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समाधान স্থানীয় । ২ । লামিয়া জঙ্গলউভাল । ব্যাঙ্খলসানা অনু ল লিনাক্সঃ ২৩ ॥ | স্বার্থ ভয় লা মাৰিল ৰূম্রাঅস্থাৰ সূর্ন নগনিসিপ্লান্ত লাঘবাৰিলা হুয়ারি স্বামী সৰ মিত্ৰাখি অালাদানালক্সলিং ও না বানি হয়নি। অন্য | হলাম। বললাললালল জান স্কুলাঘৰ অন্য ব্যথা লাঘঅন্দীঃ ৰালিন্যলক্সালিল নি। সুস্থ মাঅয়ষা অত্যাবাকা। স্বৰালিয়াङ्गादिति सर्वस्यापि साध्यधर्मवत्त्वप्रसङ्गादित्यर्थः ।। ভাসিমুল মুঘলীবনখিনি - লালা । সুস্থ লিলাবহিমজনু নলি নন অাল্কায়াখালি আঃ ঈলাকমলাৰ নৱখালি মনীনু। অন্য कारान्तरं सूत्रस्य कल्पयित्वेत्यर्थः ॥ २६॥
एषु वक्तव्यत्वादुद्देशक्रममतिलध्यानित्यसमजाति নামনি। নাগৰিলি। স্বাক্ষীবনঃ আনি
साध्यसिडिश्चेत् तत एव सर्वस्यापि साध्यवत्त्वं स्यादिति | মলত্যানানি নি । এই অর্থ ব্যয়।
কাত-নাতকােঘায় গেলে শহরের
মামলায়লা
গতক্ষত্রে দেশে
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जातिनिरूपणम् ।
२९८ । यदि महानससाधादग्निमान् पवर्तः तर्हि तत्साधात् त्रैलोक्रामप्यग्निमद्भवेदित्यादि । अविशेष
লাঅ ন আজ্জাম্বিয়ামীলফ = ল विपक्षस्य सपक्षत्वापादने तात्पर्यमिति न तया सह संकरः । परिकरस्तु तद्वदेव बोद्धव्यः । उद्धारस्तु नेदं विवक्षितार्थसाधकम् असाधकसाधात् अस्ति च तदस्य घटधर्मत्वमिति वा तस्यामेव प्रतिक्षायां समानधमत्वात् सत्त्ववदिति वा तयोरेव पक्षदृष्टान्तयोर्घटधर्मत्वादिति वा जातिवाक्यार्थः । सर्वत्र स्वोक्तिव्यापनाद् व्याघातः । प्रथमे तावदिदमपि वाक्य विवक्षितमयं न प्रतिपादयेत् तदप्रतिपादकसाधयात् । अस्ति च तदस्य प्रतिज्ञादावयवयोगित्वं स्थापनावाकोनेति व्याघातः । द्वितीये ऽपि तस्यामेव মানায় লালা খালামনিনি | तृतीये नेदं प्रतिषेधकम् अाकाशधर्मत्वात् स्थापनावाक्यवदिति व्याघातः । तदेतत् सर्व मनसि कृत्य साधादसिद्धः प्रतिषेधासिद्धिः प्रतिषेध्यसाधाणरहितत्वात् तत्साधयात्(?)। परिकरस्त्विति। कस्यचिधर्मस्य किञ्चित् प्रत्यसाधकत्वमस्या उत्थानबीजं हेतोरसाधकत्वमारोप्यमित्यर्थः । असाधकसाधात् अनित्यत्वसाधकेन घटत्वादिना घटधर्मरूपत्वरूपसाधर्म्ययुक्तत्वादित्यर्थः । स्थापनावाक्येन असाधकत्वेनाभिमतवादिवाक्येन । असिद्धः साध्यसिद्धानङ्गस्य घटत्वादेः साधात् घटधर्मत्वादेहेतोः वादिवाक्यप्रतिषेधो न सिध्यति प्रति१न-No. 11, Vol. XXIII. --November, 1901.
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নাজিফাযা নিনি। অর্থ ক আলাস্কালানিগুলো মূল্প ভাজা মাথলথল ক্লানিন অাহ বল্লালু নস্ত্র অগ্র নক্সাল্লাময়ী মুনি । ২৩। धर्मस्य तदतदूपविकल्यानुपपत्तितः। খলিবনিজ লিলা গুলু। ২। | সিদ্দিন জিহ্বস্বত্র নবলঙ্গ মনি কিশ্রেণালুখালল গ্রামাল্ললুফভল লিঃ তত্ব জাযযালাক্লন জন্ম ফ্লেজ্জ লিনি । নন লিলিখিত্নাল্লিদ্ধাশ্রদ্ধার্যাক্সিলাজিনা
মুহিয়াজ্জিা লজ্জা লালমনিরয্যালি। অকালান্দাজ্জাৰাদ্ধাৰাজানলালালালাখানা স্থানানিরানাানালিৱিানানয়াহুদ্ধাস্থানচল দিল তালিকায় এলিজাৰআৱিালা মফস্ক্রাবল' অত্যাঘালন্ধান্বিশি সুখী। दृप्रान्ते साध्येन व्याप्तत्वेन भूयोहस्य कृतकत्वादिधर्मस्य
আলু লম্বাবিলা জালিফ লাআল্লামঃ নাকলা নিষাঙ্গ অ্যাম্বাস্যাড্রনালিলি স্কুলনখঃ । ২৩। এ ঘশ্বঃ কাতি স্বী। যিৰিঘিম্বলঃ কালুখঘিাষালুদ্ধ; হুহু লু ৰিত্মঘলা ভূমি বিক্ষান্সা তৃত্বঃ নন নিলে লালু। ল ত্ব8
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जातिनिरूपणम् ।
३०१
त्पन्नानुत्पन्नव्यवहृताव्यवहृत घटाघटसन्दिग्धासन्दिग्धेत्यादापीतर विकल्पोपक्रमाः संगृहीता भवन्ति । एवमियं प्रवर्तते अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञायां तावदाह । अत्र साध्यमनित्यत्वम् अनित्यं नित्यं वा । तन्त्र अनित्यत्वे कदाचित् तदभावाच्छब्दो नित्यः स्यादिति न पश्चादनित्यत्वावकाशः । अथ नित्यं चेदनित्यत्वधर्मस्य नित्यत्वात् तद्धर्मियापि शब्दस्य नित्यता स्यादनाश्रयधर्मावस्थानासम्भवात् । तदिदमुक्तं नित्यमनित्यभावादनित्यम्योपपत्तेर्नित्यसम इति । अनित्यतया माध्ये शब्दे नित्यमनित्यत्वस्य भावाच्छन्दनित्यत्वोपपत्त्यभिधानेन प्रत्यवस्थानं नित्यक्षम इत्यर्थः । किं चेदमनित्यत्वं नित्यं चेत् तर्हि नित्यो धर्मः कथं धर्मिणमनित्यं कुर्यात् । न हि रक्तजपाकुसुमयोगात् स्फटिको नीलः स्यात् । अनित्येन नित्यत्वेन योगादनित्यः शब्दः स्यादिति चेत् तर्हि रक्तजपाकुसुमसंसर्गनिबन्धनस्फटिकारुणिमवद्वातत्वप्रसङ्गः । तदाकावस्तु सम्बन्धात् तदाकारत्वे चटाकारद्रव्यसम्बन्धात् पटस्यापि घटत्वप्रसङ्गश्च स्यात् । अपि च अनित्यमनित्यत्वान्तरयोगादनित्यं स्वभावतो वा पूर्वत्रान
4207
farararaaraः धर्मिग्राहकप्रमाणवाधितत्वादनित्यत्वसाधनमयुक्तमित्यभिप्रायः । अस्यां प्रकारान्तरेण प्रत्यव
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३०२
सटीकतार्किकरक्षायाम वास्था उत्तरत्रातत्स्वभावानां घटादीनामनित्यता न स्यात् । तेषां चानित्यत्वस्वभावत्वे द्रव्यत्वव्याघात इत्यादिः सरूपेण प्रवृत्तिः । विरूपेण तु नित्यः शब्द इति प्रतिज्ञायां नित्यत्वयोगानित्यः । तच्च धर्मिणेभिन्नमभिन्नं वा भिन्नं चेत् भिन्नत्वयोगात् तदपि भिन्नत्वान्तरयोगादित्यनवस्थापातः। नित्यत्वधर्मस्य धर्मिব্য: মুন্নালিল্লন অলিভিশন ঘানি तत्र धर्ममात्रस्थितावाश्रयासिद्धिः । धर्मिमात्रस्थिता साध्याभावेन कालातीतग्रसङ्गः । तथा अनित्यः शब्द इत्युक्ते अनित्यत्वं कार्यमकार्य वा । कार्यमपि शब्देन सहोत्परते ततः पूर्व पश्चाद्वा । न प्रथमः कल्पः धर्मिणः समवायिकारणत्वेन पूर्व भावावश्यम्भावात् । अत एव न द्वितीयः न च तृतीयः अनित्यत्वधर्मात्पत्तेः स्थानमाह । किदमिति । अतत्स्वभावानां स्वभावतो नित्यानित्यत्वधर्मविलक्षणानां द्रव्यत्वव्याघातः अनित्यत्वं नाम नित्यत्वाभावः ततस्तत्स्वभावानां भावरूपद्रव्यत्वं व्याहतमित्यर्थः । सरूपेण वृत्तिः अनित्यत्वादिसाध्यधर्मसजातीयपरम्परया प्रत्यवस्थानप्रकार एवमुक्त इत्यर्थः । विरूपेण साध्यधर्मविजातीयभिन्नत्वादिपरम्परया प्रत्यवस्थानरीतिः वक्ष्यत इति शेषः । भिन्नत्वयोगात् भेद्धर्मसंसर्गाद् भिन्नः स्यात् । तद्पीति । तदपि भिन्नत्वं स्वधर्मेणानित्यात् भिन्नाश्च तस्यैतद्योगात् भिन्नत्वान्तरेण भिन्नं भवेदेवं तदप्यनवस्थापात इत्यर्थः । धर्ममानस्थिता धर्मपरिशेषे । अत एवेति । धर्मिणः पूर्वसि
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३०३
जातिनिरूपणम् ।। पूर्व शब्दो नित्यः स्यात् । तथा च नानित्यत्वावकाशः अनित्यत्वस्याकार्यत्वे तु धर्मिणाप्यकार्यत्वान्नित्यत्वापातः । तथा घट इत्युक्ते घटत्वयोगाद् घटः तत्किं नित्यमनित्यं वा नित्यत्वे घटोपि नित्यः स्यात् । লিখলীস্মঘলা লিঅলাহ্মজ্জামান। अनित्यत्वे सामान्यरूपताव्याघात इत्यादिसूत्रतात्पयार्थः । अस्या धर्मधर्मिभावा द्वारं प्रतिकूलतर्क भारीप्यः । उद्धारसूत्रं तु । प्रतिषेध्यनित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तेः प्रतिषेधाभाव इति । अनित्यः शब्दो न भवति नित्यभूतानित्यत्वधर्माश्रयत्वात् । नित्यपरममहत्त्वाश्रयव्योमवदिति जात्युत्तरार्थः । নমালিন মনি স্নান্ট লিলাললাহ্মানিति हेतुः सिद्धश्चेत् तदा नित्यमनित्यत्वस्य स्वीकारादनित्ये नित्यत्वप्रसङ्गाभिधानेन कृतस्य प्रतिषेधस्याभावः । हेत्वङ्गीकारे प्रतिज्ञाव्याघातात् प्रतिक्षाङ्गीकार हेतुव्याघातादिति सूत्रोत्तरार्थः । यथायोगं व्याघातमात्रोपलक्षणं तात्पर्यार्थः। तथाहि यदुक्तम् । अवश्यम्भावादेव सहोत्पत्तिरयुक्त इत्यर्थः । तत्सरूपविरूपप्रवृत्तिप्रकाराणां सूत्रे ऽवकाश इत्याह । सूत्रतापार्थ इति । प्रतिकूलतर्कशब्देन तद्वारकाश्रयासिद्धिप्रमाणवाधश्च गृह्यते । यथायोगमिति । एवं नित्यत्वाद्युपरञ्जकधर्मेषु साध्यभानेष्वपि प्रतिज्ञा हेत्वोरन्योन्यव्याघातमानं सूत्रतात्पर्यार्थ इत्यर्थः । तदेवोपपादयति ।।
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
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अतदाकारो वा धर्मेौ न धर्मिणस्तदाकारतामापादयतीति । तन्न धर्म एव हि धर्मिण आकारः न तु तेनापाद्यमर्थान्तरमस्ति ततश्चायुक्ताङ्गत्वं तदाकारापादकत्वस्यायुक्तस्याङ्गीकारात् । कथं धर्मिणो भिन्न आकारः स्यादिति चेत् न भिन्नस्यैवाकारत्वात् । न चातिप्रसङ्गः स्वभावतो व्यवस्थानात् । काल्पनिक धर्मधर्मिभावमभ्युपगच्छतापि काल्पनिकस्यापि भेदस्यावश्याभ्युपगमनीयत्वात् । न हि स्वयमेव स्वस्य धर्मे भवति श्रात्माश्रयत्वप्रसङ्गात् स्वव्याघातश्च । इदमसाधकमित्यत्रासाधकत्व योगाद साधकं तत्किं तदाकार मतदाकारं वा भिन्नमभिन्नं वा कार्यमकार्य वेत्यादिविकल्पप्रवृतेर्दुवारत्वात् । एवं हेतुदृष्टान्त
३०४
तथाहीत्यादिना । अतदाकार इति । अनित्यत्वादिधर्मरहितस्तदिना अनित्यत्वादिधर्मेौ न धर्मिणमनित्यत्वादियुक्तं करोतीति तदुक्तं पूर्वमित्यर्थः । कथं धर्मिण इति स्वरूपशब्दपर्यायः ततो न विरोध इत्यर्थः (?) । भिन्नस्याकारत्वे सर्वस्य सर्व एवाकारः स्यादित्यत्राह । न चातिप्रसङ्ग इति । स्वभावत इति । शरीरिणो भिन्नस्य शरीरत्वे ऽपि यथा घटपटादीनां शरीरत्वाभावः एवं भिन्नेषु कश्चिदेवाकारो न तु सर्व इति भावः । काल्पनिकमिति । धर्मधर्मिणाः भेदानवस्थानादभेदे धर्मधर्मिभावाभावान्न वास्तवः कश्चिधर्मधर्मिभावोऽस्ति किं तु काल्पनिक इति वदता बौद्धादिनेत्यर्थः । भेदानभ्युपगमे बौद्धमाह । न हि स्वयमेवेति । आत्माश्रयत्वप्रसङ्गात् आत्माश्रयं स्वमाश्रित्य स्वस्याव
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जातिनिरूपणम् ।
