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हैं जो अभी प्राप्त नहीं भी हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थोंमें उनके वर्णनकी सी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है । इस समय हरिभद्रसूरि के योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं जो हमारे देखने में आये हैं । उनमें से पोडशक और योगविंशिका के योगवर्णनकी शैली और योगवस्तु एक ही है । योगबिंदुकी विचारसरणी और वस्तु योग विंशिका से जुदा है । योगदृष्टिसमुच्चयकी विचारधारा और वस्तु योगबिंदु से भी जुदा है । इस प्रकार देखनेसे यह कहना पडता है कि हरि - भद्रसूरिने एक ही आध्यात्मिक विकासके क्रमका चित्र भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें भिन्न भिन्न वस्तुका उपयोग करके तीन प्रकारसे खींचा है ।
कालकी अपरिमित लंबी नदीमें वासनारूप संसारका गहरा प्रवाह बहता है, जिसका पहला छोर ( मूल ) तो घनादि है, पर दूसरा (उत्तर) छोर सान्त है । इसलिये मुमुक्षुमौके वास्ते सबसे पहले यह प्रश्न बडे महत्त्वका है कि उक्त
नादि प्रवाह में आध्यात्मिक विकासका आरंभ कब से होता है और उस आरंभके समय आत्माके लक्षण कैसे हो जाते हैं ? जिनसे कि आरंभिक आध्यात्मिक विकास जाना जा सके। इस प्रश्नका उत्तर आचार्यने योगविदुमें दिया है । वे कहते
कि - " जब आत्माके ऊपर मोहका प्रभाव घटनेका आरंभ होता है, तभी आध्यात्मिक विकासका सूत्रपात हो जाता