Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैनग्रन्थमाला, पुष्प ४५ जैन शिलालेख संग्रह (द्वितीयो भाग। पं० विजयमूर्ति एम० ए० शास्त्राचा प्रकाशिका माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैनग्रन्थमालासमितिः विक्रम संवत् २००९ मूल्यं पंचरूप्यकम् Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रकाशक नाथूराम प्रेमी, मंत्री, माणिकचन्द्र-जैनप्रन्थमाला हीरावाग, बम्बई ४ सितम्बर १९५२ -मुद्रक - लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी निर्णयसागर प्रेस, २६-२८ कोलभाव स्ट्रीट, वम्बई २ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वागत जैनशिलालेखसंग्रहका प्रथम भाग आजसे चौबीस वर्ष पूर्व) सन् १९२८ ईस्वीमे प्रकाशित हुआ था । इसके (प्राथमिक वक्तव्यमे मैंने यह आग प्रकट की थी कि यदि पाठकोने चाहा, और भविष्य अनुकूल रहा तो अन्य शिलालेखोका 'दूसरा संग्रह शीघ्र ही पाठेकोको भेंट किया जायगा । पाठकोने चाहा तो खूब, और माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैन मंथमालाके परम उत्साही मंत्री पं० नाथूरामजी प्रेमीकी प्रेरणा भी रही, किन्तु मैं अपनी अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियो के कारण इस कार्यको हाथमे न ले सका । तथापि चित्तमे इस कार्यकी आवश्यकता निरन्तर खटकती रही। अपने साहित्यिक सहयोगी डॉ० आदिनाथजी उपाध्येसे भी इस सम्बन्धमे अनेक बार परामर्श किया किन्तु शिलालेखोका संग्रह करने करानेकी कोई सुविधा न निकल सकी । अतएव, जब कोई दो वर्ष पूर्व श्रद्धेय प्रेमीजीने मुझसे पूछा कि क्या पं० विजयमूर्तिजी एम० ए० ( दर्शन, संस्कृत ) शास्त्राचार्यद्वारा शिलालेखग्रहका कार्य प्रारम्भ कराया जाये, तब मैंने सहर्ष अपनी सम्मति दे ढी । आनन्दकी बात है कि उक्त योजनानुसार जैन शिलालेखसंग्रहका यह द्वितीय भाग छपकर तैयार हो गया और अब पाठकोके हाथोमे पहुँच रहा है। यह बतलानेकी तो अव आवश्यकता नहीं है कि प्राचीन शिलालेखोका इतिहास - निर्माण के कार्य मे कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है । जबसे जैन शिलालेखोका प्रथम भाग प्रकाशित हुआ, तबसे गत चौबीस वर्षोंसे जैनधर्म और साहित्य के इतिहाससम्बन्धी लेखोमे एक विशेष प्रौढता और प्रामाणिकता दृष्टिगोचर होने लगी । यद्यपि वे शिलालेख उससे पूर्व ही प्रकाशित हो चुके थे, किन्तु वह सामग्री ॲग्रेजीसे, पुरातत्त्वविभागके बहुमूल्य और बहुधा अप्राप्य प्रकाशनोमें निहित होनेके कारण साधारण लेखको तथा पाठकोको सुलभ नहीं थी । इसीलिये समस्त प्रकाशित शिलालेखोका सुलभ सग्रह नितान्त मावश्यक है । 1 जैनशिलालेखसंग्रह प्रथम भागसे पाँच सौ शिलालेख प्रकाशित किये गये थे । वे सब लेख श्रवणबेल्गुल और उसके आसपास के कुछ स्थानो के ही थे'। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब प्रस्तुत संग्रहमे गेरीनोद्वारा संकलित जैन प्राचीन लेखोकी सूची (Repertoire D'epigraphie Jaina by A Guerinot) $ क्रमानुसार लेख उपस्थित करनेका प्रयत्न किया गया है। नामोको मोटे टाइपमें छापने तथा लेखोका साराश हिन्दीमे दे देनेकी शैली प्रथम भागके अनुसार यहाँ भी अपनाई गई है । किन्तु खेद है कि प्रत्येक लेखके भीतर पद्योकी सख्याका क्रमसे अंकन नहीं किया गया, जिससे उनके उल्लेख करनेमे कुछ असुविधा हो सकती है।। इन शिलालेखोका इतिहासकी दृष्टिसे मूल्य ऑकना आवश्यक है। किन्तु अब यह कार्य उचित रीतिसे तभी निष्पन्न किया जा सकता है जब शेष शिलालेसोके संग्रह भी इसी शैलीसे प्रकाशित हो जावें । अतएव, सग्राहक और प्रकाशकका इस महत्त्वपूर्ण प्रकाशनके लिये अभिनन्दन करते हुए मैं आशा करता हूँ कि वे अपने इस कार्यको गतिशील बनाये रखेगे और विना अधिक विलम्बके संग्रहका कार्य पूरा करके लेखको और पाठकोकी दीर्घकालीन पिपासाकी पूर्णत तृप्ति करनेका अनुपम यश प्राप्त करेगे। नागपुर महाविद्यालय । नागपुर, ६-३-१९५२ । हीरालाल जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह द्वितीय भाग १ दिल्ली (टोपरा ) -- प्राकृत | अशोकके सातवें धर्मशासन-लेखका अन्तिम भागे [ लगभग २४२ ईसवी पूर्व ] [ १ ] धमवढिया च वाढं वढिसति [1] एताये मे अठाये धमसावनानि सावापितानि धमानुसाथिनि विविधानि आनपितानि [ यथा मे पुलि] सापि बहुने जनसि आयता एते पलियोवदिसति पि पविथलि - संतिपि [1] लजूका पि बहुकेसु पानसनसहसेसु आयता ते पि मे आनपिता [:] हेव च हेत्र च पलियोवदाथ [२] जनं धमयुत [1] देवान पिये पियदसि हेव आहा [ : ] एतमेव मे अनुवेखमाने धमयभानि कटानि[,] धममहामाता कटा [] धम - [सावने] कटे [1] देवान पिये पियदसि लाजा हे आहा [ : ] मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि[:] छायोपगानि होसंति पसुमुनिसान [,] अवावडिक्या लोपापिता[,] अढकोसिक्यानि पि मे उदुपानानि [३] खानापितानि[,] निंसिधिया च कालापिता [:] आपानानि मे बहुकानि तत तत कालापितानि पटीभोगाये पसुमुनिसान [1] ल[हुके चु] एस पटीभोगे नाम [I] विविधायाहि सुखायनाया पुलिमेहिपि लाजी १. ए कनिंघम, Corpus inscriptionum indicarum, Vol. I, Inscriptions of Asoka, p 115, t Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिलालेख संग्रह हि ममया च सुखयिते' लोके [1] इम चु धंमानुपटीपतीअनुपटीपजतुति[]] एतदथा मे [४] एस कटे [1] देवान पिये पियदसि हेव आहा [:] धममहामातापि मे ते बहुविधेसु अठेसु अनुगहिकेतु वियापटा से पवजीतान चेव गिहियान च [.] सर्व [ पास ] डेसु पि च वियापटा से [1] संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहतिति[,] हेमेत्र वाभनेसु आजीविकेसु पि मे कटे [५] इमे वियापटा होहतिति [I] निगठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति [:] नानापासडेसु पि मे कटे इमे वियापटा होह - तिति [[] पटिविसठ पटीविसठ तेसु तेसु ते ते महामाता [I] धममहामाता चु मे एते चेत्र वियापटा सवेसु च अनेसु पासंडेसु [1] देवान पिये पियदसि लाजा हेव आहा [:] [ ६ ] एते च अने च वहुका मुखा दानविसगसि वियापटा से मम चेत्र देविन च[,] सवसि च मे आलोधनसि ते बहुविधेन आ[का] लेन तानि तानि तुठायतनानि पटी [पाडयति] हिद चैत्र दिसासु च [1] दालकान पि च मे कटे अनान च देविकुमालान इमे दानविसगेसु वियापटा होहति ति [७] धमपदानठाये धनानुपटिपतिये [] एस हि धमापदाने धमपटीपति च या इय दया दाने सचे सोचने मदवे साधवे च लोकस हेव वढिसतिति [[] देवान पिये [पियद] सि लाजा हेव आहा [:] यानि हि कानि चि ममिया साधवानि कटानि त लोके अनूपटीपने त च अनुविधियति[,] तेन वढिता च १ सुखीयते Indian Antiquany, Vol XIII, p 310, t. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोकका धर्मशासन [८] वढिसंति च मातापितुसु सुसुसाया गुलुसु सुसुसाया वयोमहालकान अनुपटीपतिया बाभनसमनेसु कपनवलाकेसु आव दासभटकेसु संपटीपतिया [] देवानपिये [पि]यदसि लाजा हेव आहा[:] मुनिसानं चु या इय धमवढि वढिता दुवेहि येव आकालेहि धमनियमेन च निझतिया च [९] तत च लहु से धमनियम, निझतिया व भुये। धमनियमे च खो एस ये मे इय कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि,] अनानि पि चु बहु [कानि] धमनियमानि यानि मे कटानि[]] निझतिया व चु भुये मुनिसान धमवढि वढिता अविहिसाये भुतान [१०] अनालंभाये पानान[]] से एताये अथाये इय कटो, पुतापपोतिके चदमसुलियिक होतु ति[] तथा च अनुपटीपजंतु ति[I] हेव हि अनुपटीपजत हिदतपालते आलधे होति[]] सतविसतिवसाभिसितेन मे इयं धंमलिवि लिखापापिताति[] एत देवानंपिये आहा[:] इय [११] धमलिवि अन अथि सिलायभानि वा सिलाफलकानि वा तत कटविया एन एस चिलठितिके सिया । [यह धर्मशासन-लेख अशोकके द्वारा महास्तम्भोंपर लिखाये गये लेखोमेंसे अन्तिम है । इसको कोई कोई आठवां धर्मशासन-लेख ( Edict) मानते हैं, तो कोई मात्र सातवे धर्मशासन-लेखका ही अन्तिम भाग मानते हैं। इसमें बताया है कि सम्राट अशोकने अपने राज्याभिषेकसे २७ वें वर्षमें यह धर्मशासन-लेख लिखाया था । इसमें उसने अपने द्वारा नियोजित धर्ममहामात्योका उल्लेख किया है । ये धर्ममहामात्य 'संघ' (बौद्धसंघ), भाजीवक, ब्राह्मण और निर्ग्रन्थोंकी देखरेख रखनेके लिये Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह नियुक्त किये गये थे । यहां 'निर्ग्रन्थ' शब्दले जैनोका तात्पर्य है । इसपरसे उस समयके अनेक अग्रेसर धर्मोम जैनधर्म भी मालूम पडता है कि एक था । ] ४ - हाथीगुफाका शिलालेखे – प्राकृत | जैन- सम्राट् खारवेलका इतिहास | [ मौर्यकाल १६५ वॉ वर्ष ] [१] नमो अरहतान [1] नमो सवसिधान [] ऐरेन महाराजेन महामेघवाहनेन चेतराजवस धनेन पसथसुभलखनेन चतुरंनल थुन-गुनोपहितेन कलिंगाधिपतिना सिरि खारवेलेन । [२] पन्दरसवसानि सिरि कडार - सरीर बता कीडिता कुमारकी - डिका [[] ततो लेखरूपगणना यवहार - विविविसारदेन सवविजाबढातेन नववसानि योवरज पसासित [I] सपुण चतुवीसति - वसो तदानि ववमानसेसयोवे (च) नाभिविजयो ततिये (३) कलिंगराजवसे पुरिसयुगे महारजाभिसेचन पापुनाति [1] अभिसितमतोच पधमे बसे बात - विहत गोपुर - पाकार -निवेसन पटिसखारयति [1] कलिंनगरि [f] ख-बीर इसि - ताल तडाग - पाडियो च बन्धापयति [I] सवुयान- पतिसठपन च [ ४ ] कारयति [1] पनतीसाहि सतसहसेहि पकतियो च रजयति [I] दुतिये च बसे अचितयिता सातकर्णि पछिमदिस हय - गज-नर-रध-बहुल दड पथापयति [I] कण्हवेना गताय च सेनाय वितापति' मुसिकनगरं [1] ततिये पुन बसे १ जैनहितैपी, भाग १५, अङ्क ५, मार्च १९२१, पृष्ठ १३९-१४५ से २ वितापित इति वा । उद्धृत Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथीगुफाका लेख [५] गधव-वेदबुधो ढत-नत-गीत-वादितसदसनाहि उसव-समाजकारापनाहि च कीडापयति नगरिं [0] तया चवुथे वसे विजाधराधिवास अहत-पुत्र कलिंगपुवराजनिवेसित........"वितध-मकूटे सविलमढिते च निखित-छन [६] भिंगारे हित-रतन-सापतेये सव-रठिक भोजके पाढे वदापयति [0] पचमे च दानी वसे नंदराज ति-वससत-ओघाटित तनसुलियवाटा पनाडिं नगर पवेस[ यति [0] सो [पि च वसे] छडम 'भिसितो च राजसुय [] सन्दसयतो सबकर-वण [७] अनुगह-अनेकानि सतसहसानि विसजति पोर जानपद [] सतम च वसं पसासतो वजिरघरवि धुसि ति घरिनी समतुक-पद-पुनासकुमार[]............ [0] अठमे च वसे महतिसेनाय मह[तभित्ति] गोर धगिरि [८] घातापयिता राजगहं उपपीडापयति[]] एतिना च कम पदान-पनादेन सवितसेन-वाहिनी विपमुचितु मधुरा अपयातो येव नरिदो [नाम]......... [मो] यछति [विछ] ........"पलवभरे [९] कल्परुखे हय-गज-रध-सह-यते सव-घरावास-परिवसने स अगिणठिये[] सवगहन च कारयितु वम्हणान जाति-पतिं परिहार ददाति[]] अरहत....... ...व " .. .न........."गिय [१०]..."[क] [f] मानेहि रा[ज] संनिवासं महाविजय पासाद कारापयति अठतिसाय सत-सहसेहि[]] दसमे च वसे महघीत' मिसनयो भरधवस-पथान महिजयन ति कारापयति"" ....." [निरितय उया तान च मणि-रतना[नि] उपलभते । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह [११] ......मडे च पुव-राजनिवेसित-पीथुडग-दल]भ-नगले नेकासयति जनपदभावन च तेरस-वस-सत-केतुभद-तित' मरदेहसंघात[]] वारसमे च बसे.... ..."सेहि वितासयति उतरापथराजानो [१२] . ....... मगधान च विपुल भयं जनेतो हथिसु गंगाय पाययति] मागध च राजान वहसतिमित' पादे वदापति[]] नंदराजनीत च कालिंग-जिन-संनिवेसं......... "गहरतनान पडिहारेहि अंगमागध-बसु च नेयाति [] [१३] . त जठर-लिखिल-बरानि सिहिरानि नीवेसयति सत-विसिकन परिहारेन[] अभुतमछरिय च हथि-नावन परीपुर उ [प-]देणह हयहथी-रतना-मानिक पंडराजा एदानि अनेकानि मुतमणिरतनानि अहरापयति इध सत-सि] [] [१४] ....."सिनो वसीकरोति [0] तेरसमे च वसे सुपवत-विजयिचके कुमारीपवते अरहिते य[] प-खिम-व्यसताहि काय्यनिसीदीयाय यापभावकेहि राजभितिनि चिनवतानि बोसासितानि [I] पूजानि कत-उवासा खारवेल-सिरिना जीवदेव-सिरि-कल्प राखिता [1] [१५] .. • ..''[ ता] सु कत समण-सुविहितान (नु ?) च सातदिसान (नु ?) जातान तपसइसिन सघायन (नु १) [] अरहतनिसीदिया समीपे पभारे वराकर-समुथापिताहि अनेक योजनाहिताहि . . " सिलाहि सिंहपथ-रात्रिय धुसिय निसयानि [१६] ... पटालिकोचतरे च वेडूरियगमे थंभे पतिठापयति [] पानतरिया सतसहसेहि []] मुरिय-काल वोछिन ( ने १) च चोयठि १ वहसतिमित्र इति । २ रानिस वा इति हरनन्दनपाण्डेया.। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ teriya ma अगस-निकंतरिय उपादायति [1] खेमराजा स वढराजा स भिखुराजा धमराजा पसंतो सुनतो अनुभवतो कलाणानि [ १७ ]........गुण-विसेस-कुसलो सवपासंडपूजको सव-देवायत - नसंकारकारको [ अ ] पति-हत- चकि- वाहिनि बलो चकधुर - गुतचको पवतचको राजसि-बस-कुल-विनिश्रितो महा विजयो राजा खारवेल - सिरि अनुवाद -- [१] अर्हतोंको नमस्कार । सर्व सिद्धोंको नमस्कार । ऐलमहाराज महामेघवाहन, चैत्रराजवंशवर्धन, प्रशस्तशुभलक्षणसम्पन्न, अखिल-देशस्तम्भ, कलिङ्गाधिपति श्री खारवेलने [२] पन्द्रह वर्ष तक श्रीसम्पन्न और कढार (गन्दुमी ) रंगवाले शरीरसे कुमार-क्रीड़ाएँ कीं । बादमें लेख, रूपगणना, व्यवहार विधिमें उत्तम योग्यता प्राप्त करके और समस्त विद्याओंमें प्रवीण होकर उसने नौ वर्षोंतक युवराजकी भाँति शासन किया । जब वह पूरा चौबीस वर्षका हो चुका तब उसने, जिसका शेष यौवन विजयोसे उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हुआ, तृतीय [३] कलिंगराजवंशमें, एक पुरुषयुगके लिये महाराज्याभिषेक पाया । अपने अभिषेकके पहले ही वर्षमें उसने बातविहत ( तूफानके बिगाडे हुए) गोपुर ( फाटक ), प्राकार ( चहारदीवारी ) और भवनोंका जीर्णोद्धार कराया; कलिङ्ग नगरीके फव्वारेके कुण्ड, इपितल्ल ( १ ) और तड़ागोके बाँधोको वैधवाया; समस्त उद्यानोंका प्रतिसंस्थापन कराया और पैतीस लक्ष प्रजाको सन्तुष्ट किया । [ 2 ] दूसरे वर्ष में, सातकर्णिकी चिन्ता न करके उसने पश्चिम देशको चहुत-से हाथी, घोडो, मनुष्यों और रथोंकी एक बढी सेना भेजी । कृष्णचेण नदीपर सेना पहुँचते ही, उसने उसके द्वारा भूषिक नगरको सन्तापित किया। तीसरे वर्ष में फिर [५] उस गन्धर्व-वेदमें निपुणमतिने दंप, नृत्य, गीत, वाद्य, सन्दर्शन, उत्सव और समाजके द्वारा नगरीका मनोरञ्जन किया । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह और चौथे वर्षमें, विद्याधर-निवासोको, जो पहले कभी नष्ट नहीं हुए थे और जो कलिश के पूर्व राजाओके निर्माण किये हुए थे...."उनके मुकुटोंको व्यर्थ करके और उनके लोहेके टोपोके दो सण्ड करके और उनके छन, [६] और भृगारो (सुवर्णकलशो) को नष्ट करके तथा गिराकर, और उनके समस्त बहुमूल्य पदार्थो तथा रतोका हरण करके, उसने समस्त राष्ट्रिको और भोजकोंसे अपने चरणोकी बन्दना कराई। इसके बाद पाँचवें वर्षमे उसने तनसुलिय मार्गसे नगरीमें उस प्रणाली (नहर) का प्रवेश किया जिसको नन्दराजने तीन सौ वर्ष पहले खुदवाया था। छठे वर्षमें उसने राजसूय-यज्ञ करके सब करोको क्षमा कर दिया, [७] पौर और जानपद (संस्थाओं) पर अनेक शतसहन अनुग्रह वितरण किये। सातवें वर्ष राज्य करते हुए, वन घरानेकी सृष्टि (प्राकृत=धिसि) नाम्नी गृहिणीने मातृक पदको पूर्ण करके सुकुमार [1]""(1) आठवें वर्ष में उसने (खारवेलने ) वढी दीवारवाले गोरथगिरिपर एक बढी सेनाके द्वारा [0] आक्रमण करके राजगृहको घेर लिया। पराक्रमके कार्योंके इस समाचारफे कारण नरेन्द्र [नाम] अपनी घिरी हुई सेनाको छुड़ानेके लिये मथुराको चला गया। (नवें वर्ष में ) उसने दिये..... पल्लवयुक्त [९] कल्पवृक्ष, सारथीसहित हय-गज-रथ और सबको अग्निवेदिकासहित गृह, मावास और परिवसन । सव दानको ग्रहण कराये जानेके लिये उसने ब्राहाणोंकी जातिपंक्ति (जातीय सस्थाओ) को भूमि प्रदान की। अर्हत्... व.... न... • गिया (?) १ राजधानीकी संस्थाको 'पौर' और ग्रामोंकी सस्थाको 'जानपद' कहते थे। वर्तमान समयमे हम इन्हे 'म्युनिसिपल' और 'डिस्ट्रिक्ट-बोर्ड के नामसे पुकार सकते हैं। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथीगुफाका लेख [१०][][] मानः (१) उसने महाविजय-प्रासाद नामक राजस- निवास, अड़तीस सहस्रकी लागतका बनवाया। दसवें वर्षमें उसने पवित्र विधानोद्वारा युद्धकी तैयारी करके देश “जीतनेकी इच्छासे, भारतवर्ष (उत्तरी भारत) को प्रस्थान किया ।... केश (१) से रहित ....... उसने आक्रमण किये गये लोगोके मणि और रलोको पाया। [११] (ग्यारहवें वर्षमें) पूर्व राजाओके बनवाये हुए मण्डपमें, जिसके पहिये और जिसकी लकड़ी मोटी, जची और विशाल थी, जनपदसे प्रतिष्ठित तेरहवें वर्ष पूर्वमें विद्यमान केतुभद्रकी तिक्त (नीम) काष्ठकी अमर मूर्तिको उसने उत्सवसे निकाला। वारहवें वर्ष में........"उसने उत्तरापथ (उत्तरी पक्षाव और सीमान्त प्रदेश) के राजाओंमे त्रास उत्पन्न किया। [१२] ........और मगधके निवासियोमें विपुल भय उत्पन्न करते हुए उसने अपने हाथियोको गंगा पार कराया और मगधके राजा वृहस्पतिमित्रसे अपने चरणोकी बन्दना कराई ...........(वह) कलिंगजिनकी मूर्तिको जिसे नन्दराज ले गया था, घर लौटा लाया और अंग और मगधकी अमूल्य वस्तुओको भी ले आया। [१३] उसने.........अठरोल्लिखित (जिनके भीतर लेख खुदे हैं) उत्तम शिखर, सौ कारीगरोको भूमि प्रदान करके, बनवाये और यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि वह पाण्डवराजसे हस्ति नावोंमें भरा कर श्रेष्ठ हय, हस्ति, माणिक और बहुतसे मुक्का और रन नजरानेमें लाया। [१४] उसने......"वशमें किया। फिर तेरहवें वर्ष में व्रत पूरा होनेपर (खारवेलने) उन याप-ज्ञापकोंको जो पूज्य कुमारी पर्वतपर, जहाँ जिनका चक्र पूर्णरूपसे स्थापित है, समाधियोंपर याप और सेमकी क्रियाओमे प्रवृत्त थे; राजभृतियोंको वितरण किया। पूजा और अन्य उपासक कृत्योके क्रमको श्रीजीवदेवकी भाँति खारवेलने प्रचलित रखा। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह [१५] सुविहित श्रमणोंके निमित्त शास्त्र-नेनके धारकों, ज्ञानियों और तपोबलसे पूर्ण ऋपियोंके लिये (उसके द्वारा) एक संघायन (एकत्र होनेका भवन ) बनाया गया । अर्हत्की समाधि (निपद्या) के निकट, पहाडकी ढालपर, बहुत योजनोसे लाये हुए, और सुन्दर खानोंसे निकाले हुए पत्थरोंसे, अपनी सिंहप्रस्थी रानी 'सृष्टी' के निमित्त विनामागार [१६] और उसने पाटालिकाओमें रत्न जटित स्तम्भोको पचहत्तर लाख 'पणों (मुद्राओं) के व्ययसे प्रतिष्ठापित किया । वह (इस समय) मुरिय कालके १६४ वें वर्षको पूर्ण करता है। ___ वह क्षेमराज, वर्द्धराज, भिक्षुराज और धर्मराज है और कल्याणको देखता रहा है, सुनता रहा है और अनुभव करता रहा है। [१७] गुणविशेष-कुशल, सर्व मतोंकी पूजा (सन्मान) करनेवाला, सर्व देवालयोका संस्कार करानेवाला, जिसके रथ और जिसकी सेनाको कभी कोई रोक न सका, जिसका चक्र (सेना) चक्रधुर (सेना-पति) के द्वारा सुरक्षित रहता है, जिसका चक्र प्रवृत्त है और जो राजविश-कुलमें उत्पन्न हुआ है, ऐसा महाविजयी राजा श्रीखारवेल है। इस शिलालेखकी प्रसिद्ध घटनाओंका तिथिपत्रवी. सी. (ईसाके पूर्व) " १९६० (लगभग) ... केतुभद् " ...४६० (लगभग)... कलिगमे नन्दशासन " [२३० .... अशोककी मृत्यु] " [२२० (लगभग) .. कलिंगके तृतीय-राजवश का स्थापन] " १९७ ... ... सारवेलका जन्म " [१८८ ... ... मौर्यवंशका अन्त और पुष्यमित्रका राज्य प्राप्त करना] 27 १८२ ... सारवेलका युवराज होना ., [१८० (लगभग ... सातकर्णि प्रथमका राज्य प्रारम्भ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , १७३ ... , १७२ ... , १६९ ... ,, १६७ ... , १६५ ... , १६१ ... चैकुण्ठगुफाका लेख ... खारवेलका राज्याभिषेक ... मूपिक-नगरपर आक्रमण ... राष्ट्रिकों और भोजकोंका पराजय .. राजसूय यज्ञ ... मगधपर प्रथम वार आक्रमण ... उत्तरापथ और मगधपर आक्रमण, पाण्डवराजसे अदेय (नजराने) की प्राप्ति ... शिलालेखकी तिथि "१६० ... वैकुण्ठ (स्वर्गपुरी) गुफा उदयगिरि-प्राकृत । [लगभग १६५ मौर्यकाल] अरहन्तपसाटन कलिंग"य " नान लोनकाडतं रजिनोलस... हेथिसहसं पनोतसय" कलिंग वेलस अगमहि पिडकार्ड इस शिलालेखमे अर्हन्तोकी कृपाको प्राप्त गुहानिर्माण ( Excavation) बताया गया है । इस लेखका शेषभाग इतना टूटा हुआ है कि वह पढनेमें नहीं आसकता । वैकुण्ठ गुफा, जिसके नामसे यह शिलालेख प्रसिद्ध है, राजा ललाकके द्वारा अर्हन्तो और कलिगके श्रमणोके लाभ या उपयोगके लिये बनाई गई थी।] [JASB, VI, p_1074] मथुरा-प्राकृत। [विना कालनिर्देशका] लेकिन करीव १५० ई० पूर्वका [बूल्हर] १ पितकड In JASB, vol VI, p. 1074. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह समनस माहरखितास आतेवासिस वछीपुत्रस सावकास उतरदासक[1] स पासादोतोरनं [1] । अनुवाद-माहरखित (माघरक्षित) के शिष्य, वछी (वात्सी माता) के पुत्र उतरदासक (उत्तरदासक) श्रावकका (दान) यह मन्दिरका तोरन(ण) है। [DI, II, n° XIV, n° 11 मथुरा-प्राकृत । [महाक्षत्रप शोडाशके ४२ वे (?) वर्षका] १. नम अरहतो वर्धमानस। २. ख[f]मिस महक्षत्रपस शोडासस सवत्सरे ४० (१)२ हेमतमासे २ दिवसे ९ हरितिपुत्रस पालस भयाये समसाविकाये ३. कोछिये अमोहिनिये सहा पुत्रेहि पालघोपेन पोठयोपेन धनघोपेन आयबती प्रतियापिता प्राय-[भ] ४ आर्यवती अरहतपुजाये [1] अनुवाद-अईत् वर्धमानको नमस्कार हो । स्वामी महाक्षत्रप शोडासके ४२ (?) वें वर्पकी शीतऋतुके दूसरे महीनेके नौवें दिन, हरिति (हरिती या हारिती माता) के पुन्न पालकी स्त्री, तथा श्रमणोकी श्राविका, कोछि (कौत्सी) अमोहिनि (अमोहिनी) के द्वारा अपने पुत्रों पालघोप, पोठयोप, (प्रोष्टधोप) और धनघोपके साथ आयवती (आर्यवती) की स्थापना की गई थी। ___ [EI, II, n° XIV, n°2] पभोसा (अलाहावादके पास)-संस्कृत । [द्वितीय या प्रथम इसवी पूर्व (फ्यूरर)] १ पट्टो 'समनमानिकाये। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभोसाका लेख १. राज्ञो गोपालीपुत्रस २. वहसतिमित्रस ३. मातुलेन गोपालीया ४. वैहिदरीपुत्रेन [आसा] ५. आसाढसेनेन लेनं ६. कारितं [उदाकस] दस७. मे सबछरे कश्शपीयानं अरह८. [ता] न` - - - - - [1] अनुवाद-गोपालीके पुत्र राजा बहसतिमित्र (बृहस्पतिमित्र) के मामा, तथा गोपाली वहिदरी (अर्थात् वैहिदर-राजकन्या) के पुन आसाढसेनने कश्शपीय अरहतोके • .. दसवे वर्षमे एक गुफाका निर्माण कराया। [EI, II, p. 243] पभोसा (प्रभात)-प्राकृत । [द्वितीय या प्रथम शताब्दि ई. पू] ' १. अधियछात्रा राजो शोनकायनपुत्रस्य वगपालस्य २. पुत्रस्य राजो तेवणीपुत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण ३. वैहिदरीपुत्रेण आपाढसेनेन कारितं [] अनुवाद-अधिछन्नाके राजा शोनकायन (शौनकायन) के पुत्र राजा वंगपालके पुत्र (और) तेवणी (अर्थात् त्रैवर्ण-राजकन्या) के पुत्र राजा भागवतके पुत्र (तथा) वैहिदरी (अर्थात् वैहिदर-राजकन्या) के पुत्र आषाढलेनने बनवाई। [नोट-शुद्भकालके अक्षरोसे मिलने-जुलनेके कारण दोनों शिलालेखोका काल विश्वासके साथ द्वितीय या प्रथम शताब्दि ई० पूर्व निश्चित किया १ सभवत 'गोपालिया'। २ सभी अक्षर सशयापन्न है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह जा सकता है। खास ऐतिहासिक चीज जो यहां अक्षित करनेकी है वह अधिछत्राके प्राचीन राजाओंकी वंशावलि है । अधिछत्रा किसी समय प्रतापी उत्तर पाञ्चालके राजाओंकी राजधानी थी । वंशावली इस प्रकार है. शोनकायन तेवणी (वर्ण राजकन्या)स विवाहित वंगपाल 1 (अधिछत्राका राजा) वैहिदरी (वैहिदर-राजकन्या) गोपालीसे विवाहित राजा भागवत गोपाली आपाढसेन राजा वहसतिमित्र वहसतिमिन कहांका राजा था और उसके पिताका नाम क्या था, यह नहीं बताया गया है। लेकिन, ५० फ्यूरर की सम्मतिमे हम उसे कौशास्त्रीका राजा मान सकते है, क्योंकि वह (काँगाम्बी)प्रभास (पभोसा) के निकट है तथा बहुत-से उसके (वहसतिमित्रके) सिक्के कौशाम्बीसे मिले हैं। [EI, II, n° XIX, D° 2 (2 243)] मथुरा-प्राकृत। [विना कालनिर्देगका] १. नमो आरहतो वधमानस दण्दाये गणिका२ ये लेणशोभिकाये वितु शमणसाविकाये ३. नादाये गणिकाये वासये आरहता देविकुला ४. आयगसभा प्रपा शीलापटा पतिष्ठापित निगमा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराका लेख ५. ना अरहतायतने स [ह]] मातरे भगिनिये धितरे पुत्रेण ६. सविन च परिजनेन अरहनपुजाये । अनुवाद - अर्हत् वर्धमानको नमस्कार हो | श्रमणोंकी उपासिका ( श्राविका ) गणिका नादा, गणिका दन्दाकी बेटी वासा, लेणशोभिकाने अर्हन्तोंकी पूजाके लिये व्यापारियोंके अर्हतमन्दिरसे अपनी माँ, अपनी बहिन, अपनी पुत्री, अपने लड़केके साथ और अपने सारे परिजनोंके साथा मिलकर एक बेटी, एक पूजागृह, एक कुण्ड और पापाणासन बनवाये । [I. A., XXXIII, p 152-153.] ९ १ मथुरा - प्राकृत | ( कालनिर्देश नहीं दिया है, किन्तु जे. एफ. फ्लीटके अनुसार लगभग १४-१३ ई० पूर्वका होना चाहिये ) १. [न] मो अरहतो वर्धमानस्य गोतिपुत्रस पोठयशक २. कालवाळस ३. [ भार्यायै ] कोशिकिये शिमित्राये' अयागपटो प्रि [ प्रति-ष्ठापितो ] अनुवाद -वर्धमान अर्हन्तको नमस्कार हो । गोतिपुत्र ( गौतीपुत्र ) की स्त्री कौशिकक्लोद्भुत शिवमित्राने एक मयागपर स्थापित किया । गोतिपुत्र पोठय और शक लोगोंके लिये काला सर्प ( कालवाल ) था । [El, I, n XLIV, n° 33] १० मथुरा-- प्राकृत | [विना कालनिर्देशका सम्भवतः १४-१३ ई० पूर्व ] २. मा अरहतपूजा [ ये ] २. गोतीपुत्रस ईद्रपाल ] .... १ इसकी जगह 'शिवमित्राचे पढ़ना चाहिये (J. F Fleet ) । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह अनुवाद-गोती (गांती माता) के पुत्र इद्रपाल (इन्द्रपाल) के... .. महन्तोंकी पूजाके लिये............प्रतिमा...... [El, II, n° XIY, 19.] गिरनारः-संस्कृत । [विक्रमसंवत् ५८] हुमदके पवित्र स्थानके आह्वनमें वृक्षके नीचे एक चौकोर चबूतरा है । उसके किनारेपर निम्नलिखित लिखा हुआ है. स० ५८ वर्षे चैत्र वढी २ सोमे धारागले प० नेमिचन्दशिप्य पंचाणचंदमूर्ति अनुवाद-संवत "८ के वर्षसे, सोमवार, चैत्र वदी २ को, धारागसमें नेमिचन्द्र के शिष्य पंचाणचंदकी मूर्ति । [ASI, XVI, p 357, n° 20] मथुरा-प्राकृव । (विना कालनिर्देगका) १. भत्तजयसेनस्य आतेवासिनीये २. वामघोपाये दानो पासादो [1] अनुवाद-भदन्त जयसेनकी शिया धमघोपा (धर्मघोपा)के दानवरूप यह मन्दिर है।" ___[El, II, I XIV, n° 4 ] मथुरा-प्राकृत। भगवा नेमेसो भग--- अनुवाद-"भगवान नेमेस (नैगमेष), भगवान .. [EL, II, n. XIV, n°6] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख सथुरा-प्राकृत। [विना कालनिर्देशका] १. मा अहंतान' श्रमणश्राविका ये २.....लहस्तिनीये तोरण प्रति [टापि ] ३. सह माता पितिहि सह सशू-शशुरेण अनुवाद-अईन्तोंको नमस्कार । अपने माता पिता और सास-ससुरके साथ साधुओंकी एक शिष्या"लहस्तिनी (बलहस्तिनी), के हुक्मसे एक तोरण खड़ा किया गया। [ऐसा मालूम पड़ता है कि उस समय माता-पिता और सास-ससुरके साथ कोई धार्मिक कार्य करनेसे, उनको भी पुण्यप्राप्तिमें साझीदार समझा जाता था। [EI, I, XLIII, n° 17] मथुरा-प्राकृत। [विना कालनिर्देशका] १. अ. नमो अरहतान फगुयशस २. अ. नतकस भयाये शिवयशा३. अ. ---------काये १. ब. आयागपटो कारिनो २. व. अरहतपुजाये [1] १ 'नमो अरहतान' पटना चाहिये। २ 'प्रतिष्ठापित' पढो । सभवतः पहली और दूसरी पक्तिके अन्तम और अधिक अक्षर टूटे हुए मालूम पडते है। शि०२ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह अनुवाद-अर्हन्तोको नमस्कार ! फगुयश (फल्गुयशस्) नर्तककी पत्नी शिवयशा (शिवयशस्) के द्वारा अर्हन्तोकी पूजाके लिये एक आयागपट बनवाया गया। [EI, II, n° XIV, n° 5] मथुरा-प्राकृत-भन्न । [विना कालनिर्देशका] नमो अरहतो महाविरस । माथुरक-लवाडस[सा]-भयाये-""ताये [आयागपटो] [1] अनुवाद-महावीर अर्हत्को नमस्कार । मथुरानिवासी-लवाड (१) की पती-ताके [दानस्वरूप] यह आयागपट है। [EI, II, n° XIV, n° 8] मथुरा-प्राकृत। [हुविष्फकाल ?] वर्ष ४ अ सिद्ध स ४ नि १ दि २० वारणातो गणातो अर्यहाट्ट कियातो कुलतो वजणगरित [ो शा] - - ब पुश्यमित्रस्य शिशिनि सथिसहाये शिशिनि सिहमित्रस्य सढचरि --- स दाति सहा ग्रहचेटेन ग्रहदासेन - - अनुवाद-सिद्धि हो । चतुर्थ वर्षके ग्रीष्म ऋतुके १ ले महीनेके २० वे दिन, वारणगण, अर्य हाकिय (आर्य हाकीय) कुल, वजणगरी (वज्रनगरी) शाखाके --- पुष्यमित्रकी शिष्या, साथिसिहा (षष्टिसिंहा) की शिष्या, सिहमिन्न (सिहमित्र) की सढचरी (श्राद्धचरी)। [EI, II, n° XIV, n° 117 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख १८ मथुरा-प्राकृत भन्न । [हुविष्ककाल ? ] वर्ष ५ स्य व ५ गृ ४ दि ५ कोट्टिया .... . .. . त[] शाखात [7] वाचकस्य अर्य ... अनुवाद- "के ५ वें वर्षकी ग्रीष्म ऋतुके चौथे महीनेके ५ वे दिन, ..........""कोहिय (गण)... "शाखाके वाचक अर्य. (आर्य)... [FI, II, n° XIV, n° 12] मथुरा-प्राकृत । [कनिष्क स०५] अ. १... १ दे [व] पुत्रस्य का निष्कस्य स ५ हे १ दि १ एतस्य पूर्व [1] य कोट्टियातो गणातो ब्रह्मदासिका [ तो] २.[कुलातो उनागरितो शाखातो सेथि-ह-स्य - T--सेनस्य सहचरिखुडाये दे [व] व. १. पालस्य धि [त ] ." . २. वधमानस्य प्रति[मा] ॥ __अनुवाद'--देवपुत्र कनिष्कके ५ वें वर्षकी हेमन्त ऋतुके १ ले महीनेके १ले दिन, कोहियगण, ब्रह्मदासिका कुल और उच्चनागरी शाखाकी खुदा (क्षुद्रा) ने वर्धमानकी प्रतिमा समर्पित की। यह क्षुद्रा श्रेष्ठी • ... सेनकी पत्नी और देव .... पालकी पुत्री थी। El, I, XLIII, n° 1] १ सिद्धं की पूर्ति करो। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह २० मथुरा - प्राकृत - भग्न | [१] वर्ष ५ अ १. सिद्ध[म् ] स ५ हे १ दि १०२ अस्य [[] पूर्व[]] ये कोट्टि [यातो ] । २. [ग] णातो ब्रह्मदासिकातो उच[]] ना ( क ) रितो २० [ शाखातो ] १. [] गृहात स[-भोगातो... २. स निड (2) स १ • • बोधिला ए वासुदेवा वि २. सर्व-सत् [त्वा] न[म् ] []त-सुख[[] ये । 1 अनुवाद - सिद्धि हो । वर्ष ५, हेमन्तका पहिला महिना, १२ वाँ दिन । इस दिन कोट्टिय गण, ब्रह्मदासिक (कुल), उचेनाकरी ( उच्चानागरी) शाखा, (श्रीगृह ) सम्भोग ..... "के"" ....... (प्रार्थना पर ) सब जीवोंके हित और सुखके लिये ' ***** 1 [IA, XXXIII, p. 36-37, n° 5 ] .... " २१ मथुरा - प्राकृत भन [ ? ] वर्ष ५ तो पतिव पूये कु महिलनस्य शिष्य अगरिकतो [ यह शिलालेख अगरिक के किसी दानका उल्लेख करता है । गरिक महिलनके शिष्य थे। यह दान सं० ५ के वर्ष में, शीतऋतु के चौथे महीने के २० वें दिन किया गया । ] [A Cunningham, Reports III, p 31 n° 3] "ब्रह्मजाति स ५ हे ४ दि २० अस्य · Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख २२ मथुरा --- प्राकृत ! [ बिना कालनिर्देशका ] अ. १. सिद्ध को [हि] यतो गणतो उचेन २. गरितो शखतो ब्रम्हा (ह्मा) दासिअतो ३. कुलनो शिरिग्रिहतो संभोकतो ४. अय्य जेष्टहस्तिस्य शिष्यो अ [र्य्यमि] [हि ] लो ] व. १. तस्य शिष्य []] अर्य्यक्षेर २. [को] बाचको तस्य निर्व ३. न वर [ण] हस्ति [ स्य ] स. १. [च] देवियच धित जय२. देवस्य वधु मोषिनिये २. वधु कुठस्य कथस्य द. १. धम्रप [ति ] ह स्थिरए २. न शोभद्रिक ३ सर्वसत्वन हितसुखये २१ [ El, II, n' XIV, n° 37 ] अनुवाद - कोट्टिय गण, उचेनगरी (उच्चनागरी) शाखा, (और) ब्रह्मदासिअ (ब्रह्मदासिक) कुल, शिरिग्रह संभोग के अय्य जेष्टहस्ति (ज्येष्छहस्तिन् ) के शिष्य अर्थ्य मिहिल ( आर्य मिहिर ) थे; उनके शिष्य वाचक -अर्थ्य are ( आर्य क्षैरक ? ) थे; उनके कहनेसे वरणहस्ती और देवी, दोनोकी पुत्री, जयदेवकी बहू तथा मोषिनीकी बहू, कुठ कथकी धर्मपत्नी स्थिरा दान, सर्व जीवोंके कल्याण और सुखके लिये, सर्वतोभद्रिका प्रतिमा दी गई । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन- शिलालेख संग्रह २३ मथुरा - प्राकृत | [बिना कालनिर्देशका ] ये अ. १ सिद्धम् ॥ २ उ [च्चे ] नागरितो व. १. जेप्टहस्ति [स्य] [गिशो ] अर्य्यं [गा ] ढक [7] [] स्य शिशिनि [ अ ] कोट्टियातो गणातो ब्रह्मदासिकात[]] कुलातो गाखानो - रिनातो स[भ]][गातो] अ [] --- शि[ष्यो] अर्य्यमहलो अजेष्ट [ हस्तिस ] २. शामये निर्वतना । उ [स] जयदासस्य कुटुविनिये दान प्रतिमा वर्मये धीतु [ गुल्हा ] ". अनुवाद- - सफलता प्राप्त हो । अर्थ्य (आर्य ) ज्येष्ठहस्तिके शिष्य अर्थ महल थे । वे कोट्टिय गण, ब्रह्मगसिक कुल, उच्च नागरी शाखा और ' रिन संभोग थे । ज्येष्टहस्तिके एक और शिष्य आर्य गाढक थे । उनकी शिष्या शामाके कहने से गुल्हाने, जो कि वर्माकी पुत्री और जयदासकी पत्नी थी, एक ऋषभदेवकी प्रतिमा समर्पित की। [El, 1, XLIII, n° 14] २४ मथुरा - प्राकृत | [ कनिष्क सं० ७ ] १ [ सिद्धम् ॥ ] महाराजस्य राजातिरास्य देवपुत्रस्य पाहिकणिष्कस्य स० ७ हे १ दि १० ५ एनस्य पूर्वाया अयदेहिक्रियातो २. गणातो अनागभुतिकिया तो कुलातो गणिस्य अर्य्यबुद्धशिरिस्य शिष्यो वाचको अस [न्धि] कस्य भगिनि अजया अगोष्ठ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख अनुवाद-सफलता हो । महाराज, राजाधिराज, देवपुत्र, शाहि कनिकके ७ वें वर्षसे, हेमन्तऋतुके पहले महीनेके १५ वें दिन (अमावस्या) (Lunar day) भय्यौदेहिकीय (आर्य उद्देहिकीय) गण और अर्यनागभुतिकिय (आर्य नागभूतिकीय) कुलके गणी अयं बुद्धिशिरि (मार्य बुद्धनी)के शिष्य वाचक अयं (सन्धि) ककी भगिनी अर्य जया (आर्य जया) भर्य गोष्ठ...... [EI, I, XLIII, n° 19] २५ मथुरा-प्राकृत। [कनिष्क वर्ष ९...] १. सिद्ध महाराजस्य कनिष्कस्य संवत्सरे नवमे मासे प्रथ १ दिवसे ५ अस्य पूर्वाय कोट्टियातो गणातो २. · धव... दिस · न बुद · भ जिमित विकट [यह महत्त्वपूर्ण लेख नव संवत् , पहले महीने (ऋतुका नाम लुप्त है) पाँचवें दिनका है। यह महाराज कनिष्कके राज्यकाल (ईस्वी पूर्व ४८) का है।] [A Cunningham, Reports, III, p 31, n°/4 ] · मथुरा-प्राकृत। [कनिष्कका १५ वाँ वर्ष ] अ. १.... ... स १० ५ गृ३ दि १ अस्या पूर्व [1] य ब. १.... हिकातो कुलातो अर्यजयभूति स. १. स्य शिशीनिनं अर्यसङ्गमिकये शिशीनि ३ द. १. अर्य्यवसुलये [निर्वर्त] न १ सिद्धं' की पूर्ति करो। २ 'मेहिकातो पढ़ो। ३ 'शिशीनिन' पढ़ो। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह अ. २. · 'लत्य धी [तु] F धु' वेणि व. २ · श्रेष्टि त्य] धर्मपत्निये भट्टिासेनस्य स. २. [मातु] कुमरमितयो दन भगवतो प्रि] ." द २ मा सव्वतोभद्रिका [1] ___ अनुवाद-[सफलता हो।] १५वें वर्षकी ग्रीष्म ऋतुके तीसरे महीने के पहले दिन, भगवानकी एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमाको कुमरमिता (कुमारमित्रा) ने [ मेहिक ] कुलके अर्यजयभूतिकी शिष्या अर्य सङ्गमिकाकी शिप्या भयं वसुलाके आटेशसे समर्पित की । कुमारमित्रा"लकी पुनी," की बहू (वधू), श्रेष्ठी वेणीकी धर्मपत्नी और भहिसेनकी माँ थी। __ [El, 1, n° XLIII, No 2] मथुरा-प्राकृत । [हुविष्क?] वर्ष १८ अ. स १० ८ गृ ४ दि ३ [अस्या पु]-[य] [या ] तो गण [तो] ब सभोगातो वच्छलियातो कुलातो गणि द १ वासि जयस्य-तु मासिगिये [१] दान सर्चत [ो भ २. - [ सर्वस ] वा [ न ] सुखाय भवतु । अनुवाद-वर्ष १८ ग्रीष्मऋतुका ४ था महीना, तीसरे दिनके अवसर पर, [कोहि ] य गण,"संभोग, वच्छलिय (वात्सलीय) कुलके गणि... के आदेशसे जयकी (माता) मासिगिका दान एक सर्वतोभद्र [प्रतिमा] के रूपमें किया गया । [E, II, n° XIV, 113] १ वधु' पढो। २ इसे 'कुमारमितये' पढ़ना चाहिये । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख २८ । मथुरा-प्राकृत-भन्न । [हुचिक? ] वर्ष १८ अ.'"प १० [८] व २ दि. १०१ ब. धितु मितशि] रिये भगवती अरिष्टणेमिस्य [वेवर्त ] ? अनुवाद-वर्ष १८, वर्षाऋतुका २ रा महीना, ३१ वां दिन, इस दिन · की पुत्री मितशिरि (? मित्रश्री) के दानके रूपमे भगवान अरिष्टणेमि (अरिष्टनेमि) की...[की प्रतिष्ठा)...... [EI, II, XIV, n° 147 मथुरा-प्राकृत। [कनिष्क सं. १९] - अ. १. सिद्धम् । सं १० ९ व ४ दि १० अस्या पु.... २. यि वाचकस्य अर्यवल " ३. दिनस्य शिष्यो [वाच ] को अर्थमा ... ४. तृदिनः तस्य [नि] वर्त्त [न] व. १ [कोट्टियातो गणातो ठानियातो २. [कुलातो श्रीगृहातो सभोगातो ] ३. [अर्यवेरिशाखातो सु] चि. स. [ल] स्य धय॑पनिये ले... द. दान भगवतो स [न्ति] ...[] तिमा अ. ५ नाश.........तनं ब. ४..." [न] मो अरत्ततान सयलोकुत्त [मानं ] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह · अनुवाद - सिद्धि हो । १९ वें वर्षकी वर्षाऋतुके चौथे महीनेमे, वाचक अवलदिन (बलदत्त ) के शिष्य वाचक अर्थ्य मातृदिनके आदेशले भगवान शान्तिनाथकी प्रतिमा ले की तरफसे अर्पित की गई । यह अर्पण करनेवाली स्त्री सुचिल (शुचिल ) की धर्मपत्नी थी और वह कोट्टिय गण, ठानीय कुल, श्रीगृह सम्भोग तथा अर्थ्य वेरि ( आर्य-वज्र ) शाखाकी थी । सर्व लोकोमे उत्तम ऐसे भर्हतोको नमस्कार हो । [El, 1, n° XLIII, n° 31 २६ ३० मथुरा - प्राकृत | [ कनिष्क वर्ष २० ] अ १ सिद्ध' स [ २० ] गृमा - दि १०५ कोट्टियातो गणतो [3] णियातो कुलतो वेरितो राखतो शिरिकातो व १. [ सभो ]गातो वाचकस्य अर्य्यसघसिहस्य निर्व्वर्त्तना दातिलस्य मति .. २ लस्य कुठुविणिये जयवालस्य देवदासस्य नागादिनस्य च नागदिनय च मातु स १ श्राविका दि २ [ ना] ये दान || ३ वर्द्धमानप्र ४ तिम | अनुवाद - सिद्धि हो । २० वे वर्षकी ग्रीष्मऋतुके १ ले महीने के १५ वें दिन, कोट्टियगण, ठानीय कुल, बेरि (वज्री ) शाखा और शिरिक सम्भोगके वाचक अर्थ्य सघसिह ( आर्य सङ्घसिंह ) के आदेश से श्राविका दीना ( दिन्ना ) की तरफसे वर्धमानकी प्रतिमा [ अर्पित की गई ] । यह Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख दिना दातिल [ की पुत्री ], मातिलकी पत्नी और जयपाल, देवदास, नागदन ( नागदत्त ) तथा नागढ़िना ( नागदत्ता ) की माँ थी । [EL 1, ° XLIV, n° 28 ] २७ ३१ मथुरा - प्राकृतभग्न्न । [हुविष्क सं० २०] अ. १. [ सिद्ध स २० गृ ३ ] ढि [१०] ७ [ ए ]स्य पूर्वाय कोट्टिय[[] तो गणातो ब्रह्मदासियानो कुलातो उच्चे [ नागरितो गा] खातो [ श्री ] गृह [i] तो सभोगातो [ वृहतव ]]चक च गणिन च ज [-मित्र ] स्त्य..... [ ओ ] घस्य शिष्यगणिस्य [ अ ] पालस्य श्र २. अ [द्धच ] रो [ वाच ]कम्य अ[ दत्त ]त्य शिष्यो वाचको असीहा [त ] स्य निव्वर्त्तणा [ ग्वो] हमि [ त ]स्य मानिकरस्य [गी ]-- जयभ[ट्टि] धीतु दात्य---- व १ [लो ] हत्राणियत्स बाधर वधू [ह] ग्गु [देव]स्य धर्म्मपन्निये मित्राये [ दान ].... [ सर्व्व ] स [ त्वान ] हि [तसु ] खाये काक [तेय ]......क्ष २. वाज.... f. 7. अनुवाद - सिद्धि हो । हुविष्कके २० महीनेके १७ वें दिन, वाचक अर्य सीह ( थे, और जो कोट्टियगण, ब्रह्मदासीय कुल, १ 'शिष्य' पढ़ो | रज" 1 वं वर्षकी ग्रीष्मऋतुके तीसरे सिंह ) - जो वाचक दत्तके शिष्य उच्च नागरी शाखा तथा श्रीगृह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह मभोगके थे-की आज्ञासे सब सत्त्वोके सुख और क्ल्यागके लिये, मित्राकी तरफसे । समर्पित की गई । यह मित्रा हग्गु देव (फल्गुदेव) की धर्मपत्नी, लोहेका व्यापार करनेवाले वाधरकी बहू खोट्टमित्रके मानिकर" जयमटिकी पुत्री....... । अर्यदत्त गणी अर्यपालके पादचर थे। अर्यपाल अर्य ओघवे शिष्य थे और अर्य ओघ महावाचक गणी जयमित्रके शिष्य थे। [El, 1 n° LIII, n ] मथुरा-प्राकृत-भन्न । [बिना कालनिर्देशका है, पूर्ववर्ती शिलालेखले ही मिलता-जुलता होनेसे इसका भी समय हुविष्क स. २० है] वाचकत्य दत्तशिप्यस्य सीहत्य नि......" [El, 1, P 333, n* 60] मथुरा-प्राकृत । [हुविष्क सं. २२] १. सिद्ध सब २० . २ नि १ दि त्य पुर्वाय वाचकस्य अर्यमात्रिदिनस्य णि · । २. सत्तवाहिनिये धर्मसोमाये टान !| नमो अरहतान अनुवाद-सिद्धि प्राप्त हो । [हुविष्कके ] २२ वें वर्षकी प्रीष्मके पहले महीनेक दिन, वाचक अर्य-मात्रिदिन (आर्य-मातृदत्त) के आदेशसे यह धर्मसोमाका दान है । धर्मसोमा एक सार्थवाहकी स्त्री थी । अर्हन्तोको नमस्कार हो। [EI, 1, 2 XLIV, n° 29] १ निवर्तना'। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख २९ मथुरा-प्राकृत। [हुविक सं. २२] [सिद्ध सं २० (१) [२] नि २ दि ७ वर्धमानस्य प्रतिमा वारणातो गणातो पेतिवामि[क]... अनुवाद-सिद्धि प्राप्त हो। २२ वें वर्षकी ग्रीष्मके दूसरे महीनेके ७ दिन, वारणा गण, पेतिवामिक [कुल ] की तरफसे वर्धमानकी प्रतिमा [प्रतिष्ठापित की गई। [1, 1, n° XLIII, n"20] ३५ मथुरा-प्राकृत । - [हुविष्क वर्ष २५] अ. १. सवत्सरे पचविशे हेमतम [से ] त्रितिये दिवसे वीशे अस्मि क्षुणे ब. १. कोट्टियतो गणतो ब्रह्मादासिकतो कुलतो उचेनागरितो शाखातो अयवलत्रतस्य शिपो सधि २. स्य शिषिनि ग्रहीं -~-f... - वतन [ना] दिअ [रि] त जभ[क] त्य वधु जयभट्टस्य कुटूविनीय रयगिनिये [बु ]सुय [1] अनुवाद-२५ वें वर्षकी शीतऋतुके तीसरे महीनेके १२ वें दिनके समय रयगिनिने जो नान्दिगिरि (?) के जमककी बहू थी, एक वुसुय' अर्हा --की आज्ञासे समर्पित की । रयगिनि जयभट्टकी पत्नी थी। मर्हा -- सधिकी शिष्या थी । सधि अर्य बलत्रत (बलत्रात ) के शिष्य थे। यह बलत्रात कोष्ट्रिय गण, ब्रह्मदासिक कुल (और) उच्चनागरी शाखाके थे। [E1, 1, XLIII, n° 5] १ यह एक प्रकारकी या तो प्रतिमा है या कोई दान है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन - शिलालेख संग्रह मथुरा - प्राकृत | [ विना कालनिर्देशका, मभवत. हुविष्कके २५ वे वर्षका ] १ उचेनगरितो तो अवस्य शिसिणि अब्रह्म २. अवलत्रतस्य froयो असन्धिस्य परिग्रहे नवहस्तिस्य धिता ग्रहसेनस्य वधु ३. गिवसेनस्य देवसेनस्य शिवदेवस्य च भ्रात्रिन मातु जायये प्रतीमा प्र ४ [ मा ] नस्य सर्व्वसत्वान हितसुखय ॥ अनुवाद - अर्थ ब्रह्म (आर्य ब्रह्म ) [ और ] अर्थ बलव्रत ( आर्य बलत्रात ) के शिष्य अर्थ सन्धि ( आर्य सन्धि ) के ग्रहणके लिये उचेनगरि (उच्चनागरी) शाखाके अर्य चलत्रत ( आर्य वलन्नात ) की शिष्या, जयाने सब जीवोके कल्याण और सुखके लिये वर्धमानकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की । यह जया नवहस्तीकी पुत्री, ग्रहसेनकी बहू तथा शिवसेन, देवसेन और शिवदेव इन तीन भाइयोकी माँ थी । [E], 11, n° XIV, n' 34] ३७ मथुरा - प्राकृत | [हुविष्क वर्ष २९ ] अ महाराज ष्क्स स. २० ९ हे २ दि ३० अम क्षुणे भगवतो वर्धमानस प्रति [ मा] प्रतिष्ठापिता ग्रहह[थ ] स्य धितर सुखिताये वो धिनदि [] व. कुटुविनिये वारणे गणे पुश्यमित्रीये कुले गणिस अर्य [ दत्तस्य शिष्यस्य ] गह [] कि [व] स निर्वर्त [ना] अर[ह] तपुजाये । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख अनुवाद-महाराज • एक के २९ वें वर्षकी शीतऋतुके. दूसरे महीनेके तीसवें दिन, एक विवाहिता बोधिनदि (बोधिनन्दि') की आज्ञासे भगवान वर्धमानकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की गई । बोधिनदि ग्रहहथि (ग्रहहसी) की प्यारी लडकी थी। यह प्रतिष्ठा ग्रहप्रकिव (2) की प्रेरणासे हुई । यह ग्रहप्रकिव आर्य दत्तके जो वारण गण और पुश्यमित्रीय (पुष्यमित्रीय) कुलके थे, गिष्य थे। [El, I, n' XLIII, n° 6] मथुरा-प्राकृत-भग्न । [संभवत' हुविष्क वर्ष २९] अ. १. एकुनती [ग] व. १. अ [२] [ह] तो स. १..... २. वा-- २. [ह, रबल २ प्रतिस-- द १. स्थ म-र- स्य देव [H] त्रस्य ह क्षस्य २. [वा ] मि [क] नगदतत्य शिघो मि [ग क] तेस-- [इस खण्ड-लेखका ठीक ठीक अनुवाद नहीं दिया जा सकता । इतना निश्चित है कि द. १. २ पक्तियाँ हमे महाराज देवपुत्र हुक्ष (हुक या हुविष्क) और एक भिक्षु नगदत्त (नागदत्त) का नाम बताती है । यह भी हो सकता है कि यह लेख द. 1 से शुरू हुमा हो, क्योकि उस पंक्तिमे 'स्ध', 'सिद्ध' का स्थानीय मालूम पड़ता है, तथा उसमे राजाका भी नाम है । इसकी धारा अ. १ हो सकती है । २९ वा वर्ष हुविष्कके राज्यमें आयेगा। [EL, II, n° XIV, n° 26] मथुरा-संस्कृत-भग्न । [काल लुप्त-संभवत. हुविष्कका २९ वा वर्ष] · .... [व] पुत्रस्य हविष्कस्य स ....१ १ 'देवपुत्रस्य' और 'सवत्सरे' पटो। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद- जैन-शिलालेख संग्रह देवपुत्र हुविष्कके .. .. वर्षमें ... [El ll, n° XIV n' 25] मथुरा-प्राकृत । [वर्ष ३. हुविष्ककाल] अ-स ३० १ व १ दि १० अस्म क्षुणे ब १ यातो गणतो [अर्य्य वेरितो शाखनो ठा] णियातो कुलातो वह [ तो] । कुटुम्बिणिये [ ग्र] ह २ [अर्य]-दासस्य निवर्तना बुद्धिस्य वितु देविलस्य शिरिये दाण । [ऊपरके शिलालेखका ठीक क्रम, जी वूल्हरकी सम्मतिमे, इस तरह है.-] [कोटियानो गण [तो ] अर्य्यवेरितो शाखतो ठगणियातो कुलातो वह [ तो ] (१) [गणिस्य ] अर्थ [गो] दासस्य निवर्तना बुद्धिस्य धितु देविलस्य कुटुम्बिणिये ग्रहशिरिये दाण ॥ अनुवाद-३ वे वर्षकी वर्षाऋतुके पहले महीनेके १० वें दिन, बुद्धिकी पुत्री (तथा) देविलकी पत्नी गृहशिरि (गृहश्री )ने, कोहिय गण, अयं वेरि (आर्य वज्री) शाखा, ठाणिय (स्थानीय) कुलके [गणी] आर्य गोदासके आदेशसे दान किया। [EI, II, n° XIV, n° 15] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख ४१ . . . . . .। मथुरा-प्राकृत। [हुविष्क काल ] वर्ष ३२ अ. १. सिद्धम् । सब [स] रे ३० २ हेमन्तमासे ४ दिवसे २ वारणानो गणा यातो [कु] ०?' २. .. .......... ब. १. -णि अर्यनन्दिकस्य निर्वर्तना जितामित्रय[ स्तुि] नन्दिस्य धीतु बुद्धिस्य कुटुम्बिनिये प्रा तारिकत्य-नी f - प्य मातु गन्धिकस्य अरहन्नप्रतिमा सर्वतोभद्रिका । अनुवाद-सिद्धि हो । ३२ वें वर्षकी शीतऋतुके चौथे महीनेके दूसरे दिन, रितुनन्दि (ऋतुनन्दि) की पुत्री, बुद्धिकी पत्री तथा गंधिककी माँ "जितामित्राने, वारण गण "य कुल "मर्य-नन्दिक (आर्यनन्दिक) के आदेशसे एक अर्हन्तकी सर्वतोभद्रिका प्रतिमाकी प्रतिष्ठापना की। ___[EI, II, n° XIV, n° 16] | मथुरा-प्राकृत । [हुविक वर्ष ३५] अ. १. [सिद्ध ] । स ३० [५] व ३ दि १० अस्य [i] पूर्वाया कोट्टियातो गणतो [स्थानि] या [ तो ] कु-- ___व. १. वइरातो ग [] ख []तो गिरिकातो मभोकातो अर्यचलदिनस्य शिशिनि कुमरमिति] • सभवत "प्रातारिकस्य' पढ़ना १ सभवत 'गणानो हट्टियानो' पड़ो। चाहिये। शि०३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂઢ जैन - शिलालेख संग्रह २ तस्य पुत्रो कुम [[]रभटि गधिको तस न प्रतिमा वर्धमा नस्य सगितमखित [व] धित स. १ अ [] २. कुमार३. मित्रा ४ ये द १ २ [त] न [।।] साराश-- आर्य बलदिन ( बलदत्त ) की शिष्या कुमरमित्रा ( कुमारमित्रा ) थी । वह कोट्टिय गण, स्थानीय कुल, बहरा शाखा ( तथा ). शिरिक सभोक (संभोग) की थी । उसका पुत्र कुमारभटि गन्धिक ( तेल, इनका व्यापार करनेवाला ) था । उसने तीक्ष्ण, उज्वल, प्रबुद्ध कुमारमित्राके आदेश से वर्धमानकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की । [El, 1, n° XLIII, n' 7 ] ४३ मथुरा - प्राकृत | [ हुविष्क संवत् ३९ - हस्तिस्तम्भ ] १ महाराजस्य देवपुत्रस्य हुविष्कस्य सं० ३९ २. हे ३ दि० ११ एतय पुर्वये नन्दि विशाल ३ प्रतिष्ठापितो सिवदास श्रेष्ठपुत्रेण श्रेष्ठिना ४. अन रुद्रदासेन अरहतन पुजाये अनुवाद - देवपुत्र महाराज हुविष्क के राज्यमें, सं० ३९ की शीतऋतु के नीसरे महीनेके ११ वे दिन, यह विशाल नन्दी शिवदास श्रेष्ठीके पुत्र आर्य श्रेष्टी रुद्रदासने अर्हन्तोकी पूजाके लिये बनवाया (१८ ई० पूर्व ) । [A Cunningham, Reports, III, p 32-33, n° 9] 1 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख ४४ मथुरा-प्राकृत । [हुविष्क वर्ष ४०] अ. १.-४०-हे-दि १० व. १. ए ति] स्य पू वा य वरणतो ग [ण]स. १. तो आर्य हटिकियतो कुलतो द. १ बजनगरित ] श [] ख [] त [] शि [रि] यत [1] . अ. २ -~~ [ग] तो [द] तिस्य शिशिनिये व. २. महन [न्दि] स्य सढचरिये स. २ बल [वर्म] ये नन्द] ये च शिशिनिये द. २ अ [कक] ये [निर्वर्त्तना ].....। अ. ३. –स्य] धीतु ग्रमि [क] जयदेवस्य वधूये व. ३ . "मिको जयनागस्य धर्मपत्निये सिहदता ये] स. ३... [लथम ]ो 'दन =" अनुवाद-[सिद्धि हो।] ४० वें [वपमें ] शीत ऋतुके......"महीनेके दसवें दिन, सिहदता (सिंहदत्ता) ने एक पापाण-स्तम्भकी स्थापना की। यह सिंहदत्ता ग्रामिक जयनागकी धर्मपत्नी, जयदेव ग्रामिक (गाँवका मुखिया) की बहू (तथा).. • की पुत्री थी। इस पाषाणस्तम्भकी स्थापना वारण गण, आर्य-हाटीकीय कुल, वज्रनागरी शाखा तथा शिरिय संभोगकी अकका (१) के आदेशसे हुई थी। यह अकका नन्दा और बलवर्माकी शिष्या, महनन्दि (महानन्दि) की श्राद्धचरी तथा दति (दत्ती) की शिष्या थी। [E1, 1, n° XLIII, n° 1] - १ पढो "शिलाथभो। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह ४६ मथुरा-प्राकृत-भन्न [हुविक वर्ष ४४] अ मू-नमशर [स] नममहरजस्य हुविक्षस्य सब [स] रे ४०४ हनग [स्य ] मस ३ दिविस २ ए [न] ब. [स्या] पूर्वय [i] . ' गणे अर्थचेटिये कुले हरीतमालकटिय शि] राख .... चिक स्य ] हगिनटिअ शिसो ग ... नागसेणस्य नि .... अनुवाद- स्वस्ति । नमः । प्रतापी (1) महाराज हुविष्कके ४४ वें वर्षकी ग्रीष्म ऋतुके तीसरे महीनेके द्वितीय दिवस, [वारण] गण, अर्य चेटिय (आर्य-चेटिक) कुल, हरीतमालकढि (हरीतमालगढी) शाखाके वाचक हगिनदि (भगनन्दि') के शिष्य आर्य नागसेनके आदेशसे [EI, 1, n° XLIII, n° 9] मथुरा-प्राकृत-भन्न ' [हुविक वर्ष ४५] १. सिद्धम् स ४० ५ व ३] दि १० [७] एतस्य पूर्वा]य......" ये बुद्धिस्य वधुये धर्मवृद्धिस्य अनुवाद-सिद्धि हो। ४५ वे वर्षकी वर्षाऋतुके तीसरे (1) (महीने) के १७ वै दिन, धर्मवृद्धिकी.. • बुद्धिकी बहने...... . . ... . [El, 1, n XLIII, n° 10] मथुरा-प्राकृत। [हुविष्क वर्ष ४७] १. स ४० ७ गृ २ दि २० एतस्य पुर्वय वरणे गणे पेतिवमिके कुले वाचकस्य ओहनदिस्य शिसस्य सेनस्य निवतना सवकस्य Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख ३७ • २. पुषस्य वधुये गिह ं ं ं[ कुटिविनि ][ पुष ] दिन [ स्य ] [ मातु ] र्य अनुवाद- - ४७ वे वर्ष की ग्रीष्मऋतुके २ रे महीनेके २० वें दिन, वरण (वारण) गण, पेतिवमिक ( प्रतिवर्मिक) कुलके वाचक और ओहनदि (ओघनन्दि ) के शिष्य सेनकी प्रार्थनापर पुष (पुण्य) श्रावककी बहू, गिरकी गृहिणी, पुषदिन ( पुष्पदत्त ) की माँ की तरफसे [ यह समर्पित किया गया ] | " [El, 1, n° XLIV, n° 30 ] ४८ मथुरा - प्राकृत — भग्न | [ काल लुप्त, संभवत वर्ष ४७ ] १. सिद्धम् । महाराजस्य राजातिराजस्य २. ओहनन्दिस्य शिष्येण से न अनुवाद - सिद्धि हो । महाराज, नन्दि ) के शिष्य सेनने " १ 'सेनेन' पढ़ो | ******* - राजातिराज ..... ओहनन्दि (भोध ·· १ [El, II n XIV, n° 27] ४९ मथुरा - संस्कृत | [ हुविष्क वर्ष ४७ ] दान देवस्य दधिकर्णदेविकुलकस्य स ४०७ गृ० १ दिवसे २९ अनुवाद - ४७ वें वर्षकी ग्रीष्मऋतु के चौथे महीनेके २९ वे दिन, दधिकर्ण मन्दिर ( या चैत्यालय) के पुजारी (या माली) देविलका दाम । [1A, XXXIII, p 102 - 103, n 13 ] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह ५० मथुरा - प्राकृत - भग्न । [हुविष्क वर्ष ४८ ] १. महाराजस्य हुविष्कस्य स ४०८ हे ४ दि५ २. चमदासिये कुल [ े ] उ [च] ] नागरिय आखाया धर.... अनुवाद - महाराज हुविप्फके राज्यमें, ४८ वें वर्षकी शीतऋतुके चौथे महीनेके ५ वें दिन, ब्रह्मदासिक कुल, उच्चनागरी शासाने धर [ 1A, XXXIII, p 103, n 11] ૩૮ ५१ मथुरा - प्राकृत | [हुविष्ककाल वर्ष ५० १ पण ५० हेमतमासे प• • २ आर्य्यचेरस्य ३ ये युधदिनस्य ४ धित ] ५. पूपबुधिस्य [ इस खण्ड शिलालेखका पूरा अनुवाद सभव नहीं है । काल ५० वाँ वर्ष और शीतऋतुका पहला या पाँचवा महीना है । ] [ El, II, n° XIV, n° 17 ] ५२ मथुरा - प्राकृत - भन्न [हुविकका ५० वा वर्ष ] १ - - ५० (१) हे २ दि १ अस्य पुर्व्वय वरणतो गणतो अय्यभिस्त कुलतो [स] - २. खतो शिरिग्रहतो सभोगतो बहवो वचकच गणिनो च समदि [ अ ] 1 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख ३९ ३..."वस्य दिनरस्य शिशिनि अय्य जिनदसि पणति-धरितय शिशिनि अ . ४. धकरवपणतिहरमसोपवसिनि वुचुस्य धित रज्यवसुस्यधर्म...' ५. [द] विलस्य मतु विष्णु भ] वस्य पिदमहिक विजयशिरिये दन वध......... ६. . ..... .... .. . .. अनुवाद-५० वां वर्ष, शीतऋतुका दूसरा महीना, पहला दिन, इस दिन, वरण (वारण),गण, अव्यभिस्त (1) कुल, सं [कासिया ] शाखा, शिरिग्रह (श्रीगृह) संभोगके महावाचक तथा गणि समदि 'व दिनर की शिप्या अय्य-जिनदसि (आर्य जिनदासी) की आज्ञाको माननेवाली... अय्य धकरव (2) की आज्ञाको धारण करनेवाली विजयशिरि [विजयश्रीने] दानमें वध [मान] अर्थात् वर्धमान की प्रतिमा...... । यह विजयश्री बुबुकी पुत्री, रज्यवसु (राज्यवसु) की धर्मपली, देविलकी माँ (और) विष्णुभवकी नानी थी और इसने एक महीनेका उपवास किया था। [El, II, n° XIV, n° 36] रामनगर-प्राकृत । [ काल? वर्ष ५०] - - वर्ष राजा स्थान ___कहाँ विशेषता रामनगर AS N-W-P-0, दूसरा महीना, शीतऋत. MAnnual report पहला दिन, ब्राह्मी (अहिच्छत्र) 1891-1892, p 3/ लिपि [JRAS, 1903, p 7-14, n° 40] १ वर्मपत्नी पढ़ो। २ वधमान प्रतिमा' या शायद 'प्रतिमा' । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह ४० मथुरा-प्राकृत। [हुविष्क वर्ष ५२] १. सिद्ध' सवत्सर द्वापना ५०२ हेमन्त [मा] स प्रथ-दिवस पचवीश २० ५ अस्म क्षुणे कट्टिया तो गणात[] २ वेरातो शखतो स्थानिकियातो कुलात[ ] श्रीगृहतो सभोगातो वाचकस्यायंघस्तुहस्तिस्य ३ शिष्यो गणिस्यार्थ्यसंगुहस्तिस्य पढचरो वाचको अर्यदिवितस्य नितना शूरस्य श्रम १. णकपुत्रस्य गोट्टिकस्य लोहिकाकारकस्य दान सर्वसत्वान हितसुखायास्तु । ___ अनुवाद-सिद्धि हो। ५२ वे वर्षके शीतऋतुके पहले महीनेके २५ वे दिन, कोट्टिय गण, वेरा (वन्ना) शाखा, स्थानिकिय कुल (तथा) श्रीगृह संभोगके वाचक आर्य घस्तुहस्तिके शिष्य और गणी आर्य मजुहस्तिके श्राद्धचर ऐसे वाचक अर्यदिवितके आदेशसे श्रमणकके पुत्र, शूर लुहार गोटिकने दान दिया। [El, II, n° XIV, n° 18] मथुरा-प्राकृत। [हुविक वर्ष ५४ १.-धम् । सव ५० ४ हेमतमासे चतुर्थे ४ दिवसे १० अ२. स्य पुळया कोट्टियातो [ग] णातो स्थानि [य]तो कुलातो ३. वैरातो शाखातो श्रीगृह [T] तो सभोगातो वाचकस्यार्य ४ ह] स्तहस्तिस्य शिष्यो गणिस्य अर्यमाघहस्तिस्य श्रद्धचरो वाचकस्य अ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख ४१ ५ र्यदेवत्य निर्वर्तने गोवस्य सीहपुत्रस्य लोहिककारकस्य दान ६. सर्वसत्त्वाना हितसुखा एकसरस्वती प्रतीष्ठाविता अवतले रङ्गान[ तैन] ७. मे [1] अनुवाद-सिद्धि हो । ५४ वे वर्पकी शीतऋतुके चौथे महीनेके (शुक्लपक्षके) १० वें दिन, वाचक आर्यदेवकी प्रेरणासे सीहके पुत्र गोव लुहारके दानरूपमें एक सरस्वतीकी (प्रतिमा) प्रतिष्ठापित की गई । आर्य देव कोटियगण, स्थानिय कुल, वैरा शाखा तथा श्रीगृहसंभोगके वाचक आर्य हस्तहस्तिके शिष्य गणि आर्य माघहस्तिके श्रादचर थे। भवतलमे मेरा रङ्गशालीय नृत्य (1)। [El, l, n° XLIII, n21] मथुरा-प्राकृत। [हुविष्क वर्ष ६०] अ. सिद्धम् । म [हा] रा [ज] स्य र [जा] तिराजस्य देवपुत्रस्य हुवष्कस्य स ४० (६०) हेमन्तमासे ४ दि० १० एतस्या पूर्वाया कोट्टिये गणे स्थानिकीये कुले अय्य [वेरि] याण शाखाया वाचकस्यार्यवृद्धहस्ति [स्य] ___ब शिष्यस्य गणिस्य आर्यख[f]स्य पुय्यम[ न ] ......"[स्य] ..[व] तकस्य [क]-सकस्य कुटुम्बिनीये दत्ताये-नधर्मो' महाभोगताय प्रीयताम्भगवानृपभश्री । __ अनुवाद-सिद्धि हो । महाराज, राजातिराज, देवपुत्र हुविष्कके ६० वे वर्षकी शीतऋतुके चौथे महीनेके १० वे दिन, कोट्टियगण, स्थानिकीय कुल (तथा) अयं वेरियो (आर्य-वज्रके अनुयायियो) की शाखाके वाचक आर्य वृद्धहस्तिके शिष्य, गणि मार्य खर्णके आदेशसे "वतके निवासी १ 'दानधर्मों' पढो। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन- शिलालेख संग्रह पकी पत्नी दत्ताने महाभोगता ( महासुख ) के लिये यह दानधर्म किया । भगवान् ऋषभदेव प्रसन्न होवें । [El, 1, n° XLIII, n° 8] ५७ वाचकस्य आतपिको ग्रहबलस्य अनुवाद - वाचक आर्य ककसम्त ( कर्कशघर्षित ) के शिष्य आतपिक ग्रहलके आदेश से | मथुरा - प्राकृत । [हु० सवत् ६२ ] अर्य-ककसघस्तस्य शिष्या निर्वर्तन इस शिलालेखसे मालूम पड़ता है कि किसी मुनिके आदेशसे जैन श्राविका वैहिकाने एक प्रतिमाका दान किया । [1A, XXXIII, p. 105 106, n° 19] ५८ मथुरा - प्राकृत | [हु० वर्ष ६२ ] १. सिद्ध । स ६०२ व २ दि ५ एतस्य पुवय वाचकस्य आयकर्कुहस्थ [ स ] २ वारणगणियस शिपो ग्रहवलो आतपिको तस निवर्तना । अनुवाद - सिद्धि हो । वर्ष ६२, वर्षाऋतुका २ रा महीना, दिन ५, इस दिन, वारणगणके चाचक आय-कर्कुहस्य ( आर्य कर्कशवर्षित) के शिष्य आपिक ग्रहबल थे । उनकी प्रेरणा से at [El, II, n° XIV, ५९ मथुरा - प्राकृत ! n° 19] [ ] वर्ष ७९ अ. १. स ७०९ - ४ दि २० एतस्या पुर्व्वाय कोड़िये गणे वराया शाखाया Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख २. को अयवृधहस्ति अरहतो णन्दि [आ] वर्तस प्रतिम निर्वर्तयति । व.. ... 'भार्यये श्राविकाये [दिनाये ] दानं प्रतिमा बोद्वे थुपे देवनिर्मिते प्र... ... . __ अनुचाद-वर्ष ७९, वर्षाऋतुका चौथा महीना, २० का दिन, इस दिन, कोटियगण (तथा) वडरा (वब्रा) शाखा के वाचक अय-वृधहस्ति (आर्य वृद्धहस्ति) ने दीना [दत्ता] श्राविकाको, जो... की भार्या थी, एक अर्हत् णन्दिआवर्त (नन्द्यावर्त) की प्रतिमाके निर्माणके लिए कहा । दीनाकी यह प्रतिमा देवनिर्मित वोह स्तूपपर प्रतिष्ठित हुई। [El, II, n° XIV, n° 20] मथुरा-प्राकृत-भन्न । । हुविष्क वर्ष ८०] १. [सिध] महरजस्य स ८० हण व १ दि १२ एतस पूर्वाया · ... धितु संघनधि [स्य ] वधुये बलस्य ..." अनुवाद-[स्वस्ति। ] महाराज वासुदेवके ८० वें वर्षमें, वर्षाऋतुके १ ले महीनेके १२ वें दिन,......"की पुत्री, सघनधि (?) की बहू, बलकी ....... .....(अपूर्ण). [El, n° ILIII, n° 24] २. मथुरा-प्राकृत-भन्न । [ ] वर्ष ८१ १. स ८० १ व १ दि ६ एतस्य पुवाय [अ] यिकाजीवाये अते२. बासिकिनिये दताये निवतना । [ग्र) हशिरिये... १ 'प्रतिष्ठापिता'। २ नन्द्यावर्त्त जिसका चिह्न है ऐसे १८ वें तीर्थङ्कर अर्हनाथ भगवान्की प्रतिमा। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह अनुवाद-वर्ष ८१, वर्षाऋतुका १ ला महीना, ६ ठा दिन, इस दिन, अयिका जीवा (आर्यिकाजीवा) की शिप्या दत्ताकी प्रार्थनापर ग्रहशिरि (ग्रहश्री) । [DI, II, n° XIV, n° 21] मथुरा-प्राकृत। [वासुदेव ] वर्ष ८३ १ सिद्ध महाराजस्य वासुदेवस्य स ८० ३ गृ २ दि १०६ एतस्य पूर्वये सेनस्य २ [घि] तु दत्तस्य वधुये व्य "च स्य गन्धिकस्य कुटुम्बिनिये जिनदासिय प्रतिमा ध [ मैदान अनुवाद-सिद्धि हो । महाराज वासुदेवके राज्यमे ८३ वे वर्षकी ग्रीष्मऋतुके दूसरे महीनेके १६ वै दिन, सेनकी पुत्री, दत्तकी बहू , गन्धिक (तेल, इन बेचनेवाले) व्य-च. की पत्नी जिनदासीके पवित्रदानमे एक प्रतिमा ....। [1A, XXXIII, p 107, n° 21] मथुरा-प्राकृत । [हुविष्क वर्ष ८६] १ स ८० ६ हे १ दि १०२ दसस्य धितु पृयस्य कुटुबिनिये २ . [क] तो कुलतो अयस [२] मि [क] य शिशिनिय अयवसुल [ ये ] नि [व] तने [1] अनुवाद-८६ वें वर्षकी शीतऋतुके पहले महीनेके १२वें दिन, दस (दास) की पुत्री, पृय (प्रिय) की पत्नी ... • का दान अर्पित किया गया। यह दान [ मेहि ] क कुलकी अर्य सद्गमिकाकी शिष्या अर्य वसुलाके कहनेसे हुआ। [EL, 1, n° XLIII, n° 12] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { मथुराके लेख ६४ मथुरा - प्राकृत ! [हुविष्क वर्ष ८७ ] [ नं ८०७२] गृ १ दि [ २० १] अ [ स्मि ] क्षुणे उच्चेनागर स्वार्य्यकुमारनन्दिशिष्यत्व मित्रस्य" अनुवाद- -८७ (१) वें वर्ष में ग्रीष्मऋतुके १ ले महीनेके २० ( ? ) चें दिन, उच्च नागरके, कुमारनन्दीके शिष्य, मित्रके ..... [El, 1, n° XLIII, no 13] ६५ मथुरा - प्राकृत -- भग्न | [ वासुदेव ] वर्ष ८७ १. सिद्ध । महाराजत्य राजातिराजस्य शाहिर - वासुदेवस्य २. म ८० ७ हे २ दि ३० एतस्या पुर्वाया अनुवाद - सिद्धि हो । महाराज राजातिराज शाहि वासुदेवके ८७ दें वर्षकी शीतऋतुके २ रे महीनेके तीसवें दिन, [14, XXXIII, p 108, n°22] ६६ ... मथुरा - प्राकृतः भन्न [सं० ९० ] .....17 ... ... १. सब [ ९० ] टुबनिए दिनस्य वधूय २. को तोग [णा ] तो पत्र [ह] [क] ते कुलानो मझमानो शाखा [ तो ] ...सनिकय भतिन्रलाए भिनि शाखा [ यह लेख बहुत टूटा हुआ है। इसमें खास कामको चीज मझमा और प वह क कुलका उल्लेख है । वहक कुल जैन परम्पराका वाहनक या पहवाहणय कुल है । वर्ष ( सं ) ९० है ] [EL, 11, n XIV, n° 22 ] २५ • .. .... Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह ६७ मथुरा-प्राकृत-भन्न । [वर्ष ९३] अ नमो अर्हतो महाविरस्य स० ९० ३ [व] व १. शिष्यस्य ग [णि] स्य [न] न्दिये [नि ] वर्त्तना देवस्य हैरण्यकस्य धितु । २ "f- [भ] - वतो वर्द्धमानप्रतिमा प्रति .... .. पुजा [ये] [[] ___ अनुवाद-अर्हत् महाविर (महावीर) को नमस्कार हो । वर्ष ९३, वर्षाऋतुका (महीना), • के शिष्य गणी नन्दीके आदेशसे [ अर्हत की] पूजाके लिये, हैरण्यक ( सुनार) देवकी पुत्री • ने भगवान् वर्द्धमा. नकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा कराई। [El, II, n° IIV, n° 23]] मथुरा-प्राकृत। [वर्ष ९५] १ [f] सद्ध स ९० ५ [१] नि २ दि १० ८ कोट्टि [य] | तो गणातो ठानियातो कुलातो वइर [T तो गा] खातो अयं अरहं." २ शिशिनि धाम [ था ] ये निर्वर्तन [1] ग्रहदतस्य धि [तु] धनहथि __ अनुवाद-सिद्धि हो । ९५ वे (?) वर्षके ग्रीष्मऋतुके दूसरे महीनेके १८ वें दिन, धामथाके आदेशसे ग्रहदत्तकी पुत्री, धनहथि (धनहस्ती) की पत्नी का [ दान किया गया]। धामथा कोटियगण, ठानिय कुल, वइरा शाखाके अयं अरह [दिन] की शिष्या थी। [ El, 1, n° XLIII, n° 22] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख ६९ मथुरा -- प्राकृत | [ वासुदेव सं० ९८] ] १. सिद्धम् ॥ नमो अरहतो महावीरस्य दे.....रस्य । राज वासुदेवस्य संवत्सरे ९० ८ वर्ष-मासे ४ दिवसे १०१ एतस्या २. पुर्वाये अ-देहिकियातो ग [ जातो ] परिधा [[] सिकातो कुलातो पेतपुत्रिकातो शाखातो गणिस्य अ-देवदत्तस्य न ३. र्य-क्षेमस्य ४. प्रकगिरिण ५. किहदिये प्रज ६." "तस्य प्रवरकस्य घितु वरुणस्य गन्धिकस्य वधूये मित्रस दत्त गा [ ? ] ७. ये... भगवतो महा [ वीर ] स्य । अनुवाद - सिद्धि हो । महावीर भर्हदको नमस्कार हो । राजा वासुदेवके ९८ वे वर्षकी वर्षाऋतुके चतुर्थ महीनेके ११ वे दिन, अ देहि किय (देहिकीय) गण, परिधासिक कुल, प्रेतपुत्रिका (पैतापुत्रिका ? ) शाखाके गणि आर्य देवदत्तके [ आदेशसे ] प्रवरककी पुन्नी, गन्धिक वरुणकी बहू, मित्रस आर्य-क्षेमाका [ दान ] - , भगवान् महावीरको नमस्कार हो । *****... .. .. [1A, XXXIII, p 108 109, n°23] ७० G मथुरा - प्राकृतभग्न । [ सं . ] वर्ष ९८ स. ९० ८ है १ दि ५ अस्म क्षुणे को [ ]ड्डियात[] गणातो १ उचनग" १ 'उचनगरितो गाखातो' । ६ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह अनुवाद-वर्ष ९८ की शीतऋतुके १ ले महीनेके ५ वें दिन, कोट्टिय गण, उचनगरी (उच्चानागरी) [शाखा] . .. . [ER, II, n° XIV, n° 243 मथुरा--प्राकृत। [विना कालनिर्देशका] १. नमो अरहतान सिहकस वानिकस पुत्रेण कोशिकिपुत्रेण २. सिहनादिकेन आयागपटो प्रतियापितो आरहतपुजाये [10] अनुवाद-~अर्हन्तोको नमस्कार हो । वानिक सिहक (सिंहक) के पुन तथा किसी कोशिकी (कौशिकी मा) के पुत्र सिंहनादिक ( सिंहनन्दिक?) के द्वारा एक आयागपटकी प्रतिष्ठा अर्हन्तोकी पूजाके लिये की गई। [DI, II, n° XIV, u° 30] ७२ मथुरा-प्राकृत भग्न। [विना कालनिर्देशका] नमो अरहताना शिवघोपिक स भरि [ या ] ."ना'""ना " अनुवाद -अर्हन्तोको नमस्कार। शिवघोषककी । भार्या [13, II, n° XIV, n° 31]] मथुरा-प्राकृत । [विना कालनिर्देशका] प. १. नमो अरहतान [मल] "णस धितु भद्रयशस वधुये भद्रनदिस भयाये २. अ [चला ]ये आ[ या ]गपटो प्रतियापितो अरहतपुजाये । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन - शिलालेख संग्रह कम बायकस सिसिनिए सादिताए नि अनुवाद - भगवान् वृषभ ( उसभ ) को नमस्कार हो । वारण गण, ..के वाचक ढुककी शिष्या मादिताके नाडिक कुल तथा..... आदेश से " *** मथुरा - प्राकृत | [ विना कालनिर्देशका ] स्थ [i]निकिये कुले गनिस्य उग्गहिनिय शिषो वाचको घोषको आहतो पर्श्वस्य प्रतिमा अनुवाद -- "स्था निकिय (कीय) कुलके गणि ( गणिन् ) उग्गहिनिके शिष्य वाचक घोषकने एक अर्हत् पार्श्वकी प्रतिमा.. [ EI, II, n° XIV, n° 29] ***** *** ८४. मथुरा - प्राकृत - भग्न्न । [ विना कालनिर्देशका ] अ. वर्धमानपटिमा वजरनद्यस्य धिता वाधिशिव १. - - स्य- कुटीविनि दिनाये दाति चडिम [ शि] ये २ [ EI, II, n° XIV, n° 28] ८३ की बहू, f प्रतिमा 806 अनुवाद - "वजनद्य (वज्रनन्दिन) की पुत्री, वाधिशिव ( वृद्धिशिव ? ) की पती दिना ( दत्ता ) के दानके रूपसे एक वर्धमानकी बडिमशिके.. [El, II, n° XIV, n° 33] ... OVA .. .. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुराके लेख ८५ मथुरा - प्राकृत भन्न । [ विना कालनिर्देशका ] अ. तिथे निर्वर्तना व. १. तो गखतो शिरिकनो सभोकतो अ ३. २. धराये निवतना शिवद [ त] नस्य मतु ह [स्त ]........ [El, II, a’ XIV, n 351 [ नोट- निर्वर्तना' और 'निवतना' इन दो शब्दों के एक ही शिलालेख में आ जानेसे एक ही गिलालेख के दो खण्ड माटम पड़ते है और वे सम्बद्ध अर्थ - को व्यक्त नहीं करते है | ] ८६ मथुरा -- प्राकृत । ( विना कालनिर्देशका) १.............ये मोगलिपुतस पुफक्स भवाये ५३ २. असाये पसाटो अनुवाद - किसी मोगली ( माँ माइली विशेष ) के पुत्र, पुफक (पुष्पक) की पती असा ( अश्वा १ ) का दान | [14, XXXIII, p 151, n' 28 ] ८७ राजगिरि - संस्कृत | [ 1 T. Bloch के आकओलोजिकल सर्वे, बङ्गाल सर्किल, वार्षिक रिपोर्ट १९०२, पृ० १६, विश्लेषणमें इस शिलालेखका उल्लेख है । मूलका पता नही है । [AS, Bengal circle, Annual report 1902, p. 16. a ] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह ८८ मथुरा-संस्कृत-भन्न । [सं० २९९] १. नमस्-सर्वसिद्धाना अरहन्ताना | महाराजस्य राजातिराजस्य सवच्छरशते द [-] [तिये नव (१) -नवत्यधिके ।] २. २०० ९० ९ (८) हेमन्तमासे २ दिवसे १ आरहातो महावीरस्य प्रातिमा ३. स्य ओखारिकाये वितु उझतिकाये च ओखाये श्राविका भगिनिय []... . ४ .. • शरिकस्य शिवदिनात्य च एन आराहातायताने स्थापित [1] ..... . .. ५. . . . • देवकुल च । अनुवाद-सब सिद्धो और अर्हन्तोको नमस्कार हो। महाराज और राजातिराजके (९९ से अधिक) दूसरी शताब्दिमें, २९९ (?), शीततुके दूसरे महीने पहले दिन भगवान महावीरकी प्रतिमा अर्हन्मन्दिरमें ... के द्वारा तथा • की पुत्री, ओखरिकाकी उज्झतिका द्वारा, • 'श्राविका भगिनी ओखाके द्वारा, तथा शिरिक और शिवटिन्ना इनके द्वारा स्थापित की गई • साथमें एक जिनमन्दिर भी। [G. Buhler, JR A S, 1896, p_578-581 ] मथुरा-सस्कृत - भन्न [गुप्तकाल वर्ष ५७] संवत्सरे सप्तपञ्चाश ५० ७ हेमन्धनिती....' -से [दि] वसे त्रयोदशे अ-पूर्वाया ... १ 'हेमन्त' और 'तृतीय' या 'तृतीये' पढो । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो मंगलका लेख ५५ अनुवाद - ५७ वें वर्ष, शीतऋतुकी तीसरे महीने के १३ वें दिन, इसदिन.. [El, II, n2 XIV, no 38] ...... नोणमङ्गल - संस्कृत गुप्तकालसे पहिले, संभवतः ३७० ई० का [ नोणमंगलमें ताम्र-पट्टिकाओं पर ] [ १ व ] स्वस्ति नमस् सर्वज्ञाय ॥ जित भगवता गत-धन-गगनाभेन पद्मनामेन श्रीमज् जाह्नवेय-कुलामल व्योमावभासन- मास्करस्य स्व- भुजजबज - जय - जनित सुजन - जनपदस्य दारुणारिंगण - विदारण-रणोपलब्धत्रण-विभूषण - भूपितस्य काण्वायनसगोत्रस्य श्रीमत्कोणिवर्म-धर्ममहाधिराजस्य पुत्रस्य पितुरन्वागत-गुण-युक्तस्य विद्या - विनय - विहित - वृत्तस्य [२ अ ] सम्यक् प्रजा पालन- मात्राधिगत राज्य प्रयोजनस्य विद्वत्कविकाञ्चन-निकपोपल-भूतस्य विशेपतोऽप्यनवशेपस्य नीति-शास्त्रस्य वक्तृप्रयोक्तृकुशलस्य सुविभक्त-भक्त-भृत्यजनस्य दत्तक-सूत्र - वृत्ति-प्रणेतुः श्रीमन्माधववर्म-धर्म महाधिराजस्य पुत्रस्य पितृपैतामह-गुणयुक्तस्य अनेक-चतुर्दन्त-युद्धावाप्त- चतुरुदधि-सलिलात्रादित-यशस समद - द्विरदतुरगारोहणातिशयोत्पन्न-कर्म्मणः श्रीमद् हरिवर्म्म - महाधिराजस्य पुत्रस्य गुरु-गोश्राह्मण- पूजकस्य नारायण चरणानुध्या [ २ ] तस्य श्रीमद्विष्णुगोप- महाधिराजस्य पुत्रेण पितुरन्यागतगुण-युक्तेन त्र्यम्बकचरणाम्भोरुहराज ( ज ) पवित्रीकृतोत्तमाङ्गेन व्यायामोवृत्त-मीन - कठिनभुजद्वयेन स्व- भुज-वल- पराक्रम क्रय-कीत - राज्येन क्षुत् Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह भामोष्ठ-पिसिताशनप्रीतिकर-निसिन-बारासिना श्रीमता माधववर्म-महाधिराजेन आत्मनःश्रेयसे प्रवर्द्धमानविपुलैश्वर्ये त्रयोदशे लवत्सरे फाल्गुने मासे शुक्ल पक्षे तिथौ पञ्चम्या श्रीमद्-वीर-देव-शासनाम्बराबभासन-सहनकरस्य आचार्य्यवीर-देवस्य - [३ अ] निज-कृतान्तपर-शद्वान्त-प्रवीणस्य उपदेशनात मुदुकोत्तूर-विषये पेन्योलल्-प्रामे अढायतनाय मूलखवानुष्टिताय महा-तटाकस्य अवस्तात् द्वादश-खण्डुकावापमात्र क्षेत्र च तोट्ट-क्षेत्र च पटु-क्षेत्र च कुमारपुर-ग्रामथ एतत्सर्व स-सर्व-परिहार-क्रमेणाद्भित्त. योऽस्य लोभात् प्रमादाद्वापि हा स पञ्च-महा-पातक-संयुक्तो भवति अपि चान मनुगीता[ ] श्लोकाः ख-दत्ता पर-दत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् । पष्ठि-वर्ष-सहस्राणि धोरे तमसि वर्तते ॥ (अन्य हमेशाके अन्तिम श्लोक) [इस लेखमै गगकुलके राजाओकी परम्पराक्रोगणिवर्मा, माधववर्मा, हरिवर्मा, विष्णुगोप और माधववर्मा-देकर यह बताया है कि अन्तिम राजाने अपने राज्यके १३ चे वर्षमे, फाल्गुनसुदी पचमीको, आचार्य वीरदेवकी सम्मतिसे, मुटुकोत्तर-देशके पेबावल् गावमे मूलसंधद्वारा प्रतिष्ठापित जिनालयम (उक) भूमि और कुमारपुर गाव दानमे दिये।] ___{EO, X, Kalur ti, n° 73 ] उदयगिरि (साची के निकट )-सस्कृत । [गुप्तकाल १०६ ई. सं० ४२६] Corrected transcript of the facsimile [१] नमः सिद्धेभ्यः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयगिरि( सांची)का लेख ५७ श्रीसंयुताना गुणतोयधीनाम् गुप्तान्वयाना नृपसत्तमानाम् [0 [२] राज्ये कुलस्याभिविवर्द्धमाने पड्र्युिते वर्पगतेऽथ मासे [1] १. सुकार्तिके वहुलदिनेऽथ पञ्चमे [३] गुहामुखे स्फुटविकटोत्कटामिमा [0] जितद्विषो जिनवरपार्श्वसज्ञिकाम् जिनाकृती शमदमवान [४] चीकरत् [३] २ आचार्य-भद्रान्वयभूपणस्य शिष्यो ह्यसावार्यकुलोद्गतस्य [0 आचार्य-गोश [५]र्म भुनेस्तुतस्तु पद्मावत [ स्या श्वपतेर्भटस्य [1] ३. परैरजेयस्य रिपुन्नमानिनम् स सङ्घ [६] लस्येत्यभिविश्रुतो भुवि [1] स्वसज्ञया शंकरनामाद्वितो विधानयुक्त यतिमार्गमास्थितः ॥] ४ स उत्तराणा सो गुरूणा उदग्दिशादेशवरे प्रसूतः ॥ [८] क्षयाय कारिगणस्य धीमान् यदत्र पुण्य तदपाससर्ज [0] ५ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह [इस शिलालेखमे शम-दमवाले किसी व्यक्तिद्वारा पार्श्वनाथ जिनेन्द्रकी प्रतिमाकी कार्तिक वदी पचमीके दिन स्थापनाकी बात है। यह प्रतिमा किसी गुफाके द्वारपर खडी की गई थी। इस प्रतिमाफी स्थापना करने वाला या उमको खड़ा करनेवाला आचार्य गोशर्माका शिप्य था। ये गोगर्मा आचार्य भद्रके वशमें हुए थे, इनकी परम्परा आर्यकुलकी थी और अश्वपति योद्धाके लडके थे। ये अश्वपति सङ्घल (या सिंहल) के नामसे प्रसिद्ध थे और इन्होंने जिनदीक्षा लेने के बाद अपना नाम शंकर रक्खा था।] [इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ११, पृ. ३१०] मथुरा-सत्कृत। [गुप्तकाल, वर्ष ११३] १ सिद्धम् । परमभट्टारकमाहाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्य विजयराज्यस [१०० १०] ३ क... • 'न्तमा "[ढि ]-स २० अस्या ५ [ पूर्वाया ] कोटिया गणा २ विद्याधरी नो] शाखानो दतिलाचाव्यप्रज्ञपिनाये शामाख्याये भट्टि भवत्य वीतु ग्रहमित्रपालि [त] प्रा [ता] रिकम्य कुटुम्विनीये प्रतिमा प्रतिष्ठापिना। __ अनुवाद-सिद्धि हो । परमभहारक महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तके विजयराज्यके ११३ ३ वर्षौ, गीतऋतु महीने ] कार्तिक २० वे दिन, कोहियगण (तथा) विद्याधरी शाखाके दतिलाचार्य (दत्तिलाचार्य) की आज्ञाले शामाल्य (श्यामात्य) ने एक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करवाई । श्यामाय भट्टिमवकी वेटी (और) ग्रहमित्रपालित प्रातारिक (घाटी या नाविक) की पत्नी थी। [EI, II, n° XIV, n° 391 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहायका लेख कहाऍ - संस्कृत [ गुप्तकाल १४९ वां वर्ष = ४६९ ई. स ] ५९ सिद्धम् । [१] यस्योपस्थान भूमिर्नृपतिगतशिर पातवातावधूता [२] गुप्ताना वराजस्य प्रविसृतास्तस्य सर्वोत्तम [ ३ ] राज्ये शक्रोपमन्य क्षितिपातपते. स्कन्दगुप्तस्य शान्ते [ ४ ] वर्षे त्रिंशकोत्तरकशततमे ज्येष्ठमासि प्रपन्ने ॥ १ ॥ [५] ख्यातेऽस्मिन् ग्रामरने ककुभ इति जनैस्साघुनसर्गपूते [६] पुत्रो यत्सोमिलस्य प्रचुरगुणनिधेर्भट्टिसोमो महात्मा [७] मनुरुद्रसोम [:] प्रथुलमतिया व्याघ्र इत्यन्यसज्ञो [ ८ ] मद्रस्तस्यात्मजोऽभूद् द्विजगुरुयतिषु प्राया प्रीतिमान् य. ॥ [९] पुण्यस्कन्ध म चक्रे जगदिदमखिल मसरद्वीक्ष्य भीतो [१०] श्रेयोऽयं भूतभयै पथि नियमवनामनामादिकर्तन [ ११ ] पश्चन्द्रास्थापयित्वा वरणिवरमयान् मन्निखातस्ततोऽयम् [१२] लस्तम्भ सुचारुगिरिवरशिखराम्रोपम कीर्त्तिकर्त्ता ॥ ३ ॥ [ इस गिलालेसमें, जो कि गुप्तकाल के १११ वें वर्षका है, बताया गया है कि किसी भद्र नामके व्यक्तिने, जिसकी कि वशावली यहा उसके प्रपितामह सोमिल तक गिनाई है, अर्हन्तों (तीर्थकरों ) में मुख्य समझे जाने वाले, अर्थात् आदिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्व, और महावीर, इन पांचोंकी प्रतिमानोकी स्थापना करके इस स्तम्भको खड़ा किया । लेखकी ११ वीं पंक्तिके 'पञ्चेन्द्रान' से इन्हीं पांच तीर्थकरोंसे मतलब है । ] [ इण्डियन एण्टिक्वेरी, जिल्द १०, पृ० १२-१२६ ] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैन - शिलालेख संग्रह १४ नोणमंगल - संस्कृत तथा कन्नड़ 1 [ गुप्तकाल से पहिले, समवत [ नोणमगल (लक्कूर परगना ) में, पत्रो परे ] ४२५ (१) ई०] ध्वस्त जैन वस्तिके ताम्र ( १ ) स्रुति जिन भगवता गतधन - गगनामेन पद्मनाभेन श्रीमज् जाह्नवेय- कुलामल- व्योमावभासन - भास्करस्य स्त्र- भुज- जवज-जय-जनित - सुजन - जनपदस्य दारुणारि-गण-विदारण-रणोपलब्ध-वणविभूषण-भूपितस्य काण्पायनस - गोत्रस्य श्रीमत्कोङ्गणिवर्म्म-धर्ममहाधिराजस्य पुत्रस्य पितुरन्वागत -गुण-युक्तस्य विद्या विनयविहित - वृत्तस्य सम्यक् प्रजा-पालन-मात्राधिगत राज्य प्रयोजनस्य विद्वत्-कवि-काञ्चननिकपो [२अ ] पल भूतस्य विशेप्पनोऽप्यनवशेपस्य नीति-शास्त्रस्य वक्तु प्रयोक्तृकुलस्य सुविभक्त-भक्त-नृत्य- जनस्य दत्तक-सूत्र-वृत्तिप्रणेत श्रीमन्माधवव-धर्म्म- महाधिराजस्य पुत्रस पितृपैतामह - गुण युक्तस्य अनेक-चतुर्दन्त-युद्धाचाप्त चतुरुदधि-सलिलाखादितयस समट - द्विरद तुरगारोहणातिशयोत्पन्न- कर्म्मण धनुरभियोगसपद - विपस्य श्रीमद्- हरिवर्म्स - महाधिराजस्य पुत्रस्य गुरु-गो-ब्राह्मणपूजकस्य नारायण-चरणानुव्यातस्य श्रीमद्विष्णुगोप - महाधिराजस्य पुत्रस्य पितुरन्वा [२] गत-गुण-युक्तस्य अम्बक - चरणाम्भोरुह-रज - पविश्रीकृतोत्तमाङ्गस्य व्यायामोदवृत्त - पीन - कठिन- भुज-यस्य स्वभुजवल-परा १ ये ताम्रपत्र जमीनमे मिले हैं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोणमंगलका लेख 1 क्रम क्रयक्रीत -राज्यस्य चिर-प्रनष्ट-देव-भोग-ब्रह्मदेय- नैक सहस्र-विसर्गग्रयण-कारिण. क्षुत्-आमोष्ट- पिसिताशन- प्रीतिकर-निशित-धारासे कलियुग-लावमग्न-धम्मोद्धरण-नित्य-सन्नद्धस्य श्रीमतो माधवव-धर्म-महाधिराजस्य पुत्रेण जननी- देवताङ्क - पर्यङ्क - तले समधिगत- राज्य-विभवविलासेन निज प्रभावाशु चत्रालाखण्डित शत्रु नृपति-मण्डलेनाखण्ड [ अ ] ल-विडम्बि - शौर्य वीर्य्य-यशो-धाम-भूतेन गज-धुरि-हय-पृष्ठे कार्मुके चाद्वितीयेन ललना - नयन-भ्रमरावली - नित्यकृतानुयात्रेण प्रजापरिपालन-कृत- परिकर-बन्धेन कि बहुना इदङ्कलि-युधिष्ठिरेण - श्रीमता कोङ्गुणिव धर्म्म- महाधिराजेन आत्मन श्रेयसे प्रवर्द्धमान विपुलैश्वय्य प्रथमसवत्सरे फाल्गुन मासे शुक्ल पक्षे तिथौ पञ्चम्या सो( खो ) पाध्यायस्य परमार्थतस्य विजयकीर्तेः सकलदिड्मण्डलव्यापिकीर्तेरुपदेशत चन्द्रनन्द्याचार्य - प्रमुखेन मूल सघेनानुष्टिताय उरनूरार्हतायत 1 ६१ [ ३ ] नाय को रिकुन्द - विपये वेनैल्करनिग्रामः पेरूरेवानि अडि गलर्हदायतनाय शुल्क- बहिश्कर्षापणेषु पादश्च देव-भोगक्रमेणाद्भिर्द्दत्त योऽस्य लोभाद् प्रमादाद्वापि हर्त्ता स पश्च- महा पातक-सयुक्तो भवति अपि चात्र मनुगीता श्लोका स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् । पष्टि - वर्प - सहस्राणि घोरे तमसि वर्त्तते भूमि-दानात् पर दान न भूत न भविष्यति । तस्यैव [ ४ अ ] हरणात् पाप न भूत न भविष्यति ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जन-शिलालेख संग्रह ( दो हमेगाके श्लोक ) महाराज -मुखाज्ञात्या मारिषेण त्वङ्कारेण लिखितेय ताम्र-पट्टिका [ EC, X, Malur tl, n° 72. ] अनुवाद - कोङ्गणिव धर्म महाधिराज जाह्नवी (या गंग)कुलके निर्मल आकाश मे चमकनेवाले सूर्य थे; वे काण्वायनसगोत्र के थे । इनके पुत्र Hraaafधर्ममहाधिराज थे, जो एक 'दत्तकसूत्रवृत्ति' के प्रणेता थे । इनके पुत्र हरिवर्मा - महाधिराज थे । इनके पुत्र विष्णुगोप- महाधिराज थे । इनके पुत्र माधववर्म-धर्म महाधिराज थे, जो कलियुगकी कीचड़ में फसे हुए धर्मरूपी बैलको निकालने से हमेशा सन्नद्ध रहते थे I इनके पुत्र कोङ्गणिवर्म-धर्म- महाधिराजने जो कि कलियुगी युधिष्ठिर कहलाते थे, अपने कल्याणकेलिये, अपने बढ़ते हुए राज्यके प्रथम वर्ष फागुन सुदी पञ्चमीको, अपने उपाध्याय परमाईत ( भक्तजैन ) विजयकीर्तिकी सम्मतिसे, मूलसंघके चन्द्रनन्दि इत्यादिके द्वारा प्रतिष्ठापित उरनूर के जैन मन्दिरको कोरिकुन्द - देशसेका वेन्नेल्करनि गाँव दिया था, और पेरूर एवानि अडिगल्के जिनमन्दिरमै बाहरकी चुझीके कार्षापण ( या धन ) का चतुर्थ भाग दिया था । हमेशा शापात्मक ( imprecatory ) श्लोक | महाराज अपने मुँहसे जैसा बोलते जाते थे, मारिषेण स्वट्टकार वैसा ही इन ताम्र-पट्टिकाओपर खोदता जाता था । १ ८० रत्तीके तौलके ताम्बेके सिके, जो प्राचीनतम देशी मुद्राके थे । ( डा० वूल्हरकी Grundress में रैपसनका ' Indian Coins' नामका लेख देखो 1 ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्कराका लेख ८३ मर्करा-संस्कृत तथा कन्नड। [गक ३८४८४६६ ई.] अविनीत कोङ्गणिका मर्करा-पत्र (मर्कराके खजानेमेसे प्राप्त ताम्रपत्रोके अपर) (१ ब ) स्वस्ति जित भगवता गतधनगगनामेन पद्मा(म)नामेन श्रीमद्जाहवीय[कुलामलव्योमावभासनभास्कर. स्वखनेकाहारखण्डितमहाशिलास्तम्भलब्धबलपराक्रमो दारणो(रुणा)रिगणविढारणोपलब्धत्र(त्र)णविभूषणविभूपित काण्वायनसगोत्रस्य १) श्रीमान् कोङ्गणिमहाधिराज ॥ तत्पुत्र पितुरन्यागतगुणयुक्तो विद्याविने(न)यविहितवृत्त. सम्या(म्य)जापालना(न)मात्राधिगतराज्यात्प्र(व्यप्र)योजन विद्वत्कविकाञ्चननिकपोपलभूतो नीतिशास्त्रस्यवक्तृप्रयोक्तूकुशलस्य(2) दत्तकसूत्रवृत्ति.(ते.) प्रणेता(ना) श्रीमान्माधवमहाधिराज ।। तत्पुत्र पितृपतामहा(ह)गुणयुक्तो व(s)नेकचातुर्दृन्तयुद्ध(दा)वाप्तिचतुरुदविसलिलावादितयश श्रीमद् हरिवर्ममहाधिराज ।। तत्पुत्र ॥ द्विजगुरुदेवता.(ता)पूजनपरो नारायणचरणानुद्ध(ध्या)त श्रीमद्विष्णुगोपम (२ अ) हाधिराज ॥ तस्य पुत्र । त्रियम्भ(त्र्यम्ब)कचरणाम्भोरुहराजा (रज.)पवित्रीकृतोत्तमाङ्ग स्वभुजवलपराक्रमक्रियाकृतराज्य कलियुगबलपावसन्नवृपोद्धरणनित्यसन्नद्ध श्रीमान्माधवमहाधिराज ॥ नस्य पुत्र ।। श्रीमद्कदम्बकुलगगनगभस्तिमालिन कृष्णवर्ममहाधिराजस्य प्रिया(य) भागिनेयो विद्याविनय(या)तिस(श)यपरिपूरितान्तरात्म(मा) निरवग्रहप्रया(य)नसायं विद्वन्तु प्रथमगण्य श्रीमान् कोणिमहाधिराज अविनीतनामवेय दत्तस्य देसिग-गण कोण्डकुन्दान्वयगुणचन्द्रभटारशिष्यस्य अभ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन - शिलालेख संग्रह बदणेगुप्पे नामका सुन्दर गाँव दानमें प्राप्तकर भकालवर्ष पृथ्वी वल्लभ के मन्त्रीने शकसंवत्सर ३८८ के माघ महीनेकी शुक्ल पञ्चमी, सोमवारको स्वाति नक्षत्र के समय इसे भेट किया । यह गाँव पूनाडु छः हजारके एडेना सत्तर के मध्यमे अवस्थित है । साथमे १२ 'कण्डुग' प्रत्येक छ. भाश्रित गावोमेसे, तथा पोगरिगेले और पिरिकेरेंमे से भी दिया । ] ९६ हल्सी (जिला बेलगाँव ) – संस्कृत | [ ३० पाँचवी शताब्दिका ( फ्लीट ) ] प्रथम पत्र । [१] नमः ॥ जयति भगवाञ्जिनेन्द्रो गुणरुन्द्र' प्र[थि]त [ परम ] कारुणिक [२] त्रैलोक्याश्वासकरी दयापताकोच्छ्रिता यस्य ॥ परम[३] श्रीविजयपलाशिकाया प्रजासाधारणा [शा] नाम् ॥ दूसरा पत्र, पहली ओर । [ ४ ] कदम्वाना युवराज श्रीकाकुस्थवर्म्मा स्ववैजयिके अशीतितमे [५] सवत्सरे भगवतामर्हताम् सर्व्वभूतगरण्यानाम् त्रैलोक्यनिस्तार [ ६ ] काणाम् खेटग्रामे बढोत्ररक्षेत्र [ म्] श्रुतकीर्तिसेनापतये ॥ दूसरा पत्र, दूसरी ओर 1 [७] आत्मनस्तारणार्थ दत्तवा [न्] [II] तद्यो [हि ] न (ना) स्ति वश्यः [प] रवश्यो वा [८] स पञ्चमहापातकसयुक्तो भवती (ति) [] यो भिरक्षती (ति) तस्य सत्य (सर्व्व, या सत्य सर्व्वे ) गु Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगिरिका लेख [९] णपुण्यावाप्ति: [I] अपि चोक्तम् [1] बहुभिर्वसुधा दत्ता ॥ [१०] [२] जमिस्सगरादिभिः यस्य यस्य य[ढा] भूमि. तस्य तस्य नदा फलम् [1] [११] स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धरा पष्टिवर्पसहन(त्रा) णी (णि) [१२] नरके पच्यते तु सः ।। नमो नमः [I] ऋपभाय नमः ।। [इस लेखमें कदम्ब 'युवराज' काकुस्य (काकुत्स्थ )वर्माके द्वारा श्रुतकीर्ति सेनापतिको दिये गये एक क्षेत्र-दानका उल्लेख है । यह दान खेटग्राम नामक गाँवमें किया गया था।] [इं० ए०, जिलपृ० २२-२४, नं० २०] देवगिरि (जिला धारवाड़) संस्कृत । -[?]सिद्धम् जयत्यहलिलोकेश सर्वभूतहिते रत , रागाद्यरिहरोनन्तोनन्तज्ञानदृगीश्वर खन्ति विजयवैजयन्त्यां खामिमहासेनमातृगणानुद्ध्याताभिषिक्ताना मानव्यसगोत्राणा हारितीपुत्राण(णा) अङ्गिरसा प्रतिकृतखाध्यायचर्चकाना सद्धर्मसदम्बाना कदम्बाना अनेकजन्मान्तरोपार्जितविपुलपुण्यत्कन्ध. आहबार्जितपरमरुचिरहसव' विशुद्धान्वयप्रकृत्यानेकपुरुपपरपरागते जगत्प्रदीपभूते महत्यदितोदिते काकुस्थान्वये श्रीशान्तिवर्मतनयः १ यह पूर्ण विरामका चिह्न फजूल है। २ इन पत्रोंमे यह खास बात है कि जहाँ द्वित्वाक्षरोंका इतना अधिक प्रयोग किया गया है वहाँ 'सत्व' और 'तत्व में त' अक्षर द्वित्व नहीं किया गया। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह श्रीमृगेश्वरवर्मा आत्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे पौपसवत्सरे कार्तिकमासे बहुले पक्षे दशम्या तिथौ उत्तराभाद्रपदे नक्षत्रे वृहत्परलूरे (1) त्रिदशमुकुटपरिघृष्टचारचरणेभ्यः परमाहदे॒वेभ्य. समार्जनोपलेपनाभ्यर्चनभग्नसस्कारमहिमार्थ ग्रामापरदिग्विभागसीमाभ्यन्तरे राजमानेन चत्वारिंशन्निवर्त्तन कृष्णभूमिक्षेत्र चत्वारि क्षेत्रन्निवर्त्तन च चैत्यालयस्य बहि , एक निबत्तन पुष्पार्थ ठेवकुलस्याङ्गनञ्च एकनिवर्त्तनमेव सर्वपरिहारयुक्त दत्तवान् महाराज । लोभादधर्माद्वा योस्यामिह स पचमहापातकसयुक्तो भवति योस्याभिरक्षिता स तत्पुण्यफलभाग्भवति । उक्तञ्च बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धरा । षष्टिं वर्षसहस्त्राणि नरके पच्यते तु स.॥ अद्भिर्दत्त त्रिभिर्मुक्त सद्भिश्च परिपालितम् । एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराजकृतानि च ॥ ख दातु सुमहच्छक्य दुःखमन्यार्थपालन । दान वा पालन वेति दानाच्छ्योनुपालनम् ॥ परमधार्मिकेण दामकीर्तिभोजकेन लिखितेय पट्टिका इति सिद्धिरस्तु ॥ [इ० ए०, जिल्द ७, पृ० ३५-३७, न ३६ ] [यह पत्र श्रीशान्तिवाके पुत्र महाराज श्री 'मृगेश्वरवर्मा' की तरफसे लिखा गया है, जिसे पत्रमें काकुस्था(स्था)न्वयी प्रकट किया है, और इससे ये कदम्बराजा, भारतके सुप्रसिद्ध वशोंकी दृष्टिसे, सूर्यवंशी अथवा इक्ष्वाकु १ व्याकरणकी दृष्टि से यह वाक्य विलकुल शुद्ध नहीं मालम होता। २ यह पद्य मिस्टर फ्लीटके शिलालेख न० ५ में मनुका ठहराया गया है। आमतौरपर यह व्यासका माना जाता है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगिरिका लेख वंशी थे, ऐसा मालूम होता है। यह पत्र उक्त मृगेश्वरवर्माके राज्यके तीसरे वर्ष, पीपं (?) नामके संवत्सरमे, कार्तिक कृष्णा दशमीको, जबकि उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र था, लिखा गया है । इसके द्वारा अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भन्मसंस्कार (मरम्मत) और महिमा (प्रभावना)इन कामोंके लिये कुछ भूमि, जिसका परिमाण दिया है, भरहन्तदेवके निमित्त दान की गयी है। भूमिकी तफसीलमें एक निवर्तनभूमि खालिस पुप्पोके लिये निर्दिष्ट की गई है। प्रामका नाम कुछ स्पष्ट नहीं हुआ, 'बृहत्परलूरे' ऐमा पाठ पढ़ा जाता है । अन्त में लिसा है कि जो कोई लोभ या अधर्मसे इस दानका अपहरण करेगा वह पंचमहापापोंसे युक्त होगा और जो इसकी रक्षा करेगा वह इस दानके पुण्य-फलका भागी होगा । साथ ही इसके समर्थनमे चार श्लोक भी 'उक्त' च रूपसे दिये है, जिनमेंसे एक श्लोकमें यह बतलाया है कि जो अपनी या दूसरेकी दान की हुई भूमिका अपहरण करता है वह साठ हजार वर्ष तक नरकमे पकाया जाता है, अर्थात् कष्ट भोगता है। और दूसरेमें यह सचित किया है कि स्वयं दान देना आसान है परतु अन्यके दानार्थका पालन करना कठिन है, अत. दानकी अपेक्षा दानका अनुपालन श्रेष्ठ है। इन 'उक्तं च श्लोकोके वाद इस पत्रके लेसकका नाम 'दामकीर्ति भोजक' दिया है और उसे परम धार्मिक प्रकट किया है। इस पत्रके शुरुम अर्हन्तकी स्तुतिविषयक एक सुन्दर पद्य भी दिया हुआ है जो दूसरे पत्रोके शुरूमे नहीं है, परंतु तीसरे पत्रके बिल्कुल अन्तमे जरासे परिवर्तनके साथ जरूर पाया जाता है। देवगिरि (जिला-धारवाड़)-सस्कृत -[?]सिद्धम् ।। विजयवैजयन्याम् खामिमहासेनमातृगणानुद्याताभिषि १ साठ सवत्सरोंमे इस नामका कोई सवत्सर नहीं है । सम्भव है कि यह किसी सवत्सरका पर्याय नाम हो या उस समय दूसरे नामोंके भी सवत्सर प्रचलित हों। २ यह और आगेके लेख न० ९८ और १०५ जैनहितैषी, भाग १४, अङ्क ७-८, पृ० २२८-२२९ से उद्धृत किये है।' Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन-शिलालेख संग्रह क्तस्य मानव्यसगोत्रस्य हारितीपुत्रस्य प्रतिकृतचर्चापारस्य विबुधप्रतिविम्बाना कदम्बाना धर्ममहाराजस्य श्रीविजयशिवमृगेशवर्मणः विजयायुरोग्यैश्वर्यप्रवर्द्धनकर संवत्सरः चतुर्थः वर्षापक्षअष्टम तिथि पौर्णमासी अनयानुपूर्व्या अनेकजन्मान्तरोपाजितविपुलपुण्यस्कधः सुविशुद्धपितृमातृवश. उभयलोकप्रियहितकरानेकशास्त्रार्थतत्वविज्ञानविवेच्च (१) ने विनिविष्टविशालोदारमतिः हस्त्यश्वारोहणप्रहरणादिषु व्यायामिकीषु भूमिषु यथावत्कृतश्रम' दक्षो दक्षिण नयविनयकुशलः अनेकाहबाजितपरमदृढसत्व उदात्तबुद्धिधैर्यवीर्य्यत्यागसम्पन्न सुमहति समरसङ्कटे स्वभुजबलपराक्रमावाप्तविपुलैश्वर्य सम्यक्प्रजापालनपर. स्वजनकुमुदवनप्रबोधनगशाङ्क देवद्विजगुरुसाधुजनेभ्य गोभूमिहिरण्ययनाच्छादनान्नाटिअनेकविधढाननित्य विद्वत्सुहृत्स्वजनसामान्योपभुज्यमानमहाविभव आदिकालराजवृत्तानुसारी धर्ममहाराज कदम्बाना श्रीविजयशिवमृगेशवा कालवङ्गग्राम त्रिधा विभज्य दत्तवान् । अत्र पूर्वमर्हच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवासिभ्य भगवदर्हन्महाजिनेन्द्रदेवताभ्य एको भाग , द्वितीयोहत्प्रोक्तसद्धर्मकरणपरस्य श्वेतपटमहाश्रमणसंघोपभोगाय, तृतीयो निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघोपभोगायेति । अत्र देवभाग धान्यदेवपूजावलिचरुदेवकर्मकरभग्नक्रियाप्रवर्त्तनाद्यर्थोपभोगाय । एतदेव न्यायलब्ध देवभोगसमयेन योभिरक्षति स तत्फल भाग्भवति, यो विनाशयेत् स पचमहापातकसयुक्तो भवति । उक्तश्च-बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिमि यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फल । नरवरसेनापतिना लिखित । [इ० ए०, जिल्ट ७, पृ० ३७-३८, नं० ३७] १ इन प्रतिलिपियोंमे विसर्ग उस चिह्नके स्थानमे लिखा गया है जो कण्ठ्यवर्गा ( Gutturals) से पहले विसर्गकी जगह प्रयुक्त हुआ है। २'देवभाग समयेन' शुद्ध पाठ मालम पटता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगिरिका लेख [यह दानपर परम्रो धर्ममहाराज 'श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा' की तरफसे लिया गया है और इसके लेगक है 'नरपर' नामके सेनापनि । लिसे जानेका समय शतुधमंयासर, पी (नु) का आटा पक्ष और पौर्णमासी तिथि है। इस पनके द्वारा काला' नामक ग्रामको तीन भागोंमे विभाजित करके इस तरापर यौट दिया है कि पहला एक भाग तो अईन्चाला परमपुप्पल स्थाननियामी भगवान आईन्महाजिनेन्द्रदेवताके लिये, दुसरा भाग आरमोक्त मर्माचरणसे तरपर वेताम्बरमहाश्रमणमंधके उपभोगके लिये और तीसरा भाग निग्रन्थमहाश्रमणसंघके उपभोगके लिये । साथ ही, देवमागके सम्बन्धम या विधान किया है कि वर धान्य, देवपूजा, बलि, घर, देवकर्म, पर, भग्नफिया प्रवर्तनादि भोपभोगके लिये है, और यह स्य न्यायलब्ध है । अन्तमें इस दानके अभिरक्षकको यही दानके फलका भागी और पिनासकको पच महापापोंसे युक्त होना यतलायाहं, जैसाकि नं० ९० के दानपत्र में उलेखित है। परतु यहाँ उन चार 'उक्त च' लोकोमेंसे सिर्फ पहलेका एक श्लोक दिया है जिसका यह अर्थ होता है कि, इस पृथ्वीको सगगदि यहुतले राजाओने भोगा है, जिस समय जिस-जिसकी भूमि होती है उस समय उसी-उसीको पल लगता है। इस परम 'चतुर्य' संवरपरके उलेखसे यद्यपि ऐसा भ्रम होता है कि यह दानपन भी उन्हीं मृगेश्वरवर्माका है जिनका उल्लेस पहले नम्बरके पत्र (जि० ले. नं. ९७) में भयात् जिन्होने पूर्वका (न. ९७) दान. पत्र लिखाया था और जो उनके राज्यके तीसरे वर्पमे लिसा गया था, परंतु यह भ्रम ठीक नहीं है। कारण कि एक तो 'श्रीमृगेश्वरवर्मा' और 'श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा' इन दोनो नामोंमे परस्पर बहुत बडा अन्तर है; दूमरे, पूर्व के पत्र में 'भारमन. राज्यस्य तृतीये वर्षे पीप सवत्सरे' इत्यादि पदोके हारा जैसा स्पष्ट उल्लेख किया गया है वैसा इस पत्रमें नहीं है। इस पत्रके समय-निर्देशका ठग बिलकुल उससे विलक्षण है । 'संवत्सर चतुर्थ., वर्षा पक्षः अष्टम, तिथि पौर्णमासी,' इस कधनमे 'चतुर्थ' शब्द संभवत ६० संवत्सरोमेसे चौथे नम्बरके 'प्रमोद' नामक संवत्सरका द्योतक मालम होता है, तीसरे, पूर्वपन्नमें दातारने बड़े गौरवके साथ अनेक विटोपोंसे युक्त जो अपने 'काकुत्स्यान्वय' का उल्लेख किया है और साथ ही अपने पिताका नाम Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन - शिलालेख संग्रह भी दिया है, वे दोनो बाते इस पत्र नहीं है जिनके, एक ही दाता होनेकी हालत में छोड़ दिये जाने की कोई वजह मालुम नहीं होती; चीये, इस पनसे अन्तकी स्तुतिविषयक मंगलाचरण भी नहीं है, जैसाकि प्रथम पत्रमें पाया जाता है; इन सब बातोंसे ये दोनो पत्र एक ही राजाके मालूम नहीं होते । इस पत्र न. ९८ मे श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के जो विशेषण दिये है उनसे यह भी पता चलता है कि, यह राजा उभवलोककी दृष्टिसे प्रिय और हितकर ऐसे अनेक शास्त्रो के अर्थ तथा तच्वविज्ञानके विवेचनमें बढ़ा ही उदारमति था, नय-विनयमे कुशल था और ऊँचे दर्जेके बुद्धि, धैर्य, वीर्य, तथा त्याग युक्त था । इसने व्यायामकी भूमियोंमें यथावत् परिश्रम किया था और अपने भुजबल तथा पराक्रमसे किसी बडे भारी संग्राम में विपुल ऐश्वर्यकी प्राप्ति की थी, यह देव, हिज, गुरु और साधुजनों को नित्य ही गौ, भूमि, हिरण्य, दायन ( शय्या ), आच्छादन ( ख ) और अन्नादि अनेक प्रकारका दान दिया करता था। इसका महाविभव विद्वानों, सुहदों और स्वजनो के द्वारा सामान्यरूपसे उपभुक्त होता था; और यह आदिकालके राजा (संभवत: भरतचक्रवर्ती) के वृत्तानुसारी धर्मका महाराज था । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायोके जैनसाधुओको यह राजा समानदृष्टिसे देखता था, यह बात इस दानपत्रसे बहुत ही स्पष्ट है । ] हल्सी - संस्कृत | -[2] स्वस्ति ॥ जयति भगवाञ्जिनेन्द्रो गुणरुन्द्रप्रथितपरमकारुणिक. त्रैलोक्याश्वासकरी दयापताकोच्छ्रिता यस्य [1] कदम्ब कुलसत्केतोः हेतो पुण्यैकसम्पदाम् श्रीकाकुस्थनरेन्द्रस्य सूनुर्भानुरिवापर. [II] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हल्सीके लेख श्रीशान्तिवरवम्र्मेति राजा राजीवलोचनः खलेन वनिताकृष्टा येन लक्ष्मीपिद्गृहात् [1] तत्प्रियज्येष्ठतनय. श्रीमृगेशनराधिपः । लोकैकधर्मविजयी द्विजसामन्तपूजित: [1] मत्वा दान दरिद्राणा महाफलमितीव य. खय भयदरिद्रोऽपि शत्रुभ्योऽदामहामयम्' [1] तुगगनकुलोत्सादी पल्लवप्रलयानल' खार्यके नृपतौ भक्त्या कारयित्वा जिनालयम् [1] श्रीविजयपलाशिकाया यापनि(नी)यनिर्ग्रन्थकूर्चकानां स्ववैजयिके अष्टमे वैशाखे संवत्सरे कार्तिकपौर्णमास्याम् । मातृसरित आरभ्य आ इङ्गिणीसङ्गमात् राजमानेन त्रयस्त्रिशनिवर्तन ।श्रीविजयवैजयन्तीनिवासी दत्तवान् भगवद्भ्योहद्भय []तत्राज्ञाप्ति । दामकीर्तिभोजकः जियन्तश्चायुक्तक सर्वस्यानुष्टाता इति [] अपि च-उक्तम् [] बहुभिर्वसुधा दत्ता राजभिस्सगरादिभि. यस्य यस्य यदा भूमि तस्य तस्य तदा फलम् [1] खदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् पष्ठिवर्षसहस्राणि कुम्भीपाके स पच्यते [1] सिद्धिरस्तु । [यह दानपत्र शान्तिवर्माके ज्येष्ठ पुत्र राजा मृगेशवर्माका है । उन्होने १ हमारी रायमें यह पाठ 'दान्महाभयम्' ऐसा होना चाहिये। २ यह और आगे का १०३ वाँ शिलालेख (ताम्रपत्र) 'अनेकान्त', वर्ष ७, किरण १-२, पृष्ठ ८-९ से लिया है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह स्वर्गगत राजा (शान्तिवर्मा) को भक्तिसे पलाशिका नामक नगरमें जिनालय निर्माण कराके अपनी विजयके आठवें वर्षमें यापनीयों, निर्ग्रन्यो और कूर्चकोंके लिये भूमि दान किया है । यहाँ कुर्चक सम्प्रदाय दिगम्बर सम्प्र. दायका ही एक भेद मालूम पढता है। [इ० ए०, जिन्ट ६, पृ० २४-२५] । हल्सी-सस्कृत। -[१] प्रथम पत्र [१] जयति भगवाजिनेन्द्रो गुणरुन्द्रः प्रथितपरमकारुणिकः त्रैलोक्या [२] श्वासकरी दयापनाकोच्छूिना यस्य । खामिमहासेनमातृगणानु[३] ध्याताना मानव्यसगोत्राणा हारितीपुत्राणा प्रतिकृतस्वाध्याय च [र्चा - दूमग पत्र, पहिली मोर । [४] पारगाणाम् स्वकृतपुण्यफलोपभोक्तृणाम् स्वबाहुवीर्योपार्जि[५] तैश्वर्यभोगभागिनाम् सद्धर्मसतम्बाना कदम्बानाम् ॥ काकुस्थ[६] वर्मनृपलब्धमहाप्रसाद सभुक्तवाञ्छूतनिधिश्श्रुतकीर्तिभोजः ___ दूसरा पन, दूसरी ओर। [७] ग्राम पुरा नृषु वर पुरुपुण्यभागी खेटाहक यजनदानटयो[८] पपन्नः ॥ तस्मिन्वयाते शान्तिवमविनीश मात्रे धार्थ दत्तवान् दा[९] मकीर्त. भूमौ विख्यातस्तत्सुतश्श्रीमृगेशः पित्रानुज्ञात धाम्मि को ढान - १ देखो अनेकान्त, वर्ष ७, किरण १-२, पृष्ठ ७-८, में श्री प. नाथूरामजी प्रेमीका 'पूर्चकोमा सम्प्रदाय' नामक लेख । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हल्सीके लेख तीसरा पत्र; पहली ओर । [१०] मेव | श्रीदामकीर्त्तेरुरुपुण्यकीर्त्तः सद्धर्म्ममार्गस्थितशुद्ध बुद्धेः ज्याया [११] सुतो धर्म्मपरो याखी विशुद्धबुद्धया (द्वय) ङ्गयुतो गुणाद्य. आचार्यैन्धु ७५ [१२] पेणाह्रै निमित्तज्ञानपारगै स्थापिनो भुवि यद्वा श्रीकीर्ति[ १३ ] कुलवृद्धये [ ।। ] तत्प्रसादेन लब्धश्री ढानपूजाक्रियोद्यत गुरुतीसरा पत्र दूसरी ओर । [१४] भक्तो विनीतात्मा परात्महितकाम्यया । जयकीर्त्तिप्रतीहार प्रसादान्नृप [ १५ ] ते रवेः पुण्यार्थ् खपितुर्म्मात्रे दत्तवान् पुरुखेटकं ॥ जिनेन्द्रमहिमा [ १६ ] कार्य्या प्रतिसवत्सर क्रमात् अष्टाहकृतमर्यादा कार्त्तिक्या न्तद्धना [१७] गमात् वार्षिका श्वतुरो मासान् यापनीयास्तपखिन' भु[ जीरस्तु ] चतुर्थ पत्र; पहली ओर । [१८] ययान्याय्य महिमाशेषवस्तुकम् [ ॥ ] कुमारदत्तप्रमुखा हि सूरयः [ १९ ] अनेकशास्त्रागमखिन्नबुद्धयः जगत्यतीतास्सुतपोधनान्विताः गणो [२०] स्व तेपा भवति प्रमाणतः ॥ धर्मेप्सुभिर्जानपदैत्सनागरै [२१] जिनेन्द्रपूजा सतत प्रणेया इति स्थितिं स्थापितवान् रवीशः पला [ शिका ] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैन-शिलालेख संग्रह चतुर्थ पत्र; दूसरी ओर। [२२] या नगरे विशाले ॥ स्थित्यानया पूर्वनृपानुजुष्टया यत्ताम्र पत्रेषु नि[ २३ ] बद्धमादौ धर्माप्रमत्तेन नृपेण रक्ष्य संसारदोष प्रविचार्य्य [२४] बुद्ध्या [11] बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिभिः यस्य यस्य [२५] यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ खदत्ता परदत्ता वा यो हरेत पञ्चम पत्र [२६] वसुन्धरा पाष्ट वर्षसहस्राणि नरके पच्यते भृशम् || अद्भि दत्त त्रिभि[२७] भुक्त सद्भिश्च परिपालितम् एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराज कृतानि च [] [२८] यस्मिञ्जिनेन्द्रपूजा प्रवर्त्तते तत्र तत्र देशपरिवृद्धि. [२९] नगराणा निर्भयता तद्देशवामिनाञ्चोजी ।। नमो नमः [1] [ई० ए० जिल्द ६, पृ० २५-२७, न. २२] [यह लेख जैनधर्मका 'अष्टाह्निका' नामका उत्सव मनानेके लिये रविवा और अन्य लोगो द्वारा दिये गये दानो और हुक्मोका उल्लेख करता है। इसमे कदम्बोके राजा काकुस्थ (काकुत्स्थ )वर्मा का, उसके बाद शान्तिवर्मा, तत्पश्चात् श्री मृगेश (वर्मा) का और अन्तमे रविवर्माके दानका वर्णन है। जिस गांव का दान दिया गया उसका नाम है पुरुखेटक । १ मि० राइस इसको 'पद्दभिश्च प्रतिपालितम् ' पढते है और उसका अर्थ 'छ: पीढियोंतक जानेवाला' दान करते हैं। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हल्सीके लेख GO हल्सी-संस्कृत। -[?] प्रथम पत्र । [१] जयति भगवाञ्जिनेन्द्रो गुणरुन्द्रः प्रथितपरमकारु. [२] णिकः त्रैलोक्याश्वासकरी दयापताकोच्छ्रिता यस्य ॥ [३] श्रीविष्णुवर्मप्रभृतीन्नरेन्द्रान् निहत्य जित्वा पृथिवीं समस्तिा] [४] उत्साद्य काञ्चीश्वरचण्डदण्डम् पलाशिकाया समवस्थितस्सः॥] द्वितीय पत्र, पहली ओर । [५] रवि कदम्बोरु कुलाम्बरस्य गुणाशुभिर्व्याप्य जगत्समस्ति [६] मानेन चत्वारि निवर्त्तनानि ददौ जिनेन्द्राय महीम् महेन्द्रः [1] [७] संप्राप्य मातुश्चरणप्रसाद धर्मेकमूर्तेरपि दामकीतः [८] तत्पुण्यवृद्धयर्थमभून्निमित्तम् श्रीकीर्तिनामा तु च तत्कनिष्ठ []] दूसरा पन्न, दूसरी ओर। [९] रागात्प्रमादादथवापि लोभात् यस्तानि हिस्यादिह भूमि[१०] पाल• आसप्तम तस्य कुल कदाचित् नापति कृत्स्नान्निरया निमग्नम् [I] • [११] तान्येव यो रक्षति पुण्यकाइ खबशजो वा परवशजो वा [१२] स मोदमानस्सुरसुन्दरीभिः चिर सदा क्रीडति नाकपृष्ठ [1] तीसरा पत्र। [१३] अपि चोक्त मनुना [1] बहुभिर्वसुधा दत्ता राजमिस्सगरा दिभिः [१४] यस्य यस्य यदा भूमि तस्य तस्य तदा फलम् ।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह [१५] खदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् [१६] पष्ठिवर्षसहस्राणि निरये स विपच्यते ॥ [ इस लेख मे रविवर्मा के द्वारा जिनेन्द्रदेव के लिये दिये गये एक भूमि-दानका उल्लेख है । दान की गई भूमि नापमें ४ निवर्तन थी, दामकीर्ति, जो कि धर्ममूर्ति थे, की माता के चरणोका प्रसाद पाकरके ही यह राजा दानमे प्रवृत्त हुआ । दामकीर्ति के छोटे भाईका नाम श्रीकीर्त्ति था। रविवर्मा पलाशिका में रहते थे । इन्होंने श्रीविष्णुवर्मा ( संभवत. 'विष्णुगोप' या 'विष्णुगोपवर्मा' नामका पल्लव राजा) और दूसरे अन्य राजाओका वध किया था, समस्त पृथ्वीको जीता था और कालीश्वरके चण्डदण्डका उत्सादन ( निर्मूलन ) किया था । ] [ इ० ए०, जिल्द ६, पृ० २९-३०, न० २४] I १०२ हल्सी - संस्कृत । -[?] प्रथम पत्र । ७८ स्वस्ति ॥ जयति भगवाञ्जनेन्द्र गुणरुन्द्र प्रथितपरमकारुणिक त्रैलोक्याश्वासकरी दयापताकोच्छ्रिता यस्य ॥ श्रीमत्काकुस्थराजप्रियहिततनयश्शान्तिवर्म्मावनग तस्यैव ज्येष्ठः प्रथितपृथुयगा श्रीमृगेशो नरेशः || (I) दूसरा पत्र, पहली ओर । तत्पुत्रो दीप्ततेजा रविनृपतिरभूत्सवधैय्र्यार्जितश्रीः ताता भानुवर्मा खपरहितकरो भाति भूप ( .) कनीयान् ॥ तेनेय वसुधा दत्ता जिनेभ्यो भूतिमिच्छता । पौर्णमासी प्यनुच्छिद्य स्त्रपनार्थ हि सर्व्वदा || पलाशिकायाम् कर्द्दमपट्यां राजमानेन Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन-शिलालेख संग्रह हल्सी-संस्कृत। -[?]सिद्धम् ॥ स्वस्ति खामिमहासेनमातृगणानुध्याताभिषिक्तानाम् 'मानव्य-सगोत्राणाम् हारितीपुत्राणाम् प्रतिकृतस्वाध्यायचच्चिकानाम् कदस्मा(म्बा)नाम्महाराज: श्रीहरिवा बहुभवकृतैः पुण्यै राजश्रिय निरुपद्रवाम् प्रकृतिषु हित प्राप्तो व्याप्तो जगद्यगसाखिलम् श्रुतजलनिधि विद्यावृद्धप्रदिष्टपथि स्थित. खवलकुलिगाघातोच्छिन्नद्विपद्वसुधाधर [॥ ] स्वराज्यसवत्सरे चतुत्थें फाल्गुणशुक्लत्रयोदश्याम् उच्चशृङ्ग्याम् सर्वजनमनोहादवचनकर्मणा सपितृव्येण शिवरथनामधेयेनोपदिष्टः पलाशिकायाम् भारद्वाज-सगोत्रसिंहसेनापतिसुतेन मृगेशेन कारितस्याहदायतनस्य प्रतिवर्पमाष्टाहिकमहामहसततच (7) रूपलेपनक्रियायं तदवशिष्ट सर्वसंघभोजनायेति सुद्दि (2) लि कुन्दूरविषये वसुन्तवाटकं सर्वपरिहारसयुतं कूर्चकानाम् वारिषेणाचार्यसङ्घहस्ते चन्द्रक्षान्तं प्रमुख कृन्त्रा दत्तवान् [1] य एव न्यायतोभिरक्षति स तत्पुण्यफलभाग्भवति []] यश्चैन रागद्वेपलोभमोहैरपहरति स निकृटतमा गतिमवाप्नोति [I] उक्तञ्च स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् षष्टिं वर्षसहस्राणि नरके पच्यते तु स [1] बहुभिर्व्वसुधा मुक्ता राजमिस्सगरादिभिः यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् [10] इति Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हल्सीके लेख वर्धता वर्धमानार्हच्छासन सयमासनम् येनाद्यापि जगज्जीवपापपुजप्रभंजनम् [11] नमोर्हते वर्धमानाय [1] [यह दानपन्न कदम्ब राजवंशके महाराजा हरिवर्माका है। उन्होंने अपने राज्यके चौथे वर्षमें शिवरथ नामके पितृव्यके उपदेशसे, सिंहसेनापतिके पुत्र मृगेशद्वारा निर्मापित जैनमन्दिरकी अष्टाह्निका-पूजाके लिये और सर्वसघके भोजनके लिए 'वसुन्तवाटक' नामक गाँव कूर्चकोंके वारिपेणाचार्यसंघके हाथमें चन्द्रक्षान्तको प्रमुख बनाकर प्रदान किया। यह और ९९ वां दानपत्र दोनों, ताम्रपत्रोंपर हैं । नम्बर ९९ वें के दान-पत्र में यापनीय, निम्रन्थ और कूर्चक इन तीन सम्प्रदायोंके नाम हैं और इसमें सिर्फ कूर्चक सम्प्रदायका । इससे मालूम होता है कि इस सम्प्रदायमें 'बारिपेणाचार्यसघ' नामका एक संघ था, जिसके प्रधान चन्द्रक्षान्त (मुनि) थे।] [इ० ए०, जिल्द ६, पृ० ३०-३१] हल्सी-संस्कृत। प्रथमपत्र। सिद्धम् ॥ स्वस्ति ॥ स्वामिमहासेनमातृगणानुव्यानाभिषिक्तानाम् मानव्यसगोत्राणाम् ] हारितीपुत्राणाम् प्रतिकृतस्त्राध्यायचर्चापाराणाम् कदम्बानाम् महाराजश्रीरविवर्मणः स्वभुजबलपराक्रमावाप्ता(१) निरवद्यविपुलराज्यश्रियः विद्वन्मतिसुवर्णनिकपभूतस्य कामाद्यरिगण दूसरा पत्र, पहली ओर । .. त्यागाभिव्यञ्जितेन्द्रियजयस्य न्यायोपार्जितार्थ [स] हितसाधुज न]स्य क्षितितलप्रततविमलयशसः प्रियतनय पूर्वसुचरितोपचितविपुलपुण्यसम्पादितगरीवुद्धिसत्व. सर्वप्रजाहृदयकुमुदचन्द्रमा. महाराजश्रीहरिवमा स्वराज्यसवत्सरे पञ्चमे पलाशिकाधिष्ठाने अहरिष्टिसमाह्वयः शि०६ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह दूसरा पत्र, दूसरी ओर । श्रमणसद्धान्ययवस्तुन धर्मानन्धाचार्याधिष्ठितप्रामाण्यस्य चैत्यालयस्य पूजासस्कारनिमित्तम् साधुजनोपयोगार्थश्च सेन्द्रकाणां कुलललामभूतस्य भानुशक्तिराजस्य विज्ञापनया मरदे प्रामं दत्तवान् [1] य एतल्लोभाये कदाचिदपहरेत् स पञ्चमहापातकसयुक्तो भवति यश्चाभिरक्षति स तत्पुण्यफलम् तीसरा पत्र। अवाप्नोतीति [1] उक्तञ्च ॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् पष्टिवर्पसहस्राणि नरके पच्यते तु स || बहुभिर्वसुधा मुक्ता राजमिस्सगरादि [भिः] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।। ये सेतूनभिरक्षन्ति मैग्नान् सस्थापयन्ति च । द्विगुण पूर्वकर्तृभ्य. तत्फल समुदाहृतम् [I] [इस लेखमें अपने राज्यके पांचवें वर्षमे सेन्द्रकके कुलके भानुशक्ति राजाकी प्रार्थनापर हरिवम्माने 'मरदे' नामका गाँव दान दिया था, इस बातका उल्लेख है । यह हरिवर्मा रविवर्माका प्रियपुत्र है । यह दान राजधानी पलाशिकाम किया गया। इस दानका निमित्त वह चैत्यालय था जो कि 'महरिष्टि' नामके श्रमणसङ्घकी सम्पत्ति थी और जिमपर आचार्य धर्मनन्दिकी आज्ञा चलती थी; उस चैत्यालयके पूजा इत्यादिके प्रबंधके लिये तथा साधुजनोंके उपयोगके लिये ही यह दान किया गया । [ई० ए०, जिल्ट ६, पृ० ३१-३२.] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगिरिका लेख देवगिरि-संस्कृत। -[]विजयत्रिपर्वते खामिमहासेनमातृगणानुद्ध्याताभिषिक्तस्य मानव्यसगोत्रस्य प्रतिकृतखाध्यायचर्चापारगस्य आदिकालराजर्षिविम्बाना आनितजनाम्बाना कदम्वाना धर्ममहाराजस्य अश्वमेधयाजिनः समरार्जितविपुलैश्वर्यस्य सामन्तराजविशेषरत्नसुनागजिनाकम्पदायानुभूतस्य (१) शरदमलनभस्युदितशशिसदृशैकातपत्रस्य धर्ममहाराजस्य श्रीकृष्णवर्मणः प्रियतनयो देववर्मयुवराजः स्वपुण्यफलाभिकाक्षया त्रिलोकभूतहितढेशिनः धर्मप्रवर्तनस्य अर्हतः भगवतः चैत्यालयस्य भग्नसंस्कारार्चनमहिमार्थ यापनीय [सवेभ्यः सिद्धकेदारे राजमानेन (2) द्वादश निवर्त्तनानि क्षेत्रं दत्तवान् योस्य अपहर्ता स पचमहापातकसंयुक्तो भवति योस्याभिरक्षिता स पुण्यफलमश्नुते (0) उक्त च-बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभित्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तथा (2) फल ॥ अद्भिर्दत्त त्रिभिर्युक्त सद्भिश्च परिपालित । एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराजकृतानि च ॥ स्व दातु सुमहच्छक्य दु' (१):ख (म) न्यार्थपालन । दान वा पालनं वेति दानाच्छ्रेयोनुपालनम् ।। खदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धरा । पष्ठिवर्षसहस्राणि नरके पच्यते तु सः ॥ श्रीकृष्णनृपपुत्रेण कदम्बकुलकेतुना । रणप्रियेण देवेन दत्ता भूमिलिपीते ॥ दयामृतसुखाखादपूतपुण्यगुणेप्सुना। देववम्मैकवीरेण दत्ता जैनाय भूरियम् ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह जयत्यहँत्रिलोकेश. सर्वभूतहितकरः । रागारिहरोनन्नोनन्तनानगीश्वरः ॥ [इ० ए०, जिल्द ७, पृ० ३३-३५, न. ३५] [यह दानपत्र कदम्बोके धर्ममहाराज श्रीकृष्णवर्माके प्रियपुत्र 'टेववर्मा' नामके युवराजकी तरफसे लिखा गया है और इसके द्वारा विपर्वत' के ऊपरका कुछ क्षेत्र अर्हन्त भगवानके चैत्यालयकी मरम्मत, पूजा और महिमाके लिये 'यापनीय' संघको दान किया गया है। पत्रके अन्तमें इस बानको अपहरण करनेवाले और रक्षा करनेवालेके वास्ते वही क्सम दिलाई है अथवा वही विधान किया है जैसा कि ९७ नम्बरके दानपत्रके सम्बन्धमें पहले बतलाया गया है। वही चारों 'उकं च' पद्य मी कुछ क्रममग माय दिये हुए हैं और उनके बाद दो पद्योसे इस दानका फिरसे स्तुलासा दिया है, जिममें देववर्माको रणप्रिय, दयामृतसुखास्वादनसे पविन्न, पुण्यगुणोंका इच्छुक और एकवीर प्रकट किया है । अन्तमें अर्हन्तकी स्तुतिविषयक प्राय वही पद्य है जो ९७ नम्बरके दानपत्रके शुरूम दिया है । इम पत्रमें श्रीकृष्णवर्मा 'अश्वमेध' यज्ञका कर्ता और शरद ऋतुके निर्मल आकाशमें उदित हुए चद्रमाके समान एक छत्रका धारक, अर्थात् एकछत्र पृथ्वीका राज्य करनेवाला लिखा है।] पूर्वके न० ९७,९८ व इस दानपत्रपरसे निम्नलिखित ऐतिहासिक व्यक्तियोंका पता चलता है.~ १ स्वामिमहासेन-गुर। २ हारिती-मुख्य और प्रसिद्ध पुरुष । ३ शान्तिवर्मा-राजा। ४ मृगेश्वरवर्मा-राजा। ५ विजयशिवमृगेशवर्मा-महाराजा । ६ कृष्णवर्मा-महाराजा। ७ देववर्मा युवराज । ८ दामकीर्ति-मोजक। ९ नरवर-लेनापति। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्तेमका लेख अल्तेम (जिला कोल्हापुर)-संस्कृत । [शक ४११४८८ ..] पहला पत्र । स्वस्ति ।। जयत्यनन्तसंसारपारावारकसेतय. महावीरार्हतः पूतावरणाम्बुजरेणव. !! श्रीमता विश्व-विश्वम्भराभिसंस्त्यमानमानव्यसगोत्राणा हारीतिपुत्राणा सप्तलोकमातृभिस्सप्तमातृमिरमिवर्द्धितानां कार्तिकेयपरिरक्षणप्राप्तकल्याणपरम्पराणा भगवन्नारायणप्रसादसमासादितवराहलाञ्चनेमणक्षणवशीकृताशेपमहीभृताना ( भृताम् ) चालुक्यानां कुलमलकरिप्णो ॥ खभुजोपार्जितवसुन्धरस्य निजया श्रवणमात्रेणैवावनतराजकस्य कीर्तिपताकावभासितदिगन्तरालस्य जयसिंहस्य राजसिंहस्य (?) सूनुस्सूनृतवागनवरतदाना कृतकरस्तुरगज इब प्रशमनिविस्तपोनिधिवि दृप्तवैरिषु प्राप्तरणरागो रणरागोऽभवत् [1] तस्य चात्मजे श्वमेघनाव ( ०मेवाव) भृत (थ) स्नानपवित्रीकृतगात्रे प्रणतपरनृपतिमकुटनटघटितहटन्मणिगणकिरणवा राधौतचारुचरणकमलयुगले चित्रकण्ठाभिधानतुरङ्गमकण्ठीरवेणोत्सारितारातिस्तम्मेरममण्डले वर्णाश्रमसर्वधर्मपरिपालनपरे गङ्गासेतु(2) मध्यवर्तिदेशाधीश्वरे शक्तित्रयप्रवर्द्धितप्राज्यसाम्राज्ये गङ्गायमुनापालि दूसरा पत्र; पहली और। ध्वजदडकाटिपञ्चमहाशब्दचिह्न करढीकृतचोल चेर-केरल-सिंहलकलिंगभूपाले दण्डितपाण्डयादिमण्डि (ण्ड ) लिके अप्रतिगासने 'सत्याश्रय'-श्री-पुलकेश्यभिधानपृथिवीवल्लभमहाराजाधिराजे पृथिवीमेकातपत्रं शासति सति [1] राजा रुन्द्रनीलसैन्द्रकवशशशाकायमानः Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह प्रचण्डदोर्दण्डमण्डितमण्डलामो गोण्डनामासीत् [॥] अय-नय-विनयसम्पन्नस्तनयोऽस्य समररमरसिकस्सिवाराख्यया ख्यातः [1] पुत्रोऽस्य भूना (तो) धात्रीतिलकायमानः पराक्रमाक्रान्तवैरिनिकुरुम्बः अवार्यवीर्यसमन्धितः कार्याकार्यनिपुणः हनूमानिब रामस्याभिरामस्य तस्य मृत्यस्सत्यसन्धो धार्मिकस्सामियारस्समभूत् [ 1 ] स तत्प्रसादसमासादिनकुहुण्डीविषयस्त परिपाल] य (यन् ) तदन्तर्भूतालक्तकामिधाननगऱ्यांग्रामसप्तगतराजधान्यामोपविषयविशेषकायमानाया गालिवीहीक्षवणचणकप्रियगुवरकोटारकश्यामाकगोधूमाद्यनेकधान्यसमृद्धाया तहेशविलासिनीमुखकमलमित्र विराजमानाया धनधान्यपरिपूर्णकृषीवलप्रायायाम् || ऐन्या दिगि महेन्द्रामः प्रासाद प्रवरम्महत् जिनेन्द्रा दूसरा पत्र, दूसरी ओर। यतन भक्त्याकारयत् सुमनोहरम् ।। प्रोत्तुग-प्रासाद त्रिभुवनतिलकं जिनालय प्रवर नानास्तम्भसमुद्धृतविराजमान चिरं जगति ॥ शकपाटेवेकादशोत्तरेषु चतुप्पटेषु व्यतीतेषु विभवसवत्सरे प्रवर्त्तमाने ॥ कृते च जिनालये। वैशाखोदितपूर्णपुण्यदिवसे राहो (ही) विधौ (धोर) मण्डल श्लेप्टेन्देयिकमजनार्दुपगत स्नेहाद् गृहं भूभुजम् श्रीसत्याश्रयमाश्रय गुणवता विज्ञापयामास स तज्जैनालयपूजनोचितनुतक्षेत्राय धर्मप्रियः ॥ आयुर्जन्मवतामिद ननु तदि (डि) त् सन्व्येन्द्रा(न्द्र)चापोपम ज्ञात्वा धर्मम (घ) नार्जन बुधजनैार्य (ल): फल मन्यते : १ सभवत शुद्ध पाठ 'लिटेऽन्वर्यिकमज्जनाद्' होना चाहिये । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्तेमका लेख इत्येव प्रवित्रोष्य सभ्यजनता सत्याश्रयो बल्लभो भक्त्या तजिनमन्दिरोपमक्रिये क्षेत्र ददौ शासनम् ॥ वैशाग्वपौर्णमास्या राही निधुमण्डल प्रविष्टवति सत्याश्रयनृपतिस्त्रिभुवनतिलकाय दत्तवान् क्षेत्रम् ॥ कनकोपलसम्मूतवृक्षमूलगुण (णा) न्वये भूतत्समनराद्धान्तस्सिद्धनन्दिमुनीश्वरः ॥ नस्यासीत् प्रथमश्शिप्यो देवनाविनुतक्रम. शिष्यैः पञ्चगर्युक्त तीसरा पत्र, पहिली ओर। वितकचार्य-सज्ञितः ॥ श्रीमत्काकोपलान्नाये ख्यातकीर्तिबहुश्रुत. लक्ष्मीबानागदेव्याख्यश्चितकाचार्य्यदीक्षित. || नागदेवगुरोशिशष्य प्रभूतगुणवारिधिः समस्तगास्त्रसम्बोधि (घी) जिननन्दिः प्रकीर्तितः ॥ श्रीमद्विविधराजेन्द्रप्रस्फुरन्मकुटालिभिः निघृष्टचरणाब्जाय प्रभवे जननन्दिने ॥ जिननन्द्याचार्यसूर्याय दुश्वरतपोविणेपनिकषोपलभूताय समधिसर्वशास्त्राय नगराशतलभोगाश्च प्रददौ [1] तत्र तलभोगसीमान्याह [1] चैत्यालयाद् वायव्या दिशि तटाक नटो ऋजुसूत्रक्रमेण पश्चिमाभिमुख गत्वा पथ तस्य मध्ये निखातयापाण तस्माद् दक्षिणाभिमुखमनुपथ गत्वा प्रवाह तस्य (स्य) मध्ये निखातपाषाण पूर्वाभिमुख गत्वा तिन्त्रिणीकवृक्ष यावत् तस्मादुत्तराभिमुख गत्वा पूर्वोक्त-तटाक । यावत् १ इस पूर्णविराम की यहाँ कोई जरूरत नहीं है । 'पूक्ति तटाक यावत्' ऐसा सम्बन्ध है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह स्थितं एतन्नगरनिवेशक्षेत्रम् [1] तत्र तलभोगक्षेत्रसीमान्याह [1] नगरस्य दक्षिणस्या दिशि सेतुबन्धात् प्रभृत्यनुजलवाहल पूर्वाभिमुख गत्वा याबदौञ्चिकक्षेत्र तत्पश्चिमसीम्नि निखातपाषाण यात्रत्तस्मादनुसीमोत्तराभिमुख गल्या यावच्छमीवल्मीक तस्मात्पुनः पूर्वाभिमुखं गत्वा यावत् स्थलगिरि तस्मात्पुनरनुगिर्युत्तराभिमुरव गत्वा यावद्गिरेरुच्चप्रदेश तस्मात् पश्चिमाभिमुख गत्वा यावगिरि तस्मात् पश्चिमाभिमुख गत्वा यावस्थलगिरि तस्मादक्षिणाभिमुख गत्वा यावत्सेतुबन्धन (न) स्थित राजमनेन पञ्चापट सदुत्तरनिवर्त्तनगत तलभोगक्षेत्र चतुस्सीमाविरुद्धम् ।। नरिन्दकनामग्रामे नल्या दिशि नरिन्दक-सामरिवाट (ड) प्रामपथि मध्यवर्तिसिंगतेगतटाकाद् ऋजुसूत्रक्रमेण नरिन्दकग्रामपथ यावत्तावस्थित चत्वारिंशत् नि ( सन्नि ) वर्तन क्षेत्र दक्षिणदिशि राजमानेन । किणयिगेनामग्रामे पूर्वस्या दिशि अशीतिनिवर्त्तन क्षेत्रं राजमानेन पिशाचाराम नैर्ऋत्या दिशि यावच्छमीझाटवल्मीक तस्मात् पूर्वाभिमुख गत्वा यावत्पथ तस्मादक्षिणाभिमुख गत्वा यावत्स्थलगिरि तस्मात् पश्चिमाभिमुखमनुस्थलगिरि गत्वा यावच्छमीस्थल तस्मादुत्तराभिमुख गत्या यावच्छमी-झाटवल्मीक स्थित चतुस्सीमाविरुद्धम् ॥ पन्तिगणगे नामग्रामे चतुर्थ पत्र, पहिली ओर। नैर्ऋत्या दिगि मान्यस्य क्षेत्र उत्तरस्या दिशि चत्वारिंशन्निवर्तन क्षेत्र राजमानेन पश्चिमस्या दिशि स्थलगिरि तस्मादनुसीम पूर्वाभिमुख गत्वा यावच्छमीवल्मीक तस्माद्दक्षिणाभिमुख गत्वा कोमरश्चे-ग्राम-सीम तस्मात्पूर्वाभिमुखमनुसीम गत्वा यावज्जलवाहल तस्मादुत्तराभिमुखमनुवाहल गत्वा यावच्छमीझाटवल्मीक तस्मात्पश्चिमाभिमुख गत्वा यावत्तटाकोत्तरकोडि (टि) तस्मादक्षिणाभिमुखमनुस्थलगिरि गत्या यावत्तावस्थित चतुस्सीमाविरुद्धम् ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्तेमका लेख मंगलीनामग्रामपश्चिमदिशि राजमानेन चत्वारिगन्निवर्त्तन क्षेत्र तस्य सीमान्याह स्थलगिरेः पश्चिमाभिमुखमनुपथ गत्वा यावद्रूविकतामसीम तस्मादुत्तराभिमुखमनुसीम गत्वा यावत्स्थलगिरि तस्मात्पूर्वाभिमुखमनुस्थलगिरि गत्वा यावत्स्थलगिरि तस्मादक्षिणाभिमुखमनुस्थलगिरि गत्वा स्थित चतुस्सीमाव (वि ) रुद्धम् ॥ करण्डिगे नाम ग्रामे प __चतुर्थ पत्र; दूसरी ओर। श्चिमस्या दिशि चन्दवुर-पन्दङ्वल्लिनामग्राममार्गमध्ये अश्वत्थतटाकाद् वायव्या दिशि राजमानेन पञ्चविशतिनिवर्तन क्षेत्रम् ॥ दावनवाल्लिनामग्रामे पश्चिमस्या दिगि अलक्तकनगरकुम्बयिजनामग्राममार्गमध्ये विम्बालयपिशाचारामात्पश्चिमे राजमानेन चत्वारिगन्निवर्तन क्षेत्रम् ।। पुनरपि तस्मिन्नेव ग्रामे दक्षिणस्या दिशि हिङ्गुटीतटाकादुत्तरसमीपस्थ राजमानेन गत नि ( शत-नि) वर्तन क्षेत्रम् ॥ नन्दिणिगेनाम प्रामे पूर्वस्या दिशि वरवुलिकसीम श्रीपुरमार्गमध्ये राजमानेन चत्वारिंशन्निवर्तन क्षेत्रम् ॥ सिरिपत्तिनामग्रामे पश्चिमत्या दिगि श्रीपुरमार्गतो दक्षिणतो राजमानेन चत्वारिंशन्निवर्तन क्षेत्रम् ॥ अर्जुनवाद (ड) नामग्रामे पश्चिमस्या दिशि श्रीपुरमार्गतो उत्तरतो राजमानेन पञ्चाशनिवर्तन क्षेत्रम् ॥ ग्रामनामान्याह । कुम्वयिज-द्वादशत्यो (स्या ) न्तः रूविको नाम पाँचवाँ पत्र। ग्रामः प्रथमः ।। सामरिवादो (डो) नाम ग्राम' द्वितीय. ॥ बटमाले द्वादशस्यान्त: लहिवादो (डो) नाम ग्रामः तृतीय ॥ श्रीपुरद्वादशस्य मध्ये पेल्लिदको नाम ग्रामः चतुर्थः । इत्येते चत्वारो ग्रामा. चतुस्सीमाव (वि) रुद्धक्षेत्रः (त्रा.) सोदङ्गा. स (सो) परिकरा. अचाटभटप्रवेश्याः Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह { ॥] तदागामिभिरस्मदृश्यैरन्यैश्च राजभिरायुरैश्वर्यादीना विलसितमच्छिराशुचञ्चलमवगच्छद्भिराचन्द्रार्कघरापर्णवस्थितिसमकाल यशश्चिचीशुभिः स्वदत्तिनिविशेष परिपालनीयमुक्त च मन्वादिभिः ।। बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिभियस्य यस्य यदा भूमिः तस्य तस्य नदा फलम् । ख दातु सुमहच्छक्य दु.खमन्यस्य पालन दान वा पालन श्रेयो श्रेयो दानस्य पालनम् ॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् । पष्टिं वर्पसहस्राणि विष्टाया जायते कृमिः ।। [इ ए, ७, पृ० २०९-२१७, न. ४४ ] [इस दानपत्रमें पुलिकेशीकी वंशावलि उसके पितामह (वाबा) जयसिंह और उसके पिता रणराग से लेकर दी हुई है। ऊपर विरुदावलिमें यह चाक्यावली आती है, 'जयसिंहस्य राजसिंहस्य सूनु, रणरागोऽभवत्जिमसे सर वाल्टर इलियटने सन्देहास्पदरूपसे यह फलितार्थ निकाला है कि 'राजसिंह' जयसिंहका दूसरा नाम था । पर यदि 'राजसिंह' यह व्यक्तिवाचक नाम हो भी, तो इससे जयसिंहकी उपाधिका ही पता लगेगा, जयासिंहके दूसरे नामका नहीं। तत्पश्चात् दानपत्रमें उसके (जयसिंहके) एक सामन्त सामियारका उल्लेख है जो रुन्दनील-सैन्द्रक वंशका है। यह सामियार कुहुण्डी जिलेका शासक था। इसके याद यह वर्णन है कि सामियारने अलक्तकनगरमें, जो कि उस जिलेके ७०० गावोंके समूहोंमें एक प्रधान नगर था, एक जैनमन्दिर चनवाया, और राजाज्ञा लेकर, विमव संवत्सरमें जब कि शकवर्ष ४११ व्यतीत हो चुका था वैशाख महीने की पूर्णिमाके दिन चन्द्रग्रहणके अवसरपर कुछ जमीन और गाँव मन्दिरको दिये। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरका लेख १०७ आडूर [ जिला धारवाड ]; संस्कृत तथा कन्नड-भन्न -[ ? ]-- पूर्ववर्ती चालुक्य कीर्त्तिवर्मा प्रथमका शिलालेख जयत्यनेकधा विश्व विवृण्वन्नशुमानिव .....श्री - वर्द्धमानदेवे ..... [१]... [ ३ ] .... [ २ ]........न् (± ) यप - दु: - प्रबाधनः [II] प्रभास ( 2 ) ति भुवं भूयो ....... *** प्रताप-क्षत *********** ....... • ...... .. · f ........ [ ४ ]..........कु ( 2 ) र ( 2 ) - तेजसा वैजय .f....... दान ९१ ... ........................*********** [ ५ ]............त्पाशभृद्विषमो यमः चित्त वा मानस सत्य स्थित .....[II] तेनेप ( 2 ).......... [ ६ ] .... गामुण्ड-निर्मापितजिनालयदानशालादिसंवृद्ध्यै विज्ञप्तेन यशखिना [1] पश्च ि - [७] शति-सख्यान- निवर्त्तन-कृत प्रमं क्षेत्र राजमानेन दत्त त्वहितरक्षण [1] [वि] [८] श्राव्य साक्षिणः कृत्वा उञ्छोरिन्द-प्रधानकानन्यैरपि च राजन्यै रक्षणीय स[I]] [९] उक्तं च [I] स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् षष्टिं वर्षसहस्राणि विष्टाय (1) म् [ जाय ] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जैन-शिलालेख-संग्रह शूरे विदुषि च विभजन्दान मानं च युगपदेकत्र । अविहितयाथातथ्यो जयति च सत्याश्रयः सुचिरम् ॥ ३ ॥ पृथिवीवल्लभशब्दो येपामन्यर्थता चिर जातः । तद्वगे (इये) पु जिगीषुपु तेषु बहुप्वप्यतीतेषु ॥ ४ ॥ नानाहेतिगताभिघातपतितभ्रान्ताश्वपत्तिद्विपे नृत्यद्भीमकबन्धखड्गकिरणज्वालासहस्र रणे । लक्ष्मी वितचापलादिव कृता शौर्येण येनात्मसा द्राजासीजयसिंहवल्लभ इति ख्यातचुलुक्यान्ययः ॥ ५ ॥ तदात्मजोऽभूद्रणरागनामा दिव्यानुभावो जगदेकनाथः । अमानुपत्व किल यस्य लोकः सुप्तस्य जानाति वपुःप्रकर्षात् ॥६॥ तस्याभवत्तनूजः पुलकेशी यः श्रितेन्दुकान्तिरपि । श्रीवल्लभोऽप्ययासीद्वातापिपुरीवधूवरताम् ॥ ७ ॥ यत्रिवर्गपदवीमल क्षितौ नानुगन्तुमधुनापि राजकम् । भूश्च येन हयमेधयाजिना प्रापितावभृयमज्जना बभौ ॥ ८ ॥ नलमौर्यकदम्बकालरात्रिस्तनयस्तस्य बभूव कीर्तिवर्मा । परदारविवृत्तचित्तवृत्तेरपि धीर्यस्य रिपुश्रियानुकृष्टा ॥ ९॥ रणपराक्रमलब्धजयश्रिया सपदि येन विरुग्णमशेषतः । नृपतिगन्धगजेन महौजसा पृथुकदम्बकदम्बकदम्बकम् ॥१०॥ तस्मिन्सुरेश्वरविभूतिगताभिलाषे ___ राजाभवत्तदनुजः किल मङ्गलीशः। यः पूर्वपश्चिमसमुद्रतटोषिताश्वः सेनारजःपटविनिर्मितदिग्वितानः ॥ ११ ॥ १ 'सत्याश्रय' यह पुलकेशीका नामान्तर है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एहोलेका लेख स्फुरन्मयूखैरसिदीपिका शतैर्युदस्य मातगतमिस्रसंचयम् । अवाप्तवान् यो रणरङ्गमन्दिरे कलचुरिश्रीललनापरिग्रहम् ॥ १२ ॥ पुनरपि च जिघृक्षो. सैन्यमाक्रान्तसाल रुचिरवहुपताक रेवतीद्वीपमाशु । सपदि महदुदन्वत्तोयसंक्रान्तविम्ब वरुणबलमिवाभूदागत यस्य वाचा ॥ १३ ॥ तस्यानजस्य तनये नहुपानुभावे लक्ष्म्या किलाभिलषिते पुलकेशिनाम्नि । सासूयमात्मनि भवन्तमत. पितृव्यं ज्ञात्वापरुद्धचरितव्यवसायबुद्धौ ॥ १४ ॥ स यदुपचितमन्त्रोत्साहशक्तिप्रयोग भपितबलविशेषो मङ्गलीशः समन्तात् । खतनयगतराज्यारम्भयत्नेन सार्ध निजमतनु च राज्य जीवित चोन्झति स्म ॥ १५ ॥ तावत्तच्छत्रभगे जगदखिलमरात्यन्धकारोपरुद्ध यस्यासह्यप्रतापद्युतिततिभिरिवाक्रान्तमासीत्प्रभातम् । नृत्यद्विद्युत्पताकैः प्रजविनि मरुति क्षुण्णपर्यन्तभागगद्भिरिखाहैरलिकुलमलिन व्योम या(जा)त कदा वा ।।१६।। लब्ध्या काल भुवमुपगते जेतुमाप्यायिकाख्ये गोविन्दे च द्विरदनिकरैरुत्तराम्भोधिरथ्याः । यस्यानीकैयुधि भयरसज्ञत्वमेक. प्रयात स्तत्रावाप्त फलमुपकृतस्यापरेणापि सद्य. ।। १७ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-गिलालेख संग्रह वरदातुङ्गतरङ्गङ्गविलसद्धंसानदीमेखला वनवासीमवमृगतः सुरपुरप्रस्पर्धिनी संपदा । महता यस्य बलार्णवेन परितः सछादितोर्वातल स्थलदुर्ग जलदुर्गतामिव गत तत्तन्क्षगे पश्यताम् ॥१८ गङ्गाम्बु पीत्वा व्यसनानि सप्त हित्वा पुरोपार्जितसपदोऽपि । यस्यानुभावोपनताः सदासन्नासन्नसेवामृतपानशौण्डा ॥१९॥ कोकणेषु यदादिष्टचण्डदण्डाम्बुवीचिभिः । उदस्तास्तरसा मौर्यपालाम्बुसमृद्धयः ॥ २० ॥ अपरजलधेलक्ष्मी यस्मिन्पुरी पुरभिन्प्रभे मदगजघटाकारैर्नावा शतैरवमृद्गति । जलदपटलानीकाकीर्ण नवोत्पलमेचक जलनिधिरिख व्योम व्योन्नः समोऽभवदम्बुधिः ॥ २१ ॥ प्रतापोपनता यस्य लाटमालवगूर्जराः । दण्डोपनतसामन्तचर्या वर्या इवाभवन् ।। २२ ॥ अपरिमितविभूतिस्फीतसामन्तसेना मुकुटमणिमयूखाक्रान्तपादारविन्दः । युधि पतितगजेन्द्रानीकवीभत्सभूतो भयविगलितहो येन चाकारि हर्षः ।। २३ ।। भुवमुरुभिरनीकैः शासतो यस्य रेवा विविधपुलिनशोभावन्ध्यविन्थ्योपकण्ठा । अधिकतरमराजत्वेन तेजोमहिम्ना - शिखरिभिरिभवा वर्मणा स्पर्धयेव ॥ २४ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ एहोलेका लेख विधिवदुपचिताभिः शक्तिभिः शक्रकल्प स्तिसृभिरपि गुणाः खैश्च माहाकुलाद्यैः । अनमदधिपतित्व यो महाराष्ट्रकाणां नवनवतिसहस्रग्रामभाजा त्रयाणाम् ॥ २५ ॥ गृहिणा वगुणैत्रिवर्गतुङ्गा विहितान्यक्षितिपालमानभङ्गाः । अभवन्नुपजातभीतिलिझा यदनीकेन सकोसलाः कलिङ्गाः॥२६॥ पिष्ट पिष्टपुरं येन जात दुर्गमदुर्गमम् । चित्र यस्य कलेत्त जात दुर्गमदुर्गमम् ॥ २७ ॥ संनद्धवारणघटास्थगितान्तराल नानायुवक्षनरक्षतजाङ्गरागम् । आसीजल यदवमर्दितमभ्रगर्भा केंणालमम्बरमिबोर्जितसाध्यरागम् ।। २८ ॥ उद्भूतानलचामरध्वजशतच्छत्रान्धकारवले. शौर्योत्साहरसोद्धितारिमयनैौलादिभिः पड्विधैः । आक्रान्तात्मबलोन्नतिं बलरजःसछन्नकाञ्चीपुरः प्राकारान्तरितप्रतापमकरोद्यः पल्लवानां पतिम् ॥२९॥ कावेरी द्रुतशफरीविलोलनेत्रा चोलाना सपदि जयोद्यतस्तस्य (८) । प्रश्चयोतन्मदगजसेतुरुद्धनीरा सस्पर्श परिहरति स्म रत्नराशेः ॥३०॥ चोलकेरलपाण्ड्याना योऽभूत्तत्र महर्द्धये । पल्लवानीकनीहारतुहिनेतरदीधितिः ॥ ३१ ॥ उत्साहप्रभुमन्त्रशक्तिसहिते यस्मिन्समन्ताहिशो जिन्या भूमिपतीन्विसृज्य महितानाराध्य देवद्विजान् । शि०७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह वातापी नगरी प्रकिय नगरीमेकामियोनिमा चञ्चन्नीरधिनीरनीलपरिखा सत्याश्रये शासति ॥ ३२ ॥ त्रिंशत्सु त्रिसहतेषु भारतादाहवादितः । सप्ताब्दशतयुक्तेषु (ग) तेवव्देषु पञ्चतु ( ३७३५) ॥ ३३ ॥ पञ्चाशत्सु कलौ काले पट्सु पञ्चशतासु च ( ६५६ ) । समालु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम् ॥ ३४ ॥ तस्याम्बुधित्रयनिवारितशासनस्य सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् । शैल जिनेन्द्रभवन भवन महिना निर्मापित मतिमता रविकीर्तिनेदम् ॥ ३५ ॥ प्रशस्तेर्वसतेचास्या जिनस्य त्रिजगद्गुरो' । कर्ता कारयिता चापि रविकीर्तिः कृती स्वयम् ||३६|| येनायोजि नवेऽश्मस्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म । स विजयता रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदास भारवि कीर्ति, ३७ [ प्राचीनलेखमाला, प्रथमभाग, ३० १६, पृ० ६८-७२, से उद्धृत ] [ यह शिलालेख बीजापुर ( पूर्वका कलागी ) जिलेके हुड्डुण्ड तालुकाके ऐहोळेके मेगुटि नामके प्राचीन मन्दिरकी पूर्वकी तरफकी दीवालपर है । लेखमें कुल १९ पक्तियाँ हैं, जिनमेंसे १८ वी पक्ति पूर्ण और १९ वीं छोटी पक्ति बादमे किसीकी जोडी हुई है और जिनमें महत्त्व - पूर्ण कोई बात नहीं है | समूचा शिलालेख किसी रविकीत्तिका बनाया हुआ है । वे ( रविकीर्त्ति ) चालुक्य पुलकेशी सत्याश्रय ( अर्थात् पश्चिमी चालुक्य पुलकेशी द्वितीय ) के राज्य में थे । यह राजा उनका संरक्षक या पोषक था । इन्होने गिलालेखवाले जिवालयसे जिनेन्द्रकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा की । प्रतिष्ठाके समय यह लेख उत्कीर्ण करवाया गया था जिसमे सामान्यरूपसे चालुक्य वंशकी, और विशेषत पुलकेशी द्वितीय ( रविकीर्तिके आश्रयदाता ) के Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मेश्वरका लेख पराक्रमोकी प्रशस्ति है । इस लेखमें आये हुए ऐतिहासिक तथ्योका पूरा विवरण प्रो० भाण्डारकर और डा० फ्लीटने दिया है। इस लेख (या काव्य) का मुख्य भाग १७.३२ श्लोकोका है । इनको रविकीर्ति के आशयानुसार, रघुवशके (चौथे सर्गके) रघुदिग्विजयके समान, 'पुलकेशी सत्याश्रय दिग्विजय' कहा जा सकता है । इस काव्य (कविता) की रचनामें रविकीर्तिका कालिदासके रघुवशका तथा भारविके किरातार्जुनीयका गहरा अध्ययन स्पष्ट काम कर रहा है। इसलिए उन्हींके शब्दोमें उनका यह कथन कि 'स विजयतां रविकीर्ति कविताश्रितकालिदासभारवि-कीर्ति.' सचमुचमें ठीक है। श्लोक २२ में बताया गया है कि पुलकेशीका प्रताप इतना तेज था कि लाट, मालव और गूर्जर लोग अपने आप ही उनकी शरण आते थे, वलपूर्वक नहीं।] [इ० ए०, जिल्द ५, पृ० ६७-७१] लक्ष्मेश्वर-संस्कृत। -[१]जयत्यतिशयजिनै सुरस्सुरवन्दितः । श्रीमाजिनपतिस्सृष्टेरादेः कर्ता दयोदयः ।। देहहिसरि (इह हि खस्ति)॥ चालुक्यपृथ्वीवल्लभकुलतिलकेपु वहुप्रतीतेषु रणपराक्रमाङ्कमहाराजो भवत्तद्राजतनयः राजितनयो विवर्द्धितैश्चर्यश्चतुस्समुद्रान्तस्नाततुरङ्गेभपदातिसेनासमूह, एरैय्यनामधेयः श्रीमान् ॥ १ देखो प्रो० भाण्डारकरकी Early History of the Dekkan, 2nd ed, especially p. 51, 5 TỶo Frient Dynasties of the Kanarese Districts, 2nd ed. especially p 349 ff. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन-शिलालेख संग्रह अपि च ॥ जासतीमा समुद्रान्ता वसुधा वसुधाधिपे । सत्याश्रयमहाराजे राजत्सत्यसमन्विते ।। भुजगेन्द्रान्वयसेन्द्रावनीन्द्रसन्ततौ अनेकनृपसत्तैमेश्चतीतेषु तत्कुलगगनचन्द्रमा बहुसमरविजयलब्धपताकावभासितदिगन्तरालवलयः विजयशक्तिीम नृपतिर्बभूव [1] तत्सूनुरुदिततरुणदिवाकरकरसमप्रभः सौ (शौ )@-धैर्य-सत्त्व-गुणोपपन्नः सामन्तवृ(वृ)न्टमौलिमालवलीटचरणः कुन्दशक्तिर्नाम राजाभूत् तस्य प्रियतनयः ॥ अद्वितीयपुरुषकारसम्पन्नः । धर्मार्थकामप्रधानः अनेकरणविजयवीरपताकाग्रहणोद्धतकीर्तिः [I] तेन दुर्गशक्तिनामधेयेन शङ्खजिनेन्द्र चैत्यनित्यपूजार्थ पुण्याभिवृद्धये च पुलिगेरे-नामनगरस्योत्तरपार्श्व पञ्चाशन्निवर्तनपरिमाणक्षेत्र दत्तम् ।। तस्य सीमा समाख्यायते [] पूर्वतः किन्नरीक्षेत्रम् । पावकदिशि ज्येष्ठलिङ्गभूमिः । दक्षिणतः घटिकाक्षेत्रम् । नैर्ऋत्या दिशि दं (१५)-डीस (श) श्रेष्ठिभूमिः । पश्चिमतः रामेश्वरक्षेत्रम् वायव्या होनेश्वरक्षेत्रम् । उत्तरतः सिन्देश्वरक्षेत्र ई (ऐ) शान्या दिशि भट्टारीक्षेत्रम् । तद्दक्षिणतः पूर्वोक्तकिन्नरीक्षेत्रम् ॥ देवख विष लोके न विघ ने (2) विपमुच्यते । विपमेकाकिन हन्ति देवस्व पुत्र-पौत्रिकम् ॥ [यह लेख, जिससे उस वडे शिलालेख (नं. १४९) का दूसरा भाग (पक्तियों ५१-६१) निहित है, 'सेन्द्र' कुलका लेख है। १ यहाँ 'क' की जगह 'म' भी हो सकता है और तब 'मन्दशक्ति' पढा जायगा। २ यह 'न' अतिरिक्त है और भूलसे जुड़ गया है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ लक्ष्मेश्वरका लेख इसका प्रारम्भ 'रणपराक्रमाङ्क' नामके एक चालुक्य राजा और उसके पुन एरेय्यके उल्लेखसे हुआ है । लेकिन ये दोनो नाम पश्चिमी या पूर्वी चालुक्योमेसे किसीकी भी वशावलीमे अभीतक नहीं मिले हैं । रणपराक्रमात शायद 'रणराग'के लिये उल्लेखित हुआ है, जो जयसिंह प्रथमका पुन और पुलिकेशी प्रथमका पिता था । जयसिह प्रथमका जो दक्षिणके इस वंशके प्रथम पुल्प हैं, वर्णन कमी कभी आता है। इसके अनन्तर 'सत्याश्रय' नामके एक राजाका उल्लेख आता है। परन्तु उससे यह पता नहीं चलता कि इस उपाधि (सत्याश्रय) को धारण करनेवाले किस पश्चिमी चालुक्य राजासे मतलब है। __इसके बाद, सत्याश्रयके समकालवीके तौरपर, 'दुर्गशक्ति' राजाका उल्लेख नाता है । यह राजा 'भुजगेन्द्र' अर्थात् नागवशके अन्दयले सम्बन्ध रखनेवाले सेन्द्र राजाओके वशका था। यह विजयशक्तिके पुत्र कुन्दशक्तिका पुत्र था। _इसमें दुर्गशक्तिके द्वारा शङ्खजिनेन्द्र नामके चैत्यके लिये दिये गये भूमिदानका कथन है। यह भूमिदान पुलिगेरे नगरमें किया गया था। लेखका काल नहीं दिया गया है । यह संभवत प्राचीनतर कालका मालूम पड़ता है, जो यहाँ सिर्फ पूर्वकालके लेखके निश्चय या सुरक्षाके लिये ही दुहराया गया है ।] [इ० ए०, जिल्द ७, पृ० १०१-१११, न० ३८ (पक्तियाँ ५१-६१)] [यह लेख श्रवण-चेल्गोलाका संस्कृत और कन्नडमे है । इसे 'जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग' में देखना चाहिये।] [L. Rice, EO, II, sr -Bel ins no 24 ] लक्ष्मेश्वर-संस्कृत। [शक ६०८ ई० सन् ६८७ ] [यह लेख (मूल) इलियटके हस्तलिखितसग्रहकी पहली जिल्दमें पृष्ठ २२ पर दिये गये ८७ पक्तिवाले एक लेखका चौथा भाग है और पंक्ति ६९ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन-शिलालेख संग्रह वींसे शुरू होता है । उस समस्त लेखका सिर्फ कुछ भाग ही उस पुस्तकमे पापाण-लेखपरसे लिया गया है, पूरा लेख नहीं । इसलिये उस लेसका यहाँ देना मुश्किल होनेसे सिर्फ उसकी विगत यहाँ दी जानी है। उस विशाल लेखकी ६९ वी पंक्तिसे एक दूसरा पश्चिमी चालुक्य शिलालेख शुरू हो जाता है । इस लेखकी ६९ से ८२ तककी पक्तियाँ यद्यपि अस्पष्ट है, फिर भी अति सुरक्षित है; उसके नीचेकी पाँच पक्तियोका भी कुछ निशानोसे पता चल जाता है, यद्यपि अक्षर इतने विसे हुए हैं कि पढनेमें नहीं आते । इसमे पो(पु)लिवेशीवल्लभसे लेकर विनयादित्य-सत्याप्रय तककी वशावली है और मूलमद्ध अन्वयकी देवगण शाखाके क्तिी आचार्यको, उसके द्वारा दिये गये, दानका उल्लेख है । यह दान ६०८ शक वर्पके बीतनेपर जब उसके राज्यका पाँचवा या सातवा वर्ष चालू था और जब उसकी विजयका कैम्प (विजयस्कन्धावार) रकपुर नगरमें लगा हुआ था, माघ महीनेकी पूर्णमासीको दिया गया था। यह काल ७७-७८ पक्तियोमें यो दिया हुआ है -अष्टोत्तर-पट्छतेसु शकवर्षेप्वतीतेषु प्रवर्द्धमानविजयराज्यपञ्चम ( ' सप्तम)-सवत्सरे श्री रक्तपुरमधिवसति विजयस्कन्धावारे माघमासे पौर्णमास्याम् । यहाँ वार (दिन) नहीं दिया हुला है।) [इ० ए० ७, पृ० ११२, नं० ३९, चतुर्थभाग] श्रवणबेलगोला (विना कालका)-कन्नद । (देखो "जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग"।) ११३ लक्ष्मेश्वर-सस्कृत। [शक ६५१ ई. सन् ७२९ ] [यह लेख (मूल) इलियटके हस्तलिखित संग्रह (Elliot's Ms. Collection ) की पहली जिल्दमें पृष्ठ २२ पर ८७ पक्तिके एक बड़े लेखमें दिया हुआ है । उसमेंसे पंक्ति २८ से शुरू होकर पंक्ति ५३ तक Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मेश्वरका लेख १०३ पश्चिमी चालुक्योका शिलालेख है । इसमे पो (पु) लिकेगीवल्लभ, अर्थात् पुलिकेशी प्रथमसे लेकर विजयादित्य सत्याश्रय तककी वंशावली दी हुई है तथा यह भी उल्लेखित है कि अपने राज्यके चौतीसवें वर्षमें जब कि शक संवत्के ६५१ वर्ष व्यतीत हो चुके थे फाल्गुनकी पूर्णिमाके दिन, जब कि उसका विजय स्कन्धावार रक्तपुर नगरमे था, पुलिकर नगरकी दक्षिण सीमापर बसे हुए कर्दम गॉवका दान अपने पिताके पुरोहित उदयदेव पण्डितको, जिन्हें 'निरवद्यपण्डित' भी कहते थे, दिया । ये श्रीपूज्यपादके शिष्य थे तथा मूलसंघ अन्वयकी देवगण शाखाके थे । यह दान पुलिकर नगरमे शस-जिनेन्द्र के मन्दिरके हितार्थ दिया गया था। कालनिर्देश पक्ति ४२-४४ में यो दिया हुआ है ---एकपञ्चाशदुत्तरषदछतेपु शकवर्षेवतीतेषु प्रवर्त्तमान-विजयराज्यसंवत्सरे चतुस्त्रिशे वर्तमाने श्री-रकपुरमधिवसति विजयस्कन्धावारे फाल्गुनमासे पौर्णमास्याम् । वार (दिन ) इसमे नहीं दिया हुआ है।] [इं० ए०, ७, पृ० ११२, नं० ३९ (द्वितीय भाग)] लक्ष्मेश्वर-सस्कृत। [शक ६५६-७३४ ई.] खस्ति । जयत्याविःकृतं विष्णो राह क्षोभितार्णवं । दक्षिणोन्नतदंष्ट्राग्रविश्रान्तभुवन वपुः ॥ श्रीमता सकलभुवनसस्तूयमानमानव्यसगोत्राणा हारीति-पुत्राणा सप्तलोकमातृभिः सप्तमातृभिरभिवर्द्धिताना कार्तिकेयपरिरक्षणप्राप्तकल्याणपरम्पराणा भगवन्नारायणप्रसादसमासादितवराहलाञ्छनेक्षणवशीकृताशेपमहीभृता चालुक्यानां कुलमलकरिप्णोरश्वमेधावभृथस्नानपवित्रीकृतगात्रस्य श्रीपोलिकेशीवल्लभमहाराजस्य - प्रियसूनुः श्रीकीतिवर्मपृथ्वीवल्लभमहाराजस्तस्यात्मजस्य सत्याश्रयश्रीपृथ्वीवल्लभमहा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन-शिलालेख-संग्रह राजाधिराजपरमेश्वरस्य प्रियतनयः ( यस्य ) प्रभावकुलिगढलितपाण्ड्यचोल केरल-कदम्बप्रभृतिभूभृदुदप्रविभ्रमस्य नित्यावनतकाञ्चीपतिमुकुटचुम्बितपादाम्बुजस्य विक्रमादित्यसत्याश्रयश्रीपृथ्वीवल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वरस्य प्रियसूनुः (नो.) सकलोत्तरापथनाथमथनोपाजितपालिध्वजाठिसमस्तपारमैश्वर्यचिह्नस्य विनयादित्यसत्याश्रयश्रीथ्वीवल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारकस्य प्रियात्मज. साहसरसरसिकः पराङ्मुखीकृतशत्रमण्डलस्सकलपारमैश्वर्यव्यक्तिहेतुपालिध्वजाधुज्व (ज्व)लराज्यचिह्नो विजयादित्यसत्याश्रयश्रीपृथ्वीवल्लभमहाराजाधि'राज(जः) [1] [तत्-]प्रियसूनोः प्रतिदिनप्रवर्द्रमानया(यौ)वनो (नस्य) रिपुमण्डलाक्रान्तिराज्याभ्युदयः (यस्य) कस्तरीकिंगोरविक्रमैकरसो ( सस्य ) विक्रमादित्यसत्याश्रयश्रीपृथ्वीवल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वरभट्टारकस्य विजयस्कन्धावारे रक्तपुरमधिवसति पट्पञ्चाशदुत्तरपदच्छतेषु शकवष्यतीतेषु प्रवर्द्धमानविजयराज्यसंवत्सरे द्वितीये वर्तमाने माघपौर्णमास्यां मूलसंघान्वयदेवगणोदितः (ताय) परमतप(पः )श्रुतमूर्तिविणे( शो )करामदेवाचार्यशिष्यो ( प्याय) विजितविपक्षवादिजयदेवपण्डितान्तेवासी (सिने ) समुपगतैकवादित्यादिश्रीविजयदेवपण्डिताचााय जिनपूजाभिवृद्धयर्थ वाहुबलिश्रेष्ठिविज्ञापनेन पुलिकरनगरस्य शङ्कतीर्थवसतेमण्डनमण्डित तस्य धवलजिनालयस्य जीर्णोद्धारण कृत्वा खण्डस्फुटितनवसस्कारबलिनिमित्तं दानशीलादिप्रवर्त्तनार्थ नगरादुत्तरस्या दिशि गव्यूतिप्रमाणव्यवस्थित कर्पटितटाकादक्षिणस्या दिशि राजमानेन शतानिवर्त्तनप्रमाणक्षेत्र सवाधीपरिहारं दत्तम् [1] तस्य सीमा समाख्यायते । पूर्वदिशि तत्साधितकिन्नरपापाणादक्षिणस्यामाशाया धवलपापाणपार्श्व Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मेश्वरका लेख शम्यः । पश्चिमस्या दिशि श्वेतपापाणादेकशमी उत्तरस्या दिशि आनीलपाषाणात् प्राक्प्रकाशिततटाकात् पूर्वस्या दिशि अरुणपाषाणात् पूर्वोक्तव्यक्तकिन्नरपापाणसंगता सीमा ।। स्व दातु सुमहच्छक्य दुःखमन्यस्य पालनम् । दानापालनाचेति (दान वा पालन चेति) दानाच्छ्योऽनुपालनम् ॥ न विष विषमित्याहुः ढेवस्व विषमुच्यते । विपमेकाकिनं हन्ति देवस्व पुत्र-पौत्रिकम् ॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् । पष्टि-वर्षसहस्राणि विष्ठाया जायते कृमिः ॥ प्रथ्यताम् जिनशासनम् [1] [इ० ए०, जिल्द ७, पृ० १०१-१११, नं० ३८ (पक्तियाँ ६१-८२)] [यह लेख उस बडे लेख (न. ११९) का तीसरा व अन्तिम भाग (पक्तियाँ ६१-८२ तक) है । यह पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीयका लेख है। यह उसके राज्यके द्वितीय वर्षका है जव कि शक वर्ष ६५६ (७३४-५ ई०) व्यतीत हो चुका था, और फलत पूर्व किसी लेख (शिलालेख या ताम्रपन्न) से यहाँ निश्चय या सुरक्षाके लिये दुहराया गया है। यह लेख उसकी छावनी 'रक्तपुर' से निकाला गया है । 'रकपुर' आजकलका कौन-सा स्थान है, यह नहीं कहा जा सकता। इससे 'पुलिकर'-पूर्वके दो शिलालेखोका 'पुलिगेरे'-शहरकी 'शङ्खतीर्थवसति' तथा 'धवलजिनालय' नामके एक दूसरे मन्दिरकी सजावट तथा मरम्मतका उल्लेख है और कहा गया है कि 'जिन' की पूजाके प्रबन्धके लिये कुछ भूमिदान किया गया। __ यह लेख अपने वशावली-परिचायक भागमे पश्चिमी चालुक्योके शिलालेखोसे मिलता है । इसमे दो आगेकी पीढ़ियोका-विजयादित्य और विक्र. मादित्य द्वितीयका, जो विनयादित्यके क्रमश पुत्र और पौत्र हैं,-भी उल्लेख है।] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन-शिलालेख-संग्रह ११५ पञ्चपाण्डवमलै-(आर्कटके निकट)-तामिल --[ ? - १ नन्दिप्पोत्तरश[ ] कु अय् [म् ] वदावदु नाग[ण]न्दि गुर [व] २. [ इरु ] क पोञिय [क] किय[]र पडिम कोमुधिट्टा [] ३. पुगिाळालैमंगल]त्तु मरुत्तुवर मगञ् नारण अनुवाद-नन्दिप्पोत्तरशके ५ वे (वर्प) मे,-पुगळालैमगलंके मरुन्तुवरके पुत्र नारणम् (नारायण) ने नागणन्दि (नागनन्दि) गुरुकी मूर्तिके साथ-साथ पोज्जियक्कियार्की मूर्ति खुदवाई। [EI, IV, no 14, A ] ११६ अनहिलवाड-पाटन-संस्कृत । (सवत् ८०२- ई० स० ७४५) यह शिलालेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका है। [J Bargess and H Cousens, Antiquity of North Gajerat (A SI, XXXII)] श्रवणबेल्गोला (विना कालका)-संस्कृत । [देखो "जैन शिलालेख-सग्रह प्रथम भाग"।] नन्दी (गोपीनाथ पर्वत)-सस्कृत । विना कालनिर्देशका संभवत ७५० ई० (लु. राइस) [नन्दीमे, गोपीनाथ पहाडीके ऊपर गोपालस्वामी मन्दिरके पासकी चट्टानपर Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेलवत्तेका लेख १०७ स्वस्ति श्रीमत् जित भगवता जिनवर-वृपमेण वृषभेण पुरा कलिअवसर्पिण्या द्वावरे युगे लोक-स्थितिरक्षार्थ काडित-मनुष्य-जन्मना पुरुषोत्तमेन सूर्य-वंश-व्योम-सूर्येण महारथेन दाशरथिना राम-स्वामिना प्रतिष्ठापिताय भगवतोहत. परमेष्ठिनः सर्वज्ञस्य चैत्य-भवनाय पश्चात् पाण्डवजनन्या को(कु)न्तिदेव्या पुनर्नवीकृत-सस्काराय भूमिदेव्यास्तिलकायमानाय स्वग्र्गापवर्ग-पटयोस्सोपान-पदवीभूताय धराधर-धरणेन्द्रस्य फणा-मणि-लीलानुकारिणे धराधरवराय जिनेन्द्र-चैत्य-सान्निध्यात् पावनाय परम-तीयाय तपश्चरण-परायण-महर्पि-गणाध्यासित-कन्दराय श्रीकुन्दाख्याय (यहाँ बन्द हो जाता है) [वृपभ-देवको नमस्कार करनेके बाद, प्राचीन समयमें, कलि-अवसर्पिणीके द्वापर युगमें, सूर्यवंशके गगनमे सूर्यके समान, दशरथके पुत्र महारथ राम-स्वामी (रामचन्द्रजी)के द्वारा अर्हन्त परमेष्टीका यह चैत्य-भवन प्रतिष्ठापित किया गया । बादमें, पाण्डवोंकी माता कुन्तीने इसे फिरसे नया बनवा दिया। भूमिदेवीको तिलकके समान, स्वर्ग और अपवर्ग दोनोके लिये सीढी, सव पर्वतोसें उत्तम, जिनेन्द्र चैत्य (विम्ब )के सान्निध्यसे पवित्रीकृत, परमतीर्थ, जिसमें जगह जगह तपश्चरण-परायण महर्पिगणोंके लिये कन्दराएँ (गुफायें) बनी हुई हैं, ऐसा 'श्रीकुन्द' नाम पर्वत (यहाँ लेख खतम हो जाता है।) [EC, X, Chik-ballapur t1, no 29 ] वेलवत्ते-कन्नड़। विना काल-निर्देशका (संभवत लगभग ७५० ई०) [वेलबत्ते-मैसूर तालुकेमें, बसवेश्वर मन्दिरके पश्चिमकी ओर] ने!यदि एर्दनु मुने......"कलियु प्रभिन्न-वाग्वि विल्लोरु गुर्रि ... १ प्रारम्भके गन्द 'स्वस्ति' को यहां अन्तमे लगा देनेसे यह लेस सभाव्यरुपसे पूर्ण समझा जा सकता है, क्योंकि 'स्वस्ति'के योगमे चतुर्थी विभक्ति होती है,जो यहाँ है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन-शिलालेख संग्रह दु एल्दु ढवे तम्म क्षेमकिरदल्लि मेचिर ताळ्बदु परत्रे यपुढेवदेरू महाप्रभु-गोवपश्यन् इन्त् इन्टपु समाधियोळे मुडिपि नान्दिदन्नितमरेन्द्रभोगम ॥ पदेदोम् श्री-पुरुपयल् आम्मु-मोदलोळ कल्नाडन् अन्दो बळेक एदेयो अकुडु भूतिमूतुगानो टोत धाण धीमे सळे पडेटे... पितृ-कळत्र-मित्र-जनम काव्यान्य ताब्द अप्पोडी-नुडियल वेल्कुमे पेम्पन् ओप्प गुणते तोळमिकिन्द गोपय्यनम् ॥ [महाप्रभु गोवपय्यको श्रीपुरुषकी तरफसे भूमि-दान मिला था और वे (गो प.) समाधिमरणपूर्वक मरे थे।] [EC, III, Mysore ti, no 6] १२० देवलापुर-कन्नड। विना कालनिर्देशका (सभवतः लगभग ७५० ई.) [देवलापुर (कूइनहल्लि तालुका), मारीगुडीके पूर्वमे ] स्वस्ति श्रीपुरुप-महा ...... पृथुवी-राज्यकेये अरट्टि " रम्मगन्दिर सिंग टीसे बीळादु अरहि-तीर कुडलरद गोट्टे मडिओडे-यम्बर आज्विकर (पृष्टभागपर) नोकज-ओडे आग्गढीकड · · कोट्ट नेल तेनेन्वक काहूकु साक्षी कुडलू पोद्भुलरु एकमडियरु एठिरियरु मद्गरु कागबरु साक्षि आग कोटदु आळ् आळ् किडिशिटोन वारणासिया शासिर-कविले शासिरपावर कोन्द कोले आका कोडिशिदोनु ....."कड्डुवेडिळोनुडि तेने.. विद स्वचोनु । अरटिंग तकर कुडलूर आव्वत्ति Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवरहल्लिका लेख १०९ [ जिस समय इस पृथ्वीपर श्री- पुरुष महाराज राज्य कर रहे थे, - अरहि" " के पुत्र सिंगम के ( जिन ) दीक्षा लेनेके बाद, ( उसकी सा ) अरट्टितिने कुडलर किले के मडि-ओडेके द्वारा शासित प्रदेशमे भूमिदान किया । ] [ EC, III, Mysore tl, no 25 ] १२१ देवरहल्लि - संस्कृत तथा कन्नड | शक स० ६९८=७७६ ई० [ देवरहल्लि ( देवलापुर प्रदेश ) में, पटेल कृष्णय्यके ताम्रपत्रोपर ] (Ib) खस्ति जित भगवता गतघनगगनाभेन पद्मनाभेन श्रीमज्जावेयकुलामलव्योमावभासनभास्करः खखदेकप्रहारखण्डितमहाशिलास्तम्भलब्धबलपराक्रमो दारुणारिगणविदारणोपलब्धनणविभूषणभूषितः काण्यायन-सगोत्र. श्रीमत्कोङ्गणिवर्म्मधर्म्ममहाधिराजः तस्य पुत्रः पितुरन्वागतगुणयुक्तो विद्याविनयविहितवृत्तिः सम्यक्प्रजापालनमात्राधिगतराज्यप्रयोजनो विद्वत्कविकाञ्चननिकपोपलभूतो नीतिशास्त्रस्य वक्तृ-प्रयोक्तकुशलो दत्तकसूत्रवृत्तेः प्रणेता श्रीमान् माधवमहाधिराजः तत्पुत्रः पितृपैतामहगुणयुक्तोऽनेकचातुर्हन्तयुद्धावाप्तचतुरुद्धिसलिलास्वादितयशः श्रीमद्धरिवर्म्ममहाधिराजः तस्य पुत्रो द्विजगुरुदेवतापूजनपरो ( II& ) नारायणचरणानुध्यातः श्रीमान् विष्णुगोपमहाधिराजः तत्पुत्रः त्र्यम्बकचरणाम्भोरुहरजः पवित्रीकृतोत्तमाङ्गः स्वभुजबलपराक्रमक्रयक्रीतराज्यः कलियुगक्लपङ्कावसन्नधर्म्मवृपोद्धरणनित्यसन्नद्धः श्रीमान् माघवमहाधिराजः तत्पुत्रः श्रीमत्कदम्बकुलगगनगभस्तिमालिनः कृष्णवमहाधिराजस्य प्रियभागिनेयो विद्याविनयातिशयपरिपूरितान्तरात्मा निरवग्रह प्रधानशौर्यो विद्वस्तु ? ( विद्वत्सु ) प्रथमगण्यः श्रीमान् 2 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह कोणिमहाधिराजः अविनीतनामा तत्पुत्रो विजृम्भमाणशक्तित्रयः अन्दरि-आलत्तूर्-प्पोरुळर्रे-पेल्लनगराद्यनेक समरमुख मखहुतप्रहतशूर्पुरुषपशूपहारविधसविहस्तीकृतकृतान्ताग्निमुखः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्ग- ( IIb) टीकाकारो दुब्बिनीतनामधेयः तस्य पुत्रो दुन्तचिमर्द्दविमृदितविश्वम्भराधिप मौलिमालामकरन्दपुञ्ज पिञ्जरीक्रियमाणचरणयुगलनलिनो मुष्करनामधेयः तस्य पुत्रश्चतुर्दगविद्यास्थानाधिगतविमलमतिः विशेषतोऽनवशेपस्य नीतिशास्त्रस्य वक्तप्रयोक्तकुशलो रिपुति - मिरनिकरनिराकरणोदय भास्करः श्रीविक्रमप्रथितनामधेयः तस्य पुत्रः अनेकसमरसम्पादितविजृम्भितद्विरद रढनकुलिशाघात - व्रणसरूढ़ भास्वद्विजयलक्षणलक्षीकृतविशालवक्षस्थल समधिगतसकलशास्त्रार्थतत्त्वत्समाराधितत्रिवर्गो निरवद्यचरितर् प्रतिदिनमभिवर्द्धमानप्रभावो भूविक्रमनामधेयः अपि च ११० नानाहेतिप्रहारप्रविघटितभटोरष्कबाटोत्थितास्रग् धाराखाद - (IIIa) मत्तद्विपशतचरणक्षोटसम्मर्द्दभीमे । सग्रामे पल्लवेन्द्रं नरपतिमजयद्यो विळन्दा-भिधाने राज - श्रीवल्लभाख्यस्समरशतजयावाप्तलक्ष्मीविलासः ॥ तस्यानुजो नतनरेन्द्रकिरीटकोटिरत्नार्कदीधितिविराजितपादपद्मः । लक्ष्म्या स्वयम्वृतपतिर्न्नचकामनामा शिष्टप्रियोऽरिगणदारणगीतकीर्त्तिः ॥ तस्य कोङ्गणिमहाराजस्य शिवमारापरनामधेयस्य पौत्रः समवनतसमस्तसामन्तमुकुटतट घटितवहलरत्नविलसदमरधनुष्खण्डमण्डितच Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवरहल्लिका लेख रणनखमण्डलो नारायणचिरणनिहितभक्तिः शूरपुरुपतुरगनरवारणघटासंघट्टदारुणसमरगिरसि निहितात्मकोपो भीमकोपः प्रकटरतिसमयसमनुवर्तनचतुर्युवतिजनलोकधूत्तॊऽलोकधूतः सुदुर्द्धरानेकयुद्धमूर्धलब्यविजयसम्पद हितगजब (IIIb) टाकेसरी राजकेसरी । अपि च । यो गङ्गान्वयनिर्मलाम्बरतलब्याभासनग्रोल्लसनमार्तण्डोऽरिभयङ्करः शुभकरसन्मार्गरक्षाकरः । सौराज्य समुपेत्य राज्यसमिती राजन् गुणैरुत्तमैराज-श्रीपुरुपश्चिरं विजयते राजन्य-चूडामणिः ॥ कामो रामासु चापे दशरथतनयो विक्रमे जामदग्न्यः प्राज्यैश्वर्ये बलारिवहुमहसि रविस्ख-प्रभुत्वे धनेश । भूयो विख्यातशक्तित्स्फुटनरमखिल प्राणभाज विधाता धात्रा सृष्टः प्रजाना पित(पति)रिति कवयो य प्रशसन्ति नित्य ।। तेन प्रतिदिनप्रवृत्तमहादानजनितपुण्याहधोपमुखरितमन्दिरोटरेण श्रीपुरुषप्रथमनामवेयेन पृथुवीकोङ्गणिमहाराजेन अष्टानवत्युत्तरे[] पट्च्छतेषु शकवर्षेष्वतीतेष्वात्मनः प्रवर्द्धमानविजयैश्वर्ये संवत्सरे पञ्चाशत्तमे प्रवर्त्तमाने मान्यपुरमधिव-(IVa)सति विजयस्कन्धावारे श्रीमूल-मूलगणाभिनन्दितनन्दिसद्धान्वये एरेगित्तनाम्नि गणे पुलिकलगच्छे स्वच्छतरगुणकिरण]प्रततिप्रहळादितसकललोकः चन्द्र इवापरः चन्द्रनन्दीनाम गुरुरासीत् तस्य शिप्यस्समस्तविबुधलोकपरिरक्षणक्षमात्मशक्ति. परमेश्वरलालनीयमहिमा कुमारवद्वितीय. कुमारण(न)न्दी नाम मुनिपतिरभवत् तस्यान्तेवासी समधिगतसकलतत्त्वार्थसमयितबुधसार्थसम्पत्सम्पादितकीर्तिः कीर्त(ति)नन्द्याचार्यों नाम महामुनिस्समजनि तस्य प्रियशिष्यः शिष्यजनकमलाकरप्रबोधनकः Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन-शिलालेख संग्रह मिथ्याज्ञानसन्ततसन्तमससन्तानान्तकसद्धर्भव्योमावभासनभास्करः विमलचन्द्राचार्यसमुदपादि तस्य (IV b) महर्द्धर्मोपदेशनया श्रीमद्वाणकुलकलः सर्वतपमहानन्दीप्रवाहः महादण्डमण्डलामखण्डितारिमण्डलद्रुमपण्डो दुण्डुप्रथमनामधेयो नीन्दयुवराजो जज्ञे तस्य प्रियात्मजः आत्मजनितनयविशेषनिःशेषीकृतरिपुलोकः लोकहितमधुरमनोहरचरितः चरितार्थत्रिकरणप्रवृत्तिः परमगूळप्रथमनामधेयश्रीपृथुवीनीर्गुन्दराजोऽजायत पल्लवाधिराजप्रियात्मजाया सगरकुलतिलकात् मरुवर्मणो जाता कुन्दाचिनामधेया भर्तृभवन आवभूव भार्या तया सततप्रवर्तितधर्मकार्य्यया निर्मिताय श्रीपुरोत्तरदिशमलङ्कुर्वते लोकतिलकनाम्ने जिनभवनाय खण्डस्फुटितनवसंस्कारदेवपूजादानधर्मप्रवर्त्तनार्थ तस्यैत्र पृ(Va)थिवीनीमुन्दराजस्य विज्ञापनया महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीजसहितदेवेन नीर्मुन्दविषयान्तपति पोनलिनामग्रामस्सर्वपरिहारोपेतो दत्तः तस्य सीमान्तराणि पूर्वस्या दिशि नोलिवेळदा वेळगल्-मोर्रादि पूर्वदक्षिणस्या दिशि पण्यङ्गेरी दक्षिणस्या दिशि वेळ्गल्लिगेरेया ओळगेरेया पल्लदा कूडळ दक्षिणपश्चिमायान्दिशि जैदरा केय्या वेळाल्-मोरंडु पश्चिमायान्टिशि पोङ्केवि ताल्तुबायराकेरी पश्चिमोत्तरस्या दिशि पुणुसेया गोगाला कल्कुप्पे उत्तरस्या दिशि सामगेरेया पोल्लदा पेर्मुरिकु उत्तरपूर्वस्या दिशि कळम्वेत्ति-गट्ठ इमान्यन्यानि क्षेत्रान्तराणि दत्तानि दुण्डुसमुद्रदा बयलुळ् किरुंढारीमेगे पदिकण्डुगं मण्ण पळेया एरेनल्लरा ऊर्पाळु ओर्कण्डुग श्रीवुरदा दु (Vb) ण्डुगामुण्डरा तोण्टढा पडुवायोन्दुतोण्ट श्रीवुरदा बयलुळ् कमर्गट्टिनल्लि इण्डुग कळनि पेगैरैया केळगे आरुंगण्डुगमेरे पुलिगेर्रया कोयिल्गोडा एडे इर्पत्तुगण्डुग ब्बेडे आदुवु श्रीवुरदा बडगण पडुवण कोणुळळण देवङ्गेरि मटमने ओन्द Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवरहल्लिका लेख मूवत्ता-ओन्दु मनेय मनेताणमस्य दानसाक्षिणः अष्टादश प्रकृतयः ।। (VIa ) अस्य दानस्य साक्षिणः पण्णवतिसहस्रविषयप्रकृतयः योऽस्यापहा लोभात् मोहात् प्रमादेन वा स पञ्चभिर्महद्भिः पातकैस्सयुक्तो भवति यो रक्षति स पुण्यभाग्भवति अपि चात्र मनु-गीताः श्लोकाः स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् । पष्टिं वर्पसहत्राणि विष्टाया जायते कृमिः ।। स्व दातुं सुमहच्छत्य दुःखमन्यस्य पालनम् । दान वा पालन वेति दानाच्छ्योनुपालनम् ॥ बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिः तस्य तस्य तदा फलम् ॥ देवस्व तु विप पोरं न विप विपमुच्यते । विपमेकाकिन हन्ति देवस्व पुत्र-पौत्रकम् || सर्वकलाधारभूतचित्रकलाभिज्ञेन विश्वकर्माचार्येणेद शासन लिखित चतुष्कण्डुकत्रीहिवीजाबापमानं विकण्डुककमुक्षेत्र तदपि ब्रह्मदेयमिव रक्षणीयम् ॥ [इस लेसमें सर्वप्रथम गङ्गनरेशोको राजपरम्परा बताई गई है। वह निन्न भाँति थी.१ काण्वायनमगोत्रीय कोङ्गाणिवर्म-धर्म-महाराजाधिराज । इनके पुत्र-- २ माधव-महाधिराज, ये दत्तकसूत्र-वृत्ति (टीका)के प्रणेता थे। इनके पुत्र३ हरिवर्म-महाधिराज। इनके पुत्र-- ४ विष्णुगोप-महाधिराज । इनके पुत्रशि०८ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन - शिलालेख संग्रह हृत-बलावलो- तप... यथ अमृतमयो मृत्याना सुखमयो मित्राणा सुधामयो रामाणामुत्साहमयः प्रजाना विनयमयो गुरुणा नयमत्ख ( ६ अ ) लट्-वृत्तीना अग्रणी रसिकाना स्रष्टा काव्य-रचनाना उपदेष्टा नयाना द्रष्टाखामि कार्याणा विद्वेष्टा कृत-दोपाणा यष्टा महा-मखाना परिमा पापाना प्रष्टा निर्माण हेतुना परिकृष्टा श्रितानाम् । अपि च । उदन्वानिव गाम्भीर्ये विवस्त्रानिव तेजसि । rrent लावण्ये नभखानित्र यो बले || मनोभूरिव सौरूपये मवानित्र सम्पदि । सुरमन्त्री गात्रार्थे उगनेव च यो नये ॥ ग्रामे पुरे नदी-तीरे गिरौ द्वीपे सरोऽन्तिके । प्रावर्त्तयत् स्वकीयभा योऽनेक वसतिं प्रभुः ॥ स मान्यनगरे श्रीमान् श्रीविजयोऽकार [य] च्छुभम् । जिनेन्द्र-भवन तुङ्ग निर्मल स्व-महम् - समम् ॥ तस्य च प्रसाधिताशेप - सामन्त चन्द्रस्य श्री - मारसिंहस्यानुज्ञया श्रीविजयो महानुभावः किषु - वेक्कर - ग्राममादाय मान्यपुर - विनिर्मिताय भगवदर्हदायतनाय अदादिति तस्य च ग्रामस्य ( यहाँ सीमाओंकी विस्तृत चर्चा आती है ) । अपि च । आसीद (तू) - तोरणाचायैः कोण्डकुन्दान्ययोद्भवः सतै [द] द्विपये धीमान् शाल्मलीग्राममाश्रित. || निराकृततमोऽरातिः स्थापयन् सत्पथे जनान् । स्वतेजोद्दयोतित-क्षोणिः चण्डाच्चिरिव यो वभौ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्णेका लेख १२३ तस्याभूत् पुष्पनन्दीति शिप्यो विद्वान् गणाग्रणीः । तच्छिप्यश्च प्रभाचन्द्रः तस्येय वसति. कृता ॥ (३ पंक्तियोमें दानकी चर्चा है) इदप शक-वर्ष एन्नूरा पत्तोम्भत्तु वर्षमुं मूषु तिङ्गलमाषाढशुक्ल पक्षदा पञ्चमियुमुत्तराभाद्रपतेमुं सोमवार, शासन निर्मित । अस्य दानस्य साक्षिणः पण्णवति-सहस्र-विषय-प्रकृतयः योऽस्यापहर्ता लोभान्मोहात् प्रमादेन वा स पञ्चभिर्महद्भिः पातकैस्संयुक्तो भवति यो रक्षति स पुण्यवान् भवति अपि चात्र मनु-गीताः श्लोका. खठत्तां पर-दत्ता वा यो हरेत वसुंधराम् । (७ अ) पष्टि-वर्ष-सहत्राणि विष्ठा [या जा ] यते कृमि. । ख दातु सुमहच्छत्य दुखमन्यस्य पालनम् । दान वा पालन वेति दानाच्छ्योऽनुपालनम् ॥ बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिमि । यस्य यस्य यदा भूमिः तस्य तस्य तदा फलम् ॥ ब्रह्मस्व तु विष धोर न विप विपमुच्यते । विषमेकाकिन हन्ति देव-ख पुत्र-पौत्रकम् ॥ सर्व-कलाधारभूत-चित्र-कलाभिज्ञेय-विश्वकर्माचार्येणेद शासन लिखित चतुष्कण्डुक-व्रीहि-बीजावाप-क्षेत्रं द्वि-कण्डुक-कङ्ग क्षेत्र तदपि देव-भोगमिति रक्षणीयम् ॥ [जाह्नवी (गङ्ग) कुलके स्वच्छ आकाशमे चमकते हुए सूर्य काण्वायन-सगोत्रके (१) श्रीमत्-कोगणिवर्म-धर्म-महाधिराज थे। (२) उनके पुन श्रीमान् माधव-महाधिराज थे। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन-शिलालेख-संग्रह (३) उनके पुत्र श्रीमद् हरिवर्म-महाधिराज थे। (४), , श्रीमान् विष्णुगोप-महाधिराज थे। (५) , , , माधव-महाधिराज थे। (६) उनके पुत्र, जो कदम्ब कुलवशीय कृष्णवर्म-महाधिराजकी प्रिय वहिनके पुत्र थे, अविनीत नामके श्रीमान कोगणि महाधिराज थे। (७) उनके पुत्र दुविनीत थे। इन्होने अन्दरि, आलत्तूर, पोरुलणे, पेल्नगर और दूसरे स्थानोके युद्धोको जीता था । इन्होने किरातार्जुनीय के १५ सगॉपर टीका की थी। (6) इनके पुन मुकर थे। (९) उनके पुत्र श्रीविक्रम थे, ये चौदहो विद्याओमे पारङ्गत थे । (१०) उनके पुत्र भूविक्रम थे। इन्होने विळन्दकी भयानक लडाईमें राजा पल्लवेन्द्रको जीता था, और सौ लड़ाइयोसे विजय लाभ करनेसे इनको 'राजश्रीवल्लभ' भी कहते थे। (११) उनका छोटा भाई नव-काम था। (१२) शिवमार-कोगणि महाराजका नाती श्रीपुरुष था, उन्हें पृथिवीकोगणि महाधिराज भी कहते थे। (१३) उनके पुत्र, प्रसिद्ध गगवंशके स्वच्छ आकाशके सूर्य, कोगणि. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री-शिवमार-देव थे। इनकी बहुत-सी प्रशसाका वर्णन है। (१४) उनके पुत्र, मारसिंह थे। जब वे अखण्ड गङ्ग-मण्डलपर राज्य कर रहे थे, उनका एक श्रीविजय नामका सेनापति था। उसकी प्रशंसा। उसने मान्य-नगरमें एक शुभ, विशाल जिनमन्दिर बनवाया। उसे श्रीमारसिहसे किपु-वेरु गाँव मिला था, वह उसने इसी अर्हत्-मन्दिरको भेंट कर दिया । इस गाँवकी सीमाये । शाल्मली गाँवमें रहनेवाले, कोण्डकुन्दान्वयके तोरणाचार्य थे। उनके शिष्य पद्मनन्दि थे। उनके शिष्य प्रभाचन्द्र थे, जिन्होने अपना आवास यही बना लिया था । जढियके तालावोकी नीचेकी जो जमीनें उनको दी गई थीं उनकी विगत । यह शासन (लेख) शक वर्ष ७१९ के ३ महीने बाद, आपाढ़ शुक्ला पञ्चमी, उत्तरभाद्रपद, सोमवारको निकला था। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ मन्नेका लेखर इस दानके साक्षी-९६००० के विद्यमान अफसर ( अधिकारी गण)। वे ही श्रापात्मक श्लोक । विश्वकर्माचार्य्यने इस शासनको लिखा था। प्रभाचन्द्र देवको दी गई भूमिकी विगत ।] [EC, IX, Nelamangala, tl, n° 60] मन्ने-संस्कृत । शक ७२४-८०२ ई. [मन्नेमें, शानभोग नरहरियप्पके अधिकारके तान्त्रपत्रोपर] (१ ब) स बोऽव्याद् वेधसा धाम यन्नाभि-कमल कृतम् । हरश्च यस्य कान्तेन्दु-कलया कमलङ्कृतम् ॥ भूयोऽभवद् बृहदुरुस्थल-राजमानश्री-कौस्तुभायत-करैरुपगूट-कण्ठः । सत्यान्वितो विपुल-बाहु-विनिर्जितारि चक्रोऽप्यकृष्ण-चरितो भुवि कृष्ण-राजः ।। पक्ष-च्छेद-भयाश्रिताखिळ-महा-भूभृत्-कुल-भ्राजितात् दुर्लंड्यादपरैरनेक-विपुल-भ्राजिष्णु-रत्नान्वितात् ।। यश्वालुक्यकुलादनून-विबुधा[...]श्रया [द्] वारिधः लक्ष्मी मन्दरवत् स-लीलमचिरादाकृष्टवान् वल्लभः ॥ तस्याभूत् तनयः प्रता [प]-विसरैराक्रान्त-दिड्-मण्डलश् चण्डाशोस्सदृशोऽप्य-चण्ड-करतःप्रह्लादित-क्ष्माधरो । धोरो धैर्य-धनो विपक्ष-बनिता-वक्त्राम्बुज-श्री-हरो हारीकृत्य यशो यदीयमनिश दिङ्-नायिकाभिधृतम् ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन-शिलालेख संग्रह ज्येष्ठोल्लवन-जातयाप्यमलया लक्ष्या समेतोऽपि सन् योऽभून्निर्मल-मण्डल-स्थिति-युतो दोपाकरो न कचित् । कर्णाधः-कृत-दान-सन्तति- (२ अ) भृतो यस्यान्य-दानाधिकम् दानं वीक्ष्य सु-लज्जिता इव दिशा प्रान्ते स्थिता दिग्गजाः ॥ अन्यैर्न जातु विजित गुरु-शक्ति-सार आक्रान्त-भूतलमनन्य-समान-मानम् । येनेह बद्धमवलोक्य चिराय गङ्गान् दूरे ख-निग्रह-भियेव कलिः प्रयातः ॥ एकत्रात्म-बलेन वारिनिधिनाप्यन्यत्र रुध्वा धनान् निष्कृष्टासि-भटोद्धतेन विहरद्-ग्राहातिभीमेन च । मातङ्गान् मद-वारिनिर्झर-मुच. प्राप्यानतात् पल्लवात् तचित्र मद-लेशमप्यनुदिन यस्स्पृष्टवान् न क्वचित् ।। हेला-स्वीकृत-गौड-राज्य-कमलान् चान्तःप्रविश्याचिराद् उन्मार्गे मरु-मध्यम-प्रतिवलों वत्सराजं बलैः । गौडीय शरदिन्दु-पाद-धवल-च्छत्र-द्वय केवलम् तस्मादाहृत-तद्-यशोऽपि ककुभा प्रान्ते स्थित तत्-क्षणात् ।। लब्ध-प्रतिष्ठमचिराय कलिं सुदूरम् उत्सायं शुद्ध-चरितैरिणी-तलस्य । कृत्वा पुनः कृत-युग-श्रियमप्यशेपम् चित्र कय निरुपमः कलि-वल्लभोऽभूत् ॥ प्राभू-(२ ब )द् धर्म-परात् ततो निरुपमादिन्दुर्य्यथा बारिधेः शुद्धात्मा परमेश्वरोन्नत-शिरस-ससक्त-पादस्तथा । पद्मानन्दकर. प्रताप-सहितो नित्योदयस्सोन्नतेः पूर्बारिव भानुमानभिमतो गोविन्दराजः सताम् ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनेका लेख यस्मिन् सर्व-गुणाश्रये क्षितिपती श्री - राष्ट्रकूटान्वयो जाते यादव यावन्मधुरिपाचासीद् अपर । दृष्ट्वा सावधयः कृनाम्सु-सदृशाः दानेन येनोद्धता. युक्ताहार - विभूषिता स्फुटमिति प्रत्यर्थिनोऽप्यत्थिन ॥ यस्याकारमनानुप त्रिभुवन व्यापत्ति-रक्षोचितम् कृष्णस्येव निरीक्ष्य यच्छति पद यद्याधिपत्य भुव. । आस्तानात तयमप्रतिहता दत्ता त्वया कण्ठिका किन्वा मया धृतेति पितर युक्त स तत्राभ्यधात् ॥ तस्मिन् स्वर्ग-विभूषणाय जनने याते यशोपताम् एकीभूय समुद्यतान् वसुमती संहारमाधित्सया । वि-च्छायान् सहसा व्यधत्त नृपतीने कोऽपि यो द्वादग ख्यातानप्यविक-प्रताप-विसरैस्तवर्त्त ( ३ अ ) कोल्कानिव ॥ येनायन्त- दयालुनो - निगल लगादपास्याननस् स्त्र देश गमितोऽपि दर्प-विसर य. प्रा [ ] कूल्ये स्थितः । लीला--कुटिले ललाट-फलके यावच्च नालक्ष्यते विक्षेपेण विजित्य तावदचिरादाबद्ध गङ्गः पुन. || सन्धायासि शिलीमुखान् स्व-समयात् वाणासनस्योपरि प्राप्त वद्धित बन्धुजीव - विभव पद्माभिवृद्ध्यान्वितम् । सर्व्वे क्षेत्रमुदीक्ष्य य शरद्-ऋतु पर्जन्यबद् गुर्जरो नष्ट कापि भयात् तथापि समय स्वमेऽप्यपश्यन् ॥ यत्पादानति मात्र कारणानालोक्य लक्ष्मी-विया दूरान् मालव-नायको नय - परो यत्रानिवद्धाञ्जलि । यो विद्वान् बलिना सहाल्प बलवान् स्पर्द्धां न वत्ते पराम् नीतेरसूतिरसौ यदात्म-परयोराधिक्य सम्वेदनम् ॥ १२७ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन-शिलालेख संग्रह विन्ध्याद्रेः कटके निविष्ट-कटकः श्रुत्वा चरैय॑न्निजैः ख देश समुपागतः ध्रुवमिव ज्ञात्वा धिया प्रेरितः । माराश-महीपति तमगादप्राप्त-पूर्ती ( ३ ब) परैर् य्यस्येच्छामनुकूला ....धनैः पाद-प्रणामैरपि ।। नीत्या श्रीभवने घनाधन-धन-व्याप्ता परं प्रावपम् तस्मादागतवान् सम निज-बलैरा-तुगभद्रा-तटम् । तत्रस्थः ख-करागत प्रकृतिमिनिश्शेषमाकृष्टवान् विक्षेपैरपि चित्रमानत-रिपुर जग्राह त पल्लवात् ।। लेखाहार-मुखोदितार्द्ध-वचसा यत्रा..."वेडीश्वरो नित्यं किङ्करवद् व्यधादविरत ‘र्म स्वमात्मेच्छया । बाह्यालि-वृत्तिरस्य येन रचिता व्योमावलग्ना रुचम् चित्र मौक्तिक-मालिकामिव धृताम्मूई [न् ] इ ख-तारा-गणैः ।। सन्त्रासात् पर-चक्र-राजकमगात् तच्छुद्ध-सेवा-विधिव्यावद्धाञ्जलि-गोभितेन शरण मूर्धा यदधि-द्वयम् । यद्यादत्त परार्ध-भूपण-गणैर्नालङ्कत तत् तथा मा भैश्चिरिति सत्य-पालित-यशस्-स्थित्या यथा तद्गिरा ।। तेनेदमनिल-विद्युच्चञ्चलमवलोक्य जीवितमसारम् । क्षिति-दानमपरपुण्य प्रवर्तित देव-भोगाय ।। स ( ४ अ) च परम-भट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीमद्-धारावपदेव-पादानुध्यात-परम-मट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-पृथिवी-बल्लभ प्रभूतवर्प-श्रीमत्-गोविन्दराजदेवः। भ्राताभूत् तस्य शक्ति-त्रय-नमित-भुवः शौचकम्भाभिधानो ज्येष्टस्त्यागाभिमान-प्रभृति-गुण-गणाधः-कृतादि-क्षितीगः । राजा राजारि-लोकास्थिर-तिमिर-घटा-पाटने शुद्ध-वृत्तः स श्रीमान् दिक्षु कीर्तिशशिविशद-रुचिस्स्थापिता येन भूयः ।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्णेका लेख १२९ तेन शौच-कम्भ-देवेन रणावलोकापर-नाम्ना राजाधिराज-परमेश्वरश्रीप्रभूतवर्षानुज्ञानुमतेन कोण्डकुन्दान्वयोदारो गणोऽभूत् भुवन-स्तुन । तटैदत्-विषय-विल्यात शाल्मली-ग्राममावसन् ॥ आसीत् [..")ता(तो)रणाचार्य्यस्तप.-फल-परिग्रहः । नत्रोपगम-सम्भूत-भावनापास्तकल्मपः ॥ पण्डित. पुष्पणन्दीति वभूव भुवि विश्रुत. । अन्तेवासी मुनेस्तस्य स-कलश्चन्द्रमा इव ।। प्रतिदिवस-भवद्-वृद्धि-निरस्त-दोपो व्यपेत-हृदय-मल । परिभूत-चन्द्र-बिम्बस् तच्छिप्योऽभूत् प्रभाचन्द्रः॥ (४ ब ) तस्य धर्मोपदेश-परितुष्ट-हृदयतया च सत्येन धर्म-तनयः स्फुरत्प्रतापेन पद्मिनी-बन्धु दानेन सुर-द्विरद जयतितरा यश्श्रियो भर्ता विविशुग्गुणा रिपूणाम् । हृदयान्यपि यस्य सत्य-शौर्याद्या. ॥ तेपामुरस्स्थल-स्थित कमलामाऋष्टमि [व] रम्यम् ॥ नस्य विष्णोरिव बलि-प्रताप- निळपणोद्यत-पराक्रमस्य पराक्रम-बलोकस्य प्रताप-निरन्तरतयाक्रान्त () समस्त-सुभट-लोकस्य केसरिण इत्र विक्रमैकर [स] स्य श्री-चप्पय्य-इति-सु-गृहीत-नाम्नः कुमारस्य वीरश्री-लतारोहण-कल्पवृक्षायमानभुजदण्ड-दण्डिताराते.प्रियात्मजस्य विज्ञापना कर्णोपजात-कुतहलतया च । राजाधिराज-परमेश्वर-श्री-निरुपमदेव प्रभृतवर्ष-प्रसादोपलब्ध-महा-सामन्ताधिपत्यालङ्कृत-महानुभावेन भगवढह[ ]-भटारक-चरण-परिचरण-प्रणत-पवित्रितोत्तमाङ्गेन महा-विजय-विक्षे शि०६ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन-शिलालेख संग्रह धापति-श्री-श्रीविजयराजेन निर्मापिता-(५ अ) य जिन-भवनाय मान्यपुरीपश्चिम-दिगगना-ललाम-भूताय चतुरविंशत्युत्तरेषु सप्तशतेषु शक-वर्षेषु समतीतेष्वात्मनः प्रवर्द्धमान-विज [य] संवत्सरे मान्यपुरमधिवसति विजयस्कन्धाबारे सोम-ग्रहणे पुप्य-नक्षत्रे शु [भ] लग्ने वार-विलासिनी-विरचित-तृत्त-गीत-वा( वा )।-बलि-विलेपन-देवपूजा-नव-कर्म-प्रवर्त्तनार्थ एदेदिण्डे-विषय-मध्य-चर्ति- पेडियर-नाम ग्राम सर्व-बाध-परिहार उदक-पूर्व दत्तः तस्य सीमान्तर (यहाँ सीमाये आती है) पादरि-ऊरुल् पत्तु-भागढोळोन्दु-भाग देवर्गे कोत्तु (हमेशाके चे ही अन्तिम श्लोक)। [विष्णुसे रक्षाकी कामना । पृथ्वीपर कृष्ण-राज विद्यमान थे। उनके धोर नामका एक पुत्र था। उसीके दूसरे नाम कलि-वल्लभ, वत्सराज, निरुपम थे। गुणी निरुपमसे गोविन्दराज उत्पन्न हुआ। जब यह राजा हुआ तो राष्ट्रकूट-वश दूसरे लोगो (वंशो) की प्रतियोगितासे ऊपर उठ गया। उसने गगको बन्धनसे छुडाया था, लेकिन अपने घमण्डी स्वभावके कारण शीन ही पुन बाँध लिया गया। उसकी बहुत-सी प्रशंसा । उसके पराक्रमोका वर्णन । उसने देव-भोग (मन्दिरके लिये दान) रूपसे भूमिदान किया। उसके बडे भाईका नाम शौच-कम्भ था। इसी शौच कम्भका दूसरा नाम रणावलोक था। __इस-विषय (देश) मे प्रसिद्ध शाल्मली नामक गाँवमे कोण्डकुन्दान्वयके उदारगणमे तोरणाचार्य हुए। पुष्पनन्दि-पण्डित उनके शिष्य थे। उनके शिष्य प्रभाचन्द्र थे। उनके एक बप्पय्य नामके भक्त श्रावक थे। उनका पुत्र शत्रुओका दण्ड देनेवाला था। अपने प्रिय पुनकी प्रार्थना सुनकर उन्होने, मान्यपुरके पश्चिममें जो जिनमन्दिर खडा हुआ था उसके लिये, उसके शासक श्रीविजय-राजकी कृपासे शक सं० ७२४ के बीतने पर, अपने ही विजय-वर्षमे, मान्यपुरमै पढे हुए अपने विजयी कैम्प (स्कन्धा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ कडवका लेख वार) में एदेदिण्डे-विषयका पेडियूर नामका गाँव, सर्व करोसे मुक्त करके, जलधारापूर्वक दानमें दिया। इस गाँवकी सीमायें । पदरियूरमें + भाग दानमे दिया गया। वे ही शापात्मक श्लोक ।] [NC, LX, Nelamangala ti no 61] १२४ कडव-संस्कृत तथा कन्नड । (सन्देहास्पद) [शक ७३५८१२ ई.] राष्ट्रकूटवंशोद्भव द्वितीय प्रभूतवर्ष महीपतिका दानपत्र । १ॐ स्वस्ति [I] विस्तृत-विशद-यशो-वितान-विशदीकृताशाचक्र वाल करवाल-प्रवालावतंस-विराजित-जयलक्ष्मी-समालिं२ गित-दक्ष-दक्षिणा-भूरि-भुजार्गल. गलित-सार-शौर्य-रस-विस र-विसखलीकृतोग्रा३ रि-वर्ग. वर्ग-त्रय-वर्गणैक-निपुणोऽचलाभार-चाची-विशेप निर्जितोर्चीमण्डलोत्सवोत्पादनपर. ४ पर-भूपाल-मौलि-माला-लीटाङ्गि-इन्दारविन्दो गोविदराजः ॥ तस्य-सू४'नु. सुतरुण-भावोदय-दया-दान-दीनेतर-गुण-गण-समर्पित-बन्धु जन सक६ ल-कलागम-जलधि-कलशयोनि मनुदर्शितमार्गानुगामी राष्ट्र कूट-कुला७ मल-गगन-मृगलाञ्छन. बुधजन-मुख-कमलाशुमाली मनोह८ र-गुण-गणालकार-भार ककराज-नामधेय. [1] तस्य पुत्रः स्व-वंशानेक नृ९ प-सघात-परम्पराभ्युदय-कारण. परम-ऋपि-ब्राह्मण-भक्ति Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन - शिलालेख संग्रह नात्पर्य १० कुशलः समस्त-गुण- गणाधिव्वोनो' विल्यात सर्व्वं लोक- निरुपमस्थिर-भाव-नि (वि) जिता- ११ रि-मण्डल. यस्यैममासीत् ॥ जित्वा भूपारिवर्गानय-कुशलतया येन रा १२ ज्य कृत यः कष्टे मन्वादिमार्गे स्तुत-धवल यशा न कचिद् यागपूर्व:' [[] सप्रामे यस्य पा १३ स्व- भुज-कर-वल-प्रापिता या जयश्रीर्यस्मिञ्जाते खवशोभ्युदय'वबलता यातवान्नर्कतेजः [|| १] अ १४ साविन्दराज - नामधेयः [II] तस्य पुत्रः ख-कुल- ललामायमानो मानधनो दीनाना दूसरा पत्र; पहली बाजू. १५ थ-जनाह्लादनकर-दान- निरत- मनोवृत्ति हिमकर इव सुखकरकरः कुलाचल-समु- १६ दाय इव सुधाधार-गुण-निपुण हिमगैल-कूट-तट-स्थापित यास्तम्भलिखिता १७ नेक विक्रम -गुणः [1] अध- संघात -विनाशक- सुरापगा यस्य सद्यशो विशद [ 1 ] गायन्तीव तरङ्गप्रभव १८ स्त्रैर्व्वति जन-महिता ॥ [२] असौ वैरमेघ- नामवेय: [ ॥ ] तस्य पितृव्यः हृदय-पद्मा १ 'गणाधिध्वानो' इति राममहोदय । २. 'यापू' पाठ ठीक मालम पढता है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ isant लेख १९ सनस्थ-परमेश्वर-शिरश्शिशिरकर- [ कर - ]निकर-निराकृत-तमोवृत्तिः सविशेषस्य जगत्रय २० सारोचयेनेव विरचितस्य चतुर्थ-लोकोदय- समानस्य कृतयुगशतैरिव निम्मि १३३ २१ तस्य यस्य यशस' पुञ्जमिव विराजमानः ॥ प्रदग्ध-कालागरु२२ धूप-धूमैः प्रवर्द्धमानोपचयाः पयोदा. [ 1 ] यस्याजिर खच्छसुगन्ध-तोयैः २३ सिञ्चन्ति सिद्धोटित - कूट-भागाः ॥ [ ३ ] न चेदृश प्राप्यमिति प्रलोभात् भवोद्भवो भावि - [ यु ] गा २४ वतारे [।] अवैमि यस्य स्थितये स्वय तत् कल्पान्तर नैव च भाव्यतीति ॥ [ ४ ] ताराग २५ णेषून्नत - कूट-कोटि-तटापितासूत्रल - दीपिकासु [1] मोमुह्यते रात्रि-विभेदभा २६ वः निशात्ययः पौरजनैन्निशाया ।। [५] आधारभूताहमिद व्यतीत्य मा बर्द्धते २७ चायमतिप्रसङ्गः [1] यस्यावकाशार्थमितीत्र पृथ्वी पृथ्वीव भूतेति च मे वि २८ तर्क ॥ [ ६ ] विचित्र - पताका सहस्र सञ्चाटित उपरि परिचरण-भयात् लोकै २९ क चूडामणिना मणिकुट्टिम-संक्रान्त-प्रतिबिम्ब व्याजेन स्वयमत्र ती १ 'पुञ्ज इव विराजमान' ऐसा पढ़ना चाहिये । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह दूसरा पत्र, दूसरी बाजू ३० परमेश्वर-भक्ति-युक्तेन नमस्क्रियमाणमित्र विराजमान प्रहत - पुष्करमन्द्र-निनादा ३१ कर्णनोदितानुरागै प्रावृडारम्भ-काल-जनितोत्सवारम्भः मयूरैः १३४ प्रारब्ध-वृत्त-नृ ३२ तान्त धूम - वेला - लीला-गत विलासिनी-जनाना कर-तल-किसलयरस-भाव- सद्भाव-प्रक ३३ टन - कुशल- शशिवदनाङ्गना-नर्त्तनाहृत-पौर युवति-जन-चिन्तान्तर समस्त - सिद्धान्त-साग ३४ र पारग-मुनि-शत-सङ्कुल देवकुलमासीत् कृण्णेश्वरनाम स्वनामधेयाङ्कित असा ३५ कालवर्ष इति विख्यात [11] तस्य सूनुः आनत-नृप-मकुटमणि-गण-किरण - जाल-रञ्जित - ३६ पद - युगल-नख-मयूख-प्रभा भासित - सिंहासनोपान्त कान्ताजनकटक-खचि ३७ त-पद्मराग दीधिति- विसर - शुम्भत्- कुसुम्भ-रस-रञ्जित-निज-वबलवीज्यमान- चारु-चा ३८ मर-निचय-विख्यात-प्राज्य-राज्याभिषेकान्तैरैकैश्वर्य्य-सुख-समनुभवस्थि ३९ तिः निज-तुरङ्गमैक-विजयानीत-राजलक्ष्मी-सनाथो महीनाथो यः कल्पाङ्घ्रिपः ससेव १ ‘सत्यमेव' ऐसा शुद्ध पाठ मालूम पडता है । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडवका लेख ४० चिन्तामणिरिति ध्रुव य वदन्त्यर्थिनः । नित्य प्रीत्या प्राप्तार्थ सम्पदसौ प्रभूतवर्ष इति वि४१ ख्यातो भूपचक्रचूडामणिः [1] तस्यानुजः धारावर्ष-श्री-पृथ्वी वल्लभ-महाराजाधि४२ राजपरमेश्वरः खण्डितारि-मण्डलासि-भासित-दोईण्ड' पुण्डरीक' ___इब बलिरिपु-मर्दना४३ क्रान्त-सकल-भुवनतल सुकृतानेक-राज्य-भार-भारोहहन-समर्थः हिमशैल-नि४४ शालोर स्थलेन राजलक्ष्मी-विहरण-मणि-कुट्टिमेन चतुराङ्गनालिंगन-तुङ्ग-कुच तीसरा पत्र, पहली बाजू ४५ सग-सुखोद्रेकोदित-रोमाञ्च-योजितेन स्व-भुजासि-धारा-दलित___ समस्त- गलित-मुक्ताफल-वि४६ सर-विराजितारि-बल-हस्ति-हस्तास्फालन-दन्त-कोटि-घट्टित-घनी कृतेन विराजमान त्रिपुर-- ४७ हर-वृषभ-ककुदाकारोन्नत-विकटास-तट-निकट-दोधूयमान-चारु चामर-चयः फेन-पिण्ड४८ पाण्डुर-प्रभावोदितच्छविना वृत्तेनापि चतुराकारेण सितातपत्रे___णाच्छादित-समस्त-दिग्-विव४९ रो रिपुजनहृदयविदारणदारुणेन सकलभूतलाधिपत्यलक्ष्मीली १ 'पुण्डरीकाक्ष' पढो। २ 'दलितमस्त' पढो। ३ आगे ४९ वीं पक्तिसे प्राचीन लेखमाला, प्रथम भाग, लेख ११ परसे लिया है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन-शिलालेख संग्रह लामुत्पादयता प्रहतपटहढकागम्भीरवानेन घनाघनगर्जनानुकारिणा अस्याचितो बिनोदनिर्गम, (१) स्वकीया साञ्चलता (१) परनृपचेतोवृत्तिषु दातुमिवोचैराविलोलप्रकटितराज्यचिह्न (?) तुरङ्गमखरखुरोत्थितपाशुपटलमसृणितजलदसचयानेकमत्तद्विपकरटतटगलितदानधाराप्रतानप्रशमितमहीपराग.। यस्य श्री चपलोदया खुरतरङ्गालीसमास्फालना निर्भिन्नद्विपयानपात्रगतयो ये सचलचेतसः । (१) तस्मिन्नेव समेत्य सारविभव सत्यज्य राज्य रणे ___ भग्ना मोहवशात् खय खलु दिशामन्त भजन्तेऽरय ॥ इद कियद्भूतलमत्र सम्यक् स्थातु महत्सकटमित्युदग्रम् । खस्यावकाशं न करोति यस्य यगो दिशा भित्तिविमेदनानि ।। अनवरतदानधारावर्षागमेन तृप्तजनतायाः धारावर्ष इति जगति विख्यातः सर्वलोकवल्लभतया वल्लभ इति । तस्यात्मजो निजभुजबलसमानीतपरनृपलक्ष्मीकरधृतधवलातपत्रनालप्रतिकूलरिपुकुलचरणनिबद्धखलखलायमानधवलशृङ्खलारवबधिरीकृतपर्यन्तजनो निरुपमगुणगणाकर्णनसमाह्लादितमनसा साधुजनेन सदा संगीयमानशशिविशदयशोराशिराशावष्टब्धजनमन परिकल्पनत्रिगुणीकृतस्त्रकीयानुष्ठानो निष्ठितकर्तव्य प्रभूतवर्षश्रीपृथ्वीवल्लभराजाधिराजपरमेश्वरस्य प्रवर्धमानश्रीराज्यविजयसवत्सरेषु वदत्तुं । चारुचालुक्यान्वयगगनतलहरिणलाञ्छनायमानश्रीवलवर्मनरेन्द्रस्य सूनु खविक्रमावजितसकलरिपुनृपशिर शेखरार्चितचरणयुगलो यशोवर्मनामधेयो राजा व्यराजत । तस्य पुत्रः 'सुपुत्रः कुलदीपक' इति पुराणवचनमवितथमिह कुर्वन्नतितरा धीराजमानो १ 'वहत्सु' पाठ मालूम पडता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडवका लेख १३७ मनोजात इव मानिनीजनमनस्थलीय. (?) रणचतुरश्चतुरजनाश्रय श्रीसमालिङ्गितविशालवक्षस्थलो नितरामशोभत । असौ महात्मा कमलोचितसद्भुजान्तरश्रीविमलादित्य इति प्रतीतनामा । कमनीयवपुर्विलासिनीना भ्रमदक्षिभ्रमरालिवक्रपद्म ॥ य प्रचण्डतरकरवालदलितरिपुनृपकरिघटाकुम्भमुक्तमुक्ताफलविकीर्णितरुचिरक्ताधिकान्तिरुचिरपरीतनिजकलत्रकण्ठः शितिकण्ठ इव महितमहिमामोद्यमानरुचिरकीर्तिरोपगङ्गमण्डलाधिराज श्रीचाकिराजस्य भागिनेय भुवि प्रकाशत यस्मिन् कुनुन्गिलनामदेशमयश.पराड्यखा मनुमार्गेण पालयति सति श्रीयापनीयनन्दिसंघपुंनागवृक्षमूलगणे श्रीकियाचार्यान्वये बहुष्वाचार्येष्वतिक्रान्तेषु व्रतसमितिगुप्तिगुप्तमुनिवृन्दवन्दितचरणकूविलाचार्याणामासीत् (?) तस्यान्तेवासी समुपनतजनपरिश्रमाहार खदानसंतर्पितसमस्तविद्वज्जनो जनितमहोदय विजयकीर्तिनाम, मुनिप्रभुरभूत् । अर्ककीर्तिरिति ख्यातिमातन्वन्मुनिसत्तमः । तस्य शिष्यत्वमायातो नायातो वशमेनसाम् ॥ तस्मै मुनिवराय तस्य विमलादित्यस्य शणेश्वर ( ? )पीडापनोदाय मयूरखण्डिमधिवसति विजयस्कन्धाबारे चाकिराजेन विज्ञापितो वल्लमेन्द्र इडिगूर्विषयमध्यवार्तन जालमङ्गलनामधेयग्राम शकनृपसंवत्सरेषु शरशिखिमुनिषु (७३५) व्यतीतेषु ज्येष्ठमासशुक्लपक्षदशम्यां पुष्यनक्षत्रे चन्द्रवारे मान्यपुरवरापरदिग्विभागालकारभूतशिलाग्रामाजनेन्द्रभवनाय दत्तवान् तस्य पूर्वदक्षिणापरोत्तरदिग्विभागेषु वस्तिमङ्गल__ १ 'प्रकागते यस्मिन्' यह पाठ मालम पड़ता है। २ 'परायखे' यह अपेक्षित है। 'श्रीकीाचार्य' जान पड़ता है । ४ 'जिनेन्द्र' ऐसा पाठ मालूम पडता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन - शिलालेख संग्रह बेल्लिन्ट गुडनूरत्तरिपाल इति प्रसिद्धा ग्रामाः एव चतुर्णा ग्रामाणा मध्ये व्यवस्थितस्य जालमङ्गलस्याय चतुरावधिक्रमः पुनस्तस्य सीमा - विभाग ईशानत' मुकूडल्टक्षिणदिग्विभागमवलोक्य एल्तगकोडल-मूडगकेल-बन्दु इर्ष्णेय कोपदे-पल्लद्-ओलगण उलिअलरिये कोठेयालि-वेलने सयकने बन्दु पोल पुणसे एव कीले अन्ते पोयिए विटिरूर्गेरे मुकूडल् तत पश्चिमत. पुलिपदिय तेङ्कण पेर् ओल्वेये पेविलिके एलगल-करण्डलो मुकूडल् अन्ते सयूकने पोगि नायूमणिगेरेय तायुगण्डि सुकूडलू तत उत्तरत. वल्लगेरेय पडुब गजगोड पळम्बे पुर्णुसे आनेदलो गेरेए पुलपडिये एगले पुलिगारद गेरे मुकूड तत. पूर्वतः निड्ड विळिक्के -- दविन पुल्पडिये कञ्चगार गले पोल एल्ले पुणुसये वपुसये वेळने बन्दु ईशानंद मुकूडलोट् कूडि निन्दत्तू । राचमलगामण्डनु शीरनु गङ्गगामुण्डनु मारेयनु वेगेरेय् ओडेयोरु मोढवागे-एल्पटिम्बरु कुनुन्गिल्-अयसार्वरु साक्षियागे कोत्तू | नमः । अद्भिर्दत्त त्रिभिर्भुक्त पद्भिश्च परिपालितम् । एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराजकृतानि च ॥ स्व दातु सुमहच्छक्य दुखमन्यस्य पालनम् । दान वा पालन वेति दानाच्छ्रेयोऽनुपालनम् ॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुधराम् । पष्टिं वर्षसहस्राणि विष्ठाया जायते कृमि || देवख[हि] विप घोर कालकूटसमप्रभम् । विपमेकाकिन हन्ति देवख पुत्रपौत्रकम् ॥ ( इण्डियन् एण्टिकेरी १२/१३-१६ ) [ एपिग्राफिका इण्डिका, ४।३४०-३४५ ] ' १ 'चतुरवधिक्रम ' यह पाठ मालम पड़ता है । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडवा लेख १३९ [ इस शिलालेखमे बताया है कि राजा प्रभूतवर्ष ( गोविन्द तृतीय ) ने जब कि वे मयूरखण्डीके अपने विजयी विश्रामस्थलपर ठहरे हुए थे, चाकराजकी प्रार्थनापर शक सं० ७३५ में जालमङ्गल नामका गाँव जेन मुनि अर्ककीर्तिको भेंट दिया । यह भेट शिलाग्राम से स्थित जिनेन्द्रभवनके लिये दी गई थी। कारण यह था कि कुनुन्गिल जिलेके शासक विमलादित्यो उन्होने ( अर्ककीर्ति मुनिने ) शनैश्वर ( ? ) की पीड़ासे उन्मुक्त किया था । इस लेखमें पं० १-६४ तक राष्ट्रकूट राजाओ की प्रशसामात्र है । इसमें उनकी बशावली इस प्रकार दी हुई है: ountr लेखप्रस्तुत नाम ( १ ) गोविन्द (२) कक्क I (३) इन्द्र ( ४ ) वैरमेघ 1 ( ५ ) अकालवर्ष [ वैरमेघका चाचा ( पितृव्य ) ] ऐतिहासिक नाम = गोविन्द प्रथम = कर्क प्रथम = इन्द्र द्वितीय =दन्तिदुर्ग या दन्तिवर्म्मन् द्वि० = कृष्ण प्रथम (६) प्रभूतवर्ष = गोविन्द द्वितीय 1 (७) धारावर्ष श्री पृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर, द्वितीय | नाम - वल्लभ = ध्रुव ( प्रभूत वर्षका छोटा भाई ) (८) प्रभूतवर्ष श्रीपृथ्वीवल्लभ [ महा ] राजाधिराज परमेश्वर, द्वितीय नाम वलभेन्द्र = गोविन्द तृतीय ३४ वीं पक्तिमें कहा गया है कि अकालवर्षने अपने ही नामसे 'कण्णेश्वर' नामक मन्दिर बनवाया था। पंक्ति २९-३० से ऐसा मालूम पडता है कि यह मन्दिर शिवके लिये अर्पण किया गया था । पं० ८१ में बताया Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह गया है कि दानके समय गोविन्द-तृतीय मयूरखण्डीके अपने विजयस्कन्धावार (पड़ाव) में ठहरे हुए थे। पक्ति ६५-७५ मे विमलादित्यकी वशावलीका उल्लेख हुआ है। उनके पिता राजा यशोवर्मा थे और उनके बाबा नरेन्द्र बलवर्मा थे। चालुक्योसे इस कुलका संबध था, लेकिन वर्तमानमें चालुक्यवंशी राजाओमें इन नामोके राजा नहीं मिलते हैं, इसलिए प्रो० भाण्डारकरने उन्हें एक स्वतन्त्र शाखाका माना है। विमलादित्य कुचनिगल देश (जिले) का राजा था। विमलादित्यको चाकिराजकी बहिनका पुन बताया गया है । चाकिराजको गङ्गो (अशेष-भागमण्डलाधिराज) के समूचे प्रान्तका शासक कहा गया है । इसीकी प्रार्थनापर दान किया गया था । ___ पति ७५-८० मे दानपात्रका विशेष वर्णन है। उनका नाम अर्ककीर्ति था, ये कूविल आचार्यके शिष्य विजयकीर्तिके शिष्य थे । यह मुनि श्री यापनीय नन्दिसघके पुनागवृक्षमूलगणके श्रीकीाचार्यके अन्वय (परम्परा) के थे । इनका एक विशेषण 'व्रतसमितिगुप्तिगुप्तमुनिवृन्दवन्दितचरण है। लेखके अन्तिम भागका सार उपर दे दिया गया है । लेखके अन्तिम भागमे कुछ साक्षियोके नाम भी दिये गये है जिनके सामने यह दान किया गया था। अन्तके चार वे ही साधारण शापात्मक श्लोक है।] नौसारी-संस्कृत। [शक ७४३८२१ ईस्वी] यह शिलालेख सम्भवत. श्वेताम्बर सम्प्रदायका है। [F. H Dhrura, Zertschr d dent morg Gesell,ZL, P 321, n° VIL, a] कांगड़ा-संस्कृत। [लौकिक वर्ष ? ]८५४ ई० १ (बूलहर) श्वेताम्बर सम्प्रदायका। [EL, I, n° XVIII (p 120), t & tr] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ - नूरका लेख १२७ कोनूर(जिला धारवाड)-सस्कृत । [शक सं० ७८२-८६० ई०] श्रिय प्रियस्संगतविश्वरूपस्सुदर्शनच्छिन्नपरावलेपः। दिश्यादनन्तः प्रणतामरेन्द्रः श्रिय ममाद्यः परमां जिनेन्द्रः॥१॥ अनन्तभोगस्थितिरत्र पातु व. प्रतापशीलप्रभवोदयाचलः । सु-राष्ट्रकूटोर्जितवशपूजस्स वीर-नारायण एव यो विभु. ॥ २ ॥ नदीयभूपायतयादवान्वये क्रमेण वा वित्र रत्नसञ्चयः । बभूव गोविन्दमहीपतिर्भुवः प्रसाधनो पृच्छकराज-नन्दन. ॥ ३ ॥ इन्द्रावनीपालसुतेन धारिणी प्रसारिता येन पृथु-प्रभाविना । महौजसा वैरितमो निराकृत प्रतापशीलेन स कर्कर-प्रभुः ॥ ४ ॥ ततोऽभवदन्तिघटाभिमईनो हिमाचलाइजित-सेतु-सीमत.। खलीकृतोद्वृत्तमहीपमण्डल कुलाग्रणीः यो भुवि दन्तिदुर्ग-राट् ॥ ५॥ स्त्रयम्बरीभूतरणाङ्गणे ततस्स निर्व्यपेक्ष शुभतुङ्गबल्लभः । चकर्ष चालुक्यकुलश्रिय बलाद्विलोल-पालिध्वज-माल-भारिणीं ॥ ६ ॥ जयोञ्चसिंहासनचामरोजितस्सितातपत्रो प्रतिपक्ष राज्य(ज)हा । अकालवर्षोजितभूपनामको बभूव राजर्षिरशेषपुण्यतः ॥ ७ ॥ नतः प्रभूतवर्पोऽभूद्धारावर्षसुतश्शरैः । धारावर्षायित येन सग्रामभुवि भूभुजा ॥ ८॥ तस्य सुतः यजन्मकाले देवेन्द्ररादिष्ट वृपभो भुव । भोक्तेति हिमवत्सेतु-पर्य्यन्ताम्बुधिमेखलाम् ॥ ९॥ ततः प्रभूतवपस्सन् स्वयम्पूर्णमनोरथः । जगत्तुङ्गस्सुमेरुर्वा भूभृतामुपरि स्थितः ॥ १० ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन-शिलालेख-संग्रह बन्धूना बन्धुराणामुचितनिजकुले पूर्वजाना प्रजाना जाताना वल्लभानां भुवनभरितसत्कीर्तिमूर्ति-स्थिताना । त्रातु कीर्ति स-लोक कलिकलुषमथो हन्तमन्तो रिपूणा श्रीमान् सिंहासनस्थो भवनवनिमतोऽमोघवर्षः प्रशास्ति ॥ ११ यस्याज्ञा परचक्रिणः त्रजमिवाजस्त्र शिरोभिर्वह न्यादिग्दन्तिघटावलीमुखपटैः कीर्तिप्रतानस्स तैः । यत्रस्थः स्वकरप्रतापमहिमा कस्याप्यदूरस्थित तेजःक्रान्तसमस्तभूभृदिव एवासौ न कस्योपरि ॥ १२ ॥ चतुस्समुद्रपर्यन्त (१) स्वमुद्र यत्प्रसाधित । भग्ना समस्तभूपालमुद्रा गरुडमुद्रया ॥ १३ ॥ राजेन्द्रास्ते वन्दनीयास्तु पूर्वे, येपा धर्म पालनीयोऽस्मदीयै । ध्वस्ता दुष्टा वर्तमानास्सधर्मा प्रार्थ्या ये ते भाविनः पार्थिवेन्द्राः ॥१४॥ भुक्तं कश्चिद्विक्रमेणापरेभ्यो दत्त चान्यैस्त्यक्तमेवापरैर्यत् । कास्थानित्ये तत्र राज्ये महद्भि कीर्त्या ( त्यै ? ) धर्म, केवल पालनीयः ॥ १५ ॥ तेनेदमनिलविद्युच्चञ्चलमवलोक्य जीवितमसार । क्षितिदानपरमपुण्यः प्रवर्तितो देवदायोऽयम् ॥ १६ ॥ स एव परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री-जगत्तुङ्गदेव-पादानुध्यान( त )परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्री-पृथ्वीवल्लभ-श्रीमदमोघवर्ष-श्रीवल्लभनरेन्द्रदेवः सर्वानेव यथासम्बध्यमानकान्-राष्ट्रविषय १ 'हन्तु' पढो . २ 'भवनमिदमतो' या 'भवनमनमितो' । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोन्नृरका लेख पति-प्रामकूटायुक्तक-नियुक्ताधिकारिकमहत्तरादीन् समादिशत्यस्तु वत्सविदित यथा ॥ विक्रमविलासनिलयो मुकुल-कुले पूर्वबन्धुभिर्मान्यैः एरकोटिनामधेयः प्रविकसितोऽभूत्प्रसूनसमः ॥ १७ ॥ आविरासीत्प्रभुस्तस्मात् प्रसूनात्फलसन्निभ. । नाम्ना धोरः कुलाधारः कोलनूराधिपस्वयम् ॥ १८ ॥ सुतोऽस्य विजयाङ्कायामभू वनमानित । प्रचण्डमण्डलातको बकेशः से(चे)ल्लकेतनः ॥ १९ ॥ मदीयो विततज्योतिर्णिण( नि )शितोऽसिर्वापरैः ।। उन्मूलितद्विपद्धृक्षमूलो मौलबलप्रभु ॥ २० ॥ मत्प्रदेशेन संल्लब्ध-वनवासी-पुरस्सरान् । ग्रामान् त्रिंशत्सहस्राणि भुनक्त्यविरतोदय. ॥ २१ ॥ महाप्रतापादुच्छेदमुदयच्छन् मदिच्छया । मूलादुच्छेत्तुमुत्तुङ्गा गणवाडी-बटाटवीम् ॥ २२ ॥ नन्त्रातरेऽस्मत्सावमन्तैर्मात्सर्याहितमानस- रुपेक्षितोऽपि कोपोद्यत्साहसैकसख स्वयम् ॥ २३ ॥ वस्तरिपुनीतिमाग्! रणविक्रममेकबुद्धिमभिनीय । स मदीयहृदयसगतमवन्ध्यकोपत्वमावहति ॥ २४ ॥ येनतत्-केदलाभिधान दुर्ग वप्रार्गलादिदुर्लङ्घय । मौल-बलाधिष्ठितमपि सद्य. प्रोल्लञ्चय हेलयाग्राहि ॥ २५ ॥ जनपदमद कृत्वा हस्ते विधूय विरोधिन तलवनपुराधीश कृत्वा श्रुत रणविक्रमम् । मदरिविजयी भर्तुः श्लाघ्यस्समन्वितसगरः समरसमये विद्विट्-चक्ररविकृतविक्रमः ॥ २६ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह कावेरी गुरुपूरदुर्गमतमामुल्लङ्घय सिंहक्रमात् प्रत्यग्र-स्फुरित-प्रताप-दहन-प्रोद्यच्छिखाश्रेणिभिः । निर्दकपदेन सप्तपदकान्विटिनोच्छेदिना येनाकम्पि जगत्प्रकम्पनपटोāराज्यमप्यूजितम् ॥ २७ ॥ तन्त्रान्तरे मदन्तिकमन्त देन जातसक्षोमे । प्रत्यागन्तव्यमिति त्वयेति मद्वचनमात्रेण ॥ २८ ॥ अप्राप्ते वल्लमेन्द्रो मयि जयति यदा विद्विप स्यान्तदाह ___ सन्यस्तागेपसङ्गो मुनिरथ विधिना विद्विष स्याज्जयश्री । तत्राप्युद्दामधूमध्वजविततशिखासूत्पतामि प्रतापा दित्यारूटप्रतिज्ञ कतिपयदिवसै प्रापदस्मत्समीपम् ॥२९॥ मासत्रयस्य मध्ये यदि भोजयितु न शक्यते खामी । क्षीर विजिल्य शत्रु तथापि वहिं विशाम्येव ॥ ३० ॥ इत्युक्त्वा क्रमविक्रमोच्छिखशिखीवालावलीड (ड)(ब) जे ___ धूमश्याम लि] ते तिरोहिततनौ प्राय परप्रेषिते । ये ते मत्तनये स्थितान्यनृपतीनिर्जित्य यो जित्वरो बन्दीकृत्य रिपून्निहित्य च तदा तीर्णप्रतिज्ञोऽभवत् ॥ ३१ ॥ आविष्कृतकोपशिखानिर्दग्धारीन्धनो विनाप्यनिलात् ।' अवालितोऽपि यस्य प्रतापवह्निर्मुहुर्बलति ॥ ३२ ॥ यस्य च कृपाण-[वारिणि] रुधिराकुलिता द्विपा महालक्ष्मी । मज्जत्युन्मज्जति तु स्वाधिपते. कुङ्कमा(३ भा)क्त्वेव ॥ ३३ ॥ हुत्वा येन रिपु विरोधिरुधिरप्राज्याज्यधाराहुति__ वात-प्रस्फुरित-प्रताप-दहने विद्विष्टशान्तेश्रित । विप्रेणेव रणावरे सुविहित-श्री-मन्त्रशक्त्यार्जित कल्पान्तस्थिरवीरशासनमिद मद्वीरनारायणात ॥ ३४ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ कोन्नूरका लेख - तेनैवम्भूतेन बद्देयाभिधानेन मदिष्टमृत्येन प्रार्थितः सन् तत्प्रार्यनया मान्यखेटराजधान्यामवस्थितेन मया [मा] नापित्रोरात्मनश्चैहिकामुत्रि पुण्ययशोभिवृद्धये कोलनूरे तयङ्केयनिापिन-जिनायतन-परिपालननियुक्ताय श्रीमूलसङ्घ-देगीयगण-पुस्तकगच्छत । जातस्त्रैकालयोगीशः क्षीराब्धेरिव कौस्तुभ ॥ ३५ ॥ तच्चारित्रवधूप(पु)त्र श्रीदेवेन्द्रमुनीश्वरः । सैद्धान्तिकाग्रणीस्तस्मै वडेयो यामदान्मु]ढा ।। ३६ ॥ नहसतिसम्वन्धिनवकर्मोत्तरभाविखण्डस्फुटित-सम्मार्जनोपलेपनपरिपालनादिधर्मोपयोगिकर्मकरणनिमित्त मञ्जन्तिय-सप्ततिग्राम-भुक्त्यन्तगत तलेयूरनामग्राम. तस्य चाघात (ट.) नत्कोलनूरात् पूर्वत. वेन्दनूरु दक्षिणत सासवेवादु तत्पश्चिमन पडिलगेरी उत्तरत कीलचाडः एवमयं चतुराघाटनोपलक्षित सोन्द्रगस्स-परिकर मदण्डदशापरावस्सम्भृतोपात्तप्रत्यय' सोन्पद्यमानविष्टिति (क). सधान्यहिरण्यादेय. द्वादशपुप्पवाट पञ्चागदुत्तरशतहस्तविस्तार पञ्चशतहस्तप्रमाणायाम गृहाणामाघाटस्समुदित प्रवेश्यस्सराजकीयानामहस्तप्रक्षेपणीवः आचन्द्राकर्णिव-क्षिति-सरित्-पर्वत-समकालीन पुत्रपौत्रान्वयक्रमेण प्रतिपाल्य. पूर्वप्रदत्त-देवब्रह्मदायरहितोऽह्य( भ्य )न्तरसि [द् ] या भूमिच्छिद्वन्यायेन शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्तसु द्वा(व्य)शीत्यधिकेषु तदभ्यधिक समनन्तर-प्रवर्त्तमानत्रयोशीतितमविक्रमसंवत्सरान्तर्गताश्वयुजपौर्णमास्यां सर्वग्रासि-सोमग्रहणे १ 'सभूतोपातप्रलायम्' शब्द है। २ 'व्यशीतितम' पढना चाहिये । शि० १० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन-शिलालेख संग्रह महापर्वणि बलिपक्षवैश्वदेवाग्निहोत्रातिथिसन्तर्पणाद्धारोदकातिसर्गेण प्रतिपादितः ॥ तथात्रैव तत्कोलनूरतद्भुक्तिमध्यवृत्त्यवरवाडि बेण्डनूरु मुद्गुण्डि कित्तैवोले सुल्ल मुस दधरे माविनूरु मत्तिकट्टे नीलगुन्दगे तालिखेड बेल्लेरु संगम पिरिसिङ्गि मुत्तलगेरी काकेयनूरु बेहेरु आलूगु[पार्च] नगेरी होसंजललु इन्दुगलु नेरिलगे हगनूरु उनल्गरु इन्दगेरी मुनिवल्ली कोट्टसे ओडिट्टगे सि [किमत्रि?] गिरि [पि] डलु नामधेयेष्वेतेषु कोलनूरात तद्भुक्तिवर्तिपु त्रिशत्खपि ग्रामेष्वेकैकग्रामे द्वादश निवर्त्तनानि भूमे प्रतिपादितानि [1] अतोऽस्योचितया देवदायदायस्थित्या भुञ्जतो भोजयतः कृपत. कर्पयतः प्रतिदिशतो वा न कैश्चिदल्पापि परिपन्थना कार्या तथागामिभद्रनृपतिभिरस्मद्वश्यैरन्यैर्वा सामान्य भूमिदानफलमवेत्य विद्युल्लोलान्यैश्वर्याणि तृणाग्रलग्नजलविन्दुचञ्चल च जीवितमाकलय्य स्खटायनिबिगेपोऽस्मदायोऽनुमन्तव्य प्रतिपालयितव्यश्च । यस्त्वज्ञानतिमिरपटलावृतमतिराच्छिद्यमानक वानुमोदेत स पञ्चभिमहापातकैस्सोपपातकैश्च सयुक्तः स्यादित्युक्त भगवता वेदव्यासेन ।। पष्टिव्वर्पसहस्राणि खर्गे तिष्ठति भूमिद. । आच्छेत्ता चानुमन्ता च तामेव नरके वसेत् ॥ ३७ ।। विन्ध्याटवीष्वतोयासु शुष्ककोटरवासिनः । कृष्णसर्पा हि जायन्ते भूमिदान हरन्ति ये ॥ ३८॥ अग्नेरपत्य प्रथम सुवर्ण भूवैष्णवी सूर्यसुतश्च गावः । लोकत्रयन्तेन भवेद्धि दत्त यः काञ्चन गा च मही च दद्यात् ३९॥ १ 'आघाटे' ऐसा पड़ो। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोन्नूरका लेख बहुभिर्वसुधा मुक्ता राजभिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ ४० ॥ खत्ता परदत्ता वा यत्नाद्रक्ष्ये' नराधिप । महीं महीमना श्रेष्ठ दानाच्छ्रेयोऽनुपालनम् ॥ ४१ ॥ इति कमलढलाम्बुविन्दुलोल श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवित च । अतिविमलमनोभिरामकै नहि पुरुषै परकीर्त्तयो विलोप्या ॥ ४२ ॥ लिखितञ्चैतद् बालभकायस्थवशजातेन धर्माधिकरणस्थेन भोगिकवत्सराजेन श्रीहर्षमनुना ग्रामपट्टलाधिकृतलेख करणहस्ति-नाग-चमपृथ्वीराम-मृत्येन ॥ वङ्केयराजमुख्यो गणपतिनामा महत्तर प्राज्ञ । राज्ञ. समीपवत्त तेनेदमनुष्ठित सर्व्वम् ॥ ४३ ॥ मिथ्याभावभवातिदर्प्पपरतद्दु शासनोच्छेदक प्राज्ञाज्ञावशवर्त्तमानजनतासन्सौख्यसम्पादकम् । नानारूपविशिष्टवस्तुपरमस्याद्वादलक्ष्मीपद जेजीयाज्जिनराजशासनमिट खाचारसारप्रदम् || ४४ ॥ सिद्धान्तामृतवाद्धितारकपतिस्तकम्बुजाहपति शब्दोद्यानवनामृतैकसरणिर्य्योगीन्द्रचूडामणि । १४७ विद्या परसात्र्थनामविभव प्रोद्भूतचेतोभव जीयादन्यमतावनीभृदशनि. श्री मेघचन्द्रो मुनि ॥ ४५ ॥ १ 'रक्ष नराधिप' पढो । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮ जैन- शिलालेख संग्रह डढे हसीवृन्दमटट्य गेटपुटुचकोरीचय चञ्चुविन्द्र कर्दुकल् सार्हप्पुडीग जडेयो इरिसलेन्दिद्दप सेज्जेगीरलू पढेढप्प कृष्णनेम्वन्तेसेदु विमलसत्कन्दलीकन्दकान्त पुदिढत्ती मेघचन्द्रनतितिलकजगद्वर्त्तिकीर्त्तिप्रकाश ॥ ४६ ॥ वैदग्ध्यश्रीबधूटीपतिरखिलगुणालकृतिर्मेधचन्द्रत्रैविद्यस्यात्मजात मदनमहिभृतो भेदने वज्रपान' सिद्धान्तव्यूह चूडामणिरनुपम चिन्तामणिर्भुजनाना योऽभूत्सौजन्यरुन्द्रश्रियमवति महौ वीरनन्दीमुनीन्द्र ||१७|| शब्दत्त (2) नमस्थली - डिनमणि काव्यज्ञचूडामणियस्तर्कस्थितिकौमुदीहि मकरस्तुर्यत्रयाब्जाकर । यस्सिद्धान्तविचार सारथिपणो रत्नत्रयीभूषण स्थेयादुद्व्रतत्रादिभूभृदशनि' श्रीवीरनन्दीमुनिः || १८ || यन्मूर्त्तिर्जगता जनस्य नयने कर्पूरपूरायते यद्वृत्तिर्विदुपा ततेश्रवणयोर्माणिक्यभूपायते । यत्कीर्त्ति ककुभा श्रिय कचभरे मल्लीलतान्तायते जेजीयाद्भुवि वीरनन्दिमुनिप सद्धान्तचक्राधिप ॥ ४९ ॥ श्रीकोन्दकुन्दान्वयाम्बरधुमणि विद्वज्जनशिरोमणि समस्तानवद्यविद्या विलासिनीविलासमूर्त्ति श्रीवीरनन्दि सै[द्धा ]न्तिक- चक्रवर्तिगळु श्रीमन्महा स्थान कोळनूर महाप्रभु हुलियमरसनुं मूरुपुरपञ्चमठस्थानङ्गलु ताम्र शासनम नोढि वरेयिसिमेनल्का शासनदोळन्तिर्दुदन्ती शीलशासनम बरेयिसिटरु [II] मङ्गलमहाश्री श्री श्री नमो .. [1] 1 [ जिस पाषाणपर यह लेख है वह कोन्नूरके परमेश्वरके मन्दिरकी दीवाल लगा हुआ है | Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन शिलालेख संग्रह इस शिलालेसपरसे दूसरे ताम्रपत्रोंपरसे १ यादव वंशसे, __ पृच्छकराजका पुन गोविन्द गोविन्दराज प्रथम २ राजा इन्द्रका पुत्र कर्कर उसका पुत्र काराज या कर्कराज उसका पुत्र इन्द्रराज ३ उसका पुत्र दन्तिदुर्ग उसका पुत्र दन्तिदुर्ग ४ शुभतुगवल्लभ-अकालवर्ष शुभतुग-अकालवर्ष (कृष्णराज प्रथम, जो कि कर्कराजका पुत्र है) ५ धारावर्षका पुत्र प्रभूतवर्ष उसका पुत्र प्रभूतवर्ष (गोवि न्दरान ढि०) ६ उसका पुत्र प्रभूतवर्ष जगत्तुग । उसका पुत्र प्रभूतवर्ष जगतुग (गोविन्द) ७ अमोघवर्ष उसका पुत्र अमोघवर्ष] [FI, VI, n° 4 ( 1st part)] १२८ देवगढ (मध्यप्रान्त ) संस्कृत । [विक्रम सं० ९१९ तथा शक स० ७८४८८६२ ई० j १ [ओ2] [1] परमभट्टार [क]-मह [] राजाधिराज-परमेश्वरश्री-भो२ जदेव-महीप्रवर्द्धमान-कल्याणविजयराज्ये ३ तत्प्रदत्त-पञ्चमहाशब्द-महासामन्त-श्री-[वि] bण [.] ४ [२] म-परिभुज्यमा [क]" लुअच्छगिरे श्री-गान्त्यायत नि]५ [स] निधे श्री-कमलदेवाचार्य-शिष्येण श्री-देवेन कारा६ [पि] त इद स्तम्भ । संवत् ९१९ अस्व (श्व) युज-शुक्ल७ पक्ष-चतुर्दश्यां वृ (च) हस्पति-दिनेन उत्तरभाद्रप१ 'माने' या 'मानके'। २ 'कारितोऽय स्तम्भ' यह शुद्ध रूप पढना चाहिये। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़नगरका लेख ८ दा-नक्षत्रे' इद स्तम्भ समाप्तमिति ॥०॥ वाजुआ९ गगाकेन गोष्टिक-भूतेन इट स्तम्भ घटितमिति ।१०।। १० [श काल-[ब्द सप्तशतानि चतुराशीत्यधिकानि ७८४ [1] [इस लेखम उल्लेख यह है कि परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीभोजदेवके राज्यमें जब लुअच्छगिरिपर (देवगढका ही एक नाम मालूम पडता है-[एफ० फीलहॉर्न ]) महासामन्त विष्णुरमका शासन था, तय जिस स्तम्मपर यह लेख खुदा हुआ है वह भाचार्य कमलदेवके शिष्य श्रीदेवके द्वारा श्री शान्तिनाथ मन्दिरके पास बनवाया गया था और यह विक्रम सं० ९१९ के आश्विन सुदी १४, बृहस्पतिवारके दिन उत्तर भाद्रपदा नक्षत्रके योगमें बनकर तैयार हुआ था। बनानेवालेका नाम गोष्टिक वाजुआगगाक था। इसके अतिरिक्त, अन्तिम पंक्ति शक संवत् , अक्षरो और अङ्क दोनोमे, ७८४ का निर्देश करती है।] [El, IV, n° 44, AJ वड़नगर-~-संस्कृत। [सं० ९३२८८७५ ई.] १ तर प्रसिद्धम् श्री * * * क राज्ये यदु-कुल म्ल कु २ क्त्यत्रयिविद्यनो तत्क्षेत्र भिभिावित अछोटे; श्री * ३ विघ्हागो धनपतेः ककुभि निर्य मार्गः अस्य मुदद्रुन् * ४ मिमस्य शशाङ्क तपनस्थितेः उमनेय नवहट्टक । १ज्य स्तम्भ. समाप्त इति' ऐसा पढो। २'भूतेनाय स्तम्भो घटित इति' पढ़ो। ३ प्रो० वूल्हरकी रायमे 'गोष्टिक' लोग धर्मदानोंका प्रबंध करनेवाली समितिके सदस्य थे, जिनको आजकलकी भापामै 'ट्रस्टी' कह सकते हैं। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन-शिलालेख संग्रह ५ स्यम् स ९३३ वैशाखो सुदि १४ । [पथारिसे दक्षिणकी ओर करीव ३ मीलपर ज्ञाननाथ पर्वतकी तलहटीमें एक झीलके किनारे बारो या बडनगरके ध्वसावगेप सुन्दर रीतिसे अवस्थित है। वहॉपर एक 'गडर-मर' नामका मन्दिर है, जो कि किसी गडरियेका बनवाया हुआ था। इस गडरमर मन्दिरकी पश्चिम दिशामे छोटे-छोटे जैन मन्दिरोका एक समूह है । उसके चतुष्कोण प्राङ्गणके बाहर एक चतुष्कोण छोटे पत्थरपर उक्त शिलालेख मिला था। [A Cunningham, Reports, X, p 74] १३० सौदत्ति-संस्कृत तथा कन्नड । [शक ७९७-८७५ ई.] द्वादशप्रामाधिष्ठानस्य सुगन्धवर्तिसम( सम्ब )न्धिनि || प्रामे मूलगुन्दाख्ये । सीवटे पड् निवर्त्तन । देवस्य (ख) चि(गु)रवे दत्त । नमश्य (स्य ) कन्नभूभुजा ॥ तस्य दक्षिणे भागे । तिन्तिणीवृक्षयोईयो. । मध्ये या स्थिता भूमिद (ई) त्ता श्रीकन्नभूभुजा । सुगन्धवतिय सीमेयिन्द पदु (डु) वल् पिरियकोलल् मत्तर ६ ॥ श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाछन [] जीयात्रे( त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासन ॥ श्रीमन्म्मैळापतीर्थस्य गणे कारेयनामनि [1] बभूवोग्रतपोयुक्त: मूलभट्टारको गणी ॥ तच्छिष्यो गुणवान्सरिः दुर्भाग्यसे यह लेख दोनों ओर (प्रारम्भ और अन्तमे) अधूरा ही है, इसलिये कनिंघम साहव इवर-उधर कुछ शब्दोंकी पूर्तिके बजाय इसके पूर्णरुपस समझनेमे असफल रहे है। अतएव इसका विशेष साराश भी नहीं दिया जा सका। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदत्तिका लेख गुणकीर्तिमुनीश्वर' [] तस्याथासी (सीटिं)द्रकीर्तिखामी काममदापहः ॥ नच्छात्रः पृथ्वीरामः लक्ष्मीरामविराजितः [1] सत्यरत्नप्ररोहात्रिः (मे)चडस्याग्रनन्दनः ॥ श्रीकृष्णराजदेवस्य लक्ष्मीलक्षितवक्षसः [] नम्रपालवृन्दस्य पादाम्बुई( रुह )सेवक ॥ यस्य वालप्रतापाग्निचालानिकरगोषितस्समुद्री (द्र) पासुहृहपरसो निझोपको यथा । यस्य राजन्वती भूमिर्जितानन्दकरैः करैः [] राज्ञो यो धीमतो नीतिमार्गो दुर्गभयकर. ॥ यस्य सक्रीडते कीर्तिहसी लोकसरोवरे ॥ यद्वाख्य प्रश्र(ख)त जात प्रणतारातिभूपते. ॥ सप्तस(श )त्या नवत्या च समायुक्त (क्ते) स (घु) सप्तपु [0] स( श) ककालेश्व (ब) तीतेषु मन्मथायवत्सरे ॥ ग्रामे सुगन्धवाख्ये तेन भूपेन कारित [1] जिनेन्द्रभवनं दत्त तस्याप्टदगनिवर्तन ॥ स्वस्ति समन्तभुवनाश्रय श्रीपृथ्वीवल्लभ (भ) महाराजाधिराज (ज) परमेश्वर (र) परमभट्टारक राष्ट्रकूटकुलतिलकं श्रीमत्कृष्णराजदेवविजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतार वर सलुत्तमिरे [] तत्पादपद्मोपजीवि ॥ खस्ति समधिगतपचमहाशब्दमहासामन्त वीरलक्ष्मीकान्त विरोधिसामन्तनगेवजदण्ड विद्वज्जनकमलमार्तण्ड सुभटचूडामणि भृत्यचिन्तामणि श्रीमन्महासामन्तेन पृथ्वीरामेण (न) खकारितजिनेन्द्रभवनाय चतुर्पु स्थलेषु स्थितमष्टादशनिवर्तन सर्वनमश्य (स्य ) दत्त ।। पृथ्वीरामेण (न) यदत्त निवर्त्तन कार्तवीर्येण भूय. स्वगुरवे दत्त सर्ववादा (धा) विवर्जित ॥ सूर्योपरागसक्रान्तो (तो) कार्तवीर्याप्रकान्तया । श्रीभागला(ला)विकादेव्या नमश्य (स्य) कृतमजसा ॥ [सौंदत्तिमे जिसका पुराना नाम सुगन्धवर्ती है, एक छोटे जिनमन्दिरकी बाईं ओर दीवालमें जडे हुए पापाण-शिलापरसे यह लेख लिया गया है। लेखमे अनेक विशेष दान है। यह बहुत-कुछ राजामोकी वशावलीका Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन-शिलालेख-संग्रह हाल भी बताता है । हम देखते है कि रहोमे प्रथस जिसने कि प्रमुख अधिकारी होनेका पढ़ पाया था मेरडका पुत्र पृथ्वीराम था । उसको यह प्रमुख अधिपति होनेका पट राष्ट्रकूट राजा कृष्णकी अधीनतामें मिला था। इससे पहिले वह पूज्य ऋषि मैलापतीर्थक कारेय गणमें सिर्फ एक वार्मिक विद्यार्थी था । इस शिलालेखमें कृष्णराजदेवकी उपाधियाँ चालुक्य राजाओंके समान ही है तथा चक्रवर्तीकी उपाधिया है, और हम यह भी देखते हैं कि गफ ७९८ में, जो मन्मथ संवत्सर था सुगन्धवर्तिसे उसने एक जिनमन्दिर बनवाया, और इसके लिये १८ 'निवर्तन' भूमि दी। किन्तु यह लेस किसी उत्तरवर्ती समयसे खोदा गया होगा, क्योकि प्रथम चार पक्तियोसे राजा कन्नके जो कि पृथ्वीरामके " या ६ पीढी आगे हुआ है, एक दानका उल्लेख आता है । यह दान सुगन्धवर्तिके मुलुगुन्टके 'सीवट' में किया गया था। लेखका वशावलीका भाग लेस न० २३७ की 'रवशोद्भव रयातो' पक्तिले शुरू होता है। प्रथम नाम ननका आया है। उसका पुत्र कार्तवीर्य था जो चालुक्य राजा आहवमल्ल या सोमेश्वरदेव प्रथमके अधीन था। सोमेश्वरदेव प्रथमका काल सर डब्ल्यू इलियट (Sn W. Eliot) ने गक ९६२ (ई. १०४०-१) से लेकर शक ९९१ (ई. १०६९-७०) दिया है और इसी लेखसे यह पता चलता है कि कार्तवीर्यने ही कुहुण्डी (जो कि उत्तरवर्ती लेखोका 'कुण्डी तीन हजार है) की सीमाये निर्धारित की थीं। इसके बाद तीन पीढी बीतनेपर चौथी पीढीमे कार्तवीर्य द्वितीयका नाम आता है । यह चालुक्यराजा त्रिभुवनमल्लदेव, पेर्माडिदेव या विक्रमादित्य द्वितीय था।] [JB, X, p 194-198, ins n° 2, 1st part] विलियर-कन्नड । [शक ८०९-८८७ ई०] भद्रमस्तु जिनशासनाय (1) शक-नृपातीता (न) काल-संवत्सरगळे१ मूल लेखमें, "शक कालके ७९७ वर्ष व्यतीत होने पर" है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलियूरका लेख न्तुनूरॉम्बत्तनेय वर्ष 'प्रवर्तिसुत्तिरे स्वस्ति सत्यवाक्यकोगुणिवर्मधर्म-महाराजाधिराज कुवलाल-पुरवरेश्वर नन्दगिरि-नाथ श्रीमत्पेर्मनडिय राज्याभिषेक गेय्द पडि नेण्टनेय वर्पदन्दु पा (फा) ल्गुणमासद श्री-पञ्चमे यन्दु शिवणन्दि-सिद्धान्तद-भटारर शिष्यर् स्सर्व (व) णन्दि-देवगै पेण्णे-गडङ्गद सत्यवाक्य-जिनालय के पेड्डोरैगरेय बिळियूर्-प्पन्निपळ्ळियुम सर्व-पाद-परिहार पेर्मेनडि कोट्टो तोम् भट्टरु-सासिरु अय्-सामन्तरु वेड्डोरेगरेय एल्पटिम्बरु एन्तोक्कलु इटक्के साक्षी मले-सासिर अय्मुरुम (अयनूरु) अय्-ढामरिंगरु इदक्के कापु इदनळ्ळिदो वारणासियुम सासिद्धार्चरुम सासिर कविले युमननिळदोम् पञ्चमहापातकनकु सेदोजन लिखित्त (त) वेळियूर ऐम्बटुगद्याण पोन्नू एण्टु-नूरु-वट्टमु तेरुयोम् । [यह दान शकवर्ष ८०९ के चालू रहते हुए फाल्गुन महीनेके पाँचवें दिन, जिस वर्ष पेर्मनडिके राज्याभिषेकका १८ वा वर्ष चालू था, उन्होने जीवनन्दि सिद्धान्त- भट्टारके शिष्य सर्वनन्दि-देवको पेडोरेंगरेके अन्तर्गत विलियूरके १२ छोटे गाँव, हमेशाके लिये लगान वगैर. से मुक्त करके, दिये । यह दान पेन्ने कडङ्गके सत्यवाक्य जिनचैत्यालयके लिये दिया गया था। ऐसा दीखता है कि 'सत्यवाक्य कोङ्गुणिवर्म-धर्म-महाराजाधिराज' पेर्मनडिको ही उपाधि या विरुद है। ये दोनो एक ही व्यक्ति है, अलग-अलग नहीं। ये कुवलाल-पुरके प्रभु तथा नन्दगिरिके नाथ थे। आगे लेखमे साक्षियो तथा सरक्षकोका परिचय है । इस दानको भङ्ग करनेवालेको अमुक-अमुक पापका भागी बताया है। यह लेख सेदोजका लिखा हुआ है। । विलियूर की आमदनी ८० गद्याण सोना और ८०० (नाप) तन्दुल (चावल) की है।] [EC, 1, coorg ins , n° 2] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैन-शिलालेख-संग्रह १३२ हुम्मच-कन्नड़ । शक ८१९८९७ ई० [हुम्मचसे गुड्डद वस्तिकी बाहरी दीवालपर] खस्त्यनवद्य-दर्शन महोग्र-कुल-तिलक नय-प्रताप-सम्पन्न पर-चक्रगण्ड गोण्ड बल्लात कार्मुक-राम श्रीमत्-तोलापुरुप-विक्रमादित्यशान्तरं शक-वर्य येण्टनूर यिप्पत्तनेय वर्ष प्रवर्तिसुत्तिरे श्रीमत्-कोण्डकुन्दान्बयढ मोनि-सिद्धान्तद-च (भ) टारग्गै कल्ल बसदिय माडिसियदक्के पोम्बुळचट (यहाँ टानकी विशेप चर्चा तथा वे ही अन्तिम वाक्यावयव आते है)। इष्टनोनधिदेवतेगेन्दोसेटित्तुदम् । दुष्टनोवनदर फलच तवे तिम्बवम् । सिष्टिमेले परमात्मने बन्द.. कप्टव् विदिरन्ते कुल-क्षय मागुगुम् ॥ [स्वस्ति । जिनका दर्शन (मत) अनवद्य (निर्दोष) है, महोग्र-कुलतिलक, न्याय करनेमे प्रसिद्ध, विदेशी राज्योके शूरवीरोको पकडनेमे चतुर, धनुपको पकडनेवाले रामकी तरह दिखनेवाले, तोलापुरुप विक्रमादित्यगान्तरने, (उक्त मितिको), कोण्डकुन्ठान्वयके मोनि-सिद्वान्त-भट्टारके लिये एक पापाणकी वसदि' वनवाई, और इसके लिये ( उक) दान किये । गापात्मक श्लोक ।] [EC, VIII, Nagar t}, n° 60] १३३ वल्लीमलै (जिला नार्थ आर्कट)-कन्नड । [विना काल-निर्देशका] १ स्वस्ति श्री [:] [1] शिवमार-आत्मजा (ज)-वरना प्रवरश्रीपुरुषनाम Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल्लीमलेका लेख २ नातन ननय । भुवनीश रणविक्रमन्नवन मक (ग) न् रा ३ जमल्लन् अमलिनचरितन् [॥ १] कण्ड गिर [f] वरमना भूम ४ डलपति राजमल्लन् अभयनुदारम् [0] पण्डितजन५ प्रिय कैय्-कोण्डान् कोण्डन्ते वसनियम्माडि६ सिदान ॥ [२] अनुवाद-(लोक १) शिवमारके पुत्रोमें सबसे अच्छा पुत्र श्रीपुत्प नामका (राजपुत्र) था। उसका पुत्र लोकप्रभु रणविक्रम हुआ । उसका पुत्र अमलचरित राजमल्ल हुआ। (लोक) इसको सबसे अच्छा पर्वत समझकर, भूमण्डलपति, अभय एवं उदार तथा पण्डितजनप्रिय राजमलने इसे अपने अधिकारमे कर लिया, और तत्पश्चात् इसपर एक वसति (मन्दिर) वनवाइ । [, IT, n' 15, A] वल्लीमलै-कन्नड़ । [विना काल-निर्देशका (यह लेस दाहिनी तरफसे पहली प्रतिमाके नीचेका है) १ स्वस्तिश्री [1] बालचन्द्र-भटारर २ शिष्यर् अजनन्दि-भटारर ३ माडिसिट प्रतिमे गोवर्धन ४ भटाररेन्दोडमबरे [1] अनुवाद- यह प्रतिमा भहारक बालचन्द्र के शिप्य भहारक अजनन्दि (आर्यनन्दि) के द्वारा बनवाई गई; और प्रतिमा 'गोवर्धन भट्टारक' की है। [LI, IV, n° 15, D] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- गिलालेख संग्रह १३५ चल्लीमलै – कन्नड़ | [ विना काल-निर्देशका ] ब - यह लेस बाईं तरफ से दूसरी प्रतिमा के नीचेका है । one श्री [II] अञ्जनन्दि-भटार अ [ति ] म [] म [[] उ [f] दा [7] [] १५८ अनुवाद – स्वस्ति । भट्टारक या भटार अजनन्दि ( आर्यनन्द्रि ) ने (इम) प्रतिमाको बनाया । [El, IV, n° 15, B ] १३६ वल्लीमलै -- कन्नड | [ विना काल-निर्देशका ] १ स्वस्ति श्री [II] वाणरायर २ गुरुगप्प भवन्दि-भ३ टारर शिप्यरम्प देवसेन - ४ भटारर प्रतिमा [[I] अनुवाद -- स्वस्ति श्री । यह प्रतिमा भट्टारक देवसेनकी है । ये देवसेन वाणरायके गुरु भट्टारक भवनन्दि ( भवनन्दि ) के शिष्य है । [El IV, n° 15 C] १३७ मूलगुण्ड ( जिला धारवाड ); संस्कृत । शक ८२४=९०३ ई० लेख श्रीमते महते शान्त्ये श्रेयसे विश्ववेदिने [[] नमश्चन्द्रप्रभाख्याय जैनशासनमृद्वये [II] शकनृपकालेष्टशते चतुरुत्तरविंशदु (त्यु ), Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलगुण्डका लेख १५९ त्तरे संप्रगते दुन्दुभिनामनि वर्षे प्रवर्त्तमाने []] जनानुरागोत्कर्षे श्रीकृष्णवल्लभनृपे पाति मही विततयासि सकला तस्मात् पालयति महाश्रीमति विनयाम्बुधिनाम्नी धवळविपय सर्व [[] तस्मिन् मुळगुन्दाख्ये नगरे वरवैश्यजातिजात (त.) ख्यात चन्द्राय॑स्तत्पुत्रश्चिकार्यों चीकर (रत) जिनोन्नतभवन तत्तनयो नागार्यो नान्ना [10] तस्यानुजो नयागमकुशल अरसार्यो दानादिप्रोद्युक्तसम्यवसक्तचित्तव्यक्त [1] तेन दर्शनाभरणभूषितेन पितृकारितजिनालयाय चन्दिकवाटे शेनान्वयानुगाय नरनरपतियतिपतिपूज्यपादकुमारशे(से)नाचार्यमी (मे) खवीरशे (से)नमुनिपतिशिप्यकनकशे (से) नसूरिमुख्याय कन्दवर्ममाळक्षेत्रे ए (ऐ) (छ) कमणिवकनकुळाये ( य्ये ) (H) क. 