योरपि योज्यम् । एवमन्य आकारो न भवत्यन्यत्वादित्यादावपि दर्शयितव्यम् । अन्न सर्वत्र धर्मधर्मिभावानभ्युपगमे तवापि न हेतुसाध्ये स्थाताम् । तदभ्युपगमे वा न प्रतिषेध इति सर्वत्रापि व्याप्तिहान्या युक्ताङ्गहानिश्च दर्शयितव्या । उपलब्धियोगादुपलव्यस्तत्रापि तथेति युक्तियोगासुतस्तत्रापि तथेति कृतियोगात् कार्यं तत्रापि तथेत्यादाविष्टप्रसङ्गत्वमस्थानप्रसङ्गात् । एवं हेतुदृशन्तयोरपीति । इदमसाधकमसिद्धत्वात् शब्दानित्यत्वे चाक्षुषत्यवत् इत्यत्रासिद्धियोगादसिडत्वं सा च तदाकारवृत्त्यादिकं चक्षुः सम्बन्धाचाक्षुषत्वं स च सम्बन्धस्तदाकाशे तदाकारो वेत्यादिकं वाहनीयमित्यर्थः । अन्य आकार इति । अन्यत्वादिकं शब्दादेराकारो न भवितुमर्हति तदन्यत्वात् घटस्य पटवदित्याधनुमानेऽपि प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तेषु पूर्वोक्तरीत्या व्याघातो दर्शयितव्य इत्यर्थः । पुनरप्यसाधारणदोषमाह । अत्र सर्वनेति । सर्वत्र जातिवादिनोतदाकारस्तदाकारो वेत्यादिसर्वानुमानेषु न हेतुसाध्ये स्यातां हेतुसाध्ययोरपि धर्मिणो धर्मत्वाद्धर्मधर्मिभावानभ्युपगमे ते ऽपि न स्त इत्यर्थः । तदभ्युपगमे वेति । अनुमानसिद्धार्थ धर्मधर्मिभावाभ्युपगमे वातदाकारस्तदाकारो वेत्यादिना वादिarrafaषेधो न सिद्ध्यतीत्यर्थः । व्याप्तिहान्या जातिवादिना तत्रतत्रोक्तप्रतिकूलतकीणां दूषणव्याप्त्यभावेनेत्यर्थः । केषुचिदुपरञ्जकधर्मेषु तर्कस्याङ्गान्तरहानिमाह । उपलब्धियोगादिति । इष्टप्रसङ्गत्वम् उपलब्धिकृतीनामुपलoar स्वकार्यत्वसहभावात् तत्प्रयोगोस्मदिष्ट इत्य
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
प्यस्तीति सर्वेषामपि प्रसङ्गानां यथायथं तर्कीङ्गपञ्चकान्यतमहा निरूहनीया । एतामेव जातिमवष्टभ्य शुष्कतर्कवादिनां बौद्ध चावीक वेदान्तिनां बालजनसम्मोहन हेतवः कण्ठकोलाहला इति संक्षेपः ॥ २८ ॥ असिद्धतां वादिहेतेारुक्तान्तं साधयेत् स्वयम् । तदूषणान्मूल हेतुभङ्गः कार्यसमो मतः ॥ २६ ॥
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हेतुशब्दोत्र साधनाङ्गोपलक्षणार्थ: तेन पक्षहेतुदृष्टान्तानामन्यतमस्य साधनाङ्गस्यासिद्धत्वमुद्दाव्य तत्साधकत्वेन स्वयमेवोत्प्रेक्षया किञ्चिदभिधाय स्वात्प्रेक्षितदूषणेन वादिसाधनभङ्गापादनं कार्यसमः । अनित्यः शब्दः कार्यत्वादित्युक्ते प्रत्यवतिष्ठते । प्रसिद्धं तावत् कार्यत्वं तत्साधकं च प्रयत्नानन्तरीयकत्वं तच्चाभिव्यक्ती कूपादकादिभिरनैकान्तिकम् । ततश्च कार्यत्वासिद्धिस्तदवस्यैवेति । एवं पक्षदृष्टार्थः । सर्वेषामपीति । नित्यानित्यत्वादिसर्वे। परञ्जकधर्ममुद्दिश्य ये प्रसङ्गाख्यास्तका उक्ताः तेषु केचिदव्याप्ताः केचित् प्रतितर्क पराहताः केचिदिष्टार्थीय पर्यवसानहीनाः केचिदरूपाः केचिदनुकूलाः अतः सर्वे तकीभासा इत्यूerreferर्थः । बालजनसम्मोहना न्यायतत्त्वानभिज्ञ बालजनभ्रामिका ॥ २८ ॥
तत्साधकं चेति । शब्दः कार्ये भवितुमर्हति प्रयत्नानन्तरभावित्वात् घटवत् प्रमाणात् कार्यत्वहेतुसिद्धिरित्यर्थः । एवं पक्षदृष्टान्तयोरपीति । शब्दद्घटयेरनित्यत्वं नाम प्रध्वंसनं तयोः सम्बन्धो विद्यमानकाले ऽपि नष्टकाले वा ।
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जातिनिरूपणम् ।
न्तयेोरपि दर्शयितव्यम् । कथं तर्हि प्रयत्नकार्यानेकत्वात् कार्यसम इतिसूत्रसङ्घटना । किमत्र दुर्घटं प्रयह्रस्य कार्यो विषयः हेयोपादेयतया व्यवहर्तव्य इति यावत् । तस्यानेकत्वं पारमार्थिकापारमार्थिकत्वम् । तस्मात् प्रत्यवस्थानमिति । यद्वा प्रयत्नविषयस्यानेकत्वं जन्यत्वाभिव्यङ्ग्यत्वाभ्यां नानात्वम् । तस्मादनेकान्तिकत्वेन प्रत्यवस्थानमित्युदाहरण विशेषपरं योजनीयम् । बौद्धास्तु
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२
साध्येनानुगमात् कार्यसामान्येनापि साधने । सम्बन्धिभेदाद्वेदोक्तदोषः कार्यसमो मतः ॥
आधे व्याघातः द्वितीये परस्पराश्रयत्वम् अतः पक्षदृष्टाPrefest तत्साधकं च शब्दघंटी प्रध्वंससम्बन्धयोग्या पूर्वत्रिकान्तर्भूतत्वात् व्यतिरेके व सामान्यवदित्याद्यनुमानम् तचात्मादावनैकान्तिकम् अतस्तयोरसिद्धिस्तदवस्थैवेत्यादिकं द्रष्टव्यमित्यर्थः । उक्तार्थस्य सौन्नत्वं नास्तीति शङ्कते । कथं तर्हति । प्रथमं सकलानुमानव्यापकं सूत्रार्थमाह । प्रयत्नस्य कार्यो विषय इति । हानोपादानव्यवहाररूपानुमानवाक्यगोचरस्य लिङ्गादेः सिद्धत्वासिडत्ववतः प्रत्यवस्थानं कार्यसम इति सूत्रस्याहत्यार्थः । शब्दानित्यत्वानुमान परमर्थान्तरमाह । यद्वेति । साध्येनानित्यत्वेनाव्याप्तत्वात् कार्यत्वहेतुना शब्दस्यानित्यत्वसाधने कृते सपक्षे साध्येन व्याप्तो हेतुः पक्षे नास्तीति पक्ष वर्तमाना हेतुनास्त्यतो सिडो साधारणो वा स्यात् ॥
19 No. 12, Vol. XXII. - December, 1901,
७५
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| ধ্বীদনাবিলাযা জুনি অলিন। স্কানি প্র লিঃ মুভ জ্বালা অনুষিযুক্ষ্ম অনু লাল - জানুয়াৰি মাজত্য সামালিন্যসন্ধানি জাহ কি নি । ম না: খলি অাগাম্মালামাল শ্রীলঙ্কানঃ বানু। অৰি দুচ্ছালকুলাভানি त्वनिवृत्तः पक्षे कार्यत्वनिवृत्तिरिति पर्यवस्येत् तदापकर्षसमः। अथ पोऽपि मृदण्डादिपूर्वकत्वमुत्कृष्येत নানল: ফানিনি ল জিনি। সুম মাকান্ধিীহ্মাস্তু জুলি অামি নীলিমাজ্বীক্ষণ যন্ত্র লিনালীনি ল ত লিফ্লিন। সুত্র জ্বালানিনাবিলা জ্বালালোজ্বাৰাঁ বাল্যান্ধিৰিত্ৰা অস্বস্থিল
জুমার্থ ক্ষু। অাখা অলা - কালুঘলজ্জিাৰ অনিনি। সঙ্গ চলেক্সল ল
আ নানাব্বানিজ্যাত্বাৰা লঅন । তন্ত্র| লালাহাঅক্লাজাম্মান: গৃঙ্গাকাছয় ঘালিল্লালিত্বৰলাল ভূখ। ল খিলি । শ্ৰীভাদা
জালিল কােৱাৰা অঙ্গदिसममित्यर्थः । अत्र कार्यसमलक्षणे । अनैकान्तिकत्वादित्यादिशब्देनासिद्धिः गृह्यते । उदाहरणविशेष कृतकশান্তনা মন তাত্ম? ঘহ ক'লঅনল স্থায়ী আয়ুৰ লয়। লাম্মাহি লি।
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जातिनिरूपणम् ।
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तेरन्यस्मिन्नभिव्यक्तिलक्षणे कार्य प्रयत्न हेतुर्न भवति । कुतः सत एव शब्दस्यानुपलब्धिकारणापपत्तेहिं तथा स्यात् । न चास्यानुपलब्धिकारणं किञ्जिदদিন স্নানঘ্যাঙ্গানিনি লামঃ। মন জ্বাই: স্ন: স্মলসিদ্যহ্মঅলালনৰামলশী বিনি हेत्वसिद्धिपरिहारः सूत्राक्षरार्थः । निर्विशेषणस्य যালৰ মাৰিনি নাস্বিামঃ। কাৰি शेषणस्य न दोषमावहतीत्यविषयवृत्तित्वमुक्तमेव । दूषणस्य विषयो नानुक्त इत्यविषयवृत्तित्वं चार्थता दर्शितमिति ॥२६॥
जातेः समाङ्गानि दर्शयति । लक्ष्यं लक्षणमुत्थानं पातनावसरी फलम् । मूललित्यङ्गतासाम् । | নালি মছি মনিজানি ত্যাজিযলালিনি কানু तत्राह॥
तत्रोक्त लक्ष्यलक्षणे ॥ ३०॥ हेतुतया । आवरणादीत्यादिशब्देनायोग्यत्वमसंस्कार्यत्व च गृह्यते । न दोषमावहतीत्यविषयवृत्तित्वमिति । अत्रान्यथा स्वव्याघातप्रसङ्ग इति वाक्यमध्याहार्यम् । तात्पयतोऽस्य विषयवृत्तित्वमाह । उक्तमेवेति ॥ २९ ॥
जातेः सप्ताङ्गानीति । एवं चतुर्विशतिजातिरुक्ता इदानीं सकलजातिसाधारणानि सप्ताङ्गान्युद्दिशति मूलपद्यकार इत्यर्थः ॥ ३० ॥
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লজাজিমহলায় অাঃ নিস্থালিৰাৰঃ কালঃ।। মূলগ স্থিতি স্কুল মিযীঃ ॥ =ং।
নয় মাত্মা লাব্দ বা দায় স্বাস্থল । লাশ্রাহ্মৰ লাৰু অনাস্থালি কাজী লি। এক্ষুনি মজাজ মন্ত্রিনালখায়ালিস্থলবন লভী ফনিমাচ্ছালিয় জানিখােমঃ । নুহ্মীলাব্বানা আমি আখ আজিম্বাত্বকাস্থিনি মুন্না গান । - সুলালীজ জুগন্নিামাল নিল আম্মদ নালন্দুল লনি আনু মন্ত্রী অলিলি সৃষিমিষ্ট ৰিনমিনি নমিলিলি নিন । নন্ম লুলু। জাঙ্ক ফ্যানিজিংনিখ সু জ্ব আনলক্ষ্ণ ভানীলা মিয়াগনস্কি ন ছ ৷ নি । | স্বাক্ষীশানিহান আম্মিাহুল শান্তুনা ল ল' । | হু লাৰিহ্মাম্বলানি সুস্থ নামাरणो धर्म उस्थितिः तत्तजातीनामुत्थानहेतुस्त्वितिपदं জালিসাত্মঃ দূত লগাথা অন্ত জালিমল কালিম্ব স্নালিহিৰি অাৰ দ্বাৰল লাत्युत्तरेण वादिसाधने आपाद्यमसिद्धत्वादिदूषणं सविদু জাৰান"লাল হ জুমলাক্সি স্বাক্ষ | নানালিতানি।।
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जातिनिरूपणाम् ।
३११
ANIRIDIHasranandasanmanorama
वयं तु संग्रहाधिकारिणो विस्तराद्रीत्या न व्याकृतवन्त इति ॥ ३१ ॥
जातिलक्षणे बुभुत्सातिशयोत्पादनार्थमाह ॥ कथासम्भोगवैदग्धीसम्पादनपटीयसी। ध्रियतां जातिमालेयं जातिमालेव पण्डितैः ॥३२॥
जल्पवितण्डयाः सदुत्तरापरिस्फूती स्वयं प्रयोगेण परप्रयुक्तोद्धारणेन च कथावैदग्ध्यहेतुत्वाज्जाনীলাব্বী। অ লৰালনিকাল ঘৰখাৰী অ কুদ্দীকাল স্বল্প স্নাঘাঁ গনিনি লালিवाहाकौशलेन पाण्डित्याभिमाना भज्यतेति ॥ ३२ ॥ सदुत्तरेण जातीनामुद्धारे तत्त्वनिर्णयः । जयेतरव्यवस्येति सिहोदेतत्फलद्वयम् ॥ ३३ ॥ पण्डसम्भोगतुल्याः स्युरन्यथा निष्फलाः कथाः। इति दर्शयितुं सूत्रैः षट्पक्षीमाह गोतमः ॥३४॥ असदुत्तररूपा सा द्रष्टव्या परिशिष्टतः ।
वयं मूलपद्यकाराः ॥ ३१ ॥
कथासम्भागेति । विजिगीषुकथायाः सम्भोगप्रयोगस्तत्र । वैपदं विकुशलता तस्या उपार्जने असाधारणकारणमियं जातिसंहतिः विजिगीषुभिः विद्वद्धिलक्षणादिसहिता ज्ञातव्येत्यर्थः । _ वादकथायाश्च लाघवानवकाशादिशिनधि। जल्प-- वितण्डयोरिति । अन्यथा जातिलक्षणाचनवबोधे कथान निर्वहति एवमसामर्थ्यम् ॥ ३२॥
dactacuationsaninibadmadanldaamancernamblatadanaSHINDumkamanandibasiaamsunsaninilomidaomamediamanadiasbilioawaathaastanatrawasitaaHamadashamARITRADABOUREDMINSansar
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সরঞ্চম শ্রেমিয়াকােতে একদলdedঘসফলনা
ক্ষণসমমায়েত-
এ-লেভেল
| ৭ই
স্বয়ীনাক্ষীরোগ
*
শিশু ও ৫৭
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হয়তো এখন নেই
অগ্রযুচ্ছা জানী: শৰীয়া অন্যায় ভাল মাল আৰু নলিঅন দললিনি। স্মাম্বলল নানু। ল স্ব জমিনহাজ
জঞ্জা ভয়াৰি লিখানা। নলক্ষ্ম অঙলজুলমল্লিক্সফাজলন জান্নাঘননি জীআলু লুঙ্গা প্লিামা জাহ্ম রূত্মশালা অনুদ্দীফানি । নঙ্গ আলিঃ না নী অজ্বালা। মা চবি খাল কাল জুন। আল্লালীহ্ম জ্বালা আল মানি লক্ষানিজ্বালাক্তিনি ১ লী : মাহি জামক্লাহ্মঃ ন্যা। অল জব্বাজীদ্ধাশ্যা| হৃঙ্খলালিলিটল জিলীযথভাঙ্গালমালল प्रथमपदार्थमयाह । परप्रयुक्ता इत्यादिना । तन्वनिर्णयः লীলাদ্ধলজিঃওলল লাথি মাদ্দালি অধিঃ ফানিলি নিনি ফানি ৷৷ | অব্দী অলিঃ কাহ্নাঘলত্বঃ অঃ অঃ प्रतिवादिनो जात्युत्तरप्रयोगाद् द्वितीयः पुनादिना सসাঃ লুনীঃ দুলহন্দি চানিলিঅানুষ্ঠঃ ওস্থা আলি লিমাঃ স্বল্প: অজ্ঞান অলিলিাজताक्तिः षष्ठः । एतेषां षण्णा पक्षाणां समाहारः षट्पक्षी तामाह सूत्रकार इत्यर्थः । प्रत्युत्तररूपं वादिवाक्यस्य प्रतिवস্বল সান্তুনত্ব অলস নুনু স্বাগৰি লন্থঃ । সত্যनानन्तरीयकत्वं सिडस्य वादिसाधनस्य साधकत्वेन सामोक्षितः।प्रतिषेधे ऽपि जात्युत्तरे ऽपि । तुल्यत्वमेवाह । त
