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________________ [३०] चर्यामें तीसरे प्रहरके सिवाय अन्य तीनों प्रहरी मुख्यतया स्वाध्याय और ध्यान करनेको ही कहा गया है। यह बात भूलनी न चाहिये कि जैन आगमोंमे योगअर्थमें प्रधानतया ध्यानशब्द प्रयुक्त है । ध्यानके लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अनेक जैन आगोंमें है । आगमके बाद नियुक्तिका नंबर है। उसमें भी आगमगत ध्यानका ही स्पष्टीकरण है। वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्र में भी ध्यानका वर्णन है, पर उसमें १ दिव मस्स चउरो भाए, कुजा भिक्खु विअक्खणो । तो उत्तरगुणे कुज्जा, दिणभागसु चउसु वि॥१५॥ पढमं पोरिसि सज्झायं, बिइअं झाणं झिआयइ । तइआए गोअरकालं, पुणो चउत्यिए सज्झायं ।। १२ ॥ रत्तिं पि चउरो भाए भिक्खु कुञा विअकारणो । तओ उत्तरगुणे कुना राईभागसु च उसु दि॥ १७ । पढमं पोरिसि सज्झायं विइअं झाणं झिआयइ । तइयाए निदमोक्खं तु च उत्थिए भुजो वि सज्झायं ।। १८॥ उत्तराध्यवन अ० २६ । २ देखो स्थानाग अ०४ उद्देश १ । समवायाङ्ग स० ४। भगवती शतक-२५ उद्देश ७ | उत्तराध्ययन अ० ३०, मो०३५ ३ देखो आवश्यक नियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन गा. १४६२ -१४८६ । ४ देखो अ० ९ सू० २७ से आगे।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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