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[२४] ही है, मोक्ष उसका साध्य नहीं । और योगका उपयोग तो मोक्षके लिये ही होता है।
जो योग उपनिषदोंमें सूचित और सूत्रोंमें सूत्रित है, उसीकी महिमा गीतामें अनेक रूपसे गाइ गइ है। उसमें योगकी तान कभी कर्मके साथ, कभी भक्तिके साथ और कभी ज्ञानके साथ सुनाइ देती है। उसके छठे और तेरहवें अध्यायमें तो योगके मौलिक सब सिद्धान्त और योगकी सारी प्रक्रिया आ जाती है। कृष्णके द्वारा अर्जुनको १ गीताके अठारह अध्यायोंमें पहले छह अध्याय कर्मयोग प्रधान, विचके छह अध्याय भक्तियोग प्रधान और अंतिम
छह अध्याय ज्ञानयोग प्रधान हैं। २ योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥१०॥ शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्यच्छितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥ तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युज्याद् योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्व दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥ प्रशान्तात्मा विगतमीब्रह्म नारिव्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥ अ०६