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________________ [ ११५ ] विभ्रम | ये विघ्न धार्मिक प्रवृत्तिमें वैसे ही बाधा डालनेवाले जैसे कहीं प्रयाण करनेमें रास्ते के काटे - पथ्थर, शरीर- गत ज्वर और मनोगत दिग्भ्रम । तीन तरहका विघ्न होने से उसका जय भी तीन प्रकारका समझना चाहिये । ( ४ ) ऐसी धार्मिक भूमिकाको प्राप्त करना जिसमें बडोंके प्रति बहुमानका भाव हो, बरावरीवालोंके प्रति उपकारकी भावना हो और कम दरजेवालोंके प्रति दया, दान तथा अनुकंपाकी भावना हो वह सिद्धि है । (५) हिंसादि जो धार्मिक भूमिका अपनेको सिद्ध हुई हो उसे योग्य उपायोंके द्वारा दूसरोंको भी प्राप्त कराना यह विनियोग है || स्थान आदि क्या क्या है और उसमें योग कितने प्रकारका है यह दिखलाते हैं- गाथा २ -- स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलंबन और अनालंबन ये योगके पाँच भेद हैं । इनमें से पहले दो कर्मयोग हैं और पिछले तीन ज्ञानयोग हैं ।" खुलासा - (१) कायोत्सर्ग, पर्यकासन, पद्मासन आदि श्रासनको स्थान कहते हैं । ( २ ) प्रत्येक क्रिया यादिके समय जो सूत्र पढ़ा जाता है उसे ऊ अर्थात् वर्ण या शब्द समझना चाहिए । ( ३ ) अर्धका मतलब सूत्रार्थके ज्ञानसे है । ( ४ ) वास प्रतिमा आदिका जो ध्यान वह आलंबन
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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