সেনাশামকেশ-
৩৪০০০
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MIMARATowapwonouraniwearAHARimity
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A MITRENDRIDINEPAINOMANTIRelamvaramananesan
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জানান । नैकान्तिकत्वमुच्यते । तस्य व्यञ्जकत्वमसिद्धम् । तत्लाधकस्य प्रयत्नानन्तरोपलब्धरिति हेताघटादिकायলক্ষালিহ্মাঝিনি কাল। মা লক্ষানিজানি মানঘনালাবি জানালালি না। ল আ লালন: জনিথ ল হুদা अप्रतिषेधकत्वादिति वाचलप्रयोगादिति । यता दोषवत्त्वमात्रेण साम्यमुवा यं कजिद्दोषमाह। अन्न प्रथमतृतीययोर्मतानुशा स्वदोषानुद्धरणेन परदोषापादनात्। द्वितीये तु निरनुयोज्यानुयोग इति । किमমূত্রালয় জান। আশা মলিক্সিজান্যান্য।
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नापीति। एतदेवेपपादयति । प्रयत्नस्यति । शब्दनित्यत्ववादिना तस्य प्रयत्नव्यङ्गयत्वमङ्गीकृत्य मूलेोदकादावनैकान्तिकत्वमुक्तम् । तस्य शब्दस्य प्रयत्नव्यङ्गयत्वमसिद्धम् । तत्साधकत्वं च शब्द प्रयत्नव्यङ्ग्यः प्रयत्नानन्तरोपलब्धत्वात मूलोदकादिवदिति। अयमपि हेतुःप्रयत्नजन्यैर्घटादिभिः अनैकान्तिकत्वादसाधकः ततः प्रयत्नव्यङ्गयत्वासिद्धिः शब्दस्य तदवस्थैवेति कार्यसम इत्याह इत्यर्थः । अथ सूत्रगतप्रतिषेधशब्दयोरथान्तरमाह अभिधावृत्तिवपरीत्यात् प्रतिषेधहेतोरनैकान्तिकत्वम् न तु पूर्ववयभिचारादित्याह । न बथमिति । अथ दोषशब्दस्य सम्मुखदोषमात्रवाचकत्वमित्याह । यति । अनिशापादनाजातिवादिनः स्वसाधनस्य साम्यत्वमनभिमतं तस्यैव वादिनोप्यनभिधानोप्यभिधावादिवदित्यर्थः। द्वितीये छलप्रयोग इति षट्पक्षाः
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सटीकतार्किकरक्षायाम सर्वत्रैवमिति । सास्वपि जातिषु कथाभासः प्रवतत इत्यर्थः । यथा क्षित्यादिकं सकतकं कार्यत्वान्मूर्तत्वादिति । सदसत्प्रयोगे तबदाका शसाधात् शरीৰাজ লালুজ িল ািিন স্থান। शरीराजन्यत्वं व्योमादी परममहत्त्वेन सह दृष्टं क्षित्यादिनाघ्यशरीरिकर्वमता सता परममहता भवित. व्यमित्युत्कर्षसमः । यदाकाशदष्टान्तेन परममहत्त्वं साध्यते तर्हि रूपदृष्टान्तेन तद्रहितत्वं किं न स्यादिति प्रतिष्टान्तसमः । शरीराजन्यत्वेऽपि किञ्चिदमूर्त दृष्टभाकाशादि किञ्चिच भूतं तित्यादीति । तथा किञ्जिदकर्टकं भविष्यत्याकाशादि किञ्चिच सकर्टक क्षित्यादीति विकल्पसमः । तथा कार्यत्वं मूर्तत्वं वा साध्यमप्राप्य साधने ऽतिप्रसङ्गात् प्राप्य साधकमिति वन्तव्यम् । तदा किं कस्य साध्यं साधनं चोति प्राप्तिसम इति षटपक्षाः। अथ प्रतिवादिनश्चतुर्थपक्षमाह। মনিখাসানী মিম্বকাঅনাঅঃ সানল द्वितीयपक्षस्य विप्रतिषेधस्तृतीयपक्षः। तत्रापि तुल्यो दोषः सैव जातिः वाचलेनानकान्तिकत्वं वा दोष
साधयेत्कर्षप्रतिधान्तप्राप्तिसमा बादिसाधनसहिता एवं षट्पक्षा दर्शिताः। तथा वैधात्कर्षसमाद्याश्च षट्पक्षा द्रपृव्या इति भावः । प्रतिषेधविपरीतः सैव जातिः
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লা লা নুনু নুনুশ্রী সনীনি। আলি: - ভ্রল অজ্বলা। নিজনাব মনিগ্রামনি
খ লালা লা লালুন। নিট্র দ্বিতীয় নীল ফাস্ট নাথালয় মনিঘৰিক্সনি নীলা ভন্সালনাসভা অনান্না লাল লম্বাল শূনী। স্মথ নানী মীলা ফল বা অন্যত্র হামিনাল লাজুক লুলীএল নীল জিন্ধ : লালজানালুজা মনি অন্ত অজুলাস্থ । জ্বা
যথাক্রান্ত স্থা বালির বাঘ জানাঙ্খাএবানু লাল কাগ নি। স্নন্স ছাত্ব স্বী লিয়ন। নত্ব সুদ্ধ হইল ন কাজী শূন্য না লিনী: : যাও। নালিঃ । নন: এক ঘোৰ মানি ম্ব চাৰি ফালা दोष इति परापादितदोषापसंहारे सवंत्वादिति বিনুলিয়া খিলাফী জ্বালা ৰা লু কাল মুনি। জিলহলি অথন্ধীজাল গিন্নাকালামঅনুৰী আশা ক িালন নি সন। মা নারি অনুদী লনিন । নন: এই স্বল্প মাৰিলা লিন্যায় ক্ষুব্রয়ললিনি সয়ামিন নকিনি ফায়াঃ কুনঃ দুলঃ স্বামীশাখলা। গল্পী সুলনা ঘুমাই। ওমথ মানি’ীনি। দুৰাজ ৰাখ স্কুল আলনি। অল্প অলনি। No. 3, Vol. XXIY.JPebruary, 1902.
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. सटीकतार्किकरवायाम् दिषु कुकथात्वमनुद्भावयन्तश्चतुर्थादिपक्षमनुमन्यन्ते। प्रयतामवहितः । सभ्यास्तावत्कथायां स्वयं कर्तुत्वेनानन्चयादुत्थाप्य विवक्षाः तदुत्थापनं च प्रश्नेन चाभयारप्रतिभया वा कथाभासप्रबन्धन वा भवति । पर्यनुयोज्योपेक्षणं च सभ्यरुद्धाव्यम् । तच्च सत्साधनापक्रमायां कथायां प्रथमद्वितीययोरसम्भावितमेव । तृतीये वादिनः सम्भावितमप्यनुदाव्य प्रतिवादानुयोगमपेक्षमाणास्तूष्णीमासते । तत्र चतुर्थः पक्षः प्रव. तते। तत्र सम्भावितस्यापि वादानुयोगापेक्षयाऽनुदाबने पञ्चमः पक्षः वादिनाः स्तम्भरूपमनुविधेयप्रश्नावसरमपेक्षमाणेषु षष्ठः। प्रश्नसमयातिक्रमे पुनरननुयुक्तावपि वादिना निवार्य कुकथात्वमावेदयन्ति । সুলাবালযাতাযাালাল নাजत्व प्रसङ्गात् । प्रतिवादादिप्रश्ने त्रिपक्षादिषु पर्यत्रिपक्षादा चतुःपञ्चपक्षाणामन्यतमे । तदितिषट्पक्षीप्रदनिमिति । येन केनचिदापादिता वक्तुमिच्छा येषां तदेतदुत्थाप्यविवक्षानिमित्तवशादोषवादिन इत्यर्थः । तदुत्थापनं च विवक्षाजननं च वादिनः प्रतिवादिनोऽनुविधेयस्य वानुयोगेन पर्यनुयोज्योपेक्षणग्रहणान्निग्रहान्तराणि वादिभ्यामेव मुखत उद्धावनीयानीति दर्शयति । समयातिक्रमे प्रश्नत्रयस्थावसरे गच्छति सति कथाभासप्रबन्धे चानुवर्तमान इत्यर्थः । अन्यथा षट्पक्षानन्तरं वादिना निवार्य । प्रतिवादीति प्रतिवादिनने त्रिपक्षः
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जानिरूपणम् । वस्यति । वादे तु तृतीयकक्षायां वादिनारनुयोज्यानुयोगमुद्राव्य सदुत्तरेण कथा प्रवर्तनीया। तदनुवावने चतुर्थी स्वदोषोद्धावनम् । पञ्चम्यामपि तथा । अप्रतिभा प्रतीत्यर्थ षष्ठस्यावकाशः । परस्परं स्वयं
লুরাল লি জুমাহ্ম সমূনা জালাল इति सङ्कपः ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ॥
इति श्रीवरदराजविरचिते ताकिंकरक्षाव्याख्याने सारसंग्रहे द्वितीयः परिच्छेदः॥
वादिप्रश्ने वा पच्चपक्षिकया पर्यवस्यति तत ऊर्व न सानुवर्तत इत्यर्थः । निरनुयोज्यानुयोगं प्रतिवादिन इति शेषः । स्वदोषोद्भावनं प्रतिवादिना कर्तव्यमिति शेषः। पञ्चम्यामपि तथा । वादिना स्वदोषोद्भावनं कर्तव्यमित्यर्थः । परस्परं स्वयं चेत्यभिधानेन वीतरागत्वाद् वादे न जयपराजयप्रश्नावकाश इति गम्यते ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ७ ॥
इति तार्किकरक्षायां ज्ञानपूर्णमुखोद्गता। चतुर्विशतिजातीनां सम्पूर्णा लघुदीपिका ॥
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
तृतीयः परिच्छेदः ।
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अथ निग्रहस्थानम् । तत्र सूत्रम् । अप्रतिपत्तिলিননি লিয়াল লিনি । মল মাদাস্বাৰালানিনি। নাই মি লিখলविप्रतिपत्तिः । अन्यथाप्रतीतिरिति यावत् । तयाश्च प्रत्येक समुच्चये चाव्यापकत्वात् क्वचिदप्रतिपत्तिः জম্মিল্লিক্সানিলিখিনি লজ্জাযী লুনাজাখাभावेनालक्षणत्वादुभयानुगततत्त्वाप्रतिपतिस्ताभ्यां लक्ष्यते। सा च परबुद्धेर प्रत्यक्षत्वात् स्वरूपता न निग्रहस्थानं भवतीति स्वज्ञापकं न लक्षयति । ततश्च तत्त्वाप्रतिपत्तिलिङ्ग निग्रहस्थानमित्युक्तं भवति ।
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कृता जातिपरिच्छेद्व्याख्या लघुतरा मया । क्रियते निग्रहस्थानपरिच्छेदत्य साधुना॥
तयोश्चेति । अप्रतिपत्तिर्निग्रहस्थानलक्षणं चेद् विप्रतिपत्तिन स्यादेषा चेदितरा न स्यात् उभयं चेदेकैका न स्यात् विषयभेदेनोभयं चेदनुवृत्तलक्षणं नास्ति अत उभयगततत्त्वाप्रतिपत्तिस्ताभ्यां लक्ष्यते । सा चात्मगता पराप्रत्यक्षेति तया तज्ज्ञापक लक्ष्यते ततो लक्षितलक्षणन्याये
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লিয়ানান। সু লিস্থ আল মুবিলিলিকালাম খালা।
ভিলাজুজলিল। অম্লাভল। निग्रहस्तन्निमित्तस्य निग्रहस्थानताच्यते ॥१॥ | স্মম হৃঙ্খলিলুন। স্নানিল্লক্লা। অম্বা ফাই: জ্বালাযনাম্বাবস্থায় স্বাভালগ্নি অভাবী লি নি। নালি অ ানিনি; এৰিালা। নৰু। মনিমালি: মানা নাই মালিবাগ ফ্লনিয়াজ্বাঃ উহ অাল লিজ নিলানাঘলাইঅমাশফাল কম্বি দুললললুমামালা ললানি নিজ নাজা অনুযাভাবঃ লিব্যাকলুবাৰী চালনা না যমত্মা লিমফালালীনি। স্বাভ : নল গ্রাঙ্গ ঝুমামান্নাল ভিনিনিশ্বান জানিনান্নালালখাল স্বামদিঘলিস্তিজ লিঙ্কানলিলি বালা সুনামগঞ্জ শ্রাথঃ । ঙ্গ লিঙ্গস্থানান। তৃ सूत्रस्य दुर्घदत्वात् तदर्थं हृदि कृत्य प्रकारान्तरेण मूलपद्यकारः सामान्यलक्षणमाहेत्यर्थः ।
ভঘনত্বলাম্বা। সানিমলাत् कथाव्यतिरेकेण परस्परं विवदमानानामनिवचसा নিত্যানসাজানি।। নালি লামানিবনিক্কিানি। অবিশ্বালামু সুলাই ললল লিঙ্গস্থাননাবেন। লুলাহালিমুলমলাকাবাহাকাবহুলা
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सटीकताकिंकरक्षायाम णि पुरःस्फूर्तिकान्यनधिकृतोद्भावनानि च व्यवच्छिनत्ति । प्रतियोग्यपेक्षया तात्कालिकातत्त्वज्ञानलिस्य निग्रहस्थानत्वात् तेषां चानेवंविधत्वादिति ॥१॥ कथायां यच्च पक्षादि येन निर्दिष्टमादितः । तस्य तेन पुनस्त्यागः प्रतिज्ञाहानिरुच्यते ॥२॥
