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[ ४६ ] उनकी इस दृष्टिविशालताका असर अन्य गुण - ग्राही याचायपर भी पड़ा, और वे उस मतभेदसहिष्णुताके तत्त्वका मर्म समझ गये ।
१. पुष्पैश्च बलिना चैव वस्त्रैः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौचश्रद्धासमन्वितम् ॥ श्रविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत्सर्वे देवा महात्मनाम् || सर्वान्देवान्नमस्यन्ति नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गायतितरन्ति ते ॥ चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः । नान्यथाष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् ॥ गुणाधिक्यपरिज्ञानाद्विशेषेऽप्येतदिष्यते ।
द्वेषेण तदन्येषां वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ॥ योगविन्दु लो. १६ - २०
जो विशेषदर्शी होते हैं, वे तो कीसी प्रतीक विशेष या उपासना विशेषको स्वीकार करते हुए भी अन्य प्रकारकी प्रतीक माननेवालों या 'अन्य प्रकारकी उपासना करनेवालोंसे द्वेष नहीं रखते, पर जो धर्माभिमानी प्रथमाधिकारी होते हैं वे प्रतीकभेद या उपासनाभेद के व्यामोह से ही आपस में लड मरते हैं । इस अनिष्ट तत्वको को दूर करनेके लिये ही श्रीमान् हरिभद्रसूरिने उक्त पद्यों में प्रथमाधिकारी के लिये सब देवोंकी उपासनाको लाभदायक बत