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[१६] त्मिक भाव अर्थात् परमात्मचिन्तनका अभाव नहीं है। परमात्मचिन्तनका भाग उसमें थोडा है सही, पर वह इतना अधिक स्पष्ट, सुन्दर और भावपूर्ण है कि उसको ध्यानपूर्वक देखनेसे यह साफ मालूम पड़ जाता है कि तत्कालीन लोगोंकी दृष्टि केवल बाह्य ने थी। इसके सिवा उसमें
१ देखो " भागवताचा उपसंहार " पृष्ठ २५२.
२ उदाहरणार्थ कुछ सूक्त दिये जाते हैं:ऋग्वेद मं, १ सू. १६४-४६इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपों गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥
भाषांतरः-लोग उसे इन्द्र, मित्र, वरुण या अग्नि कहते हैं। वह सुंदर पांखवाला दिव्य पक्षी है। एक ही सत्का विद्वान लोग भनेक प्रकारसे वर्णन करते है। कोइ उसे आमि, यम या वायु भी कहते हैं।
ऋग्वेद मण्ड. ६ सू.६ वि मे कों पतयतो वि चक्षुर्वीदं ज्योतिर्हृदय आहितं यत् । विमे मनश्चरति दूर आधीः किंस्विद् वक्ष्यामि किमु नु मनिष्ये ॥६॥ विश्वे देवा अनमस्यन् भियानास्त्वामने ! तमास तस्थिवांसम् । वैश्वानरोऽत्रतूतये नोऽपर्योऽत्रतूतये नः ॥ ७ ॥
भाषांतरः-मेरे कान विविध प्रकारकी प्रवृत्ति करते हैं। मेरे नेत्र, मेरे हृदयमें स्थित ज्योति और मेरा दूरवर्ति मन (भी)