वादिना प्रतिवादिना वा येन कथायां यत्पक्षहेतुहृष्टान्तदूषणानामन्यतमं प्रथम निर्दिष्टं तस्य दूषणसमुन्मेषण तथा निवाहमपश्यता तेन पुलस्त्यागः प्रतिताहानिनाम निग्रहस्थानं भवति । त्यागश्च यदि दुष्टमेतत् तन्माभूदिति कण्ठतार्थतश्च द्विधा भवति। पक्षो तावत् साध्यसाधनधर्मिणां तद्विशेषणानां च त्यागाः षड् भवन्ति । तत्रादी यथा। अनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकत्वादित्यक्त सामान्यमन्द्रियकं नित्यं दृष्टमिक्तानि । झटितीति । केनचित् समादं निग्रहं स्पषमुक्त्वा स्ववचनं स्वयमेव वुद्धा परिहृतत्वादुच्यमानो का उक्ता तस्योद्भावनकालतया स्पथा (?)। पुरः स्फूर्तिकेति । प्रतिवादिवचनात् पूर्वमेवातितिक्षमति केनचित् पावस्थेनोहावितानि । तेषां चेति । आये त्वज्ञानलिङ्गत्वाभावात् द्वितीये तदवसानानहतया अज्ञानलिङ्गत्वाभावात् तृतीये ऽन्योक्तत्वेन प्रतिवादिना विजयाभावाचेत्यर्थः ॥ १ ॥ ___ आद्यः साध्यत्यागात् द्वितीयः साधनत्यागात् तृतीयः धर्मित्यागात् मनसः परिग्रहे ऽपि पूर्वोक्तस्य विशियस्य त्यागार्मिहानिरिति द्रव्यम् । चतुर्थः साध्य
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१०३
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३२१ त्यनैकान्तिकत्वेन प्रत्युक्तेतर्हि शब्दापि नित्यः स्यादिति। द्वितीयस्तु तस्मिन्नेव हेता तथैव प्रत्युक्ते तर्हि कृतकत्वादस्त्विति । तृतीयस्तु अनित्ये वाडानसे मूर्तत्वादित्यक्त भागासिया च प्रत्युक्त तर्हि मन एवास्त्विति । चतुर्थस्तु क्षित्यादिकं बुद्धिमत्कर्टपूर्वकमित्युक्त उपादानादिगोचरज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नवत एव कर्तृत्वाद्बुद्धिमदिति विशेषणवैयर्थ्य ऽभिहिते तर्हि सकर्टकमेवास्त्विति । पञ्जमस्तु अनित्यः शब्दः प्रयत्नकार्यत्वादित्युक्त विशेषणवैयोक्तो तत्परित्यागः । षष्ठस्तु ऐन्द्रियकः शब्दो नित्यः कार्यत्वादित्युक्ते तथैव प्रत्युक्ते शब्द एवास्त्विति ॥
दृष्टान्ते ऽपि हानेः पूर्ववत् षट् प्रकाराः । प्रादयो यथा । अनित्यः शब्दः ऐन्द्रियकत्वात् घटवदित्युक्त सामान्येनानैकान्तिकत्वादावने घटोऽपि तर्हि नित्योऽस्त्यिति । द्वितीयस्तु तस्यामेव प्रतिज्ञायां प्रत्यक्षगुणत्वाद् द्वाणुकरूपवदित्युक्ते साधनवैकल्यादावने कार्यत्वहेत्वाधारतया स एव दृष्टान्त विशेषणत्यागः वैयर्थं पुनरुक्तत्वेन दुर्घत्वे । पञ्चमः हेतुविशेषणत्यागः । विशेषणेति । प्रयत्नविशेषणस्य व्यावृत्यभावेन कृतकत्वोक्तौ । षष्ठः धर्मिविशेषणत्यागः । तथैव प्रत्युक्ते ऽपि सिद्धसाधनपरिहारार्थं हि धर्मिविशेषणमत्र त्वन्द्रियकत्वं विशेषणम् ।
तदभावार्थमित्युक्ते सति प्रान्ते चायद्वितीयादि
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सटीकतार्किकरक्षायाम्
३२२
इति । तृतीयस्तु तस्मिन्नेव दृष्टान्ते तथैव प्रत्युक्त घटरूपं तर्हि भविष्यतीति । यथा च साधर्म्यदृष्टान्तत्वेन प्रत्युक्ते माभूदयं वैधर्म्यदृष्टान्तोऽस्त्विति । चतुर्थस्तु यत्कार्यं तद्बुद्धिमत्कर्तृपूर्वकं यथा घट इत्युदाहृते पूर्ववद्विशेषण वैयर्थ्यातौ तत्परित्यागः । पञ्चमस्तु यत्प्रयत्नकार्यं तदनित्यं यथा घट इत्युत प्रयत्नविशेषणस्य वैयर्थ्याको त्यागः । षष्ठस्तु यथा स्थूलपदानर्थक्येोद्भावने तस्य त्यागः ॥
दूषणहानिस्तु स्वरूपता विशेषणतश्च द्विधा तत्रादयो यथा । श्रनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्युक्ते अनैकान्तिकत्वाद्वावने निरनुयेोज्यानुयोगत्वेन दूषिते स्वरूपासिद्धिस्तर्हति । द्वितीयस्तु स्वरूपासिद्विपरिहारे व्याप्यत्वासिद्विस्त हति ॥
ननु यद्दर्शनेनायमुक्तं त्यजति स एव दोषो
शब्दानामित्यर्थः पूर्ववत् । यथा च साधर्म्येति । श्रयणुकपान्यान्तत्वाभावे यदनित्यं न भवति तत्प्रत्यक्षमपि न भवति यथा द्व्यणुकरूपमिति । अयमेव व्यतिरेकदृष्टान्तः । या एवमपि दृष्टान्ते दूषिते तर्हि व्यतिरेकेणापि परमारूपवदित्यर्थः ।
निरनुयेोज्यानुयोगत्वेन अविद्यमानदोषोद्भावनत्वेन । स्वरूपासिद्धिपरिहारे ऽनभिव्यञ्जकप्रयत्नानन्तरभावि त्वेन हेतुना शब्दस्य कृतकत्व हेत्वसिद्धपरिहारे ऽभिहिते सतीत्यर्थः ॥
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লিনান ঘষত্রে।
निग्रहस्थानमस्तु न हानिरिति चेत् । न सतस्त्यागे ताबद्धानिरेव निग्रहस्थानम् असतस्त्यागेऽपि त्यागेनैव पूर्वदोषस्य परिहतत्वादियमेव निग्रहस्थानम् । इयं तु 'प्रत्युत्तरानुपातिनी तदुत्तरकक्ष्योदाव्या । तत्रापेक्षितानुदावयितुं निग्रहापादिका सतस्त्यागे तु प्रतिवादिनोऽसदोषाहावनेन निरनुयोज्यानुयोगापातात् त. दनुदावनेनोक्तं त्यजतः पर्यनुयोज्यापेक्षणसहचारिणी हानिरवश्यावाव्या श्रात्मन एकनिग्रहापत्तेः परस्य रुद्धयापत्तेरवष्टम्भविजयावहत्वात् । वादे तु सद्धानिरुद्धाव्या नेतरा । अत्र निर्वाह्ममेव वदेदुक्तंच निर्वहेदिति रहस्यम् ॥ २ ॥
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यदर्शनेन यस्यानकान्तिकत्वभागासियादेदर्शनेन । सतस्त्यागे प्रामाणिकसाध्यसाधनादिपरित्यागे सति हानिरेव यथोक्तदोषस्याभासत्वात् तदधीननिग्रह इति भावः । असतः प्रमाणिकत्वाभावयतः । प्रत्युत्तरानुपातिनीति । प्रथमद्वितीयपक्षयोस्त्यागायोगात् तृतीयचतुर्थादिपक्षेषु सम्भाविता चतुर्थपञ्चमादिपक्षेषूद्धाव्या। तत्रोपेक्षिता प्रतिवाधादेः पर्यनुयोज्योपेक्षणप्रदेत्यर्थः । वादिनः अवश्योद्भाव्या प्रतिवादिनति शेषः । स्वस्यापि निगृहीतत्वात् कथं परदोषोद्भावनमिति चेत् तंत्राह । आत्मन इति । अवम्भविजयो नाम न्यूनदोषवता परस्याधिकदोषोद्भावनम् ॥ २॥
ध-No. , Vol. XXIV.-April, 1902.
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তালন লাল লিঃ মিল স্থালিফিল্ম। অন্যা রুম্মান জ্ঞান লিয়াল অতলানি জানি কালনাডল জ্বালাখাই জীগ সানজালীলুল জ্বালা জ্বালিঃ নিম্নলিখিনি। লন্দু নগ্রাখি
লাঘালালাগাল ঝাল্লা জ্বাসুন জুনি | তু নটি অফিাইনুলাল স্কুলাঙ্গাযালা ছানিহিত্মাফিললি লি নি।
उक्तस्यार्थजातस्य सूत्र नानुगुणमिति शकते । कथं নীলি। ঘুলঘী বন্ধু যমুঙ্গালাহু। ভূ জ্বীনি। যাSথ ন িনির্যাত্মিম্মম্মম্বলিনি ছয় জ্বালিজ্জা নাথ ছানিহিত্য। অইনি। সুনাখালপ্লাষ शब्दोऽपि तहि नित्यः स्यादित्येकैवयं नान्येत्युक्तं भवति । জাঃ সুলুক সৃঙ্খ ছানি লাল ফুলালিঙ্কামু জ্বল। যথালা চালাহালিয়নিকলী জস্থান। তৃঙ্খল সালাহুলিঃ অজ্ঞানভানুখি স্ব স্ব লাল নীলখাকিস্তানি জ্ব মা জিহ্মা নাজ্জ্বালিহালিশ হুলি ।
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কিনি লালন । নিৰামালিন মুক্তিলমুনালিষ্ট লিঙ্গানালি ভাষালাকি নীলিগিনি মাৰিীয়। তাভূখী থাভাষী অথা। অন্ লিলিলস্থুল तदग्निमदित्युक्त प्रयोज्यांशे न्यूनतया प्रत्युक्ते तत् কালিম্পূজাযালাননি। লিয়াল ১থি সনিকা আলিমাৰিস্নিগুনিজনাবা নয় মন অনুখি বিশ্বকাল: অন্যাযীঃ ল
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লিলিঃ অলিনীলাঞ্জশ্বালু লাক্সান্নিালান্যাশিতঃ। নিহালাল্লাথ হালন্তিলালীযখাৰীলাল নযুলু ও শিক্ষাসূলিল भोक्तृत्वहेत्वजन्यत्वेन परम्परया बुद्धिमानपूर्वकत्वात् सिद्धसाधनमित्युक्ते सति । उपादानादीत्यादिशब्देन उप| লালসাললানি দ্যাল। ব্রান্বিন্যালি
হালালাগা সাভাষী অালীपो गृह्यते। निगमने ऽपीति । तस्मानित्या वर्णाः तस्मादिदमচিলান না ভুলিন্সিল বুনি সুখঅ বন্ধনছিহাত্মঘালজিকাথাব্য বিলা
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লিৱস্থালীন ব্যথা। বম জালিমালিপ্তাহ এৰিানিনি । মুলা ফ্যামিঅন্যান্য ক্লিয়ীজগাখিল মাফালুদ্দাকিনি। স্নন্স ছালৰ লক্সিরীক্মখীআশ্বিন সুস্থ । ই॥ ১। গ্রন্থাকায় স্ব স্কাখিল: ॥৪॥
ঘানা লিঙ্কাল ালু সানিল্লাহিল। | যাত্ম হত্যা: এজাজাঙ্গাথা। : ফেং
ঘনঃ মনিয়াৰিাগা লাল লিস্তু ত্যা সন্মান। না নিলা কালিমাখ: আনলাৰিখ ভূমি । | वापि निरस्तः । एवमनुपन्यस्ते इत्युक्तहानिरत्र नास्तीति मतं (बहिर्भावेन प्रस्तुतसाध्यं शब्दानित्यत्वं प्रतीत एव ভাস্ক্যালিলাইন্যা। ওঙ্গ লাৰিনি ভাজানালা উঃ ন্ত ন্যাক্তি আলা সুললাফি বি অঙ্গাঙা আত্মিাযাত্বলালনই আস্থা উলালঙ্গাস্না স্বাক্ষাজাবালয়ৰ সমাজাঙ্গাঞ্জিঃ )। (৭)স্লাল্লা স্থা ছানি"জন্ধুত্ব। ক্ষমা লং লুসীঘি। তুই সলিজা ভূহক্সিম ফল ॥ ২॥ ১১ | | খােকাহিনি নিষ্কাষস্থ না অস্বনি। ৰানামঃ আনছা
লী যাईयोरुक्तयोरन्योन्यविरोध उक्तविरोध इति सूत्रतात्प
(৭) () হল।নিতা দুলাল।
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এ ঘৰমালিঘালু নাৰ অ খ্রিহ্মামিঃ । নম্ন স্বলা যা জৰা ল জননি ব্রিনী লালীগুমৰ ধ্বনি। সুনীষ ভস্মঃ জ্জিয়ি জনি। অর্থ* স্লীমাহমীনি। নিলাজ্জেীৰিা প্ৰা সুখনিষিদ্ধ নিমিানিনি ও স্থানান্তাবাঘা লি: চা: অন্যান্য নলি অস্ব ী নি। মনিঅলা বান্ধবীর স্বামীআললামঃ। নিরালিয়ায় অজ্ঞা জুলি ন্য জাল মানায় নলল্লি জানি। নালনাযা লিঃ চান্দ্র ইজিলো ক্লয়ালিকিনি।
যাথ অা। সন্স অলিনি। সুহ্মা তালালআজৰিাঘ মাসু। লন্ত অৰিহাখঃ মঙ্গ ছায়াক্কাদ। মনিহানিহাখ ছালি। নন্স অথবা অর্থনি। তিনীািন। হলিভাহিনী লিখা ল युक्तः निषेधविरोध इत्यर्थः । तृतीयस्त्विति जगत उपा-- दानगोचरबुद्धिमत्वेन सर्वज्ञस्यैवेश्वरत्वात् तस्य किञ्चिदूজাঘি বিলিনি গাৰঃ অলুখালি। খাল| জালানীর ল্য অনলালা ভিলিঙ্গ।
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। অনুলা নন্দনালহ্মি মন্তু নি। যক্ষ্ম না আলম চ িখিঃ জালালী: ল অাগল লিলেনঃ যাত্মিম্মা ল জ্ব মিলান্দাজুঃ নন্ম জ্বামিত্মত্যাদিলি লল লিখাল্লাল্ম। জন্ম দিন লা
নিমজ্যিা বিআফসুখ্যাকিনি। অলিখালা অ অম্বানু লালিজ: অল হ্মনিযামী নীম্নাঙ্খাঃ ৪ জিয়া অত্যাইন ল অকিনি নস্ক ॥ * SS
মুলাল অনিরালায়। ৪। | জীৱৰয় অনলালায় নিহত্যা: নখ আলনিলই নিলানাঘাঘলল নিবা
স্যাঃ স্ম জ্বাল কলাগঃ । না নানায়। ললললঃ। নননি অ জুন নবষিভিীবান্ধাবাজ অলঙ্কা জন্যই অ লাল ঃ জাল দলিন লা এমনন ললনালিনি স্বা অফলা। অলিনি লন্সৰ ওলন্দুলহানিৰানুলাল। ফুল লজয়ী জুলি। লিঅ' মুমিনাহিম। লহ্মমুহাক্কি ত্ব লিথা অনম নস্থলানিনাগলিখাল্লুিহুলাক্লিখ; সাক্ষাতথঃ জিনীযথানান্তাভয়तोऽपेक्षिता निग्रहाय भवतीति तात्पर्थम् । एवं प्रतिज्ञा| ৰিহাখ তুঙ্কায়ালিকা ফুলি ভূল । Ss |
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আ ফ লুনিনি আ ল লললল=ক্ষিন্দু মুসাল্লাল ঘুমিল্লামা শ্বালয়লাব্যাজ আ ল জানিনাকলা -
লাৰি দুবাৰা ল বৰিনঃ। অন ল ম লিয়গাল গম না জানালাফার্ম মাত্র মাকালু कथञ्चित् संभवादुद्धाव्यम् । शेषमशेषं हानिवत् । प्रा. প্লিাজাম লাথলকিনি সুস্থ
হও। স্বলৰ স্বাৰ্ধী সুদিন লালুয়া । | শিল্পী লাক্ষাদ্বন্ধৱী বুদ্দিন মি নীলবিভিী নাইক্ষ্ম দুলঃ জ্বলবি মিক্স - লা লাল
লিল নি। নদ লিয়ীজীর না মনিলির নিমীজিনা ছলনৰ লাল লিয়মালালান। সুম নুখল মাখা মুশল জানি।
আ ল নহ্মাস্ত্র নির্মযাজ্জ্বল ও লক্ষি হীSলা নিম্নলীনি নিবষিভিীক্ষা স্নায় জুললিন মিলু গ্রানলি নি। মন্ত্র -
| আলজাস্থা। থ্যালী অনু। স্ব স্ব - লাফাজ্ব হল। অফথালরি। জ্বলজ্বালা दुकृत्ये साध्यसाधनाद्यपलापरूपेणायमपि चतुर्दशविधो শলি লুলাঙ্গায় কালিনঃ ভাষা। तुल्योन्यथा निग्रहाय भवतीत्यादिकं प्रतिज्ञाहानिवदस्याথি লিঃ । । - কলাথি দ্বিাঝা বনি মিজাঃ সাস্তুলল।
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নিজ্বিন্যাসন্তান নলিহন্দু । ন হন। অষ্মা
লিঃ স্না' কাহিত্মিাচ্ছি জালাল জ্জিাহা জালাল স্থি মিয়া। তা মাজহ্মা স্ত্রী সুস্থ অবালিহাতিস্থা নাল অ অ জুঞ্জ মাজহ্মাত্মলন प्रत्युक्त सामान्यवत्त्वे सतीति । उपनये यथा तथा জ্বালাক্সিমিয়া যুদ্ধ ন ন্য নৱ শিয়া অধ্যক্ষ ও সুষী আত্মা ইন হৃস্ট কাগঅাখ ল কান্তি দা লা লি গ্রেপ্তানत्युक्त जात्युत्तरत्वेन दूषिते विपक्षावृत्तित्वे सति सपने
নিনি বন্ধ বিদ্যানন্যা আম্বানি। দক বন্ধাত্রামুল নীনি লিয়অফ লিঙ্কা অৰীক্ষাবাঅনীহ্মাৰ যি লাল নীহ্মাৰ জ্বাল
লালা ভুল লিলুভালুকা ফানু। নজ্যাথি ইলাৰ শ্ৰান্না শিল্মোন স্বাগুলাঙ্গ না ঘুম আমাঝান্নাঘল মিলনঃ আল
মৃত্ব নালাক্ষী মুঅদ্যাথি আল ফজভাঘালমনিল। জম্ম লিস্য যান্তিনিঅ। গুমসজ্জিাই দিনি। বিদ্যাথলি অন্য লিবাগৰিাৰ বাল সন্ধ্যায় ভাল एव दूषणस्य निरनुयोज्यानुयोगो व्यवस्थित इत्यर्थः । নিলাদ্বিীম অন্য সথানঃ স্কুল। গুচ্ছ
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सटीकताकिरक्षायाम ज्योपेक्षणसध्रीचीनमिदं सदानिवदुराव्यं परिकरমুক্তি নিন্মালামনি । __ प्रकृतानुपयुक्तोक्तिरान्तरमिति स्थितिः ॥६॥ | সজ্জাল ফালয় ক্ষুধা লাহূ লজ यत् तस्य बचनमान्तरं नाम निग्रहस्थानं भवति । तदुत्ताम् प्रकृतादादप्रतिसम्बद्धार्थमान्तरमिति।नन्यदित्यध्याहाराल्लक्ष्यपदस्यार्थान्तरमित्यल्यावृन्ता प्रकृतमर्थमपेक्ष्यति ल्यबलापाद्वा पञ्चभ्युपपत्तिः । नन्यथा तृतीया स्यात् । अप्रतिसम्बद्धार्थमननुरूपसम्बद्वार्थवचनमर्थान्तरं नाम निग्रह स्थानमित्यर्थः । तच्च स्वपरोभयानुभयमतभेदेन चतुर्विधम् । स्वमतेन ता
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स्वाच तयोर्हत्वाभासनिरनुयोज्यानुयोगयोःविशेषणप्रक्षेपे ऽप्युग्नेयत्वेन पश्चात् सिद्धत्वादित्यर्थः । परिकरशुद्धिः इदं न हेतुज्ञानवतः पूर्वमुक्तस्यापरित्यागात त्यक्तस्य विशेषणाभावस्य पूर्वमनुक्तत्वादिदं तृतीयकक्ष्यातिपाति तदुतरकक्ष्योहाव्यमित्याह ।
प्रक्रान्तस्य आरब्धस्य अन्यदित्यध्याहारात् प्रस्तुतादादन्यदर्थेनाननुरूपसम्बन्ध वस्तु तस्य तस्य वचनमधान्तरमित्यर्थः । लक्ष्यपदस्येति । प्रक्रान्तादर्थान्तरं यत् तेनानुरूपसम्बन्धं तस्य वचनमर्थान्तरमिति वेत्यर्थः । प्रकृतमर्थमिति । प्रस्तुतमर्थ प्रकृत्य यदनभिमतसम्बन्ध | वस्तु तस्य वचनमान्तरमिति वेत्यर्थः । अत्र स्वपरशब्देन
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| বিছানালব্য। নূ লিঃ সুর ঐথিলালু ঘাম জাঃ স্লাহ্ম মুফ । নরঙিন ফ্লম নল দা থান কাল আাআনু ম আ লি: লক্ষ্ম জ্বাক্তি । অল ন নাঅক্ষত্র : স্বামী যান না নাম্বাৰাফিক্স শাকি।
শুনল না বলা জয় লিঅস্ত্র স্বাক্ষ্যালুগালফ ন মধুখ। নজ নমি অস্থি বাকি। অফাফনলছিনাল অজ্ঞ মঈমাস নুি নুনু ছিল নানামুখী মূল অলিকি দমিনি কাদমযী দালাখাল সুনজানি মালাকান্ধি ফলনি। এক্স - লাশি চবি নীহুদ্ধশ্বাস্য স্বাভালা
কিন্তু নান্না। স্ত্রী সাহানু হালা নল লিন্ন।অন। সুস্থ জ না জুলিনি য ফল ॥ ওঁ ৷
কামালীখী জ্বান্ধি।
স্মাণ যুাল কালি লিঙ্কা লাল লিস্ হাল খান। নাহ অলিলিয়াকানিআলিনি। অখালা জালিয়া ক্লাহ্মান্ত নিল নু নন অঙ্খলা স্বাভাস্কিখিনি আমু। वादिप्रतिवादिना नैयायिकमीमांसको गृहोते। तथैवोक्तस्य অলিঃ হ ঘূৰিান্বিন্যায় বিশ্ববাজালিলি অ ৷ ক ৷
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লীনাজ্জিলযান্য মল্লিক্ষ লক্ষ লিম্বাললি:। মান্ধ
যা লহ্মাৰঃ। জম্মবাষির্মাঞ্জাযা লিঅলালমাহি: আনিলামানবিঘা ক্ষুনসুজ্জ ফীলাম্বাঝলালসিল্কি ও লাল অস্ট্রিয়া অঙ্খা লিনুযিনি বন লীলাব্বালাজি মাজাগান্ধৰিায় হিন্দু । অ্যাঞ্জেলি নাথি লালম্বীন অনন্য। ঘা - লালমৰাজ্জি হুমকা জন্মনিলাল কান্ধিয়াই নুন্যান্য স্ব মুখায়াল মাদ্যিাল ধ্বনি যান জালাল। ল ল জালালাল যন্ত্রসম্মানিনি মা । অলন নাএলিজাব্বানিম্মমায়াজীহ্মা লিমিশাস্বাৰীলা দালালখলানলিয়াযথ মন্ন च समानसमयैरेव पदैर्व्यवहरेदित्युपदेशः ॥ | লিলি। নিশ্বনজিানা যাল ক্লিানীক্লা' জিনিষীগঃ নূ লিঙ্গনীষাৰি। নিন্দি विपर्यासः । कपिः कलं कूजन्ति पिकालं काममदहदित्याনি। অন্বিষীৰল সালামিরালিভক্তি মাঝখন। কালি গালাজলজ্যাত্মি খাজা। হলথ ক্লিান্বিঘাই থি! ল - मिति सम्बन्धः । दुजानं ज्ञातुमशक्यम् । समानसमयत्वं ৱিৰিীঅঙ্গু। অম্বল হস্ক খাইরুল আলী।
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निग्रहस्थाननिरूपणम् ।
त्रिभङ्ग्यन्तरमुक्ते ऽपि प्राश्निकैः प्रतिवा
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वाक्यमज्ञायमानार्थमविज्ञातार्थमुच्यते ।
वादिना त्रिभान्तराभिधाने ऽपि प्राश्निकैः प्रतिवादिना चाविज्ञायमानार्थमविज्ञातार्थं नाम निग्रहस्थानं भवति । तदुक्तम् । परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमपि अविज्ञातमविज्ञातार्थमिति । वादिना त्रिरभिहितमपि परिषत्प्रतिवादिभ्यामर्थवन्तयाऽविज्ञातमविज्ञातार्थमित्यर्थः । तञ्च त्रिविधम् । स्वतन्त्रमात्र प्रसिद्धम् रूढिमनपेक्ष्य योगापेक्षया प्रवृत्तम् निर्यायोपाय प्रकरणाद्यभावेन संशयाक्रान्तं चेति । तari रुपयकपालपुरोडाशदशापविश्रादिमीमांसकानां पञ्चस्कन्धद्वादशायतनच तुराचार्यस्येत्यादि बैौद्वानाम्।
त्रिभयन्तरमेकस्य वाक्यस्य त्रिप्रकारमेकार्थवाक्यत्रितयं वा । प्राश्निकैः सभ्यत्वेन वृत्तेः । प्रकरणाथभावेन प्रकरणैौचित्यादिप्रस्तावाभावेन । यज्ञपात्रवि - शेषाः स्फ्यकपालादयः । पुरोडाशं होमद्रव्यम् । दशापवित्र गृहसम्मार्जनं वस्त्रम् | आदिशब्देन चमस (?) उपलादि गृह्यते । पचस्कन्धेति । रूपवेदना विज्ञानसंज्ञानसंस्काराः प
स्कन्धाः । षडिन्द्रियाणि षडविषयाश्च द्वादशायतनानि । आचार्यस्य शुद्धोदनेः चत्वारि सत्वानि दुःख समवायनिरोधमार्गः श्रवणमनननिदिध्यासन तत्वज्ञानानि आ
३१०
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सटीकता किंकरतायाम्
द्वितीयं तु पयः पयोधिसंभूता कान्तपद वैशेषिकधर्मः पूवैकावधिपदार्थ पलक्षितवस्तुसत्तावान् नियतपूर्वकालवर्ति पदार्थसमवेतत्वात् पाकव्यापारनिष्पन्नसंयोगासमवायिकारणद्रव्यवदिति । तृतीयं तु श्वेता धावतीति तत्राक्षं परसिद्धान्तपरिज्ञान शैौण्डीर्याभिमानेनाभयानुमत्या कदाचिदुपादीयेतापि उत्तरं तु द्वयं सर्वथा अनुपादेयमेव । अन्यथा प्रतिवाद्यपि वैयात्यान्ताद्वशमुपाददानो न निगृह्येतेति कथाभासप्रबन्धः स्यात् । तर्हि किं त्रिरभिधानापेक्षया प्रथमत यवाविज्ञाते तथेोद्भाव्यतामिति चेत् न अनवधा
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दिक्षणसंवृत्त्यादिकं गृह्यते । द्वितीयं केवलयौगिकवचनं पयः पयेोधीति पयः पयोधिसम्भूता क्षीराब्धिजाता लक्ष्मीः तस्याः कान्तो विष्णुः तस्य पदं वियत् तस्य वैशेविकधर्मः शब्दः पूर्वेकावधिपदार्थः प्रध्वंसाभावः तदुपलक्षितवस्त्वनित्यं तत्सद्भावः अनित्यत्वं तद्वान अनित्यस्वधर्मयुक्तो भवितुमर्हतीत्यर्थः । नियतपूर्वकालवर्ती पदार्थ उपादानकारणं तत्र समवेतत्वात् कार्यत्वादित्यर्थः । पाकव्यापारेति उदाहरणार्थ कुलालादिव्यापारसंजातावयवसंयोगासमवायिकारणघटादिवदित्यर्थः । श्वेता धावतीत्यत्र संशयाक्रान्तत्वं धवलः कश्चिद्रवादि धावतीति श्वा इता देशान्तरं प्रति धावतीत्यनयोरर्थयोरन्यतर निर्णायकाभावाद् द्रष्टव्यम् । आयं स्वीयमतसिद्धार्थवचनम् । शैौण्डर्य कौशलम् । वैयात्यात् सामर्थ्यात् । परि
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নিয়ন্ত্রানালযাচ্ছি।
লাকিয়াজুলিয়ায় মালিকানা । নই সুনালনি লিঙ্কঃ । নন ক্ষণ লালানিন
শিলিমুল অাল দ্বা। ল ছি আমি লফা শাৰী খুলসিন ব্ৰাথন বনি খান। ল ৪ খিী প্রমিজানুযঃ স্বাক্ষৰি লয়ানি। লজ অনায়মান আলমনিষিদ্ধ বানি। নদিয়াহিনি লিল জাম্বিয়ায়। অমিলুনাথ স্কা মিলিলিনি সুহ্মাৰ। অনুমমি আল ১থি ল জান্নাম জান নালাৰ স্ব তামিমো: গিঞ্জি আল ও সুনীল মামনি আঁখি। = মলিলক্ষা মঙ্খলা লিনি। নমিল্লারা লিনলিনি। সুত্রা গিৰিলালাবান ঘষালালালালাবিলাসিস: সুম স্ব স্বাক্ষঃ মানিনা
স্থান। মশঃ অজাননি। নিক অগ্রাহাজ। অফিঙ্গা। ল দি ঘৰখনি। নছি স্বনীনি অঅকা। কাকাল। ল ঙ্গ মিলি। লা মাগি, আঃ হালিখন যুথিখালু ঘিনি নি আমি মুগ্ধ। মিহি হি sীল। থাকা नेति । परमहं करिष्यामीति भ्रान्त्या लोकरूढ लोकप्रसिও মিলাদু খাই'আলালিনস্বাদু।
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सटीकतार्किकरतायाम्
प्रकरणादिसध्रीचीनं निरस्तदोषमेव वाकां ब्रूयादिति
रहस्यम् ॥ १ ॥ ऽऽ ॥
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पदजातं वाक्यजातमनन्वितमपार्थकम् ॥
गुणप्रधानभावेनानन्वितार्थं पदजातं वाक्यजातं वापार्थकं नाम निग्रहस्थानमिति । तदुक्तम् पौर्वापर्यीयोगाद प्रति सम्बद्धार्थमपार्थकमिति । पैावीपर्य विशेषणविशेष्यभावः तस्यायोगा नैराकाङ्क्षयम् । तस्मादनन्वितार्थमपार्थकमित्यर्थः । न चेदं निरर्थकं वाचकत्वात् । न चार्थान्तरम् अन्वयाभावात् । सर्वथाप्यसम्भवदन्वयम् यथा कुण्डमजाजिनं फलं पिण्ड इति । दश दाडिमानि बडपूपा इति च । व्यवधानादनन्त्रयं यथा प्रोदनं सरसि भुक्त्वा ज्ञातो यातीति । प्रकरणादिसध्रीचीनम् अर्थनिर्णायकप्रकरणलिङ्गादिसहितम् ॥ ७ ॥ ऽऽ ॥
