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[ ११६ ] है । ( ५ ) रूपी द्रव्यके आलंबनसे रहित जो शुद्ध चैतन्यमात्रकी समाधि वह अनालंबन है। स्थान तो स्वयं ही क्रियारूप है और सूत्रका भी उच्चारण किया जाता है इसीलिए स्थान तथा ऊर्णको कर्मयोग कहा है। ऊपर की हुई व्याख्यासे यह स्पष्ट है कि अर्थ, आलंबन और अनालंबन ये तीनों ज्ञानयोग हैं। योगका मतलब मोतके कारणभूत आत्म-व्यापारसे है। स्थान आदि आत्म-व्यापार मोक्षके कारण हैं इसलिए उनकी योग-रूपता सिद्ध है ।
स्थान आदि उक्त पाँच योगके अधिकारिओंको बतलाते हैं
गाथा ३-देशचारित्रवाले और सर्वचारित्रवालेको यह स्थान आदि योग अवश्य होता है। चारित्रवालेमें ही योगका संभव होनेके कारण जो चारित्ररहित अर्थात अपुनबंधक और सम्यग्दृष्टि हो उसमें उक्त योग बीजमात्ररूपसे होता है ऐसा कोई प्राचार्य मानते हैं ॥
खुलासा-योग क्रियारूप हो या ज्ञानरूप, पर वह चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयोपशम अर्थात् शिथिलताके होनेपर अवश्य प्रकट होता है। इसीलिए चारित्री ही योगका अधिकारी है, और यही कारण है कि ग्रन्थकार हरिभद्रसू
१ जो फिरसे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधता वह अपुनर्वधक कहलाता है।