Book Title: Patanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयानन्दसूरिभ्यो नमः । न्यायाचार्य श्रीयशोविजयोपाध्यायकृत व्याख्योपेत पातञ्जत योगदर्शन तथा हारिभद्री योगविंशिका। (हिन्दी सार सहित) सम्पादकप्रज्ञाचक्षु विद्वद्वर्य श्रीमान् सुखलालजी ! प्रकाशक--- श्री आत्मानन्द जैन पुस्तकप्रचारक मंडल, रोशनमुहल्ला-आग्रा । प्रति ५०० । वीरस्त् २४४८ ज न पर १॥) क्रिमसवत् १९४८ इन्चीसन् १९२२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KEEeeeeeeeeEGEGORIES मुद्रक -- शा. गुलाबचंद लल्लुभाई. आनंद प्रिन्टीग प्रेस भावनगर. GOODUDGES EssassanasalsasGa RECOACRACTDATDASTICIPASPATIATRames प्रकाशक -- 0 मंत्री लाला डालचन्दजीजौहरी. श्री आत्मानन्द जै० पु० प्र० मंडल, रोशन मुहल्ला, आग्रा. maaamsooasasmaaxis Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECEMBeGenerencreasammercoreovemraococoti समर्पण। Rabrdpaachananepcovemb c GADGospotospravaDEOSDEODAGDISPGOTOSonODUDIOGRAMMADARASTRUser श्रीमान् प्रवर्तक कान्तिविजयजी ! आपके प्रति मेरी अनन्य साधारण पूज्य बुद्धि है, इसका कारण न तो स्वार्थ ही है और न अंधश्रद्धा, आपके विद्यानुराग, शास्त्रप्रेम और निरवद्य साधुभावसे मैं आकर्षित हुअा हूं-इसीसे यह पुस्तक आप के करकमलोंमें सादर समर्पित करता हूं. . आपका सेवक, सुखलाल. hche auravasavatareprenyasdbabyasrescoverCGVAD जजजजजजजजज Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय. विषयानुक्रमणिका परिचय प्रस्तावना ... विषयानुक्रमणिका. :: योगदर्शन. योगशब्दका अर्थ दर्शनशब्दका अर्थ... .... २ ४ योग आविष्कारका श्रेय ४ आर्य संस्कृतिकी जड मार्थिक योग योगकी ढो धाराये.... योग और उसके सा और आर्य जातिका लक्षण १० ज्ञान और योगका संब न्ध तथा योगका दरजा ११ व्यावहारिक और पार • पृष्ठ. हित्य के विकासकादि ग्दर्शन योगशास्त्र १ १ • विषय महर्षि पतञ्जलीकी - ष्टिविशालता ... आचार्य हरिभद्रकी यो गमार्गमें नवीन दिशा. १९ ६६ .. योगविंशिका सटीक योगवृत्तिका सार योगविशिकाका सार योगसूत्रवृत्ति तथा योगविंशिकावृत्तिमे प्रमाणरूपसे आये हुए अवतरणोका वर्णक्रमानुसारी परिशिष्ट पृष्ठ. उपसंहार . पातञ्जलयोगदर्शन वृत्तिसह १ ५६ ९१ ११४ .... ४६ .. १४ = १३ नं० १ १४ | योगसृत्रवृत्ति और योगविंशिकाटीका में आये हुए अवतरणों का कर्ता और ग्रन्थके नाम निर्देशसं १५ ३८ | बन्धी परिशिष्ट न०२. १४१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय. पाठकों के समक्ष प्रस्तुत पुस्तक उपस्थित करते हुए इसका संक्षेप परिचय कराना जरूरी है। शुरूमें प्रस्तावना रूपसे योगदर्शन पर एक विस्तृत निबन्ध दे दिया गया है जिसमें योग तथा योग-सम्बन्धी साहित्य आदिसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेक बातों पर सप्रमाण विचार किया गया है । तत्पश्चात् इस पुस्तकर्मे मुख्यतया योगसूत्रवृत्ति और सटीक योगविशिका इन दो ग्रन्थोंका संग्रह है, तथा साथमें उनका हिंदी सार भी दिया हुआ है । अतएव उक्त दोनों ग्रन्थोंका, उनके कर्ता आदिका तथा हिंदी सारका कुछ परिचय कराना आवश्यक है. जिससे वाचकोंको यह मालुम हो जाय कि ये ग्रन्थ कितने महत्त्वपूर्ण हैं. और इनके कर्ताका स्थान कितना उच्च है । साथ ही यह भी विदित हो जाय कि मूल ग्रन्थोंके साथ उनका हिंदी सार देने से हमारा क्या अभिप्राय है । आशा है इस परिचयको ध्यानपूर्वक पढनेसं वाचकोंकी रुचि उक्त दो ग्रन्थोंकी ओर विशेष रूपसे उत्तेजित होगी. ग्रन्थकर्ताओंके प्रति बहुमान पैदा होगा । और हिंदी सार देख कर उससे मूल ग्रन्थके भावको समझ लेनेकी उचित आकांक्षा पैदा होगी । C (१) योगसूत्रवृत्ति - यह वृत्ति योगसूत्रोंकी एक छोटी सो टिप्पणिरूप व्याख्या है। योगसूत्रों में सांगोपांग योगप्रक्रिया है, जो सांख्य-सिद्धान्त के आधार पर लीखी गई है। उन सूत्रोंके ऊपर सबसे प्राचीन और सबसे अधिक महत्वकी टीका महर्षि व्यासका भाष्य है । यह प्रसन्न गंभीर और विस्तृत भाष्य सांख्य सिद्धान्त के अनुसार ही रचा गया है, पर वृत्ति जैन प्रक्रिया के अनुसार रची गई है। अतएव जिस जिस Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयमें सांख्य और जैन शास्त्रका मत-भेद है तथा जिस जिस विषयमें मतभेद न होकर सिर्फ वर्णन-पन्हति या सांकेतिक शब्द मात्रका भेद है उस उस विषयके वर्णनवाले सूत्रोंके ऊपर ही वृत्तिकारने वृत्ति लीखी है, और उसमें भाष्यकारके द्वारा निकाले गये सूत्रगत आशयके ऊपर जैन प्रक्रियाके अनुसार या तो आक्षेप किया है या उस आशयके साथ जैन मन्तव्यका मिलान किया है। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिए कि यह वृत्ति योगदर्शन तथा जैन दर्शन सम्बन्धी सिद्धान्तोंके विरोध और मिलानका एक छोटा सा प्रदर्शन है । यही कारण है कि प्रस्तुत वृत्ति सब योगसूत्रोंके ऊपर न हो कर कतिपय सूत्रीके ऊपर ही है। योगलूबोंकी कुल संख्या १९५ की है और वृत्ति मिर्फ २७ सूत्रोंके ऊपर ही है । सव सूत्रोंको वृत्ति न होने पर भी प्रस्तुत पुस्तकमें हमने सूत्र तो सभी दे दिये हैं पर भाष्य तो सिर्फ उन्हीं सत्रोंका दिया है जिन पर वृत्ति है । ऐसा करनेके मुख्य दो कारण हैं (१) सूत्रोंका परिमाण बडा नहीं है और (२) वृत्ति पढनेवालेको कमसे कम मूल सूत्रोंके द्वारा भी संपूर्ण योगप्रक्रियाका ज्ञान करना हो तो इसके लिए अन्य पुस्तक ढूँढने की आवश्यकता न रहे। इसके विपरीत भाष्यका परिमाण बहुत बड़ा है और वह कई जगह अच्छे ढंगसे छप भी चूका है । यद्यपि वृत्ति पढनेवालेको योगदशनके मौलिक सिद्धान्त जानने हों तो उसका वह उद्देश्य भाष्य विना देखे भी सिद्ध हो सकता है। फिर भी वृत्तिवाले सूत्रोंका उपयोगी भाष्य उस उस सूत्रके नीचे इस लिए दिया है कि वृत्ति समझने में पाठकोंको अधिक सुभीता हो, क्योंकि वृत्तिकारने भाष्यकारके आशयको ध्यानमें रख कर ही अपनी वृत्ति में अर्थ चक मतभेद और ऐकमत्य दिखाया है। केवल जन दर्शनको जाननेवाले संकुचित दृष्टिके कारण यह नहीं जानते Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि अन्य दर्शनके साथ जैन दर्शनका किस किस सिद्धान्त में कितना और कैता वास्तविक मतभेद या मतैक्य है । इसी प्रकार केवल वैदिक दर्शनको जाननेवाले विद्वान् भी एकदेशीय दृष्टिके कारण यह नहीं जानते कि जैन दर्शन किन किन बातोंमे वैदिक दर्शनके साथ कहाँ तक और किस प्रकार मिल जाता है। इत पारस्परिक अज्ञानके कारण दोनों पक्षके विद्वान् तक भी बहुधा, एक दूसरेके ऊपर आदर रखना तो दूर रहा. अनुचित हमला किया करते हैं. जिससे साधारण वर्गमें श्रम फैल जाता है और वे खंडन मंडनमें ही अपनी शक्तिका खर्च कर डालते हैं। इस विषमताको दूर करनेके लिए ही यह वृत्ति लिखी गई है। यही कारण है कि इसका परिमाण बहुत छोटा होने पर भी इसका महत्व उत्तसे कई गुना अधिक है। जैन दर्शनकी भित्ति स्याद्वाद सिद्धान्तके ऊपर खडी है। प्रामाणिक अनेक दृष्टियोंके एकत्र मिलानको ही स्याद्वाद कहते हैं। स्याद्वाद सिद्वान्तका उद्देश्य इतना ही है कि कोई भी समयदार व्यक्ति किसी वस्तुके विषयमें सिद्धान्त निश्चित करते तमय अपनी प्रामाणिक मान्यताको न छोडे परन्तु साथ ही दूसरोंकी प्रामाणिक मान्यताओंका भी आदर करे। सचमुच स्थाद्वादका सिद्धान्त हृदयकी उदारता. दृष्टिकी विशालता, प्रामाणिक मतभेदकी जिज्ञासा और वस्तुको विविध-रूपताके खयाल पर ही स्थिर है। प्रस्तुत वृत्तिके द्वारा उसके कर्त्ताने उक्त स्याद्वादका मंगलमय दर्शन योग्य जिज्ञासुओंके लिए सुलभ कर दिया है। हमें तो यह कहने में तनीक भी संकोच नहीं है कि प्रस्तुत वृत्ति जैन और योग दर्शनके मिलानकी दृष्टिसे गंगा यमुनाका संगमस्थान है. जिसमें मतभेदरूप जलका वर्ण भेद होने पर भीदोनोंकी एकरसता ही अधिक है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) वृत्ति के महत्त्वका पूरा खयाल उसको मनन पूर्वक उदार दृष्टिसे पढने पर ही आसकता है। (२) योगविंशिका यह मूल अन्य प्राकृतमें है। इसका परिमाण और विषय इसके नामसे प्रसिद्ध है, अर्थात् यह वीस गाथाओंका योग सम्बन्धी एक छोटा सा अन्य है। इसके प्रणे. ताने वीस बीस गाथाओंकी एक एक विशिका ऐसी बीस' विशिकाएँ रची है, जो सभी उपलब्ध है। उनमें प्रस्तुत योगविशिकाका सत्रहवाँ नंबर है, इसमें योगका वर्णन है। इसके प्रणेताके संस्कृत भाषामें भी जैन दृष्टिके अनुसार योग पर बनाये हुए योगविंदु, योगदृष्टिसमुच्चय और पोडशक ये तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो छप चुके हैं। इसके सिवाय उनका बनाया हुआ योगशतक नामका ग्रन्थ भी सूना जाता है। एक ही कर्ताके द्वारा एक ही विषय पर लिखे गये उक्त चारों ग्रन्थोंकी वस्तु क्या क्या है और उसमें क्या समानता तथा क्या असमानता है इत्यादि कई प्रश्न वाचकोके दिलमें पैदा हो सकते हैं जिनका पूरा उत्तर तो वे उक्त ग्रन्थोंके अवलोकन के द्वारा ही पा सकेंगे, फिर भी हमने प्रस्तुत पुस्तकमें इसका अलग सूचन किया है जिसके लिए हम पाठकोंका ध्यान प्रस्ता १ वीस वीसीयोके नाम इस प्रकार है-~-१ अधिकारविशिका, २ अनादिविशिका, ३ कुलनीतिलोकधर्मविशिका, ४ चम्मपरावर्तविशिका, ५ वीजादिविशिका, ६ सद्धर्मविशिका, ७ दानविधिविशिका, ८ पूजाविधिविशिका, ९ श्रावकधर्मविशिका, १० श्रावकप्रतिमाविशिका, ११ यतिवर्मविशिका, १२ शिक्षाविगिका, १३ भिक्षापिशिका, १४ तदन्तरायशुद्धिलिङ्गविगिका, १५ आलोचनाविशिका, १: प्रायश्रितचिशिका, १७ योगविधानविशिका, १८ केवलज्ञानविगिका, १९ सिद्धविशिश, २० सिद्धमुसविशिका । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चना पृष्ट ५९ एरके " आचार्य हरिभद्रकी योगमार्गमें नवीन दिशा" नामक पेरेकी और खींचते हैं। योगविशिकाकी योगवस्तुका स्थूल परिचय तो पाठक वहींते कर लेवें. पर उसमें एक सामाजिक परिस्थितिका चित्रण है जिसका निर्देश यहाँ करना उपयुक्त है. हर पक देश. हर एक जाति और हर एक समाजमें धार्मिक गुरुओंकी तरह धर्मधूर्त गुरुओंकी भी कमी नहीं होती। पैसे नामधारी गुरू भोले शिष्योंको धर्मनाशका भय दिखाकर धर्मरक्षाके निमित्त अपने मनमाने ढंगले धर्मक्रियाका उपदेश देते हैं और धर्मकी ओटमें शास्त्रविरुद्ध व्यवहारका प्रवर्तन कराया करते हैं, ऐसे धर्मोंगी गुरुओंकी खबर जैसे 'आवश्यकनियुक्तिमें श्रीभद्रबाहुस्वामीने ली है वैसे बहुत संक्षेपमें पर मार्मिक रीतिते योगविशिकामें भी ली गई है । उसमें वैसे पाखंडिओको संबोधित करके कहा गया है कि "संघ या जैनतीर्थ मनमाने ढंगते चलनेवाले मनुष्योंके समुदाय मात्रका नाम नहीं है. ऐसा समुदाय तो संघ नहीं किन्तु हडिओंका ढेर मात्र है । सञ्चा जैन-तीर्थ या महाजन तो शाखानुकूल चलने काला एक व्यक्ति भी हो सकता है। इसलिए तीर्थरक्षाके नामसं अशुद्ध प्रथाको जारी रखना यही वास्तवमें तीर्थनाश है. क्योंकि शुद्ध धर्मप्रथाका नाम ही तीर्थ है जो अशुद्ध धर्मप्रथाम नष्ट हो जाता है। इनके सिवाय योगविशिकाके अन्तिम भागमें रूपी. अरूपी ध्यानका भी अच्छा वर्णन है । यह ग्रन्थ छोटा होनेसे इसमें जो कुछ वर्णन है वह संक्षिप्त ही है, पर इसकी संस्कृत टीका जो इस ग्रन्थके साथ ही दे दी गई है वह बहुत देखो ददनरनिटुक्ति गाथा १९०९ मे ११९ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट और सर्वाग परिपूर्ण है । म काग्ने पुरा प्रकाश डाला है. जि, टीकाके देखनेसे ही हो सकेगा। ___पाठकोंसे हमाग अनुरोध है काको पढकर टीकाकारकी बहुश्रुन शाम्रदोहनका थोडे ही में आस्वार ग्रन्थकर्ता ऊपर जिस वृ है. उनके रचयिता जैन विद्वान उ योगविंशिकाकी टीकाके कर्ता योगसूत्रके प्रणेता वैदिक विद्वान् योगविशिकाके रचयिता जैन इस प्रकार यहाँ ग्रन्थकर्तास्पसे उ कराना आवश्यक है। (१) पतञ्जलि-इनके . समय आदिके विषयमें विद्वानोंने अभीतक यही निश्चित नहीं हुआ पाणिनीय व्याकरणसूत्र पर भाष्य नामसे प्रसिद्ध पतञ्जलिसे जुदा थे भाष्यकार और योगसूत्रकार पत सम्बन्धमे आजतक कीगई खोजों करने के लिए न तो हमने पर्याप्त न उसकी अधिक गवेषणा करने प्राप्त है, इसलिए इस विषयके । भावसे अन्य विद्वानोंकी गवेषणा रिश करते हैं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) हम अन्य इतिहासज्ञ विद्वानोके इस अनुमानके आधार पर सिर्फ संतोष मान लेते हैं कि योगसूत्रकार यदि महाभाष्यकार ही थे तो उनका समय इ. पूर्व दूसरी शताब्दी माना जाना चाहिए और यदि दोनों भिन्न थे तो योगसूत्रकार पतञ्जलिका समय इ. के बाद दूसरीसे चौथी शताब्दी तकमें माना जाना चाहिए । अस्तु ! पतञ्जलिके बाह्य आवरणको निश्चित रूपसे जाननेका साधन अभी पूर्णतया प्राप्त न होने पर भी इनकी विचार-आत्माका साक्षात् दर्शन योगसूत्रमें हो ही जाता है जो कम सौभाग्यकी बात नही है । इनकी आत्मा इतना काल बीत जाने पर भी योगसूत्रोंमे जागती है। जिसके पास एक बार आनेवाला पाषाण हृदय व्यक्ति भी सिर झुकाये बिना, किबहुना दासानुदास हुए बिना नहीं रह सकता । इनके योगसूत्रका थोडे में परिचय करनेके अभिलाषिओंका ध्यान हम प्रस्तावना पृष्ठ ३८ पर 'योगशास्त्र' शीर्षक पेरेकी ओर खींचते हैं और इनके महर्षिपनका परिचय करनेकी इच्छावालोंका लक्ष्य "महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता" शीर्षक भागकी ओर खींचते है प्रस्तावना पृ. ४६ (२) हरिभद्र-इस नामके श्वेताम्बर संप्रदायमें अनेक आचार्य हुए हैं । पर योगविंशिकाके कर्ता प्रस्तुत हरिभद्र उन मत्रमे पहले है जो याकिनि महत्तरा सूनुके नामसे और १४४४ ग्रन्धप्रणेताके रूपसे प्रसिद्ध हैं उनका समय वि. की आठवीं नववीं शताब्दी अभी निर्णय किया गया है। उनके जीवनका हाल अभी तक जो कुछ प्रकट हुआ है उसकी अपेक्षा अधिक १ देखो वुड अनुवादित योगदानको इन्लीन प्रस्तावना । २ देसो श्रीजिनविजयजी लिखित हरिभद्रदरिक्षा समयनिर्णय जैन साहिललशोदक. अक १ । ३ देखो प हरगोविददात लिखित जीवनचरित्र । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) स्पष्ट और सर्वाग परिपूर्ण है। मूलपर उसकी टीका टीकाकारने पूरा प्रकाश डाला है, जिसका पुरा परिचय तो उस टीकाके देखनेसे ही हो सकेगा । पाठकोसे हमारा अनुरोध है कि वे योगविशिकाकी टीकाको पढकर टीकाकारकी बहुश्रुतगामिनी बुद्धि और अनेकशाखदोहनका थोडे ही में आस्वाद लेवें । ग्रन्थकर्त्ता - ऊपर जिस वृत्तिका परिचय कराया गया है. उसके रचयिता जैन विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी हैं । योगfafaarat टीकाके कर्ता भी वे ही हैं। वृत्तिके मूलरूप योगसूत्र प्रणेता वैदिक विद्वान् महर्षि पतञ्जलि हैं और मूल योगविंशिकाके रचयिता जैन विद्वान् आचार्य हरिभद्र है। इस प्रकार यहाँ ग्रन्थकर्तारूपसे उक्त तीन व्यक्तिओंका परिचय कराना आवश्यक है 1 ( १ ) पतञ्जलि -- इनके जन्मस्थान, माता, पिता, समय आदिके विषय में विद्वानोंने बहुत ऊहापोह किया है पर अभीतक यही निश्चित नहीं हुआ कि योगसूत्रकार पतञ्जलि, पाणिनीय व्याकरणसूत्र पर भाष्य रचनेवाले महाभाष्यकारनामसे प्रसिद्ध पतञ्जलिसे जुदा थे या दोनों एक ही थे। महाभाष्यकार और योगसूत्रकार पतञ्जलिकी भिन्नता या एकताके सम्बन्ध में आजतक कीगई खोजोंसे अधिक विचार प्रदर्शित करनेके लिए न तो हमने पर्याप्त अवलोकन ही किया है और न उसकी अधिक गवेषणा करनेके लिए अभी हमें समय हो प्राप्त है, इसलिए इस विषयके जिज्ञासुओंके लिए हम सरल भावसे अन्य विद्वानोंकी गवेषणाओंको देखनेकी ही सिफारिश करते हैं । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) हम अन्य इतिहासज्ञ विद्वानोके इस अनुमानके आधार पर सिर्फ संतोष मान लेते हैं कि योगसूत्रकार यदि महाभाष्यकार ही थे तो उनका समय इ. पूर्व दूसरी शताब्दी माना जाना चाहिए और यदि दोनों भिन्न थे तो योगसूत्रकार पतञ्जलिका समय इ. के बाद दूसरीसे चौथी शताब्दी तकमें माना जाना चाहिए । अस्तु! पतञ्जलिके बाह्य आवरणको निश्चित रूपले जाननेका साधन अभी पूर्णतया प्राप्त न होने पर भी इनकी विचार-आत्माका साक्षात् दर्शन योगसूत्रमें हो ही जाता है जो कम सौभाग्यकी बात नहीं है। इनकी आत्मा इतना काल बीत जाने पर भी योगसूत्रोंमें जागती है। जिसके पास एक बार आनेवाला पाषाण हृदय व्यक्ति भी सिर झुकाये बिना. किबहुना दासानुदास हुए विना नहीं रह सकता । इनके योगसूत्रका थोडे में परिचय करनेके अभिलाषिओंका ध्यान हम प्रस्तावना पृष्ठ ३८ पर 'योगशास्त्र' शीर्षक पेरेकी ओर खींचते हैं और इनके महर्षिपनका परिचय करनेकी इच्छावालोंका लक्ष्य "महर्षि पतञ्चलिकी दृष्टिविशालता' शीर्षक भागकी ओर खींचते है प्रस्तावना पृ. ४६ (२) हरिभद्र- इस नामके प्रवेताम्बर संप्रदायमें अनेक आचार्य हुए हैं । पर योगविंशिकाके कर्ता प्रस्तुत हरिभद्र उन सबमें पहले है जो याकिनि महत्तरा सूनुके नामसे और १४४४ ग्रन्थप्रणेताके रूपसे प्रसिद्ध है उनका समय वि. की आठवीं नववीं शताब्दी अभी निर्णय किया गया है। उनके जीवनका हाल अभी तक जो कुछ प्रकट हुआ है उसकी अपेक्षा अधिक १ देखो वुड अनुवादित योगदर्शनकी इग्लीश प्रस्तावना । २ देखो श्रीजिननिजयजी लिखित हरिभद्रदरिका समयनिर्णय जैन साहित्यशोधक अक १ । ३ देखो प हरगोविददास लिखित जीवनचरित्र। - - - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखने की अभी हमारी तैयारी नहीं है, अलवने यह हमारा खयाल हुआ है कि उनके जीवन पर पूरा प्रकाश डालने के वास्ते जैसा चाहिए वैसा उनके ग्रन्थोंका गहरा अवलोकन अभीतक किसीने नहीं किया है वैसा अवलोकन करके निश्चित सामग्रीके आधार पर विशेष लिखनेकी हमारी हार्दिक इच्छा है। परंतु ऐसा सुयोग कब आवेगा यह कहा नहीं जा सकता। अतपय अभीतकके उनके ग्रन्थोंके अवलोकनसे उत्पन्न हुए भावको सिर्फ एक, दो वाक्योंमें जना देना ही समुचित है। जैन आगमों पर सबसे पहले संस्कृतम टीका लिखनेवाले, भारतीय समय दर्शनोंका सबसे पहले वर्णन करनेवाले, जैन शास्त्रके मूल सिद्वान्त अनेकान्तपर तार्किक रीतिसे व्यवस्थित रूपमें लिखनेवाले और जैन प्रक्रियाके अनुसार योगविषय पर 'नई रीतिसं लिखनेवाले ये ही हरिभद्र हैं। इनकी प्रतिभाने विविध विषयके जो अनेक ग्रन्थ उत्पन्न किये हैं उनसे केवल जैन साहित्यका हो नहीं किन्तु भारतीय संस्कृत, प्राकृत साहित्यका मुख उज्ज्वल है। १ यह कथन उपलब्ध ग्रन्थोंकी अपेक्षाम समझना अन्यथा हरिभद्रमूरिके पहले भी योगविषय पर लिखनेवाले विशिष्ट जैनाचार्य हए हैं, जिनके अनेक वाक्योंका अवतरण देते हुए हरिभद्रसूरिन योगदृष्टि समुच्चयकी टोकामें ' योगाचार्य' इस प्रतिष्ठासूचक नामस उदेस किया है उमंक लिए दंगो यो० म० श्लो० १४, १९, २२, ३५ आदिकी टीका. अवतरण वाक्योंसे साफ जान पटता है कि योगाचार्य जैनाचार्य ही थे। यह नहीं कहा जा सकता है कि वे श्वेताम्बर थे या दिगम्बर । उनका असली नाम क्या होगा सो भी मालूम नहीं, इसके लिए विद्वानों को खोज करनी चाहिए। सम्भव है उनके किसी अन्यकी उपलब्धिर्म या अन्यत्र उद्धन विशेष प्रमाणसे अधिक वातोंका पता चले. '। - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके बनाये हुए जो '१४४४ ग्रन्थ कहे जाते हैं वे सब उपलब्ध नहीं हैं परन्तु भाज जितने उपलब्ध हैं वे भी हमारे लिए तो सारी जिन्दगी तक मनन करने और शास्त्रीय प्रत्येक विषयका ज्ञान प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है। यशोविजय-ये विक्रमकी सत्रहवी, अठारहवीं शताब्दीमें हुए हैं। इनका इतिहास अभीतक जो कुछ प्रकाशित हुआ है वह पर्याप्त नहीं है। इनके विशिष्ट इतिहासके लिए इनके सभी ग्रन्थोंका सांगोपांग बारीकीके साथ अवलोकन आवश्यक है। इसके लिए समय और स्वास्थ्य चाहिए जो अभी तो हमारे भाग्यमें नहीं है पर कभी इस कामकी तैयारी करने की ओर बहुत लक्ष्य रहता है। अस्तु अभी तो वाचक-यशोधिजयका परिचय इतनेहीमें कर लेना चाहिए कि उनकी सी समन्वयशक्ति रखनेवाला, जैन जैनेतर मौलिक ग्रन्थोंका गहरा दोहन करनेवाला, प्रत्येक विषयकी तह तक पहुँच कर उस पर समभावएर्वक अपना स्पष्ट मन्तव्य प्रकाशित करनेवाला, शास्त्रीय क लौकिक भाषामें विविध साहित्य रच कर अपने सरल और कठिन विचारोंको सब जिज्ञासु तक पहुंचानेकी चेटा करनेवाला और सम्प्रदायमें रह कर भी सम्प्रदायके बंधनको परवा न कर जो कुछ उचित जान पडा उत पर निर्भयता पूर्वक लिखनेवाला, केषल श्वेताम्बर. दिगंवर समाजमें ही नहीं बल्कि जैनेतर समाजमें भी उनका सा कोई विशिष्ट विद्वान अभी तक हमारे ध्यान में नहीं आया। पाठक स्मरणमें रक्खें यह अत्युक्ति नहीं है। हमने उपाध्यायजीके और दूसरे विद्वानोंके ग्रन्थोंका अभीतक जो अल्प मात्र अवलोकन किया है उसके आधार पर तोल नापकर ऊपरके वाक्य लिखे हैं। निःसन्देह श्वेताम्बर और दिगम्बर समाजमें अनेक बहुश्रुत . विद्वान हो गये है, वैदिक तथा बौद्ध सम्प्रदायमें भी प्रचंड Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) विहानको कमी नहीं रही हैं; खास कर वैदिक विद्वान् तो सदाहीसे उच्च स्थान लेते आये हैं. विद्या मानों उनकी बपौती ही है पर इसमें शक नहीं कि कोई बौद्ध या कोई वैदिक विहान आज तक ऐसा नहीं हुआ है जिसके ग्रन्थके अवलोकन से यह जान पढे कि वह वैदिक या बौद्ध शास्त्रके उपरान्त जैन शाखका भी वास्तविक गहरा और सर्वव्यापी ज्ञान रखता हो । इसके विपरीत उपाध्यायजीके ग्रन्थोंको ध्यानपूर्वक देखनेवाला कोई भी बहुश्रुत दार्शनिक विद्वान् यह कहे बिना नहीं रहेगा कि उपाध्यायजी जैन थे इसलिए जैनशास्त्रका गहरा ज्ञान तो उनके लिए सहज था पर उपनिषद्, दर्शन आदि वैदिक ग्रन्थका तथा बौद्ध ग्रन्थका इतना वास्तविक, परिपूर्ण और स्पष्ट ज्ञान उनकी अपूर्व प्रतिभा और काशी मेनका ही परिणाम है। हिंदी सारका उद्देश्य ग्रन्थका महत्त्व, उसकी उपयोगिता पर निर्भर है। उपयोगिताकी मात्रा लोकप्रियताकी मासे निश्चित होती है। अच्छा ग्रन्थ होने पर भी यदि सर्व साधारण में उसकी पहुँच न हुई तो उसकी लोकप्रियता नहीं हो सकती। जो अच्छा ग्रन्थ जितने ही प्रमाणमें अधिक लोकप्रिय हुआ देखा जाता है उसको लोगों तक पहुँचानेको उतनी ही अधिक चेष्टा की गई होती है। गीताका उतना अधिक प्रचार कभी नहीं होता यदि विविध भाषाओं में विविध रूपसे उसका उल्था न होता, अतएव यह सावीत है कि शास्त्रीय भाषा के ग्रंथोंको अधिक उपयोगी और अधिक लोकप्रिय बनानेका एक मात्र उपाय लौकिक भाषाओंमें उनका परिवर्तन करना है । भारत वर्षके साहित्यको भारतके अधिकांश भागमें फैलानेका साधन उसको राष्ट्रीय हिंदी भाषा में परिवर्तित करना यही है । इसी कारण प्रस्तुत पुस्तकर्मे मूल मूल योगसूत्र Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्ति और सटीक योगविंशिका छपवाने के बाद भी उनका हिंदी सार पुस्तकके अन्तमे दिया गया है।सार कहनेका अभिप्राय यह है कि वह मूलका न तो अक्षरशः अनुवाद है और न अविकल भावानुवाद ही है। अविकल भावानुवाद नहीं है इम कथनसे यह न समझना कि हिदी सारमें मूल ग्रंथका असली भाव छोड दिया है, जहोतक होसका सार लिखनेमे मूल ग्रन्थके असली भावकी ओर ही खयाल रक्खा है। अपनी ओरसे कोई नई बात नही लिखी है पर मूल ग्रन्थमें जो जो बात जिस जिम् क्रमसे जितने जितने संक्षेप या विस्तारके साथ जिस जिस ढेगले कही गई है वह सब हिदी सारमें ज्यों की त्यों लानेको हमने चेष्टा नहीं की है। दोनों सार लिखनेका ढेंग भिन्न भिन्न है इसका कारण मूल ग्रंथोंका विषयभेद और रचना भेद है पहले ही कहा गया है कि वृत्ति सत्र योग सूत्रोंके ऊपर नहीं है। उसका विषय आचार न होकर तत्वज्ञान है। उसकी भाषा साधारण संस्कृत न होकर विशिष्ट संस्कृत अर्थात् दार्शनिक परिभाषासे मिश्रित संस्कृत और वहभी नवीन न्याय परिभापाके प्रयोगसे लदी है। अतएव उसका अक्षरशः अनुवाद या अविकल भावानुवाद करनेकी अपेक्षा हमको अपनी स्वीकृत पद्धति ही अधिक लाभदायक ज्ञान पडी है।वृत्तिका सार लिखनेमे यह पद्धति रखी गई है कि सूत्र या भाष्यके जिस जिस मन्तव्यके साथ पूर्णरूपसे या अपूर्णरूपसे जैन दृष्टिके अनुसार वृत्तिकार मिल जाते हैं या विरुद्ध होते हैं उस उस मन्तव्यको उस उस स्थानमे पृथकरण पूर्वक संक्षेपमें लिखकर नीचे वृत्तिकारका संवाद या विरोध क्रमशः संक्षेपमें सूचित कर दिया है । सब जगह पूर्वपक्ष और उत्तर पक्षकी सब दलीलें सारमे नहीं दी है। सिर्फ तार लिखने में यही ध्यान रक्खा गया है कि वृत्तिकार कीस बात पर क्या कहना चाहते हैं। माधापाले मिश्रित र अतएव उसका हमको अपनी लिख Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगसूत्र वृत्तिके अधिकारी तीन प्रकारके हो सकते हैं। पहले विशिष्ट विद्वान् । दुमरे संस्कृत भाषाको माधारण जाननेवाले किन्तु दर्शनप्रेमी। तीसरे संस्कृत भाषाको विल्कुल नहीं जाननेवाले किन्तु दर्शनविद्याकी रुचिवाले। पहले प्रकारके अधिकारी तो हिंदी सारके सिवाय ही मूल ग्रन्थ देख सकेंगे उनके लिए यह सार नहीं है। दूसरे प्रकारके अधिकारीको मूल ग्रन्थ सुगम हो सके और तीसरे प्रकारके अधिकारीको मूल वस्तु मात्र सुगम हो सके इस दृष्टिसे वृत्तिका सार लिखा गया है। योगविशिका गाथाबद्ध स्वतन्त्र ग्रन्थ है। उसका विषय योग (चारित्र ) है और उस पर परिपूर्ण समर्थ टीका है इम लिए इसका सार लिखनेकी पद्धति भिन्न है। प्रत्येक गाथाका नंबरवार भावानुसारी अर्थ लिखकर उसके नीचे खुलासेके तौर पर टीकाका उपयोगी अंश लेकर सार लिखा गया है। प्राकृत. संस्कृत कम जाननेपर या विल्कुल नहीं जानने पर भी जो जैन योगके जिज्ञासु है उनको न तो बुद्धि पर बोझ ही पडे और न वस्तु ही अज्ञात रहे इस दृष्टिसे अर्थात् वैसे अधिकारिओंको विशेष उपयोगी होसके इस खयालसे यह सार लिखा गया है। दोनों सार विशेष उपयोगी होसके इस दृष्टिसे हमने समय और श्रमकी परवा न करके सारको विशेष उपयोगी वनानेकी चेष्टा की है, फिर भी रुचिभेद या अन्य किसी कारणसे जिसको कुछ भी कमी जान पडे वह हमें सूचित करें या स्वयं उस कमीको दूर करनेकी चेष्टा करे। आभार प्रदर्शन-आँखोंसे लाचार होने के कारण पढने, "लिखने आदिका मेरा सब काम पराश्रित है, अतएव उत्साह होने पर भी यह कभी सम्भव नही कि योग्य सहायकोंके अभाचमें प्रस्तुत पुस्तक मुझसे तैयार हो पाती। पाठक! आप इम Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तकको सच मुच मेरे परम श्रद्धास्पद उन सहायकोंकी सहायताका ही परिणाम समझें. मैं तो इसमें स्वल्प निमित्त मात्र रहा है। वे सहायक हैं प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजीके शिष्य मुनि श्री चतुरविजयजी और उनके शिष्य लघुवयस्क मुनि श्री पुण्यविजयजी । हन्तलिखित प्रतीयोंको संपादित कर उन परसे प्रेस कापी करना मुफ देखना तथा हिंदीसारका संशोधन करके उसके गुफोको देखना आदि सब बौद्धिक तथा शारीरिक काम उक्त लधुवयस्क मुनिने ही प्रधानतया किये हैं। उनके गुरु श्री चतुरविजयजी महाराजने उक्त काममें सहायता देनेके अलावा प्रेत. छपाई तथा अर्थसे संबंध रखनेवाली अनेक उलझनोंको सुलझाया है। निःसन्देह उक्त दोनों गुरु शिष्यकी सहृदयता, उत्साह शीलता और कुशलता सिर्फ मेरे ही नहीं बल्कि सभी साहित्यप्रेमीके धन्यवादके पात्र है। संक्षेपमें निष्पक्षभावसे इतना ही कहूँगा कि हीयमान साधुभावका विरलरूपसे आज जिन इनि गिनि व्यक्तियोंमें दर्शन होता हैं उनमें प्रवर्तकजीकी गणना निःसंकोच भावले की जानी चाहिए। प्रवर्तकजीके ही गुण उक्त दोनों गुरु शिष्यों में.खासकर उक्त लघुवयस्क मुनिमें उतर आये हैं यह बात उनके परिचयमें आनेवाला कोई भी स्वीकार किये बिना न रहेगा। योगपत्रवृत्तिकी एक ही लिखित प्रति न्यायांभोनिधि आत्मारामजी महाराजके भाण्डारसे मिल सकी थी जिसके उपरसे प्रेस कॉपी तैयार की गई । उस प्रतिमें यत्र तत्र कई जगह अक्षर, पद या वाक्य तक खंडित हो गये थे। दूसरी प्रतिके अभावमे उस खंडित भागको पूर्ति बहुधा अर्थानुसंधानजनित कल्पनाते किंवा उपाध्यायजीके ही रचित शास्त्रबार्तासमुच्चयटीका आदि अन्य ग्रन्थों में पाये जानेवाले समान विषयक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) वर्णनके आधारसे की गई है। फिर भी कई जगह त्रुटित पाठकी पूर्ति नहीं हो सकी । जहाँ कल्पनाद्वारा पूर्ति की गई है। चहाँ कोष्टक आदि वास चिह्न किये हैं या नीचे फुट नोटमै सूचना की है। योगविशिकाके सम्बन्ध भी वही बात है क्योंकि उसकी टीकाकी भी एक ही नकल मिल सकी। उस एक नकलको खोज नीकालनेका श्रेय प्रवर्तकजीके ही स्वर्गवासी शिष्य मुनि श्री भक्तिविजयजीको ही है। वह एक नकल कालके गाल में जा ही रही थी कि सौभाग्यवश उक्त मुनिजीको मिल गई। प्रसंग ऐसा हुआ कि अमदाबाद में किसी श्रावकके वहाँ कचरे के रूपमें पुराने पत्रे पडे थे, जिनको उक्त मुनिजीने देखा और उनमें से उनको उपाध्यायजी कृत योगविंशिका टीकाकी एक अखंड नकल मिली जो उनके स्वहस्तलिखित ही है । यद्यपि उपाध्यायजीने श्री हरिभद्रकृत वोसों विशिकाओंके ऊपर टीका लिखी है जैसा कि योगविशिकाटीकाके इस अन्तिम उल्लेखसे स्पष्ट है--- इति महोपाध्यायश्री कल्याणविजय गणि शिष्य मुख्य परिडतश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्य पण्डित श्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकपण्डितश्रीपद्म विजयगणि सहोदरोपाध्यायश्रीजसविजयगाणिसमर्थितायां विंशिकाप्रकरणव्याख्यायां योगविंशिका विवरण सम्पूर्णम् ॥ तथापि प्रस्तुत एक विशिकाको टीकाके सिवाय शेष उन्नीस विशिकाओंकी टीकाऍ आज अनुपलब्ध हैं । न जाने ये नाशका ग्रास हो गई, या कहीं अज्ञात रूपसे उक्त एक टीकाकी तरह कुडे कचरे के रूपमें किसी संग्रह लोलुपके द्वारा रक्षित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होंगी। अस्तु जो कुछ हो पर अब भी इतना नौभाग्य है कि मूल मूल वीसों विशिकाएं कुछ खंडित रूपमें, कुछ अशुद्धरूपमें भी उपलब्ध है । छाया सहित उनको प्रकाशित करने का तथा हो सका तो साथ में हिंदी सार देनेका हमारा विचार है। हमारा निवेदन है कि जिनके पास उक्त सब विशिकाए या उनको अपूर्ण पूर्ण टीकापे हों वे हमें सूचित करें; क्योंकि यह सार्वजनिक संपत्ति है एकवार जैसा छपा प्रायः फिर वैसा ही रहता है। छपनेके बाद लिखित प्रतियोको कौन देखता है। इस दशामें छपानेसे पहले अधिकसे अधिक सामग्रीके द्वारा संशोधन आदि करना यही सच्ची श्रुत-भक्ति है। हमारा काम प्राप्त सामग्रीका उपयोग करना मात्र है। इस लिए पुण्यशाली महानुभावोंका यह कर्तव्य है कि वे लिखित प्रति आदि अपने पास जो कुछ साधन हो उसको देकर प्रकाशकके निःस्वार्थ कार्यको सरल करें। पहले इस पुस्तकको पाँच सौ नकले नीकलवाने का इरादा था पर पीछे हजार नकले नीकलवानेका विचार हुआ। फिन्तु, उस समय एक तरहके उतने कागज न थे और न तुरत मिल ही सकते थे, इसलिए निरुपाय होकर दो किसमके कागजों पर पोच तो पांच सौ नकलें नीकलवानी पडी है। फिर भी धारणासे कुछ अधिक मॅटर बढ जाने के कारण और कई दिनों तक कौशीश करने पर भी एक जातिके मोटे अॅन्टिक कागज न मिलनेते अन्तम लाचार होकर करीब दो फर्मे दूसरी किममके मोटे कागज पर छपवाने पडे हैं । अस्तु जो कुछ हो बाद्य कलेवरमें थोडी सी विभिन्नता हो जाने पर भी पुस्तकका आन्तरिक स्वरूप एक ही प्रकारका है जिस पर वस्तुग्राही पाठक संतोष कर लेवे। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) प्रस्तुत पुस्तकमें आर्थिक सहायता तीन व्यक्तिओंकी ओरसे प्राप्त है। जिसमें मुख्य भाग बडोदावाले शाह चुनीलाल नरोतमदासका है, प्रांतीजवाले शेठ मगनलाल करमचंद और भावनगरवाले शेठ दीपचंद गांडाभाइकी धर्मपत्नी बाइ मोतीवाइकी भी आर्थिक मददका इसमें हीस्सा है अतएव उक्त तीनों महानुभाव धन्यवादके भागी हैं। अन्तमें विचारशील पाठकोंसे हम इतना ही निवेदन करते हैं कि वे इस पुस्तकमें जो कुछ त्रुटी देखें वह हमें सूचित करें। भावनगर. वि. सं. १९७८ निवेदक सुखलाल संघजी. फाल्गुन कृष्ण १३ रवि. -- H EDEOCK--- Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. प्रत्येक मनुष्य व्यक्ति अपरिमित शक्तियोंके तेजका पुज है, जैसा कि सूर्य । अत एव राष्ट्र तो मानों अनेक सूर्योका मण्डल है। फिर भी जब कोई व्यक्ति या राष्ट्र असफलता या नैराश्यके भँवरमें पड़ता है तब यह प्रश्न होना सहज है कि इसका कारण क्या है ?। बहुत विचार कर देखनेसे मालूम पडता है कि असफलता व नैराश्यका कारण योगका (स्थिरताका) अभाव है, क्योंकि योग न होनेसे बुद्धि संदेहशील बनी रहती है, और इससे प्रयत्नकी गति अनिश्चित हो जानेके कारण शक्तियां इधर उधर टकराकर आदमीको वरवाद कर देती हैं। इस कारण सब शक्तियोंको एक केन्द्रगामी वनाने तथा साध्यतक पहुंचानेके लिये अनिवार्यरूपसे सीको योगकी जरूरत है। यही कारण है कि प्रस्तुत xव्याख्यानमालामें योगका विषय रक्खा गया है। इस विषयकी शास्त्रीय मीमांसा करनेका उद्देश यह है कि हमें अपने पूर्वजोंकी तथा अपनी सभ्यताकी प्रकृति ठीक मालूम हो, और तद्वारा आर्यसंस्कृतिके एक अंशका थोडा, पर निश्चित रहस्य विदित हो । 5 गूजरात पुरातत्त्व मंदिर की ओरसे होनेवाली आर्यविद्याव्याख्यानमालामें यह व्याख्यान पढा गया था। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] योगदर्शन. योगदर्शन यह सामासिक शब्द है । इसमें योग और दर्शन ये दो शब्द मौलिक हैं। योग शब्दका अर्थ-योग शब्द युज् धातु और घञ् प्रत्ययसे सिद्ध हुवा है । युज् धातु दो हैं । एकका अर्थ है जोडना और दूसरेका अर्थ है समाधि-मनः स्थिरता । सामान्य रीतिसे योगका अर्थ संवन्ध करना तथा मानसिक स्थिरता करना इतना ही है, परंतु प्रसंग व प्रकरण के अनुसार उसके अनेक अर्थ हो जानेसे वह बहुरूपी बन जाता है । इसी बहुरूपिताके कारण लोकमान्यको अपने गीतारह--- स्यमें गीताका तात्पर्य दिखानेके लिये योगशब्दानिर्णयकी त भूमिका रचनी पड़ी है। परंतु योगदर्शनमें योग [अर्थ क्या है यह बतलानेके लिये उतनी गहराइमें की कोई आवश्यकता नहीं है, क्यों कि योगदर्शनविषसभी ग्रन्थों में जहां कहीं योग शब्द आया है वहां उसका ही अर्थ है, और उस अर्थका स्पष्टीकरण उस उस ग्रन्थमें १ युज़ंपी योगे गण ७ हेमचंद्र धातुपाठ. २ युजिंच समाधौ गण ४ , , " ३ देखो पृष्ठ ५५ से ६० Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकारने स्वयं ही कर दिया है। भगवान् पतंजलिने अपने योगसूत्रमें चित्तवृत्ति निरोधको ही योग कहा है, और उस ग्रन्थमें सर्वत्र योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है । श्रीमान् हरिभद्र सूरिने अपने योग विषयक सभी प्रेन्थों में मोक्ष प्राप्त कराने वाले धर्मव्यापारको ही योग कहा है। और उनके उक्त सभी ग्रन्थों में योग शब्दका वही एक मात्र अर्थ विवक्षित है। चित्तवृत्तिनिरोध और मोक्षप्रापक धर्मव्यापार इन दो वाक्योंके अर्थमें स्थूल दृष्टिसे देखने पर बडी भिन्नता मालूम होती है, पर सूक्ष्म दृष्टिसे देखने पर उनके अर्थकी अभिन्नता स्पष्ट मालूम हो जाती है, क्यों कि 'चित्तवृत्तिनिरोध' इस शब्दसे वही क्रिया या व्यापार विवक्षित है जो मोक्षके लिये अनुकूल हो और जिससे चित्तकी संसाराभिमुख वृत्तियां रुक जाती हों। 'मोक्षप्रापक धर्मव्यापार ' इस शब्दसे भी वही क्रिया विवक्षित है। अत एव प्रस्तुत विषयमें योग शब्दका अर्थ स्वाभाविक समस्त आत्मशक्तियोंका पूर्ण विकास करानेवाली १ पा. १ सू. २-योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । २ योगबिन्दु श्लोक ३१ अध्यात्म भावनाऽऽध्यान समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग एप श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। योगविंशिका गाथा ॥१॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -J L [४] क्रिया अर्थात् आत्मोन्मुख चेष्टा इतना ही समजना चाहीये । योगविषयक वैदिक, जैन और बौद्ध ग्रन्थों में योग, ध्यान, समाधि ये शब्द बहुधा समानार्थक देखे जाते हैं। दर्शन शब्दका अर्थ--नेत्रजन्यज्ञान, निर्विकल्प (निराकार ) चौध, श्रद्धा, मत आदि अनेक अर्थ दर्शन शब्दके देखे जाते हैं। पर प्रस्तुत विषयमें दर्शन शब्दका अर्थे मत यह एक ही विवक्षित है। योगके आविष्कारका श्रेय-जितने देश और जितनी जातियोंके आध्यात्मिक महान् पुरुषोंकी जीवनकथा तथा उनका साहित्य उपलब्ध है उसको देखनेवाला कोई भी यह नहीं कह सकता है कि आध्यात्मिक विकास अमुक देश और अमुक जातिकी ही बपौती है, क्यों कि सभी देश और सभी जातियोंमें न्यूनाधिक रूपसे आध्यात्मिक विकासवाले महात्माओंके पाये जानेके प्रमाण मिलते हैं । योगका १ लोर्ड एवेवरीने जो शिक्षाकी पूर्ण व्याख्या की है वह इसी प्रकारकी है:-" Education is the harmonious development of all our faculties.” २ दृशं प्रेक्षणे-गण १ हेमचन्द्र धातुपाठ. ३ तत्त्वार्थ अध्याय २ सूत्र ह-श्लोक वार्तिक. ४ , , १ , २ ५ षड्दर्शन समुच्चय-श्लोक २-"दर्शनानि पढेवात्र” इत्यादि. ६ उदाहरणार्थ जरथोस्त, इसु, महम्मद आदि. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] संबन्ध आध्यात्मिक विकाससे है । अत एव यह स्पष्ट है कि योगका अस्तित्व सभी देश और सभी जातियों में रहा है। तथापि कोइ भी विचारशील मनुष्य इस वातका इनकार नहीं कर सकता है कि योगके आविष्कारका या योगको पराकाष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय भारतवर्ष और आर्यजातिको ही है। इसके सबूतमें मुख्यतया तीन बातें पेश की जा सकती हैं। १ योगी ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी बहुलताः २ साहित्यके आदर्शकी एकरूपता; ३ लोकरुचि। १ योगी, ज्ञानी, तपस्वी आदि आध्यात्मिक महापुरुषोंकी बहुलता-पहिलेसे आज तक भारतवर्षमें आध्यात्मिक व्यक्तियोंकी संख्या इतनी बडी रही है कि उसके सामने अन्य सब देश और जातियोंके आध्यात्मिक व्यक्तियोंकी कुल संख्या इतनी अल्प जान पडती है जितनी कि गंगाके सामने एक छोटीसी नदी। २ साहित्यके आदर्शकी एकरूपता-तत्त्वज्ञान, आचार, इतिहास, काव्य, नाटक आदि साहित्यका कोइ भी भाग लीजिये उसका अन्तिम श्रादर्श बहुधा मोच ही होगा। प्राकृतिक दृश्य और कर्मकाण्डके वर्णनने वेदका बहुत बडा भाग रोका है सही, पर इसमें संदेह नहीं कि वह Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] - वर्णन वेदका शरीर मात्र है। उसकी आत्मा कुछ और ही है-वह है परमात्मचिंतन या आध्यात्मिक भावोंका आविकरण । उपनिपदोंका प्रासाद तो ब्रह्मचिन्तनकी बुन्याद पर ही खडा है। प्रमाणविषयक, प्रमेयविषयक कोइ भी तत्त्वज्ञान संवन्धी सूत्रग्रन्थ हो उसमें भी तत्त्वज्ञानके साध्यरूपसे मोक्षका ही वर्णन मिलेगा। आचारविषयक सूत्र स्मृति आदि सभी ग्रन्थोंमें आचारपालनका मुख्य उद्देश मोक्ष ही १ वैशेषिकदर्शन अ० १ सू० ४धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां ' साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानानि.श्रेयसम्॥ न्यायदर्शन अ० १ सू०१ प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्वज्ञानानिःश्रेयसम् ।। सांख्यदर्शन अ० १ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ।। वेदान्तदर्शन अ) ४ पा० ४ सू० २२ अनावृतिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात ॥ जैनदर्शन तत्वार्थ अ० १ सू०१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] माना गया है। रामायण, महाभारत आदिके मुख्य पात्रोंकी महिमा सिर्फ इस लिये नहीं कि वे एक बडे राज्यके स्वामी थे, पर वह इस लिये है कि अंतमें वे संन्यास या तपस्याके द्वारा मोक्षके अनुष्ठानमें ही लग जाते हैं। रामचन्द्रजी प्रथम ही अवस्थामें वशिष्ठसे योग और मोक्षकी शिक्षा पा लेते हैं । युधिष्ठिर भी युद्ध रस लेकर वाण-शय्यापर सोये हुवे भीष्मपितामहसे शान्तिका ही पाठ पढ़ते हैं। गीता तो रणांगणमें भी मोक्षके एकतम साधन योगका ही उपदेश देती है । कालिदास जैसे शृंगारप्रिय कहलानेवाले कवि भी अपने मुख्य पात्रोंकी महत्ता मोक्षकी ओर झूकनेमें ही देखते हैं। जैन आगम और बौद्ध पिटक तो निवृत्तिप्रधान होनेसे १ याज्ञवल्क्यस्मृति अ० ३ यतिधर्मनिरूपणम् ; मनुस्मृति अ० १२ श्लोक ८३ २ देखो योगवाशिष्ठ. ३ देखो महाभारत-शान्तिपर्व. ४ कुमारसंभव-सर्ग ३ तथा ५ तपस्या वर्णनम्. शाकुन्तल नाटक अंक ४ करबोक्ति. भूत्वा चिराय चतुरन्तमहीलपत्नी, दौप्यन्तिमप्रतिरथं तनयं निवेश्य । भर्ना तदर्पितकुटुम्बभरेण सार्ध, शान्ते करियसि पदं पुनराश्रमेऽस्मिन् ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [-] मुख्यतया मोक्षके सिवाय अन्य विषयोंका वर्णन करनेमें बहुत ही संकुचाते हैं । शब्दशास्त्रमें भी शब्दशुद्धिको तत्त्वज्ञानका द्वार मान कर उसका अन्तिम ध्येय परम श्रेय ही माना है। विशेप क्या ? कामशास्त्र तकका भी आखिरी उद्देश मोक्ष है। इस प्रकार भारतवर्षीय साहित्यका कोई भी स्रोत देखिये, उसकी गति समुद्र जैसे अपरिमेय एक चतुर्थ पुरुषार्थकी ओर ही होगी। शैशवेऽभ्यस्तविद्यानाम् यौवने विपयैषिणाम् । वार्द्धके मुनिवृत्तीनाम् योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥८॥सर्ग १ अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे, नृपतिककुदं दत्त्वा यूने मितातपवारणम् । मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये, गलितवयसामिक्ष्वाकूणामिदं हि कुलप्रतम् ॥७०11, ३ रघुवंश. १ द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ व्याकरणात्पदसिद्धिः पदसिद्धेरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्वज्ञानात्परं श्रेयः ।। श्रीहैमशब्दानुशासनम् अ०? पा० १ सू० २ लघुन्यास. २ " स्थाविरे धर्म मोक्षं च " कामसूत्र १०२ पृ० ११ Bombay Edition. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] ३ लोकरुचि-आध्यात्मिक विषयकी चर्चावाला और खासकर योगविषयक कोइ भी ग्रन्थ किसीने भी लिखा कि लोगोंने उसे अपनाया । कंगाल और दीन हीन अवस्थामें भी भारतवर्षीय लोगोंकी उक्त अभिरुचि यह सूचित करती है कि योगका सम्बन्ध उनके देश व उनकी जातिमें पहलेसे ही चला आता है। इसी कारणसे भारतवर्षकी सभ्यता अरण्यमें उत्पन्न हुइ कही जाती है। इस पैतृक स्वभावके कारण जब कभी भारतीय लोग तीर्थयात्रा या सफरके लिये पहाडों, जंगलों और अन्य तीर्थस्थानों में जाते हैं तब वे डेरातंच डालनेसे पहले ही योगियोंको, उनके मठोंको और उनके चिह्नतकको भी ढुंढा करते हैं। योगकी श्रद्धाका उद्रेक यहां तक देखा जाता है कि किसी नंगे पावेको गांजेकी चिलम फूंकते या जटा बढ़ाते देखा कि उसके मुंहके धुंएमें या उसकी जटा व भस्मलेपमें योगका गन्ध आने लगता है । भारतवर्ष के पहाड, जंगल और तीर्थस्थान भी बिलकुल योगिशून्य मिलना दुःसंभव है। ऐसी स्थिति अन्य देश और अन्य जातिमें दुर्लभ है। इससे यह अनुमान करना सहज है कि योगको आविष्कृत करनेका तथा परा १ देखो कविवर टागोर कृत " साधना" पृष्ठ ४. “ Thus in India it was in the forests that our civilisation had its buth......etc" Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] मुख्यतया मोक्षके सिवाय अन्य विपयोंका वर्णन करनेमें बहुत ही संकुचाते हैं । शब्दशास्त्रमें भी शब्दशुद्धिको तत्त्वज्ञानका द्वार मान कर उसका अन्तिम ध्येय परम श्रेय ही माना है। विशेप क्या ? कामशास्त्र तकका भी आखिरी उद्देश मोक्ष हैं। इस प्रकार भारतवीय साहित्यका कोई भी स्रोत देखिये, उसकी गति समुद्र जैसे अपरिमेय एक चतुर्थ पुरुषार्थकी ओर ही होगी। शैशवेऽभ्यस्तविद्यानाम् यौवने विपपिणाम् । वार्द्धके मुनिवृत्तीनाम् योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।८॥ सर्ग १ अथ म विपयन्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे, नृपतिककुदं दत्त्वा यूने मितातपवारणम् । मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये, गलितवयसामिक्ष्वाकूणामिदं हि कुलवतम् ||७०|| , ३ रघुवंश. १ द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ व्याकरणात्पदसिद्धिः पदमिद्धरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्वज्ञानात्पर श्रेयः ॥ श्रीहेमशब्दानुशासनम् अ० ? पा० १ सू० २ लघुन्यास. २ " स्थाविरे धर्म मोक्षं च " कामसूत्र अ० २ पृ० ११ ।। Bombay Edition. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] ३ लोकरुचि- आध्यात्मिक विषयकी चर्चावाला और खासकर योगविषयक कोइ भी ग्रन्थ किसीने भी लिखा कि लोगोंने उसे अपनाया । कंगाल और दीन हीन अवस्थामें भी भारतवर्षीय लोगोंकी उक्त अभिरुचि यह सूचित करती है कि योगका सम्बन्ध उनके देश व उनकी जातिमें पहलेसे ही चला आता है। इसी कारणसे भारतवर्षकी सभ्यता अरण्यमें उत्पन्न हुइ कही जाती है । इस पैतृक स्वभावके कारण जब कभी भारतीय लोग तीर्थयात्रा या सफरके लिये पहाडों, जंगलों और अन्य तीर्थस्थानोंमें जाते हैं तब वे डेरातंबु डालनेसे पहले ही योगियोंको, उनके मठोंको और उनके चिहतकको भी ढुंढा करते हैं। योगकी श्रद्धाका उद्रेक यहां तक देखा जाता है कि किसी नंगे बावेको गांजेकी चिलम फूंकते या जटा बढ़ाते देखा कि उसके मुंहके धुंएमें या उसकी जटा व भस्मलेपमें योगका गन्ध आने लगता है । भारतवर्षके पहाड, जंगल और तीर्थस्थान भी दिलकुल योगिशून्य मिलना दुःसंभव है। ऐसी स्थिति अन्य देश और अन्य जातिमें दुर्लभ है। इससे यह अनुमान करना सहज है कि योगको आविष्कृत करनेका तथा परा १ देखो कविवर टागोर कृत " साधना" पृष्ठ ४. " Thus in India it was in the forests that our civilisation had its buthi......etc." Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] काष्ठा तक पहुंचानेका श्रेय बहुधा भारतवर्षको और आर्यजातिको ही है। इस वातकी पुष्टि मेक्षमूलर जैसे विदेशीय और भिन्न संस्कारी विद्वान्के कथनसे भी अच्छी तरह होती है। आर्यसंस्कृतिकी जड और आर्यजातिका लक्षण--उपरके कथनसे आर्यसंस्कृतिका मूल आधार क्या है यह स्पष्ट मालूम हो जाता है। शाश्वत जीवनकी उपादेयता ही आर्यसंस्कृतिकी भित्ति है। इसी पर आर्यसंस्कृतिके चित्रोंका चित्रण किया गया है। वर्णविभाग जैसा सामाजिक संगठन और आश्रमव्यवस्था जैसा वैयक्तिक जीवनविभाग उस चित्रणका अनुपम उदाहरण है। विद्या, रक्षण, विनिमय और सेवा ये चार जो वर्षविभागके उद्देश्य हैं । उनके प्रवाह गार्हस्थ्य जीवनरूप मैदानमें अलग अलग बह कर भी वानप्रस्थके मुहानेमें मिलकर अंतमें संन्यासाश्रमके अपरिमेय समुद्रमें एकरूप हो जाते हैं। सारांश यह है कि सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि सभी संस्कृतियोंका निर्माण, स्थूलजीवनकी परिणामविरसता और श्रा १ 1'118 concentration of thought (एकाग्रता) or one-pointedness as the Hindus called it, is some. thing to us alnosti unknown. इत्यादि देखो पृ २३वोल्युम १-सेक्रड बुक्स ओफ धि ईस्ट मेतमूलर-प्रस्तावना. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] • ध्यात्मिक जीवनकी परिणाम सुन्दरता उपर ही किया गया है । अत एव जो विदेशीय विद्वान् आर्यजातिका लक्षण स्थूलशरीर, उसके डीलडोल, व्यापार-व्यवसाय, भाषा, आदिमें देखते हैं वे एकदेशीय मात्र हैं । खेतीबारी, जहाजे -' खेना, पशुओं को चराना आदि जो जो अर्थ आर्य शब्दसे निकाले गये हैं' वे श्रार्यजातिके असाधारण लक्षण नहीं हैं । आर्यजातिका असाधारण लक्षण परलोकमात्रकी कल्पना भी नहीं है क्यों कि उसकी दृष्टिमें वह लोक भी त्याज्य है । उसका सच्चा और अन्तरंग लक्षण स्थूल जगतके उसपार वर्तमान परमात्मतत्त्वकी एकाग्रबुद्धिसे उपासना - करना यही है । इस सर्वव्यापक उद्देश्यके कारण श्रार्यजाति aurat aor ee जातियोंसे श्रेष्ठ समझती आई है । 3 ज्ञान और योगका संबन्ध तथा योगका दरजा -- व्यवहार हो या परमार्थ, किसी भी विषयका ज्ञान तभी परिपक्क समझा जा सकता है जब कि ज्ञानानुसार श्राचरण किया जाय । असल में यह आचरण ही योग है । Biographies of Words & the Home of the Aryans by Max Muller page 50 | २ ते तं भुचवा स्वर्गलोकं, विशालं क्षीणे पुण्ये मृत्युलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते || गीता श्र० ६ श्लोक २१ ॥ ३ देखो Apte's Sanskrit to English Dictionary. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] अत एव ज्ञान योगका कारण है । परन्तु योगके पूर्ववर्ति जो ज्ञान होता है वह अस्पष्ट होता है । और योगके बाद होनेवाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट तथा परिपक्क होता है। इसीसे यह समझ लेना चाहिये कि स्पष्ट तथा परिपक ज्ञानकी एक मात्र कुंजी योग ही है। आधिभौतिक या आध्यात्मिक कोइ भी योग हा, पर वह जिस देश या जिस जातिमें जितने प्रमाणमें पुष्ट पाया जाता है उस देश या उस जातिका विकास उतना ही अधिक प्रमाणमें होता है। सच्चा ज्ञानी वही है जो योगी है। जिसमें योग या एकाग्रता नहीं होती वह योगवाशिष्ठकी परिभाषामें ज्ञानबन्धु १ इसी अभिप्रायसे गीता योगिको ज्ञानीसे अधिक कहती है. गीता अ० ६. श्लोक ४६तपस्विभ्योऽधिको योगी झानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। कर्मिभ्यश्वाधिको योगी तस्माद योगी भवार्जुन!॥ २ गीता अ० ५ श्लोक ५ यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । __ एक सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। ३ योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण उत्तरार्ध सर्ग २१व्याचष्टे यः पठति च शास्त्रं भोगाय शिल्पिवत् । यतत न त्वनुष्ठाने ज्ञानवन्धुः स उच्यते ॥ आत्मज्ञानमनासाद्य ज्ञानान्तरलवेन ये । सन्तुष्टाः कष्टचेष्टं ते ते स्मृता ज्ञानवन्धवः ।। इत्यादि. - - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] है । योगके सिवाय किसी भी मनुष्यकी उत्क्रान्ति हो ही नहीं सकती, क्यों कि मानसिक चंचलताके कारण उसकी सब शक्तियां एक ओर न वह कर भिन्न भिन्न विषयों में टकराती हैं, और क्षीण हो कर यों ही नष्ट हो जाती हैं । इसलिये क्या किसान, क्या कारीगर, वया लेखक, क्या शोधक, क्या त्यागी सभी को अपनी नाना शक्तियों को केन्द्रस्थ करनेके लिय योग ही परम साधन है । व्यावहारिक और पारमार्थिक योग-योगका कलेवर एकाग्रता है, और उसकी आत्मा अहंत्व ममत्वका त्याग है । जिसमें सिर्फ एकाग्रताका ही संबन्ध हो वह व्यावहारिक योग, और जिसमें एकाग्रता के साथ साथ हंत्व ममत्वके त्यागका भी संबन्ध हो वह पारमार्थिक योग है । यदि योगका उक्त आत्मा किसी भी प्रवृत्ति में चाहे वह दुनियाकी दृष्टिमें बाह्य ही क्यों न समझी जाती होवर्तमान हो तो उसे पामार्थिक योग ही समझना चाहिये । इसके विपरीत स्थूलदृष्टिवाले जिस प्रवृत्तिको आध्यात्मिक समझते हों, उसमें भी यदि योगका उक्त आत्मा न हो तो उसे व्यवहारिक योग ही कहना चाहिये । यही बात गीताके साम्यगर्भित कर्मयोगमें कही गई है । १ ० २४८- योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ! | सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] योगकी दो धारायें--व्यवहारमें किसी भी बस्तुको परिपूर्ण स्वरूपमें तैयार करनेके लिये पहले दो बातोंकी आवश्यकता होती है। जिनमें एक ज्ञान और दूसरी क्रिया है । चितेरेको चित्र तैयार करनेसे पहले उसके स्वरूपका, उसके साधनोंका और साधनोंके उपयोगका ज्ञान होता है, और फिर वह ज्ञान के अनुसार क्रिया भी करता है तभी वह चित्र तैयार कर पाता है। वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्रमें भी मोक्षके जिज्ञासुके लिये बन्धमोक्ष, आत्मा और बन्धमोक्षके कारणोंका तथा उनके परिहार, उपादानका ज्ञान होना जरूरी है। एवं ज्ञानानुसार प्रवृत्ति भी आवश्यक है। इसी से संक्षेपमें यह कहा गया है कि "ज्ञाननियाभ्याम् मोक्षः"। योग क्रियामार्गका नाम हैं । इस मार्गमें प्रवृत्त होनेसे पहले अधिकारी, आत्मा आदि आध्या मिक विषयोंकी प्रारंभिक ज्ञान शास्त्रसे, सत्संगसे, या स्वयं प्रतिभा द्वारा कर लेता है। यह तत्त्वविषयक प्राथमिक ज्ञान प्रवर्तक ज्ञान कहलाता है। प्रवर्तक ज्ञान प्राथमिक दशाका ज्ञान होनेसे सबको एकाकार और एकसा नही हो, सकता । इसीसे योगमार्गमें तथा उसके परिणामस्वरूप मोक्षस्वरूपमें तात्त्विक भिन्नता न होने पर भी योगमार्गके प्रवर्तक प्राथमिक ज्ञानमें कुछ भिन्नता अनिवार्य है । इस Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] प्रवर्तक ज्ञानका मुख्य विषय आत्माका अस्तित्व है। श्रात्साका स्वतन्त्र अस्तित्व माननेवालों में भी मुख्य दो मत हैं-पहला एकात्मवादी और दूसरा नानात्मवादी । नानात्मवादमें भी आत्माकी व्यापकता, अव्यापकता, परिणामिता, अपरिणामिता माननेवाले अनेक पक्ष हैं । पर इन वादोंको - एकतरफ रख कर मुख्य जो आत्माकी एकता और अनेकताके दो वाद हैं उनके आधार पर योगमार्गकी दो धारायें हो गई हैं। अत एव योगविषयक साहित्य भी दो मागों में विभक्त हो जाता है। कुछ उपनिषदें,' योगवाशिष्ठ, हठयोगप्रदीपिका आदि ग्रन्थ एकात्मवादको लक्ष्यमें रख कर रचे गये हैं। महाभारतगत योग प्रकरण, योगसूत्र तथा जैन और बौद्ध योगग्रन्थ नानात्मवादके आधार पर रचे गये हैं। योग और उसके साहित्यके विकासका दिग्दर्शन--आर्यसाहित्यका भाण्डागार मुख्यतया तीन भागोंमें विभक्त है-वैदिक, जैन और बौद्ध । वैदिक साहित्यका प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है। उसमें आधिभौतिक और आधिदैविक वर्णन ही मुख्य है। तथापि उसमे प्राध्या १ ब्रह्मविद्या, क्षुरिका, चूलिका, नादविन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतविन्दु, ध्यानदिन्दु, तेजोविन्दु, शिखा, योगतत्त्व, हंस.. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [१६] त्मिक भाव अर्थात् परमात्मचिन्तनका अभाव नहीं है। परमात्मचिन्तनका भाग उसमें थोडा है सही, पर वह इतना अधिक स्पष्ट, सुन्दर और भावपूर्ण है कि उसको ध्यानपूर्वक देखनेसे यह साफ मालूम पड़ जाता है कि तत्कालीन लोगोंकी दृष्टि केवल बाह्य ने थी। इसके सिवा उसमें १ देखो " भागवताचा उपसंहार " पृष्ठ २५२. २ उदाहरणार्थ कुछ सूक्त दिये जाते हैं:ऋग्वेद मं, १ सू. १६४-४६इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपों गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥ भाषांतरः-लोग उसे इन्द्र, मित्र, वरुण या अग्नि कहते हैं। वह सुंदर पांखवाला दिव्य पक्षी है। एक ही सत्का विद्वान लोग भनेक प्रकारसे वर्णन करते है। कोइ उसे आमि, यम या वायु भी कहते हैं। ऋग्वेद मण्ड. ६ सू.६ वि मे कों पतयतो वि चक्षुर्वीदं ज्योतिर्हृदय आहितं यत् । विमे मनश्चरति दूर आधीः किंस्विद् वक्ष्यामि किमु नु मनिष्ये ॥६॥ विश्वे देवा अनमस्यन् भियानास्त्वामने ! तमास तस्थिवांसम् । वैश्वानरोऽत्रतूतये नोऽपर्योऽत्रतूतये नः ॥ ७ ॥ भाषांतरः-मेरे कान विविध प्रकारकी प्रवृत्ति करते हैं। मेरे नेत्र, मेरे हृदयमें स्थित ज्योति और मेरा दूरवर्ति मन (भी) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ज्ञान, श्रद्धा, उदारता. ब्रमचर्य आदे आध्यात्मिक उच्च मानसिक भावोंके चित्र भी बड़ी खूबीपाले मिलते हैं। इससे विविध प्रवृत्ति कर रहा है। मैं क्या कहूँ और क्या विचार करूं ?। ६ । अंधकारस्थित हे अग्नि को अंधकारसे भय पानेवाले देव नमस्कार करते है। वैश्वानर हमारा रक्षण करे । ममर्त्य हमारा रक्षण करे । ७ । पुरुषसूक्त मण्डल १० सू ६० ऋग्वेदः सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठदशाङ्गुलम् ॥ १॥ पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यश्च भव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिगेहति ॥२॥ एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥ भाषांतर:-( जो) हजार सिरवाला, हजार प्रांखवाला, हजार पाववाला पुरुष (है) वह भूमिको चारों ओरसे घेर कर ( फिर भी ) दस अंगुल बढ़ कर रहा है। ११ पुरुष ही यह सब कुछ है-जो भूत और जो भावि । ( वह ) अमृतत्वका ईश अन्नसे बढ़ता है । २। इतनी इसकी महिमा-इससे भी १ मं.१० सू.७१ ऋग्वेद । २ मं. १० सू०१५१ ऋग्वेद। मं. १० सू. ११७ ऋग्वेद । ४ मं. १० सू. १० ऋग्वेद । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] यह अनुमान करना सहज है कि उस जमानेके लोगोंका झुकाव आध्यात्मिक अवश्य था। यद्यपि ऋग्वेदमें योगशब्द वह पुरुष अधिकतर है। सार भूत उसके एक पाद मात्र हैंउसके अमर तीन पाद स्वर्गमें हैं। ३ । क सूक्त मं. १० सू. १२१ ऋग्वेदःहिरण्यगर्भः समवर्तताने भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं चामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ||१|| य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिपं यस्य देवाः । यस्य च्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२॥ भाषांतर:-पहले हिरण्यगर्भ था। वही एक भूत मात्रका पति बना था। उसने पृथ्वी और इस आकाशको धारण किया। किस देवको हम हविसे पूजें ?। १ । जो आत्मा और बलको देनेवाला है। जिसका विश्व है। जिसके शासनकी देव उपासना करते हैं। अमृत और मृत्यु जिसकी छाया है। किस देवको हम हविसे पूजें ? ।२। ऋग्वेद मं. १०-१२६-६ तथा ७--- को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः। धर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव ॥ इयं विसृष्टिर्यत था वभूव यदि वा दधे यदि वा न | यो अस्याध्यक्ष परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद- यदि वा न वेद ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] अनेक स्थानोंमें आया है, पर सर्वत्र उसका अर्थ प्रायः जोडना इतना ही है. ध्यान या समाधि अर्थ नहीं है । इतना ही नहीं बल्कि पिछले योग विषयक साहित्यमें ध्यान, वैराग्य. प्राणायाम, प्रत्याहार आदि जो योगप्रक्रिया प्रसिद्ध शब्द पाये जाते हैं वे ऋग्वेदमें बिलकुल नहीं हैं। ऐसा होनेका कारण जो कुछ हो. पर यह निश्चित है कि तत्कालीन लोगोंमें ध्यानकी भी रुचि थी । ऋग्वेदका ब्रह्मस्फुरण जैसे जैसे विकसित होता गया और उपनिषदके जमानेमें उसने जैसे ही विस्तृत रूप धारण किया वैसे वैसे ध्यानमार्ग भी अधिक पुष्ट और साङ्गोपाङ्ग होता चला । यही कारण है कि प्राचीन उपनिषदोंमें भी समाधि अर्थमें योग, ध्यान ___ भाषांतर:-कौन जानता है-कौन कह सकता है कि यह विविध सृष्टि कहॉसे उत्पन्न हुइ ?। देव इसके विविध सर्जनके बाद ( हुवे ) है। कौन जान सकता है कि यह कहांसे आई ? यह विविध सृष्टि कहांसे आई और स्थितिमें है वा नहीं है ? यह यात परम व्योममें जो इसका अध्यक्ष है वही जाने-कदाचित् वह भी न जानता हो। १ मंडल १ सूक्त ३४ मंत्र:। मं. १० सू. १६६ मं. ५। मं. १सू. १८ मं. ७ । मं १. सू. ५ मं. ३। मं. २ सू. ८ मं.१। सं. ९ सू. ५८ मं.३। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] आदि शब्द पाये जाते हैं' । श्वेताश्वतर उपनिषदमें तो स्पष्ट रूपसे योग तथा योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा आदि योगाङ्गका वर्णन है । मध्यकालीन और अर्वाचीन अनेक उपनिपदें तो सिर्फ योगविषयक ही हैं, जिनमें योगशास्त्रकी तरह सांगोपांग योगप्रक्रियाका वर्णन है । अथवा यह कहना १ ( क ) तैत्तिरिय २-४ | कठ २-६-११ | श्वेताश्वतर २–११, ६–३ । ( ख ) छान्दोग्य ७ - ६ -१, ७–६–२, ७-७-१, ७-२६-१ | श्वेताश्वतर १-१४ । कौशीतकि ३-२, ३-३, ३-४, ३-६ । २ श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय २ त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य | झोडुपेन प्रतरेत विद्वान्स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ॥ ८ ॥ प्राणान्प्रपीडयेह सयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोलसीत । दुष्टाश्वयुक्तमित्र वाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः ॥ ६॥ समे शुचौ शर्करावह्निवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः । मनोनुकूले न तु चचुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ॥ १० ॥ इत्यादि. ३ ब्रह्मविद्योपनिषद्, चुरिकोपनिषद्, चूलिकोपनिषद्, नादबिन्दु, ब्रह्मविन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानविन्दु, तेजोबिन्दु, योगशिखा, योगतत्त्व, हंस | देखो घुसेनकृत - " Philosophy of the Upanishad's "" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] चाहिये कि ऋग्वेदमें जो परमात्मचिन्तन अंकुरायमाण था वही उपनिषदोंमें पल्लवित पुष्पित हो कर नाना शाखा प्रशाखाओंके साथ फल अवस्थाको प्राप्त हुवा । इससे उपनिषदकालमें योगमार्गका पुष्टरूपमें पाया जाना स्वाभाविक ही है। ___ उपनिषदोंमें जगत, जीव और परमात्मसम्बन्धी जो तात्विक विचार है, उसको भिन्न भिन्न ऋषियोंने अपनी दृष्टि से सूत्रोमें ग्रथित किया, और इस तरह उस विचारको दर्शनका रूप मिला। सभी दर्शनकारोंका आखिरी उद्देश मोक्ष' ही रहा है, इससे उन्होंने अपनी अपनी दृष्टि से तत्त्व * प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्वज्ञानामिश्रेियसाधिगमः । गौ० सू० १-१-१॥ धर्मविशेषप्रसूताद् उन्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ वै० सू० १-१-४॥ अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः सां० १० १-१। पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशाक्तरिति । यो० सू० ४-३३॥ अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ४-४-२२ ब्र. सू.। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थ १-१ जैन० दाबौद्ध दर्शनका तीसरा निरोध नामक आर्यसत्य हो मोक्ष है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] विचार करनेके बाद भी संसारसे छुट कर मोक्ष पानेके साधनोंका निर्देश किया है । तत्वविचारणामें मतभेद हो सकता है, पर आचरण यानी चारित्र एक ऐसी वस्तु है जिसमें सभी विचारशील एकमत हो जाते हैं । विना चारित्रका तत्त्वज्ञान कोरी बातें हैं । चारित्र यह योगका किंवा योगांगोंका संक्षिप्त नाम है। अत एव सभी दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्रग्रन्थों में साधन रूपसे योगकी उपयोगिता अवश्य. बतलाइ है। यहां तक की-न्यायदर्शन जिसमें प्रमाण पद्धतिका ही विचार मुख्य है उसमें भी महर्षि गौतमने योगको स्थान दिया है। महर्षि कणादने तो अपने वैशेषिक दर्शनमें यम, नियम, शौच आदि योगांगोंका भी महत्त्व गाया है। सांख्यसूत्रमें योगप्रक्रियाके वर्णनवाले कइ सूत्र हैं । ब्रह्म१ समाधिविशेपाभ्यासात् ४-२-३८ । अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ४-२-४२। तदर्थ यमनियमा भ्यामात्मसंस्कारो योगाचाध्यात्मविध्युपायैः ४-१-४६ ॥ २ अभिपेचनोपवासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानप्रोक्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्यादृष्टाय । ६-२-२। अयतस्य शुचिभोजनादभ्युदयो न विद्यते, नियमाभावाद्, विद्यते वाऽर्थान्तरत्वाद् यमस्य | ६-२-८। ३ रागोपहतिर्ध्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोवात् तस्मिाद्धिः Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] सूत्रमें महर्षि बादरायणने तो तीसरे अध्यायका नाम ही साधन अध्याय रक्खा है, और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगोंका वर्णन किया है। योगदर्शन तो मुख्यतया योगविचारका ही ग्रन्थ ठहरा, अत एव उसमें सांगोपांग योगप्रक्रियाकी मीमांसाका पाया जाना सहज ही है। योगके स्वरूपके सम्बन्धमें मतभेद न होनेके कारण और उसके प्रतिपादनका उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शनके उपर होनेके कारण अन्य दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्र ग्रन्थों में थोडासा योगविचार करके विशेष जानकारीके लिये जिज्ञासुओंको योगदर्शन देखनेकी सूचना दे दी है। पूर्वमीमांसामें महर्षि जैमिनिने योगका निर्देश तक नहि किया है सो ठीक ही है, क्योंकि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूम-मार्गकी ही मीमांसा है। कर्मकाण्डकी पहुंच स्वर्गतक ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तत्सिद्धिः ३-३२ । निरोध चर्दिविधारणाभ्याम् ३-३३ । स्थिरसुखमासनम् ३-३४॥ १ आसीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच ४-१-८। अचलवं चापेक्ष्य ४-१-९। स्मरन्ति च ४-१-१० । यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-१-११।। २ योगशास्त्राचाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः । न्यायदर्शन ४-२-४६ भाप्य । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] विचार करनेके बाद भी संसारसे छुट कर मोक्ष पानेके साधनोंका निर्देश किया है । तत्वविचारणामें मतभेद हो सकता है, पर आचरण यानी चारित्र एक ऐसी वस्तु है जिसमें सभी विचारशील एकमत हो जाते हैं । विना चारित्रका तत्त्वज्ञान कोरी बातें हैं। चारित्र यह योगका किंवा योगांगोंका संक्षिप्त नाम है। अत एव सभी दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्रग्रन्थों में साधन रूपसे योगकी उपयोगिता अवश्य वतलाइ है । यहां तक की-न्यायदर्शन जिसमें प्रमाण पद्धतिका ही विचार मुख्य है उसमें भी महर्षि गौतमने योगको स्थान दिया है। महर्षि कणादने तो अपने वैशेषिक दर्शनमें यम, नियम, शौच आदि योगांगोंका भी महत्त्व गाया है। सांख्यसूत्रमें योगप्रक्रियाके वर्णनवाले कइ सूत्र है। ब्रह्म१ समाधिविशेषाभ्यासात् ४-२-३८ । अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः ४-२-४२। तदर्थ यमनियमा भ्यामात्मसंस्कारो योगाचाध्यात्मविध्युपायैः ४-२-४६ ।। २ अभिपेचनोपवासब्रह्मवर्यगुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञदानप्रोक्षणदिनक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय । ६-२-२ | अयतस्य शुचिभोजनादभ्युदयो न विद्यते, नियमाभावाद्, विद्यते वार्थान्तरत्वाद् यमस्य । ६-२-८ । ३ रागोपहतिर्ध्यानम् ३-३० । वृत्तिनिरोधात् तस्मिद्धिः Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] सूत्रमें महर्षि वादरायणने तो तीसरे अध्यायका नाम ही साधन अध्याय रक्खा है, और उसमें आसन ध्यान आदि योगांगोंका वर्णन किया है। योगदर्शन तो मुख्यतया योगविचारका ही ग्रन्थ ठहरा, अत एव उसमें सांगोपांग योगप्रक्रियाकी मीमांसाका पाया जाना सहज ही है। योगके स्वरूपके सम्बन्धमें मतभेद न होनेके कारण और उसके प्रतिपादनका उत्तरदायित्व खासकर योगदर्शनके उपर होनेके कारण अन्य दर्शनकारोंने अपने अपने सूत्र ग्रन्थों में थोडासा योगविचार करके विशेष जानकारीके लिये जिज्ञासुओंको योगदर्शन देखनेकी सूचना दे दी है। पूर्वमीमांसामें महर्षि जैमिनिने योगका निर्देश तक नहि किया है सो ठीक ही है, क्योंकि उसमें सकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूम-मार्गकी ही मीमांसा है। कर्मकाण्डकी पहुंच स्वर्गतक ३-३१ । धारणासनस्वकर्मणा तसिद्धिः ३-३२ निरोधश्वर्दिविधारणाभ्याम् ३-३३ / स्थिरसुखमासनम् ३-३४॥ ६ आसीनः संभवात् ४-१-७ । ध्यानाच ४-१-८। अच लवं चापेक्ष्य ४-१-९। स्मरन्ति च ४-१-१० । यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् ४-२-११ ।। २ योगशास्त्राचाध्यात्मविधिः प्रतिपत्तव्यः । न्यायदर्शन ४-२-४६ भाष्य । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] ही है, मोक्ष उसका साध्य नहीं । और योगका उपयोग तो मोक्षके लिये ही होता है। जो योग उपनिषदोंमें सूचित और सूत्रोंमें सूत्रित है, उसीकी महिमा गीतामें अनेक रूपसे गाइ गइ है। उसमें योगकी तान कभी कर्मके साथ, कभी भक्तिके साथ और कभी ज्ञानके साथ सुनाइ देती है। उसके छठे और तेरहवें अध्यायमें तो योगके मौलिक सब सिद्धान्त और योगकी सारी प्रक्रिया आ जाती है। कृष्णके द्वारा अर्जुनको १ गीताके अठारह अध्यायोंमें पहले छह अध्याय कर्मयोग प्रधान, विचके छह अध्याय भक्तियोग प्रधान और अंतिम छह अध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं। २ योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥१०॥ शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्यच्छितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥ तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्व दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥ प्रशान्तात्मा विगतमीब्रह्म नारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥ अ०६ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] गीताके रूपमें योगशिक्षा दिला कर ही महाभारत सन्तुष्ट नहीं हुआ । उसके अथक स्वरको देखते हुए कहना पड़ता है कि ऐसा होना संभव भी न था। अत एव शान्तिपर्व और अनुशासनपर्वमें योगविषयक अनेक सगै वर्तमान हैं, जिनमें योगकी अथेति प्रक्रियाका वर्णन पुनरुक्तिकी परवा न करके किया गया है। उसमें वाणशय्यापर लेटे हुए भीष्मसे बार बार पूछनेमें न तो युधिष्ठिरको ही कंटाला श्राता है, और न उस सुपात्र धार्मिक राजाको शिक्षा देनेमें भीष्मको ही थकावट मालूम होती है। योगवाशिष्ठका विस्तृत महल तो योगकी भूमिकापर खडा किया गया है। उसके छह प्रकरण मानों उसके सुदीर्घ कमरे हैं, जिनमें योगसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी विषय रोचकतापूर्वक वर्णन किये गये हैं। योगकी जो जो बातें योगदर्शनमें संक्षेपमें कही गई हैं, उन्हींका विविधरूपमें विस्तार करके ग्रन्थकारने योगवाशिष्ठका कलेवर बहुत बढा दिया है, जिससे यही कहना पडता है कि योगवाशिष्ठ योगका ग्रन्थराज है। पुराणमें सिर्फ पुराणशिरोमणि भागवतको ही देखिये, उसमें योगका सुमधुर पद्योंमे पूरा वर्णन है। १ शान्तिपर्व १९३, २१७, २४६, २५४ इत्यादि । अनुशासनपर्व ३६. २४६ इत्यादि । २ वैराग्य, मुमुक्षुव्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण। ३ रून्य ३ - ध्याय २८ रून्ध ११. १० १५, १९, २० श्रादि । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २५ योगविषयक विविध साहित्यसे लोगोंकी रुचि इतनी परिमार्जित हो गई थी कि तान्त्रिक संप्रदायवालोंने भी तन्त्रग्रन्थों में योगको जगह दी, यहां तक कि योग तन्त्रका एक खासा अंग बन गया। अनेक तान्त्रिक ग्रन्थों में योगकी चर्चा है, पर उन सबमें महानिर्वाणतन्त्र, पट्चक्रनिरूपण आदि मुख्य हैं। १ देखो महानिर्वाणतन्त्र ३ अध्याय । देखो षट्चक्रनिरूपण, ऐक्यं जीवात्मनोराहुर्योग योगविशारदाः । शिवात्मनोरभेदेन प्रतिपत्ति परे विदुः॥ पृष्ठ ८२ Tantrik Texts À 591 EFI समत्वभावनां नित्यं जीवात्मपरमात्मनोः । समाधिमाहुर्मुनयः प्रोक्तमष्टाङ्गलक्षणम् ॥ पृ० ६.१ ,, यदत्र नात्र निर्भासः स्तिमितोदधिवत् स्मृतम् । स्वरूपशून्यं यद् ध्यानं तत्समाधिर्विधीयते ।। पृ० ६०,, त्रिकोणं तस्यान्तः स्फुरति च सततं विद्युदाकाररूपं । तदन्तः शून्यं तत् सकलसुरगणैः सेवितं चातिगुमम् ।। पृ. ६०,, "आहारनिहर्हारविहारयोगाः सुसंवृता धर्मविदा तु कार्या:" पृ० ६१, ध्यै चिन्तायाम् स्मृतो धातुश्चिन्ता तत्वेन निश्चला। एतद् ध्यानमिह प्रोक्त सगुणं निर्गुण द्विधा । वर्णभेदेन निर्गुणं केवल तथा || पृ० १३१ ,, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] जब नदीमें बाढ आता है तब वह चारों ओरसे वहने लगती है। योगका यही हाल हुआ, और वह आसन, मुद्रा, प्राणायाम आदि बाह्य अंगोंमें प्रवाहित होने लगा। बाय अंगोंका भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और उसपर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे वह योगकी एक शाखा ही अलग बन गई, जो हठयोगके नामसे प्रसिद्ध है। ___ हठयोगके अनेक ग्रन्थोंमें हठयोगप्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता, गोरक्षपद्धति, गोरक्षशतक आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं, जिनमें आसन, वन्ध, मुद्रा, पट्कर्म, कुंभक, रेचक, पूरक आदि वाह्य योगांगोंका पेट भर भरके वर्णन किया है, और घेरण्डने तो चौरासी आसनको चौरासी लाख तक पहुंचा दिया है। उक्त हठयोगप्रधान ग्रन्थों में हठयोगप्रदीपिका ही मुख्य है, क्यों कि उसीका विपय अन्य ग्रन्थोंमें विस्तार रूपसे वर्णन किया गया है। योगविषयक साहित्यके जिज्ञासुओंको योगतारावली, विन्दुयोग, योगवीज और योगकल्पद्रुमका नाम भी भूलना न चाहिये । विक्रमकी सत्रहवी शताब्दीमें मैथिल पण्डित भवदेवद्वारा रचित योगनिवन्ध नामक हस्तलिखित ग्रन्थ भी देखनेमें आया है, जिसमें विष्णुपुराण आदि अनेक ग्रन्थोके हवाले दे कर योगसम्बन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] संस्कृत भाषामें योगका वर्णन होनेसे सर्व साधारणकी जिज्ञासाको शान्त न देख कर लोकभाषाके योगियों ने भी अपनी अपनी जवानमें योगका अलाप करना शुरु कर दिया। महाराष्ट्रीय भाषामें गीताकी ज्ञानदेवकृत ज्ञानेश्वरी टीका प्रसिद्ध है, जिसके छठे अध्यायका भाग बडा ही हृदयहारी है। निःसन्देह ज्ञानेश्वरी द्वारा ज्ञानदेवने अपने अनुभव और वाणीको अवन्ध्य कर दिया है। सुहीरोवा · अंपिये रचित नाथसम्प्रदायानुसारी सिद्धान्तसंहिता भी __ योगके जिज्ञासुओंके लिये देखनेकी वस्तु है । ___कवीरका बीजक ग्रन्थ योगसम्बन्धी भाषासाहित्यका एक सुन्दर मणका है। अन्य योगी सन्तोंने भी भापामें अपने अपने योगानुभवकी प्रसादी लोगोंको चखाई है, जिससे जनताका बहुत बडा भाग योगके नाम मात्रसे मुग्ध बन जाता है। ___अत एव हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि प्रसिद्ध प्रत्येक प्रान्तीय भाषामें पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद तथा विवेचन आदि अनेक छोटे बडे ग्रन्थ बन गये हैं। अंग्रेजी आदि विदेशीय भाषामें भी योगशासपर अनुवाद आदि बहुत कुछ बन गया है, जिसमें वृडका भाप्यटीका सहित मूल पातञ्जल योगशास्त्रका अनुवाद ही विशिष्ट है । १ प्रो० राजेन्द्रलाल मित्र, म्यामी विवेकानंद, श्रीयुत् रामप्रसाद श्रादि कृत Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] जैन सम्प्रदाय निवृत्ति-प्रधान है । उसके प्रवर्तक भगवान् महावीरने बारह साल से अधिक समय तक मौन धारण करके सिर्फ आत्मचिन्तनद्वारा योगाभ्यासमें ही मुख्यतया जीवन बिताया। उनके हजारों शिष्य तो ऐसे थे जिन्होंने घरवार छोड कर योगाभ्यासद्वारा साधुजीवन विताना ही पसंद किया था। जैन सम्प्रदायके मौलिक ग्रन्थ आगम कहलाते हैं। उनमें साधुचर्याका जो वर्णन है, उसको देखनेसे यह स्पष्ट जान पडता है कि पांच यम; तप, स्वाध्याय आदि नियम; इन्द्रिय-जय-रूप प्रत्याहार इत्यादि जो योगके खास अङ्ग हैं, उन्हींको साधुजीवनका एक मात्र प्राण माना है। जैनशास्त्रमें योगपर यहां तक भार दिया गया है कि पहले तो वह मुमुक्षुओंको आत्मचिन्तनके सिवाय दूसरे कायोंमें प्रवृत्ति करनेकी संमति ही नहीं देता, और अनिवार्य रूपसे प्रवृत्ति करनी आवश्यक हो तो वह निवृत्तिमय प्रवृत्ति करनेको कहता है। इसी निवृत्तिमय प्रवृत्तिका नाम उसमें अष्टप्रवचनमाता है। साधुजीवनकी दैनिक और रात्रिक "उद्दसहि नमणसाहस्सीहिं छत्तीसाहिं अजिबासाहसीहिं ' उववाइसूत्र । २ देखो 'प्राचाराग. सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, मूलाचार, श्रादि । ३ देखो उत्तराध्ययन अ० २४ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] चर्यामें तीसरे प्रहरके सिवाय अन्य तीनों प्रहरी मुख्यतया स्वाध्याय और ध्यान करनेको ही कहा गया है। यह बात भूलनी न चाहिये कि जैन आगमोंमे योगअर्थमें प्रधानतया ध्यानशब्द प्रयुक्त है । ध्यानके लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अनेक जैन आगोंमें है । आगमके बाद नियुक्तिका नंबर है। उसमें भी आगमगत ध्यानका ही स्पष्टीकरण है। वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्र में भी ध्यानका वर्णन है, पर उसमें १ दिव मस्स चउरो भाए, कुजा भिक्खु विअक्खणो । तो उत्तरगुणे कुज्जा, दिणभागसु चउसु वि॥१५॥ पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयइ । तइआए गोअरकालं, पुणो चउत्यिए सज्झायं ।। १२ ॥ रत्तिं पि चउरो भाए भिक्खु कुञा विअकारणो । तओ उत्तरगुणे कुना राईभागसु च उसु दि॥ १७ । पढमं पोरिसि सज्झायं विइअं झाणं झिआयइ । तइयाए निदमोक्खं तु च उत्थिए भुजो वि सज्झायं ।। १८॥ उत्तराध्यवन अ० २६ । २ देखो स्थानाग अ०४ उद्देश १ । समवायाङ्ग स० ४। भगवती शतक-२५ उद्देश ७ | उत्तराध्ययन अ० ३०, मो०३५ ३ देखो आवश्यक नियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन गा. १४६२ -१४८६ । ४ देखो अ० ९ सू० २७ से आगे। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] आगम और नियुक्तिकी अपेक्षा कोई अधिक वात नहीं है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणका ध्यानशतक आगमादि उक्त ग्रन्थोंमे वर्णित ध्यानका स्पष्टीकरण मात्र है, यहां तकके योगविषयक जैन विचारोंमें आगमोक्त वर्णनकी शैली ही प्रधान रही है। पर इस शैलीको श्रीमान् हरिभद्रसूरिने एकदम बदलकर तत्कालीन परिस्थिति व लोकरुचिके अनुसार नवीन परिभाषा दे कर और वर्णनशैली अपूर्वसी बनाकर जैन योग-साहित्यमें नया युग उपस्थित किया। इसके सबूतमें उनके बनाये हुए योगविन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, योगशतक और पोडशक ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थोंमें उन्होंने सिर्फ जैन-सागांनुसार योगका वर्णन करके ही संतोप नहीं माना है, किन्तु पातज लयोगसूत्रमें वर्णित योगप्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओं के साथ जैन संकेतोंका मिलान भी किया है। योगदृष्टिसमुच्चयमें १ देखो हारिभद्रीय मावश्यक वृत्ति प्रतिक्रमणाध्ययन पृ०५८१ २ यह ग्रन्ध जैन ग्रन्थावलिमे उल्लिखित है पृ० ११३ । ३ समाधिरेष एवान्यैः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यकप्रकर्षरूपेण वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा ।। ४१८ ॥ असंप्रज्ञात एपोऽपि समाधिर्गीयते परैः। निरुद्धाशेपवृत्त्यादितत्त्वरूपानुवेधतः ॥४२० ॥ इत्यादि. योगविन्दु । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] योगकी आठ दृष्टियोंका जो वर्णन 'है, वह सारे योगसाहित्यमें एक नवीन दिशा है। __ श्रीमान् हरिभद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरुचि और योगविषयक व्यापक बुद्धिके खासे नमूने हैं। ___ इसके बाद श्रीमान् हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्रका नंबर आता है। उसमें पातञ्जल-योगशास्त्र-निर्दिष्ट आठ योगांगोंके क्रमसे साधु और गृहस्थ जीवनकी आचार-प्रक्रियाका जैन शैलीके अनुसार वर्णन है, जिसमें प्रासन तथा प्राणा यामसे संवन्ध रखनेवाली अनेक वातोंका विस्तृत स्वरूप है। जिसको देखनेसे यह जान पडता है कि तत्कालीन लोगोंमें हठयोग-प्रक्रियाका कितना अधिक प्रचार था । हेमचन्द्राचार्यने अपने योगशास्त्रमें हरिभद्रसूरिके योगविषयक ग्रन्थोंकी नवीन परिभाषा और रोचक शैलीका कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, पर शुभचन्द्राचार्यके ज्ञानार्णवंगत पदस्थ, पिण्डस्थ, १ मित्रा तारा वला दीपा स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ १३ ॥ इन पाठ दृष्टियों का स्वरूप, दृष्टान्त आदि विषय, योगजिज्ञासुओंके लिये देखने योग्य है। इसी विषयपर यशोविजयजीने २१, २२, २३, २४ ये चार दात्रिंशिकाये लिखी हैं । साथ ही उन्होंने संस्कृत न जाननेवालों के हितार्थ आठ दृष्टियोंकी सज्झाय भी गुजराती भाषामें बनाई है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] रूपस्थ, और रूपातीत ध्यानका विस्तृत व स्पष्ट वर्णन किया है । अन्तमें उन्होंने स्वानुभवसे विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन ऐसे मनके चार भेदोंका वर्णन करके नवीनता लानेका भी खास कौशल दिखाया है। निस्सन्देह उनका योगशास्त्र जैनतत्त्वज्ञान और जैनाचारका एक पाठ्य ग्रन्थ है। ___इसके बाद उपाध्याय-श्रीयशोविजयकृत योगग्रन्थोपर नजर ठहरती है । उपाध्यायजीका शास्त्रज्ञान, तर्ककौशल और योगानुभव बहुत गम्भीर था। इससे उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् तथा सटीक बत्तीस वत्तीसीयाँ योग संवन्धी विषयोंपर लिखी हैं, जिनमें जैन मन्तव्योंकी सूक्ष्म और रोचक मीमांसा करनेके उपरान्त अन्य दर्शन और जैनदर्शनका मिलान भी किया है। इसके सिवा १ देखो प्रकाश ७-१० तक । २ १२ वाँ प्रकाश श्लोक २-३-४। ३. अध्यात्मसारके योगाधिकार और ध्यानाधिकारमें प्रधानतया भगवद्गीता तथा पाजलसूत्रका उपयोग करके अनेक जैनप्रक्रियाप्रसिद्ध ध्यानविषयोका उक्त दोनों ग्रन्थों के साथ समन्वय किया है, जो बहुत ध्यानपूर्वक देखने योग्य है। अध्यात्मोपनिषद्के शास्त्र, ज्ञान, क्रिया और साम्य इन चारो योगोने प्रधानतया योगवाशिष्ठ तथा तैत्तिरीय उपनिषद के वाक्योंका अवतरण दे कर तात्त्विक ऐक्य बतलाया है। योगावतार बत्तीसीमें खास कर पातञ्जल योगके पदार्थोंका जैनप्रक्रियाके धनुसार स्पष्टीकरण किया है। - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] उन्होंने हरिभद्रसूरिकृत योगविंशिका तथा पोडशकपर टीका लिख कर प्राचीन गृढ तत्वोंका स्पष्ट उद्घाटन भी किया है। इतना ही करके वे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने महर्पिपतञ्जलिकृत योगसूत्रोंके उपर एक छोटीसी वृत्ति भी लिखी है। यह वृत्ति जैन प्रक्रियाके अनुसार लिखी हुई है, इसलिये उसमें यथासंभव योगदर्शनकी भित्ति-स्वरूप सांख्यप्रक्रियाका जैनप्रक्रियाके साथ मिलान भी किया है, और अनेक स्थलोंमें उसका सयुक्तिक प्रतिवाद भी किया है। उपाध्यायजीने अपनी विवेचनामें जो मध्यस्थता, गुणग्राहकता, सूक्ष्म समन्वयशक्ति और स्पष्टभापिता दिखाई है ऐसी दूसरे प्राचार्यों में बहुत कम नजर आती है। __एक योगसार नामक ग्रन्थ भी श्वेताम्बर साहित्यमें है। कर्ताका उल्लेख उसमें नहीं है, पर उसके दृष्टान्त आदि वर्णनसे जान पडता है कि हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र के १. इसके लिये उनका ज्ञानसार जो उन्होंने अंतिम जीवनमें लिखा मालूम होता है वह ध्यानपूर्वक देखना चाहिये । शास्त्रवार्तासमुच्चयकी उनकी टीका(पृ०१०)भी देखनी आवश्यक है। २ इसके लिये उनके शास्त्रबार्ताममुच्चयादि ग्रन्थ ध्यानपूर्वक देखने चाहिये, और खास कर उनकी पात खल सूत्रवृत्ति मननपूर्वक देखनेसे हमारा कथन अक्षरशः विश्वसनीय मालूम पडेगा। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] आधारपर किसी श्वेताम्बर आचार्यके द्वारा वह रचा गया है। दिगम्बर साहित्यमें ज्ञानार्णव तो प्रसिद्ध ही है, पर ध्यानसार और योगप्रदीप ये दो हस्तलिखित ग्रन्थ भी हमारे देखनेमें आये हैं, जो पचवन्ध और प्रमाणमें छोटे हैं। इसके सिवाय वेताम्बर दिगम्बर संप्रदायके योगविषयक ग्रन्थोका कुछ विशेष परिचय जैन ग्रन्थावलि पृ० १०६ से भी मिल सकता है। वस यहांतकहीमें जैन योगसाहित्य समाप्त हो जाता है। __बौद्ध सम्प्रदाय भी जैन सम्प्रदायकी तरह निवृत्तिप्रधान है। भगवान् गौतम बुद्धने बुद्धत्व प्राप्त होनेसे पहले छह वर्षतक मुख्यतया ध्यानद्वारा योगाभ्यास ही किया। उनके हजारों शिष्य भी उसी मार्ग पर चले । मौलिक वौद्धग्रन्थोंमें जैन आगमोंके समान योग अर्थमें बहुधा ध्यान शब्द ही मिलता है, और उनमें ध्यानके चार भेद नजर आते हैं। उक्त चार भेदके नाम तथा भाव प्रायः वही हैं, जो जैनदर्शन तथा योगदर्शनकी प्रक्रियामें हैं। बौद्ध सम्प्रदायमें समाधि १. सो खो अहं ब्राह्मण विविचेव कामेहि विविञ्च अकुसलेहि धम्मेहि सावितकं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पढमझानं उपसंपन्ज विहासि, वितक विचारानं वूपममा अज्झत्तं संपसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितकं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियज्मानं उपसंपज विहासि; पीतिया च विरागा उपेक्खको च Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - [३६] राज नामक ग्रन्थ भी है । वैदिक जैन और बौद्ध संप्रदायके योगविषयक साहित्यका हमने बहत संक्षेपमें अत्यावश्यक परिचय कराया है, पर इसके विशेष परिचयके लिये-कॅटलोगस् कॅटलॉगॉरम् , वो० १ पृ० ४७७ से ४८१ पर जो योगविपयक ग्रन्थोंकी नामावलि है वह देखने योग्य है। विहासिं, सतो च संपजानो सुखं च कायेन पटिसंबेदेसि, यं तं अरिया आधिक्खन्ति-उपेक्खको सतिमा सुखविहारीऽति नतियज्मानं उपसंपन्ज विहासि, सुखस्स च पहाना दुक्खस्म च पहाना पुधन सोमनस्स दोमनम्सान अत्थंगमा अदुक्रू मसुखं उपेक्खासति पारिसुद्धिं चतुत्थज्झानं उपसंपन्ज मज्झिमनिकाये भयभेखसुत्तं विहासि । इन्ही चार ध्यानोंका वर्णन दीघनिकाय सामञ्चकफलसुत्तमें है । देखा प्रो. सि. वि. राजवाडे कृत मराठी अनुवाद पृ ७२ । वही विचार प्रो. धर्मानंद कौशाम्बी लिखित बुद्ध लीलासार संग्रहमें है । देखो पृ. १२८ । __ जैनसूत्रमें शुक्लध्यानके भेदोंका विचार है, उसमें उक्त सवितर्क श्रादि चार ध्यान जैसा ही वर्णन है । देखो तत्त्वार्थ अ०६ सू० ४१-४४ । योगशा में संप्रमात समावि तथा ममापत्तिाका वर्णन है। उसमें भी उक्त सवितर्क निर्वितर्क आदि ध्यान जैसा ही विचार है । पा. सू. पा. १-१७, ४२, ४३, ४४ । १ विडारे आउटकृत लिझिगमें प्रकाशित १८९१ __ की श्रावृत्ति । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७] यहां एक बात खास ध्यान देनेके योग्य है, वह यह कि यद्यपि चैदिक साहित्यमें अनेक जगह हठयोगकी प्रथाको अग्राह्य कहाँ है. तथापि उसमें हठयोगकी प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थोंका और मागौंका निर्माण हुआ है। इसके विपरीत जैन और वौद्ध साहित्यमें हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोगका स्पष्ट निषेध भी किया है। १ उदाहरणार्थःसतीषु युक्तिप्वेतासु हठानियमयन्ति ये । चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिम्नन्ति तमोऽजनैः ॥३७॥ विमूढा कर्तुमुद्युक्ता ये हठाञ्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं बिसतन्तुभिः ॥ ३८॥ चित्तं चित्तस्य वाऽदूरं संस्थितं स्वशरीरकम् । साधयन्ति समुत्सृज्य युक्ति ये तान्हतान् विदुः ॥३६॥ ___ योगवाशिष्ठ-उपशम प्र० सर्ग ६२. २ इसके उदाहरणमें वौद्ध धर्ममें बुद्ध भगवान्ने तो शुरुमें कष्टप्रधान तपस्याका आरंभ करके अंतमे मध्यमप्रतिपदा मार्गका स्वीकार किया है-देखो बुद्धलीलासारसंग्रह. जैनशास्त्रमे श्रीभद्रवाहुत्वामिने आवश्यकनियुक्तिमे " ऊसासंण णिरुभइ " १५२० इत्यादि उक्तिसे हठयोगका ही निराकरण किया है। श्रीहेमचन्द्राचार्चने भी अपने योगशास्त्रमें Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] योगशास्त्र-ऊपरके वर्णनसे मालूम हो जाता है कि-योगप्रक्रियाका वर्णन करनेवाले छोटे बडे अनेक ग्रन्थ हैं । इन सब उपलब्ध ग्रन्थोंमें महर्षि-पतञ्जलिकृत योगशास्त्रका आसन ऊंचा है । इसके तीन कारण हैं-१ ग्रन्थकी संक्षिप्तता तथा सरलता, २ विपयकी स्पष्टता तथा पूर्णता, ३ मध्यस्थभाव तथा अनुभवसिद्धता । यही कारण है कि योगदर्शन यह नाम सुनते ही सहसा पातज्जल योगसूत्रका स्मरण हो पाता है । श्रीशंकराचार्यने अपने ब्रह्ममूत्रमाप्यमें योगदर्शनका प्रतिवाद करते हुए जो " अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " ऐसा उल्लेख किया है, उससे इस बातमें कोई संदेह नहीं रहता कि उनके सामने पातजल योगशास्त्रसे भिन्न दूसरा कोइ योगशास्त्र रहा है । क्यों कि पातञ्जल योगशास्त्रका प्रारम्भ " अथ योगानुशासनम्" इस सूत्रसे होता है, और उक्त भाप्योल्लिखित वाक्यमें भी ग्रन्थारम्भसूचक अथ शब्द है, यद्यपि उक्त भाष्यमें " तन्नाप्नोति मनःस्वास्थ्यं प्राणायामैः कदायितं । प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यात् चित्तविप्लवः ॥” इत्यादि उक्तिपे उमी वातको दोहराया है। श्रीयशोविजयजीने भी पातञ्जलयोगसूत्र की अपनी वृत्तिमें । १-३४) प्राणायामको योगका निश्चित साधन कह कर हठयोगका ही निरमन किया है। १ ब्रह्ममून २-१-३ भाप्यगत | Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] अत्यत्र और भी योगसम्बन्धी दो उल्लेख हैं, जिनमें एक तो पातञ्जल योगशास्त्रका संपूर्ण सूत्र ही है, और दूसरा उसका अविकल सूत्र नहीं, किन्तु उसके सूत्रसे मिलता जुलता है। तथापि “अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः " इस उल्लेखकी शब्दरचना और स्वतन्त्रताकी ओर ध्यान देनेसे यही कहना पडता है कि पिछले दो उल्लेख भी उसी भिन्न योगशास्त्रके होने चाहिये, जिसका कि अंश "अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः" यह वाक्य माना जाय । अस्तु, जो हमारे सामने तो पतञ्जलिका ही योगशास्त्र उपस्थित है, और वह सर्वप्रिय है । इसलिये बहुत संक्षेपमें भी उसका बाह्य तथा प्रान्तरिक परिचय कराना अनुपयुक्त न होगा। इस योगशास्त्र के चार पाद और कुल सूत्र १६५ हैं। पहले पादका नाम समाधि. दूसरेका साधन, तीसरेका विभूति, १॥ स्वाध्यावादिष्टदेवतासंप्रयोगः " ब्रह्ममूत्र १-३-३३ भाष्यगत । योगशाखप्रसिद्वा. मनसः पञ्च वृत्तयः परिगृह्यते, "प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः नाम' २-४-१२ भाष्यगत। ___प वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरने अपने ब्रह्ममूत्र रु मराठी अनुवाद के परिशिष्टमे उक्त दो उल्लेलोका योगसूत्ररूपमे निर्देश किया है. पर "थ सम्यग्दर्शनाभ्युणयो योगः" इस उल्लेबके संबंधमे कहीं भी रहापोह नहीं किया है. २ मिलायो पा. २ मू. ४४ । मिना को पा, " सू.६। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] और चोथेका कैवल्यपाद है । प्रथमपादमें मुख्यतया योगका स्वरूप, उसके उपाय और चित्तस्थिरताके उपायोंका वर्णन है । दूसरे पादमें क्रियायोग, आठ योगाङ्ग, उनके फल तथा चतुर्ग्रहका मुख्य वर्णन है ॥ तीसरे पादमें योगजन्य विभूतियोंके वर्णनकी प्रधानता है । और चोथे पादमें परिणामवादके स्थापन, विज्ञानवादके निराकरण तथा कैवल्य अवस्थाके स्वरूपका वर्णन मुख्य है । महर्षि पतञ्जलिने अपने योगशास्त्रकी नीव सांख्यसिद्धान्तपर डाली है। इसलिये उसके प्रत्येक पादके अन्तमें " योगशास्त्रे सांख्यप्रवचने” इत्यादि उल्लेख मिलता है । "सांख्यप्रवचने" इस विशेषणसे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि सांख्यके सिवाय अन्यदर्शनके सिद्धांतोंके आधारपर भी रचे हुए योगशास्त्र उस समय मौजुद थे या रचे जाते थे इस योगशास्त्रके ऊपर अनेक छोटे बडे टीका ग्रन्थ हैं, पर १ हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय ये चतुर्ग्रह करलाते हैं। इनका वर्णन सूत्र १६-२६ तकमें है। २ व्यास कृत भाष्य, वाचस्पतिकृत तत्त्ववैशारदी टीका, भोजदेवकृत राजमार्तड, नागोजीभट्ट कृत वृत्ति, विज्ञानभिक्षु कृत वार्तिक, योगचान्द्रका, मणिप्रभा, भावागणेशीय वृत्ति, बालरामोदासीन कृत टिप्पा आदि । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१] व्यासकृत भाष्य और वाचस्पतिकृत टीकासे उसकी उपादेयता बहुत बढ़ गई है। ____ सब दर्शनोंके अन्तिम साध्यके सम्बन्धमें विचार किया जाय तो उसके दो पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम पक्षका अन्तिम साध्य शाश्वत सुख नहीं है। उसका मानना है कि मुक्तिमें शाश्वत सुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, उसमें जो कुछ है वह दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति ही । दूसरा पक्ष शाश्वतिक सुखलाभको ही मोक्ष कहता है । ऐसा मोक्ष हो जानेपर दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति आप ही आप हो जाती है । वैशषिक, नैयायिक, सांख्य, योग और बौद्धदर्शन प्रथम पक्षके अनुगामी हैं । वेदान्त और जैनदर्शन, दूसरे पक्षके अनुगामी हैं। १॥ तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः "न्यायदर्शन १-१-२२ । २ ईश्वरकृष्णकारिका १ ३ उसमें हानतत्व मान कर दुःखके प्रात्यन्तिक नाशको ही हान कहा है। ४ बुद्ध भगवान के तीसरे निरोध नामक आर्यसत्यका मतलब दुःख नाशसे है । ५ वेदान्त दर्शनमें ब्रह्मको सच्चिदानंदस्वरूप माना है, इसीलिये उसमें नित्यसुखकी अभिव्यक्तिका नाम ही मोक्ष है । ६ जैन दर्शनमें भी यात्माको सुखरूप माना है, इसलिये मोक्षमें स्वाभाविक सुम्पनी 'अभिव्यक्ति ही उस दर्शनको मान्य है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२] योगशास्त्रका विषय-विभाग उसके अन्तिमसाध्यानुसार ही है। उसमें गौण मुख्य रूपसे अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हैं, पर उन सबका संक्षेपमें वर्गीकरण किया जाय तो उसके चार विभाग हो जाते हैं। १ हेय २ हेय-हेतु ३ हान ४ हानोपाय । यह वर्गीकरण स्वयं सूत्रकारने किया है। और इसीसे भाष्यकारने योगशास्त्रको चतुळहात्मक कहा है। सांख्यसूत्रमें भी यही वर्गीकरण है । बुद्ध भगवान्ने इसी चतुर्ग्रहको आर्य-सत्य नामसे प्रसिद्ध किया है। और योगशास्त्रके आठ योगाझोंकी तरह उन्होंने चौथे आर्य-सत्यके साधनरूपसे आर्य अष्टाङ्गमार्गका उपदेश किया है। __दुःख हेय है, अवियों हेयका कारण है, दुःखका १ यथा चिकित्साशास्त्रं चतुर्म्यहम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिदमपि शास्त्रं चतुर्म्यहमेव । तद्यथा-संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुलः संसारो हेयः । प्रधानपुरुपयोः संयोगो हेयहेतुः। संयोगस्यात्यन्ति की निवृत्तिहनिम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । पा० २ सू० १५ भाष्य । ____ २ सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् म्मृति और सम्यक् समाधि | बुद्धलीलासार संग्रह, पृ. १५० । ३" दुःसं हेयमनागतम् ” २-१६ यो. सू । ४ " द्रष्टदृश्ययोः पयांगो हेयहेतुः २-१७ | "तस्य हेतुरविद्या"२-२४ यो. मू. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३] आत्यन्तिक नाश हान है, और विवेक-ख्याति हानका उपार्य है। ___उक्त वर्गीकरणकी अपेक्षा दूसरी रीतिसे भी योगशासका विषय-विभाग किया जा सकता है। जिससे कि उसके मन्तव्योंका ज्ञान विशेष स्पष्ट हो । यह विभाग इस प्रकार है-१ हाता २ ईश्वर ३ जगत् ४ संसार- मोक्षका स्वरूप, और उसके कारण। १ हाता दुःखसे छुटकारा पानेवाले द्रष्टा अर्थात् चेतनका नाम है। योग-शास्त्रमें सांख्य वैशेषिक, नैयायिक, नौद्ध, जैन और पूर्णप्रज्ञ (मज़) दर्शनके समान द्वैतवाद १ "तदभावात् संयोगाभावो हानं वद् दृशेः कैवल्यम्" २-२६ यो. सू। २ " विवेकख्यातिरविलवा हानोपायः " २-२६. यो. सू । ३ "पुरुषबहुत्वं सिद्ध" ईश्वरकृष्णकारिका१८ । ४" व्यवस्थातो नाना "-३-२-२०-वैशेषिकदर्शन । ५ "पुद्गलजीवास्त्वनेकद्रव्याणि"-५-५. तत्त्वार्थसूत्र-भाष्य । ६ जीवेश्वरभिदा चैव जडेश्वरभिदा तथा । जीवभेदो मिधश्चैव जडजीवभिदा तथा ।। मिथच जडभेदो यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः । सोऽयं सत्योऽयनादिश्व सादिश्वेन्नाशमाप्नुयात् ।। सर्वदर्शनसंग्रह पूर्णप्रदर्शन ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] अर्थात अनेक चेतन माने गये हैं । योगशास्त्र चेतनको जैन दर्शनकी तरहे देहप्रमाण अर्थात् मध्यमपरिमाणवाला नहीं मानता, और मध्वसम्प्रदायकी तरह अणुप्रमाण भी नहीं मानता, किन्तु सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक और शांकरवेदान्त की तरह वह उसको व्यापक मानता है । इसी प्रकार वह चेतनको जैनदर्शनकी तरह परिणामि १ " कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात्” २-२२ यो. सू. । २. “ असंख्येयभाग्गादिषु जीवानाम् " | १५ | " प्रदेश संहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत् " १६ - तत्त्वार्थसूत्र श्र० ५ । ३. देखो " उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम्” । ब्रह्मसूत्र २-३-१८ पूर्ण भाष्य । तथा मिलान करो अभ्यंकरशाखी कृत मराठी शांकरभाष्य अनुवाद भा. ४ पृ. १५३ टिप्पण ४६ । ४. " निष्क्रियस्य तदसम्भवात् " सां. सू. १-४६. निष्क्रियस्य - विभोः पुरुषस्य गत्यसम्भवात् - भाग्य विज्ञानभित्तु । ५. विभवान्महानाकाशस्तथा चात्मा । " ७-१-२२- वै. द. ६. देखो . सू. २-३ - २९० भाग्य | ७. इसलिये कि योगशास्त्र श्रात्मस्वरूप के विषय में सांख्यसिद्धान्तानुसारी है । ८. “ नित्यावस्थितान्यरूपाणि " ३ " उत्पादव्ययत्रौव्ययुक्तं सत् "| २६ | "तद्भावाव्ययं नित्यम्” ३० | तत्त्वार्थसूत्र श्र० ५ भाष्य सहित Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५] नित्य नहीं मानता, और न वौद्ध दर्शनकी तरह उसको क्षणिक-अनित्य ही मानता है, किन्तु सांख्य आदि उक्त शेष दर्शनोंकी तरह वह उसे कूटस्थ-नित्य मानता है । २ ईश्वरके सम्बन्धमें योगशास्त्रका मत सांख्य दर्शनसे भिन्न है । सांख्य दर्शन नाना चेतनोंके अतिरिक ईश्वरको नहीं मानता, पर योगशास्त्र मानता है। योगशास्त्र-सम्मत ईश्वरका स प नैयायिक, वैशेषिक आदि दर्शनोंमें माने गये ईश्वरस्वरूपसे कुछ भिन्न है। योगशाखने ईश्वरको एक अलग व्यक्ति तथा शास्त्रोपदेशक माना है सही, पर उसने नैयायिक आदिकी तरह ईश्वरमें नित्यज्ञान, नित्यईच्छा और नित्यकृतिका सम्बन्ध न मान कर इसके स्थानमें सत्त्वगुणका १. देखो ई० कृ० कारिका ६३ सांख्यतस्वकौमुदी । देखो न्यायदर्शन ४-१-१० । देखो ब्रह्मसूत्र २-१-१४ । २-१-२७ । शांकरभाष्य सहित ।। २. देखो योगसूत्र. " सदाज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्य अपरिणामित्वात्” ४-१८ । “चितेरप्रतिसंक्रमायास्तदाऽकारापत्ती स्वबुद्धिसंवेदनम्"४-२२ । तथा " द्वयी चेयं नित्यता, कूटस्थनित्यता, परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम" इत्यादि ४-३३-भाष्य । ३ देखो सांस्यसूत्र १-६२ आदि । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] परमप्रकर्ष मान कर तद्द्वारा जगत् उद्धारादिकी सव व्यवस्था घटा दी है । ३ योगशास्त्र दृश्य जगत्‌को न तो जैन, वैशेषिक, नैयायिक दर्शनों की तरह परमाणुका परिणाम मानता है, न शांकरवेदान्तदर्शनकी तरह ब्रह्मा विचर्त या ब्रह्मका परिणाम ही मानता है, और न बौद्धदर्शनकी तरह शून्य या विज्ञानात्मक ही मानता है, किन्तु सांख्य दर्शनकी तरह वह उसको प्रकृतिका परिणाम तथा अनादि-अनन्त - प्रवाहस्वरूप मानता है । ४ योगशास्त्रमें वासना, क्लेश और कर्मका नाम ही संसार, तथा वासनादिका अभाव अर्थात् चेतनके स्वरूपावस्थानका नाम ही मोक्षं है । उसमें संसारका मूल कारण अविद्या और मोक्षका मुख्य हेतु सम्यग्दर्शन अर्थात् योगजन्य विवेकख्याति माना गया है । महर्षि पतञ्जलिक दृष्टिविशालता - यह पहले १ यद्यपि यह व्यवस्था मूल योगसूत्र में नहीं है, परन्तु भाष्यकार तथा टीकाकारने इसका उपपादन किया है | देखो पातञ्जल यो. सू. पा. १ सू. २४ भाग्य तथा टीका । २ तदा द्रष्टुः स्वरूपावस्थानम् । १-३ योगसूत्र | Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७] कहा जा चुका है कि सांख्य सिद्धान्त और उसकी प्रक्रियाको ले कर पतञ्जलिने अपना योगशास्त्र रचा है, तथापि उनमें एक ऐसी विशेषता अर्थात् दृष्टिविशालता नजर आती है जो अन्य दार्शनिक विद्वानोंमें बहुत कम पाई जाती है। इसी विशेषताके कारण उनका योगशास्त्र मानों सर्वदर्शनसमन्वय बन गया है । उदाहरणार्थ सांख्यका निरीश्वरवाद जब वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनोंके द्वारा अच्छी तरह निरस्त हो गया और साधारण लोक-स्वभावका झुकाव भी ईश्वरोपासनाकी ओर विशेष मालूम पडा, तब अधिकारिभेद तथा रूचिविचित्रताका विचार करके पतञ्जलिने अपने योगमार्गमें ईश्वरोपासनाको भी स्थान दिया, और ईश्वरके स्वरूपका उन्होंने निष्पक्ष भावसे ऐसा निरूपणे किया है जो सवको मान्य हो सके। पतञ्जलिने सोचा कि उपासना करनेवाले सभी लोगोंका साध्य एक ही है, फिर भी वे उपासनाकी भिन्नता और उपासनामें उपयोगी होनेवाली प्रतीकोंकी भिन्नताके व्या १ "ईश्वरप्रणिधानाद्वा” १-३३ । २ ॥ सेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः" "तत्र निरतिशयं सर्वज्ञवीजम्"। "पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् " । (१-२४, २५, २६) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] मोहमें अज्ञानवश आपस आपसमें लड मरते हैं, और इस धार्मिक कलहमें अपने साध्यको लोक भूल जाते है। लोगोंको इस अज्ञानसे हटा कर सत्पथपर लानेके लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसीका ध्यान करो । जैसी प्रतीक तुम्हें पसंद आये वैसी प्रतीककी ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो। और तद्द्वारा परमात्म-चिन्तनके सच्चे पात्र बनों। इस उदारताकी मूर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेशके द्वारा पतञ्जलिने सभी उपासकोंको योग-मार्गमें स्थान दिया, और ऐसा करके धर्मके नामसे होनेवाले कलहको कम करनेका उन्होंने सच्चा मार्ग लोगोंको बतलाया । १ " यथाऽभिमतध्यानाद्वा" १-३६ इसी भावकी सूचक महाभारतमेंध्यानमुत्पादयत्यत्र, संहितावलसंश्रयात् यथाभिमतमन्त्रेण, प्रणवाद्यं जपेत्कृती ॥ शान्तिपर्व प्र. १६४ श्लो. २० यह उक्ति है । और योगवाशिष्टमें यथाभिवाञ्छितध्यानाचिरमेकतयोदितात् । एकतत्त्वघनाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।। ___ उपशम प्रकरण सर्ग ७८ श्लो. १६ । यह उक्ति है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ ] उनकी इस दृष्टिविशालताका असर अन्य गुण - ग्राही याचायपर भी पड़ा, और वे उस मतभेदसहिष्णुताके तत्त्वका मर्म समझ गये । १. पुष्पैश्च बलिना चैव वस्त्रैः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौचश्रद्धासमन्वितम् ॥ श्रविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत्सर्वे देवा महात्मनाम् || सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गायतितरन्ति ते ॥ चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः । नान्यथाष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ॥ गुणाधिक्यपरिज्ञानाद्विशेषेऽप्येतदिष्यते । द्वेषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ॥ योगविन्दु लो. १६ - २० जो विशेषदर्शी होते हैं, वे तो कीसी प्रतीक विशेष या उपासना विशेषको स्वीकार करते हुए भी अन्य प्रकारकी प्रतीक माननेवालों या 'अन्य प्रकारकी उपासना करनेवालोंसे द्वेष नहीं रखते, पर जो धर्माभिमानी प्रथमाधिकारी होते हैं वे प्रतीकभेद या उपासनाभेद के व्यामोह से ही आपस में लड मरते हैं । इस अनिष्ट तत्वको को दूर करनेके लिये ही श्रीमान् हरिभद्रसूरिने उक्त पद्यों में प्रथमाधिकारी के लिये सब देवोंकी उपासनाको लाभदायक बत Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५० ] वैशेषिक, नैयायिक आदिकी ईश्वरविषयक मान्यताका तथा साधारण लोगोंकी ईश्वरविषयक श्रद्धाका योगमार्ग में उपयोग करके ही पतञ्जलि चुप न रहे, पर उन्होंने वैदिके ज्ञानेका उदार प्रयत्न किया है । इस प्रयत्नका अनुकरण श्रीयशोविजयजीने भी अपनी " पूर्वसेवाद्वात्रिंशिका " " आठदृष्टियोंकी सज्झाय " आदि ग्रन्थोंमें किया है । एकदेशीयसम्प्रडायाभिनिवेशी लोगोंको समजानेके लिये ' चारिसंजीवनीचार ' न्यायका उपयोग उक्त दोनों आचार्यों ने किया है । यह न्याय ar मनोरञ्जक और शिक्षाप्रद है । इस समभावसूचक दृष्टान्तका उपनय श्रीज्ञानविमलने आठदृष्टिकी समय पर किये हुए अपने गूजराती टबेमें बहुत अच्छी तरह घटाया है, जो देखने योग्य है । इसका भाव संक्षेपमें इस प्रकार है । कीसी खीने अपनी सखीसे कहा कि मेरा पति मेरे अधीन न होनेसे मुझे बडा कष्ट है, यह सुन कर उस आगन्तुक सखीने कोई जड़ी खिला कर उस पुरुषको बैल बना दिया, और वह अपने स्थानको चली गई । पतिके बैल बनजानेसे उसकी पत्नी दुःखित हुई, पर फिर वह पुरुषरूप बनाने का उपाय न जाननेके कारण उस बैलरूप पतिको चराया करती थी, और उसकी सेवा किया करती थी । कोसी समय अचानक एक विद्याधरके मुखसे ऐसा सुना कि अगर बैलरूप पुरुपको संजीवनी नामक जडी चराई जाय तो वह फिर असली रूप Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १ [ ५१] तर दर्शनोंके सिद्धान्त तथा प्रक्रिया जो योगमार्गके लिये सर्वथा उपयोगी जान पडी उसका भी अपने योगशास्त्रमें बडी उदारतासे संग्रह किया। यद्यपि वौद्ध विद्वान् नागार्जुनके विज्ञानवाद तथा आत्मपरिणामित्ववादको युक्तिहीन समझ कर या योगमार्गमें अनुपयोगी समझ कर उसका निरसन चौथे पादमें किया है, तथापि उन्होंने बुद्धभगवान्के परमप्रिय चार भार्यसत्योंका हेय, हेयहेतु, हान और होनोपाय रूपसे स्वीकार निःसंकोच भावसे अपने योगशास्त्रमें किया है। धारण कर सकता है। विद्याधरसे यह भी सुना कि वह जडी अमुक वृक्षके नीचे है, पर उस वृक्षके नीचे अनेक प्रकारकी वनस्पति होनेके कारण वह स्त्री संजीवनीको पहचाननेमें असमर्थ थी । इससे उस दुःखित स्त्रीने अपने बैलरूपधारि पतिको सब वनस्पतियाँ चरा दी । जिनमें सजीवनीको भी वह वैल चर गया, और बैलरूप छोड कर फिर मनुष्य बन गया। जैसे विशेष परीक्षा न होने के कारण उस स्त्रीने सब वनस्पतियोंके साथ संजीवनी खिला कर अपने पतिका कृत्रिम बैलरूप छुडाया, और असली मनुप्यत्वको प्राप्त कराया, वैसे ही विशेष परीक्षाविकल प्रथमाधिकारी भी सब देवोंकी समभावसें उपासना करते करते योगमार्गमें विकास करके इष्ट लाभ कर सकता है । १ देखो सू० १५, १८ । २ दुःख, समुदय, निरोध सौर मार्ग | Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२] २ _ जैव दर्शनके साथ योगशास्त्रका सादृश्य तो अन्य सब दर्शनोंकी अपेक्षा अधिक ही देखनेमें आता है। यह बात स्पष्ट होनेपर भी बहुतोंको विदित ही नहीं है, इसका सबब यह है कि जैनदर्शनके खास अभ्यासी ऐसे बहुत कम हैं जो उदारता पूर्वक योगशास्त्रका अवलोकन करनेवाले हों, और योगशास्त्रके खास अभ्यासी भी ऐसे बहुत कम हैं जिन्होंने जैनदर्शनका बारीकीसे ठीक ठीक अवलोकन किया हो । इसलिये इस विषयका विशेष खुलासा करना यहाँ अप्रासङ्गिक न होगा। __ योगशास्त्र और जैनदर्शनका सादृश्य मुख्यतया तीन प्रकारका है । १ शब्दका, २ विपयका और ३ प्रक्रियाका । १ मूल योगसूत्रमें ही नहीं किन्तु उसके भाष्यतकमें ऐसे अनेक शब्द हैं जो जैनेतर दर्शनोंमें प्रसिद्ध नहीं हैं, या वहुत कम प्रसिद्ध हैं, किन्तु जैन शास्त्रमें खास प्रसिद्ध हैं। जैसे-भवप्रत्यय, सवितर्क सविचार निर्विचार, महाव्रत, कृत १ "भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्" योगसू. १-१६ । " भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ” तत्त्वार्थ श्र. १-२२ । २ ध्यानविशेषरूप अर्थमें ही जैनशास्त्रमें ये शब्द इस प्रकार हैं " एकाश्रये सविव पूर्वे" ( तत्त्वार्थ अ. ९-४३)" वत्र Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LJ कारित अनुमोदित, प्रकाशौवरण, सोपक्रम निरूपकर्म, वज्रसंसविचारं प्रथमम् " भाष्य " अविचारं द्वितीयम् " तत्त्वा-श्र ६-४४ | योगसूत्रमें ये शब्द इस प्रकार आये हैं--"तत्र शव्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्ति: " " स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितकी" "एतयैव सविचारा निर्विचारा व सूक्ष्मविषया व्याख्याता " १ - ४२, ४३, ४४ । ३ जैनशास्त्रमे मुनिसम्बन्धी पाँच यमोंके लिये यह शब्द बहुत ही प्रसिद्ध है । " सर्वतो विरतिर्महाव्रतमिति " तत्त्वार्थ अ० ७-२ भाष्य | यही शब्द उसी अर्थ में योगसूत्र २ - ३१ में है । ४ ये शब्द जिस भाव के लिये योगसूत्र २-३१ मे प्रयुक्त हैं, उसी भाव में जैनशास्त्र में भी आते है, अन्तर सिर्फ इतना है कि जैनप्रन्धोमे अनुमोदित के स्थान में बहुधा अनुमतशब्द प्रयुक्त होता है । देखो - तत्त्वार्थ, अ, ६-६ । ५ यह शब्द योगसूत्र २ - ५२ तथा ३ - ४३ में है । इसके स्थानमें जैनशास्त्र में 4 ज्ञानावरण शब्द प्रसिद्ध है । देखो तत्त्वार्थ, अ. ६-११ आदि । 1 ६ ये शब्द योगसूत्र ३ - २२ में है । जैन कर्मविषयक साहित्यमें ये शब्द बहुत प्रसिद्ध है । तत्त्वार्थमें भी इनका प्रयोग हुआ है, देखो - प्र. २ - ५२ भाष्य | ७ यह शब्द योगसूत्र ( ३-४६ ) में प्रयुक्त है । इसके स्थान में जैन ग्रन्थोंमे वज्रऋषभनाराचसंहनन' ऐसा शब्द मिलता है । देखो तत्त्वार्थ (०८-१२) भाष्य | • Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनन, केवली, कुशल, ज्ञानावरणीयकर्म, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सर्व, क्षीणक्लेश, चरमदेह आदि । ___ २ प्रसुप्त, तनु आदिक्लेशावस्था, पाँच यम, योगज १ योगसूत्र (२-२७) भाष्य, तत्त्वार्थ (अ० ६-१४ ) । २ देखो योगसूत्र (२-२७) भाष्य, तथा दशवैकालिकनियुक्ति गाथा १८६ । ३ देखो योगसूत्र (२-५१ ) भाष्य, तथा अावश्यकनियुक्ति गाथा ८६३ । ४ योगसूत्र (२-२८) भाष्य, तत्त्वार्थ (अ० १-१) । ५ योगसूत्र (४-१५) भाष्य, तत्त्वार्थ (अ० १-२) । ६ योगसूत्र ( ३-४९) भाष्य, तत्त्वार्थ (३-४९) । ७ योगसूत्र (१-४) भाष्य । जैन शास्त्रमें बहया क्षीणमोह 'तीणकपाय' शब्द मिलते हैं। देखो तत्त्वार्थ (अ०९-३८)। ८ योगसूत्र (२-४) भाष्य, तत्त्वार्थ (अ० २-५२)। ६ प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार इन चार अवस्थाओं का योगसूत्र (२-४ ) में वर्णन है । जैनशास्त्रमें वही भाव मोहनीयकर्मकी सत्ता, उपशमक्षयोपशम, विरोधिप्रकृतिके उदयादिकृत व्यवधान और उदयावस्थाके वर्णनरूपमे वर्तमान है। देखो योगसूत्र (२-४) की यशोविजयकृत वृत्ति । १० पाँच यनोंका वर्णन महाभारत आदि प्रन्थोमें है मदी, पर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५५] न्य विभूति, सोपक्रम निरुपमक्रम कर्मका स्वरूप, तथा उसके उसकी परिपूर्णता " जातिदेशकालसमयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् " (योगसूत्र २-३१) मे तथा दशवैकालिक अध्ययन ४ आदि जैनशाखप्रतिपादित महावतोंमे देखनेमें भाती है। १ योगसूत्रके तीसरे पादमें विभूतियोंका वर्णन है, वे विभूतियाँ दो प्रकारकी हैं । १ वैज्ञानिक २ शारीरिक । अतीताऽनागतज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, परचित्तज्ञान, भुवनज्ञान, तारान्यूहज्ञान, आदि ज्ञानविभूतियाँ हैं । अन्तर्धान, हस्तिवल, परकायप्रवेश, प्रणिमादि ऐश्वर्य तथा रूपलावण्यादि कायसंपत, इत्यादि शारीरिक विभूतियाँ हैं । जैनशास्त्रमें भी अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, जातिस्मरणज्ञान, पूर्वज्ञान आदि ज्ञानलब्धियां है, और भामौषधि, विद्युडौषधि, श्लेष्मौषधि, सौंषधि, जंघाचारण, विद्याधारण, वैक्रिय, आहारक श्रादि शारीरिक लब्धिया है। देखो आवश्यकनियुक्ति (गा० ६६, ७०) लन्धि यह विभूतिका नामान्तर है। २ योगभाज्य और जैनग्रन्थोंमें सोपक्रम निरुपक्रम पायधर्मका स्वरूप बिल्कुल एकसा है, इतना ही नहीं बल्कि उस स्वरूपको दिखाते हुए भाष्यकारने ( यो. सू. ३-२२ ) के भाप्यमें प्रार्द्र वस्त्र और रणराशिके जो दो दृष्टान्त लिखे हैं, वे भावश्यकनियुक्ति ( गाथा-६५६ ) तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा-३.६१ ) आदि जैनशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं, पर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५६) __ दृष्टान्त, अनेक कार्योंका निर्माण आदि । तत्त्वार्थ (१० -२५२) के भाष्यमें उक्त दो दृष्टान्तोंके उपरान्त एक तीसरा गणितविषयक दृष्टान्त भी लिखा है । इस विषयमें उक्त व्यासभाष्य और तत्त्वार्थभाष्यका शाब्दिक सादृश्य भी बहुत अधिक और अर्थसूचक है। " यथाऽऽर्द्रवस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुष्येत् तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सपण्डितं चिरेण संशुष्येद् एवं निरुपक्रमम् । यथा चाग्निः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन वा समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत् तथा सोपक्रमम् । यथा वा स एवाऽग्निस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्चिरेण दहेत् तथा निरुपक्रमम (योग. ३-२२) भाष्य | यथाहि संहतस्य शुष्कस्यापि तृणराशेरवयवशः क्रमेण दह्यमानस्य चिरेण दाहो भवति, तस्यैव शिथिलप्रकीर्णोपचितस्य सर्वतो युगपदादीपितस्य पवनोपक्रमाभिहतस्याशु दाहो भवति, तद्वत् । यथा वा संख्यानाचार्यः करणलाघवार्थ गुणकारभागहाराभ्यां राशिंछेदादेवापवर्तयति न च संख्येयस्यार्थस्याभावो भवति,तद्वदुपक्रमाभिहतो मरणसमुद्घातदुःखातः कर्मप्रत्ययमनाभोगयोगपूर्वकं करणविशेपमुत्पाद्य फलोपभोगलाघवार्थ कर्मापवर्तयति न चास्य फलाभाव इति ॥ किं चान्यत् । यथा वा धौतपटो जलार्द्र एव संहतश्चिरेण शोपमुपयाति । स एव च वितानित: सर्गरश्मिवाय्वाभिहतः क्षिप्रं शोपमुपयाति । (अ०२-५२ भाष्य)। १ योगबलमे योगी जो अनेक शरीगेंका निर्माण करता Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] ३ परिणामि-नित्यता अर्थात् उत्पाद्, व्यय, धान्यरूपसे त्रिरूप वस्तु मान कर तदनुसार धर्मधर्मीका विवेचन इत्यादि । इसी विचारसमता के कारण श्रीमान हरिभद्र जैसे जैनाचायने महर्षि पतञ्जलि के प्रति अपना हार्दिक आदर प्रकट करके अपने योगविषयक ग्रन्थोंमें गुणग्राहकताका निर्भीक है, उसका वर्णन योगसूत्र ( ४-४ ) में है, यही विषय वैक्रिय - श्राहारक- लब्धिरूप से जैनप्रन्थों में वर्णित है । १ जैनशास्त्रमे वस्तुको द्रव्यपर्यायस्वरूप माना है । इसीलिये उसका लक्षण तत्त्वार्थ ( ० ५ - २६ ) में " उत्पादव्ययौव्ययुक्तं सत् " ऐसा किया है । योगसूत्र ( ३- १३, १४ ) में जो धर्मधर्मीका विचार है वह उक्त द्रव्यपर्यायउभयरूपता किंवा उत्पाद, व्यय, धौव्य इस त्रिरूपताका ही चित्रण है । भिन्नता सिर्फ दोनों में इतनी ही है कि - योगसूत्र सांख्यसिद्धान्तानुसारी होनेसे " ऋते चितिशक्तेः परिणामिनो भावा: " यह सिद्धान्त मानकर परिणामवादका अर्थात् धर्मलक्षणावस्थापरिगामका उपयोग सिर्फ जडभागमें अर्थात् प्रकृतिमे करता है, चेतन में नहीं । और जैनदर्शन तो "सर्वे भावाः परिणामिनः " ऐसा सिद्धान्त मानवर परिणामवाद अर्थात् उत्पादव्ययरूप पर्यायका उपयोग जड चेतन दोनोमें करता हैं । इतनी भिन्नता होनेपर भी परिणामवादकी प्रक्रिया दोनोंमें एक सी है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [५८] परिचय पूरे तोरसे दिया है, और जगह जगह पतञ्जलिके योगशास्त्रगत खास साङ्केतिक शब्दोंका जैन सङ्केतोंके साथ मिलान करके सङ्कीर्ण-दृष्टिवालोंके लिये एकताका मार्ग खोल दिया है । जैन विद्वान् यशोविजयवाचकने हरिभद्रसरिसूचित एकताके मार्गको विशेष विशाल बनाकर पतञ्जलिके योगसूत्रको जैन प्रक्रियाके अनुसार समझानेका थोडा किन्तु मार्मिक प्रयास किया है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बत्तीसियोंमें उन्होंने पतञ्जलिके योगसूत्रगत कुछ विषयोंपर खास वत्तीसियाँ भी रची हैं। इन सब बातोंको संक्षेपमें बतलानेका १ उक्तं च योगमार्गहस्तपोनिधूतकल्मपैः। __ भावियोगहितायोचैर्मोहदीपसमं वचः॥ ( योग. वि. श्लो. ६६) टीका 'उक्तं च निरूपितं पुनः योगमार्गरध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिः' ।। एतत्प्रधानः सच्छाद्वः शीलवान् योगतत्परः । जानात्यतीन्द्रियानांस्तथा चाह महामतिः " ।। ( योगदृष्टिममुच्चय श्लो १०० ) टीका ' तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः '। ऐसा ही भाव गुणग्राही श्रीयशोविजय जीने अपनी योगावतारद्वात्रिंशिकामें प्रकाशित किया है। देखो-लो. २० टीका। २ देखो योगविन्दु श्लोक ४१८, ४२० । ३ देखो उनकी बनाई हुई पातञ्जलसूत्रवृत्ति । ४ देवो पातञ्जलयोगलक्षाविचार, ईशानुग्रहविचार, योगावतार, लेशहानोपाय और योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६ ] उद्देश्य यही है कि महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टिविशालता इतनी अधिक थी कि सभी दार्शनिक व साम्प्रदायिक विद्वान् योगशास्त्र के पास आते ही अपना साम्प्रदायिक अभिनिवेश भूल गये और एकरूपताका अनुभव करने लगे। इसमें कोई संदेह नही कि - महर्षि पतञ्जलिकी दृष्टि - विशालता उनके विशिष्ट योगानुभवका ही फल है, क्योंकि जब कोई भी मनुष्य शब्दज्ञानकी प्राथमिक भूमिकासे आगे बढ़ता है तब वह शब्दकी पूंछ न खीचकर चिन्ताज्ञान तथा भावनाज्ञानके उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकतावाले प्रदेशमें अभेदानंदका अनुभव करता है । आचार्य हरिभद्रकी योगमार्ग में नवीन दिशा - श्रीहरिभद्र प्रसिद्ध जैनाचायों में एक हुए । उनकी बहुश्रुतता. सर्वतोमुखी प्रतिभा, मध्यस्थता और समन्वयशक्तिका पूरा परिचय करानेका यहाॅ प्रसंग नहीं है । इसके - लिये जिज्ञासु महाशय उनकी कृतियोंको देख लेवें । हरिभद्रहरिकी शतमुखी प्रतिभा के स्रोत उनके बनाये हुए चार १ शब्द चिन्ता तथा भावनाज्ञानका स्वरूप श्रीयशोविजयजीने अध्यात्मोपनिषद् में लिखा है, जो आध्यात्मिक लोगोंको देखने योग्य है अध्यात्मोपनिषद् लो, ६५, ७४ । २ द्रव्यानुयोगविषयक - धर्म संग्रहणी आदि १, गणितानुयोगविषयक - क्षेत्रसमास टीका आदि २, चरकरणानुयोग Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] अनुयोगविषयक ग्रन्थोंमें ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भारतवर्षीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धांतों की चर्चावाले ग्रन्थोंमें भी बहे हुए हैं । इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई, उसने योगमार्ग में एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्य में ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्य में एक नई वस्तु है । जैनशास्त्र में आध्यात्मिक विकासके क्रमका प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूपसे, चार ध्यान रूपसे और बहिरात्म आदि तीन अवस्था के रूपसे मिलता है । हरिभद्रसूरिने उसी आध्यात्मिक विकासके क्रमका योगरूपसे वर्णन किया है । पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्य में से किसी भी ग्रंथमें कमसे कम हमारे देखने में तो नहीं आई है । हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थोंमें अनेके योगियोंका नामनिर्देश करते हैं । एवं योगविषयक ग्रन्थों का उल्लेख करते विषयक - पञ्चवस्तु, धर्मविन्दु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयकसमराइचकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य है । १ अनेकान्तजयपताका, पड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्त्तासमुचय आदि । २ गोपेन्द्र ( योगबिन्दु श्लोक. २००) कालातीत ( योगविन्दु श्लोक ३००) । पतञ्जलि, भदन्तभास्करवन्धु, भगवदन्त ( त ) बादी ( योगदृष्टि० श्लोक १६ टीका ) | ३ योगनिर्णय आदि ( योगदृष्टि० श्लोक १ टीका ) | Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ ] हैं जो अभी प्राप्त नहीं भी हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थोंमें उनके वर्णनकी सी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है । इस समय हरिभद्रसूरि के योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो हमारे देखने में आये हैं । उनमें से पोडशक और योगविंशिका के योगवर्णनकी शैली और योगवस्तु एक ही है । योगबिंदुकी विचारसरणी और वस्तु योग विंशिका से जुदा है । योगदृष्टिसमुच्चयकी विचारधारा और वस्तु योगबिंदु से भी जुदा है । इस प्रकार देखनेसे यह कहना पडता है कि हरि - भद्रसूरिने एक ही आध्यात्मिक विकासके क्रमका चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें भिन्न भिन्न वस्तुका उपयोग करके तीन प्रकारसे खींचा है । कालकी अपरिमित लंबी नदीमें वासनारूप संसारका गहरा प्रवाह बहता है, जिसका पहला छोर ( मूल ) तो घनादि है, पर दूसरा (उत्तर) छोर सान्त है । इसलिये मुमुक्षुमौके वास्ते सबसे पहले यह प्रश्न बडे महत्त्वका है कि उक्त नादि प्रवाह में आध्यात्मिक विकासका आरंभ कब से होता है और उस आरंभके समय आत्माके लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि आरंभिक आध्यात्मिक विकास जाना जा सके। इस प्रश्नका उत्तर आचार्यने योगविदुमें दिया है । वे कहते कि - " जब आत्माके ऊपर मोहका प्रभाव घटनेका आरंभ होता है, तभी आध्यात्मिक विकासका सूत्रपात हो जाता Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२] है । इस सूत्रपातका पूर्ववर्ती समय जो आध्यात्मिकविकासरहित होता है, वह जैनशास्त्रमें अचरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है । और उत्तरवर्ती समय जो आध्यात्मिक विकासके क्रमवाला होता है, वह चरमपुद्गलपरावर्तके नामसे प्रसिद्ध है। अचरमपुद्गलपरावर्तन और चरमपुद्गलपरावर्तनकालके परिमाणके बीच सिंधु और बिंदुका सा अंतर होता है । जिस आत्माका संसारप्रवाह चरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण शेप रहता है. उसको जैन परिभाषामें 'अपुनबंधक' और सांख्यपरिभाषामें 'निवृत्ताधिकार प्रकृति' कहते हैं । अपुनर्वन्धक या निवृत्ताधिकार प्रकृति आत्माका आंतरिक परिचय इतना ही है कि उसके ऊपर मोहका दबाव कम होकर उलटे मोहके ऊपर उस आत्माका दबाव शुरू होता है । यही आध्यात्मिक विकासका वीजारोपण है। यहींसे योगमार्गका प्रारंभ हो जानेके कारण उम आत्माकी प्रत्येक प्रवृत्तिमें सरलता, नम्रता, उदारता, परोपकारपरायणता आदि सदाचार वास्तविकरूपमें दिखाई देते हैं । जो उस विकासोन्मुख अात्माका वाह्य परिचय है"। इतना उत्तर देकर आचार्यने योगके आरंभसे लेकर योगकी पराकाष्टा तकके आध्यात्मिक विकासको क्रमिक वृद्धिको स्पष्ट समझानेके लिये उसको १ देखो मुक्त्यद्वेपद्वात्रिंशिका २८ | २ देखो योगविंदु १७८, २०१ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] पाँच भूमिकाओंमें विभक्त करके हर एक भूमिकाके लक्षण बहुत स्पष्ट दिखाये हैं । और जगह जगह जैन परिभाषाके साथ बौद्ध तथा योगदर्शनकी परिभाषाका मिलान करके परिभाषाभेदकी दिवारको तोडकर उसकी ओटमें छिपी हुई योगवस्तुकी भिन्नभिन्नदर्शनसम्मत एकरूपताका स्फुट प्रदर्शन कराया है । अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय ये योगमार्गकी पॉच भूमिकायें हैं। इनमेंसे पहली चारको पतंजलि संप्रज्ञात, और अन्तिम भूमिकाको असंग्रज्ञात कहते हैं । यही संक्षेपमें योगविन्दुकी वस्तु है । __योगदृष्टिसमुच्चयमें आध्यात्मिक विकासके क्रमका वर्णन योगबिन्दुकी अपेक्षा दूसरे ढंगसे है। उसमें आध्यात्मिक विकासके प्रारंभके पहलेकी स्थितिको अर्थात् अचरमपुद्गलपरावर्त्तपरिमाण संसारकालीन आत्माकी स्थितिको अोषदृष्टि कहकर उसके तरतम् भावको अनेक दृष्टांत द्वारा समझाया १ योगबिंदु, ३१, ३५७, ३५६, ३६१, ३६३, ३६५ । २ "यत्सम्यग्दर्शनं बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः । लत्त्वोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तद्धन्तैपोऽन्वर्थतोऽपि हि ॥