गुणप्रधानभावेन विशेषणविशेष्यभावेन । अनपेक्षणमनभिमतार्थत्वादिदं वाक्यं निरर्थकान्तर्भूतमित्याशयाह । न चेदमिति । प्रस्तुतानुपयुक्तवचनत्वादिदमप्यर्थान्तरान्तर्भूतमित्यन्नाह । न चार्थन्तरमिति । पललं मांसं पलालं वा । वाक्ययोरनन्वयमुदाहरति देश दाडिमानि षडधूपा इत्यादि । व्यवधानादनन्वयमाकाङ्क्षणीयस्य पदस्य दूरस्थत्वेन झटित्यस्पर्शान्ययम् । सरसि स्नात्वोदनं भुक्तवा यातीत्यन्वयः । विकल्पशेषादनन्वयं भवतीति सम्बन्धः ।
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জিয়স্থানান । | মির্জাল খালালাখালিৰৰ নমুন্তান। নানা ব্যাংক র নীল লিন্থঃ ও স্ত্রী মন্ত্রীঃ ঘষামুয়ালাঘালালাহু লজ্জলিখঃ - অন্য অক্ষরজায়ালীলামি ঃ সুক্ষ্ম লিলা লা সান্নিয়াস্ত্র লাঃ গাজ্ব স্ব ক্ষিয়ান অল্পশিক্ষয় অ ল লিনুলিনি। স্মালিন লঘিঃ ॥ মিলিখল মাৰাক্ৰাৰারি। বিল অনি নু মাসাকাবা! | প্লাকিয়া লাগায়া ময় জ্বাত্মক যন্ত্রখকুমানি। বিশ্ব মা গিলানিফ: ৫ জাসুজি ই
লষযয়ালসহ নহ্মলিয়ঞ্জাবি খ্যাতি শ্রাংকফ জামিক্সানিলিঃ আখীআঃ । নন: অদ্বিত্র মিজলি অা ই ক্ষান্য বিষআবহ আহ জলবিন লালাক্সিআলা জিঞ্জ হজ ফ্যান্য জ্বাঘিল স্বাক অন্যায় - আলাখ অশী। নজ লিম্বি ফল। সখী লাল সাত্মজ্জাহাজ অন্ধত্ব দুদু লিহা লক্সঘাথ অলিন্য। শুকাইঘালান বিফহাল অাঃ।
উম্মাহ্মত্যাকালি মাম্মিন্ধনঅম্বাডিয়ায় স্থান। অআলিহীহ্মালঃ ও আম্মা জ্বঙ্গ আস্বল জ্বলিনি লিলঃ জ্বল
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सटीकताकिकरक्षायाम धाय संक्षेपता विस्तरतावा हेत्वाभासा उद्धरणीयाः। प्रतिवादिनाप्यनुभाषणपुरःसरं वादिसाधनं दूषयित्वा
ব্দ হিন্দু নন মালার ঋন वितण्डायां तु दूधणमात्र एव पर्यवसातव्यमिति । तत्र
ত্ব হলখি অসুজ্জাম্বাকি লিলুনঃ कथारम्भविपर्यासः । आभासाद्धारानन्तरं साधनं प्रयुअानस्य वादाविपर्यासः । प्रतिवादी तु यदि स्वपक्षसाधनानन्तरं परपक्षमुपालभते तदा वादविपर्यासः । अवयवविपर्यासस्तु कृतकत्वाच्छब्दोऽनित्य इति । अनित्यः शब्द इत्यवयवांशविपर्यासः । एवं वादजल्पयाः पञ्चविधा विपर्यासः । इतरत्र चतुर्विधा
इत्यर्थः । सभ्योपक्षिप्ते स्वमेनं प्रत्यमुमर्थ साधयत्विति सभ्यरुपस्थापिते ऽर्थे न तु स्वाभिमत इत्यर्थः । प्रतिवादिना वा सभ्यैरुपस्थापिते ऽप्यस्मिन् साध्यो किं प्रमाणमिति प्रतिवादिनापि पृष्टे ऽर्थे । यहा वादकथायां त्वदीये साध्ये किं प्रमाणमिति प्रतिवादिनापि पृष्टे ऽर्थे । अनुभाघणपुरःसरं वाद्युक्तं सकलं स्वदूष्यमानं वानुभाष्येत्यर्थः । अभिधेयं वक्तव्यम् । दूषणमात्र एवेति । वितण्डायां प्रतिवादिनः स्वपक्षासद्भावे ऽपि तस्य साधनाभावाचादिसाधनदूषणमेव कर्तव्यमित्यर्थः । व्यवहारादिकमिति । व्यवहारोऽन्न संस्कृताद्यन्यतममेवावाभ्यां व्यवहर्तव्यमिति निश्चयः । आदिशब्देन सभ्यानुविधेयवरणादिक गृह्यते । अनित्यः शब्द इत्यवयवांशविपासः स च
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नियह स्थाननिरूपणम् ।
३४१ জুনি। ঘি অনিষান্মামিল মাদাম তনুৰী: साधनाभिधानानन्तरं स्वयमेवाभासाद्वारे सत्यनवस्थाप्रसङ्गात् । तथा च न वादाविपर्यास इत्याचজন। স্নাঙ্খী ত্রাঘালাথিয়াজলামিहारं पश्यन्तः प्राचीनमेव पक्षमुररीकुर्वन्ति । भूषणঅধ্যায় বিক্সিনীনিক্ষণ অনুল্লিकथायामेवैतन्निग्रहस्थानमिति मन्यतेस्म । तदयुक्तम्। লুদ্দিা লাল লিষ্মিকাণাৰামানুদ্ধি दृष्यमदूषयित्वा प्रतिवादिनापि स्वपक्षसाधनस्यानहत्वादवयवतदंशया क्रमावश्यम्भावस्य प्रथमाध्याये
धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्त इति न्यायात् सिद्धधर्मिणमुहिश्य तत्राप्रसिद्धसाध्यधर्मविधिरुचितः अत्र तथाकरणात् प्रतिज्ञांशविपर्यास इत्यर्थः । इतरत्रेति । वादविपर्यासाभावात् वितण्डायां चतुर्विधविपर्यास एवेत्यर्थः । अनवस्थाप्रसङ्गात् प्रतिवाद्यभिमतदृषणजातमाशय समाधानेन कथाप्रबन्धानुच्छेदप्रसङ्गादित्यर्थः । व्याघातावधिराशति । यावत् न स्ववचनव्याहतिप्रसक्तिस्तावदेवा. शङ्का प्रवर्तते तत आशज्ञानवस्थानं न प्रसज्यत इति पश्यन्त इत्यर्थः । विपर्ययेण कथारम्भविपर्यासादिकरणादिना । नियमकथायां विवक्षितक्रमेणैवावाभ्यां वक्तव्यमिति नियमपूर्विकायां कथायाम् । कथामात्रस्य क्रमापेक्षास्तीत्युपपादयति । अनुपक्षिप्त इति । प्रथमाध्याय इति । प्रमाणतद्विशेषतवयवादिलक्षणं प्रथमेध्याये क्रमेण
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কা। গ্রাঅঙ্গিক্সমীনিঃ সামিলালা সামাঞ্চিালঃ। মিথ্যা নয়য়াখালিনিন চমৃত্মকান্না :
অভীজা যাঃ স্নঙ্গ জান্ধাক্কা লা লুকিনি ত্বাহঃ ॥ ৷৷
থাস্থান ত্যাজ্জ্বল সঙ্কুল জুলছিল । ২০। . স্লাভিয়ালায় জ্বাৰম্বাৰন। নিল হলে বিজ্ঞানযালানঅল স্লিা আল জালজন্ধাৰখয়া ঐ হয় অত্যজিহ্বল ললল লিয়া গান। গ্রামলিঅলাজিকাললা স্বাস্থল হল জ্বাঞ্চল। জাল সন্ত জ্বালা ৰা নীল অা জালাল লিয়া আছিল। নিম্নলিখি আঘলান্স
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त्वाभिप्रायस्योन्नयने ऽपि तस्य जघन्यत्वेनास्यैव निनहहेतुत्वम् । अथवा यथावस्तु यथासिद्धान्तं व्यवहर्तव्यमिति नियमात् पूर्व न्यनस्यावतारः तदुत्तरं त्वपसिद्धान्तस्य न वावयवेयत्ताचिन्तायामन्तिरत्वमन्यतरासियदावने हेतोः सिद्धिव्युत्पादनवत् प्रकृतोपयोगात् । अत्र परिपूर्ण बयादिति संक्षेपः ॥ १० ॥
अन्वितस्योपयुक्तस्य पुनरुक्ततरस्य या। कृतकार्यकरस्याक्तिरधिकं तत् प्रचक्षते ॥ ११ ॥
अन्चितमुपयुक्तमपुनरुक्तं कृतकार्यकरमभिधी. यमानमधिकं नाम निग्रहस्थानम् । अन्चितत्वादिविशेषणैरपार्थकार्थान्तरघुनरूतानां व्यवच्छेदः । हेतू. दाहरणाधिकमधिकमितिसूत्रं दूषणानुवादाधिकयोरप्युपलक्षणम् । हेतूदाहरणग्रहणेनावयवान्तराधिक्यासम्भवं सूचयति। न हि प्रतिज्ञानिगमनयोरधिक सिद्धान्तसिद्धावयवन्यूनादिवचने । जघन्यत्वेन न्यूनप्रती. त्यनन्तरभावित्वेन । अन्यतरासिद्धीरिति । शब्दो नित्यः कृतकत्वादित्यत्र मीमांसकेनासिडो हेतुरित्युक्ते शब्दः कृतकोऽनभिव्यञ्जकप्रयत्नानन्तरभाविवादित्यर्थः॥ १०॥
अन्वितत्वादिविशेषणैरि ति।प्रकृतार्थासङ्गतवचनमपार्थक सङ्गता सत्यामपि प्रकृतानुपयोगिवचनमान्तरम् प्रकृतान्वये उपयोगे सत्येककार्यविषयं पुनर्वचनं पुनरुक्तम् उक्तरूपत्रयसद्भावे ऽपि सप्रयोजनत्वात् अनुवादो न निग्रहः तत एतैश्चतुर्भिविशेषणैः एतचतुश्यं व्यवच्छिन्नमि
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नियहस्या नरूपणम् । কামনি। যাহা সুলমিনা। সুখ সন্ধুনালনাঘালালা । সুবালয়ক্লা বাঘিন খিল্লি মিমিন। ঘন নিজমঃ লালা খালান স্পান্না। qালা দ্বিত্য অনন? অ খিলা অনন: সুলঅম্মান শ্রাবান্ধানিনি হুল মুললিল্লাকিন্তৰিয়াল আ লাল: আ স্নাবাজ (?) ছান।
শালাকিযিনি । শিলা ইনুলানি श्चेत्यादि । अनुवादाधिकं तु प्रकृतानुपयोगादर्थान्तर মানালি আঁখি। অবিবানিভিজিব্রা বালুখস্থ কাক্কন্ট্রলানি স্বলজ্বল মা নিমানবসদ্দিনলখি ক্লাগ্যান্থনিবনিম্ন নিনী হন ন্যর লিয়াল সুন্ধন। যৰিজ্জিাৰাত্মা অলিনি অস্ক। ল অ নথি কাললিলাম্বাসনকাল গাল অ্যাসি
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হৃঃ । অন্যথায় শিৱাখন মন্ত্রণাখ ছানি স্বাवत् । अपरथा अनुपयुक्तत्वे प्रकृतानन्वये च सतीत्यर्थः । তুন শিক্ষামূদ্বিানলু। অনালিत्यादिशब्देन असिद्धत्वादिदोषवान हेतुरित्यादिकं गृह्यते। वाग्मित्वातिशयज्ञापकस्याधिकस्य कथं निग्रहस्थानत्वमित्याशझ्याह । परिषत्प्रतिवाद्यविज्ञापितं न तत्रापि परिঅনুমালা অন্ধত্ব লাম্বনাননা
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ভৱীন্দনাজিৰায়স্থ। আল ন ন ব ন আৰিলিনাৰিনি। সুল স্বাক্ষুনলল অনিনি । ৭৭। মুন্নাভাবনা অামি নীল ক্ষীনলয় ।। সাজলন্মিলাসুল সুললিনি ভিলিঃ ॥ দুই ॥ | নীনা বাজললায়ৈ মুলমতি আল নিজ্বাল মুলকু ও বাজল গুলদা বলালুজা যা লিল অক্স। নক্সানালুদ্দষ্ট
জললিনলিনি ল জল স্নানঃ অনিবল্লবন্যালন নিবি সুলমল লুলালিনি সুমী অনুখাদ্ধাগন দু লু। নন সুল:
আললাহআনিলা। ৰ্জি সনীনিৰিক্ষী মনি। অধীনললিনিয়াল নিল ভিজিম। নিলাম্মকাক্ল দুলহানি নাঙ্খানি ঘিন নি। গিৰিখ বন। মুল দখল মুল
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तत्सर्वमहं वदामीति प्रतिज्ञातुमनीश्वरेण न शक्यमिঅথঃ ॥ ॥ | সলীমী ঘহিবা মালিবানি সম্মানল মাল। লক্ষ্ম দানঃ নাম্বল স্বত্ব ওলাথি জাল प्रतिपादनं पुनरुक्तमिति स्थितत्वाचेत्यर्थः। एवं वाक्ये ऽrদ্য লাল লকিনি দীক্ষ। ওনজন্ধিতী জুনাই। ওখাম্বলি। নিত্বা
দুলাল নাহিনি অন্ধ দান থাঃ
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निग्रहस्थाननिरूपणम् ।
३४७ रुक्तं चेति । तत्रादा यथा अनित्यः शब्दोऽनित्यः शब्द इति । द्वितीयं तु पर्यायेणाभिधानं यथा अनित्यः शब्दः विनाशी ध्वनिरिति । तृतीयं तु अग्निनाणेन युक्तः पर्वतः उष्णेनाग्निना युक्त हति च । एवं वाको ऽपि जीवन् देवदत्तो गृह नास्तीत्यु का बहिरस्तीत्यादि । तदेतत् सर्वमुक्तम् । शब्दार्थ वा पुनर्वचनं पुनसन्क्तमन्यत्रानुवादादिति नादापन्नस्य स्वशब्देन पुन
ললিন আ লিলক্ষ্মঘালয় ভুল লিয়াनं नान्यति विश्वरूपादयः । शब्दपुनरुक्तस्य भेदेन निदेशाऽप्यर्थभेदे ऽप्युक्तशब्दो न पुनर्वक्तव्य इति नियमकथायां शब्दमात्रपुनरुक्तिरपि निग्रहस्थानमिति सूचयितुमिति विश्वरूपजयन्ताविति ॥ १२ ॥ ज्ञातार्थं प्रानिकैवाक्यं त्रिरुक्तं नानुभाषते। योनुदाव्य स्वमज्ञानं तस्यैवाननुभाषणम् ॥ १३ ॥
प्राश्निकैीतार्थमितिवचनात् प्रतिवादिजानमविवक्षितमिति दर्शयति । त्रिरक्तमित्यच्चारणयोग्यतामात्रप्रदर्शनपरम् न न्यनाधिकसंख्याव्यवच्छेदपरमुक्तं वादिनेति शेषः । तदनुपादानं तु मन्दस्य पुनर्वचनमिति सूत्रकारस्य तात्पर्यमाह । शब्दपुनरुक्तस्येति ॥ १२॥
उच्चारणयोग्यतामात्रं समायामशक्तस्यासत्येवं दूषणादिव्यतिरिक्तत्वमात्रम् (?)। न न्यूनाधिकेति। प्रथमत एव परिषत्प्रतिपत्तिसिद्धरविज्ञातार्थवन त्रिरिति नियम इत्यर्थः । तदनुपादानं मूलपद्यकारेण वादिनेत्यनुक्तिः। अन्यथा १ -----Ne. 8, Vol. XXTV......August, 1902.
