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[१०१] अविद्याको जैनशास्त्रमें मिथ्यात्व कहते हैं । स्थानाङ्गसूत्रमें मिथ्यात्वके दस भेद दिखाये हैं। जैसे-अधर्ममें धर्म, धर्ममें अधर्म, अमार्गमें मार्ग, मार्गमें अमार्ग, असाधुमें साधु, साधुमें असाधु, अजीवमें जीव, जीवमें अजीव, और अयुतमें युक्त, तथा युक्तमें प्रयुक्त ऐसी बुद्धि करना।
अस्मिता आरोपको कहते हैं आरोप दो प्रकारका हैदृश्य अर्थात् प्रपंचमें द्रष्टा-चेतन-का आरोप और द्रष्टामें दृश्यका आरोप । यह दोनों प्रकारका आरोप यानि भ्रम जैन परिभाषाके अनुसार मिथ्यात्व ही है । यदि अस्मिताको अहंकार ममकारका बीज मान लिया जाय तो वह राग या द्वेष रूप ही है।
राग और द्वेष कपायके भेद ही हैं।
अभिनिवेशका उदाहरण भाष्यकारने दिया है कि मैं कभी न मरूं, सदा वना रहूं, अर्थात् मरणसे भय और जीवितकी आशा, यह जैनपरिभाषाके अनुसार भयसंज्ञा ही है । भयसंज्ञाकी तरह अन्य-अर्थात् आहार, मैथुन और परिग्रहसंज्ञाको भी अभिनिवेश ही समझना चाहिये, क्योंकि भयके समान आहार आदिमें भी विद्वानोंकाभी अभिनिवेश देखाजाता हे । विद्वानोंमें अभिनिवेशका अभाव सिर्फ उस समय पाया जाता है जब कि वे अप्रमत्तदशामें वर्तमान हों और अप्रमत्तभावसे उन्होंने दस संज्ञाओंको रोक दिया हो । संज्ञा यह मोहका विलास या मोहसे व्यक्त होनेवाला चैतन्यका स्फुरण