२७३। वरबोधिसमेतो वा तीर्थकृद्यो भविष्यति । तथाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः"॥२७४।। योगविन्दु । ३ देखो योगविंदु ४५८. ४२० । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४] है, और पीछे आध्यात्मिक विकासके आरंभसे लेकर उसके अंततकमें पाई जानेवाली योगावस्थाको योगदृष्टि कहा है। इस योगावस्थाकी क्रमिक वृद्धिको समझानेके लिये संक्षेपमें उसे आठ भूमिकाओं में बाँट दिया है। वे आठ भूमिकायें उस ग्रन्थमें आठ योगदृष्टिके नामसे प्रसिद्ध हैं । इन आठ दृष्टिोंका विभाग पातंजलयोगदर्शन-प्रसिद्ध यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि आठ योगांगोंके आधार पर किया गया है, अर्थात् एक एक दृष्टि में एक एक योगांगका सम्बन्ध मुख्यतया बतलाया है। पहली चार दृष्टिऑ योगकी प्रारम्भिक अवस्थारूप होनेसे उनमें अविद्याका अल्प अंश रहता है । जिसको प्रस्तुत ग्रंथमें अवेद्यसंवेद्यपद कहा है। अगली चार दृष्टिोंमें अविद्याका अंश बिल्कुल नहीं रहता। इस भावको श्राचार्यने वेद्यसंवेद्यपद शब्दसे जनाया है। इसके सिवाय प्रस्तुत ग्रंथमें पिछली चार दृष्टियोंके समय पाये जानेवाले विशिष्ट प्राध्यात्मिक विकासको इन्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ऐसी तीन योगभूमिकाओं में विभाजित करके उक्त तीनों योगभूमिकाओंका बहुत रोचक वर्णन किया है। १ देखो-योगदृष्टिसमुच्चय १४ ।। ع س نه ७३। २-१२ । مر Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] आचार्य अन्तमें चार प्रकार के योगियों का वर्णन करके योगशास्त्र के अधिकारी कौन हो सकते हैं ? यह भी वतला दिया है । यही योगदृष्टिसमुच्चयकी बहुत संक्षिप्त वस्तु है । । योगविंशिका में आध्यात्मिक विकासकी प्रारंभिक अवस्थाका वर्णन नहीं है, किन्तु उसकी पुष्ट अवस्थाओंका ही वर्णन है । इसीसे उसमें मुख्यतया योगके अधिकारी त्यागी ही माने गये हैं । प्रस्तुत ग्रन्थमें त्यागी गृहस्थ और साधुकी आवश्यक - क्रियाको ही योगरूप बतलाकर उसके द्वारा आध्यात्मिक विकासकी क्रमिक वृद्धिका वर्णन किया है । और उस आवश्यक-क्रियाके द्वारा योगको पाँच भूमिओं में विभाजित किया है । ये पाँच भूमिकायें उसमें स्थान, शब्द, अर्थ, सालवन और निरालंबन नामसे प्रसिद्ध हैं । इन पॉच भूमिकायों में कर्मयोग और ज्ञानयोगकी घटना करते हुए आचार्यने पहली दो भूमिकाओं को कर्मयोग और पिछली तीन भूमिकाको ज्ञानयोग कहा है। इसके सिवाय प्रत्येक भूमि - कामें इच्छा, वृत्ति, स्थैर्य और सिद्धिरूपसे आध्यात्मिक विकासके तरतम भावका प्रदर्शन कराया है। और उस प्रत्येक भूमिका तथा इच्छा, प्रवृत्ति यदि अवान्तर स्थितिका लक्षण बहुत स्पष्टतया वर्णन किया हैं । इस प्रकार उक्त १ योगविंशिका गा० ५, ६ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ [६६] पाँच भूमिकाओंकी अन्तर्गत भिन्न भिन्न स्थितिओंका वर्णनकरके योगके अस्सी भेद किये हैं, और उन सबके लक्षण वतलाये हैं, जिनको ध्यानपूर्वक देखनेवाला यह जान सकता है कि मैं विकासकी किस सीढ़ीपर खडा हूँ । यही योगविशिकाकी संक्षिप्त वस्तु है। उपसंहार-विषयकी गहराई और अपनी अपूर्णताका खयाल होते हुए भी यह प्रयास इस लिये किया गया है कि अबतकका अवलोकन और स्मरण संक्षेपमें भी लिपिवद्ध हो जाय, जिससे भविष्यत्में विशेष प्रगति करना हो तो इस विषयका प्रथम सोपान तयार रहे। इस प्रवृत्तिमें कई मित्र मेरे सहायक हुए हैं जिनके नामोल्लेख मानसे मैं कृतज्ञता प्रकाशित करना नहीं चाहता। उनकी आदरणीय स्मृति मेरे हृदयमें अखंड रहेगी। पाठकोंके प्रति एक मेरी सूचना है। वह यह कि इस निबंध अनेक शास्त्रीय पारिभापिक शब्द आये हैं। सासकर अन्तिम भागमें जैन-पारिभाषिक शब्द अधिक है, जो बहुतोंको कम विदित होंगे उनका मैंने विशेष खुलासा नहीं किया है, पर खुलासावाले उस उस ग्रन्थके उपयोगी स्थलोंका निर्देश कर दिया है, जिससे विशेपजिज्ञासु मूलग्रन्थद्वारा ही ऐसे कठिन शब्दोंका सुलासा कर सकेंगे। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७] अगर यह संक्षिप्त निबंध न होकर खास पुस्तक होती तो इसमें विशेष खुलासोंका भी अवकाश रहता। __ इस प्रवृत्तिके लिये मुझको उत्साहित करनेवाले गुजरात पुरातत्व संशोधन मंदिरके मंत्री परीख रसिकलाल छोटालाल हैं जिनके विद्याप्रेमको मैं नहीं भूल सकता। संवत् १९७८ पौष । यदि ५ भावनगर. लेखकसुखलाल संघवी. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 也就 鲁; Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ म्भिोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरिभ्यो नमः मद्-व्यासपिप्रणीतभाष्यांशसहितं __ भगवत्पतञ्जलिमुनिविरचितं तञ्जलयोगदर्शनम्। द-न्यायाचार्य-श्रीमद्यशोविजयवाचकवरविहितया मतानुसारिण्या लेशव्याख्ययोपवर्धितम् ) ऐन्द्रवृन्दनतं नत्वा वीर सूत्रानुसारतः । वक्ष्ये पात जलस्वार्थ साक्षेपं प्रक्रियाश्रयम् ॥१॥ नुशासनम् ॥१-१॥ ज्ञातासंप्रज्ञातरूपद्विविधयोगस्य ) लक्षणाभिधिप्रववृतेवृत्तिनिरोधः ॥ १-२॥ -सर्वशब्दाग्रहणात् संप्रज्ञातोऽपि योग इत्यावत्तं हि प्रख्याप्रवृत्तिस्थितिशीलत्वात् त्रिगुणम्! Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] प्रख्यारूपं हि चित्तसत्त्वं रजस्तमोभ्यां संसृष्टमैश्वर्यविषयप्रियं भवति।तदेव तमसानुविद्धमधर्माज्ञानावैराग्यानैश्चर्योपगं भवति। तदेव प्रक्षीणमोहावरणं सर्वतः प्रद्योतमानमनुविद्धं रजोमात्रया धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्योपगं भवति । तदेव रजोलेशमलापेतं स्वरूपप्रतिष्ठं सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रं धर्ममेघध्यानोपगं भवति । तत् परं प्रसङ्घयानमित्याचक्षते ध्यायिनः । चितिशक्तिरपरिणामिन्यप्रतिसंक्रमा दर्शितविपया शुद्धा चानन्ता च; सत्त्वगुणात्मिका चेयमतो विपरीता विवेकख्यातिः इत्यतस्तस्यां विरक्तं चित्तं तामपि ख्याति निरुणद्धि । तदवस्थं संस्कारोपगं भवति । स निर्वीजः समाधिः । न तत्र किञ्चिद संप्रज्ञायत इत्यसंप्रज्ञातः। (य०) सर्वशब्दाग्रहणेऽप्यर्थात्तल्लाभादव्याप्तिः संप्रज्ञात इति " लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधी योगः” इति लक्षणं सम्यग, यद्वा " समितिगुप्तिसाधारणं धर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम्" इति स्वस्माकमाचार्याः । तदुक्तम्-" मुक्खेण जोयणायो जोगो सब्बो वि धम्मवावारो" [ योगविंशिका, गा० १ ] तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ १-३॥ वृत्तिलारूप्यमितरत्र ॥ १-४ ॥ १ सत्त्वपुरुपान्यतास्यातिमात्रं चित्तं धर्ममेघपर्यन्तं । २ विवेकख्यातेः योधकमेतत्पदम् ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ॥ १-५ ॥ प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥ १-६ ॥ तंत्र प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥ १-७ ॥ विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्टम् ॥ १८ ॥ शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥१-६॥ श्रभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥ १-१० ॥ अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः ॥ १-११ ॥ भाष्यम् - किं प्रत्ययस्य चित्तं स्मरति श्रहोस्विद्विषयस्य । इति । ग्राह्योपरक्तः प्रत्ययो ग्राह्यग्रहणोभयाकारनिर्भासः तथाजातीयकं संस्कारमारभते । स संस्कारः स्वव्यञ्जकाञ्जनः तदाकारामेव ग्राग्रहणोभयात्मिकां स्मृति जनयति । तत्र ग्रहणाकारपूर्वा बुद्धि:, ग्राह्याकारपूर्वा स्मृतिः । सा च द्वयी - भावितस्मर्तव्या चाभावितस्मर्तव्या च । स्वमे भावि - तस्मर्तव्या । जाग्रत्समये त्वभावितस्मर्तव्येति । सर्वाः स्मृतयः प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतीनामनुभवात्प्रभवन्ति । सर्वाचैता वृत्तयः सुखदुःखमोहात्मिकाः, सुखदुःखमोहाच क्लेशेषु व्याख्येयाः । सुखानुशयी रागः । दुःखानुशयी द्वेषः । मोहः १ एतत्पदं मुद्रितपुस्तके न दृश्यते Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] पुनरविद्येति । एताः सर्वा वृत्तयो निरोद्धव्याः । आसां निरोधे सम्प्रज्ञातोऽसम्प्रज्ञातो वा समाधिर्भवति । ( ० ) अत्र विकल्पः शब्दान्नाऽखण्डालीकनिर्मासोऽसत्ख्यात्यसिद्धेः, किन्तु “ असतो रात्थि सिसेहो" इत्यादि भाष्यकृद्वचनात्खण्डशः प्रसिद्धपदार्थानां संसर्गारोप एव, अभिन्ने भेदनिर्भासादिस्तु नयात्मा प्रमाणैकदेश एव । निद्रा तु सर्वा नाऽभावालम्बना, स्व करितुरगादिभावानामपि प्रतिभासनात् । नापि सर्वा मिथ्यैव, संवादिस्वमस्यापि बहुशो दर्शनात् । स्मृतिरप्यनुभूते यथार्थतत्तारूयधर्मावगाहिनी, संवादविसंवादाभ्यां द्वैविध्यदर्शनाद् इति तिम्रयामुत्तरवृत्तीनां द्वयोरेव यथायथमन्तर्भावात् पश्ववृत्त्यभिवानं स्वरुचितप्रपञ्चार्थम् | अन्यथा क्षयोपशमभेदादसा यभेदानामपि संभवात्, इत्याईत सिद्धान्तपमार्थवेदिनः | अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ १-१३ ॥ तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥ १-१३ ॥ स तु दीर्घकालनैरन्तर्य सत्कार / सेवितो दृढभूमिः ॥ १-१४ ॥ दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १-१५ ॥ १ विशेषावश्यक माध्यमा, १५७९ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । AC [५] तत् परं पुरुषख्यातेर्गुणवतृष्ण्यम् ॥ १-१६ ॥ भाष्यम्---दृष्टानुश्रविकविषयदोषदर्शी विरक्तः पुरुषः दर्शनाभ्यासात्तच्छुद्धिप्रविवेकाप्यायितबुद्धिर्गुणेभ्यो व्यक्ताव्यक्तधर्मकेभ्यो विरक्त इति । तवयं वैराग्यम् । तत्र यदुत्तरं तज्ज्ञानप्रसादमात्रम् । तस्योदये प्रत्युदितख्यातिरे मन्यते-प्राप्तं प्रापणीयम् , क्षीणाः क्षेतव्याः क्लेशाः, छिन्नः श्लिष्टपर्वा भवसंक्रमः, यस्याविच्छेदाजनित्वा म्रियते मृत्वा च जायत इति । ज्ञानस्यैव परा काष्ठा वैराग्यम् । एतस्यैव हि नान्तरीयकं कैवल्यमिति। (य०) विषयदोषदर्शनजनितमापातधर्मसन्यासलक्षणं प्रथमम् , सतत्त्वचिन्तया विषयौदासीन्येन जनितं द्वितीयापूर्वकरणभावितात्विकधर्मसन्यासलक्षणं द्वितीयं वैराग्यम्, यत्र क्षायोपशमिका धर्मा भपि तीयन्ते क्षायिकाश्चोत्पचन्ते इत्यस्माकं सिद्धान्तः ॥ वितर्कविचारानन्दास्मितारूपातुगमा संप्रज्ञातः ॥ १-१७॥ अथासंप्रज्ञातः समाधिः किमुपायः किस्वभावो वा इति. विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः।१-१८॥ भाष्यम्-सर्ववृत्तिप्रत्यस्तमये संस्कारशेषो निरोधश्चित्तस्य १ 'पुरुषदर्शनाभ्या' इत्यपि । - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] समाधिरसंप्रज्ञातः । तस्य परं वैराग्यमुपायः । सालम्बनो झभ्यासस्तत्साधनाय न कल्पत इति विरामप्रत्ययो निर्वस्तुक श्रालम्वनीक्रियते, स चार्थशून्यः । तदभ्यासपूर्व चित्तं निरालम्बनमभावप्राप्तमिव भवतीत्येष निर्बीजः समाधिरसंप्रज्ञातः ।। ( o ) द्विविधोऽप्ययं अध्यात्मभावनाध्यानसमतावृत्तिक्षयभेदेन पश्चधोक्तस्य योगस्य पश्चमभेदेऽवतरति । वृत्तिक्षयो ह्यात्मनः कर्मसंयोगयोग्यतापगमः, स्थूलसूक्ष्मा ह्यात्मनश्चेष्टा वृत्तयः, तासां मूल हेतुः कर्मसंयोगयोग्यता, सा चाकरणनियमेन प्रन्थिभेदे उत्कृष्टमोहनीयबन्धव्यवच्छेदेन तत्तद्गुणस्थाने तत्तत्प्रकृत्यात्यन्तिकबन्धव्यवच्छेदस्य हेतुना क्रमशो निवर्तते । तत्र पृथक्त्ववितर्कस विचारैकत्ववितर्काविचाराख्यशुक्लध्यानभेदद्वये संप्रज्ञातः समाधिर्वृत्त्यर्थानां सम्यग्ज्ञानात् । तदुक्तम् - " समाधिरेष एवान्यैः संप्रज्ञासोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्षरूपेण वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा ॥ १ ॥ ( ४१८ यो. वि. ) निर्वितर्कविचारानन्दास्मितानिर्भामस्तु पर्या - यविनिर्मुक्तशुद्धद्रव्यध्यानाभिप्रायेण व्याख्येय (यः), यन्नयमालम्ध्योकम्-" का अरेइ के आणंदे ? इत्थं पि श्रहे चरे " इत्यादि । क्षपकश्रेणिपरिसमाप्तौ केवलज्ञानलाभस्त्वसंप्रज्ञातः समाधिः, भावमनोवृत्तीनां प्राह्यग्रहणाकार शालिनीनामवग्रहादिक्रमेण तत्र सम्यपरिज्ञानाभावात् । अत एव भावमनसा संज्ञाऽभावाद् द्रव्यमनमा ? १ भाचारात १-३-३ पृ. ६ का अरतिः क आनन्दः अत्रापि चरेत् | " Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] तत्सद्भावात्केवली नोसंज्ञीत्युच्यते । तदिदमुक्तं योगविन्दौ - " असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादितत्स्वरूपानुवेधतः ||१|| धर्ममेघोऽमृतात्मा च भवशत्रुः शिवोदयः । सत्त्वानन्दः परचेति योज्योऽत्रैवार्थयोगतः ||२|| ” (४२०-२१) इत्यादि । संस्कारशेषत्वं चात्र भवोपग्राहिकर्माशरूप संस्कारापेक्षया व्याख्येयम् मतिज्ञानभेदस्य संस्कारस्य तदा मूलत एव विनाशात् । इत्यस्मन्म तनिष्कर्ष इति दिक् । प्रकृतं प्रस्तूयते - 3 स खल्वयं द्विविधः, उपायप्रत्ययो भवप्रत्ययश्च । तत्रोपायप्रत्ययो योगिनां भवति ॥ भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥ १-१६ ॥ भाष्यम् - विदेहानां देवानां भवप्रत्ययः । ते हि स्वसंस्कारमात्रो पगतेन चित्तेन कैवल्यपद मिवानुभवन्तः स्वसंस्कारविपाकं तथाजातीयकमतिवाहयन्ति । तथा प्रकृतिलयाः साधिकारे चेतसि प्रकृतिलीने कैवल्यपदमिवानुभवन्ति, यावन्न पुनरावर्ततेऽधिकारवशाच्चित्तमिति ॥ (०) उपशान्तमोहत्वेनोक्तानां लवसप्तमानां ज्ञानयोगरूपसमाधिमधिकृत्येदं प्रवृत्तम् । एत [ दस्म ] न्मतम् ॥ श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥ १२० ॥ १ मात्रोपयोगेन ' इत्यपि, ' Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] तत्राधिमात्रोपायानाम्तीनसंवेगानामासन्नः ॥ १-२१ ॥ मृदुमध्याधिमानत्वात्ततोऽपि विशेषः ॥१-२२॥ ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥ १-२३ ॥ क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ १-२४॥ तत्र निरतिशयं सर्वज्ञवीजम् ॥ १-२५ ॥ स एपःपूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ १-२६ ॥ ___भाप्यम्-पूर्वे हि गुरवः कालेनावच्छिद्यन्ते । यत्रावच्छेदार्थेन कालो नोपावर्तते स एप पूर्वेपामपि गुरुः। यथाऽस्य सर्गस्यादौ प्रकर्षगत्या सिद्धः तथातिक्रान्तमर्गादिष्वपि प्रत्येतव्यः॥ (य०)-अन्न वयं वदामः-कालेनानवच्छेदादिक नेश्वरस्योस्यता ८.कम सार्वज्यं तु तथासंभवदपि दोपक्षयजन्यतावच्छे. .त्पन नित्यमुक्तेश्वरसिद्धौ साक्षिभावमालम्बते । नित्यमुक्त ईश्वरः' इत्यभिधाने च व्यक्त एव वदतोव्याघातः, मुबन्धनविश्लेषार्थवादन्धपूर्वस्यैव मोक्षस्य व्यवस्थितः, अन्यथा घटादेरपि नित्यमुकत्वं Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] दुर्निवारम् । केवलसत्त्वातिशयवतः पुरुषविशेषस्य कल्पने च केवलरजत्तमोऽतिशयवतोरपि कल्पनापत्तिः । कथं चैवमात्मत्वावच्छेदेनानादिसंसारसंबन्धनिमित्ततोपपत्तिः ? । ईश्वरातिरिक्तात्मत्वेन तथात्वकल्पने व गौरवम् । केवलसत्त्वोत्कर्षवददृष्टपुरुषकल्पने च नित्यज्ञानाद्यानयो नैयायिकाद्यभिमत एव स किं न कल्प्यते ? , तस्मात्सकलकर्मनिर्मुक्ते सिद्ध एव भवतीश्वरत्वं युक्तम् , उपासनौपयिककेवलज्ञानादिगुणानां तत्रैव संभवात् । अनादिशुद्धत्वश्रद्धापि प्रवाहापेक्षया तत्रैव पूरणीया । यदाहुः श्रीहरिभद्राचार्याः-"एसो प्रणाइमं चिच सुद्धो य तो अणाइसुद्धो त्ति । जुत्तो य पवाहेणं ण पन्नहा सुद्धया सम्मं ॥१॥" (अनादिविशिका. १२) सिद्धानामनेकत्वात् " एक ईश्वरः” इति श्रद्धा न पूर्यत इति चेत्, न, सिद्धेतरवृत्त्यत्यन्ताभावप्रतियोग्यतिशयत्वरूपस्यैकत्वस्य सिद्धानामनेकोऽप्यबाधात्सलयारूपत्यैकत्वस्य चाप्रयोजकत्वात् । गम्यतां वा समध्यपेक्षया तदपि, स्वरूपास्तित्वसाश्यास्तित्वयोरविनिर्भागवृत्तित्वत्य सार्वत्रिकत्वात् । जगत्कर्तुः सर्वथैकस्य पुरुषस्थाभ्युपगमे च जगत्कारणस्य शरीरस्यापि बलादापत्तिः, कार्यत्वे सर्तकत्वस्येव शरीरजन्यत्वस्यापि व्याप्तेरभिधातुं शक्यत्वादिति । तस्य च सिद्धस्य भगवत ईश्वरस्यानुनहोऽपि योगिनोऽपुनर्बन्धकाववत्योचितसदाचारलार एव, न बनुजिघृक्षारूपस्तस्या रागरूपत्वान्, तत्व च द्वेषसहचरितत्वात् , रागद्वेषवतश्तरवदनाराध्यत्वादिति संक्षेपः ।। प्रकृतम् Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] तस्य वाचकः प्रणवः॥ १-२७ ॥ सजपस्तदर्थभावनम् ॥ १-२८ ॥ ततःप्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च!१-२९॥ व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्त विक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ १-३०॥ दुःखदौर्मनस्याह्नमेजयत्व श्वासप्रश्वासा विक्षेप सहभुवः ॥ १-३१ ॥ तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥ १-३२ ॥ मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥ १-३३ ॥ ___ भाष्यम्-तत्र सर्वप्राणिषु सुखसंभोगापन्नेषु मैत्री भाव__ येत् । दुःखितेषु करुणां, पुण्यात्मकेषु मुदितां, अपुण्यशीले धूपेक्षाम् । ___(य०)-अस्मदाचार्यास्तु-"परहितचिन्ता मैत्री परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुखतुष्टिमुदिता परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥ १ ॥” इति लक्षयित्वा ॥ उपकारिस्वजनेतरसामान्यता Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] चतुर्विधा मैत्री। मोहासुखसंवेगाऽन्यहितयुता चैव करुणा तु ॥ २ ॥ सुखमात्रे सद्धेतावनुबन्धयुते परे च मुदिता तु । करुणा तु बन्धनिर्वेदतत्त्वसारा छुपेक्षेति ॥ ३ ॥” इति भेदप्रदर्शनपूर्व " एताः खल्वभ्यासात् क्रमेण वचनानुसारिणां पुंसाम् । सदतानां सततं श्राद्धानां परिणमन्त्युचैः ॥४॥" इति परिकर्मः विधिमाहुः । तत्त्वमत्रत्यमस्मत्कृतषोडशकटीकायाम् । प्रकृतम्प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥ १-३४ ॥ भाष्यम्-कौष्ठ्यस्य चायो सिकापुटाभ्यां प्रयत्नविशेपाद्वमनं प्रच्छर्दनम् , विधारणं प्राणायामः, ताभ्यां मनसः स्थितिं संपादयेत् ॥ (40)-अनैकान्तिकमेतत् , प्रसह्य ताभ्यां मनो व्याकुलीभावात् ।। ऊसासं ण णिरुंभइ" ( शावश्यकनियुक्ति १५१०) इत्यादि पारमण तनिषेधाच, इति वयम् ।। विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनि वन्धनी ॥ १-३५ ॥ विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ १-३६ ॥ वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥ १-३७ ॥ स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥ १-३८ ॥ यथाभिमतध्यानाद्वा ॥ १-३९ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] परमाणुपरममहत्वान्तोऽस्य वशीकारः॥१-४०॥ क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदानता समापत्तिः ॥ १-४१ ।। तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥ १-४२ ॥ स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ॥१-४३॥ एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ॥ १-४४॥ सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ॥ १-४५ ॥ ता एव सवीजः समाधिः ॥ १-४६ ॥ भाष्यम्-ताः चतस्रः समापत्तयो बहिर्वस्तुत्रीजा इति ___ न परपि सबीजः । तत्र स्थूलेऽर्थे सवितर्को निर्वितकः मे सविचारो निर्विचारः स चतुर्थोपसंख्यातः समारिति ॥ (य०)-पायोपरक्तानुपरक्तस्थूलसूक्ष्मद्रव्यभावनाम्पाणामेतासां शुलध्यानजीवानुभूतानां चित्तैकाय्यकारिणीनामुपशान्त Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] मोहापेक्षया सबीजत्वम्, क्षीणमोहापेक्षया तु निर्योजत्वमपि स्यात् इति त्वार्हतसिद्धान्तरहस्यम् ॥ निर्विचारवैशारयेऽध्यात्मप्रसादः ॥ १-४७ ॥ ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ॥ १-४८ ॥ सा पुनः- श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥ १-४९ ॥ भाष्यम् - श्रुतमागमविज्ञानं तत् सामान्यविषयं, ना गमेन शक्यो विशेषोऽभिघातुम्, कस्मात् : न हि विशेषे‍ कृतसंकेत: शब्द इति । तथाऽनुमानं सामान्यविषयमेव, य प्राप्तिस्तत्र गतिः, यत्राप्राप्तिस्तत्र न भवति गतिरित्युक्त अनुमानेन च सामान्येनोपसंहारः । तस्माच्छ्रुतानुमानविषये न विशेषः कश्चिदस्ति इति । न चास्य सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृ ष्टस्य वस्तुनो लोकप्रत्यक्षेण ग्रहणम्, न चास्य विशेषस्य प्रमाणकस्याभावोऽस्तीति समाधिप्रज्ञानिग्रद्य एव स विशेष भवति भूतसूक्ष्मगतो वा पुरुषगतो वा । तस्माच्छ्रुतानुमान प्रज्ञाभ्यामन्यविषया सा प्रज्ञा विशेषार्थत्वादिति || । (य०)—“सैंध्येव दिनरात्रिभ्यां केवैलाच्च श्रुतात्पृथग् । बुधै नुभवो दृष्टः केवलावरुणोदयः || १ ||" इत्यस्मदुक्तलक्षणलक्षित १ ज्ञानसार अष्टक २६ श्लो. १२ " केवलश्रुतयोः” इत्या Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] नुभवापरनामधेया शास्त्रोक्तायां दिशि, तदतिकान्तमीन्द्रिय विशेषमवलम्बमाना तत्त्वतो द्वितीयापूर्वकरणभाविसामर्थ्ययोगप्रभवेयं समाधिप्रज्ञा, इति युक्तः पन्थाः । प्रकृतम्____ समाधिप्रज्ञाप्रतिलम्भे योगिनः प्रज्ञाकृतः संस्कारो नवो नवो जायतेतज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिवन्धी ॥१-५० ॥ तस्यापि निरोधेसर्वनिरोधान्निर्वीजःसमाधिः॥१-५१॥ ॥ इति पातञ्जले सायप्रवचने योगशाख्ने समाधिपादः प्रथमः ॥ उद्दिष्टः समाहितचित्तस्य योगः। कथं व्युत्थितचित्तोऽपि योगयुक्तः स्यात् ? इत्येतदारभ्यतेतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥२-१॥ भाष्यम्-नातपस्विनो योगः सिध्यति, अनादिकर्मक्लेशवासनाचित्रा प्रत्युपस्थितविषयजाला चाशुद्धिर्नान्तरेण तपः संभेदमापद्यत इति तपस उपादानम् । तच्च चित्तप्रसादनमवाधमानमनेनासेव्यमिति मन्यते । स्वाध्यायः प्रणवादिपवित्राणां जपः मोक्षशास्त्राध्ययनं वा। ईश्वरप्रणिधानं मर्वक्रियाणां परमगुरौ अर्पणं तत्फलसंन्यासो वा। २ शास्त्रातिकान्तम् । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] (१०)-"वाह्यं तपः परमदुश्वरमाचरनमाध्यात्मिकस्य तपसः परिहणार्थम् ।" इत्यस्मीयाः ॥ सर्वत्रानुष्ठाने मुख्यप्रवर्तकशाखस्मृतिद्वारा तदादिप्रवर्तकपरमगुरोहृदये निधानमीश्वरप्रणिधानम् । तदुक्तम्-"अस्मिन् हृदयस्थे सति हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनीन्द्र इति । हत्यस्थिते व तस्मिन् नियमात्सर्वार्थसंसिद्धिः ॥ १ ॥" इत्यादि, इत्यस्मन्मतम् ।। समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥२-२॥ अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः॥२-३॥ अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदारा णाम् ॥ २-४॥ ___ भाप्यम्-अत्राविद्या क्षेत्रं प्रसवभूभिरुत्तरेपामस्मितादीनां चतुर्विकल्पितानां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् । तत्र का प्रसुप्तिः १ चेतसि शक्तिमात्रप्रतिष्ठानां वीजभावोपगमः, तस्य प्रबोध आलम्बने संमुखीभावः, प्रसंख्यानवतो दग्धकेशवीजस्य संमुखीभूतेऽप्यालम्बने नासौ पुनरस्ति, दग्धवीजस्य कुतः प्ररोह इति । अतः क्षीणक्लेशः कुशलश्वरमदेह इत्युच्यते । तत्रैव सा दग्धवीजमावा पञ्चमी क्लेशावस्था, नान्यत्रेति । सतां लेशानां तदा वीजसामर्थ्य दग्धमिति विषयस्य संमुखीभावेऽपि सति न भवत्येषां प्रबोधः इत्युक्ता प्रसुप्तिर्दन्धवीजानामग्ररोहश्च । तनुत्वमुच्यते-प्रतिपक्षभावनो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] पहताः शास्तनवो भवन्ति । तथा विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मना पुनः पुनः समुदाचरन्तीति विच्छिन्नाः । कथं रागकाले क्रोधस्यादर्शनात् । न हि रागकाले क्रोधः समुदाचरति । रागश्च कचिद् दृश्यमानो न विषयान्तरे नास्ति । नैकस्यां स्त्रियां चैत्रो रक्त इति अन्यासु स्त्रीषु विरक्तः, किन्तु तत्र रागो लब्धवृत्तिः, अन्यत्र भविष्यद्वृत्तिरिति स हि तदा प्रसुप्ततनुविच्छिन्नो भवति । विषये यो लब्धवृत्तिः स उदारः, सर्व एवैते क्लेशविपयत्वं नातिक्रामन्ति । कस्तर्हि विच्छिन्नः प्रसुप्तस्तनुरुदारो वा क्लेशः ? इति उच्यते - सत्यमेवैतत्, किन्तु विशिष्टानामेवैतेषां विच्छिन्नादित्वं यथैव प्रतिपक्षभावनातो निवृत्तस्तथैव स्वव्यञ्जनेनाभिव्यक्त इति सर्व एवैते क्लेशा विद्याभेदाः । कस्मात् सर्वेषु विद्यैवाभिलवते । यद? विद्यया वस्त्वाकार्यते तदेवानुशेरते क्लेशाः, विपर्यासप्रत्ययकाले उपलभ्यन्ते, क्षीयमाणां चाविद्यामनु चीयन्त इति || ( य०) - अन्नाविद्यादयो मोहनीयकर्मण औदयिकभावविशेषाः । तेषां प्रसुप्तत्वं तज्जनककर्मणोऽधाकालापरि दाये कर्मनिषेकाभावः । तनुत्वमुपशमः क्षयोपशमो वा । विच्छिन्नलं प्रतिपक्षप्रकृत्युदयादिनाऽन्तरितलम् । उदारत्वं चोदयावलिकाप्राप्तत्वम्, इत्यवसेयम् || अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्म ख्यातिरविद्या ॥ २-५॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] भाष्यम् - अनित्यकार्ये नित्यख्यातिः, तद्यथा - धुवा पृथिवी, ध्रुवासचन्द्रतारका द्यौः, अमृता दिवौकसः इति । तथाsशुचौ परमवीभत्से काये - " स्थानाद्वीजादुपष्टम्भान्नि:स्यन्दान्निधनादपि । कायमाधेयशौचत्वात्पण्डिता शुचिं विदुः ॥ १ ॥ " इत्यशुचौ शुचिख्यातिर्दृश्यते । नवेव शशाङ्कलेखा कमनीयेयं कन्या मध्वमृतावयवनिर्मितेव चन्द्रं भित्त्वा निःसृतेव ज्ञायते, नीलोत्पलपत्रायताची हावगर्भाभ्यां लोचनाभ्यां जीवलोकमाश्वासयन्तीवेति, कस्य केनाभिसंबन्धः १ भवति चैवमशुचौ शुचिविपर्यासप्रत्यय इति । एतेनापुण्ये पुण्यप्रत्ययः, तथैवानर्थे चार्थप्रत्ययो व्याख्यातः । तथा दुःखे सुखख्यातिं वच्यति, “ परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः " [ २. १५. ] इति तत्र सुखख्यातिरविद्या । तथाऽनात्मन्यात्मख्यातिःबाह्योपकरणेषु चेतनाचेतनेषु भोगाधिष्ठाने वा शरीरे पुरुषोपकरणे वा मनसि अनात्मन्यात्मख्यातिरिति । तथैतदन्यत्रोक्तम् - " व्यक्तमव्यक्तं वा सत्त्वमात्मत्वेनाभिप्रतीत्य तस्य संपदमनु नन्दत्यात्मसंपदं मन्वानः, तस्य चापदमनु शोचत्यात्मव्यापदं मन्वानः स सर्वोऽप्रतिबुद्धः " इति । एषा चतुष्पदा भवत्यविद्या मूलमस्य क्लेशसंतानस्य कर्माशयस्य च सविपाकस्येति । तस्याश्चामित्रागोष्पदवद्वस्तुसतत्त्वं विज्ञेयम् । यथा नामित्रो मित्राभावो न मित्रमात्रं किंतु तद्विरुद्धः - -- Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] सपत्नः। यथा वाऽगोष्पदं न गोष्पदाभावो न गोष्पदमा किन्तु देश एव ताभ्यामन्यद्वस्त्वन्तरम् । एवमविद्या न प्रमाणं न प्रमाणाभावः किन्तु विद्याविपरीतं ज्ञानान्तरमविद्येति ॥ दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ॥२-६ ॥ भाष्यम्-पुरुषो दृक्शक्तिर्बुद्धिदर्शनशक्तिरित्येतयोरेकस्वरूपापत्तिरिवास्मिता क्लेश उच्यते । भोक्तभोग्यशत्योरत्यन्तविभक्तयोरत्यन्तासंकीर्णयोरविभागप्राप्ताविव सत्यां भोगः कल्पते । स्वरूपप्रतिलम्भे तु तयोः कैवल्यमेव भवति, कुतो भोगः ? इति । तथा चोक्तम्-"बुद्धितः परमपुरुषमाकारशीलविद्यादिभिर्विभक्तमपश्यन् कुर्यात् तत्रात्मबुद्धि मोहेनेति"॥ सुखानुशयी रागः।। २-७॥ भाष्यम्-सुखाभिज्ञस्य सुखानुस्मृतिपूर्वः सुखे तत्साधने वा यो गर्द्धस्तृष्णा लोभः स राग इति । दुःखानुशयी द्वेषः ॥२-८॥ भाप्यम्-दुःखाभिज्ञस्य दुःखानुस्मृतिपूर्वो दुःखे तत्साधने वा यः प्रतिघो मन्युर्जिघांसा क्रोधः स द्वेषः ॥ स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ॥२-९। भाप्यम्-सर्वस्य प्राणिन इयमात्माशीनित्या भवति, "मा न भूवं, भूयासम्” इति। न चाननुभूतमरणधर्मकस्यैपा भवत्यात्माशीः । एतया च पूर्वजन्मानुभवः प्रतीयते । स चाय Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [१६] मभिनिवेशः क्लेशः स्वरसवाही कृमेरपि जातमात्रस्य प्रत्यक्षानुमानागमैरसंभावितो मरणत्रास उच्छेददृष्ट्यात्मकः पूर्वजन्मानुभूतं मरणदुःखमनुमापयति । यथा चायमत्यन्तमूढेषु दृश्यते क्लेशस्तथा विदुषोऽपि विज्ञातपूर्वापरान्तस्य रूढः, कस्मात् ? समाना हि तयोः कुशलाकुशलयोमरणदुःखानुभवादियं वासनेति ॥ (२०)-प्रवाविद्या स्थानाङ्गोक्तं दशविधं मिथ्यात्वमेव। अस्मिताया अदृश्ये (श्च दृश्ये)हगारोपरूपत्वे चान्तर्भाव:(१)। बौद्धदृश्यहगैक्यापत्तिस्वीलारे तु हैष्टिवादसृष्टिवादापत्तिः (?)। अहङ्कारममकारवीजरूपत्वे तु रागद्वेषान्तर्भाव इति । रागद्वेषो कषायभेदा एव । 'अभिनिवेशश्वोदाहृतोऽर्थतो भयसंज्ञात्मक एव, स च संज्ञान्तरोपलक्षणम् , विदुषोऽपि भय इवाहारादावप्यभिनिवेशदर्शनात । केवलं विदुषा(पोऽ)प्रमत्ततादशायां दशसंज्ञाविष्कम्भणे न कश्चिदयमभिनिवेशः। संज्ञा च मोहाभिनिवेशः, संज्ञा च मोहाभिव्यक्त चैतन्यमिति सर्वेऽपि लेशा मोहप्रकृत्युदयजभाव एव, अत एव क्लेशतये फैवल्यसिद्धिः, मोहक्षयस्य तद्धेतुत्वात् इति पारमर्षरहस्यम।। ६ स्थानागसूत्रे १० स्थाने | २ अस्मिताया अपि दृश्ये गारोपरूपत्वे चशि वा दृश्यारोपरूपत्वे मिथ्यात्व एवान्तरभावः। आरोपानहीवारे 'बौद्धदृश्य इत्यादिना दृष्टिसृष्टिवादापत्तिदोषः। (दृष्टिसृष्टिवादप्रक्रियालेशस्तु अद्वैतसिद्धि पृ०५३३ । सिद्धान्तलेश' परिच्छेद २ गो. ४० श्रादिपु द्रष्टव्यः)।३ 'ष्टिसृष्टिवाद' इति स्यात् । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥ २- १० ॥ भाष्यम् - ते पञ्च क्लेशा दग्धवीजकल्पा योगिनश्चरिताधिकारे चेतसि प्रलीने सह तेनैवास्तं गच्छन्ति || ( २० ) - क्षीणमोह संबन्धियथाख्यात चारित्रद्देया इत्यर्थः || स्थितानां तु बीजभावोपगतानां - ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ॥ २-११ ॥ क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥२- १२ सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ॥ २-१३ ॥ भाष्यम् - सत्सु क्लेशेषु कर्माशयो विपाकारम्भी भवति, नोच्छिन्नक्लेशमूलः । यथा तुपावनद्धाः शालितण्डुला श्रदग्धबीजभावाः प्ररोहसमर्थाः भवन्ति, नापनीततुपा दग्धवीजभावावा, तथा क्लेशावनद्धः कर्माशयो विपाकप्ररोही भवति, नापनीतक्लेशो न प्रसंख्यानदग्धक्लेशवीजभावो वेति । मच विपाकस्त्रिविधो जातिरायुर्भोग इति । तत्रेदं विचार्यते किमेकं कर्मैकस्य जन्मनः कारणम् ? अथैकं कमनेकं जन्माक्षिपतीति ? । द्वितीया विचारणा- किमनेकं कर्मानिकं जन्म निर्वर्तयति ? थानेकं कर्मकं जन्म निर्वर्तयति ? इति । न तावदेकं कर्म एकस्य जन्मनः कारणम्, कस्मात् ? अनादिकालप्रचितम्यासंख्येयस्यावशिष्टस्य कर्मणः सांयतिक्रम्य च फलक्रमानियमात् अनाश्रामो लोकस्य प्रमुक्तः स चानिष्ट इति । न चैकं कर्मानेकस्य जन्मनः कारणम्, कम्मान् ? - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] अनेकेषु जन्मंस्वेकैकमेव कर्मानेकस्य जन्मनः कारणमित्यवशिष्टस्य विपाककालाभावः प्रसक्तः, स चाप्यनिष्ट इति । न चानेकं कर्मानेकजन्मकारणम्, कस्मात् १ तदनेकं जन्म युगपन्न भवतीति क्रमेण वाच्यम्, तथा च पूर्वदोषानुषङ्गः । तस्माजन्मप्रायणान्तरे कृतः पुण्यापुण्यकर्माशयप्रचमो विचित्रः प्रधानोपसर्जनभावनावस्थितः प्रायणाभिव्यक्तः एकप्रघट्टकेन मरणं प्रसाध्य सम्मूच्छित एकमेव जन्म करोति, तच्च जन्म तेनैव कर्मणा लब्धायुष्कं भवति । तस्मिन्नायुषि तेनैव कर्मणा भोगः संपद्यत इति । सौ कर्माशयो जन्मायुभोंग हेतुत्वात्रिविपाकोऽभिधीयते । श्रत एकभविकः कर्माशय उक्त इति । दृष्टजन्मवेदनीयस्त्वेकविपाकारम्भी भोगहेतुत्वात्, द्विविपाकारम्भी वा भोगायुर्हेतुत्वात्, नन्दीश्वरवन्नहुषवद्वेति । क्लेशकर्मविपाकानुभवनिर्मिताभिस्तु वासनाभिरनादिकालसंमूच्छितमिदं चित्तं चित्रीकृतमिव सर्वतो मत्स्यजालं ग्रन्थिभिरिवाततं इत्येता अनेकभवपूर्विका वासनाः । यस्त्वयं कर्माशय एप एवैकभविक उक्त इति । ये संस्काराः स्मृतिहेतवस्ता चासनाः, ताश्चानादिकालीना इति । यस्त्वसावेकभविकः कर्माशयः स नियतविपाकश्वानियतविपाकश्च । तत्र दृष्टजन्मवेदनीयस्य नियतविपाकस्यैवायं नियमः, न त्वदृष्टजन्मवेदनीयस्यानियतविपाकस्य । कस्मात् १ यो दृष्टजन्मवेदनी१' कर्मसु ' इति . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] योऽनियतविपाकस्तस्य त्रयी गतिः, कृतस्याविपकस्य नाशः, प्रधानकर्मण्यावापगमनं वा, नियतविपाकप्रधानकर्मणाभिभूतस्य वा चिरमवस्थानमिति । तत्र कृतस्याविपकस्य नाशो यथा-शुक्लकर्मोदयादिहैव नाशः कृष्णस्य । यत्रेदमुक्तम्" द्वे द्वे ह वै कर्मणी वेदितव्ये, पापकस्यैको राशिः पुण्यकृतोऽपहन्ति । तदिच्छस्व कर्माणि सुकृतानि कर्तुमिहव ते कर्म कवयो वेदयन्ते " | प्रधानकर्मण्यावापगमनम् , यत्रेदमुक्तम्-"स्यात्स्वल्पः संकरः सपरिहारः स प्रत्यवमपेः कुश लस्य नापकर्षायालम् । कस्मात् ? कुशलं हि मे बहन्यदम्ति, यत्रायमावापं गतः स्वर्गेऽप्यपकर्पमल्पं करिष्यति" इति । नियतविपाकप्रधानकर्मणाऽभिभूतम्य चिरमवस्थानम् , कथमिति ? अदृष्टजन्मवेदनीयस्यैव नियतविपाकस्य कर्मणः समानं मरणमभिव्यक्तिकारणमुक्तम्, न त्वदृष्टजन्मवेदनीयम्यानियतविपाकस्य । यचदृष्टजन्मवेदनीयं कर्मानियतविपाकं नन्नयन आवापं वा गच्छेत् । अभिभूतं वा चिरमप्युपासीत यावन समानं कर्माभिव्यञ्जकं निमित्तमस्य न विपाकाभिमुखं कर्गतीति । तद्विपाकस्यैव देशकालनिमित्तानवधारणाटियं कर्मगतिश्चित्रा दु ना चेति । न चोन्सर्गस्यापवादानिवृत्तिग्न्येिकमविकः कर्माशयोऽनुनायत इति ।। (य०) अत्रेदं मनाग मीमांमामहे-"जात्यायुभोंगा विषा:" इत्यवधारणमनुपपन्नं, गङ्गामरणमुदिश्य कृतेन त्रिमध्यमवपाठा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३] दिना जनितमष्टं गङ्गामरणे विपच्यते इत्यस्यापि शास्त्रार्थत्वादायुष इव मरणस्यापि 'विपाककल्पातिरेकात् । किं च जन्म-आद्यक्षणसंबन्धरूपमायुःप्रतिलम्भनद्वारा [य] दि पूर्वकर्मविपाकः स्यात तदोत्तरोत्तरक्षणानामपि तथात्वापत्तिः, आयुषैव तदुपसंग्रहे च जन्मनोऽपि नवोपसंग्रहो युक्तः, तस्माजन्मपदं गतिजात्यादिनामकर्मकृतजीवपर्यायोपलक्षणम् । गत्यादिभोगत्वावच्छिन्ने च गत्यादिनामकर्मप्रकृतीनां पृथक्पृथकारणत्वमवश्यमेष्टव्यम् , अन्यथा संकरापत्तेः । आयुरपि मनुष्याद्यायुभेदेन जीवनपर्यायलक्षणं चतुविधं फलभूतं, तजनकमायुष्कर्माऽपि च चतुर्विधमवश्यमभ्युपगमनीयम् । भोगपदेनावशेषकर्मषट्कफलमुपलक्षणीयम्, ज्ञानावरणादिकले ज्ञानावरणीयादीनां पृथक्पृथकारणत्वस्यान्वयव्यतिरेकसिद्धत्वात् । पूर्वापरभावव्यवस्थितजन्मान्तरीयकर्मप्रचयत्य ताहशोत्तरजन्मफलभोगे हेतुत्वं तु दुर्वचम् , कचित्फलक्रमवैपरीत्यस्यापि दर्शनाद् । बुद्धिविशेषविषयत्वादीनां कर्मप्रचयफलप्रचयावनुगमय्य हेतुहेतुमद्भावाभ्युपगमे तु घटपटादिकार्यप्रचयेऽपि दण्डवेमादीनां तथा [हेतु ] हेतुमद्भावापत्तिः । अनन्यगतिकत्वात्कर्मफलभोगस्थल एवेत्थं कल्प्यते नान्यत्रेति चेत्, न, अवगतभगवत्प्रवचनरहस्यस्यानन्यगतिकत्वासिद्धेः । तथाहि-प्रारम्भबद्धमेकमेघायुष्कर्म प्रायणलब्धविपाकमेव जन्म निर्वर्तयति, कर्मान्तराणि च कानि १-विपाककोटिप्रविष्टत्वात् इति भावः । २ ' तथैवोप' . स्यात् अथवा ' तेनैवोप' इति स्यात् । ३त्वादिना' स्यात् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] योऽनियतविपाकस्तस्य त्रयी गतिः, कृतस्याविषकस्य नाशः, प्रधानकर्मण्यावापगमनं वा, नियतविपाकप्रधानकर्मणाभिभूतस्य वा चिरमवस्थानमिति । तत्र कृतस्याविपक्कस्य नाशो यथा-शुक्लकर्मोदयादिहैव नाशः कृष्णस्य । यत्रेदमुक्तम्" द्वे द्वे ह वै कर्मणी वेदितव्ये, पापकस्यैको राशिः पुण्यकृतोऽपहन्ति । तदिच्छस्व कर्माणि सुकृतानि कर्तुमिहैव ते कर्म कवयो वेदयन्ते" । प्रधानकर्मण्यावापगमनम् , यत्रेदमुक्तम्-"स्यात्स्वल्पः संकरः सपरिहारः स प्रत्यवमर्पः कुशलस्य नापकर्षायालम् । कस्मात् ? कुशलं हि मे बहन्यदस्ति, यत्रायमावापं गतः स्वर्गेऽप्यपकर्षमल्पं करिष्यति" इति । नियतविपाकप्रधानकर्मणाभिभूतस्य चिरमवस्थानम् , कथमिति ? अदृष्टजन्मवेदनीयस्यैव नियतविपाकस्य कर्मणः समानं मरणमभिव्यक्तिकारणमुक्तम्, न त्वदृष्टजन्मवेदनीयस्यानियतविपाकस्य । यत्त्वदृष्टजन्मवेदनीयं कर्मानियतविपाकं तन्नश्येत् आवापं वा गच्छेत् । अभिभूतं वा चिरमप्युपासीत यावत् समानं कर्माभिव्यञ्जकं निमित्तमस्य न विपाकाभिमुखं करोतीति । तद्विपाकस्यैव देशकालनिमित्तानवधारणादियं कर्मगतिश्चित्रा दर्जाना चेति । न चोत्सर्गस्यापवादानिवृत्तिरिन्येकभविकः कर्माशयोऽनुज्ञायत इति ।। (य०) अनेदं मनाग मीमांसामहे-"जात्यायु गा विपाकः" इत्यवधारणमनुपपन्नं, गङ्गामरणमुदिश्य कृतेन त्रिसन्ध्यस्तवपाठा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] दिना जनितमष्टं गज्ञामरणे विपच्यते इत्यस्यापि शास्त्रार्थत्वादायुष इव मरणस्यापि 'विपाककल्पातिरेकात् । किं च जन्म-आद्यक्षणसंबन्धरूपमायुःप्रतिलम्भनद्वारा [य] दि पूर्वकर्मविपाकः स्यात तदोत्तरोत्तरक्षणानामपि तथात्वापत्तिः, आयुषैव तदुपसंग्रहे च जन्मनोऽपि नैवोपसंग्रहो युक्तः, तस्माजन्मपदं गतिजात्यादिनामकर्मकृतजीवपर्यायोपलक्षणम् । गत्यादिभोगत्वावच्छिन्ने च गत्यादिनामकर्मप्रकृतीनां पृथक्पृथकारणत्वमवश्यमेष्टव्यम् , अन्यथा संकरापत्तेः । आयुरपि मनुष्याद्यायुभेदेन जीवनपर्यायलक्षणं चतुविधं फलभूतं, तज्जनकमायुष्कर्माऽपि च चतुर्विधमवश्यमभ्युपगमनीयम् । भोगपदेनावशेषकर्मषटकफलमुपलक्षणीयम् , ज्ञानावरणादिस्ले ज्ञानावरणीयादीनां पृथक्पृथकारणत्वस्यान्वयव्यतिरेकसिद्धत्वात् । पूर्वापरभावव्यवस्थितजन्मान्तरीयकर्मप्रचयत्य ताहशोत्तरजन्मफलभोगे हेतुत्वं तु दुर्वचम् , कचित्फलक्रमवैपरीत्यस्यापि दर्शनाद् । बुद्धिविशेषविषयत्वादीनां कर्मप्रचयफलप्रचयावनुगमय्य हेतुहेतुमद्भावाभ्युपगमे तु घटपटादिकार्यप्रचयेऽपि दण्डवेमादीनां तथा हेतु हेतुमद्भावापत्तिः। अनन्यगतिकत्वात्कर्मफलभोगस्थल एवेत्थं कल्प्यते नान्यत्रेति चेत्, न, अवगतभगवत्प्रवचनरहत्यत्यानन्यगतिकवासिद्धेः। तथाहि-प्रारम्भवद्धमेकमेशायुष्कर्म प्रायणलब्धविपाकमेव जन्म निर्वर्तयति, कर्मान्तराणि च कानि १-विपाककोटिप्रविष्टत्वात् इति भावः । २ तथैवोप' . स्थात् अथवा ' तेनैवोप' इति स्यात् । ३' वादिना' स्यात् । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] चित्तज्जन्मनियतविपाकानि, कानिचिन्नानाजन्मनियतविपाकानि, कानिचिदनियतविपाकानि वा। तत्राद्यैर्नामगोत्रवेदनीयः संवलितमायुभवोपग्राहिताव्यपदेशमनुते, यत्रान्ये प्रारब्धसंज्ञां निवेशयन्ति। एकस्मिन्भवे आयुर्द्वयस्य बन्ध उदयश्च प्रतिषिद्ध एवेति न जन्मान्तरसंकरादिप्रसङ्गः । नन्दीश्वरनहुषादीनामप्यायुःसंकराभ्युपगमे जन्मसंकरो दुर्निवारः। प्रायणं विना हि नायुष्कर्मान्तरोद्रोधः। शरीरान्तरपरिणामे प्रायणाभ्युपगमे च वक्तव्यं जन्मान्तरमिति । तस्माद्वैक्रियशरीरलाभसरशोऽयं नैकस्मिन् जन्मन्यायुद्धयमाक्षिपतीत्यलं मिथ्यादृष्टिसंघटेन । तस्मादेकभविकः कर्माशय इति भवोपग्राहिकर्मापेक्षयैव युक्तम्, नान्यथा, कर्मानुभवनिर्मितानां वासनानामनेकजन्मानुगमाभ्युपगमेऽर्थतः कर्मान्तराणा स्यैव तथोपगमात् । क्रोधादिवासनानामपि मोहनीयकर्मभावस्वरूपत्वात् , अन्यथा जातिव्यक्तिपक्षयोर्वासनाया दुनिरूपत्वादिति प्रतिपत्तव्यम् । भवोपनाहिकर्मणोऽध्यायुष्करूपस्यैकभविकत्वे कथं सप्तजन्मविप्रत्वप्रदकर्मविपाकोपपत्तिः ? इति चेत् , देवनारकयोरेकमेव भवग्रहणं पञ्चेन्द्रियतिर्यमनुष्ययोः सप्ताष्टौ भवग्रहणानि, पृथ्वीकायिकादीनामसंख्ययानि कायस्थितिः इत्यादि सिद्धान्तोतक्रमेण तादृशगतिजातिनामकर्मादिसंचयमत्रीधीनतादृशनवायुःपरम्परानुबन्धानेयमनुपपत्तिरस्माकम् । भवतु, नैकमेव कर्म प्रारब्धतामभुते, किन्तु तत्तत्क्षणवर्तिवद्वल्पसुखदुःखहेतु १'णामेव ' इति शुद्धम् । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५] गुरुलघुकर्मणामनेकेषां प्रायणकालोद्बुद्धवृत्तिकानां प्रारब्धतेत्येकत्र जन्मनि जन्मसप्तकभोगाकर्मस्यापत्तिरेव जन्मकृतस्य तादृशकर्मप्रचयस्य प्रायणसप्तकेन "यं यं वापि स्मरन् भाव" (गीता.अ.८.श्लो. ६.)इत्यादि स्मृत्यनुरोधेन प्रायणसप्तककालोत्पादितदेहान्तरविषयान्तिमप्रत्ययो क्रमशो लब्धप्रारब्धताकस्य सप्तजन्मविप्रत्वोपपादकत्वाभ्युपगमे गतमैहिकभाविककर्माशयप्रतिज्ञया, एवमनन्तभवविपाकिताया अपि वक्तं शक्यत्वात् । किञ्च तस्य तज्जन्मभोगप्रदत्वावच्छेदेन प्रारब्धत्वं तदन्यावच्छेदेन च संचितत्वं वाच्यम् , अन्यथा तत्त्वज्ञानिनोऽपि ताशकर्मवतो देहान्तरोत्पत्यापत्तिः, संचितं हि कर्म तत्त्वज्ञाननाश्यं न तु प्रारब्धम् । जन्मान्तरावच्छेदेन च तस्य संचितत्वात्तत्त्वज्ञानेन नाशानोक्तप्रसङ्ग इति । एवं च तज्जन्मभोगप्रदत्वावच्छेदेन तज्जन्मप्रारउधत्वम् , तज्जन्मप्रारब्धत्वावच्छेदेन च तजन्मभोगप्रदत्वमिति व्यक्त एवान्योऽन्याश्रयः। तस्मादायुष्कर्मैव प्रारब्धं तदेव च कर्मान्तरोपगृहीतं तत्तद्भवभागप्रदम् । अत एव जातिनामनिधत्तायुष्कादिभेदोऽपि सिद्धान्तसिद्धः । केवलिनश्वायुरधिककर्मसत्त्वे केवलिसमुद्घातेन तत्समीकरणान्न काऽप्यनुपपत्तिरिति अन्यत्रायुषो नैकभविकत्वनियमः कर्माशयस्य श्रद्धेयः। प्रायणमेव प्राम्भवकृतकर्मप्रचयोद्वोधकमित्यपि दुःशिक्षिताभिधानम् , पुद्गलजीवभवक्षेत्रवि १ . ० भोग्यकर्मविपाकस्या' इति समीचीनम् । २ ० रेकजन्म' इति शु०।३ गतमिहक-" इति । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] पाकमेदेन कर्मणां नानाविपाकत्वाद्भवीवपाक्यायुष्प्रकृतिविपाकस्य प्रायणोद्वोध्यत्वेऽपि सर्वत्र तथा वक्तुमशक्यत्वात् । दृश्यते हि निद्रादिविपाकोद्वोधे कालविशेषस्यापि हेतुत्वम्, न च दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, स्वानन्तरकर्मविपाकोद्बोधद्वारा प्रायणस्याग्रिमसंतत्युद्धोधकत्वस्वीकारे चातिप्रसङ्गः, नानाभवसंततिद्वारघटनायास्तत्र तत्पूर्व च वक्तुं शक्यत्वात् । प्रधानत्वमपि कर्मण एकायुष्परिग्रहं विना दुवैचम् । न होकन भवे नानागतियोग्यकर्मोपादानेऽन्ते इदमेव फलवदित्यनान्यन्नियामकमस्ति, आयुस्त्वेकत्र भवे एकवारमेव वध्यत इति तदनुसारेणान्ते तादृग्लेश्योपगमात्, “ यल्लेश्यो म्रियते तल्लेश्येपू. त्पद्यते " इति प्राग्भवबद्धमायुस्तादृशलेश्यया विपाकप्राप्तं प्रधानीभवदन्यकर्माण्युपगृह्णातीति सर्व [सं] गच्छते । प्रधानकर्मण्यावापगमनादिकमपि "मूलप्रकृत्याभन्नाः, संक्रमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः। नन्वात्माऽमूर्तत्वादध्यवसायप्रयोगेण ॥” इत्याद्युक्तनीत्या संक्रमविधिपरिज्ञानं विना न कथमप्युपपादयितुं शक्यम् , अन्यथा किं कुत्र संक्रामति' इति विनिगन्तुमशक्यत्वात् । तस्मादनार्थेऽस्मस्कृतकर्मप्रकृतिवृत्तिं सम्यगवलोक्य वीतरागसिद्धान्तानुरोधि कर्माशयस्वरूपं व्याख्येयमिति कृतं विस्तरण || प्रकृतं प्रस्तुम:-- ते हादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥२-१४॥ कथं ? तदुपपाद्यतेपरिणामतापसंस्कारदुःखेगुणवृत्तिविरोधाञ्च Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] दुःखमेव सर्व विवेकिनः ॥ २-१५॥ भाष्यम्-सर्वस्यायं रागानुविद्धश्चेतनाचेतनसाधनाधीनः सुखानुभव इति तत्रास्ति रागजः कर्माशयः । तथा च द्वेष्टि दुःखसाधनानि मुह्यति चेति द्वेषमोहकृतोऽप्यस्ति । तथा चोक्तम्-" नानुपहत्य भूतान्युपभोगः सम्भवतीति हिंसाकृतोऽप्यस्ति शारीरः कर्माशयः "-इति । विषयसुखं चावियेत्युक्तम् । या भोगेष्विन्द्रियाणां तृप्तरुपशान्तिस्तत्सुखम्, या लोल्यादनुपशान्तिस्तद् दुःखम् । न चेन्द्रियाणां भोगाभ्यासेन वैवप्ण्यं कर्तु शक्यम् । कस्मात् १ यतो भोगाभ्यासमनु विवर्धते रागः कौशलानि चेन्द्रियाणामिति । तस्मादनुपायः सुखस्य भोगाभ्यास इति । स खल्वयं वृश्चिकविषभीत इवाशीविषेण दष्टो यः सुखार्थी 'विषयाननुव्यवसितो महति दुःखपङ्के मम इति । एषा परिणामदुःखता नाम प्रतिकूला सुखावस्थायामपि योगिनमेव क्लिनाति । अथ का तापदुःखता ? सर्वस्य द्वेषानुविद्धश्चेतनाचेतनसाधनाधीनस्तापानुभव इति तत्रास्ति द्वेषजः कर्माशयः। सुखसाधनानि च प्रार्थयमानः कायेन वाचा मनसा च परिस्पन्दते, ततः परमनुगृह्णात्युपहन्ति चेति परानुग्रहपीडाभ्यां धर्माधर्मावुपचिनोति । स कर्माशयो लोभान्मोहाच भवतीत्येपा तापदुःख १॥ विषयानुवासितः" इत्यपि । - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] तोच्यते । का पुनः संस्कारदुःखता ? सुखानुभवात्सुखसंस्काराशयो दुःखानुभवादपि दुःखसंस्काराशय इति । एवं कर्मभ्यो विपाकेऽनुभूयमाने सुखे दुःखे वा पुनः कर्माशयप्रचय इति । एवमिदमनादि दुःखस्रोतो विप्रसृतं योगिनमेव प्रतिकूलात्मकस्वादुद्वेजयति । कस्मात ? अक्षिपात्रकल्पो हि विद्वानिति, यथोर्णातन्तुरक्षिपात्रे न्यस्तः स्पर्शन दुःखयति, नान्येषु गात्रावयवेषु, एवमेतानि दुःखानि अक्षिपात्रकल्पं योगिनमेव लिश्नन्ति नेतरं प्रतिपत्तारम् । इतरं तु खकर्मोपहृतं दुःखमुपात्तमुपात्तं त्यजन्तं त्यक्तं त्यक्तमुपाददानमनादिवासनाविचित्रया चित्तवृत्त्या समन्ततोऽनुविद्धमिवाविद्यया हातव्य एवाहङ्कारममकारानुपातिनं जातं जातं वाह्याध्यात्मिकोभयः निमित्तास्त्रिपर्वाणस्तापा अनुलवन्ते । तदेवमनादिदुःखस्रोतसा व्युह्यमानमात्मानं भूतग्रामं च दृष्ट्वा योगी सर्वदुःखक्षयकारणं सम्यग्दर्शनं शरणं प्रपद्यत इति । गुणवृत्तिविरोधाच दुःखमेव सर्व विवेकिनः । प्रख्याप्रवृत्तिस्थितिरूपा गुणाः परस्परानुग्रहपरतन्त्रा भूत्वा शान्तं घोरं मूंढ वा प्रत्ययं त्रिगुणमेवारभन्ते । चलं च गुणवृत्तमिति क्षिप्रपरिणामि चित्तमुक्तम् । रूपातिशया वृत्त्यतिशयाश्च परस्परेण विरुध्यन्ते । सामान्यानि त्वतिशयैः सह वर्तन्ते । एवमेते गुणा इतरेतराश्रयेणोपार्जितसुखदुःखमोहप्रत्यया इति सर्वे सर्वरूपा भवन्ति । गुणप्रधानभावकृतस्त्वेषां विशेष इति । तस्माद् दुःखमेव सर्व विवेकिन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] इति । तदस्य महतो दुःखसमुदायस्य प्रभवबीजमविद्या। तस्याश्च सम्यग्दर्शनमभावहेतुः । यथा चिकित्साशास्त्रं चतुर्मूहम् , रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिदमपि शास्त्रं चतुर्म्यहमेव । तद्यथा-संसारः संसारहेतुः मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुलः संसारो हेयः। प्रधानपुरुपयोः संयोगो हेयहेतुः । संयोगस्यात्यन्तिकी निवृत्तिनिम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । तत्र हातुः स्वरूपमुपादेयं हेयं वा न भवितुमहति इति, हाने तस्योच्छेदवादप्रसङ्गः, उपादाने च हेतुवादः, उभयप्रत्याख्याने शाश्वतवाद इत्येतत्सम्यग्दर्शनम् । तदेतच्छाखं चतुर्वृहमित्यभिधीयते ॥ (10)--निश्चयनयमतमेतद्, यदुपजीव्याह स्तुतौ महावादी"भवीजमनन्तमुज्झितं विमलज्ञानमनन्तमर्जितम् । न च हीनकलोऽसि नाधिकः समतां नाप्यतिवृत्त्य वर्तसे ॥ १॥" इति ॥ हेयं दुःखमनागतम् ॥ २-१६ ॥ तस्माद्यदेव हेयमित्युच्यते तस्यैव कारणं प्रतिनिर्दिश्यते द्रष्ट्रदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥२-१७॥. दृश्यस्वरूपमुच्यते १ सिद्धसेनदिवाकरः २ चतुर्थद्वात्रिशिका श्लो. २९ ।। ३ 'चाप्यनिवृत्त्व' इति मुद्रिते पाठांतरं । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगा पवर्गार्थं दृश्यम् ॥ २-१८॥ दृश्यानां तु गुणानां स्वरूपभेदावधारणार्थमिदमारभ्यतेविशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥२-१९॥ भाष्यम्-तत्राकाशवाय्वग्न्युदकभूमयो भूतानि शब्दस्पशरूपरसगन्धतन्मात्राणामविशेषाणां विशेषाः । तथा श्रोत्रत्वचक्षुर्जिबाघ्राणानि बुद्धीन्द्रियाणि, वाक्पाणिपादपायूपस्थानि कर्मेन्द्रियाणि, एकादशं मनः सवोथेमित्येतान्यसितालक्षणस्याविशेषस्य विशेपाः, गुणानामेप पोडशको विशेषपरिणामः । पडविशेपाः, तद्यथा-शब्दतन्मानं स्पर्शतन्मात्रं रूपतन्मानं रसतन्मात्रं गन्धतन्मात्रं चेत्येकद्वित्रिचतुष्पश्चलक्षणाः शब्दादयः पश्चाविशेपाः, पष्ठश्चाविशेपोऽसितामात्र इति । एते सत्तामात्रस्यात्मनो महतः पडविशेषपरिणामाः । यत्तत्परमविशेपेभ्यो लिङ्गमात्रं महत्तत्त्वं तसिन्नेते सत्तामात्रे महत्यात्मन्यवस्थाय विवृद्धिकाष्ठामनुभवन्ति । प्रतिसंसृज्यमानाश्च तस्मिन्नेव सत्तामात्रे महत्यात्मन्यवस्थाय यत्तन्निःसत्तासत्तं निःसदसन्निरसदव्यक्तमलिङ्गं प्रधानं तत्प्रतीयन्तिा एप तेपां लिङ्गमात्रः परिणामो निस्सत्तासत्तं चालिङ्गपरिणाम इति । अलिङ्गावस्थायां न पुरुषार्थों हेतु लिङ्गावस्थायामादौ पुरुषा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] र्धता कारणं भवतीति नासौ पुरुषार्थकृतेति नित्याऽऽख्यायते । त्रयाणां त्ववस्थाविशेषाणामादौ पुरुषार्थता कारणं भवति । संर्वार्थो हेतुर्निमित्तं कारणं भवतीत्यनित्याख्यायते । गुणास्तु सर्वधर्मानुपातिनो न प्रत्यस्तमयन्ते नोपजायन्ते, व्यक्तिभिरेवातीतानागतव्ययागमवतीभिर्गुणान्वयिनीभिरुपजननापायधर्माका इव प्रतिभासन्ते । यथा देवदत्तो दरिद्राति, कस्मात् १ यतोऽस्य त्रियन्ते गाव इति गवामेव मरणात्तस्य दरिद्राणं न स्वरूपहानादिति समः समाधिः । लिङ्गमात्रमलिङ्गस्य प्रत्यासन्नं तत्र तत्संसृष्टं विविच्यते क्रमानतिवृत्तेः । तथा षडविशेषा लिङ्गमात्रे संसृष्टा विविच्यन्ते परिणामक्रमनियमात् । तथा तेष्वविशेषेषु भूतेन्द्रियाणि संसृष्टानि विविच्यन्ते । तथा चोक्तं पुरस्ताद - " न विशेषेभ्यः परं तत्त्वान्तरमस्ति " इति विशेषाणां नास्ति तत्त्वान्तरपरिणामः । तेषां तु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्यास्यन्ते ॥ (य०) प्रागभावप्रध्वंसाभावानभ्युपगमे सर्वमेतदुक्तमनुपपन्नम् । तदुक्तम कलङ्केन ---" कार्यद्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निह्नरे । प्रध्वंसस्थापलापे तु तदेवानन्ततां व्रजेत् ॥ १ ॥ तदुपगमे तु द्रव्यप्रर्यायोभयरूपत्वाद्वस्तुनः सर्वत्र त्रैलक्षण्येन कथंचिदेषा व्यव 33 स्था युज्येतापीति वयं वदामः ॥ द्रष्टा हशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ॥ २२० ॥ ९ ' स चार्थो' इत्यपि । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा ॥ २-२१ ॥ कस्मात्कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारण त्वात् ॥ २-२२ ॥ संयोगस्वरूपाभिधित्सयेदं सूत्रं प्रववृतेस्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ॥२-२३ ॥ यस्तु प्रत्यक्चेतनस्य स्वबुद्धिसंयोगः तस्य हेतुरविद्या ॥२-२४॥ हेयं दुःखं हेयकारणं च संयोगाख्यं सनिमित्तमुक्तम्, अतः परं हानं वक्तव्यम्तदभावात् संयोगाभावो हानं तद् दृशेः कैवल्यम् ।। २-२५॥ अथ हानस्य कः प्राप्त्युपायः ? इतिविवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥२-२६ ॥ तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ॥ २-२७ ॥ सिद्धा भवति विवेकख्यातिानोपायः । न च सिद्धिरन्तरेण साधनम् इत्येतदारभ्यते Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीतिरा विवेक ___ ख्यातेः ॥२-२८ ॥ तत्र योगाङ्गान्यवधार्यन्तेयमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान समाधयोऽष्टावङ्गानि ॥ २-२९॥ अहिंसातत्यास्त्येयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥२-३०॥ जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महानतम् ॥२-३१॥ भाष्यम्-तत्राहिंसा जात्यवच्छिन्ना मत्स्यवन्धकस्य मत्स्येग्वेव नान्यत्र हिंसा। सैव देशावच्छिन्ना न तीर्थे हनिष्यामीति। सैव कालावच्छिन्ना न चतुर्दश्यां पुण्येऽहनि हनिष्यामीति ! सैव त्रिभिरूपरतस्य समयावच्छिन्ना देवब्राह्मणार्थे हनिष्यामीति । यथा च क्षत्रियाणां युद्ध एव हिंसा नान्यत्रेति । एभिर्जातिदेशकालसमथैरनवच्छिन्ना अहिंसादयः सर्वथैव प्रतिपालनीयाः। सर्वभूमिषु सर्वविपयेषु सर्वथैवाविहितव्यभिचारा सार्वभौमा महाव्रतमित्युच्यन्ते ।। १ " वाविदित-" इति । - Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] (य०)-सर्वशब्दगर्भप्रतिज्ञया महाव्रतानि, देशशब्दगर्भप्रतिज्ञया चाणुव्रतानीति पुनः पारमर्षविवेकः । एकवचनं चात्र सर्वप्रतिज्ञया पञ्चानामपि तुल्यत्वाभिव्यक्त्यर्थम् ॥ शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ २-३२ ।। भाष्यम्-तत्र शौचं मृजलादिजनितं मेध्याभ्यवहरणादि च बाह्यम् । आभ्यन्तरं चित्तमलानामाक्षालनम् । (य०-भावशाचानुपरोध्येव द्रव्यशौचं बाह्यमादेयमिति तत्त्वदर्शिनः ॥ ___ एतेषां यमनियमानाम् वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥ २-३३ ॥ वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्॥२-३४॥ प्रतिपक्षभावनाद्धेतो:या वितर्का यदा स्युरप्रसवधर्माणस्तदा तत्कृतमैश्वर्य योगिनः सिद्धिसूचकं भवति, तद्यथाअहिलाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥२-३५॥ लत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ २-३६ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ २-३७॥ ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥२-३८॥ अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ॥ २-३९ ॥ शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ॥२-४० ॥ किञ्चसत्वशुद्धिसामनस्यैकाग्र्यन्द्रियजयात्मदर्शन योग्यत्वानि च ॥ २-४१ ॥ सन्तोषादनुत्तमः सुखलाभः ॥ २-४२ ॥ कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः ॥२-४३ ॥ स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ॥२-४४ ॥ समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ॥२-४५॥ उक्ताः सह सिद्धिभिर्यमनियमाः । आसनादीनि पक्ष्यामः । तत्र स्थिरसुखमासनम् ॥ २-४६ ॥ प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥ २-४७ ॥ ततो द्वन्द्वानभिघातः ॥२-४८ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] ( य० ) - सर्व शब्द गर्भप्रतिज्ञया महाव्रतानि, देशशब्द गर्भप्रतिज्ञया चाणुव्रतानीति पुनः पारमर्षविवेकः । एकवचनं चात्र सर्वप्रतिज्ञया पथ्यानामपि तुल्यत्वाभिव्यक्त्यर्थम् ॥ शौच संतोष तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।। २-३२ ॥ भाष्यम् - तत्र शौचं मृञ्जलादिजनितं मेध्याभ्यवहरणादि च वाह्यम् । श्रभ्यन्तरं चित्तमलानामाक्षालनम् । ( य० ) - भाव शौचानुपरोध्येव द्रव्यशौचं बाह्यमादेयमिति तत्त्वदर्शिनः ॥ एतेषां यमनियमानाम् - वितर्काधने प्रतिपक्ष भावनम् ॥ २-३३ ॥ वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्ष भावनम् ॥२-३४॥ प्रतिपक्षभावनाद्धेतोर्हेया वितर्का यदा स्युरप्रसवधर्माणस्तदा तत्कृतमैश्वर्य योगिनः सिद्धिचकं भवति, तद्यथाअहिलाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥२- ३५॥ सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ २-३६ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥२-३७॥ ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ २-३८ ॥ अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ॥२-३९ ॥ शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ॥२-४० ॥ किञ्चसत्त्वशुद्धिसोमनस्यैकाग्र्यन्द्रियजयात्मदर्शन योग्यत्वानि च ॥ २-४१ ॥ सन्तोषादनुत्तमः सुखलाभः ॥२-४२ ॥ कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः ॥ २-४३ ॥ स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ॥२-४४ ॥ समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ॥२-४५॥ उक्ताः सह सिद्धिभिर्यमनियमाः । श्रासनादीनि वक्ष्यामः । तत्र स्थिरसुखमासनम् ॥ २-४६ ॥ प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥ २-४७ ॥ ततो द्वन्द्वानभिधातः ॥२-४८॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] सस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोगतिविच्छेदः प्राणायामः ॥ २-४९ ।। स तुबाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसङ्ख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः ॥ २-५० ॥ बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ॥२-५१॥ ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ॥२-५२ ॥ धारणासु च योग्यता मनसः ॥२-५३ ॥ श्रथ का प्रत्याहारः ?खविषयासम्प्रयोगे चित्तवरूपानुकार इवेन्द्रि याणां प्रत्याहारः ॥२-५४ ॥ ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ॥ २-५५ ॥ भाष्यम्-शब्दादिष्वव्यसनमिन्द्रियजय इति केचित् । सक्तिर्व्यसनं व्यस्यत्येनं श्रेयस इति । अविरुद्धा प्रतिपत्ति ाय्या । शब्दादिसम्प्रयोगः स्वेच्छयेत्यन्ये । रागद्वेपाभावे सुखदुःखशून्यं शब्दादिज्ञानमिन्द्रियजय इति केचित् । चित्तैकाग्र्यादप्रतिपत्तिरेवेति जैगीपन्यः। ततश्च परमा त्वियं वश्यता Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] चच्चित्तनिरोधे निरुद्धानीन्द्रियाणि, नेतरेन्द्रियजयवत् प्रयत्न - कृतमुपायान्तरमपेक्षन्ते योगिन इति ॥ ( २० ) - व्युत्थानध्यानदशा साधारणं वस्तुस्वभावभावनया स्त्वविषयप्रतिपत्तिप्रयुक्तरागद्वेषरूपफलानुपधानमेवेन्द्रियाणां परमो जयः इति तु वयम् । तथोक्तं शीतोष्णीयाध्ययने ( आचाराङ्ग अध्ययन ३ उद्दे० १. ) - " जस्सिमे सद्दा य रूपा य गंधा य रताच फासा य अभिसमन्नागया भवंति से आयवं नागवं देयवं धम्मवं बंभवं " इत्यादि । श्रत्र "अभिसमन्वागता" इत्यस्य श्रभीत्याभिमुख्येन मनःपरिणामपरतन्त्रा इन्द्रियविषयादत्युपयोलक्षणेन (१) समिति सम्यक्स्वरूपेण नैते इष्टा अनिष्टा वेति निर्धारया अनु पञ्चादागताः परिच्छिन्ना यथार्थस्वभावेन यस्येत्वर्यः, स श्रात्मवानित्यादि परस्परमिन्द्रियजयस्य फलार्थवादः । अन्यन्त्राप्युक्तम्- " ण सक्का रूवमद्दद्धुं चक्खू विसयमागयं बगदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए || १ || " इत्यादि चित्तनिरोधादतिरिक्तप्रयत्नानपेक्षत्वं तु परमेन्द्रियजये ज्ञानैकसाध्ये प्रयत्नमात्रानपेक्षत्वादेव निरूप्यते, तथा च स्तुतिकार:--" संय तानि तवा (न चा) क्षाणि न चोच्छृङ्खतितानि च । इति सम्यक्प्रति पदा (घ) [व] वेन्द्रियजयः कृतः ||१||" इति । न च प्राणायामा दिठयोगाभ्यासश्चित्तनिरोधे परमेन्द्रियजये च निश्चित उपायोऽपि १ सिद्धसेन दिवाकरः । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] " “" ऊसासं ण रुिभइ ” [ आव० नि० १५१० ] इत्याद्यागमेन योगसमाधानविघ्नत्वेन बहुलं तस्य निषिद्धत्वात् । तस्मादध्यात्मभावनोपवृंहितसमतापरिणामप्रवाही ज्ञानाख्यो राजयोग एव चित्तेन्द्रिय [जय ] स्य परमेन्द्रियजयस्य चोपाय इति युक्तम् ॥ ॥ इति पातञ्जले साङ्ख्यप्रवचने योगशास्त्रे साधननिर्देशो नाम द्वितीयः पादः ॥ देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥ ३१ ॥ तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥ ३-२ ॥ तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ॥ ३-३ ॥ त्रयमेकत्र संयमः || ३-४ ॥ तज्जयात् प्रज्ञालोकः ॥ ३–५ ॥ तस्य भूमिषु विनियोगः ॥ ३-६ ॥ त्र्यमन्तरङ्गं पूर्वेभ्यः || ३–७ ॥ तदपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य ॥ ३-८ ॥ अथ निरोधचित्तक्षणेषु चलं गुणवृत्तमिति कीदृशस्तदा चित्तपरिणाम: : - ! Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावी निरोधक्षणचित्तान्वयो निरोधपरिणामः ॥३-९॥ तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात् ॥३-१०॥ सर्वार्थेकाग्रतयोः क्षयोदयो चित्तस्य ततः पुनः समाधिपरिणामः ॥३-११॥ शान्तोदितो तुल्यप्रत्ययो चित्तस्यै काग्रता परिणामः ॥३-१२ ॥ एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः ॥३-१३ ॥ तत्रशान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी ॥३-१४॥ क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः ।। ३-१५॥ परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् ॥३-१६॥ शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात्संकरस्तत्प्रवि. भागसंयमात्सर्वभूतस्तज्ञानम् ॥३-१७॥ संस्कारसाक्षात्करणापूर्वजातिज्ञानम् ॥३-१८॥ प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् ॥ ३-१९ ॥ C Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] न च तत्सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात्॥३-२०॥ कायरूपसंयमात्तग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्षुष्प्रकाशा सम्प्रयोगेऽन्तर्धानम् ॥३-२१॥ लोपक्रम निरुपक्रमं च कर्म तत्संयमादपरान्त ज्ञानमरिष्टेभ्यो वा ॥३-२२ ॥ मैत्र्यादिषु बलानि ॥३-२३ ॥ बलेषु हस्तिबलादीनि ॥ ३-२४ ॥ प्रवृत्त्या लोकन्यासात्सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टार्थ ज्ञानम् ॥ ३-२५ ॥ भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ॥ ३-२६ ॥ चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् ॥३-२७॥ ध्रुवे तद्गतिज्ञानम् ॥ ३-२८ ॥ नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ॥ ३-२९ ॥ कण्ठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्तिः ॥ ३-३०॥ कूर्मनाड्यां स्थैर्यम् ॥ ३-३१ ॥ मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम् ॥३-३२ ॥ प्रातिभावा सर्वम् ॥३-३३ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१] हृदये चित्तसंवित् ॥ ३-३४ ॥ सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तासंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषो भोगः परार्थत्वात्स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्॥३-३५॥ ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते ॥ ३-३६ ॥ ते समाधावुपसर्गा व्युत्याने सिद्धयः ॥३-३७॥ पन्धकारणशैथिल्यात्प्रचारसंवेदनाञ्च चित्तस्य परशरीरप्रवेशः ॥३-३८॥ उदानजयाजलपङ्ककण्टकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च ॥ ३-३६ ॥ समानजयाज्वलनम् ॥३-४०॥ भोत्राकाशयोः संबन्धसंयमादिव्यं श्रोत्रम् ॥३-४१॥ कायाकाशयोः संबन्धसंयमाल्लघुतूलसमापत्तेश्चा काशगमनम् ॥३-४२ ॥ पहिरकल्पितावृत्तिमहाविदेहा ततः प्रकाशा वरणक्षयः ॥३-४३ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद्भूत जयः ॥३-४४॥ ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसंपत्तद्धर्मा नभिघातश्च ॥ ३-४५ ॥ रूपलावण्यबलवनसंहननत्वानि काय संपत् ॥ ३-४६ ॥ ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्वसंयमादिन्द्रिय जयः ॥ ३-४७॥ . ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधान जयश्च ॥ ३-४८ ॥ सत्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च ॥३-४९ ॥ तद्वैराग्यादपि दोषवीजक्षये कैवल्यम् ॥३-५०॥ स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्ट प्रसङ्गात् ॥३-५१॥ क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ॥३-५२॥ तस्य विषयविशेष उपक्षिप्यते Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिलक्षणदेशैरन्यतानवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः ॥३-५३ ॥ तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ॥ ३-५४ ॥ प्राप्तविवेकजज्ञानस्याप्राप्तविवेकजज्ञानस्य वासत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ॥३-५५॥ ___ भाष्यम्-यदा निर्धूतरजस्तमोमलं बुद्धिसत्त्वं पुरुषस्यान्यताप्रत्ययमात्राधिकार दग्धक्लेशवीजं भवति तदा पुरुषस्य शुद्धिसारूप्यमिवापन्नं भवति । पुरुषस्योपचरितभोगाभाव! शुद्धिः । एतस्यामवस्थायां कैवल्यं भवति ईश्वरस्यानीश्वरस्य वा विवेकजज्ञानभागिनः इतरस्य वा। न हि दग्धक्लेशबीजस्य ज्ञाने पुनरपेक्षा काचिदस्ति । सत्त्वशुद्धिद्वारेणैतत्समाधिजमैश्वर्य झानं चोपक्रान्तम् । परमार्थतस्तु ज्ञानाददर्शनं निवर्तते, तस्मिन्निवृत्ते न सन्त्युत्तरे क्लेशाः, क्लेशाभावात् कर्मविपाकाभावः । चरिताधिकाराश्चैतस्यामवस्थायां गुणाः न पुनदृश्यत्वेनोपतिष्ठन्ते । तत् पुरुपस्य कैवल्यं, तदा पुरुषः स्वरूपमाज्योतिरमलः केवली भवतीति ।। (य०)-अत्रेदं चिन्त्यम्-ऐश्वर्य लब्धिरूपं न समाधिरूपसंयमजन्यं, वैचित्र्यप्रतियोगिनस्तस्य विचित्रक्षयोपशमादिजन्यस्वात् । एकत्र यरूपस्य च संयमस्य चित्तस्थैर्य एवोपयोगो Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४] बाहुल्येन, आत्मद्रव्यगुणपर्यायगुणस्य रूपस्य च तस्य शुक्लध्यानशरीरघटकतया कैवल्यहेतुत्वमपि । ईश्वरस्यानीश्वरस्य वा विवेकजज्ञानवतस्तदभाववतो वा] "सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यम्" इत्यप्ययुक्तम् , विवेकजं केवलज्ञानमन्तरेणोक्तशुद्धिसाम्यस्यैवानुपपत्तेः । “ दग्धक्लेशवीजस्य जाने पुनरपेक्षा नास्ति ” इत्युक्तेनियुक्तिकत्वादात्मदर्शनप्रतिबन्धकस्यैव कर्मणः केवलज्ञानप्रतिवन्धकत्वेन तदपगमे तदुत्पत्तेरवर्जनीयत्वान्निष्प्रयोजनस्यापि फलरूपस्य तस्य स(स्व)स्वसामग्रीसिद्धत्वात्। न हि प्रयोजनक्षतिभिया सामग्रीकार्य नार्जयतीति । तदिदमुक्तम्-"लेशपक्तिमंतिज्ञानान किश्चिदपि केवलात् । तमःप्रचयनिःशेषविशुद्धिप्रभवं हि तत् ॥१॥" इति गुणविशेषजन्यत्वेऽप्यात्मदर्शनवन्मुक्तौ तस्याव्यभिचारित्वं तुल्यम् । वस्तुतो ज्ञानस्य सर्वविषयकत्वं स्वभावः, छद्मस्थस्य च विचित्रज्ञानावरणेन स प्रतिबध्यत इति | निःशेषप्रतिबन्धकापगमे ज्ञाने सर्व विषयकत्वमावश्यकम् । तदुक्तं-"झो नेये कथमज्ञः स्यात् असति प्रतिबद्धरि दाह्येऽमिहिको न स्यात् कथमप्रतिवन्धकः" ।। ( योगबिन्दु. ४३१.) इति । एतेन विवेकजं सर्वविषयकं ज्ञानमुत्पन्नमपि सत्त्वगुणत्वेन निवृत्ताधिकारायां प्रकृती प्रविलीयमानं नात्मानमभिस्पृशतीत्यात्मार्थशून्यनिर्विकल्पचिद्रूप एव मुक्तौ व्यवतिष्ठत इत्यप्यपास्तम् । चित्त्वावच्छेदेनैकस विषयकत्वस्वभावकल्पनाद्, अर्थशून्यायां चिति मानाभावाद्, बिम्परूपस्य चित्सामान्यस्याविवर्तस्य कलनेऽचित्सामान्यस्यापि Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] तादृशस्य कल्पनापत्तेः व्यवहारस्य बुद्धिविशेषधर्मैरेवोपपत्तेः, यदि चाचित्सामान्यनिष्ठ एवाचिद्विवर्तः कल्प्यते तदा तुल्यन्यायाचिद्विवतोऽपि चित्सामान्यनिष्ठ एवाभ्युपगन्तुं युक्तो न तु चिदचिद्विवर्त्ताधिष्ठानमेव कल्पयितुं युक्तं, नयादेशस्य सर्वत्र द्रव्ये तुल्यप्रसरत्वात् । कौटस्थ्यं त्वात्मनो यच्छ्रुतिसिद्धं तदितरावृत्तिस्वाभाविक ज्ञानदर्शनोपयोगवत्त्वेन समर्थनीयम् । निर्धर्मकत्वं चितः कौटस्थ्यमित्युक्तौ तत्र प्रमेयत्वादेरप्यभावप्रसङ्गात्, तथा च " सच्चिदानन्दरूपं क्ष" इत्यादेरनुपपत्तिः । श्रसदादिव्यावृत्तिमात्रेण सदादिवचनोपपादने च चित्वमप्यचिद्वयावृत्तिरेव स्यादिति गतं चित्सामान्येनापि । यदि च " उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सद् इति गुणस्थलोपदर्शितरीत्या स (द) लक्षणं सर्वत्रोपपद्यते तदा संसारिमुक्तयोरसाङ्कर्येण स्वविभावस्वभावपर्यायैस्तदबाधमानं बन्धमोक्षादिव्यवस्थामविरोधेनोपपादयतीति एतज्जैनेश्वरप्रवचनामृतमापीय " उपचरितभोगाभावो मोक्षः " इत्यादि मिथ्यादृग्वचनवा - सनाविषमनादिकाल निपीतमुद्वमन्तु सहृदयाः ! | अधिकं लतादौ ॥ ॥इति पातञ्जले साङ्ख्यप्रवचने योगशास्त्रे विभूतिपादस्तृतीयः॥ 17 20 जन्मौषधिमन्त्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः ॥४- १॥ तत्र कायेन्द्रियाणामन्यजातीयपरिणतानाम्जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात् ॥ ४-२ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ [१६] निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ॥ ४-३॥ यदा तु योगी बहून् कायानिमिमीते तदा किमेकमनस्कास्ते भवन्त्यथानेकमनस्काः १ इति निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात् ॥ ४-४ ॥ प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम् ॥४-५॥ तत्र ध्यानजमनाशयः ॥४-६ ॥ यतःकर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषां ॥४-७॥ ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्वासना नाम् ॥ ४-८॥ जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्य स्मृतिसं स्कारयोरेकरूपत्वात् ॥४-९ ॥ तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात् ॥४-१०॥ हेतुफलाश्रयालम्बनैः संगृहीतत्वादेषामभावे तभावः ॥४-११॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४७] नास्त्यसतः संभवो न चास्ति सतो विनाश इति द्रन्यत्वेन संभवन्त्यः कथं निवर्तिष्यन्ते वासना इतिअतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदाधर्मा णाम् ॥४-१२॥ भाष्यम्-भविष्यद्वयक्तिकमनागतम् , अनुभूतव्यक्तिकमतीतं, स्वच्यापारोपारूढं वर्तमानं, त्रयं चैतद्वस्तु ज्ञानस्य ज्ञेयम् । यदि चैतत्स्वरूपतो नाभविष्यन्नेदं निर्विपयं ज्ञानमुदपत्स्यत । तस्मादतीतानागतं स्वरूपतोऽस्तीति । किञ्च भोगभागीयस्य वापवर्गभागीयस्य वा कर्मणः फलमुत्पित्सु यदि निरूपाख्यमिति तदुद्देशेन तेन निमित्तेन कुशलानुष्ठानं न युज्येत । सतश्च फलस्य निमित्तं वर्तमानीकरणे समर्थ नापूर्वजनने । सिद्धं निमित्तं नैमित्तिकस्य विशेषानुग्रहणं कुरुते नापूर्वमुत्पादयतीति । धर्मी चानेकधर्मस्वभावस्तस्य चावभेदेन धर्माः प्रत्यवस्थिताः । न च यथा वर्तमान व्यक्तिविशेषापन्नं द्रव्यतोऽस्ति एवमतीतमनागतं च । कथं तर्हि ? स्खेनैव व्यङ्गेन स्वरूपेणानागतमस्ति, स्वेन चानुभूतव्यक्तिकेन स्वरूपेणातीतमिति । वर्तमानस्यैवाध्वनः स्वरूपव्यक्तिरिति न सा भवत्यतीतानागतयोरध्वनोः। एकस्य चाध्वनः समये द्वावध्वानी धर्मिसमन्वागतौ भवत एवेति नाभूत्वाभावस्त्रयाणामध्वनामिति ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ ] (२०) - द्रव्यपर्याग्रात्मनैवाध्वत्रयसमावेशो युज्यते नान्यथा, निमित्तस्वरूपभेदस्य परेणाप्यवश्याश्रयणीयत्वात् । तथा चाभूत्वा भावाभावयोरपि पर्यायद्रव्यस्वरूपाभ्यां स्याद्वाद एव युक्तोऽन्यथा प्रतिनियतवचनव्यवहाराद्यनुपपत्तेरिति तु श्रद्धेयं सचेतसा ॥ ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मानः ॥ ४-१३ ॥ यदा तु सर्वे गुणाः कथमेकः शब्द एकमिन्द्रियमिति — परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्त्वम् ॥ ४–१४ ॥ W भाष्यम् — प्रख्याक्रियास्थितिशीलानां गुणानां ग्रहणामकानां करणभावेनैकः परिणामः श्रोत्रमिन्द्रियम्, ग्राह्यात्मकानां शब्दभावेनैकः परिणामः शब्दो विषय इति, शब्दादीनां मूर्त्तिसमानजातीयानामेकः परिणामः पृथ्वीपरमाणुस्तन्मात्रावयवस्तेषां चैकः परिणामः पृथ्वी गौः वृक्षः पर्वत इत्येवमादिर्भूतान्तरेष्वपि स्नेहौष्ण्यप्रणामित्वावकाशदानान्युपादाय सामान्यमेकविकारारम्भः समाधेयः ॥ P ( ० ) - एकानेकपरिणामस्याद्वादाभ्युपगमं विना दु:श्रद्धानमेतत् ॥ कुतश्चैतदन्याय्यम् :– वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्तः पन्थाः ॥४-१५॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] न चैकचित्ततन्त्रं वस्तु तदप्रमाणकं तदा किं स्यात् ॥ ४-१६ ॥ तदुपरागापेक्षित्वाच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम् ॥४-१७ यस्य तु तदेव चित्तं विषयस्तस्यसदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वात् ॥ ४-१८ ॥ भाप्यम् - यदि चित्तवत्प्रभुरपि पुरुषः परिणमेत तदा तद्विपयाश्चित्तवृत्तयः शब्दादिविषयवद् ज्ञाताज्ञाताः स्युः । सदाज्ञातत्वं तु मनसस्तत्प्रभोः पुरुपस्यापरिणामित्वमनुमापयति ।। ( २० ) - ज्ञानरूपस्य चित्तस्यात्मनि धर्मितापरिणामः सदा सन्निहितत्वेन तस्य सदाज्ञातत्वेऽप्यनुपपन्नः शब्दादीनां कादाचित्क्सन्निधानेनैव व्यञ्जनावग्रहादिलक्षणेन ज्ञाताज्ञातत्वसभवात् । त एव केवलज्ञाने शक्तिविशेषेण विषयाणां सदा सन्निधानाद् ज्ञानावच्छेदकत्वेन तेषां सदाज्ञातत्वनबाधितमिति तु पारमेश्वर प्रवचनप्रसिद्धः पन्थाः ॥ प्रकृतम् yagaglia , स्यादाशङ्का चित्तमेव स्वाभासं विपयाभासं च भवि - प्यत्यग्निवत् १' तत्प्रमाणकं ' इत्यपि । २ 'पि नानुपन्नः' इति स्यात् । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] न तत्स्वासासं दृश्यत्वात् ॥४-१९॥ एकसमये चोभयानधारणम् ॥४-२० ॥ स्यान्मतिः स्वरसनिरुद्धं चित्तं चित्तान्तरेण समनन्तरेख गृह्यत इति--- चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्गः स्मृतिसं करश्च ॥४-२१ ॥ कथम् ?चितेरप्रतिसंक्रमाथास्तदाझारापत्तौ स्वबुद्धि संवेदनम् ॥ ४-२२ ॥ अतश्चैतदभ्युपगम्यते-- द्रष्टदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम् ॥४-२३ ॥ भाष्यम्-मनो हि मन्तव्येनार्थेनोपरक्तं, तत्स्वयं च विषयत्वाद्विषयिणा पुरुषेणात्मीयया वृत्त्याभिसंवद्धं, तदेतचित्तमेव द्रष्टदृश्योपरक्तं विषयविपयिनिर्भासं चेतनाचेतनस्वरूपापन्न विषयात्मकमप्यविषयात्मकमिवाचेतनं चेतनमिव स्फटिकमणिकल्पं सर्वार्थमित्युच्यते । तदनेन चित्तसारूप्येण भ्रान्ताः केचित्तदेव चेतनमित्याहुः । अपरे चित्तमात्रमेवेदं सर्वम्, नास्ति खल्वयं गवादिर्घटादिश्च सकारणो लोक इति । अनुकम्पनी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५९ ] यास्ते । कस्मात् । अस्ति हि तेषां भ्रान्तिवीजं सर्वरूपाकारनिर्मासं चित्तमिति । समाधिप्रज्ञायां प्रज्ञेयोऽर्थः प्रतिविम्बीभूतः तस्यालम्वनीभूतत्वादन्यः । स चेदर्थः चित्तमात्रं स्यात् कथं प्रज्ञयैव प्रज्ञारूपमवधार्येत । तस्मात्प्रतिविम्बी भूतोऽर्थः प्रज्ञायां येनावधार्यते स पुरुष इति । एवं ग्रहीतृग्रहणग्राद्यस्त्ररूपचितभेदात्रयमप्येतज्ज। तितः प्रविभजन्ते ते सम्यग्दर्शिनः तैरधिगतः पुरुष इति ॥ ( य० ) - त्रयं तु ब्रूमः --- अग्निरूपात्म के प्रकाशे संयोगं विनाऽपि यथा स्वतः प्रकाशकत्वं तथा चैतन्येऽपि प्रतिप्राणि परानपेक्षतयानुभूयमाने, अन्यथाऽनवस्थाव्यासङ्गानुपपत्त्यादिदोपप्रसङ्गात् । परप्रकाशकत्वं च तस्य क्षयोपशमदशायां प्रतिनियतविषय संबन्धाधीनम् । क्षायिक्यां च दशायां सदा तन्निरावरणस्वभावाधीनम् । तचैतन्यं रूपादिवत्सामान्यवदस्पन्दात्मकानुपादानकारणत्वेन गुण इति गुण्याश्रित एव स्यात् । यश्च तस्य गुणी स एवात्मा । निर्गुणत्वं च तस्य सांसारिकगुणाभावापेक्षयैव ( न ) अन्यधा, ( तस्य ) स्वाभाविकानन्तगुणाधारत्वाद् । बिम्बभूतचितो निर्लेपत्वाभ्युपगमे च तत्प्रतिविम्वग्राहकत्वेन बुद्धौ प्रकाशस्यानुपपत्तिः, विम्बप्रतिविम्वभावसंवन्धस्य द्विष्ठत्वेन द्वयोरपि परत्वतौल्यान् । उपचरितनिम्त्वोपपादने चोपचरितसर्वविषयवायुपपादनमपि तुल्यमिति नयादेशविशेषपक्षपातमात्रमेतत् ॥ प्रकृतं प्रस्तुमः--- Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L प [५२] तदसंख्येयवासनानिश्चित्रमपि परार्थ संहत्य कारित्वात् ॥४-२४ ॥ विशेषदर्शिन आत्मभावभावनानिवृत्तिः॥४-२५॥ तदा विवेकनिनं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम् ॥४-२६॥ तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्यः॥४-२७॥ हानमेषां क्लेशवदुक्तम् ।। ४-२८ ॥ प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेधर्म मेघः समाधिः ॥४-२९ ॥ । ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः ॥ ४-३० ॥ तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानत्यानन्त्याज्ञय मल्पम् ॥ ४-३१॥ ___ भाष्यम्-सर्वैः क्लेशकर्मावरणैर्विमुक्तस्य ज्ञानस्यानन्त्यं भवति । श्रावरकेण तमसाऽभिभूतमावृतं अनन्तं ज्ञानसत्त्वं कचिदेव रजसा प्रवर्तितमुद्घाटितं ग्रहणसमर्थ भवति । तत्र यदा सर्वैरावरणमलैरपगतं भवति तदा भवत्यस्यानन्त्यं, ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पं संपद्यते, यथाऽऽकाशे खद्योतः । यत्रेदमुक्तम्- " अन्धो मणिमविध्यत्तमनगुलिरावयत् । अग्रीवस्तं प्रत्यमुञ्चत्तमजिहोऽभ्यपूजयत् ॥ १ ॥” इति ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [ ५३ ] ( २० ) - प्रयुक्तमेतत् । ज्ञानस्य ज्ञेयांश एवावरणस्यावारकत्वात्, स्वरूपावर णेऽचैतन्यप्रसङ्गात् । ज्ञानानन्त्ये ज्ञेयानन्त्यस्यापि प्रौव्यात् । उक्तं च- सूक्तं चात्मपरात्मकर्तृकर्म नाव पदपदमिति दिग् ॥ ततः कृतार्थानां परिणामक्रम समाप्तिर्गुणानाम् ॥ ४-३२ ॥ अथ कोऽयं क्रमो नाम ? इति - क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिग्रह्यः कसः । ४-३३ ॥ भाग्यम् - क्षणानन्तर्यात्मा परिणामस्यापरान्तेनावसानेन्द गृहाते क्रमः । न ननुभूतक्रमक्षणा नवस्य पुराणता व स्यान्ते भवति । नित्येषु च क्रमो दृष्टः । द्वयी चेयं नित्यता, कूटरधनित्यता परिणामिनित्यता च । तत्र कूटस्थनित्यता पुरुपस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम् । यस्मिन् परिणम्यमाने तत्त्वं न विहन्यते तन्नित्यम् । उभयस्य च तत्त्वानभियातानित्यत्वम् । तत्र गुणधर्मेषु बुद्ध्यादिषु परिणामापरान्तनिप्रतिः क्रमो लब्धपर्यवसानो नित्येषु धर्मिषु गुणेष्वलब्धपर्यवसानः । कूटस्थनित्येषु स्वरूपमात्रप्रतिष्ठेषु मुक्रपुरुषेषु Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५४ ] पारितता क्रमेणैवानुभूयत इति । तत्राप्यलव्धपर्यवसान: शब्दपृष्ठेनास्तिक्रियामुपादाय कल्पित इति ॥ ( य० ) - सर्वत्र द्रव्यतयाऽक्रमस्य पर्यायतया च क्रमस्यानुभवात् क्रमाक्रमानुविद्धत्रैलक्षण्यस्यैव सुलक्षणत्वात् कूटस्थ नित्यसायां मानाभावः । पर्याये च स्थितिचातुर्विध्याद्वैचित्र्यमिति प्रवचनरहस्यमेव सयुक्तिकमिति तु श्रद्धेयम् ॥ प्रकृतम् अथास्य संसारस्य स्थित्या गत्या च गुणेषु वर्तमानस्यास्ति क्रमसमाप्तिर्न वा १ इति । श्रवचनीयमेतत् । कथम् १ प्रस्ति प्रश्न एकान्तवचनीयः सर्वो जातो मरिष्यति । ॐ भो इति । अथ सर्वो मृत्वा जनिष्यत इति विभज्य वचनीयमेतत् । प्रत्युदितख्यातिः चीणतृष्णः कुशलो न जनिष्यते इतरस्तु जनिष्यते । तथा मनुष्यजातिः श्रेयसी न वा श्रेयसी ? इत्येवं परिपृष्टे विभज्य वचनीयः प्रश्नः, पशूनुद्दिश्य श्रेयसी, देवान् ऋषींचाधिकृत्य नेति । श्रयं त्ववचनीयः प्रश्नः संसारोऽयमन्तवानथानन्त इति १ । कुशलस्यास्ति संसारक्रमपरिसमासिर्नेतरस्येति श्रन्यतरावधारणे दोषः । तस्माद्वयाकरणीय एवायं प्रश्न इति || गुणाधिकारक्रमपरिसमाप्तौ कैवल्यमुक्तम्, तत्स्वरूपमव धार्यते- पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - [५५] स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशनिरिति॥४-३४॥ ॥ इति श्रीपातञ्जले योगशास्त्रे सायप्रवचने कैवल्यपादश्चतुर्थः ॥ अयं पातञ्जलस्सार्थः किञ्चित्स्वसमयाङ्कितः । दर्शितः प्राज्ञवोधाय यशोविजयवाचकैः ॥ १ ॥ . . 092aba समाप्तोऽयं ग्रन्थः Satsassengapp:1433MP3HDance Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ श्रीमद्-हरिभद्रसूरिसंदर्भिता श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायविरचितव्याख्यासंघलिता योगविशिका। ॥ ऐ नमः ॥ अथ योगविंशिका व्याख्यायतेसुक्खेण जोयणाओ, जोगो सम्वो विधम्मवावारो। परिसुद्धो विन्नेओ, ठाणागओ विसेसेणं ॥१॥ 'मुस्खेण 'त्ति । ‘मोक्षण' महानन्देन योजना 'सर्वोऽपि धर्मव्यापारः' साधोरालयविहारभाषाविनयभिवास्नादिक्रियारूपो योगो विज्ञेयः, योजनाद्योग इति व्युत्यत्यानुगृहीतमोक्षकारणीभूतात्मव्यापारत्वरूपयोगलक्षणस्य सर्वत्र घटमानत्वात् । कीदृशो धर्मव्यापारो योगः ? इत्याह'परिशुद्धः' प्रणिधानाद्याशयविशुद्धिमान्, अनीदृशस्य द्रव्यक्रियारूपत्वेन तुच्छत्वात् , उक्तं च-"आशयभेदा एते, सर्वेऽपि हि तत्त्वतोऽवगन्तव्याः । भावोऽयमनेन विना, चेष्टा द्रव्यक्रिया तुच्छा ।।" (पोडशक ३-१२) 'एते' प्रणिधा। नादयः सर्वेऽपि कथञ्चित्क्रियारूपत्वेऽपि तदुपलक्ष्या आशय Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७] भेदाः, 'अयं ' च पञ्चप्रकारोऽप्याशयो भावः, अनेन विना 'चेष्टा' कायवाड्मनोव्यापाररूपा द्रव्यक्रिया 'तुच्छा' असारा अभिलपितफलासाधकत्वादित्येतदर्थः ॥ अथ के ते प्रणिधानाधाशयाः ? उच्यते-प्रणिधानं प्रवृत्तिर्विमजयः सिद्धिर्विनियोगश्चेति पञ्च, आह च-"प्रणिधि-प्रवृत्ति-विघ्नजय-सिद्धि-विनियोगभेदतः प्रायः । धर्म राख्यातः, शुभाशयः पञ्चधात्र विधौ ॥" (पो० ३-६) इति । तत्र हीनगुणद्वेपाभावपरोपकारवासनाविशिष्टोऽधिकृतधर्मस्थानस्य कतव्यतोपयोगः प्रणिधानम् , उक्तं च-" प्रणिधानं तत्समये, स्थितिमत्तधः कृपानुगं चैव । निरवद्यवस्तुविषयं, परार्थनिप्पत्तिसारं च ॥" ( पो० ३-७) 'तत्समये' प्रतिपन्नधर्म स्थानमर्यादायां 'स्थितिमत्' अविचलितस्वभावम् , 'तदधः' स्वप्रतिपन्नधर्मस्थानादधस्तनगुणस्थानवर्तिपु जीवेषु 'कृपानुगं' करणापरम् . न तु गुणहीनत्वात्तेषु द्वेपान्नितम् , शेपं सुगमम् ।। अधिकृतधर्मरथानोद्देशेन तदुपायविपय इतिफर्तव्यताशुद्धः शीघ्रक्रियासमाप्तीच्छादिलक्षणोत्सुस्यविरहितः प्रयत्नातिशयः प्रवृत्तिः, आह च-"तत्रैव तु प्रवृत्तिः, शुभत्तारोपायसङ्गतात्यन्तम् । अधिकृतयत्नातिशयादौत्सुक्यविवर्जिता चैव ।।" (पो० ३-८) 'तत्रैव ' अधिकृतधर्मस्थान एव शुभ:-प्रकृष्टः सारो-नैपुण्यान्वितो य उपायस्तन संगता ॥ विनजयो नाम विघ्नस्य जयोऽस्मादिति व्यु Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] त्पत्त्या धर्मान्तरायनिवर्त्तकः परिणामः । स च जेतव्यविघ्नत्रैविध्यात्रिविधः, तथाहि-यथा कस्यचित्कण्टकाकीर्णमार्गावतीर्णस्य कण्टकविघ्नो विशिष्टगमनविघात हेतुर्भवति, तदपनयनं तु पथि प्रस्थितस्य निराकुलगमनसंपादकं, तथा मोक्षमार्गप्रवृत्तस्य कण्टकस्थानीयशीतोष्णादिपरीप हैरुपद्रुतस्य न निराकुलप्रवृत्तिः, तत्तितिक्षाभावनया तदपाकरणे त्वनाकुलप्रवृत्तिसिद्धिरिति कण्टकविभजयसमः प्रथमो हीनो विघ्नजयः । तथा तस्यैव ज्वरेण भृशमभिभूतस्य निराकुल गमनेच्छोरपि तत्कर्त्तुमशक्नुवतः कण्टकविघ्नादधिको यथा ज्वरविघ्नस्तज्जयश्च विशिष्ट - गमनप्रवृत्तिहेतुस्तथेहापि ज्वरकल्पाः शारीरा एव रोगा विशिष्टधर्मस्थानाराधनप्रतिबन्धकत्वाद्विघ्नास्तदपाकरणं च "हियाहारा मियाहारा" (पिंडनिर्युक्ति - गा० ६४८ ) इत्यादिसूत्रोक्तरीत्या तत्कारणानासेवनेन, 'न मत्स्वरूपस्यैते परीपहा लेशतोऽपि बाधकाः किन्तु देहमात्रस्यैव इति भावनाविशेषेण सम्यग्धर्माराधनाय समर्थमिति ज्वरविघ्न्नजयसमो मध्यमो द्वितीयो विजयः । यथा च तस्यैवाध्वनि जिगमिपोर्दिग्मोहविघ्नोपस्थितौ भूयो भूयः प्रेर्यमाणस्याप्यध्वनीनैर्न गमनोत्साहः स्यात्तद्विजये तु स्वयमेव सम्यग्ज्ञानात्परैश्चाभिधीयमानमार्गश्रद्धानान्मन्दोत्साहतात्यागेन विशिष्टगमन संभवस्तथेहापि मोक्षमार्गे दिग्मोहकल्पो मिथ्यात्वादिजनितो मनोविभ्रमो विमस्तज्जयस्तु गुरुपारतन्त्र्येण मिथ्यात्वादिप्रतिपक्षभावनया Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५९] ग्नोचिभ्रमापनयनादनवच्छिन्नप्रयाणसंपादक इत्ययं मोहविनयसम उत्तमस्तृतीयो विप्नजयः। एते च त्रयोऽपि विघ्न 'भाशयरूपाः समुदिताः प्रवृत्तिहेतवोऽन्यतरवैकल्येऽपि ५५ देरित्यवधेयम् उक्तं च-" विमजयविविधः खलु, विज्ञेयो हीनमध्यमोत्कृष्टः । मार्ग इह कण्टकञ्वरमोहजयसमः प्रतिफलः ।।" (पो० ३-६) इति।। अतिचाररहिताधिकगुणे गुर्वादौ विनयवैयावृत्त्यबहुमानाधन्विता हीनगुणे निर्गुणे वा दयादानव्यसनपतितदुःखापहारादिगुणप्रधाना मध्यमगुणे चोपकारफलवत्यधिकृतधर्मस्थानस्याहिंसादेः प्राप्तिः सिद्धिः, उक्तं च- सिद्धिस्तत्तद्धर्मस्थानावाप्तिरिह तात्त्विकी ज्ञेया। अधिक विनयादियुता. हीने च दयादिगुणसारा ॥" (पो. ३-१०) इति ।। स्वप्राप्तधर्मस्थानस्य यथोपायं परस्मिन्नपि संपादकत्वं विनियोगः. अयं चानेकजन्मान्तरसन्तानक्रमेण प्रकृष्टधर्मस्थानावाप्रवन्ध्यो हेतुः, उक्तं च-" सिद्धेश्वोचरकार्य, विनियोगोऽवन्ध्यमेतदेतस्मिन् । सत्यन्वयसंपत्त्या, सुन्दरमिति तत्परं यावत् ॥" (पो०३-११) 'अवन्ध्यं' न कदाचिन्निप्फलं 'एतत्' धर्मस्थानमहिंसादि, 'एतस्मिन् । विनियोगे सति 'अन्वयसंपत्त्या' अविच्छेदभावेन 'तत् । विनियोगसाध्यं धर्मस्थानं सुन्दरम् । 'इतिः' भिन्नक्रमः ममाप्त्यर्थश्व, यावत्परमित्येवं योगः, यावत् 'परं' प्रकृष्टं धर्मस्थानं समाप्यत इत्यर्थः । इदमत्र हृदयम्-धर्मस्तावद्रागा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] दिमल विगमेन पुष्टिशुद्धिमवित्तमेव । पुष्टिश्च पुण्योपचयः, शुद्धिश्व घातिकर्मणां पापानां चयेण या काचिन्निर्मलता, तदुभयं च प्रणिधानादिलक्षणेन भावेनानुबन्धवद्भवति, तदनुवन्धाच्च शुद्धिप्रकर्षः संभवति, निरनुबन्धं च तदशुद्धिफलमेचेति न तद्धर्मलक्षणम्, ततो युक्तमुक्तं " प्रणिधानादिभावेन परिशुद्धः सर्वोऽपि धर्मव्यापारः सानुबन्धत्वाद् योगः " इति । यद्यप्येवं निश्चयतः परिशुद्धः सर्वोऽपि धर्मव्यापारो योगस्तथापि ' विशेषेण ' तान्त्रिकसंकेतव्यवहारकृतेनासाधारण्येन स्थानादिगत एव धर्मव्यापारो योगः, स्थानाद्यन्यतम एव योगपदप्रवृत्तेः सम्मतत्वादिति भावः || १ | स्थानादिगतो धर्मव्यापारो विशेषेण योग इत्युक्तम्, तत्र के ते स्थानादयः ? कतिभेदं च तत्र योगत्वम् ? इत्याहठाणुन्नत्थालंवण - रहि तंतमि पंचहा एसो । दुगमित्थ कम्मजोगो, तहा तियं नाणंजोगो उ ॥२॥ 'ठाणुन्नत्थे'त्यादि । स्थीयतेऽनेनेति स्थानं - आसनविशेषरूपं कायोत्सर्गपर्यङ्कबन्धपद्मासनादि सकलशास्त्र प्रसिद्धम्, ऊर्णः - शब्दः स च क्रियादावुच्चार्यमाणसूत्रवर्णलक्षणः, अर्थः- शब्दाभिधेयव्यवसायः, श्रालम्बनं - वाह्यप्रतिमादिविप१ " नाणजोगा उ" इत्यपि । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ ] ," यध्यानम् एते चत्वारो भेदा:, ' रहितः' इति रूपिद्रव्यालम्वनरहितो निर्विकल्पचिन्मात्रसमाधिरूप इत्येवं 'एषः' योगः पञ्चविधः ' तन्त्रे ' योगप्रधानशास्त्रे, प्रतिपादित इति शेषः, उक्तं च - " स्थानोणर्यालम्बनतदन्ययोगपरिभावनं सम्यक् । परतत्त्वयोजनमलं. योगाभ्यास इति समयेविदः || ” ( पोड० १३ - ४ ) इति । स्थानादिषु योगत्वं च " मोक्षकारणीभूतानव्यापारत्वं योगत्वम्" इति योगलक्षणयोगादनुपचरितमेव । यत्तु " यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि योगस्य " ( पातं ० सू० २ - २६ ) इति योगासत्त्वेन योगरूपता स्थानादिषु हेतुफलभावेनोपचारादभिधीयत इति पोडशकवृत्तावुक्तं वत् " चित्तवृत्तिनिरोधो योगः" (पा० यो० द० १-२ ) इति योगलक्षणाभिप्रायेणेति ध्येयम् । यत्र स्थानादिषु 'द्वर्य' स्थानोर्णलक्षणं कर्मयोग एव, स्थानस्य साक्षादूर्यस्याप्युच्चार्यमाणस्यैव ग्रहणादुच्चारणांशे क्रियारूपत्वात् । तथा ‘त्रयं' अर्थालम्बननिरालम्बनलक्षणं ज्ञानयोगः, तुः एवकारार्ध इति ज्ञानयोग एव, अर्थादीनां साक्षाद् ज्ञानरूपत्वात् ॥ २ ॥ ● एप कर्मयोगो ज्ञानयोगो वा कस्य भवतीति स्वामिचिन्तायामाह - २ ' तत्वविदः इत्यपि । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६२] देले सव्वे य तहा, नियमेणेसो चरित्तिणो होइ । इयरल बीयमित्तं, इत्तु चिय केइ इच्छंति ॥ ३ ॥ ___ 'देसे सव्वे यत्ति । सप्तम्याः पञ्चम्यर्थत्वादेशतस्तथा सर्वतश्च चारित्रिण एव 'एप' प्रागुक्तः स्थानादिरूपो योगः 'नियमेन' इतरव्यवच्छेदलक्षणेन निश्चयेन भवति, क्रियारूपस्य ज्ञानरूपस्य वाऽस्य चारित्रमोहनीयक्षयोपशमनान्तरीयकत्वात् , अत एवाध्यात्मादियोगप्रवृत्तिरपि चारित्रप्राप्तिमारभ्यैव ग्रन्थकृता योगविन्दौ प्ररूपिता, तथाहि-"देशादिभेदतश्चित्रमिदं चोक्तं महात्मभिः । अत्र पूर्वोदितो योगोऽध्यात्मादिः संप्रवर्तते ।। १ ॥" ( ३५६ श्लोक ) इति, 'देशादिभेदतः' देशसर्वविशेषाद् 'इदं' चारित्रं 'अध्यात्मादिः' अध्यात्मं १ भावना २ आध्यानं ३ समता ४ वृत्तिसंक्षयश्च ५, तत्राध्यात्म उचितप्रवृत्तेतभृतो मैत्र्यादिभावगर्भ शास्त्राजीवादितत्वचिन्तनम् १, भावना अध्यात्मस्यैव प्रतिदिनं प्रवर्धमानश्चित्तवृत्तिनिरोधयुक्तोऽभ्यासः २, आध्यानं प्रशस्तैकार्थविषयं स्थिरप्रदीपसदृशमुत्पातादिविषयसूक्ष्मोपयोगयुतं चित्तम् ३, समता अविद्याकल्पिोष्टानिष्टत्वसंज्ञापरिहारेण शुभाशुभानां विषयाणां तुल्यताभावनम् ४, वृत्तिसंक्षयश्च मनोद्वारा विकल्परूपाणां शरीरद्वारा परिस्पन्दरूपाणामन्यसंयोगात्मकवृत्तीनामपुनी वेन निरोधः ५। अथैतेपामध्यात्मादीनां स्थानादिपु कुत्र Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] -- कस्यान्तर्भावः इति चेद्, उच्यते — अध्यात्मस्य चित्रभेदस्य देवसेवाजपतन्वचिन्तनादिरूपस्य यथाक्रमं स्थाने ऊर्णेऽर्थे च । भावनाया अपि भाव्यसमानविपयत्वात्तत्रैव । ध्यानस्याल - म्वने | समतावृत्तिसंक्षययोश्च तदन्ययोग इति भावनीयम् । ततो देशतः सर्वतश्च चारित्रिण एव स्थानादियोगप्रवृत्तिः संभवतीति सिद्धम् । ननु यदि देशतः सर्वतश्च चारित्रिण एव स्थानादिर्योगः तदा देशविरत्यादिगुणस्थानहीनस्य व्यचहारेण श्राद्धधर्मादौ प्रवर्तमानस्य स्थानादिक्रियायाः सर्वथा नैप्फल्यं स्यादित्याशङ्कयाह - ' इतरस्य' देशसर्वचारित्रिव्यतिरिक्त [ स्य ] स्थानादिकं ' इत एव ' देशसर्वचारित्रं विना योगसंभवाभावादेव ' बीजमात्रं ' योगवीजमात्रं ' केचिद् ' व्यवहारनयप्रधाना इच्छन्ति । " मोक्षकारणीभूतचारित्र तत्त्वसंवेदनान्तर्भूतत्वेन स्थानादिकं चारित्रिण एव योगः, अपुनर्बन्धकसम्यग्दृशोस्तु तद्योगचीजम् " इति निश्चयनयाभिमतः पन्धाः । व्यवहारनयस्तु योगबीजमप्युपचारेण योगमेवेच्छतीति व्यवहारनयेनापुनर्वन्धकादयः स्थानादियोगस्वामिनः, निश्चयनयेन तु चारित्रिण एवेति विवेकः । तदिदमुक्तम्अपुनर्वन्धकस्यायं, व्यवहारेण तात्त्विकः । अध्यात्मभावनारूपो, निश्चयेनोत्तरस्य तु ॥ २ ॥ " ( यो० वि० ३६८ श्लोक.' इति । अपुनर्वन्धकस्य उपलक्षणात्सम्यग्दृष्टेच 'न्यव - (1 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४] हारेण ' कारणे कार्यत्वोपचारेण तात्त्विकः, कारणस्यानि कथञ्चित्कार्यत्वात् । 'निश्चयेन ' उपचारपरिहारेण 'उत्तरस तु' चारित्रिण एव ।। सकृद्धन्धकादीनां तु स्थानादिकमसुद्ध परिणामत्वान्निश्चयतो व्यवहारतश्च न योगः किन्तु योगाभ्यास इत्यवधेयम् , उक्तं च-" सकृदावर्त्तनादीनामतात्त्विक उदा हृतः । प्रत्यपायफलप्रायस्तथा वेपादिमात्रतः ॥३॥ (यो० वि० ३६६ श्लोक.) सकृद्-एकवारमावर्तन्ते-उत्कृष्ट स्थिति वनन्ति ये ते सकृदावर्तनाः, आदिशब्दाद्विरावर्तना. दिग्रहः, 'अतात्त्विकः' व्यवहारतो निश्चयतश्चातत्त्वरूपः॥३॥ __तदेवं स्थानादियोगस्वामित्वं विवेचितम्, अथैदेष्ठेव प्रतिभेदानाहइछिको य चउद्धा, इत्थं पुण तत्तओ मुणेयत्रो । इच्छापवित्तिथिरसिद्धिभेयओ लखयनीईए ॥४॥ 'इक्किको यत्ति । 'अत्र' स्थानादौ 'पुनः' कर्मज्ञानविभेदाभिधानापेक्षया भूयः एकैकश्चतुर्दा 'तत्त्वतः' सामान्येन दृष्टावपि परमार्थतः 'समयनीत्या' योगशाखप्रतिपादितपरिपाट्या 'इच्छाप्रवृत्तिस्थिरसिद्धिभेदतः' इच्छाप्रवृत्तिस्थिरसिद्धिभेदानाश्रित्य 'मुणेयव्यो' त्ति ज्ञातव्यः ॥ ४ ॥ तानेव भेदान् विवरीपुराह Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५] तज्जुत्तकहापीईई संगया विपरिणामिणी इच्छा। सम्वत्थुवसमसारं, तप्पालणमो पवत्ती उ॥ ५॥ तह चेव एयबाहग-चिंतारहियं थिरत्तणं नेयं । सव्वं परत्थसाहग-रूवं पुण होइ सिद्धि त्ति ॥६॥ ' तज्जुत्तकहा ' इत्यादि । तद्युक्तानां-स्थानादियोगयुक्तानां कथायां प्रीत्या-अर्थवुभुत्सयार्थबोधेन वा जनितो यो हर्पस्तल्लक्षणया संगता-सहिता विपरिणामिनी' विधिकबहुमानादिगर्भ स्वोल्लासमात्राद्यत्किञ्चिदभ्यासादिरूपं विचित्रं परिणाममादधाना इच्छा भवति, द्रव्यक्षेत्राद्यसामग्र्येहाइसाकल्याभावेऽपि यथाविहितस्थानादियोगेच्छया यथाशक्ति क्रियमाणं स्थानादि इच्छारूपमित्यर्थः । प्रवृत्तिस्तु 'सर्वत्र' सर्वावस्थायां ' उपशमसारं' उपशमप्रधानं यथा स्यात्तथा 'तत्पालनं' यथाविहितस्थानादियोगपालनम् , 'नो' त्ति प्राकृतत्वात् । वीर्यातिशयाद् यथाशास्त्रमङ्गसाकल्येन विधीयमानं स्थानादि प्रवृत्तिरूपमित्यर्थः ।।५।। 'तह चेव 'ति । तथैव' प्रवृत्तिवदेव सर्वत्रोपशमसारं स्थानादिपालनमतस्य-पाल्यमानस्य स्थानादेर्वाधकचिन्तारहितं स्थिरत्वं ज्ञेयम् । प्रवृत्तिस्थिरयोगयोरेतावान् विशेषःयदुत प्रवृत्तिरूपस्थानादियोगविधानं सातिचारत्वाद्वाधकांच Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६] न्तासहितं भवति । स्थिररूपं त्वभ्याससौष्ठवेन निर्वाधकमेव जायमानं तज्जातीयत्वेन बाधकचिन्ताप्रतिघाताच्छुद्धिविशेपेण तदनुत्थानाच तद्रहितमेव भवतीति । 'सर्व' स्थानादि स्वसिन्नुपशमविशेषादिफलं जनयदेव परार्थसाधक-स्वसन्निहितानां स्थानादियोगशुद्धयभाववतामपि तत्सिद्धिविधानद्वारा परगतस्वसदृशफलसंपादकं पुनः सिद्धिर्भवति । अत एव सिद्धाऽहिंसानां समीपे हिंसाशीला अपि हिंसां कर्तुं नालम् , सिद्धसत्यानां च समीपेऽसत्यप्रिया अप्यसत्यमभिधातुं नालम् । एवं सर्वत्रापि ज्ञेयम् । 'इतिः' इच्छादिभेदपरिसमाप्तिसूचकः । अत्रायं मत्कृतः संग्रहश्लोकः--" इच्छा तद्वत्कथाप्रीतिः, पालनं शमसंयुतम् । पालनं (प्रवृत्तिः) दोपभीहानिः स्थैर्य सिद्धिः परार्थता ॥१॥" इति ॥६॥ उक्ता इच्छादयो भेदाः, अथैतेषां हेतूनाहएए य चित्तरूवा, तहाखओवसमजोगो हुंति। तस्स उ नद्धापीयाइजोगो भव्वसत्ताणं ॥ ७ ॥ ___ 'एए यत्ति । ' एते च ' इच्छादयः 'चित्ररूपाः' परस्परं विजातीयाः स्वस्थाने चासङ्खयभेदभाजः, 'तस तु' अधिकृतस्य स्थानादियोगस्यैव श्रद्धा-इदमित्थमेवेति प्रतिपत्तिः, प्रीतिः-तत्करणादौ हर्षः, आदिना धृतिधारणादिपरिग्रहस्तद्योगतः ‘ भव्यसत्त्वानां' मोक्षगमनयोग्यानामपुनर्वन्ध Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६७] कादिजन्तूनां तथाक्षयोपशमयोगतः' तत्तत्कार्यजननाकूलविचित्रक्षयोपशमसंपत्त्या भवन्ति, इच्छायोगादिविशेषे आशयभेदाभिव्यङ्ग्यः क्षयोपशमभेदो हेतुरिति परमार्थः । अत एव यस्य यावन्मात्रः क्षयोपशमस्तस्य तावन्मात्रेच्छादिसंपत्त्या मार्गे प्रवर्त्तमानस्य सूक्ष्मवोधाभावेऽपि मार्गानुसारिता न व्याहन्यत इति संप्रदायः ।।७।। इच्छादीनामेव हेतुभेदमभिधाय कार्यभेदमभिधत्तेअणुकंपा निव्वेओ, संवेगो होइ तह य पसमुत्ति एएसिं अणुभावा, इच्छाईणं जहासंखं ॥ ८ ॥ _ 'अणुकंप' ति । 'अनुकम्पा' द्रव्यतो भावतश्च यथाशक्ति दुःखितदुःखपरिहारेच्छा, 'निर्वेदः ' नैर्गुण्यपरिज्ञानेन भवचारकाद्विरक्तता, 'संवेगः' मोक्षाभिलापः, तथा 'प्रशमञ्च' क्रोधकण्डविषयतृप्णोपशमः, इत्येते ' एतेषां' इच्छादीनां योगानां यथासङ्खचं अनु-पश्चाद् भावाः 'अनुभावाः ' कार्याणि भवन्ति । यद्यपि सम्यक्त्वस्यैवैते कार्यमूतानि लिङ्गानि प्रवचने प्रसिद्धानि तथापि योगानुभवसिद्धानां विशिष्टानामतेपामिहेच्छायोगादिकार्यत्वमभिधीयमानं न विरुत्यत इति द्रष्टव्यम् । वस्तुतः केवलसम्यक्त्वलाभेऽपि व्यवहारेगच्छादियोगप्रवृत्तरेवानुकम्पादिभावसिद्धेः । अनुकम्पादिसामान्ये इच्छायोगादिसामान्यस्य तद्विशेषे च तद्विशेषस्य Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६८] हेतुत्वमित्येव न्यायसिद्धम् । अत एव शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणानां सम्यक्त्वगुणानां पश्चानुपूज्यैव लाभक्रमः। प्राधान्यान्चेस्थमुपन्यास इति सद्धर्मविंशिकायां प्रतिपादितम् ।। ८॥ तदेवं हेतुभेदेनानुभावभेदेन चेच्छादिभेदविवेचनं कृतम्, तथा च स्थानादावेककस्मिन्निच्छादिभेदचतुष्टयसमावेशादेतद्विषया अशीतिर्भेदाः संपन्ना एतन्निवेदनपूर्वमिच्छादिभेदभिन्नानां स्थानादीनां सामान्येन योजनां शिक्षयन्नाहएवं ठियम्मि तत्ते, नाएण उ जोयणा इमा पयडा। चिइवंदणेण नेया, नवरं तत्तण्णुणा सम्मं ॥९॥ 'एवं' इत्यादि । 'एवं' अमुना प्रकारेणेच्छादिप्रतिभेदैरशीतिभेदो योगः, सामान्यतस्तु स्थानादिः पञ्चभेद इति 'तत्वे ' योगतत्त्वे 'स्थिते' व्यवस्थिते 'ज्ञातेन तु दृष्टान्तेन तु चैत्यवन्दनेन इयं ' प्रकटा' क्रियाभ्यासपरजनप्रत्यक्षविपया योजना' प्रतिनियतविपयव्यवस्थापना 'नवरं' केवलं तत्त्वज्ञेन ' सम्यग् ' अवैपरीत्येन ज्ञेया ।। ९ ।। तामेवाहअरिहंतचेइयाणं, करेमि उस्लग्ग एवमाइयं । सद्धाजुत्तस्स तहा, होइ जहत्थं पयन्नाणं ॥१०॥ एयं चऽस्थालंवण-जोगवओ पायमविवरीयं तु। इयरेसिं ठाणाइसु, जलपराणं परं सेयं ॥ ११ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६] 'अरिहंत ' इत्यादि । " अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सग्गं" एवमादि चैत्यवन्दनदण्डकविषयं ' श्रद्धायुक्तस्य' क्रियास्तिक्यवतः ' तथा ' तेन प्रकारेणोच्चार्यमाणस्वरसंपन्मात्रादिशुद्धस्फुटवर्णानुपूर्वीलक्षणेन 'यथार्थ' अभ्रान्तं पदज्ञानं भवति, परिशुद्धपदोच्चारे दोषाभावे सति परिशुद्धपदज्ञानस्य श्रावणसामग्रीमात्राधीनत्वादिति भावः ॥ १०॥ 'एयं च' त्ति । 'एतच्च परिशुद्धं चैत्यवन्दनदण्डकपदपरिज्ञानम् , अर्थः-उपदेशपदप्रसिद्धपदवाक्यमहावाक्यैदंपर्यार्थपरिशुद्धज्ञानम्, आलम्बनं च-प्रथमे दण्डकेऽधिकृततीर्थकृद्, द्वितीये सर्वे तीर्थकृतः, तृतीये प्रवचनम् , चतुर्थे सम्यग्दृष्टिः शासनाधिष्ठायक इत्यादि, तद्योगवतः-तत्प्रणिधानवतः 'प्रायः' बाहुल्येन 'अविपरीतं तु' अभीप्सितपरमफलसंपादकमेव, अर्थालम्बनयोगयोर्ज्ञानयोगतयोपयोगरूपत्वात् , तत्सहितस्य चैत्यवन्दनस्य भावचैत्यवन्दनत्वसिद्धेः, भावचैत्यवन्दनस्य चामृतानुष्ठानरूपत्वेनावश्यं निर्वाणफलत्वादिति भावः । प्रायोग्रहसं सापाययोगवद्वयावृत्त्यर्थम् । द्विविधो हि योगः-सापायो निरपायश्च, तत्र निरुपक्रममोक्षपथप्रतिकूलचित्तवृद्धिकारणं प्राकालार्जितं कर्म अपायस्तत्सहितो योगः सापायः, तद्रहितस्तु निरपाय इति । तथा च सापायार्थालम्बनयोगवतः कदाचित्फलविलम्बसम्भवेऽपि निरपायतद्वतोऽविलम्बेन फलोत्पत्तौ न व्यभिचार इति प्रायोग्रहणार्थः । ' इतरेषां' Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७० ] अर्थालम्वनयोगाभाववतामेत चैत्यवन्दनसूत्रपदपरिज्ञानं 'स्थानादिषु यत्नवतां ' गुरूपदेशानुसारेण विशुद्धस्थानवर्णोद्यअपरायणानामर्थालम्बनयोगयोश्च तीव्रस्पृहावतां ' परं ' केवलं श्रेयः, अर्थालम्वनयोगाभावे वाचनायां प्रच्छनायां परावर्त - नायां वा तत्पदपरिज्ञानस्यानुप्रेक्षाऽसंचलितत्वेन " अनुपयोगो द्रव्यम् " इतिकृत्वा द्रव्यचैत्यवन्दनरूपत्वेऽपि स्थानोर्ण योगयत्नातिशयादर्थालम्बनस्पृहयालुतया च तद्धेत्वनुष्ठानरूपतया भावचैत्यवन्दनद्वारा परम्परया स्वफलसाधकत्वादिति भावः ।। ११ ।। स्थानादियत्नाभावे च तचैत्यवन्दनानुष्ठानसप्राधान्यरूपद्रव्यतामास्कन्दन्निष्फलं विपरीतफलं वा स्यादिति लेशतोऽपि स्थानादियोगाभाववन्तो नैतत्प्रदानयोग्या इत्युपदिशन्नाह— इहरा उ कायवासियपायं हवा महामुसावाओ । ताणुरूवाणं चिय, कायव्वो एयविन्नासो ॥१२॥ इहरा उत्ति । ' इतरथा तु ' अथलम्बनयोगाभाव'स्थानादियत्नाभावे तु तत् चैत्यवन्दनानुष्ठानं 'कायवातना' सम्मूर्च्छनजप्रवृत्तितुल्यकायचेष्टितप्रायं मानसोउपलक्षणाद्वाग्वासितप्रायमपि द्रष्टव्यं, तथा 18 ति भावः । ' अथवा ' इति दोपान्तरे, तचैत्यवन्दनानुष्ठानं महामृपावादः, " स्थानमौन ' Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१] ध्यानैरात्मानं व्युत्सृजामि" (ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पासं बोसिरामि'')इति प्रतिज्ञया विहितस्य चैत्यवन्दनकायोत्सर्गादे स्थानादिभङ्गे मृषावादस्य स्फुटत्वात्, स्वयं विधिविपर्ययनवृत्तौ परेपामेतदनुष्ठाने मिथ्यात्वबुद्धिजननद्वारा तस्य लौकिकमृपावादादतिगुरुत्वाञ्च, तथा च विपरीतफलं तेषामेतदनुष्ठानं सम्पन्नम् । येऽपि स्थानादिशुद्धमप्यहिककीादीच्छयाऽऽमुष्मिकस्वर्लोकादिविभूतीच्छया वैतदनुष्ठानं कुर्वन्ति तेषामपि मोक्षार्थकप्रतिज्ञया विहितमेतत्तद्विपरीतार्थतया क्रियमाणं विष. गरानुष्ठानान्तर्भूतत्वेन महामृषावादानुवन्धित्वाद्विपरीतफलमेवेति । विपाधनुष्ठानस्वरूपं चेत्थमुपदर्शितं पतञ्जल्याद्युक्तभेदान् स्वतन्त्रेण संवादयता ग्रन्थकृतैव योगविन्दौ-" विषं गरोऽननुष्ठानं. तद्धेतुरमृतं परम् । गुर्वादिपूजानुष्ठानमपेक्षादिविधानतः ॥ १॥" (१५५ श्लो) 'विपं ' स्थावरजङ्गमभेदभिन्नम् , ततो विषमिव विषम्, एवं गर इब गरः, परं गरः कुद्रव्यसंयोगजो विषविशेषः, 'अननुष्ठानं ' अनुष्ठानाभासं, 'तद्धेतुः अनुष्ठानहेतुः, अमृतमिवामृतं अमरणहेतुत्वात्, अपेक्षा-इहपरलोकस्पृहा, आदिशब्दादनाभोगादेश्च यद् विधान-विशेपस्तस्मात् ॥" विषं लब्ध्याद्यपेक्षातः, इदं सच्चित्तमारणात् । महतोऽल्पार्थनाज्ञेयं, लघुत्वापादनात्तथा । २॥" (१५६ श्लो) लब्ध्यादेः-लब्धिकीर्त्यादेः अपेक्षातः-स्पृहातः 'इदं ' अनुष्ठानं विषं 'सचित्तमारणात्' परिशुद्धान्तःकरण Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 [ ७२ ] परिणामविनाशनात्, तथा महतोऽनुष्ठानस्य 'अल्पार्थनात् ' तुच्छलन्ध्यादिप्रार्थनेन लघुत्वस्यापादनादिदं विषं ज्ञेयम् ।। “ दिव्यभोगाभिलापेण, गरमाहुर्मनीषिणः । एतद्विहितनी - त्यैव, कालान्तरनिपातनात् ||३|| " ( १५७ श्लो. ) एतद् अनुष्ठानं ऐहिकभोग निस्पृहस्य स्वर्ग भोगस्पृहया गरमाहु: 'विहितनीत्यैव ' विषोक्तनीत्यैव केवलं कालान्तरे - भवान्तररूपे निपातनात् - अनर्थसम्पादनात् । विपं सद्य एव विनाशहेतुः, गरश्च कालान्तरेणेत्येवमुपन्यासः ॥ “ अनाभोगवत चैतदननुष्ठानमुच्यते। सम्प्रमुग्धं मनोऽस्येति, ततश्चैतद्यथोदितम् ॥४॥ ( १५८ श्लो ) ' अनाभोगवतः ' कुत्रापि फलादावप्रणिहितमनसः ' एतद् ' अनुष्ठानं 'अननुष्ठानं ' अनुष्ठानमेव न भवतीत्यर्थः । सम् इति समन्ततः प्रकर्षेण मुग्धं सन्निपातोपहतस्येवानध्यवसायापन्नं मनोऽस्य, ' इतिः पादसमाप्तौ । यत एवं ततो यथोदितं तथैव ॥ " एतद्रागादिदं हेतु:, श्रेष्ठो योगविदो विदुः । सदनुष्ठानभावस्य शुभभावांशयोगतः ||४|| " ( १५६ श्लो ) ' एवद्रागात् ' सदनुष्ठानबहुमानात् ' इदं ' आदिधार्मिककालभावि देवपूजाद्यनुष्ठानं ' सदनुष्ठानभावस्य ' तात्त्विकदेवपूजाद्याचारपरिणामस्य मुक्त्यद्वेपे‍ मनाग् मुक्त्यनुसारेण वा शुभभावलेशयोगात् ' श्रेष्ठः ' अवन्ध्यो हेतुरिति योगविदो विदुः ' जानते || " जिनोदितमिति त्वादुर्भावसारमदः पुनः । संवेगगर्भमत्यन्तममृतं * ( Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३ ] मुनिपुङ्गवाः ॥ ६॥" ( १६० श्लो०) जिनोदितमित्येव 'भावसारं ' श्रद्धाप्रधानं 'अदः ' अनुष्ठानं ' संवेगगर्भ' मोक्षाभिलापसहितं ' अत्यन्तं ' अतीव अमरणहेतुत्वादमृतसंज्ञमाहुः ' मुनिपुङ्गवाः ' गौतमादिमहामुनयः ॥ एतेषु त्रयं योगाभासत्वादहितम्, द्वयं तु सद्योगत्वाद्धितमिति तत्त्वम् । यत एवं स्थानादियत्नाभाववतोऽनुष्ठाने महादोषः 'तत्' तस्मात् 'अनुरूपाणामेव ' योग्यानामेव 'एतद्विन्यासः' चैत्यवन्दनसूत्रप्रदानरूपः कर्तव्यः ॥१२॥ क एतद्विन्यासानुरूपा इत्याकाङ्क्षायामाहजे देसविरइजुत्ता, जम्हा इह वोसिरामि कायं ति। सुब्बइ विरईए इमं, ता सम्मं चिंतिथव्व मिणं ॥१३॥ ___'जे' इत्यादि । ये 'देशविरतियुक्ताः । पञ्चमगुणस्थानपरिणतिमन्तः ते इह अनुरूपा इति शेषः । कुतः ? इत्याह—यस्मात् 'इह' चैत्यवन्दनसूत्रे "व्युत्सृजामि कायम्" इति श्रूयते, इदं च विरतो सत्यां संभवति, तदभावे कायव्युत्सर्गासम्भवात् , तस्य गुप्तिरूपविरतिभेदत्वात् , ततः सम्यक् चिन्तितव्यमेतत् यदुत " कायं व्युत्सृजामि" इति प्रतिझान्यथानुपपत्त्या देशविरतिपरिणामयुक्ता एव चैत्यवन्दनानुष्ठानेऽधिकारिणः, तेषामेवागमपरतन्त्रतया विधियत्नसम्भवेनामृतानुष्ठानसिद्धेरिति । एतच्च मध्यमाधिकारिग्रहणं तुला Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४ ] दण्डन्योयनाद्यन्तग्रहणार्थम्, तेन परमामृतानुष्ठानपराः सर्वविरतास्तच्चत एव तद्धेत्वनुष्ठानपराः । अपुनर्वन्धका अपि च व्यवहारादिहाधिकारिणो गृह्यन्ते, कुग्रहविरहसम्पादनेनापुनर्वन्धकानामपि चैत्यवन्दनानुष्ठानस्य फलसम्पादकतायाः पञ्चाशकादिप्रसिद्धत्वादित्यवधेयम् । ये त्वपुनर्वन्धकादिभावमप्यस्पृशन्तो विधिबहुमानादिरहिता गतानुगतिकतयैव चैत्यवन्दनाद्यनुष्ठानं कुर्वन्ति ते सर्वथाऽयोग्या एवेति व्यवस्थितम् ॥ १३ ॥ नन्वविधिनाऽपि चैत्यवन्दनाद्यनुष्ठाने तीर्थप्रवृत्तिरव्यवच्छिन्ना स्यात्, विधेरेवान्वेपणे तु द्वित्राणामेव विधिपरायां लाभात् क्रमेण तीर्थोच्छेदः स्यादिति तदनुच्छेदायाविध्यनुष्ठानमप्यादरणीयमित्याशङ्कायामाह - तित्थस्सुच्छेयाइ वि, नालंबण जं ससमएमेव । सुत्तकिरियाइ नासो, एसो असमंजस विहाणा ॥ १४॥ 1 ' तित्थस्स ' इत्यादि । ' अत्र ' विध्यनुष्ठाने तीर्थो - च्छेदाद्यपि नालम्बनी (नम्), तीर्थानुच्छेदायाविध्यनुष्ठानमपि कर्तव्यमिति नालम्वनीयम् । ' यद्' यस्मात् ' एवमेव । विध्यनुष्ठाने क्रियमाण एव ' असमञ्जसविधानात् ' विहितान्यथाकरणादशुद्ध पारम्पर्यप्रवृत्त्या सूत्रक्रियाया विनाशः, स १ श्री हरिभद्रसूरिकृतः । २" तित्थस्सुच्छेयाइ वि, एत्थं नालंवरणं जमेमेव " इति भवेत् । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ ] एष तीर्थोच्छेदः । नहि तीर्थनाम्ना जनसमुदाय एव तीर्थम्, श्राज्ञारहितस्य तस्यास्थिसङ्घातरूपत्वप्रतिपादनात्, किन्तु ग्रूत्रविहितयथोचितक्रियाविशिष्टसाधुसाध्वीश्रावकश्राविकानगुदायः, तथा चाविधिकरणे सूत्रक्रियाविनाशात्परमार्थतस्तीर्थविनाश एवेति तीर्थोच्छेदालम्बनेन विधिस्थापने लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायातेत्यर्थः || १४ || सूत्रक्रियाविनाशस्यैवाहितावहतां स्पष्टयन्नाह - सो एल वंकओ चिय, न य सयमयमा रियाणमविसेलो। एयं पि भावियद, इह तित्थुच्छेय भीरूहिं ॥ १५ ॥ ' सो एस 'ति । ' स एषः ' सूत्रक्रियाविनाशः ' चक्र एव ' तीर्थोच्छेदपर्यवसायितया दुरन्तदुःखफल एव । ननु शुद्ध क्रियाया एव पक्षपाते क्रियमाणे शुद्धायास्तस्या श्रलाभादशुद्धायाश्चानङ्गीकारादानुश्रोतसिक्या वृत्त्याऽक्रियापरिणामस्य स्वत उपनिपातात्तीर्थोच्छेदः स्यादेव यथाकथञ्चिदनुष्ठानावलम्बने च जैनक्रियाविशिष्टजनसमुदायरूपं तीर्थ न व्यवच्छिद्यते, न च कर्तुरविधिक्रियया गुरोरुपदेशकस्य कश्चिद्दोपः, अक्रियाकर्तुरिवाविधिक्रियाकर्तुस्तस्य स्वपरिणामाधीनप्रवृत्तिकत्वात्, केवलं क्रियाप्रवर्तनेन गुरोस्तीर्थव्यवहाररक्षशाद्गुण एवेत्याशङ्कायामाह - न च स्वयंमृतमारितयोरविशेषः, किन्तु विशेष एव, स्वयंमृते स्वदुष्टाशयस्यानिमित्तत्वात् Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७६ ] मारिते च मार्यमाणकर्मविपाकसमुपनिपातेऽपि स्वदुष्टाशयस्य निमित्तत्वात्, तद्वदिह स्वयमक्रियाप्रवृत्तं जीवमपेच्य गुरोर्न दूषणम्, तदीयाविधिप्ररूपणमवलम्ब्य श्रोतुरविधिप्रवृत्तौ च तस्योन्मार्गप्रवर्तनपरिणामादवश्यं महादूपणमेव, तथा च श्रुतकेवलिनो वचनम्-"जह सरणमुवगयाणं, जीवाण सिरो निम्तिए जो उ। एवं आयरिश्रो वि हु, उस्सुत्तं पण्णवेतो य ॥१॥" न केवलमविधिप्ररूपणे दोषः, किन्तु विधिप्रेरूपणाभोगेऽविधिनिषेधासम्भवात् तदाशंसनानुमोदनापत्तेः फलतस्तत्प्रवर्तकत्वाद्दोष एव, तस्मात् “ स्वयमेतेऽविधिप्रवृत्ता नात्रास्माकं दोपो वयं हि क्रियामेवोपदिशामो न त्वविधिम् " एतावन्मात्रमपुष्टालम्बनमवलम्ब्य नोदासितव्यं परहितनिरतेन धर्माचार्येण, किन्तु सर्वोद्यमेनाविधिनिषेधेन विधावेव श्रोतारः प्रवर्तनीयाः, एवं हि ते मार्गे प्रवेशिताः, अन्यथा तून्मार्गप्रवेशनेन नाशिताः । एतदपि भावितव्यमिह तीर्थोच्छेदभीरूभिः-विधिव्यवस्थापनेनैव ह्येकस्यापि जीवस्य सम्यग् बोधिलाभे चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकेऽमारिपटहवादनातीर्थोन्नतिः, अविधिस्थापने च विपर्ययात्तीर्थोच्छेद एवेति । यस्तु श्रोता विधिशास्त्रश्रवणकालेऽपि न संवेगभागी तस्स धर्मश्रावणेऽपि महादोप एव, तथा चोक्तं ग्रन्थकृतैव पोड १ "यथा शरणमुपगतानां जीवाना शिरो निकृन्तति यस्तु । एक्माचार्योऽपिखलूत्सूत्रं प्रज्ञापयंश्च ।।" २ 'अविधि'-इति स्यात् । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७७ ] शके - " यैः शृण्वन् सिद्धान्तं, विषयपिपासातिरेकतः पापः । प्राप्नोति न संवेगं तदापि यः सोऽचिकित्स्य इति ॥ १ ॥ नैवंविधस्य शस्तं, मण्डल्युपवेशनप्रदानमपि । कुर्वनेतद्गुरुरपि. तदधिकदोषोऽयगन्तव्यः ॥ २ ॥ " ( पो० १०-१४-६५ ) मण्डल्युपवेशनं-सिद्धान्तदानेऽर्थमण्डल्युपवेशनम् । 'तदधिकदोषः ' अयोग्य श्रोतुरधिकदोषः, पापकर्तुरपेक्षया तत्कारचिनर्महादोपत्वात् । तस्माद्विधिश्रवणरसिकं श्रोतारमुद्दिश्य विधिप्ररूपणेनैव गुरुस्तीर्थव्यवस्थापको भवति, विधिप्रवृत्त्यैव न तीर्थमव्यवच्छिन्नं भवतीति सिद्धम् || १५ || ननु किमेतावगूढार्थगवेषणया ?, यद्बहुभिर्जनैः क्रियते तदेव कर्तव्यं "महाजनो येन गतः स पन्धाः " इति वचनात्, जीतव्यवहारस्यैवदानी चाहुल्येन प्रवृत्तेस्तस्यैवाऽऽतीर्थ कालभावित्वेन तीर्थव्यवस्थापकत्वादित्याशङ्कायामाह - मुत्तूण लोगसन्नं, उड्ढण य साहुसमय सन्भावं । सम्म पट्टियव्वं, बुदेणमइनि उणबुद्धी ॥ १६ ॥ मुत्तू 'ति । मुक्त्वा [' लोकसंज्ञां '] " लोक एव प्रमाणं" इत्येवंरूपां शास्त्रनिरपेक्षां मतिं 'उड्दा य' त्ति वोडा च' साधुसमय सद्भावं ' समीचीन सिद्धान्त [ रहस्यं ] 'सम्यग' विधिनीत्या प्रवर्त्तितव्यं चैत्यवन्दनादौ ' बुधेन' पण्डितेन प्रतिनिपुणबुद्ध्या' अतिशयितसूक्ष्मभावानुधाविन्या मत्या । { १ शृण्वन्नपि सिद्धान्तं ' इत्यपि । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७८] साधुसमयसद्भावश्चायम्-" लोकमालम्ब्य कर्तव्यं, कृतं बहुभिरेव चेत्।तदा मिथ्यादृशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात्कदाचन ॥ १॥ ( ज्ञानसारे २३-४) स्तोका आर्या अनार्येभ्यः, स्तोका जैनाश्च तेष्वपि । सुश्रद्धास्तेष्वपि स्तोकाः, स्तोकास्तेध्वपि सत्क्रियाः ॥२॥ श्रेयोपर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे च न । स्तोका हि रत्नवणिजः, स्तोकाश्च स्वात्मशोधकाः ॥ ३ ॥ (ज्ञानसारे २३-५ ) एकोऽपि शास्त्रनीत्या यो, वर्तते स महाजनः । किमज्ञसाथैः ? शतमप्यन्धानां नैव पश्यति ॥ ४॥ यत्संविग्नजनाचीण, श्रुतवाक्यैवाधितम् । तजीतं व्यवहाराख्यं, पारम्पर्यविशुद्धिमत् ॥५॥ यदाचीर्णमसंविग्नैः, श्रुतार्थानवलम्बिभिः । न जीतं व्यवहा रस्तदन्धसंततिसम्भवम् ।। ६॥ आकल्पव्यवहारार्थ, श्रुतं न व्यवहारकम् । इतिवक्तुमहत्तन्त्रे, प्रायश्चित्तं प्रदर्शितम् ।। ७ ।। तस्साच्छुतानुसारेण, विध्येकरसिकैर्जनैः । संविग्नजीतमालम्ब्यमित्याज्ञा पारमेश्वरी ॥ ८॥" ननु यद्येवं सर्वादरेण विधिपक्षपातः क्रियते तदा “ अविहिकया वरमकयं, असूयवयणं भणंति सव्वन्नू । पायच्छित्तं जम्हा, अकए गुरुयं कए लहुअं ॥१॥" इत्यादि वचनानां का गतिः ? इति चेत् , नैतानि वचनानि मूलत एवाविधिप्रवृत्तिविधायकानि, किन्तु विधिप्र १ " अविधिकृताद्वरमकृतं असूत्रवचनं भणन्ति सर्वनाः । प्रायश्चित्तं यस्मादकृते गुरु: कृते लघुकम् ।।" Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] वृत्तावप्यनाभोगादिनाऽविधिदोपरछसम्मन्य भनीति :न क्रियात्यागो विधेयः । प्रथमाभ्यास तथाविधान न्यदापि वा प्रज्ञापनीयस्याविधिदोषो निग्नुवन्ध नि र तादृशानुष्ठानमपि न दोपाय, विधिबहुमाना गु न तस्य फलतो विधिरूपत्वादित्येतावन्मात्रप्रतिपादन कश्चिद्दोषः । अयोचाम चाध्यात्मसारप्रकरण--". पि हि शुद्धायाः, क्रिया हेतुः सदाशयात् । तार मा स्वर्णत्वमुपगच्छति ।। १ : " (२-१६ श्लो.) या बहुमानादविधिक्रियामासेवते तत्कर्तुरपेक्षया विधि ३० नरसिकस्तदकर्ताऽपि भव्य एव, तदुक्तं योगाष्टिगत कृतैव-" तात्त्विकः पक्षपातश्च, भावशून्या च या कि अनयोरन्तरं ज्ञेयं, भानुखद्योतयोरिव ॥१॥" (२२१ ४१८ इत्यादि । न चैवं तादृशषष्ठसप्तमगुणस्थानपरिणनिश्वार विधिव्यवहाराभावादस्मदादीनामिदानीन्तनमावस्यवापाचा. णमकर्तच्यमेव प्रसक्तमिति शकुनीयम् , विकलानुष्ठानानादि "जा जा हविज जयणा, सा सा से गिजरा हो ।' इत्यादिवचनप्रामाण्यात् यत्किञ्चिद्विध्यनुष्ठानस्येच्छायोगसंपादकतदितरस्यापि बालाघनुग्रहसम्पादकत्वेनाकर्तव्यत्वासिद्धः। १ ६ मधिगच्छति ॥ इत्यपि । २ " या या भवेयतमा सा सा तस्य निर्जरा भवति"। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८०] इच्छायोगवद्भिर्विकलानुष्ठायिभिर्गीताथैः सिद्धान्तविधिप्रसपणे तु निर्भरो विधेयस्तस्यैव तेषां सकलकल्याणसम्पादकत्वात् , उक्तं च गच्छाचारप्रकीर्णके-"जंइ वि ण सकं काउं, सम्म जिणभासियं अणुद्वाणं । तो सम्म भासिज्जा, जह भणियं खीणरागेहिं ॥ १॥ ओसन्नो वि विहारे, कम्म सोहेइ सुलभवोही य । चरणकरणं विसुद्धं, उवव्हंतो परूवितो ॥२॥"(गाथा ३२-३४) इति । ये तु गीतार्थाज्ञानिरपेक्षा विध्यभिमानिन इदानीन्तनव्यवहारमुत्सृजन्ति अन्यं च विशुद्धं व्यवहारं संपादयितुं न शक्नुवन्ति ते वीजमात्रमप्युच्छिन्दन्तो महादोषभाजो भवन्ति । विधिसम्पादकानां विधिव्यवस्थापकानां च दर्शनमपि प्रत्यूहव्यूहविनाशनमिति वयं वदामः ॥ १६ ॥ अथेमं प्रसक्तमर्थ संक्षिपन् प्रकृतं निगमयन्नाहकयमित्थ पसंगेणं, ठाणाइसु जत्तसंगयाणं तु। हियमेयं विन्नेयं, सदणुट्ठाणतणेण तहा ॥१७॥ ' कयमित्थ ' त्ति । ‘कृतं ' पर्याप्तं 'अत्र प्रसङ्गेन' प्ररूपणीयमध्ये स्मृतार्थविस्तारणेन ' स्थानादिषु' प्रदर्शित १" यद्यपि न शक्यं कर्तुं सम्यग्जिनभाषितमनुष्ठानम् । तत्सम्यग्भाषयेद्यथा भणितं क्षीणरागैः ॥ अवसन्नोऽपि विहारे कर्म शोधयति सुलभवोधिश्च । चरएकरणं विशुद्धमुपहन प्ररूपयन् ॥" Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१] योगभेदेषु 'यत्नसंगतानां तु' प्रयत्नवतामेव 'एतत् ' चैत्यवन्दनाउनुष्ठानं ' हितं ' मोक्षसाधकं विज्ञेयम् , चैत्यवन्दनगोचरस्थानादियोगस्य मोक्षहेतुत्वे तस्यापि तत्प्रयोजकत्वादिति भावः । 'तथा' इति प्रकारान्तरसमुच्चये । सदनुष्ठानत्वेन,योगपरिणामकृतपुण्यानुवन्धिपुण्यनिक्षेपाद्विशुद्धचितसंस्काररूपया प्रशान्तवाहितया सहितस्य चैत्यवन्दनादेः स्वातन्त्र्येणैव मोक्षहेतुत्वादिति भावः । प्रकारभेदोऽयं नयमेदकृत इति न कश्चिद्दोषः ॥ १७ ॥ सदनुष्ठानभेदानेव प्ररूपयंश्चरमतभेदे चरमयोगभेदमन्तर्भावयन्नाहएयं च पीइभत्तागमाणुगं तह असंगयाजुत्तं । नेयं चउविहं खल्ल, एसो चरमो हवइ जोगो॥१८॥ ___ 'एयं च ' त्ति । एतच्च सदनुष्ठानं प्रीतिभक्त्यागमाननुगच्छति तत् प्रीतिभत्त्यागमानुगं-प्रीत्यनुष्ठानं भक्त्यनुष्ठानं वचनानुष्ठानं चेति त्रिभेदं तथाऽसंगतया युक्तं असंगानुष्ठानमित्येवं चतुर्विध ज्ञेयम् । एतेषां भेदानामिदं स्वरूपम्-यत्रानुष्ठाने प्रयत्नातिशयोऽस्ति परमा च प्रीतिरुत्पद्यते शेषत्यागेन च यत्कियते तत्प्रीत्यनुष्ठानम् , अाह च" यत्रादरोऽस्ति परमः, प्रीतिश्च हितोदया भवति कर्तुः। शेषत्यागेन करोति यच तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ॥ १॥" (पो० १०-३ ) एतत्तुल्यमप्यालम्बनीयस्य पूज्यत्वविशेषवुझ्या Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८२] विशुद्धतरव्यापारं भक्त्यनुष्ठानम् , आह च-गौरवविशेषयोगाइद्धिमतो यद्विशुद्धतरयोगम् । क्रिययेतरतुल्यमपि, ज्ञेयं तद्भक्त्यनुष्ठानम् ।। २॥" (पो० १०-४) प्रीतित्वभक्तिले संतोष्यपूज्यकृत्यकर्तव्यताज्ञानजनितहर्पगतौ जातिविशेपो, आह च-" अत्यन्तवल्लभा खलु, पत्नी तद्वद्धिता च जननीति । तुल्यमपि कृत्यमनयोतिं स्यात्प्रीतिभक्तिगतम् ॥३॥" (पो० १०-५ ) ' तुल्यमपि कृत्यं ' भोजनाच्छादनादि 'ज्ञातं ' उदाहरणम् । शास्त्रार्थप्रतिसंधानपूर्वा साधोः सर्वत्रोचितप्रवृत्तिर्वचनानुष्ठानम् , आह च-" वचनात्मिका प्रवृत्तिः, सर्वत्रौचित्ययोगतो या तु । वचनानुष्ठानमिदं, चारित्रवतो नियोगेन ॥४॥" (पो० १०-६) व्यवहारकाले वचनप्रतिसंधाननिरपेक्षं दृढतरसंस्काराचन्दनगन्धन्यायेनात्मसाद्भूतं जिनकल्पिकादीनां क्रियासेवनमसङ्गानुष्ठानम् , आह च-" यत्त्वभ्यासातिशयात् , सात्मीभूतमिव चेष्ट्यते सद्भिः । तदसङ्गानुष्ठानं, भवति त्वेतत्तदावेधात् ॥५॥" (पो० १०-७) 'तदावेधात् ' वचनसंस्कारात् , __ यथाऽऽद्यं चक्रभ्रमणं दण्डव्यापारादुत्तरं च तजनितकेवल संस्कारादेव, तथा भिक्षाटनादिविपयं वचनानुष्ठानं वचनव्यापाराद् असङ्गानुष्ठानं च केवलतजनितसंस्कारादिति विशेषः, आह च-" चक्रभ्रमणं दण्डात्तदभावे चैव यत्परं भवति । वचनासङ्गानुष्ठानयोस्तु तज्ज्ञापकं ज्ञेयम् ॥ ६ ॥” (पो० Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८३ ] १०–८) इति ॥ ‘खलु' इति निश्चये । एतेष्वनुष्ठानभेदेषु 'एषः' एतदः समीपतरवृत्ति ( वत्ति) वाचकत्वात्समीपाभिहिताऽससानुष्ठानात्मा चरमो योगोऽनालम्वनयोगो भवति, सङ्गत्या - गस्यैवानालम्बनलक्षणत्वादिति भावः ॥ १८ ॥ आलम्बनविधयैवानालम्बनस्वरूपमुपदर्शयन्नाह - आलंबणं पि एयं, रूवमरूदी य इत्थ परमुत्ति । तग्गुणपरिणइरूवो, सुहुंसोऽपालंबगो नाम ॥ १९ ॥ आलंचणं पि त्ति । श्रालम्बनमपि ' एतत् ' प्राकरणिकबुद्धिसंनिहितं ' अत्र ' योगविचारे ' रूपि ' समवसरणस्थजिनरूपतत्प्रतिमादिलक्षणम्, 'च' पुनः ' अरूपी परमः ' सिद्धात्मा इत्येवं द्विविधम् । तत्र तस्य - अरूपिपरमामलक्षणस्यालम्बनस्य ये गुणाः - केवलज्ञानादयस्तेषां परिगतिः - समापत्तिलक्षणा तया रूप्यत इति तद्गुणपरिणतिरूपः सूक्ष्मोऽतीन्द्रियविषयत्वादनालम्बनो नाम योगः, अरूप्यालम्वनस्येपदालम्बनत्वेन “ अलवणा यवागूः " इत्यत्रेचात्र नव्पदप्रवृत्तेरविरोधात् । " सुहुमो आलवणो नाम । " त्ति कचित्पाठस्तत्रापि सूक्ष्मालम्वनो नामैप योगस्ततोऽनालम्बन एवेति भाव उन्नेयः उक्तं चात्राधिकारे चतुर्दशपोडशके १. " सुमो श्रावण " इति पाठान्तरम् । • Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८४] ग्रन्थकृतैव-" सालम्बनो निरालम्बनश्च योगः परो द्विधा ज्ञेयः । जिनरूपध्यानं खल्वाधस्तत्तत्त्वगस्त्वपरः ॥ १॥" (१४-१) सहालम्बनेन-चक्षुरादिज्ञानविषयेण प्रतिमादिना वर्तत इति सालम्बनः । आलम्बनाव-विपयभावापत्तिरूपानिष्क्रान्तो निरालम्बनः, यो हि च्छद्मस्थेन ध्यायते न च स्वरूपेण दृश्यते तद्विपयो निरालम्बन इति यावत् । जिनरूपस्य-समवसरणस्थस्य ध्यानं खलु 'आद्यः' सालम्बनो योगः । तस्यैव-जिनस्य तत्त्वं-केवलजीवप्रदेशसङ्घातरूपं केवलज्ञानादिस्वभावं तस्मिन् गच्छतीति तत्तत्त्वगः, 'तुः' एवार्थे, 'अपरः' अनालम्बनः, अत्रारूपितत्वस्य स्फुटविषयत्वाभावादनालम्बनत्वमुक्तम् । अधिकृतग्रन्थगाथायां च विषयतामात्रेण तस्यालम्बनत्वमनूद्यापि तद्विषययोगस्येषदालम्बनत्वादनालम्बनत्वमेव प्रासाधीति फलतो न कश्चिद्विशेष इति स्मर्तव्यम् । अयं चानालम्बनयोगः “शास्त्रसंदर्शितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः। शक्त्युद्रेकाद्विशेषेण, सामर्थ्याख्योयमुत्तमः ॥१॥" ( योग० समु०३ श्लोक) इति श्लोकोक्तस्वरूपक्षपकश्रेणीद्वितीयापूर्वकरणभाविक्षायोपशमिकक्षान्त्यादिधर्मसन्न्यासरूपसामर्थ्ययोगतो निस्सङ्गानवरतप्रवृत्ता या परतत्त्वदर्शनेच्छा तल्लक्षणो मन्तव्यः, आह च-"सामWयोगतो या, तत्र दिदृक्षेत्यसङ्गशक्त्याढया । साऽनालम्ब Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८५] नयोगः, प्रोक्तस्तददर्शनं यावत् ॥ १॥" (पो० १५-८) 'तत्र' परतत्त्वे द्रष्टुमिच्छा दिक्षा ' इति' एवंस्वरूपा प्रसङ्गशक्त्या-निरभिष्वङ्गाविच्छिन्नप्रवृत्त्या आढया-पूर्णा 'सा' परमात्मदर्शनेच्छा अनालम्बनयोगः, परतत्त्वस्यादर्शनं-अनुपलम्भं यावत् , परमात्मस्वरूपदर्शने तु केवलज्ञानेनानालम्बनयोगो न भवति, तस्य तदालम्बनत्वात् । अलब्धपरतत्त्वस्तल्लाभाय ध्यानरूपेण प्रवृत्तो ह्यनालम्बनयोगः, स च क्षपकेण धनुर्धरण क्षपकश्रेण्याख्यधनुर्दण्डे लक्ष्यपरतत्त्वाभिमुखं तद्वेधाविसंवादितया व्यापारितो यो वाणस्तत्स्थानीयः, यावत्तस्य न मोचनं तावदनालम्बनयोगव्यापारः, यदा तु प्यानान्तरिकाख्यं तन्मोचनं तदाऽविसंवादितत्पतनमानादेव तक्ष्यवेध इतीषुपातकल्पः सालम्बनः केवलज्ञानप्रकाश एव भवति, न त्वनालम्बनयोगो (ग) व्यापारः, फलस्य सिद्धत्वादिति निर्गलितार्थः । आह च-" तत्राप्रतिष्ठितोऽयं, पतः प्रवृत्तश्च तत्त्वतस्तत्र । सर्वोत्तमानुजः खलु, तेनानालम्रनो गीतः ॥१॥ द्रागस्मात्तदर्शनमिषुपातज्ञातमात्रतो झेयम् । एतच केवलं तत् , ज्ञानं यत्तत्परं ज्योतिः ॥२॥" (षो० १५-६, १०) 'तत्र' परतत्त्वे 'अप्रतिष्ठितः। १" प्रोक्तस्तद्दर्शनं यावत् " इति पाठानुसारेण यशोभद्रसूरिणा व्याख्याकृता। तथाहि-प्रोक्तस्तत्त्ववेदिभिः तस्यपरतत्त्वस्य दर्शनमुपलम्भस्तद्यावत्" इति । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८६ ] अलब्धप्रतिष्ठः सर्वोत्तमस्य योगस्य - प्रयोगाख्यस्य अनुज:पृष्ठभावी ॥ ' तद्दर्शनं ' परतत्त्वदर्शनं ' एतच्च' परतवदर्शनं ' केवलं ' सम्पूर्ण ' तत् ' प्रसिद्धं यत् तत् केवलज्ञानं 'परं ' प्रकृष्टं ज्योतिः स्यात् ।। अत्र कस्यचिदाशङ्का - इपुपातज्ञातात्परतच्चदर्शने सति केवलज्ञानोत्तरमनालम्बनयोगप्रवृत्तिर्मा भूत्, सालम्बनयोगप्रवृत्तिस्तु विशिष्टतरा काचित्स्यादेव, केवलज्ञानस्य लब्धत्वेऽपि मोक्षस्याद्यापि योजनीयत्वात्, मैचम्, केवलिनः स्वात्मनि मोक्षस्य योजनीयत्वेऽपि ज्ञानाकाङ्क्षाया विषयतया ध्यानानालम्बनत्वात्क्षपकश्रेणिकालसम्भविविशिष्टतरयोगप्रयत्ना भावादावर्जीकरणोत्तरयोगनिरोधप्रयत्नाभावाच्चार्वाक्तनकेवलिव्यापारस्य ध्यानरूपत्वाभावादुक्तान्यतरयोगपरिणतेरेव ध्यानलक्षणत्वात् । श्राह च महाभाष्यकारः - I “ सुदढप्पयत्तत्वावारणं णिरोहो व विजमाणाणं | झाणं करणाण मयं, ण उ चित्त गिरोहमित्तागं ॥ १ ॥ " (विशेपावश्यक - गाथा ३०७१ ) इति । स्यादेतद्, यदि क्षपकश्रेणिद्वितीया पूर्वकरणभावी सामर्थ्ययोग एवानालम्बनयोगो ग्रन्थकृताऽभिहितस्तदा तदप्राप्तिमतामप्रमत्तगुणस्थानानामुपरतसकल विकल्पकल्लोलमालानां चिन्मात्रप्रतिबन्धोपलब्धरत्नत्रयसाम्राज्यानां जिनकन्पिकादीनामपि निरालम्बनध्यानमसं १ " सुदृढप्रयत्नव्यापारणं निरोधो वा विद्यमानानाम् | ध्यानं करणानां मतं न तु चित्तनिरोधमात्रम् || " - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८७] गताभिधानं स्यादिति. मैवम् , यद्यपि तत्त्वतः परतत्त्वलक्ष्यवेधाभिमुखस्तदविसंवादी सामर्थ्ययोग एव निरालम्बनस्तथापि परतत्त्वलक्ष्यवेधप्रगुणतापरिणतिमात्रादक्तिनं परमात्मगुणध्यानमपि मुख्यनिरालम्बनमापकत्वादेकध्येयाकारपरिणतिशक्तियोगाच निरालम्बनमेव । अत एवावस्थात्रयभावने रूपातीतसिद्धगुणप्रणिधानवेलायामप्रमत्तानां शुक्लध्यानांशो निरालम्बनोऽनुभवसिद्ध एव । संसार्यात्मनोऽपि च व्यवहारनयसिद्धमौपाधिक रूपमाच्छाद्य शुद्धनिश्चयनयपरिकल्पितसहजात्मगुणविभावने निरालम्बनध्यानं दुरपनवमेव, परमात्मतुल्यतयाऽऽत्मज्ञानस्यैव निरालम्बनध्यानांशत्वात तस्यैव च मोहनाशकत्वात् । आह च-" जो जाणइ अरिहंते, दव्यत्तगुणत्तपजयत्तेहिं । सो जाणइ अप्पाणं, मोहो खलु जाइ तस्स लयं ॥१॥” इति । तस्मादूपिद्रव्यविषयं ध्यानं सालम्बनं अरूपिविषयं च निरालम्बनमिति स्थितम् ॥१६॥ अथ निरालम्बनध्यानस्यैव फलपरम्परामाहएयसि सोहसागरतरणं सेढी य केवलं चेव । तत्तो अजोगजोगो, कमेण परमं च निव्वाणं ॥२०॥ १ “ यो जानात्यई तो द्रव्यत्वगुणत्वपर्यायत्वैः । स जानात्यात्मानं मोहः खलु तस्य चाति लयम् ॥" Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८८] 'एयम्मि 'त्ति । एतस्मिन् ' निरालम्बनध्याने लब्ध मोहसागरस्य-दुरन्तरागादिभावसंतानसमुद्रस्य तरणं भवति । ततश्च ' श्रेणिः ' क्षपकश्रेणिनि ढा भवति, सा ह्यध्यात्मादियोगप्रकर्षगर्भिताशयविशेषरूपा । एष एव सम्प्रज्ञातः समाधिस्तीर्थान्तरीयैर्गीयते, एतदपि सम्यग्-यथावत् प्रकर्षेण-सवितर्कनिश्चयात्मकत्वेनात्मपर्यायाणामर्थानां च द्वीपादीनामिह ज्ञायमानत्वादर्थतो नानुपपन्नम् । ततश्च 'केवलमेव ' केवलज्ञानमेव भवति । अयं चासम्प्रेज्ञातः समाधिरिति परैगीयते, तत्रापि अर्थतो नानुपपत्तिः, केवलज्ञानेऽशेषवृत्त्यादिनिरोधालब्धात्मस्वभावस्य मानसविज्ञानवैकन्यादसम्प्रज्ञातत्वसिद्धेः । अयं चासंप्रज्ञातः समाधिधिा-सयोगिकेवलिभावी अयोगिकेवलिभावी च, आयो मनोवृत्तीनां विकल्पज्ञानरूपाणामत्यन्तोच्छेदात्सम्पद्यते । अन्त्यश्च परिस्पन्दरूपाणार, अयं च केवलज्ञानस्य फलभूतः। एतदेवाह-'ततच' केवलज्ञानलाभादनन्तरं च 'अयोगयोगः' वृत्तिवीजदाहायो १ “ वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात्सम्प्रज्ञातः ।" (पावं० योग० १-१७)। २ "विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः " ( पातं० १-१८) " यदभ्यासपूर्व चित्तं निरानम्बनमभावप्राप्तमिव भवतीत्येष निर्वीजः समाधिरसम्प्रज्ञातः॥" इति १-१८ सूत्रभाष्ये व्यासर्षिः। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८६] गाख्यः समाधिर्भवति, अयं च " धर्ममेघः " इति पातञ्जलैर्गीयते, " अमृतात्मा" इत्यन्यैः, "भवशत्रुः" इत्यपरैः, "शिवोदयः" इत्यन्यैः, " सत्त्वानन्दः" इत्येकैः, " परश्च" इत्यपरैः । क्रमेण ' उपदर्शितपारम्पर्येण ततोऽयोगयोगाद ' परमं ' सर्वोत्कृष्टफलं निर्वाणं भवति ॥ २० ॥ ॥ इति महोपाध्यायश्रीकल्याणविजयगणिशिष्यमुख्यपण्डितश्रीजीतविजयगणिसतीर्थ्यपण्डितश्रीनयविजयगणिचरणकमलचञ्चरीकपण्डितश्रीपद्मविजयगणिसहोदरोपाध्यायश्रीजसविजयगणिसमर्थितायां विंशिका प्रकरणव्याख्यायां योगविंशिकाविवरणं सम्पूर्णम् ॥ १॥ तदेव रजोलेशमलापेतं स्वरूपप्रतिष्ठं सत्त्वपुरुपान्यताख्यातिमात्रं धर्ममेघध्यानोपगं भवति" इति पातं० यो० १-२ भारे व्यासपिः॥ Page #188 --------------------------------------------------------------------------  Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्यायजी श्रीयशोविजयजी कृत-- योगवृत्तिका सार. प्रथम पाद । सूत्र २-सूत्रकारने सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात ऐसे दो योग-जैसा कि पा० १ सू० १७-१८-४६-५१ में कहा है-मानकर उनका 'चित्तवृत्तिनिरोध' ऐसा लक्षण किया है । इस लक्षणमें उन्होंने 'सर्व' शब्दका ग्रहण इस लिए नहीं किया है कि यह लक्षण उभययोग साधारण है। सम्प्रज्ञात योगमें कुछ चित्तवृत्तियाँ होती भी हैं पर असम्प्रज्ञातमें सब रुक जाती हैं। अगर 'सर्वचित्तवृत्तिनिरोध' ऐसा लक्षण किया जाता तो असम्प्रज्ञात ही योग कहलाता, सम्प्रज्ञात नहीं । जब कि ' चित्तवृत्तिनिरोध' इतना लक्षण किया है तब तो कुछ चित्तवृत्तियोंका निरोध और सकल चित्तवृत्तियोंका निरोध ऐसा अर्थ निकलता है जो क्रमशः उक्त दोनों योगमें घट जाता है। सूत्रकारका उपर्युक्त आशय जो भाष्यकारने नीकाला है उसको लक्ष्यमें रखकर उपाध्यायजी कहते हैं कि-सर्वशब्दका अध्याहार न किया जाय या किया जाय, उभयपक्षमें सूत्रगत लक्षण अपूर्ण है। क्योंकि अध्याहार न Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] करनेमें संप्रज्ञात योगका तो संग्रह हो जाता है पर विक्षिप्त अवस्था जो सूत्रकारको योगरूपसे इष्ट नहीं है और जिसमें कितनी चित्तवृत्तियों का निरोध अवश्य पाया जाता है उसमें अतिव्याप्ति होगी । यदि उक्त अतिव्याप्तिके निरासके लिये अध्याहार किया जाय तो सम्प्रज्ञातमें अव्याप्ति होगी, क्योंकि उसमें सब चित्तवृत्तियाँ नहीं रुक जातीं । इस तरह ' सर्व ' शब्दका अध्याहार करनेमें या न करनेमें दोनों तरफ रज्जुपाशा होनेसे 'क्लिष्ट ' पदका अध्याहार करके " योगः क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधः " इतना लक्षण फलित करना चाहिए, जिससे न तो विक्षिप्त अवस्था में अतिव्याप्ति होगी और न सम्प्रज्ञातमें अन्याप्ति | यह तो हुई सूत्रको ही संगत करने की बात, पर श्रीहरिभद्र जैसे आचार्यकी सम्मति बतलाकर उपाध्यायजी जैन शैलीके अनुसार योगका लक्षण इस अकार करते हैं- " जो धर्मव्यापार - अर्थात् स्वभावोन्मुख या चेतनाभिमुख क्रिया - समिति गुप्ति स्वरूप है वही योग है; क्योंकि उसीसे मोक्षलाभ होता है । " सूत्र ११ --- पाद १ सूत्र ६ से ११ तकमें निरोध करने ोग्य पाँच वृत्तियोंका निरूपण है । इसपर उपाध्यायजीका कहना यह है कि - सूत्रकारने वृत्तियोंके जो पॉच भेद किये हैं सो तात्त्विक नहीं किन्तु उनकी रुचिका परिणाममात्र है । क्यों कि विकल्प, निद्रा और स्मृति ये पीछली तीनों वृत्तियाँ यथार्थ तथा यथार्थ उभयरूप देखी जाती हैं, इस Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] लिये उनका समावेश प्रमाण और विपर्यय (भप्रमाण) इन दो वृत्तियोंमें ही हो जाता है । अतएव वृत्तिके दो ही विभाग करने चाहिये । यदि किसी न किसी विशेषताको लेकर भधिक विभाग करना हो तोफिर पाँच ही क्यों ? क्षयोपशम(योग्यता) की विविधताके कारण असंख्यात विभाग किये ना सकते हैं। विषयके न होते हुए भी जो वोध सिर्फ शब्दज्ञानके बलसे होता है वह विकल्प है । जैसे 'आकाशपुष्प ' ऐसा कहनेसे एक प्रकारका भास हो ही जाता है। इसी तरह 'चैतन्य यह आत्माका स्वरूप है ' ऐसा सुननेसे भी भास होता है । यह दोनों प्रकारका भास विकल्प है। पहले प्रकारका विकल्प विपर्यय-कोटि में सम्मिलित करना चाहिये, क्योंकि 'श्राकाशपुष्प ' यह व्यवहार प्रामाणिक-सम्मत नहीं है। दूसरे प्रकारका विकल्प जिसमें भेदबोधक षष्ठीविभक्तिके बलसे श्रात्मा और चैतन्यका भेद भासित होता है वह नय अर्थात् प्रमाणांशरूप है। क्योंकि ऐसे विकल्पका व्यवहार शास्त्रीय व प्रामाणिक-सम्मत है । प्रमाणांश कहनेका मतलब यह है कि व्यवहाकी दृष्टि कभी भेदप्रधान और कभी अभेदप्रधान होती है । दोनों दृष्टियोंको मिलानेसे ही प्रमाण होता है । घष्टिको अपेक्षा या नय कहते हैं । वस्तुतः आत्मा चैतन्यस्वरूप है, पर उसके अनेक स्वरूपोंमेसे जब चैतन्यस्व Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] रूपका कथन करना हो तब भेददृष्टिको प्रधान रखकर प्रामाणिक लोक भी ऐसा बोलते हैं कि चैतन्य यह आत्माका स्वरूप है । इस कथन से यह सिद्ध है कि जो जो 'आकाशपुष्प' यदि विकल्प शास्त्रीय है वह सब विपर्ययरूप हैं । और चैतन्य यह पुरुषका स्वरूप है ' इत्यादि जो जो विकल्प शास्त्रप्रसिद्ध है वह सब नयरूप होनेसे प्रमाण के एक देशरूप हैं । निद्रावृत्ति एकान्त अभाव विपयक नहीं होती । उसमें हाथी घोडे आदि अनेक भावोंका भी कभी कभी भास होता है, अर्थात् स्वम अवस्था भी एक तरहकी निद्रा ही है । इसी तरह वह सच भी होती है । यह देखा गया है कि अनेक वार जागरित अवस्थामें जैसा अनुभव हुआ हो निद्रामें भी वैसा ही भास होता है, और कभी कभी निद्रामें जो अनुभव हुआ हो वही जागने के बाद अक्षरशः सत्य सिद्ध होता है । स्मृति भी यथार्थ यथार्थ दोनों प्रकारकी होती है । अतएव विकल्प आदि तीन वृत्तियोंको प्रमाण विपर्ययसे अलग कहने की खास आवश्यकता नहीं है । सूत्र १६ – सूत्रकारने योगके उपायभूत वैराग्यके अपर . पर ऐसे दो भेद किये हैं, उनको जैन परिभाषामें उतारकर उपाध्यायजी खुलासा करते हैं कि पहला वैराग्य ' आपा--- तधर्मसंन्यास ' नामक है, जो विषयगत दोपों की भावनासे शुरू शुरू में पैदा होता है। दूसरा वैराग्य 'तात्त्विकधर्म संन्यास' ܀ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] नामक है, जो स्वरूपचिंतासे होनेवाली विषयोंकी उदासीनतासे उत्पन्न होता है । जिसका संभव आठवें गुणस्थानमें है, और जिसमें सम्यक्त्व चारित्र आदि धर्म क्षायोपशमिक अवस्था-अपूर्णता-को छोडकर क्षायिकभाव-पूर्णता-को प्राप्त करते हैं। ____सूत्र १८-सूत्रकारने संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो योग कहे हैं। जैन प्रक्रियाके साथ मिलान करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि-अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इन पाँच भेदोंमें जो पाँचवाँ भेद वृत्तिसंचय है उसीमें उक्त दोनों योगका समावेश हो जाता है। आत्माकी स्थूल सूक्ष्म चेष्टायें तथा उनका कारण जो कर्मसंयोगकी योग्यता है, उसके हास-क्रमशः हानि-को वृत्तिसंक्षय कहते हैं। यह वृत्तिसंक्षय ग्रंथिभेदसे होनेवाले उत्कृष्टमोहनीयकर्मबंधसंबंधी व्यवच्छेदसे शुरू होता है, और तेरहवें गुणस्थानमें परिपूर्ण हो जाता है। इसमें भी आठवेंसे बारहवें गुणस्थानतकमें पृथक्त्ववितर्कसविचार और एकत्ववितर्कअविचार नामक जो शुल्ध्यानके दो भेद पाये जाते हैं उनमें संप्रज्ञात योगका अंतर्भाव है। संप्रज्ञात भी जो निर्वितर्कविचारानन्दास्मितानि सरूप है वह पर्यायरहितशुद्धद्रव्यविषयक शुक्लभ्यानमें अर्थात् एकत्ववितर्कअविचारमें अन्तर्भूत है। असंप्रज्ञात योग केवलज्ञानकी प्राप्तिसे अर्थात् तेरहवें गुणस्थान Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [१६] कसे लेकर चौदहवें गुणस्थानतकमें आजाता है। इन दो गुणस्थानों में जो भवोपग्राही अर्थात अघातिकर्मका संवन्ध रहता है वही संस्कार है । और उसीकी अपेक्षासे असंप्रज्ञातको संस्कारशेष समझना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें मतिज्ञानविशेषरूप संस्कारका संभव नहीं है अर्थात् उस समय द्रव्यमन होनेपर भी भावमन नहीं होता । ___ सूत्र १६–सूत्रकारने विदेह और प्रकृतिलयोंमें जो भवप्रत्यय (जन्मसिद्ध) योगका पाया जाना कहा है उसकी संगति जैनमतके अनुसार लबसप्तम देवों-अनुत्तर विमानवासी-में करनी चाहिये, क्योंकि उन देवोंको जन्मसे ही ज्ञानयोगरूप समाधि होती है। ___ सूत्र २६-सूत्र २४, २५, २६ में ईश्वरका स्वरूप है। भाष्यकार और टीकाकारने ईश्वरके स्वरूपके विषयमें सूत्रकारका मंतव्य दिखलाते हुए मुख्यतया उसके छह धर्म बतलाये हैं । जैसे-१ केवल सत्वगुणका प्रकर्प, २ जगत्क त्व, ३ एकत्व, ४ अनादिशुद्धता-नित्यमुक्तता, ५ अनुग्रहेच्छा और ६ सर्वज्ञत्व । उपाध्यायजी उक्त धर्मोंमेंसे ( क ) पहले दो धर्मोंको ____ र्थात् केवलसत्त्वगुणप्रकर्प और जगत्कर्तृत्वको जैनदृष्टिसे ईश्वरमें अस्वीकार ही करते है, (ख ) तीन धर्मोंका अर्थात् एकत्व, अनादिशुद्धता और अनुग्रहेच्छाका कथंचित् समन्वय Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१७] करते हैं, और ( ग ) एकधर्मका अर्थात् सर्वज्ञपनका सर्वथा स्वीकार करते हैं। ___ (क ) सत्त्वगुण जो जड प्रकृतिका अंश है वह तथा जगत्कर्वत्व उन दो धर्नाका सम्बन्ध ईश्वरमें युक्तिसंगत न होनेसे जैनदर्शनको मान्य नहीं है। __(ख ) एकत्व शब्दके संख्या और सादृश्य ये दो अर्थ होते हैं। जैनशास्त्र ईश्वरकी एक संख्या नहीं मानता, रह सभी मुक्त प्रात्माओंको ईश्वर मानता है । अतएव उसके अनुसार इश्वरमें एकत्वका मतलब सदृशतासे है। जव ईश्वर कोई एक ही व्यक्ति नहीं है तब जैनप्रक्रियाके अनुसार यह भी सिद्ध है कि अनादिशुद्धता मुक्तजीवोंके प्रवाहमें ही घट सकती है, एक व्यक्तिमात्रमें नहीं। अनुग्रहकी इच्छा जो रागरूप होनेसे द्वेष सहचरित होनी चाहिये उसका तो ईश्वर में सम्भव ही नहीं हो सकता, अतएव जैनशास्त्र कहता है कि ईश्वरोपासनाके निमित्तसे योगी जो सदाचार लाभ करता है वही ईश्वरका अनुग्रह समझना चाहिये। ईश्वरमें सर्वज्ञत्व जैनशास्त्रको वैसा ही मान्य है जैसा कि योगदर्शनको, पर जैनमतकी विशेषता यह है कि सर्वज्ञत्व दोपोंके नाशसे उत्पन्न होता है। अतएव वह नित्यमुक्तताका साधक नहीं हो सकता। सूत्र ३३---उपाध्यायजी कहते हैं कि-जैनशास्त्र भी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] मैत्री आदि चार भावनाओंको चित्तशुद्धिका उपाय मानता है, और मैत्रीका अर्थ उसमें विशाल है। सूत्रमें सुखी प्राणिको ही मैत्रीभावनाका विषय बतलाया है, पर जैनाचार्य प्राणिमात्रको मैत्रीका विषय बतलाते हैं । इसके सिवाय उपाध्यायजीने पोडशकप्रकरणके चतुर्थ और तेरहवें पोडशकके अनुसार चारों भावनाओंके भेद और उनका स्वरूप भी बतलाया है। ___ सूत्र ३४-जैनशास्त्र प्राणायामको चित्तशुद्धिका पुष्ट साधन नहीं मानता, क्योंकि उसको हठपूर्वक करनेसे मन स्थिर होनेके बदले व्याकुल हो जाता है। सूत्र ४६-चित्तका ध्येयविषयके समानाकार बन जाना उसकी समापत्ति है। जब ध्येय स्थूल हो तब सवितर्क, निर्वितर्क और ध्येय सक्षम हो तव सविचार. निर्विचारः इस तरह समापत्तिके चार भेद हैं, जो सभी सवीज ही हैं और संप्रज्ञात कहलाते हैं । जैनशास्त्रमें समापत्तिका मतलब उन भावनाओंसे है जो भावनायें चित्तमें एकाग्रता उत्पन्न करती *और जिनका अनुभव शुक्लध्यानवाले ही आत्मा करते हैं। ह. स्थूल द्रन्यकी भावना सवितर्क समापत्ति, हित स्थूल द्रव्यकी भावना निर्वितर्क समापत्ति, पर्यायसहित सूक्ष्म द्रव्यकी भावना सविचार समापत्ति, और पायरहित सूक्ष्म द्रव्यकी भावना निर्विचार समापत्ति है । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६] इन भावनाओंको मोहकी उपशम दशामें अर्थाद उपशमश्रेणिमें सम्प्रज्ञात समाधिकी तरह सबीज और मोहकी दीण अवस्थामें अर्थात् रुपकश्रेणिमें असम्प्रज्ञात समाधिकी तरह निवर्वीज घटा लेना चाहिये । ___ सूत्र ४६-जैनप्रक्रियाके अनुसार ऋतंभराप्रज्ञाका समन्वय इस प्रकार है-जो समाधिप्रज्ञा दूसरे अपूर्वकरण अर्थात् आठ गुणस्थानमें होनेवाले सामर्थ्ययोगके वलसे प्रकट होती है, और जो शास्त्रके द्वारा प्रतिपादन नहीं किये जा सकनेवाले अतीन्द्रिय विषयोंको अवगाहन करती है, अतएव जो प्रज्ञा न तो केवलज्ञानरूप है और न श्रुतज्ञानरूप; किन्तु जैसे रातके खतम होते समय और सूर्योदयके पहले अरुणोदयरूप संध्या रात और दिन दोनोंसे अलग पर दोनोंकी माध्यमिक स्थितिरूप है, वैसे ही जो प्रज्ञा श्रुतज्ञानके अंतमें और केवलज्ञानके पहले प्रकट होनेके कारण दोनोंकी मध्यम दशा रूप है, जिसका दूसरा नाम अनुभव है, उसीको ऋतम्भराप्रज्ञा समझना चाहिये । द्वितीय पाद । सूत्र १-जैसे भाज्यमें चित्तकी प्रसन्नताको बाधित नहीं करनेवाला ही तप योगमार्गमें उपयोगी कहा गया है, वैसे Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०० ] ही जैनशास्त्र भी अत्यन्त दुष्कर ऐसे वाह्य तप करनेकी सम्मति वहांतक ही देता है, जहांतक कि आभ्यन्तर तप अर्थात् कपायमन्दताकी वृद्धि हो, और ध्यानकी पुष्टि हो । जैनशास्त्र अनुसार ईश्वरप्रणिधानका मतलब यह है कि प्रत्येक अनुष्ठान करते समय शास्त्रको दृष्टिमम्मुख रख करके तद्द्वारा उसके आदि उपदेशक वीतराग प्रभुको हृदयमें स्थान देना | - सूत्र ४ – अस्मिता आदि चारों क्लेशोंकी जड अविद्या है, और चारों क्लेश प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार इस प्रकारकी चार चार अवस्थावाले हैं । इस विषयका समन्वय जैनपरि - भाषामें इस प्रकार है -विद्यादि पाँचों क्लेश मोहनीयकर्मके दकिभाव - विशेषरूप हैं । श्रनाधाकाल पूर्ण न होनेके कारण जबतक कर्मदलिकका निषेक ( रचनाविशेष ) न हो Taarat कर्मावस्थाको प्रसुप्तावस्था समझना चाहिये । कर्मका उपशम और क्षयोपशम भाव उसकी तनुत्व अवस्था है | अपनी विरोधी प्रकृतिके उदयादि कारणोंसे किसी कर्मप्रकृतिका उदय रुक जाना वह उसकी विच्छिन्न अवस्थां | उदयावलिकाको प्राप्त होना कर्मकी उदार अवस्था है । सूत्र - सूत्रकारने सूत्र ५ से ६ तकमें पाँच क्लेशोंके 1 कहे हुए हैं उनका जैनप्रक्रिया के अनुसार समन्वय २ प्रकार है Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०१] अविद्याको जैनशास्त्रमें मिथ्यात्व कहते हैं । स्थानाङ्गसूत्रमें मिथ्यात्वके दस भेद दिखाये हैं। जैसे-अधर्ममें धर्म, धर्ममें अधर्म, अमार्गमें मार्ग, मार्गमें अमार्ग, असाधुमें साधु, साधुमें असाधु, अजीवमें जीव, जीवमें अजीव, और अयुतमें युक्त, तथा युक्तमें प्रयुक्त ऐसी बुद्धि करना। अस्मिता आरोपको कहते हैं आरोप दो प्रकारका हैदृश्य अर्थात् प्रपंचमें द्रष्टा-चेतन-का आरोप और द्रष्टामें दृश्यका आरोप । यह दोनों प्रकारका आरोप यानि भ्रम जैन परिभाषाके अनुसार मिथ्यात्व ही है । यदि अस्मिताको अहंकार ममकारका बीज मान लिया जाय तो वह राग या द्वेष रूप ही है। राग और द्वेष कपायके भेद ही हैं। अभिनिवेशका उदाहरण भाष्यकारने दिया है कि मैं कभी न मरूं, सदा वना रहूं, अर्थात् मरणसे भय और जीवितकी आशा, यह जैनपरिभाषाके अनुसार भयसंज्ञा ही है । भयसंज्ञाकी तरह अन्य-अर्थात् आहार, मैथुन और परिग्रहसंज्ञाको भी अभिनिवेश ही समझना चाहिये, क्योंकि भयके समान आहार आदिमें भी विद्वानोंकाभी अभिनिवेश देखाजाता हे । विद्वानोंमें अभिनिवेशका अभाव सिर्फ उस समय पाया जाता है जब कि वे अप्रमत्तदशामें वर्तमान हों और अप्रमत्तभावसे उन्होंने दस संज्ञाओंको रोक दिया हो । संज्ञा यह मोहका विलास या मोहसे व्यक्त होनेवाला चैतन्यका स्फुरण Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [ १०२] ही है। इस प्रकार सभी क्लेश जैन संकेतके अनुसार मोहनीयकर्मके औदयिकभावरूप ही हैं। इसीसे योगदर्शनमें क्लेशक्षयसे कैवल्यप्राप्ति और जैनदर्शनमें मोहक्षयंसे कैवल्य प्राप्ति कही गई है। सूत्र १०-सूक्ष्म-अर्थात् दग्धर्वाज सदृश-क्लेशांका नाश चित्तके नाशके साथ ही सूत्रकारने माना है। इस बातको जैनप्रक्रियाके अनुसार यों कह सकते हैं कि जो क्लेश अर्थात् मोहप्रधान घातिकर्म दग्धवीजसदृश हुए हों, उनका नाश बारहवें गुणस्थानसंबंधी यथाख्यात चारित्रसे होता है। सूत्र १३-प्रस्तुत सूत्रके भाष्यमें कर्म, उसके विपाक और विपाकसंबंधी नियम आदिके विषयमें मुख्य सात बातें ऐसी हैं जिनके विषयमें मतभेद दिखा कर उपाध्यायजीने जैनप्रक्रियाके अनुसार अपना मन्तव्य बतलाया है। वे सात पातें ये हैं-१ विपाक तीन ही प्रकारका है । २ कर्मप्रचयके बंध और फलका क्रम एक सा होता है, अर्थात् पूर्वबद्ध कर्मका फल पहले ही मिलता है और पश्चात्वद्ध कर्मका फल पश्चात् । ३ वासनाकी अनादिकालीनता और कर्मा एकभविकता अर्थात् वासना और कर्माशयकी भि। ४ कर्माशयकी एकभविकता और प्रारब्धता । ५ कर्माशयका उद्बोधक मरण ही है, अर्थात् जन्मभर किये १ पा० ४ सू० ३-३४।२ तत्त्वार्थ अध्याय १० सूत्र १ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ [ १०३] हुए कर्माशयका फल मरणके बाद ही मिलता है। ६ मरणके समय कर्माशयका फलोन्मुख होना यह उसकी प्रधानताका लक्षण है, और उस समय फलोन्मुख न होना उसकी गौणताका लक्षण है । ७ गौणकर्मका प्रधानकर्ममें आवापगमन अर्थात् संमिलित होकर उसमें दव जाना। इनके विषयमें क्रमशः जैनसिद्धांत इस प्रकार है-१ विपाक तीन ही नहीं बल्कि अधिक हैं, क्योंकि वैदिक लोगोंने ही गंगामरणको अदृष्ट विशेपका फल माना है, जो सूत्रोक्त तीन विपाकोंसे भिन्न है । तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो कमसे कम ज्ञानावरण आदि आठ विपाक तो मानने ही चाहिये । __२ यह एकान्त नियम नहीं है कि जो कर्मव्यक्ति पूर्वबद्ध हो उसका फल प्रथम ही मिले और पश्चातबद्ध कर्मव्यक्तिका फल पीछे मिले. किन्तु कभी कभी कर्मके वन्धन और फलक्रममें विपर्यय भी हो जाता है। ३ वासना भी एकप्रकारका कर्म अर्थात् भावकर्म है अतएव वासना और कर्म ये दो भिन्न तत्त्व नहीं हैं। ४ एकभविकताका नियम सिर्फ आयुष्कर्ममें ही लागू पड सकता है । ज्ञानावरणादि अन्य कर्म अनेकभविक भी होते हैं। प्रारब्धता-विपाकवेद्यता-का नियम भी सिर्फ आयु Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०४ ] कर्ममें लागू पडता है, क्योंकि अन्य सभी कर्म विपाको - दयके सिवाय अर्थात् प्रदेशोंदयद्वारा भी भोगे जा सकते हैं । ५ मरणके सिवाय अन्य अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल यदि निमित्त भी कर्माशय के उद्बोधक होते हैं । ६ मरण के समय अवश्य उदयमान होनेवाला कर्म यु ही है, इस लिये यदि प्रधानता माननी हो तो वह सिर्फ आयुष्कर्म में ही घटाई जा सकती है, अन्य कर्मों में नहीं । ७ गौणकर्मका प्रधानकर्ममें आवागमन होता है यह बात गोल - माल जैसी है । आवापगमनका पूरा भाव संक्रमणविधिको विना जाने ध्यानमें नहीं सकता, इस लिये कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थोंमेंसे संक्रमणका विचार जान लेना चाहिये । सूत्र १५ - सूत्रकारने संपूर्ण दृश्यप्रपंचको विवेकिके लिये दुःखरूप कहा है, इस कथनका नयदृष्टिसे पृथक्करण करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि दृश्यप्रपंच दुःखरूप है सो निश्चयदृष्टि से, व्यवहारदृष्टिसे तो वह सुख दुःख उभयरूप है । इस पृथक्करण की पुष्टि वे सिद्धसेनदिवाकरके एक स्तुतिवाक्यसे करते हैं । उस वाक्यका भाव इस प्रकार है " हे वीतराग ! तूने अनंत भवबीजको फेंक दिया है, और अनंत ज्ञान प्राप्त किया है, फिर भी तेरी कला न तो कम हुई है और न अधिक, तू तो समभाव अर्थात् एक रूपताको ही तारण, धारण । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kho [१०५] किये हुए है।" इसमें जो अनंत भववीजका फेंकना कहा गया है सो संसारको निश्चयदृष्टिसे दुःखरूप माननेसे ही घट सकता है। सूत्र १६---इसमें भाष्यकारने सृष्टिसंहार क्रमको सांख्यासिद्धांतके अनुसार वर्णन किया है। सांख्यशास्त्र सत्कार्यवाद मानता है अर्थात् असत् का उत्पाद और सत् का प्रभाव नहीं मानता । इसपर उपाध्यायजी कहते हैं किउक्त सिद्धांत एकांतरूप नहीं मानना चाहिये, क्योंकि एकांतरूप मान लेनेमें प्रागभाव और प्रध्वंसाभावका अस्वीकार करना पडता है, जिससे कार्यमें अनादि-अनंतताका प्रसंग आता है जो इष्ट नहीं है। इसलिये उक्त दोनों अभाव मान कर कथंचित् असत् का उत्पाद और सत् का अभाव मानना चाहिये । ऐसा मान लेनेसे वस्तुमात्रकी द्रव्यपर्यायरूपता घट जायगी, और इससे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप जो वस्तुमात्रका त्रिरूप लक्षण है वह भी घटित हो जायगा। सूत्र ३१--सूत्रकारने जाति, देश, काल और समययाचार व कर्त्तव्य-के बंधनसे रहित अर्थात् सार्वभौम ऐसे पॉच यमोंको महाव्रत कहा है । इस विषयमें जैनप्रक्रिया बतलाते हुए उपाध्यायजी कहते है कि-सर्व शब्दके साथ अहिंसादि पोच यमोंकी जब प्रतिज्ञा की जाती है तब वे महाव्रत कहलाते हैं. और देश शब्दके साथ जब उनकी प्रतिज्ञा ली जाती है तब वे अणुव्रत कहलाते हैं । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०६] सूत्र ३२-भाष्यकारने दो प्रकारका शौच कहा है, बाह्य और आभ्यंतर । शुद्ध भोजन, पान तथा मिट्टी और जलसे होने वाला शौच बाह्य शौच है, और चित्तके दोषोंका संशोधन आभ्यंतर शौच है। जैन परिभाषाके अनुसार बाह्य शौच द्रव्यशौच कहलाता है और आभ्यंतर शौच भावशौच कहलाता है। जैन शास्त्रमें भावशौचको बाधित न करनेवाला ही द्रव्यशौच ग्राह्य माना गया है। उदाहरणार्थ शृंगार आदि वासनासे प्रेरित होकर जो स्नान आदि शौच किया जाता है वह ग्राह्य नहीं है। सूत्र ५५-- इसके भाष्यमें इन्द्रियोंकी परमवश्यताका स्वरूप और उसका उपाय ये दो बातें मुख्य हैं। भाष्यकारने अनेक मतभेद दिखा कर अन्तमें अपने मतसे परमवश्यताका स्वरूप दिखाते हुए लिखा है कि इन्द्रियोंके निरोधको अर्थात् शब्दादि विषयों के साथ इन्द्रियोंका संबंध रोक देनेको परमवश्यता ( परमजय ) कहते हैं । परमवश्यताका उपाय उन्होंने चित्त निरोधको माना है । इन दोनों बातोंके विषयमें जैन मान्यतानुसार मतभेद दिखाते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि-इन्द्रियोंका निरोध उनकी परमवश्यता नहीं है, किन्तु अच्छे या बुरे शब्द आदि विषयोंके साथ कर्ण आदि इन्द्रियोंका संबंध होनेपर भी तत्त्व ज्ञानके वलसे जो रागद्वेपका पैदा न होना वही इन्द्रियोंकी परमवश्यता है । परमवश्यताका एक मात्र उपाय ज्ञान ही Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०७] है, चित्तनिरोध नहीं । ज्ञान भी ऐसा समझना चाहिये जो अध्यात्म भावनासे होनेवाले समभावके प्रवाहवाला हो, यही ज्ञान राजयोग कहलाता है । सारांश यह है कि चित्तका जय हो या बाह्य इन्द्रियोंका जय हो सबका मुख्य उपाय उक्त ज्ञानरूप राजयोग ही है, प्राणायाम आदि हठयोग नहीं । क्योंकि विकासमार्गमें विघ्नरूप होनेसे हठयोगके अभ्यासका शास्त्रमें वार बार निषेध किया है । तृतीय पान. सूत्र ५५-इसके भाष्यमें भाष्यकारने सांख्यसिद्धांतके अनुसार योगदर्शनका सिद्धांत बतलाते हुए मुख्य तीन बातें लिखी हैं । (१) कैवन्य अर्थात् मुक्तिका मतलव भोगके श्रमावसे है । भोग सुख, दुःख, ज्ञान आदिरूप है जो वास्तवमें प्रकृतिका विकार है, आत्मा-पुरुष-का नहीं। पुरुष तो कूटस्थ-नित्य होनेसे वास्तवमें न तो बद्ध है और न मुक्त । इसलिये पुरुषकी मुक्तिका मतलब उसमें आरोपित भोगके अभावमात्रसे है । (२) विवेकख्याति अर्थात् जड चेतनका भेदज्ञान ही मोक्षका मुख्य उपाय है। भेदज्ञान हो जानेसे अविद्या ग्रादि क्लेश और कर्मविपाकका अभाव हो जाता है । इस अभावका होना ही मुक्ति है । मुक्तिके पूर्वमें सर्वज्ञत्ल (सर्वविषयक ज्ञान ) किसीको होता है और Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०८ ] किसी को नहीं ( ३ ) जिसको सर्वज्ञत्व प्राप्त होता है उसको भी मुक्ति प्राप्त होनेपर अर्थात् मन, शरीर आदि छूट जाने पर वह नहीं रहता, क्योंकि सर्वज्ञत्व यह मनका कार्य है आत्माका नहीं, आत्मा तो कूटस्थ - निर्विकार चेतनस्वरूप हैं । इन तीनों बातोंके विषयमें जैनशास्त्रका जो मतभेद है उसीको उपाध्यायजीने दिखाया है - ( १ ) सुख, दुःख आदिरूप भोग संसार अवस्था में आत्माका वास्तविक विकार है, मनका नहीं । इसलिये मुक्तिका मतलब संसारकालीन वास्तविक भोगके अभाव से है, आरोपित भोगके अभाव से नहीं । (२) विवेकख्याति (जैन परिभाषानुसार सम्यग्दर्शन) से और क्लेश आदिके प्रभावसे मोक्ष होता है सही, पर क्लेशका अभाव होते ही सर्वज्ञत्व अवश्य प्रकट होता है । मुक्तिके पहले नेशकी निवृत्ति अवश्य हो जाती है, और केश (मोह) की निवृत्ति हो जाने पर सर्वज्ञत्व ( केवलज्ञान ) श्रवश्य हो जाता है । ( ३ ) मुक्ति पानेवाले सभी आत्मा को सर्वज्ञत्व नियमसे प्रकट होता है इतना ही नहीं, बल्कि वह प्रकट होने पर कायम रहता है, अर्थात् मुक्ति होने पर चला नहीं जाता | क्योंकि सर्व विषयक ज्ञान करना यह श्रात्माका स्वभाव है, मनका नहीं । संसारदशामें श्रात्माको ऐसा ज्ञान न होनेका कारण उसके ऊपर आवरणका होना है । मोक्षदशा में आवरणके न रहनेसे उक्त ज्ञान आप ही Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०६] श्राप हुआ करता है, ऐसा ज्ञान होते रहनेसे आत्मामें कूटस्थत्वके भंगका जो दूषण दिया जाता है वह जैन शास्त्रका भूषण है । क्योंकि जैन शास्त्र केवल जड ( प्रकृति ) को ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप नही मानता, किन्तु चेतनको भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप मानता है । चतुर्थ पाद. सूत्र १२-प्रस्तुत सूत्रमें वस्तुके प्रत्येक धर्मकी भावि, भूत और वर्तमान ऐसी तीन अवस्थायें मान कर उसमें अवभेद अर्थात् कालकृत भेदका समावेश बतलाया गया है, और वर्तमानकी तरह भूत तथा भावि अवस्थाका भी अपने अपने स्वरूपमें प्रत्येक धर्मके साथ संबंध है ऐसा कहा है। इस मन्तव्यका जैन प्रक्रियाके साथ मिलान करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि वस्तुको द्रव्यपर्यायरूप माननेसे ही पूर्वोक्त अध्वभेदकी व्यवस्था घट सकती है अन्यथा नहीं। वस्तुको द्रव्यपयोयरूप मान लेना यही स्याद्वाद है । ऐसा स्याद्वाद मान लेनेसे ही सब प्रकारके वचन-व्यवहारकी ठीक ठीक सिद्धि हो जाती है। सूत्र १४-त्रकारने सांख्य प्रक्रियाके अनुसार त्रिगुरणात्मक प्रकृतिका एक परिणाम मान कर कार्यमें एकताके Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११० ] व्यवहारका समर्थन किया है । इस प्रक्रियाके स्वरूपके द्वारा स्याद्वाद पद्धतिका समर्थन करते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि एकसे अनेक और अनेकसे एक परिणाम माननेवाली स्याद्वाद शैलीका स्वीकार करने ही से उक्त सांख्य प्रक्रिया घट सकती है । सूत्र १८ - इस सूत्र आत्माको अपरिणामी सावीत किया है । इसका समर्थन करते हुए भाष्यकारने कहा है कि शब्द आदि विषय कभी जाने जाते हैं और कभी नहीं । इसलिए चित्त तो परिणामी है, परंतु चित्तकी वृत्तियाँ कभी अज्ञात नहीं रहतीं । इसलिए आत्मा अपरिणामी अर्थात् कूटस्थ ही है । इस मन्तव्यका प्रतिवाद करते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि जैसा चित्त परिणामी है वैसा आत्मा भी । आत्माको परिणामी मान लेने पर भी चित्तकी सदाज्ञाततामें कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि चित्त ज्ञान-रूप है और ज्ञान आत्मा धर्म है । धर्म होनेसे वह आत्माके सन्निहित होने के कारण कभी अज्ञात नहीं रहता । शब्द आदि विषय कभी ज्ञात, और कभी अज्ञात होते हैं । इसका कारण यह है कि शब्द आदि विषयका इन्द्रियके साथ जो व्यञ्जनावग्रहरूप सम्बन्ध है वह सदा नहीं रहता अर्थात् कभी होता है और कभी नहीं । यद्यपि इन्द्रियके द्वारा शब्द आदि विपय सदा नहीं जाने जाते परन्तु केवलज्ञानद्वारा सदा ही Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [ १११] जाने जाते हैं। क्योंकि केवलज्ञानमें एक ऐसी शक्ति है जिससे वह शब्द आदि विषयोंको सदा ही जान लेता है। ___ सूत्र २३-उन्नीससे तेईसतकके पॉच सूत्रोंमें सूत्रकारने जो कुछ चर्चा की है उससे आत्माके विषयमें सांख्यसिद्धान्तसम्मत तीन बातें मुख्यतया मालूम होती हैं । वे ये हैं(१) चैतन्यकी स्वप्रकाशता । (२) जो चैतन्य अर्थात् चिति-शक्ति है वहीं चेतन है अर्थात चिति-शक्ति स्वयं स्वतंत्र है। वह किसीका अंश नहीं है और उसके भी कोई अंश नहीं हैं। अतएव वह निर्गुण है। (३) चिति-शक्ति सर्वथा कूटस्थ होनेसे निर्लेप है। इन बातोंके विषयमें जैन मन्तव्यके अनुसार मतभेद दिखाते हुए उपाध्यायजी अन्तमें कहते हैं कि ये बातें किसी नयकी अपेक्षासे मान्य की जा सकती हैं सर्वथा नहीं। उक्त बातोंके विषयमें मतभेद क्रमशः इस प्रकार है (१) चैतन्य स्वप्रकाश भी है और परप्रकाश भी। उसकी स्वप्रकाशता अग्निके प्रकाशके समान अन्य पदार्थके संयोगके सिवाय ही प्रत्येक प्राणिको अनुभव-सिद्ध है । चैतन्यकी परप्रकाशता अावरणदशामें विपयके सम्बंधके अधीन है और अनावरण-दशामें स्वाभाविक है । (२) चैतन्य यह शक्ति (गुण ) अर्थात् अन्य मूल तत्वका अंश है. वह अन्य तत्व चेतन या यात्मा है । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११२] उसमें चैतन्यकी तरह दूसरे भी अनन्त गुण (शक्तियाँ) हैं, अर्थात् आत्मा अनंत गुणोंका आधार है । वह जो निर्गुण कहा जाता है उसका मतलब उसमें प्राकृतिक गुणोंके अभावसे है। (३) आत्मा एकांत-निर्लेप नहीं है उसमें संसार-- अवस्थामें कथंचित् लेपका भी संभव है। ___ सूत्र ३१-भाष्यकारने प्रस्तुत सूत्रके भाष्यमें सांख्य मतके अनुसार ज्ञानको सत्त्वगुणका कार्य कह कर उसे प्राकृतिक बतलाया है, और कहा है कि निरावरण दशामें ज्ञान अनन्त हो जाता है जिससे उसके सामने सभी ज्ञेय (विषय) अल्प वन जाते हैं, जैसे कि आकाशके सामने जुगनू । इन दोनों बातोंका विरोध करते हुए वृत्तिकार जैन-मन्तव्यको इस प्रकार दिखाते हैं-ज्ञान प्राकृतिक अर्थात् अचैतन्य नहीं है किन्तु वह चैतन्यरूप है । यह बात नहीं कि ज्ञानके अनन्त हो जानेके समय सभी ज्ञेय अल्प हो जाते हैं, बल्कि ज्ञानकी अनन्तता ज्ञेयकी अनन्तता पर ही अवलम्बित है अर्थात् ज्ञेय अनन्त हैं । अतएव उन सवको जाननेवाला निरावरण ज्ञान भी अनन्त कहलाता है । ___ सूत्र ३३-इसकी व्याख्या में भाष्यकारने क्रमका स्वरूप दिखाते हुए कहा है कि नित्यता दो प्रकारकी है । (१) कूटस्थ-नित्यता अर्थात् अपरिणामि तत्व । (२) परिणामि Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११३] नित्यता अर्थात् परिवर्तनशील तत्त्व । इनमेंसे पहली नित्यता पुरुष (आत्मा ) में है और दूसरी प्रकृतिमें । इस पर जैन मतभेद दिखाते हुए वृत्तिकार कहते हैं किकूटस्थनित्यता माननेमें कोई सबूत नहीं। आत्मा हो या प्रकृति सभीमें परिणामिनित्यता ही है, अर्थात् वस्तुमात्रमें द्रव्यरूपसे नित्यता और पर्यायरूपसे अनित्यता युक्तिसंगत होनेके कारण सवका एकमात्र लक्षण " उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य" ऐसा ही करना चाहिये । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११४] योगविंशिकाका सार. गोथा १ - मोक्ष - प्राप्तिमें उपयोगी होनेके कारण यद्यपि सब प्रकारका विशुद्ध धर्म - व्यापार योग ही है तथापि यहाँ विशेष रूप से स्थान आदि सम्बन्धी धर्म - व्यापारको ही योग जानना चाहिए || खुलासा — जिस धर्म - व्यापार में प्रणिधान, प्रवृत्ति, विजय, सिद्धि और विनियोग इन पॉच भावका सम्बन्ध हो वही धर्म-व्यापार विशुद्ध है । इसके विपरीत जिसमें उक्त भावका सम्बन्ध न हो वह क्रिया योगरूप नहीं है । उक्त प्रणिधान आदि भावका स्वरूप इस प्रकार है " ( १ ) अपने से नीचेकी कोटीवाले जीवोंके प्रति द्वेप न रख कर परोपकारपूर्वक अपनी वर्तमान धार्मिक भूमिकाके कर्तव्य में सावधान रहना यह प्रणिधान है । ( २ ) वर्तमान धार्मिक भूमिकाके उद्देश्यसे किया जानेवाला और उसके उपायकी पद्धति से युक्त जो चञ्चलतारहित तीव्र प्रयत्न वह प्रवृत्ति है । ( ३ ) जिस परिणामसे धार्मिक प्रवृत्तिमें विघ्न नहीं आते वह विघ्न - जय है | विघ्न तीन तरह के होते हैं, १ भूख, प्यास आदि परीपह, २ शारीरिक रोग और ३ मनो Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११५ ] विभ्रम | ये विघ्न धार्मिक प्रवृत्तिमें वैसे ही बाधा डालनेवाले जैसे कहीं प्रयाण करनेमें रास्ते के काटे - पथ्थर, शरीर- गत ज्वर और मनोगत दिग्भ्रम । तीन तरहका विघ्न होने से उसका जय भी तीन प्रकारका समझना चाहिये । ( ४ ) ऐसी धार्मिक भूमिकाको प्राप्त करना जिसमें बडोंके प्रति बहुमानका भाव हो, बरावरीवालोंके प्रति उपकारकी भावना हो और कम दरजेवालोंके प्रति दया, दान तथा अनुकंपाकी भावना हो वह सिद्धि है । (५) हिंसादि जो धार्मिक भूमिका अपनेको सिद्ध हुई हो उसे योग्य उपायोंके द्वारा दूसरोंको भी प्राप्त कराना यह विनियोग है || स्थान आदि क्या क्या है और उसमें योग कितने प्रकारका है यह दिखलाते हैं- गाथा २ -- स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलंबन और अनालंबन ये योगके पाँच भेद हैं । इनमें से पहले दो कर्मयोग हैं और पिछले तीन ज्ञानयोग हैं ।" खुलासा - (१) कायोत्सर्ग, पर्यकासन, पद्मासन आदि श्रासनको स्थान कहते हैं । ( २ ) प्रत्येक क्रिया यादिके समय जो सूत्र पढ़ा जाता है उसे ऊ अर्थात् वर्ण या शब्द समझना चाहिए । ( ३ ) अर्धका मतलब सूत्रार्थके ज्ञानसे है । ( ४ ) वास प्रतिमा आदिका जो ध्यान वह आलंबन Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११४ योगविंशिकाका सार, गाथा १–मोक्ष-प्राप्तिमें उपयोगी होनेके कारण यद्यपि सब प्रकारका विशुद्ध धर्म-व्यापार योग ही है तथापि यहाँ विशेष रूपसे स्थान आदि सम्बन्धी धर्म-व्यापारको ही योग जानना चाहिए ॥ खुलासा-जिस धर्म-व्यापारमें प्रणिधान, प्रवृत्ति, विघ्नजय, सिद्धि और विनियोग इन पाँच भावोंका सम्बन्ध हो वही धर्म-व्यापार विशुद्ध है। इसके विपरीत जिसमें उक्त भावोंका सम्बन्ध न हो वह क्रिया योगरूप नहीं है। उक्त प्रणिधान आदि भावोंका स्वरूप इस प्रकार है (१) अपनेसे नीचेकी कोटीवाले जीवोंके प्रति द्वेष न रख कर परोपकारपूर्वक अपनी वर्तमान धार्मिक भूमिकाके कर्तव्यमें सावधान रहना यह प्रणिधान है। ___ (२) वर्तमान धार्मिक भूमिकाके उद्देश्यसे किया जानेवाला और उसके उपायकी पद्धतिसे युक्त जो चञ्चलतारहित तीव्र प्रयत्न वह प्रवृत्ति है। (३) जिस परिणामसे धार्मिक प्रवृत्तिमें विघ्न नहीं आते वह विघ्न-जय है । विघ्न तीन तरहके होते हैं, १ भूख, प्यास आदि परीषह, २ शारीरिक-रोग और ३ मनो Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११५] विभ्रम । ये विघ्न धार्मिक प्रवृत्तिमें वैसे ही बाधा डालनेवाले है जैसे कहीं प्रयाण करनेमें रास्तेके काँटे-पथ्थर, शरीर-गत वर और मनोगत दिग्भ्रम । तीन तरहका विघ्न होनेसे उसका जय भी तीन प्रकारका समझना चाहिये। (४) ऐसी धार्मिक भूमिकाको प्राप्त करना जिसमें बडोंके प्रति बहुमानका भाव हो, बरावरीवालोके प्रति उपकारकी भावना हो और कम दरजेवालोंके प्रति दया, दान तथा अनुकंपाकी भावना हो वह सिद्धि है। (५) अहिंसादि जो धार्मिक भूमिका अपनेको सिद्ध हुई हो उसे योग्य उपायोंके द्वारा दूसरोंको भी प्राप्त कराना यह विनियोग है ॥ स्थान आदि क्या क्या है और उसमें योग कितने प्रकारका है यह दिखलाते हैं गाथा २-स्थान, ऊर्ण, अर्थ, श्रालंबन और अनालंवन ये योगके पॉच भेद हैं। इनमेंसे पहले दो कर्मयोग हैं और पिछले तीन ज्ञानयोग हैं। खुलासा-(१) कायोत्सर्ग, पर्यकासन, पद्मासन आदि आसनोंको स्थान कहते हैं । (२) प्रत्येक क्रिया आदिके समय जो सूत्र पड़ा जाता है उसे ऊर्ण अर्थात् वर्ण या शब्द समझना चाहिए। (३) अर्थका मतलव सूत्रार्थके ज्ञानसे है। ( ४ ) बाह्य प्रतिमा आदिका जो ध्यान वह बालंबन Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११६ ] है । ( ५ ) रूपी द्रव्यके आलंबनसे रहित जो शुद्ध चैतन्यमात्रकी समाधि वह अनालंबन है। स्थान तो स्वयं ही क्रियारूप है और सूत्रका भी उच्चारण किया जाता है इसीलिए स्थान तथा ऊर्णको कर्मयोग कहा है। ऊपर की हुई व्याख्यासे यह स्पष्ट है कि अर्थ, आलंबन और अनालंबन ये तीनों ज्ञानयोग हैं। योगका मतलब मोतके कारणभूत आत्म-व्यापारसे है। स्थान आदि आत्म-व्यापार मोक्षके कारण हैं इसलिए उनकी योग-रूपता सिद्ध है । स्थान आदि उक्त पाँच योगके अधिकारिओंको बतलाते हैं गाथा ३-देशचारित्रवाले और सर्वचारित्रवालेको यह स्थान आदि योग अवश्य होता है। चारित्रवालेमें ही योगका संभव होनेके कारण जो चारित्ररहित अर्थात अपुनबंधक और सम्यग्दृष्टि हो उसमें उक्त योग बीजमात्ररूपसे होता है ऐसा कोई प्राचार्य मानते हैं ॥ खुलासा-योग क्रियारूप हो या ज्ञानरूप, पर वह चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशम अर्थात् शिथिलताके होनेपर अवश्य प्रकट होता है। इसीलिए चारित्री ही योगका अधिकारी है, और यही कारण है कि ग्रन्थकार हरिभद्रसू १ जो फिरसे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधता वह अपुनर्वधक कहलाता है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११७] रिने स्वयं योगबिंदुमें अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इन पाँच योगोंकी संपत्ति चारित्रमें ही मानी है । यह प्रश्न उठ सकता है कि जब चारित्रीमें ही योगका संभव है तब निश्चयदृष्टिसे चारित्रहीन किन्तु व्यवहारमात्रसे श्रावक या साधुकी क्रिया करनेवालेको उस क्रियासे क्या लाभ. इसका उत्तर ग्रंथकारने यही दिया है कि" व्यवहार-मात्रसे जो क्रिया अपुनर्वधक और सम्यग्दृष्टिके द्वारा की जाती है वह योग नहीं किन्तु योगका कारण होनेसे योगका वीजमात्र है । जो अपुनर्वधक या सम्यग्दृष्टि नहीं है किन्तु सकृद्धधर्क या द्विबंधक आदि है उसकी व्यावहारिक क्रिया भी योगवीजरूप न होकर योगाभास अर्थात् मिथ्या-योगमात्र है । अध्यात्म आदि उक्त योगोंका समावेश इस ग्रंथमें वर्णित स्थान प्रादि योगामें इस प्रकार है-अध्यात्मके अनेक प्रकार हैं । देव-सेवारूप अध्यात्मका समावेश स्थानयोगमें, जपरूप अध्यात्मका समावेश ऊर्ण-योगमें और तत्त्वचिंतनरूप अध्यात्मका समावेश अर्थयोगमें होता है । भावनाका भी समावेश उक्त ५ जो मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति एक वार बांधनेवाला हो वह सकद्धन्धा या सकृदावर्तन कहलाता है और जो वैसी स्थिति दो वार बांधनेवाला हो वह द्विवन्धक या द्विरावर्तन कहलाता है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११८ ] तीनों योगमें ही समझना चाहिये । ध्यानका समावेश आ लंबन योगमें है और समता तथा वृत्तिसंक्षयका समावेश नालंबन योगमें होता है ।। स्थान आदि योग के भेद दिखाते हैं गाथा ४- उक्त स्थान आदि प्रत्येक योग तत्त्वदृष्टिसे चार चार प्रकारका है | ये चार प्रकार शास्त्र में ये हैं - इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि || । उक्त इच्छा आदि भेदका स्वरूप बतलाते हैं गाथा ५, ६ – जिस दशामें स्थान आदि योगवालोंकी कथा सुन कर प्रीति होती हो और जिसमें विधिपूर्वक अनुष्ठान करनेवालोंके प्रति बहुमानके साथ उल्लासभरे विविध प्रकारके सुंदर परिणाम अर्थात् भाव पैदा होते हों वह योगकी दशा इच्छा - योग है । प्रवृत्तियोग वह कहलाता है जिसमें सब अवस्थामें उपशमभावपूर्वक स्थान आदि योगका पालन हो ॥ जिस उपशमप्रधान स्थान आदि योगके पालनमें अर्थात् प्रवृत्ति में योगके बाधक कारणोंकी चिंता न हो वह स्थिरता योग है । स्थानादि सब अनुष्ठान दूसरोंका भी हितसाधक हो तब वह सिद्धियोग है || खुलासा - हर एक योगकी चार अवस्थायें होती हैं, जो क्रमशः इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धियोग कहलाते हैं । ( १ ) जिस अवस्थामें द्रव्य, क्षेत्र आदि अनुकूल Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११६ ] साधनों की कमी होनेपर भी ऐसा उल्लास प्रकट हो जिससे शास्त्रोक्त विधिके प्रति बहुमान पूर्वक अल्पमात्र योगाभ्यास किया जाय वह अवस्था इच्छायोग है । ( २ ) जिस अवस्थामें वीर्योल्लास की प्रबलता हो जानेसे शास्त्रानुसार सांगोपांग योगाभ्यास किया जाय वह प्रवृत्तियोग है । ( ३ ) प्रवृत्तियोग ही स्थिरतायोग है, पर अंतर दोनोंमें इतना ही है कि प्रवृत्तियोग में अतिचार अर्थात् दोषका डर रहता है और स्थिरतायोगमें डर नहीं रहता । ( ४ ) सिद्धियोग उस यवस्थाका नाम है जिसमें स्थानादि योग उसका याचरण करनेवाले आत्मामें तो शांति पैदा करे ही, पर उस श्रात्मा के संसर्ग में आनेवाले साधारण प्राणियों पर भी शांतिका असर डाले । सारांश यह है कि सिद्धियोगवा लेके संसर्गमें आनेवाले हिंसक प्राणी भी हिंसा करना छोड़ देते हैं और असत्यवादी भी सत्य बोलना छोड़ देते हैं अर्थात् उनके दोप शांत हो जाते हैं । - - उक्त इच्छा आदि योगभेदों के हेतुओं को कहते हैं गाथा ७ -- ये विविध प्रकारके इच्छा आदि योग प्रस्तुत स्थान आदि योगकी श्रद्धा, प्रीति श्रादिके सम्बन्धसे भव्य प्राणियों को तथाप्रकारके क्षयोपशमके कारण होते है || PA खुलासा - इच्छा आदि चारों योग आपसमें एक दुसरेसे भिन्न तो हैं ही, पर उन सबमेंसे एक एक योगके Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२० ] भी असंख्य प्रकार हैं । इस विविधताका कारण क्षयोपशमभेद अर्थात् योग्यताभेद है। यहाँ भव्यप्राणिका मतलब अपुनबंधक तथा सम्यग्दृष्टि आदिसे है । ___इच्छा आदि योगोंका कार्य गाथा ८-इन इच्छा आदि उक्त चारों योगोंके कार्य क्रमसे अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग और प्रशम है । खुलासा-अनुकम्पा आदिका स्वरूप इस प्रकार है(१) दुःखित प्राणिोंके भीतरी और बाहरी दुःखोंको यथाशक्ति दूर करनेकी जो इच्छा वह अनुकम्पा है । (२) संसाररूप कैदखानेकी निःसारता जान कर उससे विरक्त होना निर्वेद है । ( ३ ) मोक्षकी अभिलाषाको संवेग कहते हैं । (४) काम, क्रोधकी शान्ति प्रशम है ॥ ___ अब स्थान आदि योगभेदोंको दृष्टांतमें घटा लेनेकी सूचना करते हैं___ गाथा :-इस प्रकार योगका सामान्य और विशेष स्वरूप तो दिखाया गया परंतु उसकी जो चैत्यवंदनरूप दृष्टांतके साथ स्पष्ट घटना है अर्थात् उसको चैत्यवंदनमें जैसे विभाग-पूर्वक उतार कर घटाया जा सकता है उसे ठीक ठीक तत्त्वज्ञको समझ लेना चाहिये ।। अब चैत्यवन्दनमें योग घटा देते हैं Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [ १२१] गाथा १०-जब कोई श्रद्धावाला व्यक्ति 'अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं ' इत्यादि चैत्यवंदन सूत्रका यथाविधि (शुद्ध) उच्चारण करता है तब उसको शुद्ध उच्चारणसे चैत्यवंदनसूत्रके पदोंका यथार्थ ज्ञान होता है। खुलासा-स्वर, संपदों और मात्रौ आदिके नियमसे शुद्ध वर्णोका स्पष्ट उच्चारण करना यह यथाविधि उच्चारण अर्थात् वर्णयोग है। वर्णयोगका फल यथार्थ पदज्ञान है, अतएव जब चैत्यवन्दन सूत्र पढ़ते समय वर्णयोग हो तभी सूत्रके पदोंका ज्ञान यथार्थ हो सकता है। ___ गाथा ११---यह यथार्थ पदज्ञान अर्थ तथा आलंबन योगवालेके लिए बहुत कर अविपरीत (साक्षात् मोक्ष देनेवाला) होता है और अर्थ तथा आलम्बन-योगरहित किन्तु स्थान तथा वर्ण योगवालेके लिए केवल श्रेय (परम्परासे मोक्ष देनेवाला) होता है। खुलासा-जो अनुष्ठान मोक्षको देनेवाला हो वह सदनुष्ठान है । सदनुष्ठान दो प्रकारका है, पहला शीघ्र (साक्षात् ) मोक्ष देनेवाला, दूसरा विलंबसे (परम्परासे) मोक्ष देनेवाला । पहलेको अमृतानुष्ठान और दूसरेको तद्धेतु-अनुष्ठान कहते हैं। १ उदात्त, अनुदात्त, स्वरित । २ विश्रान्तिस्थान | ३ इत्व, दीर्घ, प्लुत । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२० ] भी असंख्य प्रकार हैं । इस विविधताका कारण क्षयोपशमभेद अर्थात् योग्यताभेद है। यहाँ भव्यप्राणिका मतलब अपुनबंधक तथा सम्यग्दृष्टि आदिसे है ॥ इच्छा आदि योगोंका कार्यगाथा ८-इन इच्छा आदि उक्त चारों योगोंके कार्य क्रमसे अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग और प्रशम है ॥ खुलासा-अनुकम्पा आदिका स्वरूप इस प्रकार है(१) दुःखित प्राणिोंके भीतरी और बाहरी दुःखोंको यथाशक्ति दूर करनेकी जो इच्छा वह अनुकम्पा है । (२) संसाररूप कैदखानेकी निःसारता जान कर उससे विरक्त होना निर्वेद है । (३) मोक्षकी अभिलाषाको संवेग कहते हैं । (४) काम, क्रोधकी शान्ति प्रशम है ॥ ____ अब स्थान आदि योगभेदोंको दृष्टांतमें घटा लेनेकी सूचना करते हैं गाथा 8-इस प्रकार योगका सामान्य और विशेष स्वरूप तो दिखाया गया परंतु उसकी जो चैत्यवंदनरूप दृष्टांतके साथ स्पष्ट घटना है अर्थात् उसको चैत्यवंदनमें जैसे विभाग-पूर्वक उतार कर घटाया जा सकता है उसे ठीक ठीक तत्त्वज्ञको समझ लेना चाहिये।। अव चैत्यवन्दनमें योग घटा देते हैं Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२१] गाथा १०-जब कोई श्रद्धावाला व्यक्ति 'अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं ' इत्यादि चैत्यवंदन सूत्रका यथाविधि (शुद्ध) उच्चारण करता है तब उसको शुद्ध उच्चारणसे चैत्यवंदनसूत्रके पदोंका यथार्थ ज्ञान होता है । ___ खुलासा-स्वर, संपदो और मात्रा आदिके नियमसे शुद्ध वर्णोका स्पष्ट उच्चारण करना यह यथाविधि उच्चारण अर्थात् वर्णयोग है। वर्णयोगका फल यथार्थ पदज्ञान है, अतएव जब चैत्यवन्दन सूत्र पढ़ते समय वर्णयोग हो तभी सूत्रके पदोंका ज्ञान यथार्थ हो सकता है। ___गाथा ११ ---यह यथार्थ पदज्ञान अर्थ तथा आलंबन योगवालेके लिए बहुत कर अविपरीत (साक्षात् मोक्ष देनेवाला) होता है और अर्थ तथा आलम्बन-योगरहित किन्तु स्थान तथा वर्ण योगवालेके लिए केवल श्रेय (परम्परासे मोक्ष देनेवाला) होता है। ___खुलासा--जो अनुष्ठान मोक्षको देनेवाला हो वह सदनुष्ठान है । सदनुष्ठान दो प्रकारका है, पहला शीघ्र (साक्षात् ) मोक्ष देनेवाला, दूसरा विलंबसे (परम्परासे) मोक्ष देनेवाला । पहलेको अमृतानुष्ठान और दूसरेको तद्धेतु-अनुष्ठान कहते हैं। १ उदात्त, अनुदात्त, स्वरित । २ विश्रान्तिस्थान ! ३ इस्व, दीर्घ, प्लुत। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२२] चैत्यवंदन एक प्रारम्भिक अनुष्ठान है, इसलिए यह विचारना चाहिये कि वह अमृतानुष्ठानका रूप कत्र धारण करता है और त हेतु-अनुष्ठानका रूप कव धारण करता है। जब चैत्यवंदन-क्रियामें स्थान, वर्ण, अर्थ और आलंबन इन चारों योगोंका सम्बन्ध हो तब वह अमृतानुष्ठान है और जब उसमें स्थान, वर्ण-योगका तो सम्बन्ध हो किन्तु अर्थ, आलम्बन-योगका सम्बन्ध न हो पर उनकी रुचि मात्र हो तब वह तद्धेतु-अनुष्ठान है। जब विधिके अनुसार आसन जमा कर शुद्ध उच्चारणपूर्वक सूत्र पढ़ कर चैत्यवंदन किया जाता है और साथ ही उन सूत्रोंके अर्थ (तात्पर्य) तथा आलम्बनमें उपयोग रहता है तब वह चैत्यवंदन उक्त चारों योगोंसे संपन्न होता है ऐसा चैत्यवंदन भावक्रिया है, क्योंकि उसमें अर्थ तथा आलंबन योगमें उपयोग रखने रूप ज्ञान-योग वर्तमान है । यथाविधि आसन बांध कर शुद्ध रीतिसे सूत्र पढ़ कर चैत्यवंदन किया जाता हो पर उस समय सूत्रके अर्थ तथा बालंबनमें उपयोग न हो तो वह चैत्यवंदन ज्ञानयोगशून्य होनेके कारण द्रव्यक्रियारूप है, ऐसी द्रव्यक्रियामें अर्थ, आलंवन-योगका अभाव १ चैत्यवंदनकी चार स्तुतियोंमें पहलीका आलम्बन विशेष तीर्थकर, दूसरीका सामान्य तीर्थकर, तीसरीका प्रवचन और चौथीका शासनदेवता है । , Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२३] होनेपर भी उसकी तीव्र रुचि हो तो वह द्रव्याक्रिया अन्तमें भावक्रियाके द्वारा कभी न कभी मोक्षको देनेवाली मानी गई है, इसीसे वैसी क्रियाको तहेतु-अनुष्ठान और उपादेय कहा है ।। ___स्थान आदि योगोंके अभावमें चैत्यवंदन केवल निष्फल ही नहीं बल्कि अनिष्टफलदायक होता है, इसलिए योग्य __ अधिकारीको ही वह सिखाना चाहिये ऐसा वर्णन करते हैं____ गाथा १२-जो व्यक्ति अर्थ, आलंबन इन दो योगोंसे शून्य होकर स्थान तथा वर्ण योगसे भी शून्य हैं उनका वह अनुष्ठान कायिक चेष्टामात्र अर्थात् निष्फल होता है अथवा मृपावादरूप होनेसे विपरीत फल देनेवाला होता है, इसलिए योग्य अधिकारिओंको ही चैत्यवन्दन सूत्र सिखाना चाहिये ।। खुलासा-जो अनुष्ठान निष्फल या अनिष्टफलदायंक हो वह असदनुष्ठान है । इसके तीन प्रकार हैं, (१) अननुष्ठान (२) गरानुष्ठान (३) विषानुष्ठान । चैत्यवन्दनमें ही यह देख लेना चाहिये कि वह कब किस प्रकारके असदनुष्ठानका रूप धारण करता है । जिस चैत्यवन्दनक्रियामें न अर्थ, प्रालंबन योग है न उनकी रुचि है और न स्थान, वर्ण-योगका आदर ही है वह क्रिया संमृच्छिम जीवकी प्रवृत्तिकी तरह मानसिकउपयोगशून्य होनेके कारण निप्फल है; इसी निष्फल क्रियाको Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२४] अननुष्ठान समझना चाहिये । इसी तरह चैत्यवंदन करते समय " ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं बोसिरामि" इन पदोंसे स्थान, मौन, और ध्यान आदिकी प्रतिज्ञा की जाती है। ऐसी प्रतिज्ञा करनेके बाद स्थान, वर्ण आदि योगका भंग किया जाय तो वह चैत्यवन्दन महामृपावाद होनेसे निष्फल ही नहीं बल्कि कर्मबंधका कारण होनेसे अनिष्टफलदायक अतएव अननुष्ठान है ।। स्थान, वर्ण आदि योगोंका सम्बन्ध होनेपर भी जो चैत्यवन्दन स्वर्ग आदि पारलौकिक सुखके उद्देश्यसे किया जाता है वह गरानुष्ठान और जो धन, कीर्ति आदि ऐहिक सुखकी इच्छासे किया जाता है वह विपानुष्ठान है । गरानुष्ठान और विषानुष्ठान मृपावादरूप है, क्योंकि पारलौकिक और ऐहिक सुखकी कामनासे किये जानेके कारण उनमें मोक्षकी प्रतिज्ञाका इस प्रकार अननुष्ठान, गरानुष्ठान और विपानुष्ठान ये तीनों चैत्यवंदन हेय हैं। इसी कारणसे योग्य अधिकारिओंको ही चैत्यवंदनसूत्र सिखानेको शास्त्रमें कहा गया है । इस चैत्यवंदनके उदाहरणसे अन्य सब क्रियाओं में सदनुष्ठान और असदनुष्ठानका रूप स्वयं घटा लेना चाहिये। चैत्यवन्दनके लिए योग्य अधिकारी कौन हैं यह दिखाते हैं स्पष्ट मा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२५] गाथा १३-जो देशविरतिपरिणामवाले हों वे चैत्यवन्दनके योग्य अधिकारी हैं। क्योंकि चैत्यवन्दनस्त्रमें " कायं वोसिरामि " इस शब्दसे जो कायोत्सर्ग करनेकी प्रतिज्ञा सुनी जाती है वह विरतिके परिणाम होनेपर ही घट सकती है। इसलिए यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि देशविरति परिणामवाले ही चैत्यवन्दनके योग्य अधिकारी हैं । खुलासा-चैत्यवन्दनके अंदर " ताव काय, ठाणेणं" इत्यादि पाठके द्वारा कायोत्सर्गकी प्रतिज्ञा की जाती है । कायोत्सर्ग यह कायगुप्तिरूप विरति है, इसलिए विरति परिणामके सिवाय चैत्यवंदन-अनुष्ठान करना अनधिकार. चेष्टामात्र है । देशविरतिवालेको चैत्यवन्दनका अधिकारी कहा है सो मध्यम अधिकारीका सूचनमात्र है। जैसे तराजूकी डण्डी वीचमें पकडनेसे उसके दोनों पलडे पकडमें आ जाते है वैसे ही मध्यम अधिकारीका कथन करनेसे नीचे और ऊपरके अधिकारी भी ध्यानमें आ जाते है। इसका फलित अर्थ यह है कि सर्वविरतिवाले मुनि तो चैत्यवन्दनके ताविक अधिकारी है और अपुनर्वधक या सम्यग्दृष्टि व्यवहारमात्रसे उसके अधिकारी है, परन्तु जो कमसे कम अपुनबंधक भावसे भी खाली है अतएव जो विधियमान करना नहीं जानते दे सर्वधा चैत्यवन्दनकै अनधिकारी हैं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२६] इससे वैसे आत्माओंको चैत्यवन्दन न तो सिखाना चाहिए और न कराना चाहिए। चैत्यवन्दनके अधिकारकी इस चर्चासे अन्य क्रियाओंके अधिकारका निर्णय भी स्वयं करलेना चाहिए । ____ जो लोग ऐसी शङ्का करते हैं कि अविधिसे भी चैत्यवन्दन आदि क्रिया करते रहनेसे दूसरा फायदा हो या नहीं पर तीर्थ चालू रहनेका लाभ तो अवश्य है । अगर विधिका ही खयाल रक्खा जाय तो वैसा अनुष्ठान करनेवाले इनेगिने अर्थात् दो चार ही मिलेंगे और जब वे भी न रहेंगे तब क्रमशः तीर्थका उच्छेद ही हो जायगा। इसलिए कमसे कम तीर्थको कायम रखने के लिए भी अविधि-अनुष्ठानका आदर क्यों न किया जाय ? इसका उत्तर उन शङ्कावालोंको ग्रन्थकार देते हैं गाथा १४-अविधि अनुष्ठानकी पुष्टिमें तीर्थके अनुच्छेदकी बातका सहारा लेना ठीक नहीं है, क्योंकि अविधि चालु रखनेसे ही असमञ्जस अर्थात् शास्त्रविरुद्ध विधान जारी रहता है, जिससे शास्त्रोक्त क्रियाका लोप होता है यह लोप ही तीर्थका उच्छेद है ॥ खुलासा-अविधिक पक्षपाती अपने पक्षकी पुष्टिमें यह दलील पेश करते हैं कि अविधिसे और कुछ नहीं तो तीर्थकी रक्षा होती है, परन्तु उन्हें जानना चाहिए कि तीर्थ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२७ सिर्फ जनसमुदायका नाम नहीं है किन्तु तीर्थका मतलब शास्त्रोक्त क्रियावाले चतुर्विध संघसे है। शास्त्राज्ञा नहीं माननेवाले जनसमुदायको तीर्थ नहीं किन्तु हड्डीओंका संघातमात्र कहा है । इस दशामें यह स्पष्ट है कि यदि तीर्थकी रक्षाके बहानेसे प्रविधिका स्थापन किया जाय तो अन्तमें अविधिमात्र बाकी रहनेसे शास्त्रविहित क्रियारूप विधिका सर्वथा लोप ही हो जायगा । ऐसा लोप ही तीर्थका नाश है, इससे अविधिक पक्षपातियोंके पल्लेमें तीर्थ-रक्षारूप लाभके बदले तीर्थ-नाशरूप हानि ही शेष रहती है जो मुनाफेको चाहनेवालेके लिए मूल पूँजीके नाशके बराबर है ।। सूत्रोक्त क्रियाका लोप अहितकारी कैसे होता है यह दिखाते हैं गाथा १५-वह अथात् अविधिके पक्षपातसे होनेवाला सूत्रोक्त विधिका नाश वक्र (अनिष्ट परिणाम देनेवाला) ही है। जो स्वयं मरा हो और जो मारा गया हो उन दोनोंमें विशेषता अवश्य है. यह यात तीर्थके उच्छेदसे डरनेवालोंको विचारना चाहिए । खुलासा-जो शिथिलाचारी गुरु भोले शिष्योंको धमके नामसे अपनी जालमें फाँसते हैं और प्रविधि (शास्त्र विरुद्ध ) धर्मका उपदेश करते हैं उनसे जब कोई शास्त्रविरुद्ध उपदेश न देने के लिये कहता है तब वे धर्मोच्छेदका Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२८] भय दिखा कर विगड कर बोल उठते हैं कि "जैसा चल रहा है वैसा चलने दो, वैसा चलते रहनेसे भी तीर्थ (धर्म) टिक सकेगा । बहुत विधि ( शास्त्र अनुकूलता ) का ध्यान रखनेमें शुद्ध क्रिया तो दुर्लभ ही है, अशुद्ध क्रिया भी जो चल रही है वह छूट जायगी और अनादिकालीन अक्रियाशीलता (प्रमादवृत्ति ) स्वयं लोगोंपर आक्रमण करेगी जिससे तीर्थका नाश होगा।" इसके सिवाय वे अपने प्रविधिमार्गके उपदेशका बचाव यह कह कर भी करते हैं कि "जैसे धर्मक्रिया नहीं करनेवालेके लिए हम उपदेशक दोष भागी नहीं है वैसे ही प्रविधिसे क्रिया करनेवालेके लिए भी हम दोपभागी नहीं । हम तो क्रियामात्रका उपदेश देते हैं जिससे कमसे कम व्यावहारिक धर्म तो चालु रहता है और इस तरह हमारे उपदेशसे धर्मका नाश होनेके बदले धर्मकी रक्षा ही हो जाती है।" ऐसा पोचा बचाव करनेवाले उन्मार्ग-गामी उपदेशक गुरुओंसे ग्रंथकार कहते हैं कि एक व्यक्तिकी मृत्यु स्वयं हुई हो और दूसरी व्यक्तिकी मृत्यु किसी अन्यके द्वारा हुई हो इन दोनों घटनाओंमें वडा अन्तर है । पहली घटनाका कारण मरनेवाले व्यक्तिका कर्म मात्र है, इससे उसकी मृत्युके लिए दूसरा कोई दोपी नहीं है । परन्तु दूसरी घटनामें मरनेवाले व्यक्तिके कसके उपरान्त मारनेवालेका दुष्ट प्राशय भी नि Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२६] मित्त है. इससे उस घटनाका दोपभागी मारनेवाला अवश्य है। इसी तरह जो लोग स्वयं प्रविधिसे धर्मक्रिया कर रहे हैं उनका दोष धर्मोपदेशकपर नहीं है. पर जो लोग प्रविधिमय धर्मक्रिपाका उपदेश सुन कर उन्मार्गपर चलते हैं उनकी जवाबदेही उपदेशकपर अवश्य है। धर्मके जिज्ञासु लोगोंको अपनी क्षुद्र स्वार्थत्ति के लिए उन्मार्गका उपदेश करना वैसा ही विश्वासघात है जैसा शरझमें आये हुएका सिर काटना । जैसा पल रहा है ऐसा चलने दो यह दलील भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी उपेक्षा रखनेसे शद्ध धर्मक्रियाका लोप हो जाता है जो वास्तवमें तीथोंच्छेद है। विधिमार्गके लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहनेसे कभी किसी एक व्यक्तिको भी शुद्ध धर्म प्राप्त हो जाय तो उसको चौदह लोकमें अमारीपटह वजवानेकीसी धर्मोन्नति हुई समझना चाहिए अर्थात् विधि पूर्वक धर्मक्रिया करनेवाला एक भी व्यक्ति प्रविधि पूर्वक धर्मक्रिया करनेवाले हजारों लोगोंसे अच्छा है । अतएव जो परोपकारी धर्मगुरु हों उन्हें ऐसी दुर्बलताका आश्रय कभी न लेना चाहिये कि इसमें हम क्या करें ? हम तो सिर्फ धर्मक्रियाका उपदेश करते हैं, प्रविधिका नहीं। धर्मोपदेशक मुरुओंको यह बात कभी न भूलनी चाहिए कि विधिका उपदेश भी उन्हींको देना चाहिये जो उसके श्रवणके लिये रतिक हों । भयोग्य पात्रको ज्ञान देनेमें भी महान् अनर्थ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३०] होता है, इसलिए नीच आशयवाले पात्रको शास्त्र सुनाने में उपदेशक ही अधिक दोपका पात्र है । यह नियम है कि पाप करनेवालेकी अपेक्षा पाप करानेवाला ही अधिक दोपभागी होता है । अतएव योग्यपात्रको शुद्ध शास्त्रोपदेश देना और स्वयं शुद्ध प्रवृत्ति करना यही तीर्थरक्षा है, अन्य सब बहाना मात्र है ।। उक्त चर्चा सुन कर मोटी बुद्धिके कुछ लोग यह कह उठते हैं कि इतनी बारीक वहसमें उतरना वृथा है, जो बहुतोंने किया हो वही करना चाहिए, इसके सबूतमें " महाजनो येन गतः स पन्थाः " यह उक्ति प्रसिद्ध है। आज कल बहुधा जीतव्यवहारकी ही प्रवृत्ति देखी जाती है। जबतक तीर्थ रहेगा तबतक जीतव्यवहार रहेगा इसलिए उसीका अनुसरण करना तीर्थ रक्षा है । इस कथनका उत्तर ग्रन्थकार देते हैं___ गाथा १६–लोकसंज्ञाको छोड कर और शास्त्रके शुद्ध रहस्यको समझ कर विचारशील लोगोंको अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धिसे शुद्ध प्रवृत्ति करना चाहिए । खुलासा-शास्त्रकी परवा न रख कर गतानुगतिक लोकप्रवाहको ही प्रमाणभूत मान लेना यह लोकसंज्ञा है । लोकसंज्ञा क्यों छोडना ? महाजन किसे कहते हैं और जीतव्यवहारका मतलब क्या है ? इन बातोंको समझानेके लिए Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३१ ] ज्ञानसारके जो श्लोक टीकामें उद्धृत किये गये हैं वे महत्वपूर्ण हैं. इसलिए उनमेंसे कुछका सार दिया जाता है - यदि लोगों पर भरोसा रख कर ही कर्तव्यका निश्चय किया जाय अर्थात् जो बहुतोंने किया वही ठीक है ऐसा मान लिया जाय तो फिर मिथ्यात्व त्याज्य नहीं समझा जाना चाहिए. क्योंकि उसका सेवन अनेक लोक अनादि कालसे करते आये हैं । अनायसे आर्य थोड़े हैं, आायोंमें भी जैनोंकी अर्थात् समभाववालोंकी संख्या कम है । जैनोंमें भी शुद्ध श्रद्धावाले कम, और उनमें भी शुद्ध चारित्रवाले कम हैं । व्यवहार हो या परमार्थ, सब जगह उच्च वस्तुके अधिकारी कम ही होते हैं, उदाहरणार्थ- जैसे रत्नोंके परीक्षक ( जौहरी ) कम, वैसे आत्मपरीक्षक भी कम ही होते है । शास्त्रानुसार वर्तन करनेवाला एक भी व्यक्ति हो तो वह महाजन ही है । अनेक लोग भी अगर अज्ञानी हैं तो वे सब मिल कर भी अन्धोंके समूहकी तरह वस्तुको यथार्थ नहीं जान सकते । संविन ( भवभीरु ) पुरुषने जिसका आचरण किया हो, जो शास्त्रसे बाधित न हो और जो परम्परासे भी शुद्ध हो वही जीतव्यवहार है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३२ ] शास्त्रका आश्रय न करनेवाले संविग्न पुरुषोंने जिसका आचरण किया हो वह अन्ध परम्परा मात्र है, जीतव्य - बहार नहीं । क्रिया बिल्कुल न करनेकी अपेक्षा कुछ न कुछ क्रिया करने को ही शास्त्र अच्छा कहा गया है, इसका मतलब यह नहीं कि शुरू से अविधिमार्गमें ही प्रवृत्ति करना, किन्तु उसका भाव यह है कि विधिमार्ग में प्रवृत्ति करने पर भी अ गर असावधानीवश कुछ भूल हो जाय तो उस भूलसे डर कर बिल्कुल विधिमार्गको ही नहीं छोड देना किन्तु भूल सुधारनेकी कोशीस करते रहना । प्रथमाभ्यासमें भूल हो जानेका सम्भव हैं पर भूल सुधारलेनेकी दृष्टि तथा प्रयत्न हो वो वह भूल भी वास्तवमें भूल नहीं है । इसी अपेक्षासे - शुद्ध क्रियाको भी शुद्ध क्रियाका कारण कहा है। जो व्यक्ति विधिका बहुमान न रख कर अविधिक्रिया किया करता है उसकी अपेक्षा तो विधिके प्रति बहुमान रखनेवाला पर कुछ भी न करनेवाला अच्छा है || मूल विषयका उपसंहार करते हैं ५ गाथा १७ - प्रस्तुत विषयमें प्रासंगिक विचार इतना काफी है । स्थान आदि पूर्वोक्त पॉच योगोंमें जो प्रयत्नशील हों उन्हींके चैत्यवन्दन आदि अनुष्ठानको सदनुष्ठानरूप समझना चाहिए || Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३३] खुलासा-मुख्य बात चैत्यवन्दनमें स्थानादि योग पटानेकी चल रही थी, इसमें प्रसंगवश तीर्थोच्छेद क्या बस्तु है ? और तीर्थरक्षाके लिए विधिप्ररूपणाकी कितनी आवश्यकता है? इत्यादि प्रासंगिक विषयकी चर्चा भी की गई। अब मूल बातको समाप्त करते हुए ग्रन्थकारने अन्तमें यही कहा है कि चैत्यवंदन प्रादि क्रिया धर्मका कलेवर अर्थात् नाझरूप मात्र है। उसकी आत्मा तो स्थान, वर्ण आदि पूचोक्त योग ही हैं । यदि उक्त योगोंमें प्रयत्नशील रह कर कोई भी क्रिया की जाय तो वह सब क्रिया शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम संस्कारोंकी पुष्टिका कारण हो कर सदनुष्ठानरूप होती है और अन्तमें कर्मक्षयका कारण बनती है ॥ ___ सदनुष्ठानके भेदोंको दिखाते हुए उसके अन्तिम भेद अर्थात् असंगानुष्ठानमें अन्तिम योग (अनालम्बनयोग )का समावेश करते हैं___गाथा १८--प्रीति, भक्ति, वचन और असंगके सम्बन्धसे यह अनुष्ठान चार प्रकारका समझना चाहिए। चारमेंसे असङ्गानुष्ठान ही चरम अर्थात् अनालम्बन योग है । खुलासा-भावशुद्धिके तारतम्य ( कमीवेशी ) से एक ही अनुष्ठानके चार भेद हो जाते हैं । वे ये हैं-(१) प्रीतिअनुष्ठान, (२) भक्ति-अनुष्ठान, (३) वचनानुष्ठान, मोर (४) असङ्गानुष्ठान । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३४] इनके लक्षण इस प्रकार हैं-(१) जिस क्रियामें प्रीति इतनी अधिक हो कि अन्य सब काम छोड कर सिर्फ उसी क्रियाके लिए तीव्र प्रयत्न किया जाय तो वह क्रिया प्रीतिअनुष्ठान है । (२) प्रीति-अनुष्ठान ही भक्ति-अनुष्ठान है। अन्तर दोनोंमें इतना ही है कि प्रीति-अनुष्ठानकी अपेक्षा भक्ति-अनुष्ठानमें आलम्बनरूप विषयके प्रति विशेष आदरबुद्धि होनेके कारण प्रत्येक व्यापार अधिक शुद्ध होता है । जैसे पत्नी और माता दोनोंका पालन, भोजन, वस्त्र आदि एक ही प्रकारसे किया जाता है परन्तु दोनों के प्रति भावका अन्तर है। पत्नीके पालनमें प्रीतिका भाव और माताके पालनमें भक्तिका भाव रहता है, वैसे ही बाहरी व्यापार समान होनेपर भी प्रीति-अनुष्ठान तथा भक्ति-अनुष्ठानमें भावका भेद रहता है । (३) शास्त्रकी ओर दृष्टि रख करके सब कार्योंमें साधु लोगोंकी जो उचित प्रवृत्ति होती है वह वचनानुष्ठान है । ( ४ ) जब संस्कार इतने दृढ हो जायँ कि प्रवृत्ति करते समय शास्त्रका स्मरण करनेकी आवश्यकता ही न रहे अर्थात जैसे चन्दनमें सुगंध स्वाभाविक होती है वैसे ही संस्कारोंकी दृढताके कारण प्रत्येक धार्मिक नियम जीवएकरस हो जाय तब असङ्गानुष्ठान होता है। इसके । जिनकल्पिक साधु होते हैं। वचनानुष्ठान और - फर्क इतना ही है कि पहला तो शास्त्रकी किया जाता है और दूसरा उसकी प्रेरणाके सिवाय Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३५ ] शास्त्रजनित संस्कारों के चलसे: जैसे कि चाकके घूमनेमें पहला घूमाव तो डंडेकी प्रेरणा से होता है और पिछेका सिर्फ दंडनित वेगसे। असङ्गानुष्ठानको अनालम्बन योग इसलिए कहा है कि - " संगको त्यागना ही अनालम्बन है " | योगके कुल अस्सी भेद बतलाये हैं सो इस प्रकार - स्थान, ऊ आदि पूर्वोक्त पाँच प्रकारके योगके इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि ऐसे चार चार भेद करने से बीस भेद हुए । इन बीसमें से हर एक भेद के प्रीति - अनुष्ठान, भक्तिअनुष्ठान, वचनानुष्ठान और प्रसङ्गानुष्ठान ये चार चार भेद होते है अतएव बीसको चारसे गुनने पर अस्सी भेद हुए || लम्बनके वर्णनके द्वारा नालंबन योगका स्वरूप दिखाते हैं गाथा १६-- आलम्बन भी रूपी और अरूपी इस तरह दो प्रकारका है । परम अर्थात् मुक्त आत्मा ही अरूपी आलम्बन है, उस रूपी आलम्बनके गुणोकी भावनारूप जो ध्यान है वह सूक्ष्म ( अतीन्द्रिय विषयक ) होनेसे अनालवन योग कहलाता है | म्वन ॥ खुलासा -- योगका ही दूसरा नाम ध्यान है । ध्यानके मुख्यतया दो भेद हैं, सालम्बन और निरालम्बन । आलम्बन ( ध्येय विषय ) मुख्यतया दो प्रकारका होनेसे ध्यान के उक्त दो भेद समझने चाहिए। श्रालम्बनके रूपी और Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३६] रूपी ये दो प्रकार हैं । इन्द्रियगम्य वस्तुको रूपी ( स्थूल ) और इन्द्रिय-अगम्य वस्तुको अरूपी (सूक्ष्म ) कहते हैं । स्थूल आलम्बनका ध्यान सालम्बन योग और सूक्ष्म आलम्बनका ध्यान निरालम्बन योग है, अर्थात विषयकी अपेक्षासे दोनों ध्यानमें फर्क यह है कि पहलेका विषय आँखोंसे देखा जा सकता है और दूसरेका नहीं । यद्यपि दोनों ध्यानके अधिकारी छमस्थ ही होते हैं, परन्तु पहलेकी अपेक्षा दसरेका अधिकारी उच्च भूमिकावाला होता है, अर्थात् पहले ध्यानके अधिकारी अधिकसे अधिक छढे गुणस्थान तकके ही स्वामी होते हैं परन्तु दूसरे ध्यानके अधिकारी सातवें गुणस्थानसे लेकर वारहवें गुणस्थानतकके स्वामी होते हैं। श्रासनारूढ वीतराग प्रभुका या उनकी मूर्ति आदिका जो ध्यान किया जाता है वह सालम्बन और परमात्माके ज्ञान आदि शुद्ध गुणोंका या संसारीआत्माके औपाधिक रूपको छोड कर उसके स्वाभाविक रूपका परमात्माके साथ तूलना पूर्वक ध्यान करना निरालम्बन ध्यान है, अर्थात् निरालम्बन ध्यान आत्माके तात्त्विक स्वरूपको देखनेकी निःसंग और अखंड लालसारूप है । ऐसी लालसा आपकश्रेणी सम्बन्धी दूसरे अपूर्वकरणके समय पाये जानेवाले धर्मसंन्यासरूप सार्ययोगसे होती है। हरिभद्रसरिने षोडशकमें वाणमोचनके एक रूपकके द्वारा अनालंयन ध्यानका स्वरूप समझाया है सो इस प्र Page #239 --------------------------------------------------------------------------  Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३८] _है, इस सिद्धिसे केवलज्ञान और केवलज्ञानसे अयोग नामक योग तथा परम निर्वाण क्रमशः होता है ।। खुलासा-मोहकी रागद्वेपरूप वृत्तियाँ पौगलिक अध्यासका परिणाम है और निरालम्बन ध्यानका विषय शुद्ध चैतन्य है। अतएव मोह और निरालम्बन ध्यान ये दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व हैं। निरालम्बन ध्यानका प्रारम्भ हुआ कि मोहकी जड कटने लगी, जिसको जैनशास्त्रमें क्षप__ कश्रेणीका आरम्भ कहते हैं । जब उक्त ध्यान पूर्ण अवस्था तक पहुँचता है तब मोहका पाशबंधन सर्वथा टूट जाता है, यही क्षपकश्रेणीकी पूर्णाहुति है। महर्षि पतञ्जलिने जिस ध्यानको सम्प्रज्ञात कहा है वही जैनशास्त्रमें निरालम्बन ___ ध्यान है । क्षपकश्रेणीके द्वारा सर्वथा वीतराग दशा प्रकट हो जाने पर आत्मतत्त्वका पूर्ण साक्षात्कार होता है, जो जैनशास्त्रमें केवलज्ञान और महर्षि पतञ्जलिकी भाषामें असम्प्रज्ञात योग कहलाता है। केवलज्ञान हुआ कि मानसिक वृत्तियाँ नष्ट हुई और पीछे एक ऐसी प्रयोग नामक योगावस्था आती है जिससे रहे-सहे वृत्तिके वीजरूप सूक्ष्म संस्कार भी जल जाते हैं, यही विदेह मुक्ति या परम ण है ।। ॥ समाप्त ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३६ ] योगसूत्रवृत्ति तथा योगविंशिकावृत्ति में प्रमाणरूपसे आये हुए अवतरणोंका वर्णक्रमानुसारी परिशिष्ट. नं० १ पृष्ठ. श्लोक. श्लोक. अत्यन्तवल्लभा खलु अनाभोगवश्चैतअपुनर्वन्धकस्यायं afafeकया वरमकयं अशुद्धापि हि शुद्धाया असतो णत्थि णिसेहो असंप्रज्ञात एषोऽपि अस्मिन् हृदयस्थे सति श्रा आकल्पव्यवहारार्थं आशयभेदा ते इ इच्छा तद्वत्कथाप्रीति उ उपफारिस्वजनेतर - ऊ ऊतासं ण णिरंभइ ए ८२ | एकोऽपि शाखनीत्या ७२ | एतद्रागादिदं हेतु. ६३ | पता खल्वभ्यासात् एसो अणाइमं चिय ७८ ७९ ટ १५ ७८ ५६ ६६ १० श्रो ओसनो वि विहारे क का अरइ के आणंदे कार्यद्रव्यमनादि स्याशपक्तिर्मतिज्ञानात् ग गौरवविशेषयोगात् व चक्रभ्रमणं दण्डात् ज जइ वि स काउं ११ | जस्सिमे सहा य ३८ । जह सरणमुवगयाणं पृष्ठ. ७८ ७२ ११ ९ ८० ६ ३१ ટ ८२ ८२ ८० ૨૭ ७६ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४० ७९ जा जा हविज जिनोदितमिति जो जाणइ अरिहंते झो झये कथमज्ञः व. ७२ बाह्यं तपः परमदुश्चर- १५ भ. ४४ : : भववीजमनन्तमुज्झितं २९ २६ ण सक्का स्वमद्दटुं त. तत्राप्रतिष्ठितोऽयं तत्रैव तु प्रवृत्तिः तस्माच्छतानुसातात्विकः पक्षपात ३७ । मुक्खेण जोअणाओ मूलप्रकृत्यभिन्नाः य. ५७ | यं यं चापि स्मरन् भावं | यत्रादरोऽस्ति परमः | यत्त्वभ्यासातिशयात् | यत्संविज्ञजनाचीर्ण यदाचीर्णमसंविग्नैः यमनियमासनय शृण्वन् सिद्धान्तं ८२ ७८ ७८ ७२ ६२ / ७ दिव्यभोगाभिलाषेण देशादिभेदतश्चित्रद्रागस्मात्तददर्शन ध. धर्ममेघोऽमृतात्मा च लोकमालम्ब्य कर्त्तव्यं नैवंविधस्य शरतं ७७ परहितचिंता मैत्री प्रणिधानादिभावेन प्रणिधानं तत्समये प्रणिधिप्रवृत्ति विघ्न वचनात्मिका प्रवृत्ति विन्नजय त्रिविध विष गरोऽननुष्ठान ७१ विषं लब्ध्याद्यपेक्षात श. ५७ शास्त्रसंदर्शितोपाय- ८४ ५७ योऽर्थिनो हि भूयांसो ७८ । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ [१४१] सिद्धेशोत्तरकार्य হননি নাসি सुखमा सहेतासवृदावर्तनादीनां सुदढप्पयत्तवावारणं ६४ सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां सूक्तं चात्मपरार्थसमाधिरेष एवान्यैः स्तोका भार्या अनासामर्थ्ययोग्यता या स्थानोर्णालम्बन ८ तालम्दनो निरालम्ब- ८४ तिद्धितत्तटूर्म- २९ । हियाहारा मियादारा । मियाद्वारा ५८ - - - - Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४२] योगमूत्रवृत्ति और योगविंशिकाटीकामें पाये हुए अतरणों__का कर्ता और ग्रंयके नाम निर्देश संबंधी परिशिष्ट. २ (आर्ष) ( आचारांगसूत्र पत्र ६) शीतोष्णीयाध्ययन (आचारांगगत) पत्र ३७ । स्थानाग पत्र १९। (भगवतगीता पत्र २५) गच्छाचार पत्र ८०। महावादी (सिद्धसेन दिवाकर )-(हार्विशिका पत्र २९ ।) स्तुतिकार-पत्र ३७ (कुन्दकुन्द ) (प्रवचनसार) पत्र ८७ 'जोजाणइ अरिहंते 'प्र-१ गा-८॥ भाप्यकृत-- (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण)-(विशेषावश्यक पत्र ४) महाभाष्यकार (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण)-(विशेषावश्यक पत्र ८६।) १ एमे कोष्टकमे हमारा मतलब यह है कि-उम उस स्थानमें पकारने आचार्य [अयमा उठेव नहीं किया किन्तु हमने अपनी ओरमे खोज करके सूचन किया है। २ इम स्तुतिकार शब्दसे प्रथकारको सिद्धसेन अभिप्रेत है या समन्तभद्र, इसका पता हमें अभी नहीं लगा। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतञ्जलि - | १४३ ] ( योगसूत्र पत्र ६१ ) अकलङ्क - पत्र ३१ । हरिभद्र ( योगविंशिका पत्र २ | ) अनादिविंशिका पत्र ९ । सद्धर्मर्षिशिका पत्र ६८ । योगबिन्दु पत्र (६) ७ (४१) ६२ (६३-६४) ७१ (७२) । पोशक पत्र ११ (५६-५७-५९ ) ६१-७६ ( ८१-८२ ) ८३ (८५) । योगदृष्टि समुच्चय-पत्र ७९ (८४) । ( यशोभद्रसूरि ) - षोडशकवृति पत्र ६१ । यशोविजय - षोडशक टीका-पत्र - ११ । ( कानसार पत्र - १३-७८ । ) कर्मप्रकृति वृत्ति-पत्र- २६ । पत्र - १५ । दता संग्रrate सद्धर्मर्षिशिका ( टीका ) पत्र - ६८ । पत्र - ६६ । अलब्धकर्तुनाम-अलब्धग्रन्धनाम १५-२६-३७-११-६३-७८-७९ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक मिलनेका पताआत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल. ठि० रोशन मुहल्ला. आग्रा शहर (यू. पी.) श्री जैन आत्मानन्द सभा. ठि० आत्मानन्द भवन-- भावनगर-(काटियागड ). Page #247 --------------------------------------------------------------------------  Page #248 --------------------------------------------------------------------------  Page #249 -------------------------------------------------------------------------- _