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सटीकतार्किकरक्षायाम कदाचित् परिषदाप्यनूदा दीयत इति सूचनार्थम् । अज्ञानानुदावनवदविच्छेदीपि कथायां विवक्षितः । अन्यथा विक्षेपस्यैवापातात् । तेनायमर्थः । वादिनातस्य प्राधिकैर्विज्ञातार्थस्य पुनर्वादिना परिषदा वाলুম নাহিয়াঅন্যান্নালালাবিনা স্বथामप्यविच्छिन्दता यदप्रत्युच्चारणं तदननुभाष লাল লিঙ্গ শ্রাললিনি। ল অাহ্মান্নালানাযাহसारः ज्ञातार्थस्य स्फरदुत्तरस्यापि समाक्षोभेण वाकण्ठत्वेन वाप्यननुभाषणोपपत्तेः। तयास्तदानीमनिश्चयादननुभाषणस्य च योग्यानुपलब्ध स्यैव निर्णीतत्वात् । अन्न च नःपर्युदासवृत्तित्वाभ्युपगमान्तदित्यादिसर्वनावानुवादा दूष्यैकदेशानुवादा यथानुवादः केवलदूपाकिः स्तम्भनं चेति पञ्चाप्यननुभाषणत्वेन सङ्गह्मान्ते । सर्वं चैतन्निग्रहस्थानमेव तूष्णीम्भावे दूषणाश्रयापादानस्थाङ्गत्वाप्रतिपत्तेः दूषणमात्रवचने निराशकथाविच्छेदे सति । तेन एवं यद्यस्यावयवार्थनिर्णयेन । कयामप्यविच्छिन्दता यत्किचित्रचनेन कथाभासप्रबन्ध कुर्वता प्रतिवादिनेति शेषः। वाकण्ठत्वेन सदपातिना यथा यथा व्यवहारवैधुर्येण (.) । तयास्तदानीमिति । अज्ञानाधिकारात् केवलं तूष्णीभावाभावाचाज्ञानाप्रतिभयोरननुभाषणसमये निर्णयाभावादित्यर्थः । योग्यानुपलब्धस्य श्रोतुं योग्यस्थानुभाषणस्याश्रुतत्वेन सिद्धस्य । पर्यंदासत्तित्वं अनुभाषणव्यतिरिक्तवाचकत्वम् । दूषणाश्रयोपा
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निग्रहस्थाननिरूपणम् ।
२४
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অনুযানুগন্ধনাঅনাথালা খালুট च दूषणोपादानाद्विप्रतिपत्तेः । एकदेशानुवादे च নয়া যুদ্ধার্থী নু অত্যাকুন্সিনাল। ল
লিন্ত গুহা হইন্ধিলাখালক্ষান্ধিনেল আলগ্নিীঘিনালানিশানা হত্যা । - লাঙ্গালুৰা সি ক্স কূন স্কুল ব্যালানকন্যা কম্মি হাসানুল যাইतया दृष्यविशेषनिश्चयः । असिद्धत्वादिना सर्वस्यापि दृष्यत्वात् । योग्यमेवायं ब्रवीतीत्यनिश्चयाच्च । দুলাগলঝালুকাযীয ল ন ম আমি
दानस्य वादिवाक्ये दृष्यमात्रानुवादस्य । असाधनोपादानार्थ दृष्यप्रतिक्षेपासमर्थदूषणापादानरूपविप्रतिपत्तरित्यर्थः । व्यधिकरणत्वेन वादिसाधनदूषणबुड्या तयतिरिक्तमनूद्य दूषणवचनादित्यर्थः । तथेत्यविशिप्रतिपत्तिमुपपादयति । गुणत्वेनेति । गुणत्वे सत्यैन्द्रियकत्वादियुक्तयेत्यर्थः । सन्देहानतिक्रमेण प्रकृतेषु मध्ये अस्यायं दोषो। नान्यस्येति निर्णायकाभावेन । न च दूषणस्वरूपति । विप्रतिपन्नमुपलब्धिमत्कारणमित्यन्त्रविप्रतिपचस्यानेकत्वे ऽपि यथा साध्यविशेषोपादानेन तद्विशेषसिद्धिरेवं दूषणस्वरूपविशेषसामाद् दृष्यविशेषसिद्धिरिति न वाच्यं दृषणस्य साध्यवदन्यताश्रयावृत्तित्वाभावादित्यर्थः । योग्यमेवेति । दृषणयोग्यं प्रत्ययं प्रतिवादी दूषणं ब्रते नान्यं प्रतीति वादिना निश्चयाभावाच न विशेषनिश्चय' इति
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सटीकतार्किकरक्षायाम अनुपयुक्ताभिधाननार्थान्तरत्वप्रसङ्गात् । प्राढिप्रकटनाय सर्वानुभाषणनियमे तदकरणमेव निग्रहहेतुर्भवति । न च तेनैव वादिवाक्येनानुभाषणीयमिति नियमः । वाक्यान्तरेणानुभाषणे ऽपि तत्प्रयोजनसिद्धेः तत्प्रसिद्धपदैरेवानुवादनानुभाषणमित्यननुभाषणाभासं दर्शयदिराचार्यैरव वादिप्रसिद्धपदैरप्यनुমাক্কীনা মিলান অৰিা ৰিभिहितस्याप्रत्युच्चारणमननुभाषणमिति सूत्रं सुगममेवेति ॥ १३ ॥ ज्ञाते ऽपि वादिवाक्याथै प्रानिस्तत्र चेत् परः। स्वाज्ञानमुद्भावयति तदाज्ञानेन निग्रहः ॥१४॥
वादिना त्रिरक्त प्राधिकैातार्थ सत्यपि वादिवाको प्रतिवादी स्वाज्ञानमाविष्करोति न जायते मयति तदा तस्याज्ञानं नाम निग्रहस्थानं भवति । अन्नानानाविष्करणे त्वननुभाषणमेव निश्चितत्वादुडाव्यम् । अजातं चाजानमिति सूत्र चकारः परिषद्विज्ञानं वादित्रिरभिधानं च समुच्चिनोति। अविज्ञातं वादिवाक्यं येन तस्याज्ञानमिति । अथवा भावे तोत्पत्तिरङ्गीकार्या यस्य वादिवाक्याथै अचानं तस्याज्ञानमित्यर्थः ॥ १४ ॥ पूर्वेण सम्बन्धः । तत्प्रसिद्ध पदैः वादिवाक्यव्यतिरिक्तपदैः।अननुभाषणाभासं निरनुयोज्यानुयोगविशेषम्॥१३॥
वादिवाक्यमर्थप्रतिपत्तये विशेषः । भावे तात्पत्तिविशेष्यवाचकस्य शब्दस्य विशेषण धर्मपरत्वम् ॥ १४ ॥
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वाद्युक्तस्यानूदितस्य प्रतिवादी यदोत्तरम् । प्रतिपत्तुं न शक्नोति तदास्याप्रतिभा भवेत् ॥१५॥
वादिनाक्तस्य स्वेन चानुभाषितस्य वाक्यार्थस्य प्रतिषेधरूपमुत्तरं यदा प्रतिवादी न प्रतिपत्तमीष्टे तदा तस्याप्रतिभा नाम निग्रहस्थानं भवति । तूष्णीम्भाववदोजवातावतरणश्लोकादिपाठकेशादिविरचनगगनसूचनभूतलविलेखनादि यत् किञ्चित् क्रियान्तरकरणे ऽपि निगृहात एव न त्वपस्मारभूतावेशादिनिলিপ্ত নাথৰূমালুম্বন্ধান। অথহ্মাৰাত্ম श्लोकादिपाठे अर्थान्तरापार्थकादिप्रसङ्गात् तूष्णीम्भावमेवाप्रतिभानिग्रहहेतुमाहुः। असत्साधने पर्यनुयोज्योपेक्षणसहचारिणी । इतरेत्रेयमसडीणा न चावश्योदाव्या उत्थितस्वेदादिना सुव्यङ्यत्वात् । कथावसाने तिरोधानायोगाच उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभेति सूत्रमुक्तार्थमेवेति ॥ १५॥
गगनसूचकं गगनगतकाण्यादिविशेषप्रदर्शनम् । निगृह्यत एव । अप्रतिभयेति शेषः। श्लोकपाठ इति । पठितस्य इलाकादेः प्रकृतार्थान्वये सत्यनुपयुक्तत्वेनार्थान्तरत्वमनन्वये ऽपार्थकत्वं कस्यचिदर्थस्य वाचकत्वे निरर्थकत्वमित्यादिप्रसङ्गादित्यर्थः । असत्साधन इति । असङ्कीर्णा न निनहान्तरसहिता । उत्थितपराजयप्रकाशकविषादगर्वस्मितस्वेदादीत्यादिशब्देन देहकम्पगद्गदत्वादिकं गृह्यते ॥१५॥
(१) भवेदप्रतिमा तदा-पा. A पुः ।
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सटीकतार्किकरक्षायाम् कथामभ्युपगम्यैव तद्विच्छेदाय कस्यचित् । व्याजस्य वचने प्राहुर्विक्षेपं निग्रहग्रहम् ॥ १६ ॥
कथामुपक्रम्य परिषदि श्रोतुमेकतानमनसि प्रतियोगिनि च दत्तावधान सम्प्रति मे महत्प्रयोजनमस्ति श्वः परश्वी वा कथयिष्यामीति कस्यचिद्वाजस्य वचने विक्षेपलक्षणं निग्रहस्थानमाहराचा_ः । अप्रনিমাম আলালিহিমাগান্তি কাজ কইন্নান্দিদল্লীবন ও স্ব স্ব নাখশানানুগান্ধাरणात्यावश्यकमनुष्यधर्मा व्याजा भवन्ति सर्वप्राणिधर्मत्वात् कथाविच्छेदाहेतुत्वाच्च । उपक्रमादारभ्य হৃথা অক্ষ বা স্বামঃ অাল্লাল অনন্ লা জুাউলামা । হ্মজ্বামিदाहेतुत्वात् कार्यव्यासङ्गात् कथाविच्छेदो विक्षेप इति सूत्रं सुगममेव ॥ १६ ॥ अनिष्टभ्रमतान्येषामिष्टमापादयेद्यादि । मतानुजेति तस्य स्यानिग्रहस्थानमुटम् ॥ १७ ॥
निग्रहग्रहमपजयाख्यमपि वाच्यम् ।
कथामुपक्रम्य अन्येन वादं कर्तुं सभामध्यमारुह्य । मूत्रोचारणादीत्यादिशब्देन विवेकास्फुरणजकासष्ठीव-- नादिकं गृह्यते । इयं वादिप्रतिवादिनोई योरपि सम्भवतीत्याह । उपक्रमादारभ्येति ॥ १६ ॥
(१) विक्षेपं नाम निग्रहम-पा. B पुः ।
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निग्रह स्थाननिरूपणम् । स्वसिद्धान्ते परेणापादितं दोषमनुद्धत्य परस्यानिष्टबुझा इष्टप्रसञ्जनं मतानुशेत्यर्थः । तथा च सूत्रम् । स्वपक्षदाषाभ्युपगमात् परपक्षदोष प्रसङ्गो मतानुज्ञेति । यथा केनचिदात्मनश्चोरत्वमभ्युपगम्य पुरुषत्वाचोरस्त्वमसीत्युक्त तत एव हेतास्त्वमपि चार इति प्रसञ्जनम् । न ह्यनेनात्मनश्चरित्वं परिहतम् । न हो. कमिन्धानमग्निसम्बद्धं दग्धमित्यन्यन्न दाते । न चायं प्रसङ्गः इष्टापादनत्वात् । तथा अनित्यः शब्दः कायत्वादियुक्त तत एव हेतार्यटोऽप्यनित्यः स्यादित्यादीन्यप्युदाहरणानि । अनानिष्टमेव परस्य अयादिति रहस्यम् । भूषणकारः पुनरेवं व्याख्यातवान् । यस्तु स्वपक्षे दोषमनुद्धत्य केवलं परपक्षे दोषं प्रसञ्जयति स तु परापादितदोषाभ्युपगमात् परमनुजानातीति मतानुज्ञया निगृहात इति । अत्र स्वदोषपरिहाररणव परस्य दोषं प्रसज्जयेदिति सझेप इति ॥ १७ ॥ । अनि प्रतिवादिनाभिमतं स्वपक्षे परोक्तदोषमनु
द्धृत्येति शेषः । अनेन त्वमपि चार इति वचनेन न हि दृष्यत इति सम्बन्धः । न चायं प्रसङ्गः त्वमपि चार इति वचनं प्रस्तुतानुमानस्यानिप्रसङ्गाख्यप्रतिकूलतको न भवतीति परस्य स्वचारत्वस्येकृत्वादित्यर्थः । आदिशब्दादीश्वरो न कर्ताआत्मत्वाजीववदित्युक्त तहि तत एव जीवो. प्यसर्वज्ञः स्यात् । क्षित्यादिकं नेश्वरकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवदित्युक्त तर्हि तत एव घटः सावयवी स्यादित्यादिकं
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अवश्योद्भाव्यमापनकालं निग्रहमागतम् । अनुद्भावयतः पर्यनुयोज्योपेक्षणं भवेत् ॥ १८ ॥
