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________________ [१०६] श्राप हुआ करता है, ऐसा ज्ञान होते रहनेसे आत्मामें कूटस्थत्वके भंगका जो दूषण दिया जाता है वह जैन शास्त्रका भूषण है । क्योंकि जैन शास्त्र केवल जड ( प्रकृति ) को ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप नही मानता, किन्तु चेतनको भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप मानता है । चतुर्थ पाद. सूत्र १२-प्रस्तुत सूत्रमें वस्तुके प्रत्येक धर्मकी भावि, भूत और वर्तमान ऐसी तीन अवस्थायें मान कर उसमें अवभेद अर्थात् कालकृत भेदका समावेश बतलाया गया है, और वर्तमानकी तरह भूत तथा भावि अवस्थाका भी अपने अपने स्वरूपमें प्रत्येक धर्मके साथ संबंध है ऐसा कहा है। इस मन्तव्यका जैन प्रक्रियाके साथ मिलान करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि वस्तुको द्रव्यपर्यायरूप माननेसे ही पूर्वोक्त अध्वभेदकी व्यवस्था घट सकती है अन्यथा नहीं। वस्तुको द्रव्यपयोयरूप मान लेना यही स्याद्वाद है । ऐसा स्याद्वाद मान लेनेसे ही सब प्रकारके वचन-व्यवहारकी ठीक ठीक सिद्धि हो जाती है। सूत्र १४-त्रकारने सांख्य प्रक्रियाके अनुसार त्रिगुरणात्मक प्रकृतिका एक परिणाम मान कर कार्यमें एकताके
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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