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[३३] रूपस्थ, और रूपातीत ध्यानका विस्तृत व स्पष्ट वर्णन किया है । अन्तमें उन्होंने स्वानुभवसे विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन ऐसे मनके चार भेदोंका वर्णन करके नवीनता लानेका भी खास कौशल दिखाया है। निस्सन्देह उनका योगशास्त्र जैनतत्त्वज्ञान और जैनाचारका एक पाठ्य ग्रन्थ है। ___इसके बाद उपाध्याय-श्रीयशोविजयकृत योगग्रन्थोपर नजर ठहरती है । उपाध्यायजीका शास्त्रज्ञान, तर्ककौशल
और योगानुभव बहुत गम्भीर था। इससे उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् तथा सटीक बत्तीस वत्तीसीयाँ योग संवन्धी विषयोंपर लिखी हैं, जिनमें जैन मन्तव्योंकी सूक्ष्म और रोचक मीमांसा करनेके उपरान्त अन्य दर्शन और जैनदर्शनका मिलान भी किया है। इसके सिवा
१ देखो प्रकाश ७-१० तक । २ १२ वाँ प्रकाश श्लोक २-३-४। ३. अध्यात्मसारके योगाधिकार और ध्यानाधिकारमें प्रधानतया भगवद्गीता तथा पाजलसूत्रका उपयोग करके अनेक जैनप्रक्रियाप्रसिद्ध ध्यानविषयोका उक्त दोनों ग्रन्थों के साथ समन्वय किया है, जो बहुत ध्यानपूर्वक देखने योग्य है। अध्यात्मोपनिषद्के शास्त्र, ज्ञान, क्रिया और साम्य इन चारो योगोने प्रधानतया योगवाशिष्ठ तथा तैत्तिरीय उपनिषद के वाक्योंका अवतरण दे कर तात्त्विक ऐक्य बतलाया है। योगावतार बत्तीसीमें खास कर पातञ्जल योगके पदार्थोंका जैनप्रक्रियाके धनुसार स्पष्टीकरण किया है।
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