पर्यनुयोज्योपेक्षणव्यतिरिक्त निग्रहस्थान प्राप्ता तदनुदावनमेव निग्रहहेतुः । न स्वापेक्षणानुदावनमपि । तथा सति द्वयोरपि वादिनानिग्रहानन्त्यप्रसজানু অস্বাভালসান্যাল্প লাফালালালী तथानेकदोषसन्निपाते यदेकोदावनेनेतरोपेक्षणं तदप्यनुद्राव्य मेव । अन्यथाधिकरवप्रसङ्गात् । तेनोक्तमवश्योद्धाव्यमिति पुरःस्फूर्तिकानधिकृतहावितानां झटिति संवरणेन तिरोहितावसराणां च उत्तरकाले
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गृह्यते । एवं व्याख्यातवान् सूत्रमेवं व्याकृतवान् ॥ १७॥ _ तथा सतीति । पर्यनुयोज्योपेक्षणानुद्भावनस्यापि पर्थनुयोज्योपेक्षणत्वेन प्रथमस्खलनप्रवृत्तयोवादिप्रतिवादिनोस्त पनिग्रहपरम्परा प्रसङ्गादित्यर्थः । प्रयोजनाभावाचेति। दुकृत्वेन पर्यनुयोज्यमात्रमुपेक्षितवानिति हितदुद्भावनं तदा स्वदेोषस्यापि कीर्तनादुभयोनिगृहीतत्वेन जयपराजयनिरूपणप्रयोजनासिद्धश्च । उपेक्षणस्योद्भाव्यत्वमेव न स्वतस्तदुद्भावनं निग्रहकारणमित्यर्थः (?)। अन्यथेति । दोषान्तराणामप्युद्भावने अनियमकथायां दृषणाधिकत्वप्रसङ्गादित्यर्थः । प्रयोजनाभावात् अन्योद्भावितोद्भावने स्वस्य जयपराजयाभावात् । झटिति परिहतानामुद्भावने परस्परं पराजयाभावाचेत्यर्थः । उक्तार्थे निग्रहस्थान
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দ্বানু। ল হা মনিসাবহ: মনিয়াদাকিন্তু হলি নাইলুইরাল ফ্যালাঙ্গানাঅা স্মষা কক্ষ ড্র হজ্বব্যা! ল ল নাকি মানিনান্না চালু হয় ক্লা দ্বিানালীনি জাল দূর জালাল আলু লাথি নিকিলা স্ত্রাক্ষালমাললি যাই আলাজান্নান স্বাৰাক্স। না যায় নি সানিলিঃ। খানিলা লাকিত্বেনিম্বায়িত্ব গন্ধ প্রযুন্যা বহিৰা নৱজালালীকালিনি । জিকা লা: সুলঃ সুন্দর সুন্দর জিন্না-- লালল আ ত্মাণ শ্রঃ পূনঃ ইসালে ফা
বিষাক্কাল বালুখার্যাবশ্বঙ্গি নৰাবৃথক অনি। সাধলুখালি। কানসাধনালাম। স্থানান্যতম জ্বালাভলাইলাহান্নাव्येतरव्यवच्छेदस्य प्रसिद्धत्वादित्यर्थः(?) । पर्यनुयोज्योपे
লাল স দাবি লজ্জিলি লহ্ম ফাসানিলিत्याशङ्याह । न चास्येति । क्षुद्रस्खलनेन तदनवधार्यमिति ৪~~-No. 10, Vol. XXI, October, 190a.
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सटीकतार्किकरक्षायाम मतिना नादावित इति वदता वादिनादावनीयमिति निश्चयः । वादे दयारपि निग्रहात् परिषद एव विजयः। जल्पवितण्डयास्तु साधनामासेनापि प्रतिवादिनाहकारखण्डनाद्वादी विजयत एव । अत्र त्रिलोचनवाचस्पतिप्रभूतीनां न काचिद्विप्रतिपत्तिरिति ॥ १८ ॥
अतन्निग्रहसमाप्तं तन्निग्रहनिमित्ततः। निगृह्णता निग्रहः स्यादवोद्यस्यानुयोग
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सर्वथा निग्रहस्थानमप्राप्नो निग्रहस्थानान्तरগ্রাহ্মqালালালি হালানল্লিকাप्राप्तमित्युच्यते। तमपि तेनैव निग्रहस्थानेन निगृहतो निरनुयोज्यानुयोगा नाम निग्रहस्थानं भवति ॥१६॥
तस्यावान्तरभेदमाह। अप्राप्तकाले ग्रहणं हान्याद्याभास एव च। छलानि जातय इति चतनोऽस्य विधा मताः ॥२०॥
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शेषः । तस्मिन् विश्वरूपजयन्तयामते कथाभेदाद्विशेषमाह । वादे योरिति । योरपि निग्रहात् । अत्र प्रस्तुतविश्वरूपजयन्तावेव ॥ २८ ॥
तेनैवाप्राप्तेन निग्रहस्थानेनैव ॥ १६ ॥
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निग्रहस्थाननिरूपणम् ।
३५७ ন জুভানী সুরিন। নাদালमामासाः बासिद्धी प्रपञ्चिताः । यथा अनेकवि
খাল মিলি আৰীল মনিचाहानिः । प्रकरणाझापनविशेषाविष्करणेन प्रतिমান।” লঙ্গমর্যাদা শিখা: । স্রাবাবিনালঞ্চ কল দল । অখণদ্বীন স্বিাস্থ্য হয় লক্ষ্মীননল বন। মন্ত্রনঃ সুনালুয়াখ্যাহাত্মাননমঙ্কাল ভালাজ্বালন। স্নাল
अनिश्कल्पत्यागेनेति । शब्दो नित्यः कृतकत्वादित्युक्त शब्दस्य नित्यत्वमनित्यत्वं वा त्वया साध्यते । श्राचे विरुद्धहेतुः द्वितीये त्वसिद्ध इति प्रत्युक्त वादिना न भया नित्यत्वपक्षोऽङ्गीकृत इत्युक्त तहि प्रतिज्ञाहान्या निगृहीतोऽसीत्यर्थः । प्रकरणाद्यापन्नेति । विप्रतिपन्नशब्दो नित्य इत्युक्तर्विप्रतिपन्नविशेषणेन नित्यत्वेन सम्प्रतिपन्नं ध्वनिमयोप्यवर्णात्मक शब्दो नित्य इति हि साध्यते तदा प्रतिज्ञान्तरेण निगृहीतोऽसीति । नञ्प्रयागेति । शब्दो नित्यः कृतकत्वादित्युक्त प्रतिज्ञायां तस्मिन् हेता नास्ति अतः प्रतिज्ञाहेत्वाविरोधात् प्रतिज्ञाविरोधेन निगृहीत इति । स्वारोपितेति । शब्दो नित्यः कृतकत्वादित्युक्ते विरुद्धः कृतकत्वहेतुः कथं शब्दनित्यत्वं साधयेदित्यनुयुक्तेन वादिना न नित्यत्वममत्साध्यं किं त्वनित्यत्वमित्युक्त ताई प्रतिज्ञासन्न्यासेन निगृहीत इति । स्वयमगृहीतस्येति । शब्दो नित्यः सामान्यवन्त्वे सत्यस्मदादिबाहोन्द्रियग्राह्यत्यादित्युक्त सामान्यवत्वे सतीति विशेषणम् अस्ति |सामान्ये व्यभिचार इति दूषितेन वादिना सामान्य
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লহাজ। স্ললঘালালিয়া সাক্ষা ও ভঙ্গ গ্রাজানীল নযুল । ফাস্ময় জ্বাল দ্বাকিলাম্বিন্ধু । গুমুনিলাল সুয়ে সুদুল হক। নমিক্কোলুগল কথা । লাথিহালজি একি জাল মুফ সুল। জল । তা নাজি হালি কিন্তু স্বাম: । স্নাতুল্লাযি য়িঊত্বঃ ৪ মন্ত্রী নয়। স্বলল - ত্রিয়া জানি লিয় মঞ্জস্থলাকা: মাহাতৰি | মনি জন্য স্থান নিৰালজি জি জানি: মা সুলাল্লাজি লজ্বিালাক্সিনা আনিলে মেঘৰ"হ্য
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ৰক্ষা স্রানিজল না লিত্মত্ত লাল ফাল ফিল নি। হ্মম্মমুস্নালাল লিখন: ল ললুলজল লি : বানু। यत्वे सतीति विशेषितस्य कथं व्यभिचार इत्युक्त तर्हि
লন' নিঃস্থান নি। অনুশঃ সন্তনা লিঃ দু। লিকা স্কুলক্ষ লক্ষ লু ওলাশিমল্লালহালুডি লা হিংস্থা ঃ মারিতাহল চালিত্মাঘিমুন্সিলপ্রার্থিী নাহি লক্ষানি লিল মূল । ২০।
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| লক্ষণা লাঅন কম লাল। নন্দিল যায় িজানাল গ্লা হুয়া। জানালাঘা আত্বসুজানা। ননিনালীহ্মাৰখ্যাখামানি। ভাবলালম্বি নিঃ। নলাফালালাবাজিঅনুষ্পমালাষনা লিল সমান। লনসূত্মবি নিন্মলিনি। নননন্দর্শিানু লিগ্রস্থল লিয়ালাকিত্মাৰা লিলুযাওয়াযা দুনি। ২৭ सिद्धान्तमेकमालम्व्य तद्विरुद्धपरिग्रहे ।
ঘৰিলে।লনঃ বিঃ লিভালায় | । ২২ ।
অন্য অ্যাল্বাম লিকুলাঙ্গাল - জ্যাত্মা লাম্বা স্ত্রী নলিনমিল্লালনৰিস্থত বায়ালশ। লা লিয়াল ফালান। এ
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নাগ্নি মন্দিঃ সুমনি। স্মঘা জাযাফজাল শালী মন্ত্রী না নাজিল রিক্সালমাল্লা লিগনান। ফল অত্র বিআলাল: আলীঃ নীহ্মাত্মা লাঘনাহ্মলো। স্ত্রর স্ব স্কাইলা
- লালু। ল স্বাঅাত্মাৰাথ তালিকাঅন্ধাক্ষালমৰ
ৰিাম্বানু ন। আত্মা দুস্কালীমি লক্ষ জ্ঞানাক্ষিনি জুনি না লীলা স্কুল্লিক্সানাক্ষী স্নিগ্ধাৰিীঃ। স্যামুমানমালাযঞ্জনীয়াৰিআন্ধাঅলআমিনুল জ্বানি শিল্পী: সুজুষিই তান্ত্রিানালখিল
অলিনি ক্লানিনা। মালালা গ্রাহ্যাহ্মীনি মী।ভীষাকষ্মিান নাৰিনি আশ্বামিল। সুম্ম ন লিকুলাঙ্গালিলা জ্বাসজালিন নি। । ইন্দ্রাণাঃ লালা ল বই কাজিল। নালি বৰ ৰা লিঙ্গত্যাবলিলাঃ ॥ ॥
| দু ই মাকান্দাবাঃ মিঃ এজায় বন্যায় লাজনা: ন ১জি নন বলোনা
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না কি বৃথালল। কম সংস্থা জাই কুমন্ত্রী মুত্বি লাজ়ীবাঁকা হয়ঞ্জামান। অল্প অনিষ্ফলনা সুখি অট্ট হামলা: আইয। স্ব তদন। য ফুসন্ধাৰৰ জন্তু तेषां प्रपञ्चितत्वादिति ॥ २३ ॥ | হন ছাত্মা দ্বন্যায়ালা: রূৰ ভরি লিত্মহননা অঙ্গাঅন্ধ মীমািিখনাৰীজৰিনাৰাৰবি সম্বলিন মুয়াল্লালী। হা অর্থাভাঙ্গা । শুন্নামিনা ঐবি এম মলিন। মাথি - এজঅনানুলা নামলা জমিतण्योरित्याह॥ | ন শামিল লাম্মাস্থ লিগ্রাঃ।
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ফার্ম আলালীলা। মিথাসনিকাল স্থলবদ্যালু। স্বাগুলাৰ ফালালুয়া আই লাম্বন্ধ,
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सम्भवत उद्धावनीयानाह ॥ न्यूनाधिकापसिद्धान्तविरोधाननुभाषणम् । पुनरुक्तं विपर्यास वादेषूदाव्यासप्तकम् ॥ २८ ॥
न्यूनत्वादिदोषदूषितस्य साधनस्य तत्त्वावसा. यहेतुत्वाभावात् न्यूनत्वादिकमुद्भाव्यं तत्समाधानेन कथा प्रवर्तनीया। न त्वेते कथाविच्छेदहेतवा भवन्तीति ॥ २ ॥
लाभासा हिकार तथा निरनुयोज्यानुयोग इति च निग्रहस्थानद्वयं सम्भवादुद्भावनीयं कथाविच्छेदकं चेत्याह ॥ লাৰ স্বাৱাল অানা ছি ক্ষান্দু। तथा निरनुयोज्यानामनुयोग इतिद्वयम् ॥२६॥ इति वरदराजकता तार्किकरक्षा समाप्ता ॥
हेत्वाभासेन साध्यस्यासिद्धेस्तत्परित्यागेन सम्यग्धेतूपादानावश्यम्भावात् सर्वोपक्रान्ता कथा विच्छिदात एव । निरनुयोज्यानुयोगश्च तत्त्वानজ্যাখাল জুম্মাননল আঘালালहेतुर्भवति । केचित्तु वादसूत्रे सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्न इति च विशेषणापादानादपसिद्धान्तः स्वसिद्धान्तसिद्धावयवपरिमाण न्यूनतामधिकतां च कथाমিলিলিলিম্বে জন নি ॥ ২২।
(१) पुनक्ति --पा• B पु. । -~-No. 11, Vol. XXIV. November, 1902.............
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