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[४८] मोहमें अज्ञानवश आपस आपसमें लड मरते हैं, और इस धार्मिक कलहमें अपने साध्यको लोक भूल जाते है। लोगोंको इस अज्ञानसे हटा कर सत्पथपर लानेके लिये उन्होंने कह दिया कि तुम्हारा मन जिसमें लगे उसीका ध्यान करो । जैसी प्रतीक तुम्हें पसंद आये वैसी प्रतीककी ही उपासना करो, पर किसी भी तरह अपना मन एकाग्र व स्थिर करो। और तद्द्वारा परमात्म-चिन्तनके सच्चे पात्र बनों। इस उदारताकी मूर्तिस्वरूप मतभेदसहिष्णु आदेशके द्वारा पतञ्जलिने सभी उपासकोंको योग-मार्गमें स्थान दिया, और ऐसा करके धर्मके नामसे होनेवाले कलहको कम करनेका उन्होंने सच्चा मार्ग लोगोंको बतलाया ।
१ " यथाऽभिमतध्यानाद्वा" १-३६ इसी भावकी सूचक महाभारतमेंध्यानमुत्पादयत्यत्र, संहितावलसंश्रयात् यथाभिमतमन्त्रेण, प्रणवाद्यं जपेत्कृती ॥
शान्तिपर्व प्र. १६४ श्लो. २० यह उक्ति है । और योगवाशिष्टमें
यथाभिवाञ्छितध्यानाचिरमेकतयोदितात् । एकतत्त्वघनाभ्यासात्प्राणस्पन्दो निरुध्यते ।।
___ उपशम प्रकरण सर्ग ७८ श्लो. १६ । यह उक्ति है।