'बम्मानाहस्तात्सहस्रबल्लीमात्रक्षेत्रं द्रव्यसिन्दु (बु) ना गृहीत्वा नगरमहाजनविदेश दत्त [1] तजिनाल्याय त्रिशतपष्टिनगरै चतुर्भिः श्रेष्ठिभि. पिळ्ळग (छे ) क्षेत्रे सहत्रावल्लीमात्रक्षेत्र दत्त []] तजिनभवनाय विंशतिमहाजनानुमताद्वेलचिकुलब्राह्मणैश्च नन्कन्दवर्ममालक्षेत्रे सहस्रवल्लीमात्रक्षेत्र दत्त [I] एवं त्रीण्यपि नागबल्लिक्षेत्राणि सर्वावाधा [यह शिलालेख जिस पत्थरके टुकडेपर है वह धारवाड जिलेके डम्बळतालुकाके मूलगुण्डकी दीवालमें लगा हुआ है। इस टुकड़ेका गेप अश अभीतक नहीं मिला है। मगर सौभाग्यसे इसी बचे हुए टुकड़ेमें लेखका महत्त्वपूर्ण भाग आ जाता है । लुप्त भागमें सिर्फ थोडे-से अन्तिम वे ही श्लोक हैं जिनमें लेखके रक्षण और मिटानेपर क्रमशः अनुग्रह (पुण्य) और शापका वर्णन मिलता है । लेख पुराने टाइपके प्राचीन कनड़ीके अक्षरोसे खुदा हुआ है। ये प्राचीन कनड़ीके अक्षर गुफा-वर्णमाला (Cavealphabets) से बहुत कुछ मिलते-जुलते है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जेन-शिलालेख संग्रह यह लेख धारवाड जिलेके मूलगुण्डमें वैश्य जातिके चन्दरायके पुन चीकार्यके द्वारा एक जैनमन्दिरके निर्माणका तथा उस मन्दिरकी तरफस कुछ भूमिदानका उल्लेख करता है । यह निर्माण और दान दुन्दुभि सवत्सर शक ८२५ में किया गया था । उस समय राजा कृष्णवल्लभ राज्य कर रहे थे। लेखगत 'धवल जिलेसे देशके किस भागसे मतलब है, यह स्पष्ट नहीं है । यद्यपि यह लेस लघु है, पर महत्त्वपूर्ण हैं । इसमे सन्देह नहीं है कि इस लेखका 'राजा कृष्णवल्लभ' वही हे जो राष्ट्रकूट या रह कुलके राजा कृष्णराजदेव है और जो इसी पुस्तकके शिलालेस नं० १३० के अनुसार शक ७९८में राज्य कर रहे थे । वादके अन्य शिलालेसोमे इन्हे ही रवशका प्रथम राजा कहा गया है। पूर्ववर्ती चालुक्य राजाओके उत्तराधिकार और कालके विषयमे बहुतसे सन्देह उत्पन्न होते है, लेकिन हम जानते है कि उनमेसे तीन चालुक्य राजा राष्ट्रकूट युवराजोके साथ बहुत ही सीधे और घातक सघर्पमे आये है । वे तीन राजा जयसिह प्रथम, तैलप प्रथम और तैलप द्वितीय थे। राष्ट्रकूटवश और चालुक्यवशके पूर्ववर्ती राजाओकी बगावली यदि कालसहित सग्रह की जाय तो वह इस विषयमे बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होगी। ] [JB, X, P 190-191, 1ns n° 1] १३८ क्यातनहल्लिकन्नड। [विना काल-निर्देशका (सभवत. लगभग ९०० ई.)] _ भद्रमस्तु जिनशासनायानवरत · दखिलसुरासुरनरपतिमोलिभाला 'णारविन्द-युगल शरवळ-नीराज्य-युवराज [रप्प भद्र] आहु-चन्द्रगुप्त-मुनिपति-चरण मुद्राङ्कित-विशाळशि मान-जगल्लना(ला)मायितश्रीकल्वप्पु-तीत-सनाथ-बेल्गोळ-निवासि- • • श्रवणसङ्घ स्याद्वादाधारभूतरप्प श्रीमत्स्वस्ति सत्यवाक्यकोङ्गणि-[व] - । मूलमे "शक राजाके कालम ८२४ वर्ष व्यतीत होनेपर" ऐसा पाठ है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन-शिलालेख संग्रह बरेदोम् नागवर्मा ढेवारके कोट केय् ग अवुतवूर्ग काळान्तरदोळ् मोह-सन्दोम् पञ्च-महा-पातकनक्कु यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् । ( वाजूमें) ई-कल्ल सन्दिगर कुळि "मुद्दन् निरिसिदोम्"" वेलेयम्मन मगम् [जब प्रजापति सवत्सर शक वर्ष ८३४ में, महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक कन्नर-देवका राज्य प्रवर्धमान था, जिस समय कालिक देवयसर-अन्वयके महासामन्त कलिविट्टरस बनवासि १२००० का शासन कर रहे थे,-नागरखण्ड सत्तरके 'नाळ-गावुण्ड' के पदको धारण करनेवाले सत्तरस नागार्जुनके मर जानेपर राजाने जक्कियन्चेको आवुतवूर और नागरखण्ड-सत्तर दे दिया। जकियध्वेने भी जकलिमें मन्दिरके लिये ४ मत्तल चावलकी भूमि दी । एक वीमारीके समय उसने शक, सं० ८४० मे, बहुधान्य वर्षमे, पूर्ण श्रद्धासे बसदिसे आकर समाधिमरण ले लिया।] गिरनार-संस्कृत-भन्न। (काल लुप्त) [यह लेख नेमिनाथ मन्दिरके दक्षिण तरफके प्रवेशद्वारके पासके प्राङ्गणके पश्चिम दिशाकी तरफके एक छोटे मन्दिरकी दीवालपर है । पाषाण ट्टा हुआ है। ॥ स्वस्ति श्रीधृति ॥ नमः श्रीनेमिनाथाय ज ॥ वर्षे फाल्गुन शुदि ५ गुरौ श्री ॥ तिलकमहाराज श्रीमहीपाल ॥ वयरसिंहभार्या फाउसुतसा ।। सुतसा० साईआ सा० मेलामेला Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ गिरनारका लेख ॥जसुतारूडीगांगीप्रभृती || नाथप्रासादा कारिता प्राताप्ट ॥ द्रसूरि तन्पट्टे श्रीमुनिसिंह ॥ .... . ...."कल्याणत्रय अनुवादः-स्वस्ति श्री प्रति . . ......श्री नेमिनाथको नमस्कार... ...वर्ष......फाल्गुन सुदी ५, बृहस्पतिवार, श्री • • .... श्रीमहीपाल, महाराज और........... के तिलक.. . .फाऊ नामकी वयरसिंहकी भार्या, उसका पुत्र माननीय ..... उसके पुत्र माननीय साईआ और मेलामेला......... • उसकी पुत्रियाँ रूडी, गागी इत्यादि । इन सबने एक नेमिनाथका मन्दिर बनवाया -जिसकी प्रतिष्ठा . . ..इसरिके पट्टपर विराजमान श्रीमुनिसिंहने की ....... .....कल्याणत्रय ।। [ASI, ITI, P 353-354, n° 11 १४२ सूदी (जिला-धारवाड़) संस्कृन और कन्नड़ । शक सं ८६०-९३८ ई० लेख पहला तानपत्र १ श्रीविभाति सुवि (धी)य॑स्य निरवद्य [1] निरत् (य) अया तस्मै नमोऽहते २ लोक-हित-धर्मोपदेशिने ॥ जित [-] भगवता [गत]-धनग [ग]नाम३ न पद्मनाभेन [I] श्रीमजाह्नवीय कुलामि]ल-व्योमावभासन भास्करः ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन-शिलालेख संग्रह ४ स्व-खक-प्रहार-खण्डित-महा-शीलास्तम्भ-लब्ध-बळ-पराक्रमो दारुणा५ रि-गण-विदारणोपलब्ध-ब (ब)ण-विभूपण-भूपितः क[]ण्या६ यन-सगोत्र [:] श्रीमत् कोमुणिवर्म-धर्ममहाराजाधिराज' []] ७ तत्पुत्रः । पितुरन्वागत-गुण-युक्तो । विद्या-विनय-विहित-वृत्तिः ८ सम्यक्-प्रजा-पालन-मात्रा-वि(धि)गत-राज्य-प्रयोजनो विद्वत्-क वि-का९ श्चन-निकषोपळ-भूतो नीति-शास्त्रस्य वक्तृ-प्रयोक्तृ-कुशलो दत्तक१० सूत्र-वृत्त(:)-प्रणेता श्रीमन्माधवमहाधिराजः । (१) ओ तत्पुत्र[:] पितृ-पैता११ महगुणयुक्तोऽनेक चा(च)तु हन् [त् ]अ-युद्धा]बाप्त-चतु द्वितीय ताम्रपत्र, दूसरी वाजू १२ रुदधि-सळीळाश्चादित्यशाह श्रीम[I]न् हरिवर्म-महाधिराजः [1] १३ तत्पुत्रः श्रीमान् विष्णुगोप मह[)धिराजः [I] ॐ तत्पुत्र. १४ ख-भुज-वळ-पराक्रम-क्रय-क्र[1]तराज्यः कलियुग-वळ-पकाव१५ सन्न-धर्म-वृपोद्धरण-निते(त्य)सन्नद्धः श्रीमान् माधव-महाधिराजः। (11) ओ १६ तत्पुत्राः] श्रीमत्-कदम्ब-कुल-गगन-गभस्तिमालिनः । कृप(ष्ण)वर्म-स(म)१७ हाधिराजस्य प्रिय-भागिनेयो विद्या-विनय-पूरिता१८ न्तरात्मा निरवग्रह-प्रधान-शौर्यो विद्वत्पु प्रथम-गण्य[:]श्रीमान् १ विद्वत्सु' पढ़ो। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ सूढीका लेख १९ कोगणिवर्म-ब (ध)ममहाराजाधिराज-पु(प)रमेश्वरः श्रीमद् अविनीत-प्रथम२० नामज (धे) य [1] तत्पुत्रो विजृम्भमाण-शक्ति-त्रय, अन्द रि-आलत्तूर-पुरुळरे-पेण२१ गराद्यनेक-समर-मुख-मख-ह(यु)त-प्रहत-शूरपुरुप-पशूप-हार विध२२ स-विहस्ति(स्ती)कृत-कृतान्ताग्निमुखः किरातार्जुनीयस्य पञ्चदशसर्ग-टीकाकार[] दुसरा ताम्रपत्र, दुसरी बाजू २३ श्रीमद्-दि] बिनीत-प्रयम-नामधेयः [11] ओ तत्पुत्रो दुर्दान्त श(वि)मई-मृदिते(त)-विश्व[ ]भरा२४ रि(धि)प-मो(मौ)लि-माल(I)-मकरन्द-पु.]ज-पि[]जरीक्ष (क्रि)___ यमाण- चरणयुगल-नलिन श्री [मुष्कर-- २५ प्रयम-नामधेयः । [1] ओ तत्पुत्रश्चतुर्दगविद्यास्थानाधिगतेरमल मतिविशेषतो नि] र२६ वशेषस्य नीति-शास्त्रस्य वक् []-प्रया (यो) क्त-कुशलो रिपु तिमिर-निकर-सरकरुणोदय-भा२७ स्कर श्री-विक्रम-प्रथम-नामधेय [1] ओ तत्पुत्रा(त्रो)ऽनेक समर सप्राप्त-विजय२८ लक्ष्मी-लक्षित-वक्षस्थल. समधिगत-सकल-शास्त्रार्थः]श्री-भूवि क्रम-प्रथम२९ प्रथम -नामधेय. [1] ओ तत्पुत्रः स्वकीय-रूपातिशय-विजी (जि) त-नल-भूपा१ इस शब्दकी अनावश्यकरुपसे पुनरावृत्ति हुई है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन-शिलालेख संग्रह ३० काराश्शिवमारि-प्रयम-ना]मवा ]यः [1] ओं तत्पुत्रः प्रतिदिन प्रवर्द्धमान-महादान-जनित-पुण्यो ३१ हसुळ-मुखरित-मन्दरोदराः श्री कोङ्गुणिवर्म-धर्ममहाराजाधि-राज परमेश्वरः ३२ श्रीसु(पु)रुप-प्रथम-नामधेयः(1) तत्पुत्रो विमल-ग["]गान्वय__ नमः]स्थलः र(गोभस्तिमाली श्रीको३३ गुणिवर्म-दा(ध)ममहाराजाधिराज-परमेश्वरः श्री श] मारदेव-प्रथम-नामधेयः । ३४ शैगोत्तापरनामा [[I] तस्य कनीयान् श्री-विजयादित्यः। (1) र (त)पुत्रसमविगत-राज्य३५ लक्ष्मी-प(स)मालिगित-वक्षः सत्यवाक्य-कोगुणिवर्म-धर्मम हाराजाधिरा तृतीय तानपत्र, पहली बाजू ३६ ज-परमेश्वर :]श्री-राजमल्ग(ल्ल)-प्रथि]म-नामधेयस्तत्पुत्रः रामति (दि)-समर-संहा३७ ल्पि(रि)तोटार-वैरि-वि(वी)रपुरुषो नीतिमार्ग-कोगुणि-धर्म धर्मराजाधिराज-परमेश्वर[] ३८ श्रीमद्-एळे(रे)गङ्गदेव-प्रथम-नामधेय[]ओ तत्पुत्रः सामिय समर-सञ्जनित-विज३९ [य]श्रीः श्री-सत्यवाक्य-कोगुणिवर्म-धर्ममहाराजाधिराज-परमे श्वरः] श्री राजमल्ल Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूदीका लेख १६९ ४० प्रथम - नामधेय. | (II)ओ तसु (स्व) कनीयान् निल्लोर (ठि) तै-पल्लवाधिपः श्रीम[द]मोघवर्षदेव २ ४१ पृथ्वीवल्लभ सुतया श्रीमदब्बलब्वायाळह (या.) प्राणेश्वर[:] श्रीबूटुग-प्रथम-ना ४२ मवेयः गुणदुत्तरङ्गः। (II) ओ तत्पुत्रः । एळे(रे) यप्प-पट्टबन्धपरिष्कृत -लला [मो] ज ( १ ) - ४३ टेप्पेरुपेजेरु-प्रभृति-युद्ध - प्रवन्ध-प्रकवि (टि) त-पल्लर (व) पराजय [.] श्री-[नी][ म्]ार्ग ४४ रंगिणिवर्म्म(ध)-महाराजावि (वि) राज-परनेश्वर [ ] श्रीमदेळे (रे)गङ्गदेव-प्रथम-नामधेय. ४५ कोमर वैडेट्ङ्गः ।(II)ओ तत्पुत्र [ : ] श्री सत्यवाक्य - कोडुणित्र-धर्ममहाराजाधिराज-परमेश्वर [] ४६ श्रीमन्नरसि[ ]घदेव-प्रथम-नामव[]य वी (वी) रवेडङ्गः ॥ ओं तत्पुत्रः कोटमरद ४७ तोण्णिरग-श्री-नीतिनार्ग- कोङ्गुणिवर्म्म-धर्म्ममहाराजाधिराज-परमेव[:] श्री-र [[नम]ल ४८ प्रथम- नामधेयः । कच्छेय-गङ्गः । (II) ॐ त्रि(वृ) [ ॥ ] तस्यानुजो निजभुजार्जित -सम्पदार्थो तृतीय ताम्रपत्र; दूसरी बाजू ४९ भूवल्लभ [-] समुपगम्य ल ( ख ) हाड़ देगे श्री बग तदनु त - ५० स्य सुता सहैव वाक्कन्यया व्यवहदुत्तत्रि (म) - धीत्रिपु १ 'निर्लुण्ठित' और भी शुद्धरूप होगा । २ 'सुताया' पढो । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन-शिलालेख संग्रह . ५१ [ 1 ] अपि च ॥ लक्ष्मीमिन्द्रस्य हत्तं गतवति दिवि यद् बोदेगाति (के) ५२ महीशे ह [.]त्वा ल ल ?] एय-हस्तात्करि-तुरंग-सितच्छानि (सिं)५३ हासनानि । प्रा[टा]त् कृष्णाय राजे क्षित [f]-पति-गणनाश्व५४ ग्रणीर्य(:)प्रतापात् राजा श्री-बूटुगाख्यस्समजनि विजि५५ ताराति-चक्रः प्रचण्ड. ॥ कञ्चातः किन्न नागादळ्चपुर-पति. ५६ कङ्कराजोऽन्तकस्य विजाख्यो दन्तिवा युनि (घि) निज वनवासी त्व५७ म राजवमा शान्तत्व शान्तदेशो नुलुवु-गिरि-पतिर्दाम- रिपभङ्ग [-] चतुर्थ ताम्रपन्न, पहिली बाजू ५८ मध्येऽन्त नागवा भयमतिरभसाद् गङ्ग-गाङ्गेय-भू५९ पात् ॥ राजादित्य-नरेश्वर गज-बटाटोपेन सदर्पित (म्) ६० जित्वा देशत एव गण्डुगमहा निद्वोट्य तञ्जापुरी नाळकोटे६१ प्रमुखाद्रि-दुर्ग-निवहान् दग्धा गजेन्द्रान् हयान् कृष्णा ६२ य प्रथितन्धन स्वयमदात् श्री-ग[-]ग-नारायणः ।।] ६३ आर्या ॥ एकान्तमत-मदोद्धत-कुवादि-कुम्भीन्द्र-कुम्भ-सम्भेद ॥ (1) ६४ नैगम-नयादि-कुलिशैरकरोजयदुत्तरङ्ग-नृपः ॥ गद्यम् || ६५ सत्यनीतिवाक्य-कोङ्गुणिवर्म-धर्ममहाराधिराज-परमेश्वर [:] १ "सितच्छत्र' पटो। २ सभवत यह पाठ 'किचात किन्नु' रहा होगा। ३ 'निर्भीय पदो। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ त य गङ्गा परिकर-पुरे सूदीका लेख १७१ चतुर्थ ताम्रपत्र, दूसरी बाजू ६६ श्री-बूतुग-प्रथम-नामधेयो ननिय-गङ्गः पण्णवति६७ सहनमपि गङ्ग-मण्डल [म] प्रतिपाळया(य)न् पुरिकर-पुरे कृ६८ तावस्थान (() स (श) क-बरि [श] पु षष्ट्युत्तराष्ट[श] तेपु अतिक्रान्तेषु विका६९ नि(रि) संवत्सर-का[] [] क-नन्दीस्व (श्व)र-सु(शु) क्ल-पक्षः अष्टम्यां आदित्यवारे ७० [खिक]ीय-प्रियाया. सम्यग्द[ ]गन-विशुद्धतया प्रत्यक्ष-धै-) ७१ वत्या. श्रीमद्दीवलाम्बिकाया. चैत्यालयाय सुल्धाटवी-स७२ प्तति-ग्राम-मुख्य-भूतायानगर्या सून्यां विनिर्मापिता७३ य खण्ड-स्पु(स्फुटित-नवकर्मात्य पूजाकरणार्थमाहारार्थ ७४ च पट् श्रा(श्र)मण्यो जनान् दानसन्मानादिना सन्तप्र्योत्तरदिगाया पाँचवॉ तानपत्र ७५ राजमानेन दण्डेन पष्टि-निवर्त्तन श्रीमद्वाडि( 2 टि)युर्गण-मुख्य७६ स्य नागदेव-पण्डिताय स्व[य]मेव पाटो (दौ) प्रक्षाव्य(ल्य) सून्यां दत्तवान् [1] ७७ तस्याघट पूर्वत. मानसिंग-केय्-दक्षिणतः पन्नसिनभूमिः प७८ चिमत. के (को) परपोलमुत्तरतः बालुगेरिय वन्द पल्ल[]] अरूषण गद्या७९ ण-त्रय ग्रामो दीयते ऽशेप-क्रम ग्रामो रक्षति ।। १ वर्षेपु' इति शुद्धपाठ । २ 'पण्डितस्य' पदो। ३ 'आघाटा' पढ़ो। ४ 'ददात्लगेष' पड़ो। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन-शिलालेख-संग्रह ८० सामान्योऽयं धर्म-सेतु नृपानां काले काले पालनीयो भवद्भि सर्वाने८१ तान् भाविनः पार्थिवेन्द्रो (न्द्रान्) भूयो-भूयो याचते रामभद्रः ॥ बहुभिर्वसु८२ धा भुक्ता राजमिस्सगरादिभि [:] यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ ८३ सुल्घाटवी-सप्तति-मुख्य-सून्द्यामचीकर जैन-गृहं प्रसिद्ध पद्-ग्रामणी८४ ष्टि-विधान-पूर्व श्री दीवक()म्या जगदेकरम्भा । (1) [J. F Fleet, EI, III, n° 25, f, S, t et tr] भावार्थ [यह शिलालेख अप्रेल, १९९२ ई० मे जे. एफ फ्लीटके देखनेमे आया । उन्होंने ही इसे, सबसे पहले, एपिग्राफिआ इण्डिका, जिल्ट ३, मे (पृ. १५८-१८४) छपाया । यह उन्हे सूदीके एक निवासीसे तान्त्रपन्नों (Plates) पर मिला। इस शिलालेखमें उस पच्छिमी गंग युवराज वृतुगमा उल्लेख है जिसने चोलराजा राजादित्य और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीयके बीचमें ९४९ -५० ई० में या इससे पहले हुए युद्धमे चोल राजा राजादित्यको मार डाला था। इस अभिलेखका उद्देश्य उस जमीनके दानका लेखन है जो उसने अपनी पल्लीद्वारा सून्दी, यानी सूदीमे निर्माण कराये गये जैनमन्दिरको दी थी। उसकी पत्नी का नाम दीवळाम्बा था। ग्रह लेखन ( Record ) बनावटी इस लेखपरसे फलित पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती पच्छिमी गंगोकी वंशावली इस प्रकार है १'अचीकर जैन' पढ़ो। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सून्दीका लेख पूर्ववर्ती पश्चिमी गंगोंकी वंशावली कोङ्गणिवर्मन् भूविक्रम माधव प्रथम हरिवर्मन् ( २४८ ई० ) विष्णुगोप 1 माधव द्वितीय 1 अविनीत-कोणि ( ४६६ ई० ) दुर्विनीत-कोणि मुश्कर, या मोक्कर विक्रम, या श्रीविक्रम शिवमार कोङ्गणि | १७३ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૩ जैन- शिलालेख संग्रह (पुत्र) 1 श्रीपुरुष- पृथिवी-कोणि ( ७६२ तथा ७६६-६७ ई० ) उत्तरवत्ती पच्छिमी गंगोंकी वंशावली भूविक्रम शिमवार श्रीपुरुष - कोमणिचर्मन् शिवमार सैगोत्त-कोणिधर्मन् विजयादित्य राजमल्ल - सत्यवाक्य को णिवर्मन् 1 एरेगङ्ग-नीतिमार्ग-कोङ्गुणिचर्मन् ( रामटि या रामदिके युद्ध में विजयी था ) 1 गुणदुत्तरङ्ग-तुंग राजमल्ल-सत्यवाक्य कोङ्गुणिचर्मन् (सामियके युद्ध में विजयी हुआ था ) ( पल्लवराजाको टूटकर Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सून्दीका लेख १७५ अमोघवर्पकी • कन्या अव्वलवासे विवाह किया ) कोमरखेडङ्ग-एरेगङ्ग-नीतिमार्ग-कोगुणिवर्मन् ( एरेयप्पके, या द्वारा, पट्टबन्धसे उसका ललाट शोभित था; और उसने जन्तेप्यरुपे रुमे पल्लवोको हराया था) वीरवेडङ्ग-नरसिंघ-सत्यवाक्य-कोझुणिवर्मन् - - - - - कच्छेयगङ्ग-राजमल्ल-नीतिमार्ग-कोड़ णिवर्मन् जयदुत्तरंग-गगगागेय-गगनारायण-नन्नियगगबूतुग-सत्यनीतिवाक्य-कोङ्गणिवर्मन् (९३८ ई०) (इसने डहाळ देशके त्रिपुरीमे, बहेगकी पुत्रीसे विवाह किया था, बहेगकी मृत्युपर कृष्णके लिये राज्य प्राप्त किया, लल्लेय (1) के पलेसे इसको निकाला; अळचपुरके कक्कराजको, वनवासीके विज-दन्तिवर्मनको, राजवर्माको, तुलगिरिके दामरिको, तथा नागवर्माको भय उत्पन्न किया; राजादित्यको जीता, तक्षापुरीको घेरा, और नाळकोटेके पहाडी किलेको जला डाला । इसकी पत्नी दीवळाम्बा थी।) १४३ मदनूर-(जिला-नेल्लोर) संस्कृत । शक ८६७=९४५ ई० सन् प्रथम पत्र। १ भद्रं स्यात्रिजगन्नुताय सतत श्रीमजिनेन्द्रप्रभोरुद्दामाततशासन[] Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैन - शिलालेख संग्रह २ य विलसद्धर्म्मावलवाय च । सामर्थ्यात् खलु यस्य दुम्कलिकता दोपाच मिथ्योद्भवा (1) दु ३ वृत्तानि च भूतलेन वितना शान्तिश्च नित्य क्षिते[:] ॥१॥ खस्ति श्रीमता सकलभुवनस ४ स्तूयमानमानव्य सगोत्राणा हारितिपुत्राणा कौशिकिवरप्रसाद लब्धरा ५ ज्यानाम्मातृग [ण] परिपालिताना खामिमहासेन पादानुध्यायिनाम् भगव ६ नारायणप्रसादसमासादितवरवराहलाञ्चनेक्षणक्षणवशिकृताराति मण्ड [ला] - ७ नामश्वमेधावभृथस्नान पवित्रीकृतवपुपाम् चालुक्यानां कुलमलकरिष्णोस्सत्या[श्र] ८ यवल्लभेन्द्रस्य भ्राता कुब्ज विष्णुवर्द्धनोष्ट [[] दशवर्षाणि चेंग - मण्डलमपालयत् । तदात्म प्रथम पत्र, दूसरी ओर । ९ जो जयसिंहस्त्रयस्त्रिंशतम् । तदनुजेन्द्रराजनन्दनो विष्णुवर्द्धनो नव । तत्सूनुम्मंगियुवराज १० ४ पचविंशतिन्तत्पुत्रो जयसिंहत्त्रयोदश । तदवरज[:]को किलिप्पण्मासान् । तस्य ज्येष्ठो भ्राता ११ विष्णुवर्द्धन [स्त ] मुच्चाट्य [स] तत्रिंशतम् वर्षाणि [ [] तत्पुत्रो विजयादित्यभट्ट [[ ]रकोष्टादश । तत्सुतो १ वशीकृता पढ़ो । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनूरका लेख १७७ १२ विष्णुवर्द्धनप्पट्त्रिंशतम् । नरेन्द्रमृगराजाल्यो मृगराजपरा__क्रमः[] विजयादित्य-भूपालश्चत्वारिंशत्समाष्टभिः १३ [॥२]तत्पुत्रः कलिविष्णुवर्द्धनोव्यर्द्धवर्ष । त१४ त्पुत्रः परचक्ररामापरनामधेय हत्वा भूरिनोडंचराष्ट्रनृपति मंगिम्महासग१५ रे गंगानाश्रितगंगकूटशिखरानिर्जित्य साहलाधीश संकि लमुग्रवल्लभयुन यो भ [f]१६ ययित्वा चतुश्चत्वारिंशतमब्दकाश्च विजयादिलो ररक्ष क्षितिं । [३] तदनुजस्य लब्ध दूसरा पन्न; दूसरी ओर। १७ यौवराज्यस्य विक्रमादित्यस्य सुतश्चालुक्यभीमलिंशतं[]] ___ तस्याग्रजो विजयादित्यः १८ षण्मासान् [] तदअसूनुरम्मराजत्सप्तवाणि । तत्सूनुमाक्रम्य वाल चालुक्यभीमपि१९ तृव्ययुद्धमल्लस नन्दनस्तालनृपो मासमेक । नाना-सामन्तव गैरधिकवलयुतर्म२० त्तमातगसेनैर्हत्वा त तालराजं विपमरणमुखे सार्द्धमत्युग्रते२१ जाः [] एकाव्द सम्यगम्भोनिधिवलयवृतामन्चरक्षरित्री श्रीमा श्वालुक्य२२ मीमक्षितिपतितनयो विक्रमादित्यभूपः । [४] पश्चादहमह मिकया विक्रमादिलास्त२३ म [य]ने राक्षसा इव प्रजाबाधनपरा दायादराजपुत्रा राज्याभिलाषिणो युद्धमल्लराशि० १२ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन-शिलालेख संग्रह २४ जमाण्डकण्ठिकाविजयादित्यप्रभृतयो विप्रीभूता आसन् [0 विन __ तीसरा पत्र, पहली ओर। २५ हेणैर पंचत्रपाणि गतानि []] ततः [0] योऽनधी [7] जमा तण्डन्तेप[] येन रणे कृतौ [] क२६ ण्ठिकाविजयादित्ययुद्धमल्लौ विदेगा । [१] अन्ये मान्यमही भृतोपि बहवो दु२७ टप्रवृत्तोद्धता () देशोपद्रवकारिण. प्रकटिनाः कालालय प्रापिताः दोईण्डेरि२८ तमण्डलाग्रल नया यस्योप्रसग्रामझावाना' त-परभूपैश्च २९ शिरसो मालेभ सन्धार्यते । [६] नादग्या विनेर्तते रिपुकुठं कोपाग्निरामूल३० तः शुभ्र य य यशो न लोकमखिल सन्तिष्ठते न भ्रमत् [] द्रव्याभोधररागिरप्यनुदिनं ३१ सन्तप्यमाने मृग दारिद्रयोप्रजरातपेन जननासत्ये न नो वर्षति । [७] स चालुक्यभीमनप्ना वि३२ जमादित्यनन्दन[ 1] द्वादशावत्समास्तम्यग् राजमीमो धरातल । [८] तस्य महेश्वरमू तीसरा पत्र, दूसरी ओर ।। ३३ त्तरुमासमानाकृते. कुनाराभ:[1] लोकमहादेव्याः खलु यस्सम___ भवदम्म[स]३४ जाख्यः ॥ [९] जलजातपत्रचामरकलशाकुशलक्षणा[क]करचर१ शायद °साग्रामिकस्याज्ञा' पढ़ो। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनूरका लेख णतलः [1] लसदाजा३५ न्वबलवितभुजयुगपरिधो गिरीन्द्रसानूरस्कः ।। [१०] विदितघरा धिपविद्यो विविधायु३६ धकोविदो विलीनारिकुलः [0] करितुरगागमकुशलो हरचरणांभोज युग३७ लमधुपश्रीनान् ॥ [११] कविगायककल्पतरुर्द्विजमुनिदीनान्ध वन्धुजन३८ सुरमि. [1] याचकगणचिन्तामणिरवनीशमणिमहोग्रमहसा घुमणिः ॥ [१२] गिरि(सर्वसु३९ संख्याव्द शकसमये मार्गशीर्षमासेस्मिन् [[] कृष्णत्रयोदश दिने भृगुवारे मैत्रनक्षत्रे [॥ १३] | १० धनुपि रयो घटलग्ने द्वादशवर्षे तु जन्मनः पट्ट [1] योधादुदयगिरीन्द्रो रविमिप लोका चतुर्थ पत्र, पहली ओर । ४१ नुरागाय ।। [१४] स समस्तभुवनाश्रयश्री विजयादित्यमहाराजा धिराजपरमेश्वर परम[धा]४२ मिकोम्मराजझम्मनाण्डुविषयनिवासिनो राष्ट्रकूटप्रमुखान् कुटु बिनस्स[] नित्यमाज्ञापयति [] ४३ आर्या[]। किरणपुरनधाक्षीत्कृष्णराजास्थितं यत्रिपुरमिव महे शx पा(ण्डु ?)रंग[:]प्रतापी [0] तदिह [मु]१४ खसहरन्वितस्याप्यशक्य गणनममलकीर्तेस्तस्य सत्साहसानाम् ।। [१५] तस्यात्म Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन-शिलालेख-संग्रह ४५ जो निरवद्यधवला:] कटकराजपट्टशोभितललाटः ] तत्तनयो विजयादित्यकट४६ काधिपति.] । वृत्त । तत्पुत्रो दुर्गराज प्रवरगुणनिधिार्मिक. स्सत्यवादी त्यागी भोगी] ४७ महात्मा समितिषु विजयी वीरलक्ष्मीनिवासः [1] चालुक्यानां च , लक्ष्म्या यदसिरपि सदा रक्षणा[यै]१८ व वश[ ] ख्यातो यस्यापि गीगदितवरमहामण्डलालबनाय । [१६] तेन कृतो धर्मपु[रीद] ४९ क्षिणदिशि सजिनालयश्चारुतरः [] कटकाभरणशुभाकितनाम चे पुण्यालयो वसति [॥ १७] चतुर्थ पत्र, द्वितीय ओर । ५० [श्री] यापनीयसंघप्रपूज्यकोटिमडवगणेशमुख्यो यः [1] पुण्या हैनन्दिगच्छो जिननन्दिमुनीश्वरो [थ] ग५१ [ण] धरसदृशः । [१८] तस्याप्रशिष्य प्रथितो धरायाम् (1) . दिव[1] कराख्यो मुनिपुगवोभूत् [1] यत्केवलज्ञाननिधि५२ महात्मा स्वय जिनाना सदृशो गुणोधैः ॥ [१९] श्रीमान्दि रदेवमुनिस्सुतपोनिधिरभवदस्य शिष्यो धीम[[]न् [1] य५३ म्प्रातिहार्य्यमहिम्ना संप्पन्नमिवाभिमन्यते लोक. [॥२०] तद विष्ठितकटक[1] भरणजिनालय[1]५४ य कटकराजविज्ञप्ते खण्डस्फुटनवकृत्याबलिप्रपूजादिसत्रसिद्ध्यर्थमु १ इस सम्पूर्ण समाससे 'कटकाभरणशुभनामाङ्कित' अपेक्षित है, जिसके रखनेसे छन्दोभन हो जाता। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदनूरका लेख ५५ त्तरायणनिमित्ते मलियपूण्डिनामग्रामटिका सर्वकरपरिहार(म्) मुदक५६ पूर्व कृत्वा दत्ता । अस्य ग्रामस्यावधयः पूर्वतः मुंजुन्यरु ।। दक्षिणतः यिनिमिलि ॥ पश्चिमि]५७ तः कल्वकुरु ।। उत्तरत[:] धर्मवुरमु । एतद्वामस्य क्षेत्रा वधयः पूर्वतः गोल्लनि२८ गुण्ठ ॥ आग्नेयत[:] रावियपेरिय वु । दक्षिणतः स्थापितशिला ॥ नैर्ऋत्या स्थ[[] पितशिलैव [] पञ्चम पत्र । ५९ पश्चिमतः मल्कप ) को 9 बोयुता] कश्च ॥ वायव्यतः स्थापितशिलैव । उत्तरत. दुव[चे] es Q [] ६० ऐशान्याम् (0) कल्पकुरि ऐव्वोकचेनि सीमैव सीमा ॥ [चूंकि लेखमे एक जैनमन्दिरके दानका उल्लेख है, अतः इसका प्रारम्भ जैनधर्मके मंगलाचरणसे किया गया है। पक्ति ३ से लेकर ४१ में पूर्वी चालुक्य वशकी 'समस्तभुवनाश्रय' विजयादित्य (छठे) या अम्मराज (द्वितीय) तक की वशावली है। वंशावलीके भागमें ऐतिहासिक महत्त्वके दो स्थल हैं, पहिला (प० १३-१६) विजयादित्य तृतीयके राज्यका वर्णन करता है और दूसरे (प. २०-३२) मे चालुक्यभीम द्वितीयका अभिषेक अर्थात् राजतिलक है। शिलालेखमे वर्णित मनि नोलम्बेवाडिका एक पल्लव राजा और सङ्किल दाहल (या चेदि) का प्राचीन सरदार मालूम पड़ता है। अन्तसे इस शासन (लेख) मे विजयादित्य तृतीयका एक नया उपनाम परचक्रराम (प०१४) आता है। विक्रमादित्य द्वितीयकी मृत्युके बाद बरावर पाँच वर्षतक युद्धमल्ल, राजमार्तण्ड और कण्ठिका-विजयादित्यमें लडाई होती रही । अन्तमें राजभीम (या चालुक्यभीम द्वितीय) राजमार्तण्डका वधकर, कण्ठिका १ या सम्भवत. 'मुंजुन्युरु'। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन-शिलालेख-संग्रह विजयादित्य और युद्धमल्लको हराकर या देशनिकाला देवर व्यवस्था एवं शान्तिके स्थापनमे सफल हुआ। उल्लिखित दान उत्तरायणमें (प० ५४) किया गया था। दानपान एक जिनमन्दिर था, जो धर्मपुरी (श्लोक १७) के दक्षिणमे तथा यापनीयसबके एक मुनिके अधिकारसे था । इसकी स्थापना 'कटकराज' (५०५४) दुर्गराज (को०१६) ने की थी और उन्हींके उपनामसे वह कटकाभरणजिनालय (शो० १७ तथा प०५३) कहलाया। उसकी प्रार्थना पर (प. ५४) ही दान किया गया था, और दानके वर्णनका भाग उसके कुटुम्बकी वंशावलीके वर्णनसे शुरू होता है । कहा गया है कि उसके पूर्वज पाण्डुरंगने कृष्णराज (को०१५) के निवासस्थान किरणपुरको जला दिया था, और वदनुसार वह विज्यादित्य तृतीयका कोई सैनिक अधिकारी होना चाहिये। उसके पुत्र निरवद्यधवल्को 'क्टकराज' का पट्ट दिया गया था (पं०१४)। उसका पुत्र 'क्टकाधिपति' विजयादित्य (प० ४५) था, और उसका पुत्र दुर्गराज (श्लो० ६६) था। दान की गई चीज मलियपूण्डि (प० ५५) नामका एक छोटा गाँव था, यह कम्मनाण्ड (५० ४२) जिलेमें था । इसकी सीमाए पंक्ति ५६ मे दी गई है। उत्तरकी सीमा धर्मधुरमु (धर्मपुरी) के दक्षिणसे यह जिनालय था।] [ El, IX, n° 6] १४४ कलुचुम्वरू (जिला मत्तीली)-संस्कृत तथा तेलुगू। [विना कार निर्देशका (ई० सन् ९४५ से ९७० के लगभग)] ओ खस्ति श्रीमता सकलभुवनसस्तूयमानमानव्य-सगोत्राणां हारिति-पुत्राणा कौशिकीवरप्रसादलब्धराज्यानाम्मातृगणपरिपालितानां खामिमहासेनपदानुष्याताना भगवन्नारायणप्रसाढसमासादित-वर-वराहलाञ्छनेक्षणक्षणवशीकृतारातिमण्डलानामश्वमेधावभृतस्नानपवित्रीकृतवपुषं चालुक्यानां कुलमलकरिप्णोस् सत्याश्रयवल्लभेन्द्रस भ्राता [1] Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलुचुम्वरूका लेख श्रीपतिविक्रमेणायो दुर्जयादलितो हृतां अष्टादशसमाः कुब्ज-विष्णुजिप्णुर्महीमपालयत् (1) तदात्मजो जयसिंहस्त्रयस्त्रिंशत [1] तद दूसरा पन्न; प्रथम ओर गजेन्द्रराज-नन्दनो विष्णुवर्धनो नव । तत्सनुरर्मनी-युवराजः पञ्चविंशति । तत्पुत्रो जयसिंहस्त्रयोदश ॥ तस्य द्वैमातुरानुज कोकिलिः पण्मासान् [1] तस्य ज्येष्ठो भ्राता विष्णुवर्द्धनस्तमुच्चाट्य सप्तत्रिंशतम् । तत्सुतो विजयादित्यभट्टारकोऽष्टादश । तःसुतो विष्णुवर्द्धनः पट्त्रिंशत । तासुतो नरेन्द्र मृगराजस्साष्टचत्वारिंशत । तःपुत्रः कलि-विप्णुवर्द्धनोऽध्यर्द्ध-वर्प ॥] त सुतो गुणग विजयादित्यश्चतुश्चत्वारिंशत । अथवा। सुतस्तस्य ज्येष्ठो गुणग-विजयादित्य-पतिरंककारस्साक्षाद्वल्लभनृप-समभ्यर्चितभुजः प्रधानः शूराणामपि सुभटदूसरा पत्र, दूसरी तरफ चूडामणिरसौ चतत्रश्चत्वारिंशतिमपि समा भूमिमभुनक् ॥ तद्भातुर्युवराजस्य विक्रमादित्यभूपतेः । शत्रुवित्रासकृत्पुत्रो दानी कानीनसन्निभः ।। जित्वा संयति कृष्णवल्लभमहादण्ड सदायादकन् (८) दत्वा देव-मुनि-द्विजातितनयो धर्मार्थमर्थम्मुहुः । कृत्वा राज्यम[क]ण्टकन्निरुपम संवृद्धमृद्धप्रज भीमो भूपतिरन्वभुंक्त भुवनं न्यायात समात्रिंशत ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन - शिलालेख संग्रह तदनु विजयादित्यस्तस्य प्रियतनयो महानधिकधनदस्सत्य-त्याग - प्रताप- समन्वितः । परहृदयनि[र] मेदी नाम्नैव कोल्लविगण्ड-भूपतिरकृत षण्मासान् राज्यन्नयस्थितिसयुतः ॥ तस्याग्रसूनुरपराजितशक्तिरम्म राजः पराजितपरावनिराजराजिः । राजाभवद्विदितराज महेन्द्र नामा वर्षाणि सप्त सरणिः करुणारसस्य ॥ तस्यात्मज विजयादित्यवालमुच्चाट्य श्रीयुद्ध मलात्मजस्तालपराजो मासमेकमरक्षीत् ॥ तमाहवे विनिर्जित्य चालुक्यभीमतनयो विक्रमादित्यो विक्रमेणाक्रमे निक्षिप्य नव मासानपालयत् ॥ ततो युद्धमस्तालप-राजाग्रजन्मा सप्त वर्षाणि गृहीत्त्वाऽतिष्ठत् ॥ तत्रान्तरे विदितकोल्लविगण्ड-सूतो द्वैमातुरो विनुत- राजमहेन्द्र-नाम्नः भीमाधिपो विजितभी मवलप्रतापः प्राचीं दिशं विमलयन्नुदितो विजेतुम् ॥ श्रीमन्तं राजमय्यन्-धा-मुरुत्त (त) रन तातविकिं प्रचण्ड विज्जं सज्जच] युद्धे वलिनमतितरामय्यपं भीममुग्र दण्ड गोविन्द - राज- प्रणिहितमधिक चोळपं लोवविकि विक्रान्तं युद्धम घटितगजघटान् सन्निहत्यैक एव || भीतानाश्वासयन् सच्छरणमुपगतान् पालयन् कण्टकानुत्सन्नान् कुन् सुगृह्वन् करमपरमुवो रज्जयन् ख जनौघ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलुचुम्बरूका लेख तन्वन् कीर्त्ति नरेन्द्रोच्चयमत्रनमयन्नार्जवम्बलुरागीनेत्र श्रीराजभीमो जगदखिलमसौ द्वादशाब्दान्यरक्षत् ॥ तत्य नहेश्वरमूर्तेरुमासमानाकृते कुमारसमानः लोकमहादेव्याः खलु यत्तमभवद्म्मराज इति विख्यातः ॥ १८५ यो रूपेण मनोज विश्वेन महेन्द्र महिनकरं उरुमहसा हरमरि-पुरढहनेन न्यक्कुर्वन् भाति विनिनिर्नलकीर्तिः [[I] यद्वाहुदण्ड करवाल विदारितारिमत्तेभकुम्भगलिनानि विभान्ति युद्धे मुक्ताफलानि सुभट-अटजोभितानि वीजानि कीर्ति - विततेरित्र रोपितानि । (II) स समन्तनुवनाश्रयश्रीविजयादित्य महाराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारक परम्ब्रह्मण्पोऽत्तिलिनाण्डुविनयनिवासिनो राष्ट्रकूटप्रमुखान् कुटुम्बिनरसमाहूये यमाज्ञापयति ॥ अड्डकलि-गच्छ-नाना । बल चतुर्थपत्र, दूसरी बाजू हारि गणप्रतीनविख्यातयशा [.] । चातुर्वर्ण-श्रमण-विशेषानश्राणनाभिलषित-मनस्कः ॥ श्रीराजचालुक्यान्त्रयपरिचारित पट्टवर्द्धिकान्ययतिल्का । गणिकाजनमुखकमल्युमणिद्युतिरिह हि चामेकाम्याभूत सा । (II) जिनधर्मजलविवर्धनशशिरुचिरसमानकीत्तिलाभविलोला । दानढयाशीलयुता चारुश्रीः श्रावकी बुश्रुतनिरता ॥ यत्त्या गुरुपंक्तिरुच्यते— सिद्धान्तपारचा प्रकटितगुण सकलचन्द्र सिद्धान्तमुनि । तच्छिप्पो गुणवान् प्रभुरनिनयशासुमतिरय्य पोटिमुनीन्द्रः ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह तच्छिप्याऽनन्धङ्कितवरमुनये चामेकाम्या सुभक्त्या । श्रीमच्छ्रीसर्चलोकाश्रय जिनभवनख्यातसत्रार्थमुच ॥ गिनाथाम्मराजे क्षितिमृति क्लुचुम्बर्ससुग्राममिष्ट । सन्तुष्टा ढापयित्वा वुधजनविनुता यत्र जग्राह कीति ॥ उत्तरायणनिमित्तेन खण्डस्फुटितनवकर्मार्थ सर्वकरपरिहार शासनीकृत्य दत्तमस्वावधय. [0] ___ पूर्वत. आरुविल्लि । दक्षिणतः कोस्कोलनु । पश्चिमत यिडियूरु । उत्तरत' युलिकोडमण्ड । तस्य क्षेत्रावधयः । पूर्वत. शर्कराकरें । दक्षिणतः इसलकोल । पश्चिमतः इडियरि पोलगस्सु । उत्तरतः कञ्चरिगुण्डु ॥ अस्योपरि न केनच्विाधा कर्त्तव्या य. करोति स पञ्चमहापातकसंयुक्तो भवति । (11) बहुभिर्वसुधा दत्ता (त्ता) बहुभिश्चानुपालिता । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ खदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् । पष्टिवर्पसहस्राणि विष्टाया जायते कृमिः ॥ अस्य ग्रामस्य ग्रामकूटत्व क लाम्बात्मज-कुसुमायुधाय दत्त शाश्वतं ॥ अस्य ग्रामस्य [क] प्याभिधान करवर्जित ॥ आज्ञप्तिः कटकाधीशो भट्टदेवश्च लेखक । कविः कविचक्रवर्ती शासनस्साश्युकृत् ॥ पेड-क्लुचुवुवरिति शासनम्बुशेसिन भट्टदेवनिकाहनन्दिभटारुलु गुम्सिमिय रेट्रेलुगाम्वुलनुण्डिपनु(पने) ण्ड तूमुन नि वुल विट्ठ-पड ब्रसादश्चेसिरि [1] १ शासनस्यास्य काव्यकृत् ।. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ हुम्मचका लेख [यह लेख प्राच्य चालुक्य राजा अम्म द्वितीय अपरनाम विजयादित्य षष्टकी प्रशस्ति है । इस्का काल नहीं दिया है । लेकिन दूसरे प्रमाणोसे पता चलता है कि उसका राज्याभिषेक शुक्रवार, ५ दिसम्बर, ९४५ ई० को हुआ था और उसने २५ वर्पतक राज्य किया था। अत्तिलिनाण्ड प्रान्त (विषय) के कल् चुम्बर नाम के गावके दानका इसमें उल्लेख है । यह दान वलहारि गण और अडकलि गच्छके अहनन्दि जैन गुरको किया गया था। दानका प्रयोजन सरोकाश्रय-जिनभवन नामके जैनमन्दिरके धर्माटेकी भोजनशाला (या भोजनभवन) की मरम्मत वगैर• कराना था। यह दान स्वय अन्म द्वितीयने किया था, लेकिन पवर्धिक वंशकी और अर्हनन्दिकी एक शिप्या चामेकाम्बाकी ओरसे दिलवाया गया था। प्रशस्तिके अन्तका तेलुगू भाग स्वय हनन्दिके द्वारा प्रशस्तिके लेखक्को दिये गये एक इनामका जिक्र करता है।] __[DI, VII, n° 25, £ 5] १४५ हुम्मच-संस्कृत। [काल लुप्त, संभवत. लगभग ९५० ई० (लु० राइस)।] [ पार्श्वनाथवस्तिके दरवाजेकी पश्चिम ओरकी दीवालपर] श्रीमत् स्वस्त्यनवद्य-दर्शन-महोग्नरु प्रताप-सम्पन्न पर-चक्रगण्ड.... """""य्युत्तिरे शक-वर्पमेण्टु-नू...... ... ... नाड नाळ्गामुण्ड मन्तेयर म""सर्गतन्" ... ..'नाळ्गामुण्ड बी..दिळ.डोळ् किषुकवे सर्गतन वाणसिगेयाकेय पिरिय-मग...ळियकं तोलापुरुष-सान्तरन वळेयाके तम्मद्वेय सन्या" छत्तमी-कल्ल वसदियुमोन्दु-देवारमुम माडिसिदळ्" श्रीसामियब्वे सेदेगोट्टडे सान्तरन विन्ननप्प मोगम नोडेनेन्दरसि"पपिदु' प्रभावति-कन्तियरेन्दु पेसर कोण्डु सन्यासन गेय्दोडे... कुक्कस-नाड किपिय-सालेयुरं वसदिगित्त वलक-नाड सुळिगोड देवारके""भटारगर्गे बळिय नदि वसदिग देवारक कोडळ पाळियक बोलि Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ जैन-शिलालेख संग्रह यक पुत्तुणक्केय्य "इकण्डुग-वित्तवुड कोट्टल् कुन्दय्य कोन्दरोळ्... ... येम्बुदु मणिकण्डग .... दृ पोरवक्कनु सेम्बक्कनु पाजियकन केळदिये पुठियण्णवी-धर्म नडयिसु "री-नाडरसं रणविक्रम पाळियकन वसदिगे बदरीनाडानन्दु पनेरड बण्ण तम्म वाणसिगेय बयल को ईधर्मम श्रीसामियव्ये गेल्लुगन मुनमे सालिय् .."र ने डि पाळियक्कन बसदिगित्तळ गेल्लुगन धर्म कावोनु नडयिसुबोनु... · गळ महा श्री॥ श्री-माधवचन्द्रविद्य-देवर शिष्यरप्प नागचन्द्र-देवर पुत्र मादेयसेनबोव "स पुन-प्रतिष्ठेय माडिढनु मङ्गळ महा श्री श्री-वीतरा[ग] ॥ [स्वस्ति । जिस समय अनवद्यदर्शन, महोत्र, प्रतापसम्पन्न, परचक्रगण्ड, • • • ......शासन कर रहा था,-(उक्त मितिको), प्रत्यक्षरूपसे तोलापुरुष-शान्तरकी पत्नी पालियने, अपनी माताकी मृत्युपर, पालियक्क बसदि नामकी एक पाषाण-बसाद खडी की और बहुतसे दान इसके लिये किये गये। [EC, VIII, Nagar ti, n° 45] १४६ कुम्ती-संस्कृत तथा कन्नड-भन्न । [ वर्ष साधारण ९५० ई. ( लु० राइस)] [ कुम्सीमें, किलेके भण्डार-गृहके पासके पापाणपर] श्रीमत्परमगभीरस्याहादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।। तनगेन्दु ...... . ....."नन्- । द''पुत्रगति-भीतिय... "मतावष्टम्भदि भाडि को-1 डनो जाम "सोम्युवेत्त पोळलोल कुम्वशिकेयोळ माडिदम् । जिन-गेहङ्गळवाशेयिं पलवु... ....." Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुम्सीका लेख १८९. ......"विणेन्द्र...... ... ... . तुङ्गाद्रिय । दोरेय ......... ...." भक्ति-मनहिं पुम्बुच्चुमिपन्नेगम् । ... . ' लोकियव्वेय जिन-गेहम माडिदम् । धरेयेल्ल पोगळवन्नेग वि ... 'अवनीपाळकम् ॥ जिनदत्त-रायं श्रीमन्महा . . . . धिपति-बोम्मरस-गौडर मक्लु " ... ति-दत्त तन्न अनुज मानिभद्र-गौडर मकल रायविभाड राज" रेवन्त नडे-गौड सुरितण्ण हिरिय-तम्मगौडरु मुख्यवाद आतन अनुज पद्मयनु आनन तम्म चिक-तम्म-गौडरु आतन अनुज होन्नणगौडरु धर्म-आसनव साधारण संवत्सरद कार्तिक सुद्द-पुन्नमि-सो." ........... सेटि सोक्कि-सेट्टि पदुम-सेष्टि .... बाद आदिव्य-स्थानके".... ... सन्दायवेन्दु · देरिगे येन्दु विट्टि येन्दु केळसल्लदु ईधर्मव नडसिटवरिगे स्वर्गपदव पडेवरु ईधर्मक्के तप्पिदवरु एळनेय नरकके होहरु जिन-रभिपेक-निमित्त । घन-पूर्ण कुम्बकेन्दु कुम्बसे-पुरमम् । जिनदत्त-रायनित्त । कनक कुलोद्भवरु कलसराजान्वयरुम् ।। सन्नकोप्पद बस्तियिन्द बडगलु वेटल कोप्यद करे । कल्लू सरहु सह विट्टर ' " वीजवरि कोहरु प्रतिपालिसुबदुः [जिनशासनकी प्रशसा । ......... पोललु और कुम्वसिबेमे, पोम्बुच्च जबतक जिन्दा रहे तबतक उन्होने जिनमन्दिर बनवाये, जिनमन्दिरमे लोक्कि यव्येकी स्थापना की । और जिनदत्त-राय [की स्वीकृतिसे], शासक मोम्मरस और अनेक गौडोने (जिनके नाम दिये हैं),- तथा कुछ सेट्टि लोगोंने उक्त मितिको इसके लिये वार्पिक दान दिया । शापात्मक श्लोक । जिनदत्तराय, जिसने जिनके अभिपेकके लिये कुम्बसे-पुरका दान किया था, कलस राजाओके खानदानके कनककुल मे उत्पन्न हुआ था। उसने कुछजमीन भी दी थी।] [EC VII, Shimoga t, u° 114 ] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह १४७ खजुराहो- संस्कृत ( विक्रम संवत् १०११ = ९५५ ई० ) १ ॐ [I] सनत् १०११ समये || निजकुलधवलोयं दि२ व्यमूर्ति खसी (शी) ल स (श) मदमगुणयुक्त सर्व्व३ सत्वा (सा) नुकपी [1] खजनजनितोपो धांगराजेन ४ मान्य प्रणमति जिननायोय भव्यपाहिल (छ) - ५ नामा | (II) १ ॥ पाहिलनाटिका १ चन्द्रवाटिका २ ६ लघुचद्रवाटिका ३ स (श) करवाटिका ४ पंचाइ७ तलनाटिका ५ आम्रनाटिका ६ ध (ध) गवाडी ७ [I] ८ पाहिल से (गे) तु क्षये क्षीगे अपरवसो (गो) यः कोपि ९ तिष्ठति [[] तस्य दासस्य ढासोय मम दतिस्तु पाल१० येत् ॥ महाराजगुरुस्त्री (श्री) वासवचंद्र [11] वैसा (श) ष (ख) ११ खुदि ७ सोमदिने ॥ १९० [ एपिग्राफिआ इण्डिका, जि० १, पृ० १३६ ] [El 1, p 135-136] [ यह शिलालेख खजुराहो से उत्कीर्ण है। इसमे ११ पक्तियाँ है या धान राज्यकालमे विक्रम सं० । जिननाथके मन्दिरके वायें दरवाजेपर इसमे बताया गया है कि राजा ध १०११ या ९५४ ई० में भव्य पाहिल या पाहिलने जिननाथ मन्दिरको बहुत तरह की वाटिकाओं ( छोटे उद्यानों - या बगीचो) का दान किया । दानोके निम्नलिखित नाम हैं.. १. पाहिल वाटिका, या पाहिल बगीचा २. चन्द्र-वाटिका, या चन्द्र बगीचा ३. लघु चन्द्रवाटिका, या छोटा चन्द्र बगीचा ४. शकर-वाटिका, या शकर बगीचा Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मेश्वरका लेख ५. पञ्चाइतल वाटिका ? ६. आन वाटिका, या भामके पेडोंका बगीचा ७, धन वाडी, या धन उद्यान-भवन । ए. कनिघमने सम्बत् १०११ को सुधारकर और युक्तिपूर्वक सिद्ध कर इसको सं० ११११ पढ़ा है । शिलालेखका पूरा श्लोक प्रो० एफ् कीलहोमैंने इस तरह शुद्ध किया है निजकुलधवलोय दिव्यमूर्तिः सुशीलः ___ शमदमगुणयुक्त सर्पसत्वानुकम्पी । सुजनजनिततोपो धनराजेन मान्य प्रणमति जिननाय भव्यपाहिल्लनामा ॥ १ ॥] १४८ सुहानिया [ग्वालियर]--संस्कृत । [स० १०१३-९५६ ई .] सबत् १०१३ माधवसुतेन महिन्द्रचन्द्र केनकमा ( खो ? ) दिता [सुहानियामे माधवके पुत्र महेन्द्र चन्द्र ने एक जैन मूर्ति प्रतिष्ठापित की । संवत् १०१३।] [ASB, XXXI, P 399, a, P 410, t] [ ई० ए० जित्द ७, पृ० १०१-१११ नं० ३८ १-५१ की पत्तियाँ] लक्ष्मेश्वर-संस्कृत। [शरु ८९०-९६८ ई.] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं । जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ १ यह 'प्रतिष्ठिता' का अपभ्रश मालूम पड़ता है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह ___ खस्ति जित भगवता गतघनगगनाभेन पद्मनाभेन [1] श्रीमजाह्रवीयकुलामलव्योमावभासनभास्करः खखड्गकप्रहारखण्डितमहाशिलास्तम्भलब्धवलपराक्रमो दारुणारिगणविदारणोपलब्धव्रणविभूपणविभूपितः कण्वायनसगोत्रः श्रीमान् कोङ्गाणिवर्मधर्ममहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीमाधवप्रथमनामधेयः ॥ तत्पुत्रः पितुरन्वागतगुणयुक्तो विद्याविनयविहितवृत्तः सम्यक्प्रजापालनमात्राधिगतराज्यप्रयोजनो विद्वत्कविकाञ्चननिकषोपलभूतो नीतिशास्त्रस्य वक्तृप्रयोक्तूकुशलो दत्तकसूत्रवृत्ते प्रणेता श्रीमन्माधवमहाराजाधिराज ॥ तत्पुत्रः पितृपितामहगुणयुक्तो(s)नेकचतुर्दन्तयुद्धावाप्तचतुरुदधिसलिलावादितयश' श्रीमद्धरिवर्ममहाराजाधिराजः॥ अपिच ।। वृत्त ।। आसीज्जगद्गहनरक्षणराजसिंहः क्ष्मामण्डलाजवनमण्डनराजहसः । श्रीमारसिंह इति बृहितबाहुकीर्ति स्तस्यानुज कृतयुगक्षितिपालकीर्तिः ।। आदेशाद्देवचोलान्तकधरणिपतेर्गगचूडामणिस्त्वा वेगादभ्येति योद्धु त्यज गजतुरगव्यूहसन्नाहदर्पम् । गङ्गामुत्तीर्य गन्तु परबलमतुल कल्पयेत्पाप दूतैविज्ञप्त गूर्जराणा पतिरकृति तथा यत्र जैत्रप्रयाणे ॥ पद्माम्भोरुहभृङ्गभृत्यभरणव्यापारचिन्तामणि. संत्रासग्रहविह्वलीकृतरिपुदमापालरक्षामणिः विद्वत्कण्ठविभूपणीकृतगुणप्रोद्भासिमुक्तामणिदेवस्सज्जनवर्णनीयचरितश्रीगङ्गचूडामणि ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मेश्वरका लेख मन्दाकिन्या जिनेन्द्रलपनविधिपयस्त्यन्दसम्पादिनायाः कालिन्द्याश्चण्डवैरिग्रहतगजमदवेननिर्तितायाः । सम्भेदे श्रीनिकेताङ्गणभुवि भवतो गङ्गकन्दर्पभूव्यातन्यो दिग्वधूना विधुविजची (यि) यगो हारमाचन्द्रतारम् ।। अपि च ॥ वृत्त ॥ नि टोज्ज्वलयोधपोतबलतस्मिद्धान्तरनाकरम् चारित्रोप्लुनयानपात्रबलनस्ल मारमीनाकरम् । उत्तीर्णस्ममुदीपर्णभक्तिविनर्वन्धाभिधानो बुधै रासीद् देवगणाप्रणीग्गुणनिधिदेवेन्द्र भट्टारकः ।। उद्दामकामकलिनिईलनेकवीर स्तस्यकदेव इति योगिषु देव एकः । शिष्यो बभूव हृदि यस्य दधाति भव्यो __ रत्नत्रय शिरसि यच्चरणद्वय च || महितस्य तस्य महितैर्महता. प्रयमस्य च प्रयमशिप्यतया । जयदेवपण्डित इति प्रथित , प्रथमानशास्त्रमहिमद्रविण ॥ अपि च ॥ गद्य ॥ नस्म स भुवनकमङ्गलजिनेन्द्रनित्याभिषेकरत्नकलशः स तु सत्यवाक्य-कोड़णिवर्म-धर्ममहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीमारसिंहदेवप्रयमनामधेयः गगकन्दर्पः ॥ शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टेसुनवत्युत्तरेषु प्रवर्त्तमाने विभवसंवत्सरे शतवसति-तीर्थवसतिमण्डलमण्डनस्य गङ्गकन्दपजिनेन्द्रमन्दिरस्य दानपूजादेवभोगनिमित्तं पुलिगेरे-नगरात्पूर्वस्या दिशि तल-वृत्तिं दत्ते स्म [I] तस्यास्तीमा समाख्यायते तद्यया । १ शुद्धपाठ सभवत 'भूपस्यातेने होना चाहिये । शि० १३ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जैन-शिलालेख संग्रह कुमारी सरसः पूर्वस्यामाशायामेकनिरर्तनान्तरादुपलयुगलाद्दक्षिणस्यां दिशि वेल्कनूरामपश्चिमसीम्नः पावकदिगि कोशितटाकपुरोवर्तिनशिशलासरसस्समीरणदिकोणे हस्ति-प्रस्तरात् पश्चिमत्या दिशि बट-तटाफपुरोनिकटनिम्नोत्तरदिग्वर्तिनः कृष्णपापाणादुत्तरस्या दिशि नागपुरग्राममार्गादक्षिणस्या दिशाया मळिगमार्तण्डगृहक्षेत्रादेशान्या दिशायामानीलशिलायाः पुनः पश्चिमस्या दिशि कृष्णसरस उत्तरजलप्रवाहनिर्गमादुत्तरस्या दिशि नीलिकार-तटाकागतप्रवाहादुत्तरस्यामाशायामेकनिवर्तनान्तरे वायव्यदिक्कोणत्रतिरक्तपापाणपार्श्ववर्त्तिन्याश्शम्याः । पूर्ध्वदिग्मुखेनागत्योत्कीर्णादरुणपापाणान्नागपुरग्राममार्गस्योत्तरपार्थे पूर्वदिग्मुखेन गत्वोत्तरदिश प्रति निवृत्तात्पश्चिमदिशायामेकनिवर्त्तनान्तरे पूर्वोत्तरदिशि कृष्णपापाणादक्षिणस्यामाशाया शमी-कन्थारीगुल्मान्तशैतानीलशिलायाः पश्चिमतः पुरोक्तव्यक्तपापाणयुगले सङ्गता सीमा [I] प्राक्प्रकाशितकृष्णसरःपुरोभागवर्तीनि पग्निवर्त्तनान्यभ्यन्तरीकृत्य सुष्ठि( स्थी)कृतानि पष्टि-शत निवर्त्तनानि ॥ तस्मादेव नगरादूरुणदिग्भागवर्त्तिन्यास्तलवृत्तेस्सीमा समाम्नायते तद्यया । देशग्रामकूटक्षेत्राद्वायव्या ककुभि त्रिशमीरक्तोपलाद् वायव्यामाशायामेकशम्या आखण्डलदिशायामेकदण्डान्तरादरुणपापाणादाग्नेयकोणवर्तिनो विशालशमीकन्यारीजालात्पश्चिमस्या दिशि श्रेष्ठितटाफदक्षिणजलप्रवाहनिर्गमाद् बल्लभराजमार्गात् पूर्वस्यामाशाया कन्यारीगुल्मात् सवसी-प्राममाग्र्गादक्षिणतश्शमीकन्यारीकुजात् कुवेरककुभो वायव्यायामाशाया ज्येष्ठलिङ्गभूमेनिया हरितकृप्णपापाणात् पूर्वस्या दिशि वल्लभराजमागर्गात् पश्चिमस्यामागायामुत्तरदिग्मुखप्रवृत्तमहाप्रवाहान्तर्गतकिन्नरपापाणाद् दक्षिणस्या दिशायामन्धकारक्षेत्रात् पश्चिमसीम्नि प्राम Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मेश्वरका लेख १९५ कटीकृताद्देशग्रामकूटक्षेत्राद् वायव्या दिशि त्रिशमीशोणपापाणे सीमा समागता । एव पश्चिमदिग्वर्तीनि चत्वारिंशच्छनं निवर्त्तनानि ॥ शङ्खवसतेसिवदिशि निवर्त्तनमात्रः पुरप(पुष्प)बाटः पश्चिमदिशि च निवर्तनद्वय-द्वयदो (१) पुर्प(पुष्प)वाटः ॥ तस्य चैत्यालयस्य पुरप्रमाणमाख्यायते []] पूर्वतः वाळवेश्वरपश्चिमप्राकारः पावकदिशि चर्मकारदेवगृहसीमान्तम् [1] तत्पश्चिमतः वारिवारणसीमा कृत्वा दक्षिणस्या दिशि पुरप(प)वाटाङ्ग(?)जचैत्यपुरपुरः श्रीमुक्करवसतेः पश्चिमस्यां दिशि गोपुरपर्य्यन्तात् पश्चिमदिग्वर्तिदेवगृहद्वयमभ्यन्तरीकृत्य मरुदेवीदेवगृहस्य पश्चाद्भागादुत्तरस्या दिशि चन्द्रिकाम्बिकादेवगृहात् पूर्वतः मुक्करवसतिं प्रविष्टीकृत्य रायराचमल्लवसति(ति)दक्षिणप्राकारः ततः पूर्वतः श्रीविजयवसतिदक्षिणप्राकारः ई (ऐ )शान्या दिशि कर्माटेश्वरदेवगृहं तद्दक्षिणतः पूर्वोक्तवाळवेश्वरपश्चिमसीमा [[1] देवनगरात्पश्चिमदिशि पुरप(प)वाटद्वयनिवर्तनक्षेत्र दत्तम् ॥ तस्य सीमा पृथक्क्रयते [1] परवसरसः पूर्वदिशि तपसीग्रामपथादुत्तरतो पुxप(प्प)बाटनिवर्तनमेक । गङ्ग-पेमांडिचैत्यालयपुरप(प)वाटादुत्तरतो निवर्त्तनमेक नागवल्लीवनम् । एवं गङ्गकन्दर्पभूपाळजिनेन्द्रमन्दिरदेवभोगनिमित्त निवर्तनशतत्रयमात्रक्षेत्र पुर्प(प)वाटत्रयमुर्तीशदेशग्रामकूटाकारविष्टिप्रभृतिबाधापरिहारं मनोहरमिदम् ॥ श्लोक ॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजाभिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ मद्वशंजाः परमहीपतिवशजा वा पापादपेतमनसो भुवि भाविभूपाः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जैन-शिलालेख-संग्रह ये पालयन्ति मम धर्ममिम समस्तं तेषा मया विरचितोऽञ्जलिरेष मूर्ध्नि ॥ [ यह शिलालेख धारवाड जिलेके दक्षिण-पूर्व कोनेकी ओर मिरज रियासतके लक्ष्मेश्वर तालुकेके प्रसिद्ध शहर लक्ष्मेश्वरके शङ्खवसति नामके मन्दिरमे पत्थरकी एक लम्बी शिलापर है। इसमे ८२ पक्तियाँ है। अक्षर दशवी शताब्दिकी पुरानी कर्णाटक (कन्नड़) लिपिके है। इससे तीन विभिन्न शिलालेख समाविष्ट है। पहला भाग-१ से लेकर ५१ वी पक्तितक गङ्ग या कोड वशका शिलालेख है। इसमें उल्लिखित दान, ८९० शक वर्षके व्यतीत होनेपर और जब विभव सवत्सर प्रवर्त्तमान था, मारसिहदेव-सत्यवाक्य-कोगणिवर्मा, के द्वारा जिन्हें गह-कन्दर्प भी कहते थे, जयदेव नामके एक जैन पुरोहित (पण्डित) को किया गया था। विभव संवत्सर शक ८९० ही था और शक ८९१ शुक्ल सवत्सर था, इसलिये शिलालेखका समय ठीक दिया हुआ है। यह दान पुलिगेरे (जिसका अर्थ होता है चीतेके तालाबका नगर) नगरकी कुछ भूमियोंका था । इस 'पुलिगेरे' नगरको मिस्टर फ्लीटने लक्ष्मेश्वरका ही पुराना नाम माना है। यह दान एक जैनमन्दिरके लिये, जिसे इसमे 'गङ्ग कन्दर्प जिनेन्द्रमन्दिर' कहा गया है, किया गया था । इस मन्दिरको स्वयं मारसिंहदेवने वनवाया या उसका जीर्णोद्धार किया था। वंशावली इस तरह दी गई है: माधव-कोगणिवर्मा (या माधव प्रथम) माधव द्वितीय हरिवर्मा मारसिह मारसिंहदेव-सत्यवाक्य-कोगणिवर्मा, या गड-कन्ट Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कङ्करका लेख १९७ [ई० ए०, जिल्द ७, पृ० १०१-१११, न० ३८ (१-५१ की पत्तियों) ] १५० कङ्कर-कन्नड़ [शक ८९३८९७१ ई० ] [ कडूरमै, किलेके दरवाजेके एक स्तम्भपर ] (पश्चिममुख ) स्वस्ति श्री-कोण्डकुन्दान्बय देशिय-गण-मुख्यर देवेन्द्रसिद्धान्त-भटार-रवर पिरियशिष्यर् चान्द्रायणदभटाररवर-शिष्यगुणचंद्र-भटाररवर-शिप्यर श्रीमदभयणन्दि-पण्डित-देवर नाणब्बे-कन्तियर शिश्शिन्तियर्पडियर-दोरपय्यन पिरियरसि पाम्बब्वे तले वरिद मूवत्त-वरिस तप गेय्दय्द नोन्तुच्छम-ठाणमेरिदवरेदोनवर मग विडि... ........ ( उत्तरमुख) परसे महा-प्रसाददोळोरेवकनिम्मडि-धोरनोल्दुतन्न् । अरसुममौल्य-वस्तुगळुम कुडे बूतुगनक्कनेन्दु विस्- । तरिसे धरित्रि जीय वेसनेनेने सन्दिवु सन्दवल्लेविन्द । अरसु दलेन्दुः पाम्बवेगळन्तु तपो-नियमस्तरादोर् (आदोर् ) आर् ।। खस्ति यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यान-मोनानुष्ठान-परायणे( यणे )यरम्प श्री-पाम्बव्वे कन्तियरयद नोन्तुच्छम-ट्ठाण-मेरिदर् । बरेदोनवर मगनर्हद्भक्तम् । (दक्षिण मुख) [ ऊपरका श्लोक, जो 'परसे' इत्यादिसे शुरू होता है, यहाँ दुहराया गया है।] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैन-शिलालेख संग्रह शक काल ८९३ य प्रजापति-संवत्सरदन्तर्गत मार्गशिरमासद शुद्ध त्रयोदशियु गुरुवार[८]न्दुः अदं नोन्तुच्छम-हाण मेरिदर वरेटोनवर मग वि ........... [पडियर-दोरपय्यकी ज्येष्ठ रानी पाम्बध्वेने, जो कोण्डकुन्दान्त्रयके टेशिय-गणके मुरय देवेन्द्र सिद्धान्त भटारके ज्येष्ठ शिष्य चान्द्रायणदभटारके शिष्य गुणचन्द्र-भटारके शिष्य अभयनन्दि-पण्डित-देवकी (शिप्या) नाणचे कन्तिकी शिष्या थी, देशलोच करनेके बाद, तपके पूरे ३० साल पूर्ण किये, और पाँच अणुव्रतोंको धारण करके उच्च अवस्थाको पहुँची। उसके पुत्र विहि ... ... से लिखा हुआ। आगेके लोकसे उसके त्याग और तपकी प्रशंसा है। दक्षिण और पूर्व मुसकी तरफ भी ये ही लेख कुछ मेढके साथ, उसके अन्य दो पुत्रो, अद्भक्ति और वि......"के द्वारा लिखाये गये हैं। [EO VI, Kadur ti, n°1] १५१ श्रवण वेलगोला-कन्नड (विना काल-निदंशका] [देखो, जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग] १५२ श्रवण वेलगोला-सस्कृत तथा कन्नड [बिना काल-निर्देशका, लगभग ९७५ ई० (फ्लीट)] [देखो, जैन लि० ले० स० प्रथम भाग] [सुहानिया (ग्वालियर]-संस्कृत [सं० १०३४-९७७ ई.] सम्वतः । १०३४ श्री बज्रदाममहाराजाधिराज वइसाखवदि पाचमि * * * संवत् १०३४ की वैशाख वदी ५ को महाराजाधिराज वनदाम (शेषलेत स्पष्ट नहीं है।)। [JASB, XXXI, P 399, ४, 411, t.] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ पेग्गरका लेख १५४ पेग्गूर-कन्नड़ [शक ८९९=९७७ ई०] [पेग्गूर (किग्गद-नाइमे )में एक पाषाणपर] स्वस्ति शक नृप-कालातीत-संवत्सर-सतङ्ग ८९९ त्तनेय ईश्वर-सि] वत्सर प्रवर्तिसे सत्या(त्य)वाक्य-कोङ्गिणिवर्म-धर्म-महाराजाधिराज कोळाळ-पुरवरेश्वर नन्दगिरिनाथ श्रीमत् राचमल्ल-पर्मनडिगळ् तद्व[]भ्यन्तर पा(फा)ल्गुण(न)-शुक्ल-पक्षद नन्दीश्वरं तल्प-देवसमागे स्वस्ति समस्तवैरिगजघटाटोपकुम्भिकुम्भ-स्तळ-स्फुटितानगर्घ्य -मुक्ताफलग्रहण-भीकर-करासे-निवासित-दक्षिण-दोईण्ड-मण्डित-प्रचण्ड अण्णनवण्ट बडवर-नण्ट श्रीमत् रकस वेदोरेगरेयनानुत्तिरे भद्रमस्तु जिनशासनाय श्री-वेगोळ-निवासिगळप्प श्री-वीरसेनसिद्धान्तदेवर वर-शिष्यर् श्री-गोणसेन-पण्डित-भट्टारकर वर-शिष्यर श्रीमत् अनन्तवीर्यय्यङ्गळ् पे[२]गर्गदुरुं पोस-वादगमुमन् अभ्यन्तरसिद्धियागे पडेदरदर्के साक्षी तोम्भत्तरुसासिरुमय्-सामन्तरु वेदोरेगरेयेळ्पदिम्बरुमेण्टोकलुमिद कावर्नाल्बर् म्मलेपरुमयनूरुमय-दामरिगरु श्रीपुरुष-महाराजरदत्तियनावोनोर्बनळिदोम् वाणरासियु सासिव-ब्राह्मणरु सासिर-कविलेयुमनळिद पञ्चमहापातकनक्कु इदनारोलर् कादरवर्गे पिरिदु पुण्य चन्दणन्दियय्यन लिखितम् ॥ पेर्गदूर बसदिय शासनम् । [शक नृपके सैकडो वर्ष बीतने पर जब ईश्वर नामका संवत्सर ८९९ वाँ चालू था: १ ये दोनों शब्दसमूह 'देवरवर शिष्यर्' तथा 'भट्टारकरवर शिष्यर्' भी पढ़े जा सकते है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन - शिलालेख संग्रह और जिस समय सत्यवाक्य - कोङ्गिणिव - धर्म - महाराजाधिराज राचमल्ल पेर्मनडिका, जो कोळाळपुरके ईश्वर तथा नन्दगिरिके नाथ थे, राज्य था, उस समय श्रीमत् - रक्कम वेहोरेगरेपर राज्य कर रहा था । उससे श्री-वेगोलके निवासी श्रीमत् अनन्तवीर्यश्यने पे[ र् ]ग्गदूर तथा नयी खाई प्राप्त की । अनन्तवीर्यय्य गोणसेन पण्डित भट्टारकके शिष्य थे और ये वीरसेन - सिद्धान्त - देवके शिष्य थे। यह लेख चन्दनन्दियय्यका लिखा हुआ है । ] n° 41 1 [ EC, I, Coorg ins, १५५ श्रवणबेलगोला - कन्नड [ विना काल निर्देशका ] १५६ श्रवण- वेलगोला - कन्नड़ तथा तामिल । [ विना काल निर्देशका ] १५७ श्रवण-वेलगोला -- कन्नड [ विना काल-निर्देशका ] [ देखो जैन शिलालेखसग्रह, भाग १ ] १५८ विदरे - कन्नड़ [ शक ९०१ =९७९ ई० ] [ बिदरे (चेळूर परगना ) मे, तालाब के व्यर्थ पड़े हुए बाँधपरके एक पाषाणपर ] खस्ति स (श) क - वर्ष ९०१ नेय प्रमातिक-संवत्सरद कार्त्तिक-मासदोळ् त्रिलोकचन्द्र भटारर शिष्य रविचन्द्र भटारह सन्यसन गेय्दु मुडिपिदर् कोण्डकुन्दान्वयद देसिंग- गणद भानुकीर्तिभटारर् परोक्षविनय माडिसिद Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदत्तिका लेख २०१ [ स्वस्ति । ( उक्त मितिको ), त्रिलोकचन्द्र भटारके शिष्य रविचन्द्रभहार ने 'सन्यसन' धारण किया और मृत्युको प्राप्त हुए । कोण्डकुन्दान्वय तथा देसिंग - गणके भानुकीर्ति भटारने उनको स्वर्गयात्रा का यह स्मारक वनवाया । ] s ·· [ EC, XII, Gnhhi tl n° 57 ] १५९ वरुण --- कन्नड़ - भन्न •••९९• (काल लुप्त ) = सभवत. लगभग ९८० ई० [ वरुण गाँव में वसवगुढीके सामनेके स्तम्भपुर ] , • ९९''''स्य सकळ सममेन्दु द गेय्दु सन्यसद ..... निज - स्तिति [ मुनित्रत धारण करके दिवगत होनेवाले एक जैन यतिका स्मारक । ] [ EC, III, Aly sore tl, n°40] १६० सोदत्ति-कन्नड [ शक ९०२=९८० ई० ] र कुळान्वयनृपरु पट्टढ पतब नेगळेनिप गावुण्डुगळु विद्यर्जिनेन्द्रपूजेगे नेट्टने धान्यगळोगे पो ( दिद ) कुळम ॥ रट (ड) र पट्ट जिनालय किट्टवादय्यतोक्कलनुमतदिन्द कोट्टर्जिनेन्द्रपूजेगे नेट्टने घ ( प ) || दीपावलिय ( प ) के देवर सोडरिंगे गाणद लोम्मानेणे ॥ श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छन जीया त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासन || स्वस्ति समस्तभुवनाश्रय श्रीप्रि ( पृ ) थ्वीवल्लभं सत्याश्रयकुळ तिळक महाराजाधि राज- परमेश्वर-परमभट्टारक चालुक्य (क्या ) भरण श्रीमत्तैलपदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धियिं सत्तम । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह तत्पादपद्मोपजीवि । समधिगतपंचमहाशब्दमहासामन्तं समरविजयलक्ष्मीकान्त वै(चै ' )सान्वयसरोजवन मार्तण्डं नुडिदंतेगण्डं हयवत्स - राजं रूपमनोज परबळ - सूरेकारं वैरिवंगारं नरस ( श ) कभीम चलदंकराम गण्डरगण्ड वैरिभेरुण्ड प्रतिपन्नमन्दरं शरणागतव्रजपजर श्रीमत् शान्तिवर्म्मरसर वशावतरमेन्तेन्दोडे [ ॥ ] श्रीमदमरेन्द्रविभवो - द्दाम संग्रामरामनूर्जिततेज भीमपराक्रमनेनिसिदनी महियो पृथ्वीरामननुपरूप || तत्सुत || आरूड ( ढ ) वत्सराजनुदारगुण विनुतकन्दुका - दिव्य श्रीनारीकान्त निर्जितवैरिप्रजनेनसि पिट्टगं सले नेगर्द ॥ वृ ॥ अन्तकनन्ते बन्दिदिरोळान्तजम (व) मन नोडिसुते मारान्तोरनेकरं तविसि वस्तुगळं मदवारणगळ कान्तेयरं तुरगचयमं पिडिदित्तोडे मेचिराभय दन्तियनितनन्तदुवे पेळदे पिट्टग निन्न गेल ( ल ) म ॥ तदग्रपत्नि ॥ वृ ॥ पोगळलळुम्बमध्प चरित मिगे वण्णिसलब्जसंभवंगगणितमप्प रूपविभवं पतिभक्तियोळोन्दि सज्जनीकेगे नेलेयाद मान्तनद पेपु समन्तळवट्ट नीजिकब्बरसिगे सन्दरुन्धति पे09 द्वोरेयेन्ददे दोस ( प ) बल्लदे ॥ तत्तनूज | क ॥ श्रीमदुदयाद्रिशिखरोद्दामोदयतपनविभवरूप कीर्तिश्रीमहिमातिशय जयरामारमण जितारि शान्तनृपाळ || दयेयिन्दोळिपन तेपिनिं गुणगणाळकारदिं मार्गनिर्णयदि तत्व (स्व) विचारदिं गमकदिंदाहारमैषज्यसा भयशास्त्रामळदान दिन्दधिकनेन्दन्दोळिपनि शान्तिवन विख्यातियनोन्दे नाकियोकिने वण्णिपं बण्णिप ॥ तदप्रपत्ति ॥ श्रीवनिताने वन्दु महीवनितेगे तिळकमेनिसि शान्तन ललित श्रीवनितेयाद विभवमने वोगळवुदो चन्दिकब्वेयरसिय पेप | २०२ यतितारकापरीतः कण्डूरगणोरुकन्धिवृद्धिकरः । बाहुबलिदेव चन्द्रो जिनसमयनभस्तले भाति ॥ व्याकरणतीक्ष्णदष्ट्र सिद्धान्तनख (खः ) प्रमाणकेसरभारः । बाहुबलदेवसिंह (ह) प्रवादिगजतीव्रमदहरस्स 1 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन - शिलालेख संग्रह रकमलदे पोल दागेरगि दोरेकाण्मे कोळ्व तेरनल्लुदे । नेरेये वर तक्कडियल्लि बिसुवल्लिये बिप्स अरिदयि । मुरिदयिल्लिल्लिय विन्नणवन् । परियना दिट्टि मुरिवल्लि कडुपिनो नेरेये कल्पदे वीर वीरन गिडेगळाभरणन नेडिकल ॥ J आसुवनुं कूसुबनुम् । वीसुवनु गडेय नेगळ्द तक्कडियोळेनुत्त् । आसदे कुदेयुम् । वीसन्देयु विद्द मेळे मेळेच बेडङ्गम् ॥ एरगळरियदे मेण्टुकम्मगुळ्दु बरलणमरियदे तप्पा पिन्दम् । तेरेननरियदे भागमनिक्कियु मूरेडेगल्लुदे कहाडियु मुरिये पायिसिद । तुरुय कोन्दु धरेगेडेतेगे गेडेयिवनेनिसद । नेरेये कडु - जाणनेनिस कालगळ कयूगळ तुरगद | कोल्गळ तिणिदुगकोळलि बचिसुतेळेगुम् । बर्कुमे गडेगळाभरणन कल्लदन्नम् ॥ गेमेने नेगद मार्गदे । गुमे वदल्लिकीर्त्ति नारायणनम् ॥ वनधि-भो-निधि- प्रमित-संख्य-स(श) कावनिपाळ-काळमं । नेनेसे चित्रभानु परिवर्त्तिसे चैत्र - सितेतराष्टमी दिन-युत - भौमवार दोळनाकुळ - चित्तदे नोन्तु ताब्दिदम् । जन-नुतनिन्द्र- राजनखिळामर - राज-महा-विभूतियम् ॥ [ एरेव- बेडगम्, कीर्ति-नारायणके युद्धमें शौके चर्णन । (उक्त मितिको ) मनाकुल चित्तसे व्रतोको पालते हुए, प्रसिद्ध कार्योंका Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ २०७ अगडिका लेख इन्द्रराजने स्वर्गकी विभूति पाई-(अर्थात् मर गये)।] [EC, XII, Sıra tl., no 27 ] श्रवण वेल्गोला-संस्कृत [विना काल-निर्देशका ] [जे. शि. ले. सं , भा. १.] १६६ अगडि-संस्कृत तथा कन्नड़-भग्न [काल लुप्त, पर लगभग ९९० ई० का] [ अगडि (गोणीवीड परगना ) में, वसदिके पासके पाषाणपर ] (सामने ) .. .. ... ...."सुद पञ्चमी वृहस्पति वारदन्दु खस्ति · ·यम स्वाध्याय-ध्यान-मौनानुष्ठान-परायणरप्प द्रविळ-सघद... अट श्री-कोण्डकुन्दान्वयद त्रिकालमौनि-भट्टारक शिष्यर् श्रीमदिरिववेडेङ्ग "कन गुरुगळ् विमलचन्द्र-पण्डित-देवर् सन्यासन-विधियिं मुडिपि मुक्तियनेरिददर ।। ( पीछे ) श्रुत-विमळादिचन्द्र ... . .. .... श्रीमनु.. . .... "पण्डिताहृयसु-विमळचन्द्र-मुनिः ।। नमो विमळचन्द्राय कळाकळित-मूर्तये । सत्त्वात् सद्-बुधसेव्याय शान्तामृतमयात्मने । श्री-विमळचन्द्र-पण्डित-देवर गुड्डी हवुम्ब्वेया तङ्गे शान्तियब्वे तम्म गुरुगळ्गे परोक्ष-विनय गेय्दर ॥ [(साधु-गुणोसहित), द्रविल-संघ, कोण्डकुन्दान्वय तथा पुस्तकगच्छके त्रिकालमौनि-भट्टारकके शिष्य,-श्रीमद् ईरिव-वेडेग के गुरु, १ उसका काल और अतिमावस्थाका कथन वही है जो श्रवणबेलगोला नं० ५७ के शिलालेखमें हैं । इन्द्रराज अन्तिम राष्ट्रकूट राजा था। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन-शिलालेख संग्रह विमलचन्द्र-पण्डितदेवने, सन्यास--विधिसे मरण कर, मुक्ति प्राप्त की । पण्डित पदके साथ विमल चन्द्रमुनिकी प्रशसा । विमलचन्द्र-पण्डित-देवकी गृहस्थ शिष्या हवुम्बेकी छोटी बहिन शान्तियन्वेने अपने गुरुके स्वर्गवासके उपलक्ष्यमे सारक खड़ा किया।] [EC, VI, Mudgere tl, n° 11) १६७ पञ्चपाण्डवमलै-तामिल [ काल लगभग ९९२ ई.] १ खस्ति २ को विराजराज [क] [सर ीव नि] मर्कु याण्डु ८ आ [व]दुपड्डवूक[]दृत्तुप्पेरुन्-तिमिरिनाडुत्तिरुप्प[]न्मलैप्पो ३ गमागिय कूरगन्प्]िडि [5] रैयिलि पा लिचन्दत्तै की []-- [प][ला][5]लाड[]जर्गळ कर्पूर-विलै को [ण्डु इ] [ में मङ्क ४ टुप्पोगिन्]िरडेन् [रु उ]डैयार इलाडि] राजर् पु[ग] त्रिप्पवर्-[ग] ण्डर् मग[ना]र वीरशोकतिरु[प्पान् ]मलैदेवरैत्तिरुव ५ [डित्तो]ळु [देळुन् दारु]ळि इ र]उक इ[व]र देवियार् इलाडमह[7]देवि[य]र कर्पूर-विलैयुमन्निया[य]वावदण्डि]बिरै [यु म [] ६ विन्द[रुळ वेण्डुमेन्रु विष्णप्पञ्जय् [य उडे या]र [बी] र-शोळर कर्पूर-विलैयुमन्निया[य] बाबदण्डविरै__७ युमो [v] fञोमेन्ररुच्चेय्य अरि[य]ऊर् किळ [वन् ] | गियि वी] र-शोळवि-लाड-प्पेर [२] यानु/डैयार् [को मियेया] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ पञ्चपाण्डवमलैका लेख ८ णत्तियागविदु' कर्पूर-विलैयुमन्नियाय-[वा] वदण्ड[व्]-इरैयुमोळि जु शासनाञ्चेद-पडि [1] इदु [व]९ल [] उ कर्पूर-विलैयुमन्नियाय-वावदण्डव्-इरैयुमिप्पळ्ळिचन्द त्तैको च् ]नि गङ्गैयि१० . [कुमरिय] इंडेचेरदार शे[य] द पा [व]कोळ्वारिदुवल्लदिप ळ्ळिञ्चन्दत्तै केडुप्यार वल्लबारै] ११ • • [न][व] [0] [5]-द्ध [मत्] तै [रक्षिप्पान् पादधूळिय् एन्-रलै मेलान [7] अरमिरवर्क अरमल्ल तुणि] यिल्लै ।। [यह शिलालेख तमिल गद्यकी ११ पक्तियोका है । लेखकी दूसरी पक्तिमें राजराज-केशरीवर्मन्के राज्यका ८ वा साल इसका काल बताया गया है। प्रस्तुत लेख महाराजा राजराज चोलके राज्यकालका है। यह ९८४८५ ई० मे गद्दीपर बैठे थे । इस लेखमें किसी विजयका वर्णन नहीं है। इस शिलालेखके नीचे एक पशु बनाया गया है, वह चीता होना चाहिये, क्योकि चोल राजामोका वह चिह्न रहा है। लेखमें (पक्ति ३) लाटराज वीरचोलका एक शासन है। वह चोल राजा राजराजका कोई अधीनस्थ राजा होना चाहिये, क्योकि राज्यकाल उसीका (राजराजका) दिया हुभा है । लाटराज वीर-चोल पुगन्विप्पवर गण्डका पुत्र था । वीर-चोल और उनके पूर्वजोके नामके पहले लाटराज ऐसा विरुद लगा रहनेसे मालूम पड़ता है कि ये लोग पहले किसी समय लाट (गुजरात) से आये थे।। ___ यह अभिलेख इस बातका उल्लेख करता है कि अपनी रानीकी प्रार्थना पर वीर-चोलने तिरुप्पान्मलैके देवताके लिये (पं०४) कूरगन्पाडि गाँवसे कुछ आमदनी बाँध दी थी। ___ यद्यपि चैत्यालयका नाम सिर्फ 'तिरुप्पान्मलेका देवता' दिया गया है, परतु 'पल्लिचन्दम्' इस शब्दसे मालूम पडता है कि यह कोई जैन १ 'इन्द' पदो। शि० १४ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैन - शिलालेख संग्रह चैत्यालय होना चाहिये । शिलालेख नं० ११५ से भी यह निर्णीत होता है । उसमे यक्षिणी और नागनन्दि गुरुकी प्रतिमा है । यद्यपि यक्षिणियोंको बौद्ध और जैन दोनों ही मानते हैं, परन्तु नागनन्दि यह जैन नाम है । ] लेखमें कूरगम्पाडिके 'पलिचन्द' की आमदनी दो तरह की बताई गई है - एक तो कर्पूरविले ( कपूर के खर्च ) की, दूसरी 'अन्नियाय वावदण्डविरै' की | कपूरखर्चकी बात तो ठीक समझमे आ जाती है, लेकिन उत्तरकी आमदनी 'अन्नियाय - वावदण्डविरै' का क्या अर्थ है, सो स्पष्ट नहीं है । इसके भी दो अर्थ किये जाते है: एक तो अन्याय वावदण्ड ( जुलाहोंका करवा ) इरै (कर)। इसका अर्थ होगा 'अनधिकृत करोरा कर (The tax on unauthorised looms ) । दूसरा अर्थ इसका यह हो सकता है अन्याय + आ + दण्ड + इरे । 'आव' का अर्थ होता है वाणोंका तूणीर । इसका तात्पर्य यह है कि विना अधिकारपत्र पाये जो धनुषवाणका प्रयोग करते थे उनपर जुर्माना ( दण्ड ) किया जाता था । [ El, IV, n° 14, B.] १६८ श्रवणबेलगोला -- कन्नड १६९ कुम्वरहल्लि - [ विना काल-निर्देशका ] [ जै. शि. ले. सं., भा. १. } कन्नड- भग्न [ विना काल-निर्देशका, पर सम्मवतः लगभग १००० ई० ] [ कुम्बरहलि ( कुइनहल्लि परगना ) मे, बसवगुडिकी दक्षिणी दीवालपर ] स्वस्ति श्रीमदजित सेन पण्डितदेवर शिष्यण नाक पुणि-समय [ इसमे अजितसेन पण्डितके शिष्यका वर्णन है । ] { EC, III, Mysore tl, n° 31.] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरुमलैका लेख १७० मुत्सन्द्र - कन्नड़ [ बिना काल-निर्देशका, पर सम्भवतः लगभग सन् १००० ई० का ] [ मुत्सन्द्र ( देवळापुर परगना ) में, गाँव के पूर्व में एक गोल बटिया (Boulder) पर ] श्रीमतु कलुकरें - नाड् आवरु चोक- जिनालय के मत्तिक्केर्रेय नट्ट कल चतुस्सीमान्तरेषु विट्ट दत्ति इद किडिसिदवं कविले बाह्मणनुव कोन्द ब्रह्म" 'एय्दुगु [ कलुकरें - नाडूके शासकने चोक जिनालयके लिये मत्तिकेरैका दान दिया । ] [ EC, IV, Nagamangala tl, n° 92 ] १७१ तिरुमलै - (नार्थ अर्काट ) - तामिल [ १००५ ई० ] १ स्वस्ति श्री [11] तिरुमगळ् पोलप्पेरु निलच्चे २ त्रियुन् तनक्के युरिमै पूण्डमै मनक्कोळ क्कान्दछुर चालै कलमरुत्तरुळि वेङ्गैनाडुड् गङ्गपाडियु .... २११ ३ तुय्वपाडियु न्तडिगै पाडियुड् कुडमलैनाडुडू कोल्लमुड् कलिङ्गमुं एण्डिशै पुगळ्तर विळमण्डलमु तिण्डिरल् वेन्रि त्त ४ ण्डारकोण्ड [ते] कि वळकि एल्लायाण्डु तोळुतेळ विळङ्गुयाण्डे चेळिनारैतेच कोळ श्रीको चि ५ राज इराजकेशरिपन्मरान श्री राजइराजदेवकु याण्ड २१ आबदु अलैपुरियु पुनर् पोन्नि आरुडैय चोलन ६ अरुमोळिक्कु याण्डुरुपत्तोन्रावदेन्रुङ्गले पुरियुमतिनिपुणन् वेण् किळान् Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन-शिलालेख संग्रह ७ गणिशेखरमरुपोचुरियन्न नामत्ताल वामनिलै निरकुड्८ कलिञ्चिङ्गु नीमिर वैय्गैमलैकु नीडुळि इरुमरुद्धु नेल विलेय९ कण्डोन् कुलै पुरियु पडै अरचर कोण्डाडु पादन गुणवीरमा मुनिवन् १० कुळिर वैयौक्कोवेय् [1] [ यह अभिलेख कोविराजाराजकेसरिवर्मन्, उर्फ राजराज-देवके २१ वें वर्ष अभिलिखित है, तथा पोन्नि, अर्थात्, कावेरी नदीके स्वामी 'शोरन् अरमोरी' के इक्कीसवें वर्ष में (शब्दोंमे)। लेख बताता है कि किसी गुणवीरमामुनिवन्ने एक नहर या मोरी (Sluice ) गणिशेखर-मरु पोर्चुरियन् नामके उपाध्यायके नामसे बन. वाई थी। तिरुमलै चट्टानका उल्लेख "धैरगैमलै" नामसे है।] [South Indian Ias , I, n° 66 (p. 94-95), t & tr.] १७२ बेलूरु-कन्नड-भन्न [शक ९४४=१०२२ ई.] [बेलूरु (कोत्तत्ति परगने )में, तालाबपर दुर्गा देवीके पीछेके पाषाणपर] खस्ति समस्त-रिपु-नृप-कुम्मि-कुम्भ-दळन-पश्चास्य समुदित-श्रीम"" क-विमुक्त-चोळ-भूपाळ"लित "जित-वीर-लक्ष्मी आश्रित-भक्त-मलापकर्षण भूमिसञ्चरण जय-मूल-स्तम्भं श्रीमद् अ.."गङ्गमण्डलेश्वर प्रभुपद्म-युग्माशोक-भोगिकाश्रित-भ्रमद्-भ्रमर जित-रिपु संसित-समर-प्रताप राज्य-भार-धुरन्धरं अमात्य-समिति-विराजमानम् सत्यत्व-नाभि-कानीनम् समर-जित-भूप-जीव-प्रदनु अतिपूताचरणम् रिपु-खरकिरणम्......" तिगाञ्जनेयं सौच-गाङ्गेयं शरणागत-बज्र-पञ्जरम् रिपु-कञ्ज-कुञ्जरम् तन-रक्षामणि मन्त्री-चिन्तामणि विनेय-विळासम् श्रीमत्-पेग्गैडे-हासम् Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ मथुराका लेख विश्व-विस-हासर् पतिहितामरणम् ॥ शक नृप-कालातीतसंवत्सरशतङ्गळ् ९४४ नेय दुर्मुखि (दुर्मति ) संवत्सरद फाल्गुण-मास-सुद्धपञ्चमी-सोमवार पुनर्वसु-नक्षत्रदन्दु गङ्ग-पेमनडिगळु कर्नाटनाळुत्तमिरे तम्म स्व-दोराळदन्दु ......"नव जिनालयक्के पेर्मनडि जीवितम् ......"द बलोर-कट्टलाळ्वाद केरेय मेछुकं बोयिस कट्टेय कट्टिसि बनिरसि मुन्न तव'""कोळग मण्णु बिट्ट दोन्द.. केनेंगे....."मुम विट्ट मिदनदि कोटि-कविलेय ब्राह्मणरु काशियुमनलुकिरे बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ [इस लेखमें 'पेगडे-हासम्' के द्वारा, उक्त मितिको, बलोर कटके गहरे तालावकी सीढियोंके बनवाने, बांधके निर्माण कराने, नहर या मोरीके बनाये जाने, तथा.............. एक 'कोलग' भूमिके देनेका जिक्र है। उसके समयमें कर्णाट (कर्नाटक) पर गड्न पेमनहि शासन कर रहे थे। यह पुण्यकार्य पेमनडिके दीर्घजीवनकी कामनाके लिये उसकी सरकारके स्थानमें एक नये जिनालयके रूपमें किया गया था।] [EC, III,Mandya IL, n° 78] मथुरा-संस्कृत [संवत् १०४०=१०२३ ई. सन् ] १ ओ श्रीजिनदेवः सूरिस्तदनु श्रीभावदेवनामाभूत् । ___ आचार्यविजयसिङ्ग२ स्तच्छिष्यस्तेन च प्रोक्तैः ॥ [१] सुतावकर्नवग्रामस्थानादिस्थै खसक्तितः । १ सवत्सर 'दुर्मुख' दिया हुआ है। यह स्पष्टत गल्तीसे लिखा गया है। इसकी जगह 'दुम्मति होना चाहिये जो शक ९४४ से मेल खाता है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह . ३ वर्द्धमानश्चतुबिंबः कारितोयं सभक्तिभिः ॥ [॥२] संवत्सर १०८० थंभकप४ प्पकाभ्या घटितः ।। ओ अनुवादः- ॐ। श्री जिलदेवसरि हुए, उसके बाद श्री भावदेव हुए। उनके शिष्य आचार्य विजयसिङ्ग ( विजयसिह ) हैं । उनके उपदेशसे नवग्राम, स्थान आदि ( शहरों ) में रहनेवाले सुश्रावकोने स्वशक्ति और खभक्तिके साथ वर्धमानकी चतुवित्र (सर्वतोभद्र) प्रतिमाका निर्माण करवाया । यह प्रतिमा १०८० [विक्रम ] सवत्में थंभक और पप्पक शिल्पियोके द्वारा बनकर तैयार हुई थी । ओं॥ [BI, II, n° XIV, n*411 १७४ तिरुमले - तामिल [१०२३ ई.] १ खस्ति श्री [1] तिरुमन्नि वळरविरु निलमडन्दैयु पोर्चयप्पावैयुञ् चीरत्तनिश्चेल्वियुन् तन् पेरुन् देवियराकि इन्पुरु नेडु तियल् ऊळियुल इडतु२ रैनाडुन्तुडर् वनवेलिप्पडर् वनवासियुञ् चुकिच्चु मदिट्कोळ्ळिप्पाकैयु नण्णर्करु मुरण मण्णकडकमु पोरु कडल् ईळत्तरशर तमुडियु आग३ वर देवियरोड्केलिन् मुडियुमुन्नवर पक्कलत्तेन्नवर वैत्त सुन्दर मुडियु इन्दिरनारमुन्तेण्डिरै ईळमण्डलमुळुवढुं एरि पडक्के १ यह लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका मालम पड़ता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरुमलैका लेख ४ मुरैमैयिशुकुलतनमाकिय पलर् पुगळ् मुडियुञ्चेदिर मालैयुञ् चङ्कदिर् वेलैतो पेरुङ्कावर पल पळन्तिवुञ् चेरुविर चेन -' २१५ ५ विल् इरुपत्तोरु कालरैचुक कट्ट परशुरामन् मैत्ररुञ् शान्तिमत्तिववरण् करुति इरुत्तिय चेम् पोरिरुत्तकु मुडियुं भयकोड पनि मिग मुशङ्गियिट् मु ६ कि टोलित्त जयसिगन् अळप्पेरु पुगळोड पीडियल इरट्टपाडि एटरै इलक्कमु नवनेदिक्कुल पेरुमलैककु विकिरमवीरर शकरको मु १७ मुदिरपव मदुरमण्डलमु कामिडैवळेय नामणैकोणमुं वेञ्जिवीर पञ्चपट्टियुं पाचुडैप्पळनन् माशुणिदेशमु अवि ८ ल् व किर्त्तियातिनगर वैयिर् चन्दिरन् रोल कुलत्तिरतरनै विकैयमरकळत्तु क्कियोडु पिडित्तप्पल तनत्तोड निरै कुल तनकुत्र ९ यु चिट्टरुञ्चेरि मिळयोड्डविषैयम् भृशुर चेर नट्कोशलैनाडुन्तन्मपालनै वेम् मुनैयत्ति वण्डुरै चोलत्तण्डयुक्तियुमिरण १० शूरनै मूरनूर ताकि त्तिक्कणै किर्त्तित्तकणलाडमुङ्- गोविन्दचन्दन् माविळिन्तोडत्तङ्गाद चार बङ्गाळदेशमुन्तोडु कडऱागुकोट्टन् महीपालनै ११ वेञ्जम वळाकत्तञ्चुवित्तरुळि ओण्टिर यानैयुं पेण्डिर पण्डार - मुनित्तिल नेडुडुङ्कङ्लुत्तिरलाङमु वेरि मणरिर्त्तत्तेरि पुनर्गगै युमाप् Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन - शिलालेख संग्रह १२ प्पोरु तण्डारकोण्ड कोप्परकेशरिपन्मरान उडैयार श्रीराजेन्द्रचोळदेवरकु याण्डु १२ आवदु जयङ्गोण्डचोळमण्डलत्तु पङ्गळनाट्टु नडुविल् १३ वगैमुगैना टुप्पलिच्चन्दं वैगवूर तिरुमलै श्रीकुन्दवैजिनाल यत्तु देवकु प्पेरुंवाणपाडिक्करैवळिमल्लियूर इरुक्कु - व्या १४ पारि नन्नप्पयन् मणवाट्टि चामुण्डप्पै वैत्त तिरुनन्दाविळ - क्कु [1] ओन्रिनुक्कुक्का इरुपदु तिरुवमुदुक्कु चैत्त काशु पत्तुम् [ ॥ ] [ यह अभिलेख कोपरकेसरिवर्मन्, उर्फ उडैयार राजेन्द्र चोल- देवके बारहवें वर्षका है । इसके आरम्भमे उन सभी देशोके नाम दिये हुए है जिनको इस राजाने जीता था। उनमे हमें ७ || लाख भूमिकरवाले 'इरहपाडि' का पता चलता है जिसे राजेन्द्रचोलने जयसिंहसे लिया था । इस देशको उन्होंने अपने राज्यके ७ वें और १० वे वर्षके मध्य में जीता होगा । इस अभिलेखका जयसिंह 'पश्चिमी चालुक्य राजा जयसिंह तृतीय' (लगभग शक ९४० से लगभग ९६४ तक ) के सिवाय और कोई नहीं हो सकता । जब कि राजेन्द्र चोल और जयसिंह तृतीय दोनों एक दूसरे को जीती ढीग मारते हैं, तब हमें यह मान लेना चाहिये कि या तो सफलता दोनोको क्रमशः मिली होगी, या चिर विजय किसीको भी नहीं मिली होगी । दूसरे दो देश, जिन्हें राजेन्द्र-चोलका जीता हुआ कहा जाता है, 'इबैतु'रैनाडु' और 'वनवास' है । पहला 'ईडतोरे' देश है, जोकि मैसूर जिलेके एक तालुकेका हेड क्वार्टर है, दूसरा बम्बई प्रान्तके 'नॉर्थ केनारा' जिलेका 'बनवासि' है । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरुमलका लेख २१७ "कोकिळप्पाकै" मि० फ्लीटके अनुसार, पश्चिमी चालुक्य राजा जयसिह तृतीय की राजधानियोंमेसे एक था । 'ईरम्' या 'ईर-मण्डलम्' से मतलब सीलोन ( लङ्का) से है । तेन्न वन्= 'दक्षिणका राजा' से प्रयोजन पाण्ड्य राजासे है । उसके विषयमें अभिलेख कहता है कि उसने पहिले 'सुन्दर' का मुकुट सीलोनके राजाको दे दिया था जिससे राजेन्द्र चोलने पुनः वह सुन्दरका मुकुट ले लिया । वर्तमान लेख में 'सुन्दरका मुकुट' से मतलब 'पाण्ड्य राजाका मुकुट' मालूम पडता है । यहाँ 'सुन्दर' कोई पाण्डय वंशका राजा मालूम पडता है । उसका नाम लेखके कर्त्ताने नहीं दिया और न सीलोनके राजाका नाम जिसे राजेन्द्र चोलने जीता था। आगे लेख यह भी बताता है कि राजेन्द्र चोलने' केरळ' अर्थात् मलबारके राजाको जीता था । उसने ' शक्कर - कोहम्' के राजा विक्रम वीरको भी हराया था । लेखका 'भदुरा-मण्डलम्' पाण्ड्य देश है, जिसकी राजधानी मदुरा थी । 'ओड्ड- विषय' उडीसा है । 'कोशा' दक्षिण कोसल है, जो जनरल कनिंघमके अनुसार, महानदी और इसकी सहायक नदियोकी ऊपरकी घाटी है । 'लाड' और 'उत्तिरलाडम्' से मतलब क्रमशः दक्षिणी और उत्तरी लाट (गुजरात) से है । पहला किसी 'रणशूर' से लिया गया था। आगे बताया जाता है कि राजेन्द्र चोलने 'बङ्गालदेश' अर्थात् बङ्गाल को किसी गोविन्दचन्द्र से जीतकर उसका विस्तार गङ्गातक किया था । शेष देश और राजाओोके नाम, ई हुल्ज (E, Hultzsch ) कहते है कि, वे पहचान नहीं सके । लेखमे तिरुमलै, अर्थात् 'पवित्र पहाड' का वर्णन है, और वह इसके ऊपरके मन्दिरको जिसे 'कुन्दवै-जिनालय' कहा गया है, दिये गये दानका उल्लेख करता है । यह 'कुन्दवै' कौन थी, इसके विषयमे ऐतिहासिकोंके दो मत है । इस शिलालेखके अनुसार, तिरुमलै पहाड़की तलहटी में जो गाँव है उसका नाम 'वेगवूर्' है । यह 'मुर्गेना' का है, जो 'जयकोट • चोल मण्डलम्' के 'पङ्गळनाडु' का एक डिवीजन ( भाग ) है । [South Indian Ins, I n° 67 (p. 95 - 99 ) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन शिलालेख-संग्रह चिक-हनसोगे-संस्कृत [विना काल-निर्देशका, पर सम्भवत: लगभग १०२५ ई० का] [चिक्क हनसोगे (हनसोगे परगना )में, जिन-वस्तिके दरवाजेके ऊपर] (ग्रन्थ और तामिल अक्षर) श्री राजेन्द्र-चोळन जिनालय देशिग्गण वसदि पुस्तक-गच्छम् [राजेन्द्र चोळ जैनमन्दिर, देशि-गण और पुस्तक-गच्छकी वसदि] [EC, IV, Yedatore t1, no 21] खजुराहो-संस्कृत (सं० १०८५१०२८ ई.) संवत् १०८५ । श्रीमत् आचार्य पुत्र श्री ठाकुर श्री देवधर सुत । श्री सिवि श्री चन्द्रयदेव. श्री शान्तिनाथस्य प्रतिमा कारी । [इस लेखमें स्थापित प्रतिमाका नाम शान्तिनाथ है, सेतनाथ नहीं, जैसा कि लोगोंसें प्रसिद्ध है । सम्वत् (विक्रम ) भी साफ १०८५ दिया हुआ है। [A. Cunningham, Reports, xx I p, 61.] १७७ मुल्लूर-संस्कृत [विना काल निर्देशका । लगभग १०३० ई० (० राइस)।] [मुल्लूर में, वस्ति मन्दिरमें शान्तीश्वर वस्तिके सामने पादद कल्लू पर] गुणसेन-पण्डितस्य गुरोः पुष्पसेन-सिद्धान्त-देवस्य श्री-पादम् । [गुणसेन-पण्डितके गुरु पुष्पसेन-सिद्धान्त-देवके पवित्र पदचिह्न या पादुकाएं। [EC, IX, Coorge t1, no 41] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गडिका लेख १७८ अगडि - कन्नड़ - भग्न [ विना काल-निर्देशका, पर संभवत: लगभग १०४० ( ? ) ई० ( ल० राइस) 1 ] [ अगडि ( गोणीबीड परगना ) में, हरमक्कि दोड़-उडवेमें पाषाणपर ] .........राज्यं गेये... द्रविणान्वयद मूल-सं पण्डित ......तु तर्काच्चाळितामा.... जलघि - यशो ... कुतूहल... शय वज्रपाणि पण्डित-चरण ॥ एनिसि सले गङ्गवाडिय । मुनिवररिं राजमल्ल- भूपालकनीमनु-नीति-मार्गनभयं । जन-पति-सम्यक्त्व-मार नृपतिय गुरुगळ् ॥ वृ ॥ इरदापन्निगङ्गळि तळ... व्यत्त हो....। दुरितारण्यमनेय्दे खुट्टु सोसवृरोळ् विळ्द कालान्तदोऴ् । रे सन्यास - विधानादं मुडिपि पूज्य वज्रपाणि त्रतीश्वररत्युत्तम-मुक्तिय पडेदरेम् पुण्यक्कवर नो... || ॥ ********** ( बायीं ओर ) रविकीर्तिमुनीन्द्रनेन्दु पट्टळिये पेळदेने कल्नेले - देवर साहसोक्तियम् ॥ श्रीमत् - कल्नेले - देवर्त्तम्म गुरुगळगे निपिधिगेयं माडिसिदर मङ्गळ .. १७९ 1 (बया ना ( राजपूताना ) - संस्कृत [स० ११०० = १०४४ ई ] [ 14, XIV, [विणान्चय, मूलसंघके पण्डितके शिष्य वज्रपाणि पण्डितके चरणोसे जब राज्य कर रहा था - गङ्गवा डिके मुनियोंमें प्रसिद्ध राजा राजमल्ल था । इसके गुरु वज्रपाणि व्रतीश्वरने सोसवूर में अपना जीवन व्यतीतकर अन्तमे संन्यास-मरण धारण किया और उन्हींका यह स्मारक है । ] [ EC, VI, Mūdgere tl, 18] १ यह शिलालेख श्वेताम्बर सम्प्रदायका है । २१९ ...... n 9300 8-10 n° 151, t & a ] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह १८० दोड़-कणगालु - कन्नड़ [ वर्ष तारण = १०४४ है ० ? ( ल० राइस) । ] [ दोड-कणगालुमे, गौडके खेतमें एक दूसरे पाषाणपर ] श्री-मूलसंघ देशिय गण पुस्तक-गच्छ कोण्डकुन्दान्वय इडुळेश्वरद बळिय... "शुभचन्द्र-देवर प्रियाम - शिष्यरुमप्प प्रभाचन्द्र- देवर निसिधि तारण संवत्सर - चैत्र-शुद्ध- पञ्चमी- शुक्रवारदन्दु मुक्तरादरु । २२० [ श्री-मूल संघ देसिय-गण पुस्तक- गच्छ कोण्डकुन्दान्वय और इङ्गलेश्वर बलिके... शुभचन्द्र देवके प्रिय ज्येष्ठ शिष्य प्रभाचन्द्र देवकी समाधि (निसिधि ) | ( उक्त वर्षमें ) उन्हें छुटकारा मिला, अर्थात् स्वर्गगत हुए । ] [EC, IX, Coorg tl., n° 56] १८१ बेळगामि- कन्नड़ [शक ९७० = १०४८ ई० ] [ सोमेश्वर मन्दिरके पास एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोधलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ॥ स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री - पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय-कुळ-तिळकं चालुक्याभरण श्रीमत् त्रैलोक्यमल्लदेवर विजय राज्यं प्रवर्त्तिसे तत्पाद-पल्लवोपशोभितोत्तमाङ्ग स्वस्ति समधिगत- पञ्च महा-शब्द महामण्डलेश्वरं वनवासि - पुर-वरेश्वरं महालक्ष्मी-न्ध-वर प्रसादं त्याग- विनोदमायदाचार्य्यन सहाय शौर्य्यं गण्डर गण्ड गण्ड-भेरुण्ड मूरु-रायास्थान- कलि बिरुद - मण्डलिक-वृषभ-शकरं कलिगळ मोगद कयि बिरुदरादित्यम् प्रत्यक्ष - विक्रमादित्य जगदेक -दानि - Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेळगामिका लेख २२१ नामादि-समस्त-प्रशस्ति-सहित श्रीमन्महा-मण्डलेश्वरं चा-ण्ड-रायरसर बनवासि-पन्निर-च्छासिरमनाळुत्तमिरल राजधानि-चळिगावेय नेले. वीडिनोळ् शक-वर्ष ९७० नेय सर्वधारी-संवत्सरद ज्येष्ठ-शुद्धत्रयोदशी-आदित्यवारदन्दु जजाहुति-श्री-शान्तिनाथ-सम्बन्धियप्प बळगार-गणद मेघनन्दि-भट्टारकर-शिष्यरम्प केशवनन्दि-अष्टोपवासि-भळा(ट्टा)रर बसदिगे पूजा-निमित्तदिं धारा-पूर्वक जिडळिगे ७० र वळिय राजधानि-वळिगावेय पुल्लेय-वयलोळ् मेरुण्ड-गळेयोळ् कोट गळ्दे मत्तरप्दु अदर सीमे (सीमाओंकी चर्चा) धर्मेण शौर्य-सत्येन त्यागेन च महीतले । गण्ड-भेरुण्ड-सादृश्यो न भूतो न भविष्यति ॥ ( हमेशाके मन्तिम श्लोक) वनवासे-देसदोळगण । जिन-निळय विष्णु-निळयमीश्वर-निळयम् । मुनि-गण-निळयमिव रा-1 यन वेसदिं नागवर्म-विभु माडिसिदम् ॥ [जिस समय, (हमेशाकी चालुक्य उपाधियो सहित), त्रैलोक्यमल्ल देवका विजयराज्य प्रवर्द्धमान था -वनवासि-पुरवरका ईश्वर, महालक्ष्मीसे जिसने वर प्राप्त किया था, 'गण्ड-भेरुण्ड' 'जगदेकदानी' इन और दूसरे पदो सहित, महामण्डलेश्वर चामुण्डराय रायरस वनवासी १२००० पर शासन कर रहा था,-बळ्ळिगावे राजधानीमें, (उक्त मितिको), जजाहुति शान्ति. नाथके साथ सम्बद्ध वळगार गणके मेघनन्दि-भहारकके शिष्य केशवनन्दि मष्टोपवासि-भट्टारकी वसदिमें पूजा करनेके लिये, जिवळिगे-सत्तरमें, राजधानी वल्लिगावेके मृगवनमें, 'भेरुण्ड' दण्ड (माप) अनुसार, ५ मत्त धान (चावल) क्षेत्रका दान किया। (भूमिकी सीमाएँ)। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह गण्ड- भेरुण्ड' की प्रशंसा । हमेशाके भन्तिम श्लोक । बनवासे देश में, जिन-निवास, विष्णु-निवास, ईश्वर निवास और मुनिगणके लिये निवास । ये, रायकी छाज्ञासे, नागवर्म्मा-विभुने बनवाये । ] [EC, VII, Shikarpur tl, n° 120] २२२ १८२ कल्भावी संस्कृत तथा कन्नड़ । शक २६१ (?) ॐ (॥) श्रीमत्परमगभीरस्याद्वादामोघलाञ्छन जीया त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ॥ स्वस्त्य मोघवर्षदेव - परमेश्वर-परमभट्टारक- विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारंवरं सलुत्तमिरे [ ।] तत्पादपद्मोपजीवि समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वर कुचलालपुरवरेश्वर पद्मावतीलब्धवरप्रसादित कोणि पट्टवन्धविराजित शासनदेवीविजयमेरीनिग्र्धोपण भगवदहन्मुमुक्षुपिध्वजविभूषण सकलभूपालमौलिमाणिक्यचूडारत्नरञ्जितचरण विद्विष्ट मनोरमालङ्कारहरण सारखतजनितभा पात्रयकविताललितवाग्ललनालीलाललाम गजविद्याधाम श्रीमत- शिवमाराभिधान संगोट्टगङ्ग-पेम्र्म्मानडिगळू मरदलुमेतेयागे गङ्गवाडि - तोम्भत्तारु - सासिरम सुखसङ्कयाविनोददिं प्रतिपाळिसुत्तिन्दु कादलवल्लि-सूत्तरोळगण कुम्मुदवाडदोळू जिनेन्द्रमन्दिरम माडिदिनदे ढोरेयदेन्दोडे ॥ वृ ॥ दु वर-श्रीगृहमिदु विलसद्गङ्गभूपालराम्नायद कीर्तिश्रीविहारास्पदकरमिदु' गङ्गावनीनाथ रौदार्य्यद जन्मस्थानमेन्त्रन्तिरे विबुधजनानन्दम भव्यसंपत्पदम सैगोड-पेमनड जिनगृहम माडिद भक्तिविन्दम् ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्भावीका लेख २२३ आ जिनमन्दिरक्के । वृ०। विमळश्रीगुणकीर्तिदेवरवरंतेवासिगळ्नागचन्द्रमुनीन्द्रर्तदपत्यरुद्घजिनचन्द्राख्यर्तदीयात्मजईमिताघशुभकीर्तिदेवरेसेदतच्छिष्यरुघद्वचो-रमणीयसले देवकीर्त्तिगुरुगळ्वादीभकण्ठीरवार ॥] आ परमेश्वरप्रवादिविध्वसिगळू विदितागेपशास्त्ररं मैलापान्वय मेनिसिद [क]रेयगणगगनचूडामणिगळुमप्प देवकीर्तिपण्डितदेवर काल कर्चि ॥ ॐ शकवर्प २६१ नेय विभवसंवत्सरद पौष्य (प)-बहुल-चतुर्दशीसोमवारमुत्तरायण-संक्रान्तियन्दु सैगोट्ट-गङ्गं कुम्मुदवाडमेम्बूर विट्टनल्लिये मत्त दानसालेगे पोलनुम कुम्मुदब्वेय देगुलदिं वडग पोगि मूड मुख केरिवुमं बसदियिं मूडल दानसालेगे पन्निर्कयिनिवेसणमुम । ऊरि मूड सपसिं(?)गे-गयु वयलुमं विट्ट-||-ना ग्रामद सीमेयेन्तेन्दोडे । आलिगोण्डदिं । सिडिलनेरिलिं । समेयदातनकरेयिं । मलप्प-बूदनिं । तोळप-वळप-विळियळरियिं । गङ्गरोळादुव-सकिय केरेयिं । हिचलगेरेय कोडियिं । निन्दवेलिं । सिन्दगिरि-बो गदि । सून्दिगेरेय नीर तट-वो गदि । सिङ्गस-गेरेयिं । कदिकोट-बळिवळि-गयिन्दोळगुळ्ळ भूमि कुम्मुदवाडक्के ॥ मत्तमूरि तेङ्क दानसालेय पोलक्के एरपकेरेय मूडण कोडिय बडगण गुत्तिय तेङ्क मुखदे मूडल्मेरे । तेङ्क [0] बळिवळि-गद्देयु । आलिगोण्डमु मेरे । वडगलिंविन-कैरेय मध्य मेरे । पडुवलु विक्किय-वेट्टद तेङ्कण बागोळगागि मेरे ॥ (1) इल्लिन्दोळगुल्ल भूमि दानसालेगे । ओम् [1] ॐ स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वर कुवलाल-पुरवरेश्वर पद्मावतीलब्धवरप्रसादित कोअणिपट्टवन्धविराजित शासनदेवीविजय Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन-शिलालेख-संग्रह मेरीनिर्घोषण भगवदर्हन्मुमुक्षुपिञ्छध्वजविभूषणनुमप्प श्रीमत्कञ्चरस सँगोड-गङ्गनि बन्द धर्मम समुरिसिदनिदन्तम्पदे प्रतिपालिसिदातं वारणासियोळ् सासिरु ब्राह्मण, सासिर कविलेय[ म् ] कोट्ट फलम् । इदनळिदात वाणरासियोळ् सासिर कविलेयुम सासिवंतपोधनरुम सासिाह्मणरुमनळिद पातकमक्कु [1] ओम् [] सामान्योऽय धर्मसेतु नृपाणाम् काले-काले पालनीयो भवद्भिस्स नेतान् भाविनः पार्थिवेन्द्रान् भूयो-भूयो याचते रामभद्रः । (11) खदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् षष्टि-वर्ष-सहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ न विष विषमित्याहुः देवस्त्र विषमुच्यते विषमेकाकिनं हन्ति देवस्व पुत्र-पौत्रिकम् ॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजमिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् || [ कल्भावी वम्बई प्रान्तके बेलगाँव जिलेके सम्पगाँव तालुकेके मुख्यशहर सम्पगाँव ( Sampgaum ) से दक्षिण-पूर्व करीब ९ मीलदूर एक गाँव है । इसका पुराना नाम इसी शिलालेखको पक्ति ८, १५, और २१ में 'कुम्मुदवाड' दिया हुआ है । लिपिकी लिखावटसे यह लेख ई० ११ चीं शताब्दिका मालूम पड़ता है। लेख प्रकट करता है कि किसी अमोघवर्ष नामके राजाने मैलाप अन्वय और कारेय गणके देवकीर्ति नामके जैन गुरुके पादो (चरणों) का प्रक्षा• लन किया था। उस अमोघवर्षके सामन्त, गड्न महामण्डलेश्वर सैगोहपेनिहि या सैगोट्टमाङ्ग-पेनिडिने, जिनका दूसरा नाम शिवमार था, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ नल्लूरका लेख कुम्मुडवाड (कल्भावीका ही पुराना नाम) गाँवमें एक जिनेन्द्रका मन्दिर बनवाया और इसके लिये गाँव दानमें दे दिया। इस दानका काल शक संवत् २६१, विभव संवत्सर दिया हुआ है। लेकिन, जे० एफ० फ्लीटकी रायमें, यह काल जाली है और वास्तविक उल्लेख लेखके उत्तरार्ध में सन्निहित है (ॐ स्वस्तिसे लेकर), जिससे मालूम होता है कि उपर्युक्त दान वीचमे या तो जब्त कर लिया गया था या असावधानीके कारण बन्द कर दिया गया था और उसे कञ्चरस नामके किसी दूसरे गा महामण्डलेश्वरने फिरसे चाल किया। भले ही तमाम लेख बनावटी हो, पर, जे. एफ. फ्लीटकी मान्यतानुसार, इसका उत्तरार्ध तो सच्चा है। मौलिक दानपत्रके खो जानेसे ही स्वय लेखगत दानकी बनावटी तिथि देनी पडी है । लेखमें खाली 'अमोघवर्ष' ऐसा नाम देनेसे यह पता नहीं चलता कि 'अमोघवर्ष' नामके राष्ट्रकूट राजामोमेसे कौन सा अमोघवर्ष इस समय शासन कर रहा था। मौलिक दानका काल मैलाप अन्वय तथा कारेय गणके आचार्य गुणकीर्ति, नागचन्द्र, जिनचन्द्र, शुभकीर्ति और देवकीर्तिके वर्णनसे निकाला जा सकता है । प्रथम दान देनेके समयका काल शक सं० २६१ गलत है, क्योंकि विभव संवत्सर चालू शक सं० २३५ पडता है।] [Ind. Ant, Vol XVIII, pp 309-13 ] १८३ नल्लूर-संस्कृत तथा कन्नड [विना काल-निर्देशका, लगभग १०५० ई० (लई राइस)] [नल्लर (हत्तुगडुनाड्) मे, तीतरमाडके घरके पास सर्वे (Survey) ११७ नं. के तालाबके बाँधपर एक पाषाणपर] , भद्रं भूयाजिनेन्द्राणा शासनायाधनाशिने । कु-तीर्थ-ध्वान्त-सघात-प्रभिन्न-घन-भानवे ॥ स्वस्ति श्री प""धन परत्र-हित-कारणकं परमोपकारकम् । कुडे त"ताब्दिय तिग"मतिग""भया'दन्तम। शि० १५ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैन-शिलालेख संग्रह तडेयदे मुक्तियं पडेवेनेन्दु विचारिसि वन्धु-वर्गव...। विडिसि समाधिय पडेदुदेल्लियुमच्चरि जकियब्बेय ॥ कस्तूरि-भट्टारगर्गे अवर श्रावकि चन्दियब्वे-गावुण्डि""यर . मत्रकि जकियब्बे सन्यसन गेय्दु मुडिपिदळ ॥ आकेय गण्ड परमश्रावक एडय्य मङ्गळम् [जिनशासनके लिये कल्याण-कामना । स्वस्ति । भयके साथ यह सुनकर कि दाय-तिगमति परलोककी इच्छासे मृत्युको प्राप्त हुई-तथा इस बातको न सहन कर, अपने सम्बन्धियोंकी सम्मति लेकर जक्कियन्वेने, जो चन्दियचे-गावुण्डिकी 'मन्त्रकि' और कस्तूरी भद्दारकी 'श्राविका' थी, संन्यसन विधि की और स्वर्गगत हुई । उसका पति श्रावक एडय्य था।] ___ [EC, IX, Coorg tl., n° 31] १८४ नल्लूर्-कन्नड़ [विना काल-निर्देशका, लगभग १०५० ई० १ (लई राइस)] [नल्लर ( हत्तुगट्ठनाइ ) मे, तीतरमाड मादस्यके घरके पश्चिमकी तरफ हितल्मे] ..........."कोडगाळ 'ए मग........दिळे आम्दडे मेन्दु यति-वर ल्ल सादरदि वीकि पा [दादोळेरगि ताळिदनीसुर-कीर्ति भद्रमस्तु जिन-शासनाय श्रीम मदुवगनाड् दोर किविरियव्यङ्गळ् चाङ्गलद वसदियोळ् पन्नेरड नोन्तु मुडिपि नवर मक्कळ् वाकियु बुकिय निरिसिदर [...जर कोटगालुवका पुन शासन कर रहा था, वीळिय-सेट्टिने देवोके यशमा लाभ किया। जिनशासनका कल्याण हो । मदुवगनाड्का स्वामी, किविरिके भय्यने १२ दिन तक चागल बसदिमें मत रक्खा और स्वर्गगत हुआ। उसके पुत्र बाकि और बुकिने इसकी स्थापना की। [FC, IX, Coorg th, n° 30] Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होन्वाडका लेख २२७ २२७ अगडि-कन्नड़ [शंक ९२४, वर्ष जय (ठीक शक ९७६=१०५४ ई.) लूई राइस] [भङ्गडि (गोणीबीड परगना) मे, बसदिके पासके पाषाणपर ] खस्ति सक-वर्ष ९२४ नेय जय-संवत्सरद चैत्र-मासद सुद्धदशमी " ....."वार पुष्य नक्षत्रदन्दु विनयादित्य-पोयसळन राज्य प्रवर्तिसे सूरस्त-गणद श्री-वज्रपाणि-पण्डित-देवर "गन्तियरप्प जाकियब्वे-गन्तियर् (पीछे ) सोसवूरोळे नाडे पोपणद दिसेयनरसग्नें वोकल्ग पोन्नरे को? मण्णरेकोण्डु सोसवूर-वसदिगे बिट्टर निसिदिगे यडेवळ्ळेय - पूण आरतारगे एरडु-हळ्ळद मेगण गण्ण नाल्कु मकर-जिनालयके विट्टर (हमेशाका अन्तिम श्लोक) [(उक्त मितिको) जिस समय विनयादित्य पोयसळका राज्य प्रवर्त्तमान था-सूरस्त-गणके वनपाणि पण्डितकी शिष्या जाकियध्वे-गन्तिने सोसदूरमे नाड्की ओर जानेवाली दिशाम निवासस्थानके लिये पूरा रुपया राजाको देकर और पूरी जमीन लेकर उसे स्मारकरूप सोसवूरकी 'पसदि' के लिये छोड़ दिया । और यडेवळ्ळे की ण्णने दो खड्डो ( ravines ) के ऊपर चार गण मकर-जिनालयके लिये दिये।। [EC VI, Mūdgere ti, no 9] १८६ होन्वाड-संस्कृत तथा कन्नड़ [शक ९७६=१०५४ ई० सन् ] ॐ [1] भद्रमस्तु जिनशासनाय सभद्रता प्रतिविधानहेतवे । अन्यवादिमदहस्तिमस्तकस्फाटनाय घटने पटीयसि [1] १ शक ९२४ जय वर्ष दिया हुआ है । लेकिन शक ९२४ प्लव सवत्सर है, जय शक ९७६ है, और यही ठीक मिति मालम पडती है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ जैन-शिलालेख-संग्रह ओं बस्ति समन्तभुवनाश्रय श्रीपृथ्वीवल्लम महाराजाधिराज परमेवर परमभट्टारक मत्याश्रयकुलतिलकं चालुक्याभरण श्रीमत् त्रैलोक्यमहदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्धमानमाचन्द्रावतारं वर मलत्तगिरे । नद्विशालोरःस्थलनिवासिनियरम्प श्रीमत् केतलदेवियर तर्द्धवाडि-सासिर-दोनगणरुनूसं-बाडद खम्पण घागेयवत्तर बळिरमुत्तम-मग्रहारं पोन्नवाडमं त्रिभोगाभ्यन्तरसिद्वियिन्दाळुत्तमिरे [] नपादपोजीयो गणकचूसामणियु [म्] वाणसकुलाम्बरभानुद् अर्हडासन-मूलनन्भवु ऋलिकाल-श्रेयासनु सम्यक्त्व-रत्नाकरनुमप्प ॥ वानमवंगमनिभकोम्मजगद्विनुतात्तिकाम्बिका-सूनुरुदात्तकीसिधवीनदिजिन योगिरापमहासेनमुनीन्द्रपादकमन्टभ्रमर परिपूर्णचारवियानिधिचाद्विराजविभुराश्रितशिष्टजनेष्टतुष्टिदः ।। गम्भीरो बगाम स्यमकरश्रीमत्तल सात्विके ___ ली जन्मगृहसमस्तवसुधाच्यावेटनोवद्याः अन्नोनितचाररतनिवतो नितकल्मापको नीपानन्दरमाकगे विजयने सम्यक्त्वरनाकर. ॥ आगमयमेव यशारदाने नया पर । चाहणार्यममो (आर्यममो) नास्ति न भूतो न भविष्यति [1] भोग [1] श्रीमूलमं जिनधर्ममूले गणाभिधाने बरसेननाम्नि गच्छेए तुलऽपि पोगर्यभिग्य मलयमानो मुनिरार्यसेनः ॥ पनेरुभूगरमालिग्दागोगाशुबालातपजाटकेन । प्रोनिधीचरणारविन्द्र-श्रीब्रह्मरेनप्र(न)तिनायशिष्य. १ न्यायमेनस्य मुनीश्वरस्य दियो महागनमानान्तः। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ होन्वाडका लेख सम्यक्त्वरत्नोज्ज्वलितान्तरङ्गः संसारनीराकरसेतुभूत[:]॥ तज्जैनयोगीन्द्रपदाब्जभृङ्गः श्रीवानसाम्नायवियत्पतङ्गः । श्रीकोम्मराजात्मभवस्सुतेज स्सम्यक्त्वरत्नाकरचाङ्किराज[:] ॥ कलङ्कमुक्तस्सततैकरूपो दोषेतरश्रीनिलयस्समस्तभव्याजसंदोहविकासहेतु:] विराजते नूतनचाङ्किराजः ॥ तन्निर्मित भुवनवुम्भुकमत्युदात्त लोकप्रसिद्धविभवोन्नत-पोन्नवाडे रंरम्यते परमशान्तिजिनेन्द्रगेह पार्श्वद्वयानुगतपार्श्वसुपार्श्ववासम् ॥ महासेनमुनेच्छात्र' चाङ्किराजेन निर्मितं द्रष्टुकामाघसहारि शान्तिनाथस्य बिम्बकम् ॥ महासेनमुनीन्द्रस्य छात्रेण जिनवर्मणा छत्रीकृतमहानागं रचित पार्श्वदैवतम् ॥ जनकस्य कोम्मराजस्य धोद्देशाद्विनिम्मिता राजते चाथिराजेन सुपार्श्वप्रतिमोत्तमा [u] ॐ ॐ शकवर्ष ९७६ नेय जयसंवत्सरद वैशाखदमावास्ये सोमवारदन्दिन सूर्यग्रहणनिमित्तदि भीमनदिय तडिय १ "मुनि-छात्र-वाति" पढ़ो। २ 'जनक्कोम्म' पढ़ो। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन-शिलालेख संग्रह ' मणियूर - अप्पयणवीडिनोळ् पोन्नवाडदोळ् चाङ्किमय्यन माडिसिट श्रीमान्तिनायटेवर त्रिभुवनतिलक- चैत्यालयदलिप ऋपियरज्जियराहारढानके सर्व्वनमस्यवागि श्रीमन्त्रैलोक्य मल्लदेवर श्रीकेतलदेवियर विन्नपदि मूवत्तुगेण गळेयो विट्ट नेल मत्त [३] ३५ तोण्ट मत्त [3] १ निवेसणढगलमा गळेयोक गळे ४ गेणु १७ नीळ गळे ९ बळवेनिवेसण मूडण वेळडोळा गळेयोच्या गळे ३ नीळ गळे ७ गोपुरढ मूडण अडिगं गाण १ अल्लि वेस- गेय्व कल्कुटिगर मने १ सावगरि पोलेमने १ [I] ॐ अल्लिय सुपार्श्वदेवर बसढिगे आ गळेयो मत्तर सलिके अरुत्रणद लेक्कढे बिट्ट नेल मत्त [र] ३५५ आ गळेयो तोण्ट मत्त [३] १ गाण १ [I] ओ तम्म जिनवर्म्मय्यन माडिसिट पार्श्वदेवर बसदिगे करहड - नाल्यांसिरदोळगण कळम्बडि-३००२२ वळिय कन्नडिगेय सङ्घरसन मग मन्नेय वज्जरसन गुड्डे-मान्य ५०० मत्त - केनोजो सूत्रत्तु गेण गळेयोक्सर्व्वनमस्यमागि चाह्निमय्यं मारुगोण्डु विट्ट नेल मत्त [इ] ३५ [II] [ यह लेख पश्चिमी चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथमका, जो यहाँ अपने त्रिरुद 'त्रैलोक्यमल्लदेव' से वर्णित हुए हैं, उल्लेख करता है और उसकी रानी देवलदेवीका भी जो पोनवाड 'अग्रहार' पर शासन कर रही थी यह एक जैन शिलालेख है, इसका उद्वेग यह बताना है कि किस तरह चाङ्किराज, चाकणार्य, या चाहिमय्यने, जो कि वानस या वाणस वंशके तथा केतलदेवीके ऑफीसर थे, शान्तिनाथ, पार्श्व, और सुपार्श्वकी वेदियों को पोन्नवाढमें त्रिभुवन- तिलक नामके चैयालय में बनवाया और किस तरह उन वेदियोंके लिये कुछ जमीन और मकानात दान किये गये । ] [IA 19, p 268-275, n° 190] १ लेखमे वर्णित पोन्नवाढ, वास्तवमें, वर्तमान होन्वाढ ही है । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापुरका लेख १८७ चङ्कापुर- कन्नड [ मन्मथ संवत्सर शक ९७७ = १०५५ ई० ] [ इस लेखका परिचयमात्र मिलता है, लेख नहीं । बकापुर धारवाद जिलेके वर्त्तमान शिग्गौम या बकापुर तालुकेसे दक्षिण-पश्चिम छह मील पर है । २३१ 1 यहाँके सारे लेख किलेमें है । यह लेख एक दीवालके सहारे है जो कि पूर्वकी तरफसे किलेमे घुसते समय दाहिने हाथ की तरफ़ है । एक विशाल चिकने पत्थरपर ५९ पक्तियोका यह एक लेख है, हर एक पंक्ति में करीव ३७ अक्षर पुरानी कनडी लिपि और भाषामे हैं । शिलालेखका अधिकांश अच्छी स्थिति है; लेकिन चौथी पक्ति जानबूझकर मिटा दी गई है और उस गिलापर दरारें पढ़ी हुई है जिनसे ऐसा मालूम पडता है कि यदि इस शिलाको किसी सुरक्षित स्थानपर ले जानेका प्रयत्न किया जायगा तो वह टूट जायगी । शिलाके अग्रभागके चिह्न चालाकीसे मिटा दिये गये हैं; लेकिन निम्नलिखित फिर भी कुछ चिह्न मिलते है - मध्यमे लिङ्ग है; इसके दाई ओर एक बैठी हुई या घुटने टेकी हुई मूर्त्ति उसके ऊपर सूर्य है और इसके बाहरकी ओर एक गाय और बछड़ा है, और इसके बाईं ओर एक स्थानापन्न पुरोहित या पुजारी, उसके ऊपर चन्द्रमा और उसके बाहर बसवकी मूर्ति बनी हुई है । लेखक काल शकवर्ष ९७७ ( १०५५ - ६ ई० ), मन्मथ 'सवत्सर' दिया हुआ है, जब कि चालुक्य राजा गङ्गपेमनडि-विक्रमादित्यदेव, जो कि त्रैलोक्यमल्लका पुत्र; कुवलालपुरका अधीश्वरः नन्दगिरिका स्वामी, और जिसके मुकुटमे कुछ हाथीका चिह्न था, गङ्गवाडि ९६००० और बनवासि १२००० पर शासन कर रहा था, तथा जब कि महाप्रधान हरिकेसरीदेव, जो कादम्ब सम्राट् मयूरवम्मका कुलतिलक था, उसके अधीन बनवासि १२००० पर शासन कर रहा था । हरिकेसरी देवकी उपाधियाँ अधिकतर उमी तरकी हैं जैसी कि अन्य कादम्ब राजमोकी । लेखमे कुछ भूमिके दानका उल्लेख है । यह भूमि निडगुन्दगे बारह, की थी जो पानुङ्गल ५०० का एक 'कम्पण' था । यह भूमि दान एक Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૩ર जैन-शिलालेख-संग्रह जैनमन्दिरको हरिकेसरीदेव और उसकी पत्नी लयलदेवी तथा बदापुरके पाँच मतोको आश्रय देनेवाली जनता, नगरमहाजनोंफी गिरड (कम्पनी) तथा 'सोलह' वर्गाने किया था।] [1A, IV, P 203, n° 1, n, ASI, XVI, p 133, a.] १८८ मुल्लूर-संस्कृत तथा कन्नड़ [विनाकाल-निर्देशका, पर लगभग १०५८६०] [ मुल्लरमें, पार्श्वनाथ बस्तिकी उत्तरी दीवालपर ] खस्ति श्री राजाधिराज कोङ्गाळ्बनव्ये पोचब्बरसियर द्रविळगणद नन्दि-सघद अरुङ्गळान्वयद गुणसेन-पण्डितदेवर गुड्डि माडिसिद वसदि मङ्गळ महा। [स्वस्ति । द्रविळ गण, नन्दिसंघ, तथा इरुशलान्वयके गुणसेन पण्डितदेवकी गृहस्थ-शिष्या, राजाधिराज-कोनान्चकी माँ पोचव्यरसिने इस बस्तिको बनवाया। महा मङ्गल।] [EC, IX, Coorg th, n' 37] मुल्लूर-संस्कृत तथा कन्नड़ [शक ९८०८१०५८ ई.] [मुल्लूरमे, पार्श्वनाथ बस्तिके पश्चिममे दूसरे पापाणपर ] धर्म-सेट्टि वरेट खस्ति शक-चर्प ९८० त्तेनेय विलम्बि-संवत्सरद उत्तरायण-संक्रान्तियन्दु श्री राजेन्द्र-कोङ्गाळ्धं तम्मय्य माडिसिद बसदिगे कोट्ट हारुवनहछि अरकनहळ्ळि निडुतद गोडल खण्डुगम् ३ के (दूसरे गावोमें ऐसे ही दान ) श्रीराजाधिराजकोगाळ्वनब्बे पोचव्यरसियर् 'तम्म गुरुगळु द्रविळ-गणद नन्दि १ वकापुरद पञ्चमत(ठ)स्थानमु नगरमहाजनमु पदिनस्वस्म्' । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुल्लूरका लेख २३३ संघढरुङ्गळान्वयद गुणसेन -पण्डित - देवर्गे माडिसि धारा- पूर्व्वकं कोहरु || ( वही अन्तिम श्लोक ) । [ धर्म-सेहिके द्वारा लिखित | स्वस्ति । ( उक्त मितिको ), राजेन्द्र कोङ्गावने, अपने पिता द्वारा निर्मित बसढिके लिये हेरुवनहळ्ळि, अरकनहळळ, तथा निदुत गोडलुमें तीन खण्डगका दान दिया, और इसी तरह दूसरे गॉवोमे ( जिनके नाम दिये हैं)। और राजाधिराज कोङ्गाळ्वकी माँ पोचव्वरसिने अपने गुरु द्वविळ गण, नन्दि-संघ, तथा मरुळान्वयके गुणसेन पण्डित - देवकी प्रतिमा बनवाकर जलधारापूर्वक इसे समर्पित की। शाप । ] [ EC, IX, Coorg tl, n° 35 ] १९० मुल्लूर - संस्कृत तथा कन्नड [ विना काल-निर्देशका, पर लगभग १०५८ ई० का ] मुल्लूरमे, पार्श्वनाथ बस्तिके नीचे देहली में ] स्वस्ति श्री राजेन्द्र चोळ कोङ्गावन पुत्र श्री - कोङ्गाळ्व.. वास-स्थानम तम्म गुरुगळ् तिबुळ-गणदरुङ्गान्वयद नन्दि-सध्द गुणसेन - पण्डित - देवर्गे धारा- पूर्वक कोट्ट मङ्गळ महा श्री श्री । [ स्वस्ति । राजेन्द्र चोळ- कोङ्गावके पुत्र रा कोद्गाकवने तिबुळ-गण, अरुलान्वय और नन्दि-संघके अपने गुरु गुणसेन पण्डित - देवको रहनेके स्थानके रूपमें ... दिया । ] [ EC, IX, Coorg tl, n° 38] १९१ मुल्लूर - कन्नड़ [ विना काल-निर्देशका, पर लगभग १०५० ई० ] [ उसी बस्तिके प्राङ्गणमें एक पापाणपर ] स्वस्ति श्री गुणसेन -पण्डित - देवर् अगळिसिद नागवानि नकरद धर्म्म Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂક जैन-शिलालेख-संग्रह [स्वस्ति । नाग-कुऑ जिसको गुणसेन-पण्डित देवने नकर याने व्यापारी संघके धर्मके रूपमे खुदवाया।] [BC, IX, Coorg t] , n° 42] १९२ सोमवार-कन्नड [विना काल-निर्देशका, लेकिन सभवत. लगभग १०६०ई०] [सोमवार (मल्लिपट्टण परगना) मे, बसवण्ण मन्दिरकी बाहरी दीवाल के पापाणपर] धरेयोळगेचलन्देविगे। गुरुगळ् गुणसेन-पण्डितविक गणम् । वर- नन्दि-संघमन्वय मरुङ्ग... "नगदेन्दडेम्वण्णिपुडो॥ भद्रमस्तु । [एचलदेविके गुरु, द्रविळ गण, नन्दि-संघ और अरुङ्गल-अन्वयके, गुणसेन-पण्डित, जो इतने प्रसिद्ध हैं, उनका वर्णन इस ससारमें कैसे हो सकता है ? कल्याण हो।] [EC, V, Arkalgud ti, no 98 ] कडवन्ति-कन्नड़-भन्न । [विना काल-निर्देशका पर संभवत लगभग १०६० ई.] [कडवन्तिमे, मेलु-कडवन्तिकी चट्टानपर] भद्रमस्तु जिनशासनाय श्रीमत्-दान "खचर-कन्दप सेनमार पृथुवी-राज्य गेय्युत्तमिरे देव-गणद पाषाणान्वयद महेन्द्र-वोळळं पडेद अङ्क देव-भटारर शिष्यमहीदेव-भटारर गुड्ड निरवद्यय्यं मेळसरय मेगे निरवद्य-जिनालयमं माडि खचर-कन्दर्प-सेनमारन दयगेये निरवद्यय्य मानिय पडेदु जकि-मानियेन्दु पेसरनिडे निरवद्य-जिनालयके कोट्ट Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगडिका लेख २३५ एडेमलेय सासिरु गळ्देय मेक्कळ तम्म तम्म गळ्देय मेगे एल्ला-कालमु पल दप्पढे जकि-गोळगमेन्दित्तकैडमन्तियोम् मादेर रचिपन्दूरुग एञ्जलिग सिरिपुरसनुमित्तुनु मूगण्डग-भत्तं पोकुळि-मक्किय पलिसिन तारनित्तरुज्जेनियोळ नाल्-गण्डग भगमनित्तरवाडियोळपिन्दगर-ण्डुग मूगण्डग मित्तमुळूि-भागदोळ् ........... ....."मूगण्डुगमित्तं शालादित्यर कप्पिगमिर्कण्डुग......"मुळियर कुन्द कोण्टापन्दियो सार........ ....... मेदुकय्य किरगादण्ण भू-गण्डुग मण्ण 'म् इकुळ-भत्तमुमन .. """न्ददणिकिग देपण्ण मूगण्डु ....... मित्तर्.." योळ श्री-व" . [जिस समय खचर-कन्दप सेनमार पृथ्वीपर राज्य कर रहे थेनिरवद्यने, जो देवगण और पाषाणान्वयके अङ्कदेव-भटारके शिष्य महीदेव भटारका गृहस्थ-शिष्य था और जिसने महेन्द्र-बोळलुको पाया था,मेलस चट्टानपर निरवद्य जिनालय खड़ा किया; और खचरकन्दर्प सेनमारकी कृपा प्राप्तकर निरवद्यको एक 'मान्य' मिला, जिसे उसने जक्किमान्यका नाम देकर निरवद्य-जिनालयको भेंट कर दिया । __ और एडेमले हजारने अपनी हरएक धान्यके खेतोकी फसलसे कुछ धान्य (चावल) दानरूपमे हमेशा के लिये दिया। . और भी जिन लोगोने अनाजका दान किया उनके नाम दिये है।] [EC, VI, Chikmagalur tl, n° 75] १९४ अगडि-कन्नड़ [विना काल-निर्देशका, पर सभवत: लगभग १०६० ईसवी ] [अगडि (गोणीवीडु परगना] मे, छठे पाषाणपर] (ऊपरका हिस्सा टूट गया है) सोसवूर सेटिगळ लोकजिवनिगे निषिधिय कल्ल नखर-समूह नट्टरु [सोसवूरके व्यापारी लोकजितके इस स्मारकको उस नगरके व्यापारी लोगोने खड़ा किया।] [EC, VI, Mūdgere tl, n° 16 ] Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैन-शिलालेख-संग्रह ‘चिक-हनसोगे-कन्नड़ [विना काल-निर्देशका, पर संभवतः लगभग १०६० ई० का] [चिक-हनसोगे (हनसोगे परगना) में जिन-वस्तिके दरवाजेके उपर] श्री-वीर-राजेन्द्र ननि-चङ्गाच-देवाडिसिद पुस्तक-गच्छद वसदि [वीर-राजेन्द्र नन्नि-चङ्गान्व-देवने पुस्तकगच्छकी बसदि वनवाडे ] [EC, IV, Yedatore ti, no 22 ) चिक्क हनसोगे-कन्नड। [विना काल-निर्देशका, पर सम्भवत' लगभग १०६० ई.] [जिन-बस्तिमें, दरवाजेपर पड़े हुए पत्थरोपर ] दशाशिर-प्रहारियप्प रामस्वामि त्रि परमेश्वर-दत्तिय शकनोड विक्रमादित्यं पडिसलिसि-तान"...."मुन्निनन्ते बडगण-तुम्बिन नी-रिदनितु नेलन ख........ .."ताम्ब-शासन-पूर्वक कोहरदं मारसिंह-देव पडिसलिसलेन्ता-परमेश्वर-दत्तिय वडगण तुम्बिन नीवरिदनितु......"मुन्निनन्ते कादना रामर दत्तिय तात्र-शासन • पडिय "मडि ईयक्कर बरेदवद ननिचङ्गाळ्य-देव'नर्णव माडिसिद बसदिय तुम्बिनलकखु प्रतिमेयु माडिद तप्पिदर्गे कविलेगे तप्पिट पाप [पहलेकी ही तरह, उत्तरीय नहरसे, सीची गई सारी जमीन,-दशशिर (रावण) के वधक रामस्वामीके द्वारा जो छोड दी गई थी, परमेश्वरने जिसे दिया था, और जिसे इनामके तौर पर शक तथा विक्रमादित्यने भी दिया था,-ताम्बेके शासन (लेख) पूर्वक..... दी। परमेश्वर-प्रदत्त तथा उत्तरीय नहरसे सींची गई सारी जमीनका दान मारसिंह-देवने किया और पहलेकी ही तरह उसका रक्षण भी किया। - Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचका लेख २३७ ....."मडिने रामके ढिये हुए इस ताम्बेके शासनपर दानके अक्षर लिखे और बसदिके पानीकी राहके फाटक्पर मूर्तियों और अक्षर खोदे । इस बसदिको नन्नि-चगाळ-देवने फिरसे बनवाया।] [EC, IV, Yedotore tl , n° 25 ] हुम्मच-कन्नड़ [शक ९८४=१०६२ ई.] [सूळे वस्तिके सामनेके पाषाणपर] स्वस्ति समस्त-सुरासुरमस्तक-मुक्ताशु-जाल-जल-धौत-पदम् । प्रस्तुत-जिनेन्द्र-शासन मस्तु चिरं भद्रमखिल-भव्य-जनानाम् ॥ स्वस्ति श्री पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ-तिलक चालुक्याभरण श्रीमत् त्रैलोक्यमल्ल-देवरराज्य सलुत्तमिरे ॥ स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महाशब्द महामण्डलेश्वरनुत्तर-मधुराधीश्वर पट्टि-पोम्बुर्च-पुर-बरेश्वरं मोम-वा-ललाम पद्मावती-लब्ध-वरप्रसादासादित-विपुल-तुलापुरुप-महादान-हिरण्यगर्भ-त्रयाधिक दान वानरध्वज-विराजित-राजमानं मृगराज-लाञ्छन-विराजितान्योत्पन्न बहु-कळाकीर्ण शान्तरादित्य सकळ-जन-स्तुल्य कीर्ति-नारायण सौर्य-पारायण जिन-पादाराधक रिपु-बल-साधक नीति-शास्त्रज्ञ विरुद-सर्वज्ञ श्रीमत्त्रैलोक्यमल्ल-वीर-शान्तर-देवं सान्तलिगे-सायिरमुमनेकच्छत्र-च्छायेयिन्दमाळुत्तमिरे ॥ तत्पाद-पद्मोपजीवि वस्त्यनेकगुण-गणाभिमण्डन नखर-मुख-मण्डन शान्तर-राज्या-भ्युदय-कारणं कलि-युग-दोस(ष)निवारण आहाराभय-भैषज्य-शास्त्र-दान-कानीन विशद-यशो-निधानरप्प Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन-शिलालेख-संग्रह श्रीमत्-पट्टण-खामि-नोकय-सेट्टि स (श) कचर्ष ९८४ शुभकृतसंवत्सरद कार्तिक सुद्ध ५ आदित्यवारदन्दु तन माडिसिद पट्टण-खामि-जिनालयक्के वीर-सान्तर-देवङ्गे ( यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा भाती है ) सर्व-बाधा-परिहार-मागि माडि तन्न सहधम्मिंगळ् सकलचन्द्र-पण्डितदेवगर्गे कोट्टम् ( यहाँ वे ही हमेशाके अन्तिम वाक्याव. यव भाते है)। इष्टनोर्बनधिदेवतेगेन्दोसेदित्तुदम् । दुष्टनोर्बनदर फलव सले तिन्दवम् । सिट्टि-मेले परमात्मने बन्देडेगोवदम् । कट्टिकोण्ड विदिरन्ते कुल-क्षयमागुगुम् ।। (वे ही अन्तिम श्लोक ।) अक्कर | ईवरेन्दत्ति पल्लिरिदेरदप "तागि वेळ्दपर लेजेगेटु कावरेन्टल 'सरणेन्दु वन्दपर् त्तावति मरेवकुं वाल्वेमेन्दु साम-बङ्गदा मरेवा बन्..... विडियु निद्दे पट्टियदन्दु जीवम्जीवके तूकक्के बारडे, किळ्व१ बरवेके वीर देव ॥ धुरदोळसि-लतेयनुच्चिदड् । अरि नृप-युवतियर मुगुळ कङ्कणदा-कील । तरतरदिनुम्चिदवु निज-। कर-खळगमवर्के कीले शान्तिर-नृपति ।। वीरुगन दोरेगे दोरे पेर-। रारु बन्दवरी-कृत-युग त्रेते द्वा-। पर कलि-युगदोळगण। वीररुदार प्रतापिगाळ् धर्म-परर ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ हुम्मत्रका लेख वृत्त । परम-श्री-जैन-धर्मकतिशय-विभव मापे विद्वज्जनक्का-। दरदिन्द सन्तोस (प) माडुव मुनि-जनकाहार-भैषज्यम वि-। स्तरदिन्द चिन्तेगेय्बुन्नत-गुण-[ ] युतं पट्टण-स्वामिनोकं । बरमारभन्यजन्ता-पुरुष-रतुनदि बीरदेवं कृतार्थन् । पुदिद तमम-तम पटलं ओन्दिद चिन्ते नगुन्दु तन्तु प-1 त्तिद रुजे पेर्चि साचिद दरिद्रते वयोटाद से वङ्गिदपुदु कण्ड काण्कयो तप्यदु पट्टण-मावि नोकानि-। लडे बन्दु बन्द बुध-मण्डलिगी-मले सू (शून्यमागडे बल्खलनप्प पेर्बुसिय बर्किने भाजनमाद दोब्गे वी-। पल वरिवन्ते नेल नरे-गडुढ दोड्डर वेल्लवातुगळ् । कोल्गुमवार्के केम्मनेडेयाडदिरोवेले शिष्ट वेडिको-। छोल्वडे नन्न धर्मद तवर्मने पट्टण-सामि नोक्कनम् ॥ जिनन वणिप पूजिप । जिनागमोक्तियाडे नेगब्व जिन-पदमं भा- । बनेय निच ताब्दुवन् । एने पट्ट[ण] साबि ये जिनागम-निषियो ।। वचनम् ॥ सम्यक्त्व-बारासियुमेनिसिद पट्टण-स्वामि नोझय्य... हुरदोळु देवर वल्लभरनेरगिसि रनङ्गळम् खचियिसि । पोन वेल्लिय पवळ महा-मणिय पञ्च-लोहदोळ प्रतिमेगळ माडिसिद । (यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा है ।) सकळचन्द्र-पण्डितदेवर गुड्ड मल्लिनाथं वरेदम् ॥ सुजन-जन-कुमुद चन्द्रन । सुजन-जनानन-विलोक-मणिमुकुरनना-1 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैन-शिलालेख-संग्रह सुजन-जन-वनज-हंसन । सुजनजन पोगळे मल्लिनाथ नेगळ्दम् ।। गुडिवयलुम बिट्ट (सिरेपर) पट्टण-खामिय परि नेम-प्रतवेरेदन्ढे तुरवनिन्तिदु.. गेय्यद ... येत्तिद य "सा "सन्तोस(प)-दानविनोद... · | श्री-पट्टण-सामिय गुरुगळ् श्रीमद्-दिवाकरणन्दि-सि द्धान्त रत्नाकर देवरु श्री-विरुद-सर्वज्ञ वीर-सान्तर-देवम् ।। पुसियदिरारोळव-नदि पर-नारिय त्तपोगे तप्प् । एसगदिराव-जीवदेळमेत्रडेयेम्बुदनेन्तुमोल्लदिर् । कुसियदिरायदि पोणर्दु तन्तेडेयो व्रतमेन्दु कोण्डुदम् । विसडदिरेम्बुदी-बरेद · ·सने सान्तर-वीर-देवनम् ॥ नेगर्दुप्रान्वय-पद्मिनी-दिनकरं श्री-शान्तरोर्बीशनु- ॥ द्घ-गुणाम्भोनिधि बीरुग विरुद-सर्वज्ञ धरा-मण्डळम् । पोग[ळ]ळू कूम्मियिनीये निर्मळ-यश धर्माधिक ताब्दिदम् । जगदोल् पट्टण-सामि-बट्टमनिदेम् नोक यशो-भागियो । पट्टणस्वामि-जिनालयद शासनम् [जिनेन्द्रकी प्रशसा। जब, (उन्हीं चालुक्य-पदों सहित), त्रैलोक्यमल्ल-देवका राज्य प्रवर्तमान था जब, (उन्हीं पदो सहित जिनसे अलङ्कृत नन्नि-शान्तर शि० ले० नं० २१३ मे हैं), त्रैलोक्य मल्ल वीर-शान्तर-देव शान्तळिगे हज़ारपर एकछत्र राज्य कर रहा था, तत्पादपद्मोपजीवी (उन्हीं पदों सहित जैसे कि पद शि० ले० नं० २११ में है)। पट्टण-स्वामि नोक्कय्य सेष्टिको ( उक्तमितिको) अपने बनवाये हुए पट्टण-स्वामि जिनालयके लिये वीर-शान्तर-देवको सोने के १०० गयाण मेट करने पर, मोलकेरेका दान मिला; इस गॉवकी सीमाये । इसने Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचका लेख' (नोक्कय्य-सेटिने ) अपना गाँव कुकडवळ्ळि भी दानमें दे दिया, और इसको (उक्त) सब करोसे मुक्त कर दिया, और अपने सह-धर्मी सकलचन्द्र-पण्डितदेवको सौंप दिया। शापात्मक और वे ही अन्तिम श्लोक । राजा वीर शान्तर और 'सम्यक्त्व वारासि' नामसे प्रसिद्ध पट्टण-स्वामि नोककी प्रशंसा में श्लोक । माहुरमें प्रतिमाको रतोंसे मढ़ दिया और उसके पास सोना, चादी, मूगा ( Conal), रत्नो और पञ्चधातुकी प्रतिमायें थीं। शान्तगेरे, मोळकरे, पट्टण-स्वामिगेरे और कुक्कुडवळ्ळिके तळेविण्डेगेरेये सब तालाब उसने बनवाये थे। और सौ सुवर्ण गद्याण देकरके उसने उगुरे नदीका सौळंगके पागिमगल तालाबमे प्रवेश कराया। __ सकलचन्द्र-पण्डित-देवके गृहस्थ-शिष्य मल्लिनाथने इसे लिखा, उसने गुडिवयरका दान किया । पट्टण-स्वामिक गुरु दिवाकरनन्दि-सिद्धान्तरत्नाकर देव और सर्वज्ञ-पदलाल्छित वीर-शान्तर-देवकी प्रशंसा] [EC, VIII, Nagar tl, n°58] हुम्मच, कन्नड शक ५८५-१०६२ ई० [पार्श्वनाथबस्तिमें मुखमण्डपके खम्भोपर ] (दक्षिण-स्तम्भ) (पूर्व-मुख) ""पृथुवी-बल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय-कुळ-तिळक चालुक्याभरण श्रीमत् त्रैलोक्यमल्ल-देवर चतु समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी राज्यानुष्ठानदिनिरे ॥ तत्पादपद्मोपजीवि ॥ समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरनुत्तर-मधुरावीश्वर पट्टि-पोम्बुर्च-पुरवरेश्वर महोग्र-वश-ललाम पद्मावती-लब्ध-वर-प्रसादासादित-विपुल-तुलापुरुष-महादान-हिरण्यगर्भ-त्रयाधिक-दान वानर-ध्वज-विराजित-राजमानमुंगराज-लाञ्छन-विराजितान्योत्पन्न बहु-कलाकीर्ण सान्तरादित्य सक शि० १६ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन-शिलालेख संग्रह ल-जन-स्तुल्य कीर्ति-नारायण सौर्य-पारायण जिन-पादाराधक रिपुबळ-साधक नीति-शास्त्रज्ञ बिरुद-सर्वज्ञ नामादि-समस्त-प्रशस्ति-सहित श्रीमत् त्रैलोक्यमल्ल-वीर-सान्तर-देवं सान्तळिगे-सासिरमं निर-दायादम निष्कण्टकम निराकुळमु माडि निजान्वय-राजधानि-पोम्धुचंदोळ् सुख-संकया-विनोददिनरसु-गेय्युत्तिन्दु स(शोक वर्ष ९८४ नेय शुभकृत्संवत्सरं प्र. (उत्तर-मुख ) जिनदत्तं तनगन्दु देवतेय कारुण्य पोददिपिनम् । दनु-पत्रगतिभीतिय निज-भुजावष्टम्भदि माडि कोड निजाम्नायद पेम्पु-वेत्त पोळलोळ् पोम्बुर्चदोळ् माडिदम् । जिन-गेहगळनतियिं पलवुम श्रीवीर-भूपाळकम् ।। सुरसैलेन्द्रमो मेण कुवेरगिरियो मेण तुङ्ग-ताराद्रियो । दोरेयेम्बन्तिरे तन्न भक्ति मनदि पोण्मुत्तमिपन्नेगम् । परमोत्साहदे नोकियब्नेय जिन-श्री-गेहमं माडिदम् । धरेयेल्ल पोगबन्नेग विरुद-सर्वज्ञावनीपाळकम् ॥ वचन ॥ अन्तु नेगळ्द वीर-शान्तरन मनो नयन-वल्लभेयेनिसिद चागलदेवि ॥ वृत्त ॥ गुणदोळ् रूपिनोलोपिनोळ् सुबगिनोळ् शृङ्गारदोळ् सौम्यलक्षणदोळ मैमेयोळोजेयो विभवदोळ् शीलङ्गळोळ् मृत्य-योषणदोळ् भोगटोळार्पिनोळ् विभुतेयोळ् कारुण्यदोळ् पोलिस एणेयार ग्गेल्व वेडङ्गिोन्दनुदिन Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ हुम्मचका लेख विद्वज्जनं वण्णिकुम् ॥ . (उत्तरस्तंभ) (दक्षिणमुख) कन्द ॥ जयदकात्ति दान--1 प्रिये शान्तर-देवनोप्पुवङ्गिद-लदिमयेनिप्प पुण्यवतियम् । जय-देवतेयन्नदुन्ते पेरतेनेम्बर ।। श्री-वनितेगे वीरन वाक्श्री-बनितेगे कीर्ति वधुगे सान्तर-विजय-- श्री-वनितेगधिके चागल-1 देविये भाविसुवदखिल-विश्वम्भरेयोळ् ।। सलगेगे साम्यक्केकेगे। पलरक्कम मतियरहितरं गेल्वेडेय्। गेल्व वेडनिये वीरन । बलद भुजा-दण्उदल्लि केलदोळ् निस्वळ् ।। पतिय वश्चिसि सले निजकृतकदिनीवलोकनाक्षिगलिं भ्रलतेयोळमोळपोय्वी-दुर्व्रतेयर् प्पोल्तपरे चागियबरसियरम् ॥ सङ्गत गुणनमळ-लसत्तुङ्गाखिळ-कीर्त्ति-वीर-सान्तर-नृपन ङ्गि-स्थित-लक्ष्मियेनल्क् । एङ्गल पोल्तपरे चागियचरसियरम् ॥ नेत्रावळि-दोच्छर्दि-वि Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह चित्राम्बर-कनक-रजत-मणि-मौक्तिकमम् । पात्रमरिदीव-गुणकति-1 मात्रेयरेय्दिपरे चागियब्बरसियरम् ॥ (पूर्वमुख ) वृ ॥ अतिशयमप्प रूपिनोळुदारतेयोळ् विनयोपचारदोळ् । पतिगतिभक्तिनोळ् विपुळ भोगदोळि पेरतेननेम्वे माण् । रतिगनुसारि पार्वतिगे तोडु कुजातेगे पाटि नोडरुन् धतिगेणे वासवाङ्गनेगे पासटि चागल-देवि धात्रियोळ् ।। येनिसिद चागल-देवि निज-वल्लभं वीर-शान्तरन कुल-देवते नोकियब्बेय बसदिय मुन्दे मकर-तोरणम माडिसि ।। मत्त बळिगावेयले चागेश्वरमेम्ब देगुलम माडिसि पलवरु ब्राह्मणर कने-दानम माडिसि महादानङ्गेप्दु' वन्दि-वृन्दकवाश्रितर्ग पोन्नु बुट्टिगेयुमं वेपन्नेगमित्तु चागम मेरेदम् ।। अन्तु नेगई चागल-देविय तायेनिप अरसिकब्बे प्रसिद्धकेसेदळ सान्तरन मनेय सर्व-प्रधान ब्रह्माधिराज काळिदासय्यबगेद (पश्चिम मुख) श्री-लोक्किय बसदिगे देकरसं जम्बहळिय विट्ट श्री-माधवसेन-देवङ्गे धारा-पूर्वक माडि कोट्टम् ॥ [जव, (उन्हीं चालुक्य पदों सहित ), त्रैलोक्यमल्ल देव समुद्र-पर्यन्त दुनियाके राज्यपर शासन करनेमे लगे हुए थे --- तत्पादपनोपजीवी (नं. २१३ वाले लेखमे जो ननि-शान्तरके पद है उन्ही पदो सहित) त्रैलोक्यमल्ल वीर-शान्तर-देव, सान्तलिगे हजारको मुक्त करके, अपने वशकी राजधानी पोम्बुच्चमे शासन कर रहा था:(उक्त मितिको),- अपने वशके प्रसिद्ध नगर पोम्बुर्च में वीर-भूपालकने बहुतसे जिनमन्दिर बनवाये। इसी पोम्बुचमे जिनदत्तने देवी (संभवतः पद्मावती देवी) के प्रसादको प्राप्त करके एक राक्षसके पुत्रको अपने भुजबलसे भयभीत कर दिया था। वीर-भूपालने नोक्कियब्बे जिनमन्दिर बड़ी शोभाके साथ खडा किया था। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडका लेख २४५ वीर-शान्तरकी पत्नी चागल- देवी थी । उसकी प्रशसामें बहुत से लोक दिये हैं । अपने पति वीर-शान्तरके कुल देवतारूप नोकियव्येकी बसदिके सामने उसने 'मकर-तोरण' बनवाया था और बल्लिगावेमे चागेश्वर नामका मन्दिर बनवाया था और बहुत-से ब्राह्मणोको कुमारिकायें भेटकर उसने 'महादान' पूर्ण किया था, तथा प्रशंसको और आश्रितोंकी भीडको यथेच्छक दान देकर अपनेको दानी प्रसिद्ध किया था । ( तथा ) चागल- देवी की माँ अरसिकी भी बहुत प्रसिद्धि हुई । ( और ) शान्तरके घरका 'सर्व-प्रधानं' ब्रह्माधिराज कालिदास विख्यात हुआ था । लोक्किय बसदिके लिये, देकररसने जम्बहळ्ळि प्रदान की, इसका दान माधवसेन -देवको किया था । ] [ EC, VIII, Nagar, tl, n° 47 ] १९९ श्रवणबेलगोला, संस्कृत - भग्न [सं० १११९=१०६२ ई० ] ... ( जैन शि० ले० सं०, भा० १ ) २०० अगडि - कन्नड - भग्न [ शक ९८४ = १०६२ ई० ] [ अगाडि ( गोणीवीड परगना ) मे, ७ वें पापाणपर ] 'विनयादित्य. • • पोयसळ... गुरुगळ सक-कालं गति-नाग- रन्ध्र-शुभकृत् संवत्सरापाढदोळ् । सुकर पौर्णमि-भौमवार मोसेदिकदा श्रावण " कन्दि बरे शान्तिदेवरम सन्यासन गेय्दु भक्- । ति करं कैवशमागे गेय्दु पडेदर निर्वाण साम्राज्यमम् ॥ भट्टार Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैन - शिलालेख संग्रह' ( पीछे )••••••शान्ति- देवर् श्रीमत् सो [सेवू ]र... नकर-समूह तम्म परोक्ष - विनयं गेदु निषिढिगे मङ्गलमहा गुरु [..... विनयादित्य.. पोयसळके गुरु ....... • ( उक्त मितिको ) शान्तिदेवने, अपने धर्मके फल स्वरूप निर्वाणको प्राप्त किया । नगर (व्यापारी संघ ) के लोगोंने अपने गुरु शान्ति - देवकी मृत्युके उपलक्ष्य में यह स्मारक खडा किया । ] [ EC, VI, Mudgere tl, n 17 ] २०१ :-भन्न अङ्गडि - संस्कृत तथा कन्नड़-भ‍ १०६३ ई० ] [ शक ९८४ = १०२ [ अगडि ( गोणीची परगना ) में, वसदिके पासके पाषाणपर ] तन्त्र-प ...व्वरसिय "साम्पराय ( ७ पक्तियों में दानको चर्चा है ) पोय्सकन विद्यावन्त पोयसळाचारि आतन मग माणिक पोय्सुळाचारि आत माडिद वसदि उठि वक्ति, पिडिवर चट्ट ( पीछे ) इन्तिनितु भूमीयुम को शक वर्ष ९८४ नेय शुभकृत् -संवत्सरद फाल्गुन-सुद्ध-पञ्चमी - बुधवारं रोहिणी नक्षत्रदन्दु प्रतिठेगेदु पूजेय माडि तिरु-नन्दीश्वरदन्दु दान - माडेयु पोसळन गुरुगळ् मुल्लूर श्री-गुणसेन - पण्डित - देवर्गे धारा- पूर्व्वकटिं स्थानम को ॥ श्री-वनितेगे धरणिगे बाग्-देविगे रुग्मिणिगे रतिगे रम्भगे सीता - 1 देविगे कोन्तिगे परियल - । देविविल्लिलि गुणके वप्परुमुण्टे || श्रीमदभिमानपिण्डः । पर-गण्ड-प्रलय-काल-यम-दण्डः । सद्गुणरत्नकरण्डः । स जयतु भुवि मलेपरोल् गण्डः ॥ रक्कस-चोय्सलनेम्वा- | र्-अक्करव वरेदु पटमनेत्तिदडिदिरोळ् । ***** ..... **** ... .. ORG.. 9484 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुल्लूरका लेख लक्कद सत्र-लेक्कद मरु- । वक्क निन्द्रपुवे समर-संघट्टनदोळ् || ( हमेशा अन्तिम श्लोक ) [प्रथम भाग बहुत घिसा हुआ हे और अन्तिम पक्तियों में दानकी विशेष चर्चा है । छेनी और बल्लिको पकड़नेवालोमें प्रधान, अर्थात् पाषाणशिल्पियों में प्रधान विद्यावान पोयसळाचारिके पुत्र माणिक पोयसळाचारिने यह बसदि बनवाई | २४७ इतनी भूमि देrरके, उन्होंने ( उक्त मितिको ) भगवान्की प्रतिष्ठा की, और पूजाकर तिरु-नन्दीश्वरके कालमें दान देकर मन्दिर पोsसलके गुरु मुल्लूरके गुणसेन पण्डितदेवको सौंप दिया । परियल-देवी और मलेपरोळ् गण्डकी प्रशंसा । "रक्स- होयसळ" इन ६ अक्षरोंको अपने झण्डेपर लिखकर यदि वह उसे उड़ाता है, तो लक्षावधि शत्रु भी क्या उसका युद्धमें सामना कर सकते हैं ? ( हमेशा के अन्तिम श्लोक ) ] [EC, VI, Mūdgere tl, n° 13 ] २०२ मुल्लूर - संस्कृत तथा कन्नड़ [शक ९८६ = १०६४ ई० ] मुल्लूर ( निदुत परगना ) में, बस्ति मन्दिरमें पार्श्वनाथ बस्तिके पश्चिम में प्रथम पाषाणपर ] ( पहली ओर ) स्वस्ति शक- नृप - कालातीत - संवत्सर- शतङ्गळ् ९८६ नेय क्रोधि-संवत्सरं परिवर्त्तिसुत्तिरे तच्-चैत्र -बहुल-नवमी मङ्गळवारं पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रम्मिनोदयदल || स्वस्ति समस्त - सुरासुरेन्द्र-मकुट-तट- घटित मणि- मयूख- रेखालङ्कृत- चा ( दूसरी ओर ) रु-चरणारविन्द-युगल भगवदर्हत्-परमेश्वर-परम-भट्टारकमुख-कमल-विनिर्गतागमामृत - गम्मीराम्भोराशि- पारगरप्प श्रीमद्-गुण सेनपण्डित - देवर्म्मोक्ष-लक्ष्मी निवासके सन्दर ( तीसरी ओर ) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह गुरुगळ् सिद्धान्त-तत्त्व-प्रवचन- पटुगळ् पुष्पसेन - व्रतीन्द्रर | वर - स नन्दि - सङ्घ द्रविळ-गण-महारुङ्गाम्नाय - नाथम् । परमार्हन्त्यादि - रत्नत्रय - सकल-महा-शब्द-शास्त्रागमादि - | स्थिर-पट्-तर्क-प्रवीणर् त्रति-पति-गुणसे नारार्थ्य-प्रणूतर | [ ( उक्त मितिको ), आगमरूपी अमृतके गहरे समुद्रके पार जाने वाले श्रीमद् गुणसेन पण्डित देवने मोक्ष-लक्ष्मीका निवास प्राप्त किया। उनके गुरु पुष्पसेन प्रतीन्द्र थे । गुणसेन पण्डित - देव द्रविळ गणके नन्दिसंघके तथा महा रुसलानायके नाथ थे । ये सब विद्याओ-- व्याकरण, भागम, तर्क - में प्रवीण थे । ] २४८ [ EC, IX, Coorg tl n° 34] २०३ हुम्मच क [शक ९८७ = १०६५ ई० ] -कन्नड [ हुम्मच, चन्द्रप्रभ वस्तिकी बाहरी दीवालपर ] भद्रमस्तु जिन सा (शा) · · खस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्रीपृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय-कुळतिळकं चालुक्याभरण श्रीमत् त्रैलोक्य मल्ल- देवर् चतुस्समुद्र- पर्य्यन्तपृथ्वी - राज्यानुष्ठानदिनिरे तत्पादपद्मोपजीवि । खस्ति समधिगत- पश्चमहा-शब्द महा-मण्डलेश्वरनुत्तर- मधुरावीश्वर पट्टि - पोम्बु-पुर-वरेश्वर महोय -वश - ललाम पद्मावती- लब्ध-वर प्रसादासादित- विपुळ-तुळापुरुष-महादान - हिरण्यगर्भ त्रयाधिक दान वानर-ध्वज- विराजित - राजमान मृगराज- लाञ्छन- विराजितान्त्रयोत्पन्न बहु-कलाकीर्ण सान्तरादित्य सकलजन स्तुत्य कीर्त्ति - नारायण सौर्य्य-परायण जिन पदाराधकं रिपु-वळसाधक नीति-शास्त्रज्ञ विरुद सर्व्वज्ञ नामादि- समस्त प्रशस्ति सहित श्रीमत् त्रैलोक्यमल्ल - भुजबळ - शान्तर -देव शान्तळिगे - सासिरम निर्दायादवु निरा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घलगाम्बेका लेख २४२ कुळ माडि राज्य गेग्युत्तिन्दु स(शोक-वर्ष ९८७ नेय विश्वावसुसंवत्सरं प्रवर्तिसुत्तमिरे निजान्वय-राजधानि-पोम्बुर्चदोळ् भुजवळ-गान्तर-जिनालयके माध-मामद सुद्ध-पञ्चमी-सोमवारमुमुत्तरायण-संक्रमणदन्दु तम्म गुरुगळ कनकणन्दि-देवगर्गे धारा-पूर्वक माडि हरवरिय बिट्टम् । (यहाँ सीमाओंकी विस्तृत चर्चा भाती है)। • जिनशासनके कल्याणकी कामना । स्वस्ति । जब, (उन्हीं चालुक्य पदो सहित) चतुस्समुद्रपर्यन्त गृथ्वीके राज्यपर त्रैलोक्यमलदेव शासन कर रहे थे__तरपादपद्मोपजीवी,-जिस समय, (उन शान्तरके पदों सहित जो कि शि० ले० नं० १९७ में दिग्वाये गये हैं), लोक्यमल भुजबल-शान्तरटेव, शान्तळिगे हजारको उपद्रयों और कष्टोंसे मुक्तकर शासन कर रहे थे,-(उक्त मितिको), अपनी राजधानी पोम्बुम्र में भुजबल-शान्तर जिनालयके लिये अपने गुरु कनकनन्दि-देवको हरवरिका दान किया था. इसकी सीमायें । यसदिका ऐसा शासन (लेस) है। [EC, VIII, Nagar ti, no 59) २०४ बलगाम्बे-संस्कृत तथा कन्नड । [शक ९९०-१०६८ ई.] [यलगाग्वेमे, यसगियर-होण्डके पासके भागनमे पापाण-खण्डोपर] श्रीमत्परमगभीरस्याद्वादामोवलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ॥ खस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी-बल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर ... भट्टारक सत्याश्रय-कुल-तिलक चालक्याभरण श्रीमत्त्रैलोक्यमल्लनाहवम " "सुख-संकथा-विनोददि राज्य गेय्युत्तमिरेयिरे ॥ वृत्त । मलेपर म्माराम्परिल्लक्रमदितराटप्परिल्लुर्कि दर्छन् । ढले वाबुद्वत्तरिल्लोट्टजि-वेरसु कुरुम्बर्तरुम्बिपरिल्ले । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन-शिलालेख-संग्रह त्तलु'""वर्प दजेन्दुरिव रिपुगविल्लेम्बिन कुन्तळोज़-। तिळक त्रैलोक्यमल्ल-क्षितिपतिगे धरा-चक्रदो.."क-चक्र ।। लाट-कलिंग-गंग-करहाट-तुरुष्क-वराळ-चोळ क-। ण्णाट-सुराष्ट्र-माळव-दशाण सुकोशल-केरळादि-- शाटविकाधिपर म्मलेदुः निल्लदे कम्पमनित्तु निम्मिता- । घाटदोपि · अळवी-दोरेताहवमल्ल-देवन ।। कन्द ॥ इन्तु चतुरन्त-धात्री-। कान्तेयनळवडिसि चक्रवर्ति-श्रियम् । ता तळेदु' सुखदे पल-का- । लन्तव तव-निधिगधीशनाहव-मल्लम् ।। वृत्त ॥ म .."ध्रावन्ति-बंग-द्रविळ-कुरु-खसाभीर-पाश्चाळ-लाळा दिगळं पेसेळे कोन्दु कवर्दुमसदळे कोट्टज गोण्डुमाळो- । ळिगे दण्डु तोळ-तीनु मनद तबकमु पोगदेन्दिन्द्रन का- । डि गेलल् कप्प गोडल् वरिसि तळर्दनेकागदि सार्वभौमम् ॥ गगन-नवाक-सख्ये शक-काळदोळागिरे कीळकाब्दकम् । नेगळे तदीय-चित्र-बहुळाष्टमियोळ् रविवारदोळ् जसम् । मिगे कुरुवतियोळ् परम-योग-नियोगदे तुम् . . . 'द्रेयोळ् । जगदधिप त्रिविष्टपमनेरिदनाहवमल्ल-बल्लभम् ॥ कन्द ॥ आ-चालुक्य-ललाम-म- । हा-चक्रिय पेर्मग धरा-तळम गो त्राचळ-जळधि-परीतमन् । आ-चन्द्र-स्थायि यागळाळ्व महात्म ॥ "दित-व्योम-नवाङ्कसंख्ये सक काळं वर्त्तिसल कीळकाब्दद वैशाखद सुद्ध-सप्तमियोळ् इज्य-ज्योतियोळ् शुक्रवा-1 वृत्त ॥ रदोळत्यन्त-कुळीर-लग्नदोळिभाश्व-बात-रत्नातप-। च्छद-सिंहासन-पूज्य-राज्य-पदम सो[ मेश्वरं ताळिददम् ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलगाम्वेका लेख २५१ वृत्त ॥ जयम धर्मक्के धर्मान्चयमनसदळ साधु-वर्गके वर्ग-1 त्रयम तन्नन्तरङ्गकोडरिसि धरैय कूडे सन्मान-दान-। यदि सन्तय्से काळं कृत-युग-मयमाप्तेम्बिन तन्न राज्यो- । दयदोळ् लोकके रागोदयमोदविदुदेम् धन्यनो सार्वभौमम् ।। आ-प्रस्तावदोळ् ॥ वृत्त ॥ नव-राज्य वीर-भोज्य पुगलिदवसर सुत्तुवे गुत्तिय मु-। तुवेनेम्बी-गदिं चोळिकनधिक बळ मुत्ति मार्-गुत्तिय प- । एणुवुद केन्देत्तेनुत्तेत्तिद तुरग-धळन् तागे सप्तागदपा- । हवदोळ वेङ्गोड्ड सोमेश्वर-नृपन वळकोडिद वीर-चोळम् ।। पेसरं केन्दळिक वेळ्कु दु पर-धरणी-मण्डल गण्डु-गेट्टाळ् । वेसनं पूणदत्तु शौर्योन्नतिगगिदसुहृन्मण्डळ मेल्पनावर- । जिसिदोन्दाज्ञा-विसेपक्केळसिद्दु सुहृन्मण्डळ सन्तमिन्ता- । देसकं कैगण्मे सोमेश्वर-नृपति मही-चक्रम पाळिसुत्तम् ॥ अन्तःकण्टकर पडल्यडिसि दुर्गाधीशरं दुष्ट-सा- । मन्त-द्रोहरतुद्धताटविकरं निर्मूळनं गेय्दु वि-। क्रान्तारातिगळ कळल्चि धरेय निष्कण्टक माडि नि- । श्चिन्तं श्री-भुवनैकमल्ल-महिप राज्य गेयुत्तिर्पिनम् || वचन ॥ तत्पादपद्मोपजीवि समधिगत-पञ्च-महा-शब्द-महा-मण्डलेश्वरनुदारमहेश्वर चलके बल्गण्ड शौर्य-मार्तण्ड पतिगेक-दाश सग्राम-गरुड मनुजमान्धात कीर्ति-विख्यात गोत्र-माणिक्य विवेक-चाणिक्य पर-नारी-सहोदर Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैन-शिलालेख-संग्रह वीर-वृकोदरं कोदण्डपान्यं सौजन्य-तीत्य मण्डलिक-कण्ठीरव परचक्रभैरव राय-दण्ड-गोपाळ मलय-मण्डलिक-मृग-गार्दूळ श्रीमत् त्रैलोक्यमल्लदेव-पाद-पङ्कज-भ्रमर श्री-भुवनकमल-वल्लभराज्य-समुद्धरण पति-हिताभरण मण्डलिक-मकरव्यज विजय-कीर्ति-वज मण्डनिक-त्रिनेत्र रिपु-रायमण्डलिक-यम-ठण्ड जयागनालिङ्गित-दोर-दण्ड विसुळर-गण्ड गण्ड-भूरिश्रवनेम्बिव मोढलागे पलवुमन्वयाङ्क-मालेगळिनलकरिसि ॥ क ॥ त्रैलोक्यमल्ल-वल्लभन् - । आळेनिसिदरोळगे मिक्क पसयितनु मिकाळु मिक्षग्मिन व- । लाळु लक्ष्मणने पेररनरिवरुमोळरे । भुवन कमल्ल-देवन । भवनदोळ ताने मानस ताने महा-1 व्यवसायि ताने विजय-1 प्रवर्द्धकन् ताने पसयित लक्ष्म-नृपम् ।। अन्तेनिसि ।। वृत्त ॥ अणुगाळ कार्यद गार्यढाळ विजयदाळ चालुक्य-राज्यक्के का रणमाढाळ तुळिलान्ननक्के नेरेटाळ कायदा मिक्क म-। नणेवाळ् मान्तनदाळ नेगळ्ते-बडेदाळ विक्रान्तदाळ मेळदाळ् रणटाळाब्दन नच्चुत्राबेडेयोळ विश्वामदाळ लक्ष्मणम् ।। एरडु राज्यदोळ प्रजा-परिजन कोण्डाडे चक्रेगरि- । बरु मोरन्दद कूर्मेयिन्टे बनवासी-देशम शासनम् । बरेदश्व-द्विप-पट्टसाधन-समेत कोट्ट कारुण्यदिम् । पोरेयलमण्डलिक-त्रिणेत्रनेसेट भू-भागटोळ् लभणम् ।। किरियं विक्रम-गङ्ग भूपनेनगा-पेाडि-देवङ्गे नेगिरिय वीर-नोणम्ब-देवनेनगं पेडिग सिङ्गिगम् । किरियै नी निनगेल्लरु किरियरेन्दग्गम्सि कारुण्यदिम् । नेरे कोई प्रतिपत्ति-वृत्ति-पदम लक्ष्मने सोमेश्वरम् ।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t 1 लगाम्चेका लेख २५३ मित्रा - नाळ विभु लक्ष्मणनागे नोळम्व-सिन्दवा - 1 डिगे विभुवागे विक्रम-नोळम्बनळपुरमादियाद भू- । मिगे विभु गङ्ग- मण्डलिकनागे यमागेगे नीळ्द लाड -विण्डिगेयेने कण्डु कोडनवर्गा- नेलन भुवनैक -बल्लभम् ॥ मदवद्वैरि-नरेन्द्र मण्डलिक-सेना- भजन वीर - नी । रद-दुर्व्वार-समीरण वितरण-क्रीडा-विनोद प्रता- 1 प - दिलीपं रिपु-पुञ्जकञ्ज-वन- केळी - कुञ्जरं लञ्जिका-1 मदनास्त्र चलदङ्क-राम नृप-लक्ष्मी-लक्ष्मन लक्ष्मणं ॥ क ॥ बलिवलेत्र मलेव केलेवद-टलेव पळञ्चलेव मलेपरेल्व मुरि । मलेयद केलेयद बलियद । मलेपरनिसुवेस के बेससिद लक्ष्म- नृपम् ॥ वृ || धाळियनिट्टु कोङ्कणमनङ्कणियोक्किदप तगुळ्दु कोम्ब - 1 एकुमनट्टि मुट्टिमले - येळुमना "मुचि मुक्ति नि । लिसिटप्पनेन्दु मलेपर्त्तले दोर रायदण्ड-गो-1 पाळ-नृपङ्गे मुन्दुवरिढेन्दुःनेन्दपरेम् प्रतापियो ॥ आळवलमुड चलमिल भटाव चललुलुडम् | तोळ्वलमिल्ल भृत्य-हय-दोर्-व्वलमुळडमेर्व्वलङ्गळिल्लू । आळू वेसगेय्यढेके चलिवर् मलेपर् म्मलेयेम्बुदेनदम् । वेळवलमागे मुन्तुळिदनलने लक्ष्मणनेम्व कावणम् ॥ कवि दुग्ग चातुरङ्ग ववसे दव्वळ धाळि सूळेरेनिप्पाहवदोळ चालुक्य राम वेससे रिपु - चळक्के न्ननिन्द्रारियन्नम् । भवनन्न भद्रनन्न सिडिल वादन्न ज्वळ ज्वाळियन्नम् । जवनन्नम्मारियन्न समर- समयदोळू लक्ष्मण रामनन्नम् ॥ कुदुरेय मेले विल् परतु शूलिगे तीरिके भिण्डिवाळ | Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैन शिलालेख संग्रह त्तिद करवाळमाटिडुव कर्कडे पारुन चक्रमेन्दोडेन्त् । ओदरुवरेन्तु पायिसुवरेन्तु तरुम्बुवरेन्तु निल्परेन्त् । ओढवुवरेन्तु लक्ष्मणनोळान्तु बर्दुङ्कुवरन्य-भूभुजर् ॥ ईयल् बन्दडे कल्प-वृक्षमिदिरं बन्दान्त विद्विष्टरम् । सोयल बन्दडकाळ मृत्यु शरणायातावनीपाळरम् । कायल् बन्दडे वन-शैल-कृत-दुर्ग लौल्य-भाव परस्त्रियल बन्दडे रावणात्मज-चमू-विद्रावण लक्ष्मणम् ॥ विसुपळिदनुकुंडिगुमिन्दुव कान्ति कळल्गुमागसम् । कुसिगुमिळा-तळ तळगुमम्बुधि बत्तुगुमिल्लि लक्ष्मणम् । पुसिढोडमार्गे टेप्परमनोड्डिदोड मनमोल्दु कूडि छिन। द्रिसिदोडमन्य-नारिगे मरुळ्दोडमाहबटोळ् मरल्दडम् ॥ शत्रघ्न हरि-शौर्य्यनङ्गद-भुज सुग्रीवनात्मेश-सौमित्र रामनपामरं नर-वर दुर्योधन भीम-गा। त्र भीष्म युधिष्ठिर गुरु कृप सत्-कर्णनेन्दन्दे दल् । चित्र भाविसे लक्ष्म-भूप-चरित रामायण भारत ॥ कलितनमिल्ल चागिगे वदान्यते मेयालिंगिल्ल चागि मेय्- । गलियेनिपङ्गे गौच-गुणमिल्ल कर कलि-चागि-शौचिगम् । निले-नुडि वोजे यिल्ल कलि चागि महा-शुचि सत्य-वादि म डलिकरोळीतनेन्दुः पोगळ्गु बुध-मण्डलि लक्ष्म-भूपन ॥ कं ॥ मुनियिं किसुकञ्चवरोसे-। दु नगुवरिन्तिनिते पेरर मुनिसु मेच्चु । मुनियिसे मुनिद जब ह- । नागे हर्ष गवृषभ-लक्ष्मं लक्ष्मम् ।। एने नेगळ्द लक्ष्म-भूप । विनमित-रिपु नृपति-मकुट-घट्टितचरणम् । वनवसे-पनि»सिर- । मनाळुतु सुखदिनरसु-गेय्युत्तिन्दम् ।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलगाम्बेका लेख २५५ इरे बनवसे-पन्नि -। सिरकमाधिकारियु कार्य-धुर-। न्धरनुं तद्-राज्य-समु-1 द्धरणनुमेने नेगळ्द मन्त्रि मन्त्रि-निधानं ।। वृ॥ कविता चूताङ्कर-श्री-मद-कळ-कळकण्ठोपम काव्य-सौधा-। वर्णन-वेळा-पूर्ण-चन्द्रं सम-विषम-महा-काव्य-बल्ली-तलान्तोत्सव-चञ्चच्चञ्चरीक वसुधेगेसेदनी-नुत दण्डनाथ-। प्रवरं श्री-शान्तिनाथं परम-जिन-मताम्भोजिनी-राजहसम् ।। कुनयगळ जैन-मार्गामृत दोळिरे जल-क्षीरदन्तल्लि सद्-वा- । क्य-निशातोच्च विन्द कुमत-कलप-पानीयम तून्दि जैना- । नन- नियंत्-तत्त्व-दुग्धामृतमनखिळ-भव्योत्करं मेञ्चलाखा-। दने गेय्वोल्पिन्दमाद परम-जिन-मताम्भोजिनी-राजहंस ।। परमात्म निष्ठितात्मं जिनपति परम-खामि तद्-धर्ममार्मम् । गुरु-वन्धं वदमान-ति-पति जनकं सन्द गोविन्द राजम् । पिरियण्णं कन्नपाय तनगधिपति लक्ष्म-क्षमापालनात्मा-। वरजं वाग्भूषणं रेवणनेने नेगळ्दं धात्रियोळ् शान्तिनाथम् ।। क ॥ सहज-कवि चतुर-कवि निस्- । सहाय-कवि सुकवि सुकर-कवि मिथ्यात्वापह-कवि सुभग-कवि नुत-महा-कवीन्द्रं सरस्वती-मुख-मुकुरम् ।। सुकर-रसभावदि व- । र्णकदिं तत्त्वार्थ-निचयदि सूक्तमेनल् । सुकुमार-चरितमं पे- । द कवीन्द्राग्रणि सरस्वती-मुख-मुकुर ॥ असहायनागियुं सुज- । न-सहायं मद-विहीननागियुमर्थि-। प्रसरोत्कट-दानाधिक- । नसद्रुश-विभवं सरस्वती-मुख-मुकुर ।। वृ॥ हरहासाकाश-गङ्गा-जळ-जळरुह-नीहार-नीहार-धात्री-। धर-नीहाराशु-तारावनीधर-शरदम्मोधर-क्षीर-नीरा-1 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह कर-तारा-भारती-दिग्दनि-रदन-पीयूप-डिण्डीर-मुक्ता- । कर-कुन्देन्द्रेभ-हंसोज्वळ-विशद-यशो-वल्लभं शान्तिनाय ॥ ओडवेयनोळ्पिाने पडेदु पुञ्जिसि पूजिसि कोण-ताणदोळ् । मडगढे शिष्टरिदृडेगे बन्धुगळिल मेगप्पुदेन्दुमे- । ' नोडमे गरीरमेन्नदु नियोगद पर्वमिदेनदेन्दु मे। ळपडदिरिमेन्दु गोसने तोळवुदु... " • 'शान्तिनाथन ॥ कं ॥ एने नेगळ्द शान्तिनाथं । जिन-शासन-सत्-सरोजिनी-कलहंसम् । विनयदे निजाधिपति-ल- । क्ष्म-नृपने सु-धर्म-कार्य्यम बिन्नविकुं ॥ चश्चच्चामीकर-र । नाञ्चित-जिन रुद्र-बुद्ध-हरि-विप्र-कुलो.... 'ह-सङ्घळदि । पञ्चमठ-स्थानमेनिसुगु वळि-नगर । व ॥ अन्तु समस्त-देवता-निवास-पवित्रीभूतमप्प राजधानियोळाद जिनधर्म-प्रभावम पेळ्वडे ॥ वृ ॥ सले जम्बूद्वीपमोळ्प तळेदुदु' पलवु'""भारतो/ बळय तद्-द्वीपदोळ् रञ्जिसुगुमेसेगुमा-क्षेत्रदोळ् कुन्तळं कुन्तळदोळ् सन्त वसन्त बनवसे वनवासोचियोळ् भव्य-सेव्यम् ।। पळि-नाम-ग्राममा-ग्रामदोळमर-नुत शान्ति-ती]श-त्रासम् ॥ क ॥ अ ‘र्म-निर्मित-। मढ शिला-कर्ममागे माडिसु कोळ्यो ।। दुदु निनगे धर्ममेम्बुदुम् । अदर्के वगेढन्दु धर्म-निर्मळ-चित्तम्॥ वृ॥ जिननाथावासम वासव-कृतमेने मुन्न शिला-कर्मादि शा। सनमप्पन्तागिरल माडिसि बळिके शि .. स्तम्भम तज्जिनगेह-द्वारटोळ् निर्मिसि विलिखित-नामाङ्क-मालावळी-शा सनम चन्द्रार्क तार निले निलिसिढनेम् धन्यनो लक्ष्म-भूपम् ।। कं ॥ मिगे मूल-संघदोळ् दे- सिग-गणदोळ् सन्द कोण्डकुन्दा न्दान्वयमं । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलगाम्बेका लेख २५७ जगती-तन्त् । इरे नेगम्चिदर् नेगळ्ट-बर्द्धमानमुनीन्द्रर् ॥ वृ ।। पडेदडे पेम्पनेय्टे वडेयर् श्रुतमं श्रुतदोन्दु मय्मेयम् । पडेदडे दिव्यमप्प तपमं पडेयर् त्तपमं निरन्तरम् । पडेदडे कीर्तियं पडेयरी · · गुणगळम् । पडेवडे वर्द्धमान-मुनिपुङ्गवरन्तिरे मुन्ने नोन्तु॥ सन्ततमोन्दि निन्द तपटोळ् श्रुतदोळ गुणदोळ् विशेषरिनिन्तिवरेल्लरिं पिरियरिन्तिवर् अग्गळदग्रगण्यरोरअन्तिवरेन्दु कीर्तिपुदु कूत्त..... देव-सि-। द्धान्त-मुनीन्द्ररं नत-नरेन्द्ररनब्धि-परीत-भूतळम् ॥ मुनिसणमागलाग मुनिासें मुनियुं मुनि-बन्ध्यनागनामुनिसु ममत्वदि ममते मायेयिनन्तदु लोभदिं प्रव-। ईनकरमेन्दुः ......."वीत-कपायराद सन्मुनि मुनिचन्द्र-देवरे धरित्रिगे देव ""देवरल्लरे ॥ सार-कळा-प्रबोधित-सुदारकसर्जित-साधु-सघ-नि-। स्तारकर जात-महीजात-विदारकरुन-कर्म-सम्-। हारकरत्युदार... • सर्वणन्दि-भ-| ट्टारकरल्ते भव्य-सुकुमारक-कैरव · 'धिपर् ॥ उरग-पिशाच-भूत-विहगोग्र-नव-ग्रह-शाकिनी-निशाचर-भय .."चरदोळद्भुतदिं विपरीतमाडदम् । बरेदुदे यन्त्रमो .. — तन्त्रम् ...........। .... .. .. ... ... ... .. .. . || जित-कुसुमास्त्ररूर्जित-यशो-वनराजित-पुण्य-कर्मर-। न्वित-बहु-शास्त्ररागुत-सुशीळरधःकृत-किल्बिसर प्रबो-। शि०१७ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैन शिलालेख संग्रह धित-बुध ........ ......... ............ ........" ..."अभिविनुतर श्री-माघनन्दि-देवर प्पलवु जिन-निळ्यङ्गळम-खिळावनि वण्णिसे बलिगा ... .... .......... ......"जिन-पूजामि ...चना-निरननाहारादि-दान-प्रवर्द्धन-शील नुत-भव्य.........."हामण्डलेबरं लक्ष्मरसं श्रीमल्लिकामोद शान्तिनाथ-जि . .. कीलकसंवत्सरद भाद्रपदद पुण्णमे सोमवारद ". ""देसिगगणद ताळकोलान्वयद माघनन्दि-भट्टार ...... .."पर्गे मुन्न श्रीमञ्जगदेकमल्ल देवर व्यळिगावेय ... . ... ... ... ... .."न्दे मत्तर पन्नेरडु अल्लिय गोळपय्यन घसदिगे ..................." श्रीमचालुक्य-गङ्ग-पेनिडि-विक्रमादित्य- देवर " .. ...... ....""मुम नन्दन-बनद बसदिगे पूर्वदिन्नडेव " ....... भूप समुचित-विनय विन्नप गेय्ये ... ..... . ..."दर्प-देवम् ।। अनघश्री-शान्तितीत्यश्वर-पद · .... , ... विधि-सहित शासन माडि कोट ... • (ोशाके अन्तिम वाक्यावयव तया श्लोक) ... जिड्डळिगे गुन्दि नाल्कार पोम्मानिगर्द्धम् " एरडक्कु कृष्ण-भूमकदररे किमु " अदररेयु नोडि सिद्धायमकुम् || ... ग दासोजं खण्डरिसिहं मंगळ महा श्री ॥ . [जिन शासनकी प्रशमा। जिस समय (चालुक्य उपाधियो सहित) त्रैलोक्यमल्ल आहवमल्ल-देव शान्ति और बुद्धिमानीले राज्य कर रहे थे उन्हें लाट, कलिंग, गग, रहाट, तुरक, वराट, चोळ, कर्णाट, सुराष्ट्र, मालव, दशापर्ण, कोशल, पेरर ये मय राजा भेट देते थे। मगध, आन्ध्र, अवन्ति, वग, द्रनिळ, कुर, सस, आभीर, पाज्ञाळ, लाळ और दूसरे देशीका उन्होने नाश कर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदत्तिका लेख २५२ दिया था। शक म. ९९० में उक्त मितिको उन्होंने प्रधान योगका उत्सव किया और वे नुगभद्रामें स्वर्गवासको सिधार गये। __ इनका प्येष्ठ पुत्र सोमेश्वर था। उसका दूसरा नाम 'भुवनेंकमल' था । वह जब राज्य कर रहा था___ तत्पादपद्मोपजीवी लक्ष्मण था। उसकी बहुत-सी प्रगसा । जिस समय यह बनवसे १२००० पर राज्य कर रहा था उसका टण्डनाथ शान्तिनाथ था। उसकी प्रशसा । बलिनगर, या वलिग्राम (बलगाम्बे )में सभी धमाके मन्दिरीके होनेकी बात । राजा लक्ष्मणने भी वहाँ मन्दिर (जिन भगवान्का) बनवाया। मूल संघ, टेलिग गण और कोण्डकुन्दान्वयके वर्द्धमान मुनीन्द्र । मुनिचन्द्रदेव सिद्धान्त । इन दोनोंकी प्रशसा । इन्होंने भी जैनमन्दिर वनवाये। महामण्डलेश्वर लक्ष्मरसने, मल्लिकामोद शान्तिनाथ-मन्दिरके लिये, (उक्त मिनिको) देमिग-गण तालकोलान्वयक माधनन्दि-मट्टारको कुछ जमीन दानमें दी। दामोजने इस लेखको उत्कीर्ण किया। [EC, VIL, shukurpur tl., n° 136 ] २०५ सौदत्ति-कन्नड-भन्न [काल लुप्त'] भद्रमन्तु जिनशासनाय ॥ श्रीमन्परमगम्भीरस्याहादामोवलाच्छनं [] जीयात्रैलोक्यनायस्य आसनं जिनशासनं [1] खन्ति समस्तभुवनाश्रयं श्रीपृथ्वीवल्लभमहाराजाधिराज-परमेश्वर-परमभट्टारक सल्लाश्रयकुतिलकं चालुक्याभरणं श्रीमद्भवनकमल्लदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रावतार सनुत्तमिरे [0] तपादपद्मोपजीवि [] समविगतपच-महा-शब्द-महामण्डलेश्वर लत्तलूप्रवरेश्वर त्रिवळीतूर्य्य निर्योपणं वैरिकुळविल्यान्तकविभीषणं सिन्दूरलाञ्छनं समस्तविद्याविरिंचनं सुवर्णगस्डध्वजं विदग्धमुग्धाङ्गनामकरध्वजं रकुळवनज Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैन-शिलालेख-संग्रह वनमार्तण्डं कदनप्रचण्डं रिपुसमरवीरवृकोदर परनारीसहोदरं साहसोत्तुग सेननसिंग नामादिसमस्तप्रशस्तिसहित श्रीमन्महामंडलेश्वरं कार्त्यवीर्यरसर वंशावतारमेन्तेन्दडे ॥ श्रीरमणनतुळविजयश्रीरमण विपुळ विमळ समुदित कीर्ति श्रीरमण चतुरवचःश्रीरमणं नन्नभूपननुपरूप ॥ आतन तनय । स्थिरनुडिव कलिननदोळ्पोरेदाळिं मुन्नमिरिवनेन्दडे सकळोवरेयोळ् कत्तन सत्यद दोरेग गौर्यद पोगळ्केगं समनोरे ॥ अन्तेनिसिद वीरकत्तरसनि पिरिय ॥ ३ ॥ वसुधा चक्रदोळेन्तु वण्णिसुवदं तन्न(न्ना) [ ] तन्नेळो तन्नेसक तन्न पोगर्ने तन्न विभवं तन्नोजे तन्नुद्धसाहससंपन्नतेयिं धरावळ्यम नानाविध (घ) कूडे मुद्रिसिद रट्टर मेरु डायिम महीपाळं नृपाळोत्तमं ॥ तदनुज ॥ सुरकुजम पळचबु[दी]वगुण सले संद वज्र पजरमननागतं पिित्तप्दु [का]वगुणं परीक्षिसल् सरधियनेय्डे रेगपुदु तन्न गभीरगुण समस्तदिक्परिवृड(ढ)देळ्गेयं नगुवुदुद्वगुण(ण) कलिकन्नभूपन । तत्सुत ।। क ॥ निरुपम समस्त कडेयोळरसिज भवनेसेव वाद्यविद्याधरनोळरसंकसंकर कप्परवर्पनेरेगे नेगर्डनेरेग महीश ॥ तदनुज ॥ ॥ कदनदोळान्तरातिगहि[ यल्ल ]ढ राहुविजाति रूपनल्लढ विनतासु [ हगेयु ]_() दळुरियल्लद देहिकालनलढ जवन ॥'म () वे गतनल्लद वादव(न)न्त मानविल्लध (द) रवियेन्दोडापदटरा[रु रणा]प्रढोळकभूपन ॥ तदप्रजनप्पेरंगभूपात्मज !! असुहृद्भूपकिरीटताडितपट वीरागनालिग(लिं)गनोल्लसिता] ग हरहासकाशशिकान्ताकाशगंगाजळप्रसरामोघदिगतकीर्ति तपनप्रद्योतसन्मूर्ति सन्द सु(सा)जद्गुणदीपवर्ति नेगर्दि] श्री सेनभूपाळक ॥ तत्तनय ॥ अरिभूपाळ कृशान्तनुद्धतरिपुदमापाळसंदोह Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदत्तिका लेख २६१ शीकर काळानळनु (ने).........."तदम्प (१) भयंकरविद्विीड्महिपाळ मेघलयकाळोत्पातवातं क्षितीश्वर-चूडामणि]........... [1] श्रीवनितेशं कीर्तिश्रीवनिताधीशनुदित संशुद्धवच(चः)श्रीरमणीशं वीर (श्री) ............! जिन] नाराधिपदेवनुद्धचरितविद्यावन".......... टासनधर्मा (1) रुगन्विरो...... जनकनुबिजाते प्रत्यक्ष गोमिनि तायि मैळलदेवियेन्दधिक............."नोळ्दमतक्किवर्प () री क्षितिपति सैनि () र वधूप्रकर......."दिति.... • आतन कुळांगने [1] श्री वनिते ताने बन्दु मही वनितेगे तिळकमेनिसि कत्तन वक्ष (क्षः) श्रीवनिते नेगई [भाग]लदेवी जगजननि सज्जनाग्रणियेनिकु ॥ आ दपतिगळगे गिरिसुतेग हरगमनुरागदे पण्मुखनेन्तु पुट्ठवंत(वि)रे नेगर्द रुग्भिणिगमा ह[रिगं] स्मरनेन्तु पुष्टुवन्तिरे सले कान्तिग रविगमकतनूभव नेतुपुटुचन्तिरलवग्गोल्दुः पुट्टिदनु रगु कलि सेनभूभुज ॥ अवनीपालानत श्री[ पद ]कमलयुग तत्वनिर्णिक्तराद्धान्तविद चारित्ररत्नाकरनमळवच(चः)श्रीवधूकान्तन गोद्भवदारण्यदावानळनुदितलसद्बोधसशुद्धनेत्र रविचन्द्रस्वामि भव्याम्बुजदिनपनघौघाद्रिसद्वज्रपात ॥ क ॥ कडूगणाब्धिचन्द्रन खण्डितसुतपोविभासिखण्डितमदनं डिंडीरपिंड सुरवेदण (ण्ड)[य]शश पिण्डनहणंदि मुनीन्द्र ।। मल्लिकामाले ॥ कन्तुराजगजेन्द्रकेसरि भ[ व्यलोकसुखाकर कान्तवाग्वनितामनोरमनुप्रवीरतपो]मय शान्तमूर्ति दिगन्तकीर्तिविराजि द्रडा ( ढाभिमानी रणभूसेनानि रट्टान्वयश्रीनेत्र बुधमित्र नुव (जब ) ळयशपात्रं नृपं रजिपं आ सेनावनिपगमप्रतिमलक्ष्मीदेविंग पुट्टिद । भूसंरक्षणदक्षदक्षिणभुज विध्वस्तशत्रुन (ब) जं त्रासानम्रनृपालपाळितजयश्रीस(श)स्तान्विता Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैन-शिलालेख संग्रह भास सूनृतवाग्विळासनवनीनाथोत्तमं कत्तमं ।। आ विभुविन वधु पद्मलदेवी कळारूपविभवजिनमतदोब्वाग्देवी रतिदेवी लक्ष्मीदेवी शचीदेवियेनिसि मिगे सोगयिसुवळ् ।। श्रीपति ना विष्णुः पृथुवीपति येने लक्ष्मीदेवनोगेदु वसुदेवोपमकत्तमविभुगं श्रीपालदेवियेम्ब मुतदेवकिग ॥ प्रकटिततेजनन्वयसरोजसमूहविकासि(शि) सज्जनप्रकररथाग सम्मटकर (२) नियताभ्युदयप्रशोभिताधिकनिजमण्डळ जितकलंक पवित्रचरित्रनागि चन्द्रिकेगधिनाथनादनिदु विस्मयन्त प्रभुलक्ष्मीभूभुज ॥ श्रीयुवतीशहेमगरुडध्वजमडितमण्डलेश्वरनारायणलक्ष्मणंगे तनुजम्भुजदन्ते धरोरुभारधौरेयरनून दानजयधर्मधरचिभुकार्तवीर्यलक्ष्मीयुतमल्लिकार्जुन महीश्वररादरतक्यविक्रमर् ॥ परचक्र निजविक्रमक्क्रगिदु तेजःच ( जश्न ) क्रम वि१ कोवर चक्रक्केणे र्याप्पनन्तिरेविनं दिक्चक्रम व्यापिसुत्तिरे यह लेख भी एक टुकडा है और उस पापाण-तलसे लिया गया है जो मि० फ्लीटको उस मन्दिरके आँगनमें आधा गड़ा हुआ मिला था जिसमें कि पूर्वके दो लेख (नं १३० और १६०) मिले थे। इसमे ननसे ले कर कार्तवीर्य द्वितीय तककी वशावली मिलती है । का० वि० को चालुक्य राजा भुवनैकमलदेव या सोमेश्वर द्वितीय बतलाया गया है। इसका काल सर डब्ल्यू इलियट (Sir W Ellhot) ने शक ९९१ १ (१०६९७० ई.) से लेकर शक ९९८ ( १०७६-७ ई.) तक बताया है । इसमें उसके पुत्र सेन द्वितीयका नाम भी आता है, लेकिन लेखकी वंशावलिके भागका मुख्य उद्देश्य स्पष्टत ७ वी पक्तिमें है जिसमे कार्तवीर्यकी सन्तान-परम्पराका उल्लेख है । यही कार्तवीर्य उस समय अपने कुटुम्बका प्रतिनिधि था, उसका पुत्र सेन नहीं, क्योकि वह उस समय निरा बच्चा रहा होगा । दानगत लेखका भाग लुप्त है। ] [JB, X, p 172, 3, p 213-216, t, p217-219, tr (ins n° 4)] Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दलिकेका लेख २०६ मुल्लूर - संस्कृत तथा कन्नड [ काल लुप्त पर लगभग १०७० ई० ] [ मुल्लूर ( निदुत परगना ) में, पार्श्वनाम वस्तिके पश्चिममे तीसरे पापाणपर ] • यानिधि सत्या विनिर्गत....... वर्ण............द्यामुलं... पाळ-भूत वरसिद कारुणियोदय.... यम्वन्तिरे स..... . • तुळ्ळिन CGE. • ***... * लोक्यविख्याते . पनिद .... • 'ल-देवि ॥ भूतल यण मोक्षदे माळि .... नवचन काय वद्दिग त दिविजलोक ॥ खं .. .. २६३ .....पृथुविकोङ्गाळवनरसि" [ यह समस्त लेख बहुत विगडा हुआ है। किसी मरे हुएका स्मारक है । और पृथुविकोङ्गाळवकी रानी ] [ EC, IX, Coorg tl, n°36] २०७ बन्द लिके - संस्कृत तथा कन्नड़-भग्न [शक ९९६ = १०७४ ई० ] [ बन्दलिकेमे, उसी वस्तिके उत्तरकी ओरके एक दूसरे पाषाणपर ] भद्रं समन्तभद्रस्य पूज्यपादस्य सन्मतेः । अकलंक - गुरोर्भूयात् शासनाय जिनेशिनः ॥ श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाच्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् || स्वस्ति श्री प्रमदा-प्रमोद-जनकं यस्योरु वक्ष स्थलम् यद्दोर्द्दण्ड-कृतान्तवक्त्र-विवरे मग्नं द्विपट्-पार्थिवैः । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैन-शिलालेख संग्रह यस्येय वसुधा चतुजलनिधियविटिता प्रेयसी जीयाच्छी-भुवनैकमल्ल-नृपतिः सोऽयं नतानन्दनः ॥ नोट नरपाल मौलि-विळसन्माणिक्य-लीटाक्षिणा श्रीमद्-मच्छ-सुतेन शासनमहो दत्तं द्विपण्माथिना । आहारादि-चतुर्विधं मुनिगणे दानं च यस्य प्रियम् तेनाप्त कुलचन्द्र-देव-मुनिना शुभ्राभ्र-सत्-कीर्तिना(म्) ॥ स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय-कुळ-तिळकं चालुक्याभरण श्रीमद्-भुवनैकमल्लटेवर विजय-राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रबर्द्धमानमाचन्द्राईतार-बरं सलत्तमिरे बकापुरद नेलेबीडिनोळ् सुख-संकया-विनोददि राज्यं गेय्युत्तमिरे ॥ तत्पादपद्मोपजीवि स्वस्ति समस्त-भुवन-प्रस्तुत-ब्रह्म-क्षत्र-वीरान्बय श्रीपृथ्वी-बल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर कोळाळ-पुरवरेश्वर विक्रम-गङ्ग जयदुत्तरङ्गं ... मणि मण्डलिक-मकुट-चूडामणि श्रीमच्चा ....... पेाडि भुवनैक-वीरनुदयादित्यनुं चालु ल-स्तम्भ नर-वैद्य कुमार-मण्डलिक बुद्धर " गेय्यलु श्रीमद्-भुवनैकमल्ल-देवरु भर ... . ..'क्रवर्ति-नवीकृतमप्प बन्दणिके-य तीर्थ शान्तिनाथ-देव.... ‘त-नवीकार 'लाप्रवर्तन .." कालान्तरित-पु " 'नव "द कम्पणं नागरखण्ड ... बाड शक-वप ९९६ रनेय आ .... 'द पुष्य-मासदुत्तरायण-सक्रमण " ..' श्री-मूल-संघान्वय-क्राणूर-ग्गण... • च्छद श्रीमदुभयसिद्धान्त-वार्द्धि-चू .. .."प्प राम(परमा)नन्दि-सिद्धान्त-देवर शिष्यरु कुळ..."देवर काल कर्चि सर्व-नमश्य धारा-पूर्व । व्रशासनमु शिला-शासनमुं माडि .....(हमेशाके अन्तिम वाक्यावयव ... Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलगाम्वेका लेख २६५ और श्लोक)........त रितोक्ति-सहित.... ......"खं मुखाब्ज-लसित ......" मनोदयं सद"....."मदनेम्बिनं नेगळ्द..........( हमेशाका अन्तिम श्लोक)। [जिनशासनके कल्याणकी कामना । श्रीमद् मल्लके पुत्रद्वारा यह शासन (दान) कुलचन्द्र-देव-मुनिको मिला था । जिस समय (चालुक्य पदों महित) भुवनकमल देवका विजय-राज्य प्रवर्द्धमान था और चे बकापुरमें रहते थे.-तत्पादपनोपजीवी चालुत्य पेाडि भुवनैकवीर उदयादित्य शासन कर रहे थे-भुवनैकमाल-देवने शान्तिनाथ मन्दिरके लिये, (उक मितिको), मूलसंघान्वय तथा काणूर-गणके परमानन्द-सिदान्त-देवके शिष्य कुलचन्द्र-देवको नागरखण्डमें भूमिटान किया।] [EC, VII, Shikarpur ti, n* 221 ] चलगाम्बे-कनड़ [विना काल निर्देशका, पर संभवत लगभग ५०७५ ई० ?] [वलगाम्बेमें, चन्न वसवप्पके सेतमें भग्न जिन-मूर्तिपर ] (नागरी अक्षर) स्वस्ति श्री चित्रकूटाम्नायदावलि मालवद शान्तिनाथ-देवसम्बन्ध श्री-बलात्कार-गण मुनिचन्द्र-सिद्धान्त-देवर गिसिनु अनन्तकीर्ति देवरु हेगडे केसव-देवङ्गे धारा-पूर्वक माडि कोटेवु प्रथिष्टे पुण्य सान्ति (यहाँ दानकी विगत दी हुई है)। [बलात्कार-गणके, मालवके शान्ति-नाथ-देवले सम्बन्धित चित्रकूटानायके मुनिचन्द्र-सिद्धान्त-देवके शिष्य अनन्तकीर्चि-देवने हेग्गडे केशवदेवको दान दिया ( यहाँ उसकी विगत है)।] [EC, VII, shikapur ti, n° 134.J Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह २०९ कुप्पुहरू-कन्नड़ [शक ९९७-१०७५ ई०] श्रीमज्जयत्यनेकान्त-बाद-सम्पादितोदयम् । निष्प्रत्यूह-नमपाकशासन जिन-शासनम् ॥ पदिनाल्कु • • • • आस्पदमा-1 दुदशेष-लोकमल्लिर-प्पुटु मध्यम- एक-रज्जु-प्रमितम् ।। आ-मध्यम-लोकद .... • • ."नडुवण । पोम्बेडद तेकलेसेव भरतावनि - "|| .. "बुजवदनेय कुन्तळव् । एम्बन्ते सेदत्तु ललित .......... || कुन्तळ-भूतळक्के तोडवादुदु ता वनवासि-देशमो-। रन्तेसेवग्रहार-पुर-पल्लिगळिन्दुरु-नन्दनाळियिन् । दं तुरुगिर्द शाळि-बनदिन्द . . ." । क्रान्त-विरोधियि१ वनवासियोळन्वय-राजधानियोळ् ॥ खस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डळेश्वर वनवासि-पुरवराधीश्वर"..... लब्ध-वर-प्रसाद कादम्ब-कुळ-कमळ-मार्तण्डनेनिसिद कीर्ति-देवन वश-वीर्य-प्रभावमेन्तेन्दडे ॥ विनुतानन्द-जिन-व्रतीन्द्र-भगिनी ..... वन-जैनाघि-सरोज-भृगनधिकाभ्यस्तास्त्र-शास्त्र । "तुतोर्तीज-तळ-प्रसूति-वर-वानप्रस्थ-तद्-योगि-पू-। जन-शीलं वनवासियागि... · इन्द्रोत्तमम् ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुप्पुरुका लेख शासन-देवियिं कुडिसि राज्यमना... " तद्-वनम् । देशमदागि निर्मिसि नोसल्गिडे पट्टमितेन्दु पीलियम् । वास्". . . .""बतिक्का-विभुविङ्गवे नाममादुवुद्- । भासि मय् ."वर्मनभिवन्द्य-कदम्ब-कुळ त्रिलोचनम् ॥ नयदा मयूरवा -चय'' . . 'अलर्चिदं कुवळयमम् । जय-लक्ष्मी-रमण "जय-भुज-वळनमळकीर्ति कीति-नृपाळ ॥ असम-वितरण : स-भीम कीर्ति-देवनेम्बी-पेसरम् । वसुचे कुडे पडेदनेण्टु-देसेयानेगे कीर्ति कीर्ति-मुख्यवाद्दरिम् ॥ कि कर्णः किं ..." विज-पतिष् किं स्मरः कि विधाता दानी नून प्रतापी पृथु र-विभवश्वारु-रूपप् कला-वित् । य" यस्येति नित्य वितरण-विजय " ...न्दर्य-विद्या-। वार्द्धिस् संस्तूयतेऽसौ सकळ-रिपु-कुलो · "नः कीर्ति-देवः॥ चलदि साधिसि सप्त-कोकणमनाटन्दिकि विद्विष्ट-मण.......... "उन्धरा-वळयमड् केयूरमं पेत्तल् । तळे""दक्षिण-बाहु-दण्डदोळुदात्त कीर्ति-देवं यशो-। मळ-मुक्ता-फळ "" " णोचित-लसद्-दिक्-कामिनी-सङ्कुळम् ।। आ-कीर्ति-देवनग्रमहिषी ॥ परिवार-सुरभि जिनमत- शरधि-सुधाकिरण-लेखे सुचरि। भरणेयेने नेगळ्द नृप- सौन्- दरि माळल-देवियेणेगे राणिय-रेणेये । पुरु-जिन-पति कुल-देव्यं । गुरु वेद "मुनि कीर्ति नृपेश्वरम् । आत्म-कान्तनेने वा-| पुरे माळल-देवि-राणियेणेयार स्सतियर् ॥ सिरि गिरिजाते सीते रति भा'"रुक्मिणि-देवि रूप-सौन्द रतेगे पेर्मेगुद्ध...:""कधिकं सुबगिङ्गे सत्कळा-न Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह करतेगण जिनेन्द्र-पद-भक्तिगे पासटि......। सरि कलि-कीर्ति-देवन कुळाङ्गने माळल-देवि-राणियोळ् ॥ मिळिवं पताकेगळ् मकर-तोरण-मण्डलि मान-गम्बमग-। गळिसिरे .. .."चैत्य-गृहावळि लेकिपङ्गे सङ्गलिपडे लक्केग मिगिलशेप-जन तणिवन्तु कोळ्व पूमळेयोळे नोम्प नोम्पि सतकोटिये माळल.......॥ व ॥ आ-वनवासे नाडोळु ॥ बळेद सुगन्धि-शाळि-बनदिन्दोळगोप्पुव नारिकेळ-कादळ-नव-पूग-नागलतिका-बनदि परि......"ळदिम् । वळयितमागि विप्र-सुर-चित्र-निकेतन-माळेयिन्दे कणगोळिपुदु कुप्पटर स्सकळ-विद्येगे तानेने जन्म-भूतलम् ॥ नेगळ्दखिवळ “ति-पुराण-कळा-बहु-तर्क-तन्न-पारगरुचिताध्वरावभृय-सस्नपनाति पवित्र-गावरत्यगणित-सत्य-शौच “तिथि-पूजन-देव-पूजेयिम् । सोगयिप कुप्पटूर विभु-विपरिटेम् भुवन-प्रसिद्धरो ।। धरेगे चतुस्समय-समु ।... . शरणागतैक-रक्षामणिगळ् । निरवद्य-चरितराज्ञा-। धररारी कुप्पटूर सासिर्वरवोल् ।। ब्रह्मैकश्चतुरा " थ विबुधा देवाः कविर्गिवो येपामग्रत एव नान्य इति ये प्रस्तुल्य-विद्यार्णवाः । उत्तङ्गाः कुळशैळवत्तरणिवत्तेजखिनो वावित् गम्भीरा भुवि कुप्पटूर्-ब्विभु-वरा विप्रा जयन्ति स्थिरम् ॥ प्राणुत वन्दणिका-सु "कृत-सम्बन्ध जगक्केय्दे भूषणमी-ब्रह्म-जिनालयं दलेने पेळ्दी-कुप्पट्ररोळ् गुणो-। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुप्पहरुका लेख २६९ ज्वने मु मा....... दी-स्थलकदेडे-नाडोळ् चल्वु-वेतिई - सिद्ध । डणियं माळल-देवि ता विडिसिदळ श्री-कीर्ति-भूपाळनिम् ॥ अन्ता-वन्दणिका-तीर्त्यादि-सकळ चैत्यालयकाचार्यरु मण्डळाचाय॑स्मेनिसिद पद्मनन्दि-सिद्धान्त-देवर गुरु-कु...... 'न्वय-प्रभावमेन्तेन्दोडे ॥ दुरित-कुलान्तक चरम-तीर्थकरं विभु वीरनाथनी-1 धरे तिळिवन्तु हेयमिद"....."समस्त-तत्त्वमम् ॥ परिविडियिन्दे पेन्दु जनमं वर-मोक्ष-पथक्के तिईि वित्- 1 तरिसिद मुक्ति-कान्तेय लतागमनप्पिदनिन्द्र-बन्दि -॥ आ-नेगळ्दन्त्य-कश्यपनिनादुदु काश्यप-गोत्रमी-जनम् । ज्ञान-निधानना-जिनन सद्गण-नायकरग्रिमावधि- । ज्ञानिगळप्प गौतम-मुनि"" मु" रे श्रुतकेवळ प्रभा-1 भानुगळप्प विष्णु-मुनि मुख्यरुमा-पथम निमिचिदर् ।। यतिगळवरिन्दे पलवरुन् । अतीतवा " बठिकमवतरिसि वहु-। श्रुतनागियु वल वि- । श्रुतनाद भद्रबाहु-यतियिदुचित्रम् ॥ अवरि वळिके ।। श्रुत-पारगरनवद्यर् । चतुरङ्गुळ चारणर्द्धि-सम्पन्न स्सं-1 हृत-कु-मत-तत्त्वरेनिसिदर । अतर्य-गुण-जलधिकुण्डकुन्दाचार्य्यर ॥ आ-कोण्डकुन्दान्वयदोलु ॥ श्री कुण्डकुन्दान्वय-मूलसंघे क्राणूर-गणे गच्छ-सु-तित्रिणीके (य) अम्भोनिधाविन्दुरिवोदपादि सिद्धान्ति-चक्रेश्वर-पद्मनन्दी ।। शान्त-रसं पोनल्वरिदु सयमवल्लि मडल्तु पचि तो-। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैन - शिलालेख संग्रह चराचर त्रजमनात्म-वचोऽमृतदिं विनेयर । स्वान्त- रजो-मळ तोळेदु पोतेने पे बुध - पद्मनन्दि - सि । द्धान्तिक-चक्रवर्तियनदार् पोगर ग्गुण- गील-मूर्त्तियम् ॥ .... आ-प्रतिष्ठाचार्य्यरेनिसिद श्री पद्मनन्दि- सिद्धान्ति-देवरिं सु-प्रतिष्ठितमाद कुप्पटूर श्री पार्श्वदेवर चैत्यालयम पट्ट-मा- देवि माळलदेवि नेरेये माडिसि स्वस्ति यम-नियम - खाध्याय - ध्यान-धारण- मौनानुष्ठानजप-समाधि-शील-गुण-सम्पन्नरप्प श्रीमदनादियग्रहार कुप्पटूरोप -महाजनङ्गळ ययोक्त-विधिथिं पूजिसियवरिं ब्रह्म - जिनालय मेन्दु पेसरियल्लिय कोटी वर-मूलस्थान- प्रमुख-पदिनेण्टु-स्थानदाचार्य्यरु वेरसु बनवसेय मधुकेश्वर देवरा चार वरिसि पूजेयं को जोग-बगेय-निक्किसियामहाजनङ्गग्गेियय्नूरु-होन कोड स्त (स्थ) ल-वृत्ति ( आगेकी ३ पक्तियोमें टानकी विस्तृत चर्चा है ) शक- नृप - वर्पद ९९७ य पिङ्गल- संवत्सर दक्षय- तदिगेयमावास्ये- आदित्यवार - संक्रमण व्यतीपातवोन्दिद दिनदोल देवर नित्य-नैमित्त-पूजेग ऋपियराहार- दानक्कवेन्दु पद्मन्दिसिद्धान्तिचक्रवर्त्तिगळ् काल तोळेदु धारा- पूर्वक माडि कोहळु ( हमेशा के अन्तिम वाक्यावयव ) आरुवणव नमस्यवागि विवरु ॥ ( हमेशा के अन्तिम श्लोक ) वम्मरहरियण्ण हेन्द शासन मङ्गळ महाश्री ॥ [मेरु पर्वत, भरत क्षेत्र, कुन्तल - देश, और वनवासिके उल्लेख पूर्वक.कादम्ब कुल-कमल मार्त्तण्ड कीर्त्ति देव राज्य करते थे, जिनका वशावतार निम्न प्रकार हे - मयूरवर्म्मा नामके एक राजा या युवराज थे । शासनदेवीकी कृपा से इनको राज्य मिला था, और एक वनको राज्यके रूपमे रूपान्तरित किया गया था । एक मयूरके पचोका बनाया हुमा पट्ट उनके सिरपर रक्खा गया था, इसलिए उनका नाम मयूरवर्म्मा था । ये कदम्बto अभिवन्द्य थे | उन्हींकी साक्षात् सन्तान कीर्त्ति देव थे, उनकी 11 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुप्पटूरुका लेख ২৬২ प्रशसा। उन्होने सप्त कोंकणोको, लीलामानमें ही वश कर लिया था। उनकी ज्येष्ठ रानी माळल-देवी थी, उसकी प्रशंसा । उस वनवासे-नाइमें, (अनेक भाकर्षणो सहित) कुप्पटूर था, जिसके हजार ब्राह्मण अपनी विद्या और भक्ति के लिये विख्यात थे। प्रसिद्ध बन्दणिकेसे सम्बन्ध रखनेवाली चीजोंसेसे कुप्पटूरका ब्रह्म-जिनालय सबसे आगे था; इसके लिये माळल-देवीने राजा कीर्तिसे सिड्डाण, जो एडे-नाइमें सर्व सुन्दर स्थान था, प्राप्त किया था। वन्दणिके तीर्थ तथा दूसरे चैत्यालयोके मुख्य पुरोहित मण्डलाचार्य पद्मनन्दिसिद्धान्तदेवके माध्यात्मिक वंशका अवतार वर्णन:-भगवान वीरनाथ, गणधर गौतम (इन्द्रभूति )मुनि, तथा श्रुत-केवली विष्णुमुनि ये तीन ऐसे व्यक्ति थे जिन्होने जिन-मार्गका विशेष रूपसे विस्तार किया। उनके बाद कई मुनियोके गुजर जानेके वाद भद्रबाहु यति हुए । उनके बाद, जैनपरम्परामें परिपूर्णरूपसे निष्णात, चार अद्गुल ऊपर जमीनसे चलनेवाले (चारणकद्धिधारक) कुन्दकुन्दाचार्य हुए। उसी कुन्दकुन्दान्वयमें मूलसंघ, काणूर्-गण तथा तिन्त्रिणीक-गच्छके सिद्धान्ति-चक्रेश्वर पद्मनन्दि हुए, उनकी प्रशसा। उस पट्ट-महिपी माळल-देवीने कुप्पटूरके पार्श्व-देवचैत्यालयको उन पद्मनन्दिसिद्धान्त देवसे सुसंस्कृत कराके और उसका नाम वहाँके ब्राह्मणों (जिनमें साधुओ-मुनियोके गुण थे) से 'ब्रह्म जिनालय' रखवाकर कोटी श्वर-मूलस्थान तथा वहाँके सभी अन्य १८ मन्दिरोके पुरोहितोके साथ, तथा बनवासि मधुकेश्वरको भी बुलवा कर उनकी पूजा करके और उन्हे ५०० 'होन्नु' देकर, और उनसे (उक्त) भूमियाँ प्राप्त करके,इन सबको तथा कीर्ति-देवसे प्राप्त सिड्डणिवाल्लिको ( उक्त मितिको) प्राप्तकर, पद्मनन्दि सिद्धान्त-चक्रवर्तिके पाद-प्रक्षाल-पूर्वक दैनिक पूजा और ऋपियोके आहारके लिये दान कर दिया। [EC, VIII, sorab tl, n° 2627 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैन-शिलालेख-संग्रह गुडिगेरी-कन्नड़-भन्न [शक सं० ९९८-१०७६ ई.] १- - - लवर बसदि [ म्|| || सर -- - - -- ------- 00 -- नय-मूकरनन्तदु' मागे वान२ याकरनभयाकर द्विज-दिवाकरन्- --- भीकरं बुध-निशाकरनुद्घयश प्रभाकरम् ॥ अन्तेनिसिद पेगडे ३ प्रभाकरय्यननुभवणेयल्ल ॥ ॐ खस्ति समस्त-भुवनवलयनिलय-निरतिशय-केवलज्ञान-नेत्रतृतीय-विराजमानभगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागपरमेश्वरपरमभट्टारकमुखकमलविनिर्ग तानेक-सदसदादिवस्तुखरूपनिरूपणप्रवीणसिद्धा५ न्तादि-समस्तशास्त्रामृतपारावारपारगरुमनेकनृपतिमकुटतटघटि तमणिगणकिरणजलधारावातावदातपूतचर६ णारविन्दरु बुधजनमनःपुण्डरीकवनमार्तण्डर पट्तर्कपण्मुखरु परमतपश्चरणनिरतरु परवादिशरभभेरुण्डापर७ नामधेयरम्प श्रीमत् श्रीनन्दिपण्डितदेवराचार्य्यरागि तपो राज्य-गेय्युत्तमिरे ॥ १ ॥ जिनसमयागमाम्बुनिधिपारगरु८ प्रतपोनिवासिगळ् मनसिज-बैरिगळ शम-दमाम्बुधिगळ् वुध सज्जनस्तुतबिनतनरेन्द्ररुन्द्रमकुटार्चितपादपयोज९ युग्मरेम्बिनितु महत्त्वदि सिरियनन्दि-मुनीन्द्ररे देवरुर्वियोळ् । अवर शिपितियर ॥ शम-दम-यम-नियमयुतबि Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ गुडिगेरीका लेख १० मल-चरित्रर् जिनेन्द्रधर्मोद्धरणक्रमनिरतरेलेले लोकोत्तमरेसेवष्टो पवासिगन्तियरेळेयोल् ॥ ६ ॥ अन्तबरेछु ११ मत्तरने पण्डितरीये नमस्यमागि कल्पान्तदिन वर पडेदु पार्श्व जिनेम्वर-पूजेग श्रुतात्यन्तसदान्नदान१२ विधिग सले कोरिद नितान्तवोरन्तिरे रक्षिप[२] ध्वज तटाकद पन्नेरडु-गवुण्ड्डगल् ।। ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।। १३ ॐ समस्तगुणसम्पन्ननप्प श्रीमत्सेनबोव सिङ्गण्णने ॥ ___अरुहने नम्बिट देय्व गुरुगळु परवादि-शरभ-भेरुण्ड१४ बुधपर-हितमे तनगे चरित दोरे-वेत्तदु सिङ्गनेम् कृतार्थनो जगटोळ् ॥ परमश्रीजैनधर्मक्कनवरतविशेषान्नदानक्के १५ मुन्न भरत श्रेयासनीगळु निजकुलतिलक जैनधर्माधिचन्द्र स्फुरदुद्यत्तेजनत्युन्नतनमलया शिष्टरत्नाकरं१६ वाप्पुरे सिङ्गं भव्यसेव्य शुचि-शुभचरित धात्रियोळु पुण्य पुञ्जम् ॥ कन्द ॥ परहितचरित्रननुपमवरगुणनिल१७ य प्रियम्वदं धर्मदनभरपक्षपाति यतिपति-सिरिणन्दिव(ब)ति पदाजभृङ्ग सिङ्गम् || अमलचरित्र वुधहृत्क१८ मलाकरदिनकर कृतार्थ जैनक्रमनलिनेष्ट श्रीनन्दिमुनीन्द्रर सेनबोवसिङ्गं धरेयोळ् । अन्तेनिसिद ॥ ॐ॥ १९ शकवर्ष ९९८ नेय नल-संवत्सरद श्राहेयोल्ल खस्ति श्रीमत् परवादि-गरभभेरुण्डापरनामधेयरप्प २० श्रीनन्दिपण्डितदेवर्मुन्न श्रीमत् चालुक्य-चक्रवत्तिविजया दित्यवल्लभानुजेयप्प श्रीमत् कुङ्कुम-महाशि० १८ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૯૪ जैन-शिलालेख संग्रह २१ देवि पुरिगेरेयलु माडिसिटानेसेन्जेय-बसदिगे ताम्ब (ताम्र) ___ शासन-मर्यादेयिन्दाळ्व गुडिगेरेय भूमियोळगे प२२ डुबण पोलनोत्तु-बोगिन्दडे कालदिय-नायिम्मरसगे शासनम तोर पडेद भूमियोळगे तम्म गुड्ड सिङ्गय्यंगे कारु२३ ण्यदि सक्नमस्यमागि पदिनाल्कु मत्तरं दयेोग्दु' कोट्टदा. ___ यय्यना पदिनाल्कु मत्तरुम ऋपियर्गे गुडि२४ गेरेयोळ आहारटान नरेवन्तागि विटनी केयोळ् पुटिदर्थ मन्निल्लियाहारदानक्कलदे पेरतोन्दु धर्मकं २५ पेरतोन्देडेगमुष्यलागदिन्ती मादेयनरसु पण्डितरु पनिव गर्गावुण्डुगळु धर्मवरिववरेल२६ रुवोडेयरागि परिरक्षे गेय्दुः खधर्मादिं नडसुवुदुः ॥ कन्द ॥ गुडिगेरेयोल्ल धर्मगळिगोडरिसुववरेल्ल २७ वोडेयरी धर्म कावोडेयरेमोरे वेनवेदडुपति रवि जलधि धात्रि निलपन्नेवर ॥ अन्तु सिङ्गणं विट २८ केयो चतुस्सीमेयेन्तेने मूड वन्दि-गावुण्डन केयि तेङ्क पुल्लुङ्गूर बट्टे मडव बसदिय केय्यु [] २९ नाकय्यन केयि बडग गावुण्डुगळ पसुगेय पोलनन्तु मत्तप दिनाल्कु ॥ मत्तमष्टोपवासि-कन्तियर ३० विट्ट केय्गे चतुस्सीमेयेन्तेने मूड बनगेरिय केयि तेङ्क ग्रामचै त्सालयद केयि पडुव पेगडे ३१ प्रभाकरय्यन केयि बडग पुल्लुङ्गर वट्टेयन्तु मत्तरेलुमनिन्ती येरडुं पर्यायद मत्तरिपत्तो Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुडिगेरीका लेख २७५ ३२ न्दुम प्रतिपालिसुचवर्गे वारणासि कुरुक्षेत्रं प्रयागेयग्य॒तीर्थ मोदलागि पुण्यतीर्थङ्गयो३३ लु मूर्यग्रहणटोळु सासिर कविलेयनलकारसहित चतुर्वेदपार गरप्प सासिाह्म३४ ण युभयमुखिगोट्ट प(फ)लमकुवी धर्ममनळियल मनद दवर्गेयिन्ती पुण्य-तीर्थङ्गकोळु सासि३५ रकविलेयुम [म्] सासिाह्मणरुमनजिद पञ्चमहापातकनक्कु ॥ ___ ॐ स्वस्ति श्रीमत् परवादि-शरभ-मे३६ रुण्डापरनामधेयरम्प श्रीनन्दिपण्डितदेवर्मत्तमा पड्डुववोल दोळगे पन्निवर्गावुण्डगळ्गे दये गोदुम्बळियागि ३७ कोट्ट मत्तर पन्नोन्दु' पेगडे प्रभाकरय्यन मग रुद्रय्यड़े दये गेय्दुम्बळियागि कोट्ट मतपेदि३८ नाल्कु । सेनवोव हव्वण्णंगे दये-गेय्दुम्बळियागि कोड मत्त पदिनाल्कु भूकियर-कावण्णंगे दये-गेटुम्बळि३९ यागि कोट्ट मत्तरेलु कन्तियर नाकय्यङ्गे दये गेय्दुम्बळियागि कोट्ट मत ल्कु कम्मवरुनूरु श्रीमद्भवनै४० कमल्ल-शान्तिनाथ-देवगर्गे सबनमस्यमागि पडेद मत्तरिर्पत्तु ॥ बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिस्सगरादिभिः य४१ स्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा प(फ) लम् ॥ वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् पष्टिर्वर्षसहस्रा४२ या (णि ) मि (वि) ठाया जायते कृमिः ।। [प्रभाकर (पक्ति २) या प्रभाकरव्य (पंक्ति ३) नामके 'पेर्गडे' की जगहपर काम करनेवाले एक अधिकारीके वर्णनके साथ यह लेख शुरू होता है । उसके समयमे श्रीनन्दि पण्डितदेव (प. ७) सिरियनन्दि Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैन-शिलालेख संग्रह मुनीन्द्र (पं. ९), या सिरिणन्दि (पं. १७) नामके गुरु थे जो सर्व पदाथाके व्याख्यान करनेमें चतुर थे, जिनकी पटवी 'परवादिगरम-मेरण्ड' (प ६) थी । जब ये आचार्य, श्रीनन्दिपण्डित, तपश्चर्या में संलग्न थे, उनके शिष्य 'अष्टोपवालिगन्ति' (प. १०), या अष्टोपवास-कन्ति (पं. २९) थे, जो जिनधर्मके उद्धार करनेमें बहुत प्रसन्न ये । और इनको श्रीनन्दि पण्डितसे सात 'मत्तर' भूमिका 'नमस्य' दान मिला था और इस दानका उपयोग ध्वजतटाक (पं० १२) (गॉवके) १० भावुण्ड' सरदारोंकी त्रछायाके नीचे, पार्श्वजिनेश्वरकी पूजा तथा शास्त्र लिखनेवालोंके भोजनके प्रवधके लिये किया। इसके बाद लेखमें एक 'सेनयोर' या पटवारी सिझण्ण (प. १३), सिङ्ग (प. १४), या सिद्गव्य (प २२) का उल्लेख आता है जो जिनधर्मभक्त था। यह सिद्ध श्रीनन्दिका पटवारी था। - इसके बाद कथन है कि अनल संवत्सर, जो व्यतीत गक मं. ९९८ था, की नाही या नाहीसे श्रीनन्दिपण्डितको गुडिगेरीकी भूमिमें पश्चिम दिगाके खेतोका अधिकार मिल गया था। ये खेत, एक तानपत्र के अनुसार, उस आनेसेजेय वसनिक जैनमन्दिरके अधिकारमें थे, जिसको श्रीमत् चालुक्यचक्रवर्ती विजयादित्यवल्लभकी छोटी बहिन कुकुममहादेवीने पहले पुरिगेरीमें बनवाया था। श्रीनन्दि पण्डितने इन खेत्तों से अपने शिष्य सिन्नय्य (प. २२) को, 'सर्वनमस्स दानके तौर पर, १५ मत्तर भूमि दी । सिङ्गस्यने यह भूमि गुडिगेरीले मुनियों के बाहारके प्रबन्धके लिये दे दी, और इस यातका ध्यान रखते हुए कि इसकी उत्पन्न इसी कार्यसे खर्च होती है, किसी दूसरे धर्म या कार्यमें खर्च नहीं होती, यह काम राजा, पण्डितो, १२ 'गावुण्ड' लोग, और शेष सभी धार्मिक लोगोंको (प २५) सौंप दिया । जबतक चन्द्र, सूर्य और समुद्र तथा पृथ्वी हैं वयत यह दान जारी रहे, यह वात भी निगाहमें रखनेके लिये इन लोगोंको कहा । इसके पश्चात् इस भूमिकी सीमायें दी हुई हैं। उन्हीं पश्चिम दिशाके खेतोमेंसे श्रीनन्दि पण्डितने, लगान-मुक्त जमीनके रूपमें, ३२ गावुण्डोंको १३१ मचर (पं ३६), 'पेगडे' प्रभाकरय्यके पुत्र रहय्यको १५ मत्तर; सेनवोव हचण्णको १५ मत्तर (पं. ३८); Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचका लेख ২SC मूकियर-कावण्णको ७ मत्तर; कन्तियर-नाकय्यको ४ मत्तर और ६०० 'कम्म' (पं ३९), और 'सर्वनमस्य-दानके रूपमें श्रीमद्भुवनैकमल शान्तिनाथदेवको २० मत्तर (पं. १०) दिये । भुवनैकमल शान्तिनाथदेव नामका मन्दिर 'भुवनैकमल्ल' विरुदवाले पश्चिमी चालुक्य राजा सोमेश्वर द्वितीयने बनवाया था या उसमें शान्तिनाथकी प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी।] [ इ० ए०, १८, पृ० ३५-४०, नं० १७३ ] २११ मथुरा-संस्कृत सं० ११३४१०७७ ई० [पद्मासनस्थ तीर्थकरकी विशाल मूर्तिका लेख ] [इस मूर्तिका लेख साफ-साफपढने में नहीं आता। कुछ भाग पढा जाता है, कुछ नहीं । परन्तु लेख सिर्फ दो पक्तियोका है। इस मूर्तिका लेख सिर्फ कालकी दृष्टिसे ध्यान देने योग्य है । डा०, फूहरर् (Dr, Fuhrer ) के मतसे यह लेख बताता है कि इस मूर्तिका निर्माण मथुराके श्वेताम्बर सम्प्रदायकी तरफ़से हुआ था । शेष लेख न० १६१ के अनुसार जानना।] [ Antiquities of Mathura, (ASI, XX), p 53, + ] २१२ . हुम्मच-कन्नड [विना काल-निर्देशका, पर लगभग १०७७ ई० का] [हुम्मचमे, सूळे वस्तिके सामनेके मानस्तम्भपर ] (पश्चिम मुख ) श्री-चीर-सान्तरन पिरिय-मगं तैलह-देवं भुजबळशान्तरनेन्दु पट्टमं कटिसि कोण्डु पट्टण-स्वामि माडिसिद तीर्थदवसदिगे वीजकन-बयलं विट्टन् (वे ही शापात्मक वाक्यावयव) स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-कल्याणाष्ट-महाप्रातिहार्य-चतुस्त्रिंशदतिशय 1 "Progress Report" for 1890-91, p 16 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૮ जैन शिलालेख संग्रह विराजमान भगवदर्हत्-परमेश्वर-परम-भट्टारक-मुख-कमळ-विनिर्गत-सदसदादिवस्तु-स्वरूप-निरूपण-प्रवीणरु सिद्धान्तामृत-वार्द्धि-वारद्धौत-विशुद्धि-बुद्धि-समृद्धरुभय-सिद्धान्त- रत्नाकररप्प श्रीमद्-दिवाकरनन्दि-सिद्धान्त-देवर गुड्ड खस्त्यनेक-गुण-गणाभिमण्डन नरवर-मुख-मण्डनं शान्तर राज्याभ्युदय-कारण कलि-युग-दोष-निवारण शान्तळि-देशकान्तारान्तर-जङ्गम-तीर्थ कलि-युग-पाथं पोम्बुर्च-कुलोद्भव-दिवाकर जिन-पाद-शेखरं आहाराभय-भैषज्य-शास्त्रदान-कानीन विशद-यशोनिधान सम्यक्त्व-बाराशियुमप्प श्रीमत्पट्टण-स्वामि-नोकय्य-सेट्टियर वृत्त ॥ जिन-तत्त्र व्याप्त-चित्त जिन-मत-तिळक जैन-कल्पावनीज । जिन-धर्माम्भोधि-चन्द्र जिन-समय-सरोजाकरोत्तस-हसम् । जिन-राज-स्तोत्र-माळाविळ-मुख-कमलोद्भासि सिद्धान्त रत्ना-। कर-देव-श्री-पदाम्भोरुह-मधुपनेनल् पट्टण-खामि सन्दम् ।। (उत्तरमुख ) गुणिगळ् सिद्धान्त-रत्नाकररमळ-चरित्रमहा-योगि-वृन्दा-। प्रणिगळ् श्री-शान्तिनाथ-क्रम-कमळ-युगाराधकर भारती-भू। पणबुद्धर ज्ञानिगळ् देशिग-गण-तिळकर जैन-सिद्धान्तचूडामणिगळ् श्री-पट्टण-स्वामिगे गुरुगळेनल् नोकनन्तार कतार्थर् ॥ परम-श्री-जैन-धर्मकतिशय-विभव माप विद्वज्जनका- ' दरदिन्द सन्तोस माडुव मुनि-जनकाहार-भैषज्यम वि- स्तरदिन्दं चिन्ते-गेवुन्नत-गुण-युत पट्टण-खामि नोक्कम् । वरमार् भव्यर्कळ् अन्ता पुरुप-तुनदि वीर-देवं कृतार्थम् ।। हरि-संघातदे कुट्ट-पेत्त वडव-ज्वाळाळियिं वेन्द भी। कर-पाठीन-तिमिङ्गिळाळियिनतिक्षोभक्के सन्टिन्दग-। स्त्यरिनप्-प्राशनकेय्दे वारदति-तीक्ष्ण-क्षार-वारि-प्रभ- । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचका लेख गुर-वाराशियोन्तु पोलिपुदो पेळ सम्यक्त्व - वाराशियम् | सिरिगावास मनेक रत्न - निचयोत्पत्त्याश्रय भीरु-र- 1 क्ष-रत चन्द्र-कळा-प्रवर्द्धन-मुद पीयूप - पिण्डास्पदम् | वर वेळा वळयामृत समतेयिं वारासि पोल्तु मनो- । हर-दानत्वदिनेदे पोलदे बल सम्यक्त्व - वाराशियम् ॥ पट्टण खामिय मग मुलं वरेदम् । ( पूर्वमुख ) जड वाळकरु बुध-प्रकरमुं तत्त्वार्त्यमं कल्तघम् । किडे •सम्यक्त्वमनेग्डि सप्त-परम-स्ता (स्था) नाप्तियं निश्चयम् । पडेयल् माडिदरोप्पे••• तच्चार्थसूत्रक्के क- । asदिं वृत्तियनेल्लिग नेगळिपन सिद्धान्त - रत्नाकरर ॥ कन्तु दर्प- हर जिन तनगाप्तनाळ्दनवार्य्य-वि- । क्रान्तनोळ्गलि वीर - शान्तरनम्मणं गुणि तन्दे दिग्- । दन्ति-वर्त्तित-कीर्त्तिगळ् गुरुगळ् दिवाकरणन्दि-सि- । द्धान्त - देवरे के पट्टण - सामिनोक्कने सन्नुतम् ॥ स्नान पञ्चामृताख्यं पटु-पटह-रण झल्लरी शब्द- रम्यम् पूजा पुष्पाभिराम मळयज - पयसा लेपन दिव्य - धूपम् । नित्य कृत्वा जिनाना सकळ - जन- दया- जीवरक्षान-दानम् पोम्बुचत् प्रतिष्ठा तव भवति पर लोक-विद्या-विवेकः ॥ दारिद्र्य - लोभ-मद-भय-नाशकरं एकमेव तत्क्षणतः । पञ्चाक्षरमिट मन्त्र पट्टण-सामि ते जप - विबुधम् ॥ पुसि नुडिव चपल-वित्तियोऴ् । असदळमेसगुव पराङ्गना- सङ्गतिगा- । टितवल्लिदो पम् | ..... २७९ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह पसरप नररण्म-नोक्कन पोल्तपरे । ( दक्षिण मुख) चारु चरित्ररी-दोरेयरारेनि पोळिपन चन्द्रकीर्ति-भ- | ट्टारकर - शिष्यरध-हारिगळार्हत-तत्त्व-वस्तु-वि- । २८० स्तारिंगळङ्गजारिगळोप-विशेष-गुणावली-मनो- । हारिगळेम्बिन नेगळ्दरल्ते दिवाकरणन्दि-वरिगळू || वचन || उभयसिद्धान्त-चूडामणिगळु त्रैविद्य - देवरुमेनिसिट श्री दिवाकरगन्दि - सिद्धान्त - रत्नाकर - देवर शिष्यर || सकलचन्द्र-मुनि नाथरुर्व्वरा । सकलढोळ् परम-योग्यरेम्बुदम् । ककुभ-दन्तिगळ दन्तदोळ् करम् । प्रकटमागे वरेद पितामहम् || बचन ॥ सम्यक्त्व वाराशियुमेनिसिद पट्टण खामिनोकय्य-सेडियर मगम् ॥ सुन्दर रूपदिं विनयदिन्दभिमान दिनोळिपनि जना । नन्द-परोपकार - गुणदिं सुजनत्वदिनोजेयिं जगद्- । वन्दित-कीर्ति पुण्य-निधि तन्देयोळच्चिनोळोत्तिदन्ननेन्द्- । अन्देले वैश्य-वा-तिलक नेगडिन्दिर नेम् कृतार्थनो || [ वीर-शान्तरके ज्येष्ठ पुत्र तैलह देवने, जो भुजबल-शान्तर नामसे भी ज्ञात था, राजा होकर, पट्टण स्वामिके द्वारा निर्मित तीर्थद-वसदिके लिये मन्दिरके दानके रूपमें, बीजकन वयल्का, दान किया । ( शाप ) भगवदत् के द्वारा प्रतिपादित सत्य और असत्यकी प्रकृतिके प्रतिपादन करनेसे निपुण दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव थे, जिनके गृहस्थ - शिष्य पट्टणा स्वामी नोकय्यसेट्टि थे। उनकी और उनके गुरुकी प्रशंसा । उसके द्वार Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ हुम्मचका लेख वीरदेव भी सफल है। आगेके श्लोकोमें उनकी समुद्रसे तुलना की गई है। पट्टण-स्वामीके पुत्र मल्लने इसे लिखा । सिद्धान्त-रत्नाकरदिवाकरनन्दिने मूखों या बच्चों तथा विद्वानोंके सबके अववोधार्थ कन्नडमें तत्त्वार्थसुनकी वृत्ति लिखी। पट्टणस्वामीके इष्ट देव जिन थे, उसके शासक वीर-शान्तर थे, उनके पिता अम्मण, गुरु दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव थे। (जिनकी पूजाके लिये दैनिक सामग्री तथा लोगोके कल्याणका वर्णन करनेके बाद),-नोक्की प्रशसा। चन्द्रकीर्ति भट्टारकके मुख्य शिष्य दिवाकरनन्दिसूरिकी प्रशंसा । उन्हींका अपर नाम सिदान्त-रनाकर था। उनके शिष्य सकलचन्द्र-मुनिनाथ थे। पट्टण-स्वामीनोक्वय्य-सेहिके पुत्र वैश्य-वंश-तिलक इन्दरकी प्रशंसा । ] [EC, VIII, Nagar tl, n° 57] २१३ हुम्मच-संस्कृत तथा कन्नड [शक्९९९-१०७७ ई०] [हुम्मच में, पञ्चवस्तिके ऑगनके एक पाषाणपर ] भद्रमस्तु जिन-गासनाय ॥ श्रीमत्परमगभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिन-शासनम् ।। शक-वर्ष ९९९ नेय पिङ्गळ-संवत्सरं प्रवर्तिसुत्तमिरे स्वस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय-कुळ-तिळक चालुक्याभरण श्रीमत्-त्रिभुवनमल्ल-देवर राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि प्रवर्वमानमा-चन्द्रावतार सनुत्तमिरे । तत्पादपद्मोपजीवि | समधिगतपञ्च-महा-शव्द महा-मण्डलेश्वरनुत्तर-मधुरावीश्वर पट्टिपोम्वुर्च-पुर-वरेश्वर महोग-वंश-ललाम पद्मावती-लब्धवर-प्रसादासादित-निपुळ-तुळापुरुष-महादान-हिरण्यगर्भ-त्रयाधिक-दान वानरध्वज Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैन-शिलालेख-संग्रह मृगराज-लाञ्चन-विराजितान्योत्पन्न बह-का-सम्पन्न मान्तर कलकुमुदिनीगशाक-मयूखाकर रिपु-मण्टलिक-पतङ्ग-दीपार तोण्ड-मण्डलिक-कुळाचन-बन-दण्ड विरुद-मेरुण्ट कन्दुकाचार्य मन्दर-चर्य कीर्तिनारायण सौर्य-पारायण जिन-पाटाराधक पर-बल-सावक सान्तरादिन्यं सकळजन-स्तुत्य नीति-शास्त्रज्ञ विरुठ-सा श्रीमन्महा-मण्डलेश्वर ननिसान्तरदेव ॥ वृत्त ॥ चरण-विनम्ननागि तोदळेम्बिडि मुन्ने ललाट-पट्टदल ॥ वरेट दुरक्षरावठिगळ तोळेदप्पुबु तामे निन्न मच्-। चरणरजगणेन्दोडुजितर्निनगाहारे देव मण्डले । श्वर-कळमक केसरि नरेन्द्र-शिखामणि नन्नि-सान्तरा।। प्रतिविम्ब रुपिनोळ पोल्केम गुणदोनदार पोलपनिननेम्बी-1 स्तुतियं निश्चरिस गोविन्दर वेसेयदिरेन्तेन्त्र निनन्ते नोडु-। न्नतियोल हेमाचळ भान्तियोळवनि-नळ मेरेयोळ् वार्धि शौच-1 व्रतदोळ सिन्धूद्भव सत्यटोकिन-तनेय सौर्य्यदोळ् भीमसेनम् ॥ अन्तेनिसिद नन्नि-सान्तर-देवरन्वयमटेन्तेने । उत्तर-मधुरावीश्वरनु मुग्रवगोद्भवनुमेनिसिद राहनेम्ब मण्डलेश्वर कुरुक्षेत्रदोळ् भारतदल कादि गेल्वडे नारायण मेचि एक-सखमुमं वानर-बजमुमं कोट । आतनि पलबरु राज्य गेदु पोगे । सहकारनात नर-मास-त्रतनागे आतङ्ग भिवा-देविग पुट्टिद जिनदत्तनानन चरितके पेसि दक्षिणाभिमुखनागि वरुत सिंहरथनेम्बसुरन कोन्दडे जकियब्बे मेचि सिंहलाञ्छन कोहळ् ।। अन्धकासुरनेम्वसुरन कोन्दु अन्धासुरमेन्दु माडिद । कनकपुरके वन्दल्लि कनकासुरन कोन्द । कुन्दद कोटि Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचका लेख योळिई करनु करदूपणनुमं कादि योडिसिदडे पद्मावती-देवी मेच्चि कनकपुरं एनिसिद पोम्बुर्चद लोक्किय मरदल नेलसि लोक्कियचेयेम्बेरडनेय पेसरं ताब्दि पोम्धुर्चमातङ्गे राज्यस्थानमेन्दु पोळल माडिदळ् ॥ अल्लि जिनदत्तनुं पलवरुमरसु-गेरदु सले श्री-केशियुं जयकेशियुमादरा-श्रीकेशिग मुददि महादेविग रणकेसि पुत्रनादनातनि पलबररसुगेय्ये । हिरण्यगर्भमिर्दु महादानं माडियधिवासद पलवररसुगळ कोन्दु ओडिसियु तेङ्क सूलद-होळे पडुव तवनसि बडग बन्दगे मेरेयागे सान्तलिगे-सायिर-नाडुमुमनेकायत्त माडि कन्दुकाचार्यनु दानविनोदनु विक्रमसान्तरनुमेनिसिदम् । आतङ्गं बनवासियरस कामदेवन मगळु लक्ष्मी-देविगं चागि-सान्तरं तनेयमादनात चागिसमुद्रम माडिसिदन् । आतङ्ग (म्) आब्बर नञ्जयन मगळेजलदेविगं वीर-सान्तरं सुतनादन् । आतङ्गमदेयूर शान्ति-वर्मन सुते जाकल-देविग कन्नर-सान्तरं तनूभवनाढन् । आतनि किरिय कावदेवङ्ग वीर-चयल्नाथन मगळ् चन्दलदेविग त्यागि-सान्तरनात्मजनादन् । आतग कदम्बर हरिवर्मनात्मजे नागल-देविगं नन्नि-सान्तरं तनूजनादम् । आतग पलसिगे-नाडरिकेसरिय नन्दने सिरिया-देविगं राय-शान्तरं पुत्रनादन् । आतगमक्का-देविग चिक्क वीर-शान्तरं नन्दन नादन् । आतग विज्जल-देविग मम्मण-देवनात्मजनादन् । आतङ्गं होचल-देविग मगळ् बीरवरसियु मग तैल्पदेवनु पुट्टिदर् ॥ आ-वीरलदेवि वकियाळ्चरङ्गे महादेवियादळ् । या-बकियाळ्वरनि किरिय माङ्कवरसियु गङ्गवंश-तिलक पालय-देवन सुते केळेयब्बरसियु तैल्पदेवङ्गे वल्लभेयरादरल्लि मादेवि-केळयब्बरसिगे । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैन शिलालेख संग्रह वृ || वर-लक्ष्मी-लक्ष्मण सान्तर-कुल- तिळक सूर्य तेजःप्रभावं । पर-नारी- दूरमावर्जित - गुण-निळ्यं वैरि - कालानल मन्- | दर-धैर्य नीति- पारायणनमळ - लसत् कीर्ति मूर्ती वितानम् । धरेय कायल् समर्थं सुरपति-विभव पुदि वीर-देवम् ॥ क || धुरढोळसि·ढतेयनुच्चिढोड् । अरि-नृप -युवतियर मुगुळ कङ्कणढा-की- 1 तरतरदिनुच्चिदवु निज- | कर-खङ्गमबर्के कीले शान्तर - नृपति || वीरुगन दोरेंगे दोरे पेरर् । आरु वन्दपरे कृत-युग त्रेता-द्या- | पार- कलि-युगदोळगण वी- । ररुदारर् प्रतापिगळ् धर्म्म-परर् ॥ आतननुजर् जगद्वि- 1 ख्यातर् श्री-सिङ्गि-देवतु रिपु-चळ - निर्- | ग्वातनेने वर्म्म- देवनुम् । आतत-कीर्त्ति-वितानरवनी-तळढोक् ॥ व || अन्तेनिसिद बीर-देवने काडव - मादेवियेनिसिद चट्टल-देविि किरिय वीरल-मादेविय विवाहोत्सवदिं कूडेया - वीर-मादेवियु नोळम्व नारसिंग- देवन सुते विज्जल - देवियुमाळ्वर मंगळचलदेवियु कुलवधुगळवरोळगे वीर - महादेवियन्वय-क्रममदेन्तेने || स्वस्ति समस्त सुवनाधीश्वरेक्ष्वाकु कुल - गगन गभस्तिमालिनी पराक्रमाक्रान्त-कन्याकुब्जावीश्वर-शिरो-विलग्न-निशित-शिळीमुख पार्थिव पार्थस् समर केली-धनञ्जयो धनञ्जयः तद्-वल्लभा गान्धारी देवी तत्सुनो हरिश्चन्द्रस्तदग्र-महिषी Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिलालेख संग्रह मही-हयन्त्रगोगवनु ज्योतिष्मती - पुरवरेश्वरनु मध्य देशाधिपतियु एनिसिदय्यण चन्दरस पुटि गावव्यरसिंग अरुमुळि - देवङ्गम् ॥ क || सरसति सिरियु दिन | २९० करनु पनि चट्टयम् । वर-वधु कञ्च सत्- | पुरुषोत्तमनेन राज - विद्याधरनुम् ॥ पुट्टे तनगन्दु राज्यद । पट्ट कै-सार्हुदेन्दु रक्कस-गङ्गम् । निट्टिसि तन्नरमनेयोळ् । नेने तन्दिरिसिदं महोत्सवदिन्दम् ॥ व ॥ अन्तु सुखदं वळेयुत्ति कन्या- रत्नगळिवरिं पिरिय-चट्टलदेवियं तोण्डे - नाडु नाचतेण्डासिरक्कधिपतियुं कञ्ची - नायनुवीश्वर वरप्रसादतुं वृषभाञ्ठननुमेनिसिद काडुवेट्टिगे रक्कस - गङ्ग-पेम्र्मानडि विवाहोत्सत्रम माडि चट्टल-देविगे काडव - महादेवि म कडि सुखदि निरिसिदन् । आ-वीर-देवन कञ्चल - देवियेनिसियुं वेरडनेय पेसरं तान्दिद वीर - महादेविगम् ॥ क || दसरयन तनयरन्दमन् । एसेदिरे पोनि तैलनुं गोग्गगनुम् । कुसुमाखनेनिसिदोड्डग- । वसुधेसनुमन्तु वर्म्मनु तनयरवर ॥ पुट्टठोडमात्म-गृहदोळ् । पुष्टिदुदैश्वर्य्यमोळ्पुमार्षु कूर्षुम् । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ हुम्मचके लेख २९१ नेहनरि-नृपर गृहटोळ् । पुट्टिदुवुत्पात-भीति चेतो-विकळम् ।। व ॥ अन्ता-कुमारर सुखदिं बळेयुत्तिरे यवरोळप्रज तैलप-देव. नसहायसिंहनेनिसियु तन्न बाहा-बळमे चतुरङ्ग बळमागे दायिगरुमनाटनिकरुम राज्य-कण्टकरुम निःकण्टकं माडि तन्न दोबळ-विक्रमदि सान्तरवट्टमनवटरिस भुजबळ-शान्तरनेनिसि सुखदि राज्य गेट्द । भुजबळ-गान्तर-नृपतिय । भुजबळदळवु प्रताप, गोठतेयुम् । विजिगीपु-वृत्तियु निज-1 विजयमुमी-लोकटोळगे भुम्भुकमेनिकुम् ।। अन्तातननुज गोविन्दर-देवम् ॥ गोविन्दरन पराक्रमम् । आवगमवु तन्नोळेय्दे तोरिरे धरेय । कात्र पर-नृपरनळ्करे । सोत्र महा-गुणमे तनगे निज-गुणमेनिकुम् ।। वृ ॥ देव समुद्र-मुद्रित-वसुन्धरेयोळ् नृपरादरेल्लरम् | भाविसि कण्डेनान्त रिपु-सन्ततिय नेलेगेड्डु पोपिनम् । सोव बुधाळिगार्जु पिरिदीव शरण-बुगे काव सद्-गुणन् । आवनो निन्नवोल् नरेद मण्डलिकर कलि-नन्नि-शान्तर ।। पिरिदत्त मेरुग सागरमे जगदोळा-मेरुग सागरक्कम् । धरणी-चक्र कर भाविसुवडे पिरिदा-मेरुग सागरक्कम् । धरणी-चक्रक्कमाशालिये कडुविरिदा-मेरुग सागरक्कम् । धरणी-चक्रकमाशालिगमेले पिरियं शान्तरादित्य-देव ।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जैन - शिलालेख संग्रह ख्यातियनेनं पेळ्बुदो | बूतुग-वेर्माडि पडेद महिमोन्नतियम् । भूतळदोळ् शान्तरनुप- । मातीतं चकि कुडल पडेदनमोघ ॥ अर्द्ध-पथमिदिर्गे वोन्दु तद् अर्द्धासनमेनिप लोह विष्टरदोक् सम्- । वर्द्धित-शान्तरनेनिप ध - | नुर्द्धरन चक्रवर्त्ति निलिसिदनेसेयलू || व || इन्तेनिसिदुन्नतिय ताब्दि तन्न मण्डळदोळगण राज्य - कण्टकर निष्कण्टकं माडि तनगे नन्निये निज-गुणमध्य कारणदि नन्नि - शान्तरनेम्ब पट्टम तादि पल-कालदिं परायत्तमाद भूमिय स्वायत्त माडि जगदेक-दानियेनिसि लोकदर्तिथ जनक्के पिरिदनित्तु सम्यक्त्व - रत्नाकरनु जिन - पादाराधकनुमेनिसियुमेल्ला - समयगळ स्व-धर्मदिं नडयितुं पराङ्गना-सहोदरनेनिसि वीरदोळ वितरणदोळ धर्मदो गौचदो लोकदोळ् पेररिल्लेनिसि नडेदु बन्धु-जनमुम स्व- देशमुम रक्षिसि चट्टल- देविय कुमारर ओहमरसनु बर्म- देवनु तामु पोम्बुचंदोळ् सुखदिं राज्य गेय्युत्तमिई धर्मं प्रागेत्र चिन्तेदेम्ब] वाक्यार्त्यमुम भाविसियरुमुळि - देवन गावब्बरसिंग वीरल-देविगं राजादित्य- देवङ्ग परोक्ष-विनयम माडलेदुर्णी-तिळकमेनिसिद पञ्च वसदिय मार्क्युद्योगमनेतिकोण्डु || कं ॥ 'श्री विजय - देवरुग्र-त- ! पो-विभवर् ग्गुरुगळखिळ-शास्त्रागम-स- । भावितरेनिसलू चट्टल- } देवि कृत- पुण्यवन्ते विश्वम्भरेयोक् ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२९३ हुम्मचके लेख वृ॥ जनक रक्कस-गङ्ग-भूमिपति काञ्चीनाथनात्म-प्रियम् विनुतर् श्री-विजयर सुशिक्षकरेनल् विद्विष्ट-भूपाळ-सं-। हण-विक्रान्त-यशो-विलास-भुज-खड्गोल्लासि ता गोग्गिनन्दनना-चट्टल-देविगेन्दोडे यशश्रीगिन्तु मुन्नोन्तरार ॥ क ॥ केरे भावि वसदि देगुलम् । अरवण्टगे तीर्थ शत्रमारवे-मोदलान् । अरिकेय धर्मादिगळम् । नेरे माडिसि नोन्तलेसेके चट्टल-देवि ॥ उत्तुंग-प्रासादमन् । उत्तर-मधुरेशनप्प गोग्गिय ताय लो-। कोत्तरमेने माडिसिदळ् । वित्तरदि पञ्च-कूट-जिन-मन्दिरमम् ।। देसेयागसमेम्बेरडुमन् । असदळमेटिदईवेम्बिन पोस-गेरेयम् । वसदियुम माडिसि तन्न् । एसमं शान्तरन ताय् निमिर्चिदळेत ॥ वृ ॥ इन्तु समस्त-दान-गुणदुन्नतिग पेररारो मुन्नमेम् । नोन्तवरेम्बिन नेगर्द चट्टल-देवि चतुस्-समुद्र-प- 1 य॑न्तमनेक-विप्र-मुनि-सन्ततिगन्न-हिरण्य-वस्त्रमम् । सन्ततमित्तु शान्तरन ताय पडेदळ पिरिदप्प कीर्त्तिय ।। व ।। अन्तु पोगर्तेग नेगर्तेग नेलेयेनिसि चट्टल-देवियु नन्नि-शान्तरनु वोडेय-देवर गुड्डगळप्प-कारणदिं श्रीमत्-तियङ्गडिय निडम्बरे-तीर्थदरुगळान्वयद सम्बन्धद नन्दिगणाधीश्वररेनिसिद श्रीविजय-भ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ जैन-शिलालेख संग्रह डारकर नामोच्चारणदिं शुभ-करण-तिथि-मुहूर्त्तदलबर शिष्यर श्रेयांसपण्डितरु/-तिळकमेनिसिद पञ्च-वसदिगुन्नतमप्पडेयल् करुनिसे केसर्कल्लिक्किदरवराचार्यावळियदेन्तेने । श्री-वर्द्धमान-स्वामिगळ तीर्थं प्रवर्तिसे गौतमर ग्गन(ण)धररेने त्रि-ज्ञानिगळप्प मुनिगळ सले यवीरं चतुर ऋद्धि-प्राप्तरेनिसिद कोण्डकुन्दाचायरिं केलव-काल पोगे भद्रवाहस्वामिगळिन्दित्त कलिकाल-वर्तनायें गण-भेद पुट्टिदुदवर अन्वय-क्रमर्दि कलि-कालगणधररु शास्त्र-कर्तुगलमेनिसिद्द समन्तभद्र-स्वामिगळवर शिष्य-सन्तानं शिवकोट्याचार्येरवीरं वरदत्ताचार्य्यरवरिं तत्वार्थसूत्रकर्तुगळेनिसिदार्य-देवरवरिं गङ्ग-राज्यम माडिट सिंहनन्याचार्य्यरवरिन्देकसन्धि सुमति-भट्टार हरवरिम् । वृ॥ राजन् बुद्धोप्यबुद्धस्सुरगुरुरगुरुः पूरणोऽपूरणेच्छ स्थाणुः स्थाणुस्त्वजोजोर्विरविरळघुमाधवो माधवस्तु | व्यासोप्यव्यास-युक्तः कणभुगकणभुग् वागवागेव देवी स्याद्वादामोघ-जिह्वे मयि विशति सति मण्डपं वादिसिंहे ।। व ॥ एनिसिदकलङ्क-देवरवरिं वज्रणन्याचार्यरवीरें पूज्यपादस्वामिगळवारं श्रीपाल-भट्टारकरवीर अभिनन्दनाचार्यरवरि कविपरमेष्ठिस्वामिगळवीरं त्रैविद्यदेवरवरिनकळङ्कसूत्रके वृत्तिय बरेदनन्तवीर्य भद्धारकरवरि कुमारसेन-देवरवीर मौनि-देवरवीर विमळचन्द्रभट्टारकरवरशिष्यर् ॥ क ॥ आदित्यन केलदोळ् चन्- 1 द्रोदयमेसेयदवोली-धरा-मण्डलदोळ् । वादिगळेम्बी-टुण्टुकवाडिगळेसेदपरे वादिराजन केलदोल् ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचके लेख २९५ व ॥ अन्तेनिसि राय-राचमल्ल-देवड़े गुरुगळेनिसिद कनकसेनभट्टारकरवर शिष्यर् शब्दानुशासनके प्रक्रियेयेन्दु' रूपसिद्धियं माडिद दयापाळदेवरं पुष्पपेण-सिद्धान्त-देवरुम् ॥ वृ॥ अळवे दिग्-दन्ति-दन्त बरमेसेदुदु सद्-गद्य-पद्योक्तिविद्या वलचे सर्वज्ञ-कल्प विरुदनुग्वुिदिन्नन्य-वादीन्द्रनि चावळिसल वेडोहो पत्र गुडटिरेदळळिर् बेन्दप पेळ्बोडिन्निन्न् । अळवल्ल वादिराज पर-मत-कुमृत् आभीळ-बाग-वज्र-पातम् ।। व ॥ इन्तेनिसिद पट्-तर्क पण्मुखनु जगदेकमल्ल-बाढियुमेनिसिद वादिराज-देवर ॥ . रकस-गङ्ग-पेनिडिगळ चट्टल-देविय वीरदेवन नन्नि-शान्तरन गुरुगळेनिसिद ॥ व ॥ यद्विद्या-तपसोः अगस्तमुभय श्री-हेमसेने मुनौ प्रा ...."चिराभियोग-विधिना नीत परामुन्नतिम् । प्रायश्श्रीविजयेश-देव सकल तत्त्वाधिकाया स्थिते संक्रान्ते कथमन्यथा" ....... दृक् तपः ॥ शास्त्र बुधानामुपसेव् ... य दातुकाम यत एव दाता। ततोपि हि श्रीविजयेति-नाम्ना पारेण वा पण्डित-पारिजातः ॥ व ॥ एनिसिद श्री-विजय-भट्टारकरुमवर शिष्यर चोल...... शान्तादेवर गुणसेन-देवर दयापाल देवर कमळभद्र-देवरजितसेनपण्डित-देवर श्रेयांस-पण्डितरन्तवरायुर्ची-तिळकमेनिसिद पञ्चकूटवसदिय शक-वर्ष ९२९ नेय पिङ्गळ-संवत्सरद जेष्ठ शुद्ध-विदिगेबृहस्पतिवारदन्दु प्रतिष्टेय माडिया-असदिय खण्डस्फुटित-जीर्णोद्धारण Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जैन - शिलालेख संग्रह क्कमल्लिई ऋषि-समुदायदाहार-दानक्क पूजा-विधानक्कमागे नन्नि सान्तरदेवनुमोड्डमरसनु वम्म- देवनु चट्टल-देवियुमाचार्य्यर कमळभद्र-देवर काल का धारा - पूर्व्वकमा सम्बन्धिय समुदाय -मुख्यमागे माडि कोट्ट ग्रा ........ ( यहाँ दान और सीमामोकी विस्तृत चर्चा है । ) [ जिन शासनकी प्रशंसा । ( उक्त मितिको ), जब ( हमेशा के चालुक्य पदो सहित) त्रिभुवनमदेवका राज्य सब ओर प्रवर्द्धमान था - तत्पादपद्मोपजीवी, महामण्डलेश्वर, उत्तर- मधुराधीश्वर, पहिपोम्वुर्थ-पुरवरेश्वर, महोग्र-वंशललाम, जिसने पद्मावती देवीके प्रसादसे 'तुला पुरुष,' 'महादान' और 'हिरण्यगर्भ' ये तीन दान पूरे किये थे, सान्तर-कुल- कुमुदिनी के लिये प्रदीप्त किरणोवाला चन्द्रमा, जिनपादाराधक, सान्तरादित्य, नीतिशास्त्रज्ञ, - महामण्डलेश्वर नन्नि-सान्तर देव था । इसकी प्रशसा | नन्न- सान्तर - देवकी वंश परम्परा इसप्रकार थी. - उत्तर- मधुराका अधीश, उग्र-वशोत्पन्न राह राजा था, जो [ महा ] भारतके युद्धमे कुरुक्षेत्रमे लडा था और जीतनेपर जिसे नारायणने प्रसन्न होकर एक शंख और वानर-ध्वज दिया था। इसके बाद बहुत-से राजा हुए, उन सबके बाद, एक सहकार नामका राजा हुआ, जो अन्तमे नरमांसभक्षी हो गया । उससे और श्रियादेवीसे जिनदत्त उत्पन्न हुआ, जो अपने पिता के आचरण से ग्लानि प्राप्त होकर दक्षिणमे आया और जिसके सिंहरथ नामके असुरके मारनेसे जकियव्त्रे (देवी) प्रसन्न हुई और प्रसन्न होकर उसने उसे सिंहका लान्छन ( मुद्रा ) दिया । अन्धकासुर नामके असुरको मारने से उसने अन्धासुर नामका नगर बसाया । कनकपुरमें आकर उसने कनकासुर का वध किया, तथा कुन्दके किलेमे रहनेवाले कर और करदूषण के भगा देनेसे पद्मावती देवी प्रसन्न हुई और प्रसन्न होकर उसने वहाँ कनकपुरमे, जो कि पोम्बु (हुम्मच ) का ही नामान्तर है, एक 'लोक' वृक्षपर वास करना शुरू किया तथा लोकियव्येका नाम धारणकर उसके लिये एक राजधानीके रूपमे शहर बसा दिया । जिनदत्त तथा दूसरे और भी राजाओ के राज्य करनेके बाद श्रीकेसि और जयकेसि हुए । श्रीकेसि Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मच लेख २९७ और उसकी रानीसे रणकेसी पुत्र उत्पन्न हुआ । इसके बाद अनेकोंके शासन करनेके बाद हिरण्यगर्भ हुआ, जिसने 'महादान' नामका दान किया और जिसने सान्तलिगे - हजार - नाका एक भिन्न राज्य स्थापित किया, — इससे वह कन्दुकाचार्य, दान-विनोद, विक्रम-सान्तर, इन तीन नामोंसे प्रसिद्ध हुआ । उस और लक्ष्मीदेवी से चागि सान्तर उत्पन्न हुआ, जिसने चागिसमुद्रका निर्माण कराया । उस और जाकल - देवी से कन्नर सान्तर उत्पन्न हुआ । उसके छोटे भाई काव-देव और चन्दल देवीसे त्यागिसान्तरने जन्म लिया । उस और नागल - देवीसे नन्नि सान्तरका जन्म हुआ । उस और सिरिया देवी से राय - सान्तरने जन्म धारण किया । उस और अक्का देवीका पुत्र चिक- वीर सान्तर हुआ । उस और विज्जलदेवीका पुत्र अम्मण-देव हुआ । उस और होचल- देवीसे एक पुत्री वीरवरसि तथा एक पुत्र तैलपदेव 'हुआ। वह वीरल-देवी बकियाळकी रानी हो गई । उस बलिया की छोटी बहिन मारसि, और गहवंशललाम पालय देवकी पुत्री केलयबरसे तैलपदेवकी पत्तियाँ हो गई । इनमें से, मादेवि केलयव्बरसिके बीरदेव उत्पन्न हुआ । उसकी प्रशंसा । उसके छोटे भाई विश्व-विरयात सिहिदेव और ब- देव थे । उस वीरदेवसे जब काडवकी रानी चट्टल-देवीकी छोटी बहिन वीरल-मादेवीसे विवाह हो गया, तब उसके वीर-मादेवी, बिज्जल- देवी और अचल- देवी ये तीन स्त्रियाँ और थीं। इनमेसे, वीर-महादेवीकी उत्पत्तिका वर्णन करते है । इक्ष्वाकु कुलके सूर्य, कान्यकुब्ज (कन्नौज) के अधीश्वर धनञ्जय नामके राजा थे, जिनकी पत्नी गान्धारी देवी थी । उनका पुत्र हरिश्चन्द्र हुआ, जिनकी ज्येष्ठ रानी रोहिणी देवी थी । उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण थे, जिनके अपर नाम दढिग और माधव थे । उनका वश गङ्ग- वंश था । माधवी प्रशसा | उसके बडे भाई दडिगकी प्रशसा । माधवका पुत्र किरिय- माधव, उसका " 33 पुत्र " "3 हरिवर्म, विष्णुगोप तडङ्गालमाधव; Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह अविनीत; दुर्विनीत, मुष्कर श्रीविक्रम भूविक्रम उसका छोटा भाई राजा काम (या नृप-काम) था जिसने एक भया (याचक ) को गजका दान दिया था और इस कारणसे 'चागि'का नाम प्राप्त किया था। उस नृप-कामका प्रपौत्र श्रीपुरुष था, इसका 'श्रीवल्लभ' अन्र्थ क नाम प्रसिद्ध था तथा यह गज-शास्त्रका प्रणेता था । इसने विळ (या चिव) की लढाईमे काञ्चीके युद्धप्रिय राजा काडुवेहिसे उसका पल्लव-छत्र छीन लिया था तथा उसके हाथसे 'पेनिडि' का नाम भी छीन लिया था। तब उसका पुत्र शिवमार-देव (सैगोट) हुआ, वह वीरमार्तण्ड-देव नामसे भी प्रसिद्ध था । उसने 'शिवमारमत' नामसे एक गज-शास्त्रका भी प्रणयन किया था। राजा विजयादित्य उमका छोटा भाई था । उसका पुत्र एरेया था। उसका पुत्र राजमल्ल, उसका पुत्र मरुळ, उसका पुत्र बूतुग, उसका पुत्र एरेयप; उसका पुत्र नरसिग; उसके तीन नाम और भी प्रसिद्ध थेवीर वेडेग, मनुजपति तथा राजमल्ल । उसका (नरसिंगका) छोटा भाई कनिय-गन था। उसका छोटा भाई तुग-वेनिडि था । यह कृष्णराजाकी बहिनका पति था। उसके पराक्रमकी प्रशसा । इसका ज्येष्ठ पुत्र मरुळ-देव था। उसका छोटा भाई मारसिह देव था। इसका छोटा भाई राजमल्ल देव था, जिसे नोळम्बकुलान्तक, पल्लव मल्ल, और गुत्तिय-गङ्ग भी कहते थे। इसकी प्रशमा । उसका छोटा भाई नीति-मार्ग था। उसके छोटे भाई राजा वासव और कञ्चल-देवीसे गोविन्दर-दव उत्पन्न हुआ था। उसके पराक्रमकी प्रशसा । उसका छोटा भाई अल्मुळि-देव था। ___ अरुमुळि-देव और गावव्वरसिसे चट्टल, कञ्चल और राजविद्याधर उत्पन्न हुए थे । इनमेंसे चट्टल-देवी की शादी काडुवेट्टिसे,—जो तोण्डे-नाड् ४८००० का शासक तथा काञ्चीका अधिपति था-कर दी थी । कञ्चल Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचके लेख २९९ देवी, (जिसका दूसरा नाम वीर-महादेवी था ) और चीर- देवसे ये पुत्र उत्पन्न हुए–तैल, गोग्गिग, राजा ओड्डग, और कर्म । इनमें से ज्येष्ठ पुत्र तैलप-देवने अपने भुज-वलसे शान्तरका मुकुट प्राप्त किया और भुजबल शान्तरके नामसे शान्तिसे राज्य किया । उसका नाम सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया था । उसका छोटा भाई गोविन्दर देव था । इसका अपर नाम नन्नि शान्तर था । नन्नि शान्तरके नामसे ही इसने मुकुट धारण किया था । वह जिन-पादाराधक था, तथा चट्ट - देवि और राजकुमार ओइरस और बम्म देवके साथ शान्तिसे राज्य करता हुआ पोम्बुसें था । चल देवीने अरुमुळि देव, गावव्बरसेि, वीरल देवी और राजादित्य देवकी स्वर्गयात्रा स्मारकके उपलक्ष्य में उच्च तिलक नामसे प्रसिद्ध पञ्चवसत्रिके बनाने का काम अपने हाथमे लिया । सर्व शास्त्रो और नागमोमें पारङ्गत होनेसे सम्मानित, तपस्वी श्रीविजय देव चट्टल देवीके गुरु थे । उसका पिता राजा रकसगंग था । काञ्चीअधिपति (कावे ) उसका पति था । गोग्गि उसका पुत्र था । तालाब, कुआँ, चसदि, मन्दिर, नाली, पवित्र स्नानागार, श ( स ) त्र, कुक्ष इत्यादि प्रसिद्ध धर्म एवं पुण्यके कार्योंको चहल-देवीने सम्पन्न किया था । उत्तर - मधुराके अधिपति गोगिकी माँने बहुत उत्सुकतासे दुनिया में अग्रगण्य स्थान प्राप्त करनेवाले पञ्चकूट जिनमन्दिरको बनवाया । क्षितिज और काम दोनोसे arn करनेवाले ऐसे एक नये तालाब और मन्दिरका उसने निर्माण किया । इस तरह शान्तरकी मी प्रसिद्ध चट्टलदेवीने बहुत यश प्राप्त किया । श्रीविजय भट्टारक तियद्भुडिके निदुम्बरे तीर्थके रुळान्वयके नन्दिगणके अध्यक्ष थे । इनके गृहस्थ शिष्य चहल- देवी और नन्नि शान्तर थे किसी शुभदिन, उनके शिष्य श्रेयान्सपण्डितने पञ्च- बसदिके नींव का पत्थर 1 डाला | श्रेयांस आचायोंकी परम्पराका वर्णन - वर्द्धमान - स्वामीके तोत्थे में त्रिकालज्ञ गौतम गणधर हुए। उनके बाद कोण्डकुन्दाचार्य हुए, जो जमीन से चार इञ्च ऊंचे चलते थे । कुछ समय बाद भद्रबाहु स्वामी हुए, जिनके Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जैन - शिलालेख संग्रह बाद कलि-कालका अवतार (उत्पत्ति ) हुआ और विभिन्न गणोंकी उत्पत्ति हुई । उनमें से कलिकालगणधर, शास्त्र-प्रणेता समन्तभद्र स्वामी हुए । उनकी शिष्य परम्परामै शिवकोट्याचार्य हुए, उनके बाद वरदत्ताचार्य्य; उनके बाद तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता आर्य्य-देव, उनके बाद सिंहनन्द्याचार्य जो गगराज्यके स्थापक थे | उनके बाद एकसन्धि सुमति भट्टारक हुए। इसके are अकलङ्क देव ( वादिसिंह ) हुए । पुन क्रमशः वज्रनन्द्याचार्थ, पूज्यपाद स्वामी, श्रीपाल भट्टारक, पुन. अभिनन्दनाचार्य; कवि परमेष्ठिस्वामी, त्रैविद्य देव, अनन्तवीर्य भट्टारक, जिन्होने अकलङ्क-सूत्रकी वृत्ति लिखी थी। इनके बाद कुमार सेन- देव; उनके बाद मौनि देव, उनके बाद विमलचन्द्र भट्टारक, उनके शिष्य कनकसेन- भट्टारक थे जो राजा राजमल्लके गुरु थे। उनके शिष्य थे दयापाल जिन्होने 'शब्दानुशासन' की 'प्रक्रिया' रूप-सिद्धि लिखी है- - तथा पुष्पसेन सिद्धान्त देव | वादिराज - देव ' षद-तर्कषण्मुख,' 'जगदेकमल्ल वादी' थे । श्रीविजय देव रक्क्स-गङ्ग-पेमनदि, चट्टल- देवि, बीर- देव तथा नन्नि-शान्तरके गुरु थे । विद्वानोको वे शास्त्र देते ये तथा जो शास्त्रका महत्त्व नहीं समझते थे उन्हें उनका महत्व समझाते थे, इसी कारण से उनका नाम श्रीविजय था तथा उन्हे 'पण्डित - पारिजात' भी कहते थे । 3 उपर्युक्त श्रीविजय भट्टारक और उनके शिष्य चोलट शान्त देव, गुणसेन देव, दयापाल देव, कमलभद्र देव, अजितसेन - पण्डित देव तथा श्रेयान्स पण्डित - देव | इनने ( उक्त मितिको ) उब्र्वी तिलक नामसे प्रसिद्ध पञ्चकूट-वसदिकी स्थापना की । बसदिकी मरम्मत, ऋषि-वर्गके आहार तथा पूजा के प्रबन्धके लिये, नन्नि-शान्तरदेव, ओडमरस, बम्म देव, तथा चहल- देवीने, – आचार्य कमलभद्र देवके पाद प्रक्षालन- पूर्व्वक ( उक्त ) गाँव दिये । - शेष भाग बहुत घिसा हुआ है । ] [ EC, VIII, Nagar tl n° 35 } Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचके लेखक ३०१ २१४ हुम्मच-सस्कृत तया कन्नड़ [शक ९९९-१०७७ ई.] [हुम्मचमें, तोरण-धागिलके दक्षिणी खम्मेपर] (पूर्वमुख) श्रीमत्परमगमीरत्याद्वादामोधलाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनायस्य शासनं जिनशासनम् ।। ('स्वस्ति' से लेकर पांचवी पक्तिके 'महा मण्डलेश्वर' तक का लेख पूर्वके शि० ले. नं० २१३ की पंक्ति से ६ तक से मिलता है।) एलगे चेन्नने वीरगं वपुविनि भावोद्भव तक्कनेन्त् । एलगे वीरने वीरुगं विरुदिनि भीमोपमं वाप्पु मत्त् । एलगे टानिये वीरुग पिरियना-कर्णाख्यनिन्दकुमेन्त् । एलगे वीरल-देवि नोन्तळवनोळ् कूडिप सौभाग्यमम् ॥ अन्तेनिसिद वीर-शान्तर-देवगं वीरल-महादेविग ॥ दशरयन तनेयरन्दमन् । एशेदिरे पोत्तिई तैलतु गोग्गिगनुम् । कुसुमाखनेनिस बोडगवसुवेशनुमन्तु बोम्मनु ननयरदार ।। अवरोळ्यजनराति-सैन्य-शोषण-बाडवानल्नुमाश्रित-कल्प-वृक्षनुमेनिसि परायत्तमाद देशम तनगेकायत्त भाडि सान्तर-चट्टमं ताब्दि । निज-भुज-वळदिन्टरि-भू-। भुजरं कोन्दोत्तिकोण्डु देशमनन्ता- । विजिगीषु तैल-भूपम् । भुजवळ-शान्तरनेनिप्प पेसरं पडेदम् ।। आतननुजं गोविन्दर-देवननेक राज्य-कण्टकर निष्कण्टकं माडि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जैन-शिलालेख-संग्रह सम्यक्त्व-चूडामणियु जगदेक-दानियें एनिसि सान्तळिगे-सायिरमुमनेकछत्र छायेयिन्दमानन्दु ननि-सान्तरनेम्बेरडनेय पेसरं पडेदम् ॥ (दक्षिणमुख ) ख्यातियनेनं पेवुदो। बूतुग-पेमडि पडेद महिमोन्नतियम् । भूनळदोळ शान्तरनुपमातीत चक्रि कुडल पडेदनमोच ।। अर्द्ध-पथमिदिर्गे बन्दु त-1 दासनमेनिए लोह-विष्ठरदोळ् सं- । चर्द्धिन-सान्तरनेनिप ध-। तुर्द्धरन चक्रवर्ति निलिसिदनेसेयल् ॥ अन्तातन तम्मनोडगनशेष-धरा-नळयम कर-त्रळयम तान्दुवन्त लीलेयिं ताब्दि विक्रम-सान्तरनेम्ब पेसर पडेद ॥ खस्ति श्री-लसदुप्र-श-तिलकः श्री-वीर-देवात्मजः दृप्यद्-वैरि-निकाय-दर्य-दळन-प्रादुर्भवद्-विक्रमः । सम्पूर्णेन्दु-करावदात-सु-यशो-व्यालिप्त-दिक्-भित्तिकः श्रीमान् विक्रम-शान्तरो विजयते लक्ष्मी-वधू-वल्लभः ॥ आतननुज ।। पर-नरप-शिरः कुञ्जो। स्कर-करि-कमळा-पयोधर-द्वय-हारम् । स्मर-मूर्ति निखिळ-दिग-मुख-। परिचुम्बित-कीर्ति चर्म-देव कुमार ॥ अन्तेनिसिदवर तायि ॥ जनकं रकस-गङ्गा-भूमिपति काश्ची-नाथनात्म-प्रियम् । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचक्रे लेख ३०३ विनुतर् श्रीविजयर सु-सि (शि) क्षकरेनल् विद्विष्ट-भूपाळसंहन-विक्रान्त-यशो-विळास-भुज-खळगोल्लासि ता गोग्गि नन्-। दनना-चट्टल-देविगेन्दोडे यशश्रीगिन्तु मुन्नोन्तरार् ।। अन्तु समस्त-गुण-सन्दोहक धर्मक्क जन्म-भूमियेनिसिद चट्टल देवियु भुजवळ-शान्तर-देवनु नन्नि-शान्तर-देवतु विक्रम-शान्तर-देवनु बर्म-देवनु पोम्धुचंदोळ् सुखदि राज्य गेय्युत्तमिर्दु धर्म प्रागेव चिन्तेदेम्ब वाक्यार्थम भाविसि तमगे श्रेयो-निबन्धनात्यं उर्ती-तिळकमेनिसिट पञ्च-वसदियं माद्योगमनेत्ति कोण्डु तामेल्लर मोडेयदेवर गुड्ड गळप्प कारणदिन्द द्रविळ-सघद नन्दि-गणदरुगुळान्वयद श्रीविजयदेवर नामोच्चारण गेय्दवर शिष्यरु श्रेयान्स-पण्डितरिन्दुर्वी-तिळकमेनिसिद पञ्च-बसदिगे सु(शु )भ-मुहूर्तदोळाचन्द्रार्क स्थायियप्पन्तुन्नतमप्येडेयोळ् केसल्लिक्रिसिदरु अवराचार्यावळियेन्तेने । श्रीबद्धमानस्वामिगळ तीर्थ प्रवर्तिसे सप्तर्द्धिसम्पन्नरप्प गौतमर् गणधररेने त्रिज्ञानिगळप्प मुनिगळ् पलवरु सले अवरिं चतुरगुळ-ऋद्धि-प्राप्तरेनिसिद कोण्डकुन्दाचार्यरु श्रुतकेवळिगळेनिसिट भद्रवाहुस्वामिगळ् मोदलागि पलम्बराचार्य्यर पोदिम्बलिय समन्तभद्र-स्वामिगळुदयिसिदरवरन्चयदोळ् गङ्ग-राज्यम माडिद सिंहनन्याचार्यरवरि अकलङ्कदेवखरि रायराचमल्लन गुरुगळप्प वादिराज-देवरेनिसिद कनकसेन-देवरुमवरशिष्यरोडेय-देवरु रूपसिद्धिय माडिद दयापाळ देवरु पुष्पसेनसिद्धान्त-देवरु पट्-तर्क पण्मुखरु जगदेकमल-वादियुमेनिसिद वादिराज-देवरवरि कमळभद्र-देवरवरिम् एकास्य. चतुराननो गणपतिर्नेभाननो भारती न स्त्री सर्व-कलाधरोऽशशधरः कामान्तको नेश्वरः । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैन-शिलालेख संग्रह विद्याना परिनिष्ठित-क्षिति-तळं तन्मुळमाळम्बनम् चित्ते तेऽजितसेन-देव विदुपा वृत्त विचित्रीयते ॥ अन्तेनिसिद शब्द-चतुर्मुखनुं तार्किक चक्रवर्तियु वादीभसिंहनुमेनिसिदजितसेन-देवर सह-धम्भिगळु दुरित-कुळ-प्रध्वस । स्मर-माद्यत्-कुम्भि-कुम्भदळन-मृगेन्द्रम् । वर-वाग्-बनिता-कान्तम् । धरेयोळ् नेगर्दी-कुमारसेन देव-मुनीन्द्रम् ॥ अन्तेनिसिद कुमारसेन-देवरिं वैद्य-गजकेसरियेनिसिद श्रेयान्स देवरन्तवरायुवी-तिलकमेनिसिद पञ्च-बसदियना- शक-वर्पद९९९नेय पिङ्गळ-संवत्सरद ज्येष्ठ-शुद्ध-विदिगे-वृहस्पतिवारदन्दु प्रतिष्ठेय माडिया-वसदिय खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धारणकमल्लिई ऋषि-समुदायदाहार-दानक पूजा-विधानक्कमागे समस्त-गुण-मणि-गणविराजमानेयरम्प श्रीमतु चट्टल देवियरुमन्तु तम्म नाल्वरुमि? कमळभद्र-देवर काल कर्चि धारा-पूर्वकमासम्बन्विय समुदाय-मुख्यमागे भुजबळशान्तरदेवं कोट्ट ग्रामङ्गल (जैसाकि कहा गया है) मत्तमातननुज नन्निशान्तर-देवं सुखटिं राज्य गेय्युत्तमि? पोम्बुर्च-नाडोळगण हादिगारु अदर काठहळि हल्लवनहळ्ळियु विडेयुम कोट्ट अन्तातन नम्म विक्रम शान्तर-देव राज्यं गेयुत्तमि? पोम्बुर्च-नाडोळगण हालन्दूरु कल्लूरु-नाडोळ गण केरेगोड समीपद मडम्बछियुम कोट्टरिन्ती-बसदिय वृत्ति-एल्लवक देवि-देरे अडे-गर्बु काणिके सेसे बिर्दु वीय-मोदलागे कुमार-गद्याण किरुदेरे किरु-कुलायं साम्य सलगे मोदलागि पे तेरेगळेम्ब सर्व-बाधापरिहारवं माडिदर । (यहाँ सीमाएँ तथा हमेगाके अन्तिम वाक्यावयव भाते है)। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचके लेख ३०५ 1 [ जिनशासनको प्रशंसा । जिस समय, ( उन्हीं चालुक्य पदों सहित ), त्रिभुवनमल देवका विजयी राज्य चारों ओर प्रवर्द्धमान था-और तत्पादपझोपजीवी ( ऊपरके शिलालेख न० २१३ मे जो उपाधियाँ नन्निशान्तरकी है, उन्हीं के सहित ) महामण्डलेश्वर वीरुग या वीर शान्तर देव था । उसकी प्रशसा । उसकी रानी बीरल- महादेवी थी। उनके चार लड़केबैल, गोगिक, ओड्डग, और बम्म थे। इनमेसे तैलका नाम भुजबळ - शान्तर, गोग्गिक या गोविन्दर देवका नन्नि शान्तर तथा ओडुगका विक्रम'शान्तर प्रसिद्ध हुआ । सबसे छोटे भाईका नाम कुमार वर्म्म- देव ही रहा। इनकी मॉ चट्टल देवी (वीरल महादेवी ) थी । उसके पिता राजा रक्स-गङ्ग, पति काञ्ची-अधिपति, गुरु श्रीविजय, और पुत्र गोग्गि (नन्निशान्तर ) थे । इस प्रकार, जिस समय सत्र धार्मिक गुणो और पवित्रताकी जन्मभूमि चट्टलदेवी, भुजबल शान्तर देव, नन्नि शान्तर -देव, विक्रम-शान्तर देव और देव पोम्बु थे और शान्तिसे राज्य कर रहे थे ''धर्म सर्व प्रथम चिन्तनीन है', इसका खयाल करके, धर्म उपार्जन करनेके लिये, उन्होने 'उव तिलक' नामकी पञ्च वसदिके निर्माणका कार्य अपने हाथ मे लिया । ये सव ओडेय-देवके ( श्रेयास पण्डित के शब्दों में जो श्रीविजय देवका नामान्तर है ) गृहस्थ शिष्य थे । उन सबने किसी शुभ दिन पञ्चवसदिकी नीव डाली । श्रेयान्सदेव आचार्योकी परम्परा वर्द्धमान स्वामी के तीर्थमें गौतम गणधर हुए । उनके पश्चात् बहुतसे त्रिकालज्ञ मुनियो के होनेके बाद क्रमशः कोण्डकुन्दाचार्य, 'श्रुतकेवली' भद्रबाहु स्वामी, बहुत-से आचार्योंके व्यतीत होनेके बाद, समन्तभद्र स्वामी, सिंहनन्द्याचार्य, अकलङ्क- देव, कनकसेन देव ( जो वादिराज नामसे भी प्रसिद्ध थे ), ओडेयदेव ( श्रीविजयदेव जिनका ऊपर नाम दिया है ), दयापाल, पुष्पसेन सिद्धान्तदेव, वादिराज - देव ( जो 'षट् तर्क षण्मुख' तथा 'जगदेकमल्ल घादि' नामसे भी प्रसिद्ध थे ), कमलभद्र-देव, अजितसेन देव ( प्रशसासहित ) हुए | और अजितसेन देवके सहधर्मी शब्द-चतुर्मुख, तार्किक - चक्रवतीं वादी मसिह हुए | तत्पश्चात् कुमारसेनदेव मुनीन्द्र । इनके बाद श्रेयान्सदेव हुए ! शि० २० Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैन-शिलालेख संग्रह (उन्म मितिनो) पञ्चवसादिकी नींव डालकर, वट्टल देवी और चारों भाइयोंशी उपस्थितिमें, कमलभद्रदेवके पैर धोकर, भुजबल-शान्तर-देवने (जैसा कि पर कहा गया है) गाँव और भूमियों दीं। इसीतरह उसके छोटे भाई ननि-शान्तर देवने तथा इसके छोटे भाई विक्रम शान्तरदेवने (जैसा कि लेसमें बताया गया है) गाँव और भूमियों दानमें दी और बसादिक इन दानोंको (जिलकी सूची लेस में दी हुई है) उन्होंने सभी करोंने मुक्त कर दिया। सीमायें, शाप और आशीर्वचन।] [EC, VIA, Nagar til., n° 36 ] हुन्मच-स्कृत तया कम [दिना काल-निर्देशका; पर लगभग २०७७ ई० का] हुम्मदने, मानसम्मके ऊपर, दक्षिणकी तरफ़] श्रीमत्परमगमीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिन शासनम् ।। नमो महते ॥ स्वस्ति-श्री रमणी-विनोद-भन्न यस्सोद(दूध)-वभः स्थलम् वाग्-देवी-वनिता-विकास-निळ्यो यत्याननाम्मोरुहम् । वीर-श्री-युनतेरभूत कुछ-गृह यद्-बाहु-दण्ड-द्वयम् यकीर्तिशारदिन्दु-कान्ति-विमला पादिशं वर्तते ।। साक्षादुन कुछ प्रमुनिज-नुज-प्रोडासि-औक्षेमकप्रवतीकृत-भूरि-गव्य-द्विद्वेषि-भूपाळकः । दीनानाय-जना बद्रीय-सु-महा-दानात् परेष्ट अदम् स श्रीनान् नुवि ननि-शान्वर इति ख्यातो भृशं भ्राजते ।। विमाति यत्याप्रतिमः प्रतापः नानोगतो (8) वैरि-महीपतीनाम् । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचके लेख ૩૦ सन्तापयत्येव तदन्नरङ्गम् श्रीमानसावोड्डुग-मण्डलेशः ॥ कुमार-चूडामणिरेप भाति श्री-ब्रह्म-देवो गुणवाननिन्द्यः । श्री- जैन-पादाम्बुज-युग्म-मृङ्गः यशोऽभिवेष्टयाखिळ-भूमि- मागः ॥ श्रीमद्-राक्षस - गङ्ग-मण्डलपतिः श्री गङ्ग-नारायणः दोर दण्ड-द्वय-वीर्य्य-भीपित-रिपुः श्री गङ्ग-पेनडि: । स्याद् यस्या जनको मनो निरुपमो विख्यात - कीर्त्तिध्वजः श्रीमच्चट्टल-देवि अत्र भुवने ख्याता वरीवृत्यते ॥ दृष्टे यत्र महोत्सवेक- निळ्ये पयजनाना मनः पुण्यं सञ्चिनुते -तरामतितरामहो हरत्यप्यलम् । पूजाभिः पृथुभिः पुनः प्रतिदिनं वाभाति योऽयं सदा श्रीमत्पञ्च- जिनालयो निरुपमो भक्त्या यया निर्मितः ॥ संसाराम्भोधिमव्यान् निरुपम गुण सद्-रत-मेदाधिवासम् • निर्वाण-द्वीपमा प्रतियत - मनसा पण्डिताना सुनीनां । कृत्या श्रीमज्जिनेन्द्राय - विलसित-नाचं व्यवाद् यक्षिणामन्मानस्तम्भोल्लसत्-कूवरमपि च वनान्यत्यि-साय दना ॥ आहारा भव-भैषज्य-शास्त्र- दानेर निरन्तर । श्रीमच्चद्दल देवीयं वाभाति नुवन- स्तुता ॥ रोहिणी चेळिनी सीता देवता च प्रभावती । श्रूयन्ते वार्त्तया सेय दृश्यन्ते विमलैर्गुणैः ॥ श्रीमद्रविळ- संधेऽस्मिन् नन्दिसंघेऽस्त्यरुङ्गळः । अन्यो भाति योऽशेप-शास्त्र- चाराशि-पारगैः ॥ यदू-वाग्वज्राभिघातेन प्रवादि-मद-भूभृतः । सञ्चण्णितास्तु भाति स्म हेमसेनो महामुनिः ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जैन-शिलालेख-संग्रह शब्दानुशासनस्योच्चैर् रूपसिद्धिर्महात्मना । कृता येन स वाभाति दयापालो मुनीश्वरः ॥ श्री-पुष्पसेन-सिद्धान्त देव-त्रक्वेन्दु-सङ्गमात् ।। जातावभाति जैनीयं सर्व-शुक्ला सरस्वती ।। नम्रावनीश-मौळीद्ध-माला-मणि-गणार्चितम् । यस्य पादाम्बुजं भातं भात श्रीविजयो गुरुः ॥ सदसि यदकलङ्कः कीर्तने धर्मकीर्ति वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समय-गुरूणामेकतस्संगतानाम् प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः ॥ सांख्यागमाम्बुधर-धूनन-चण्ड-वायुः • बौद्धारामाम्बुनिधि-शोपण-बाडवाग्निः । जैनागमाम्बुनिधि-वर्द्धन-चन्द्र-रोचिः जीयादसावजितसेन-मुनीन्द्र-मुख्यः ।। श्रेयांस-पण्डितर् ग्गत-1 मायादि-कषायरमळ-जिन-मत-सारर । न्याय-परर स्सित-कमळ-1 श्री-युत-द-न-कुन्द रुन्द्र-कीर्ति-पताकर ।। नमो जिनाय । [जिन-शासनकी प्रशंसा । नन्नि-शान्तरके यशकी प्रशंसा । राजा ओड्डग, ब्रह्म(बम्म-)देव, और चट्टल देवीकी प्रशसा । हेमसेन मुनि, शब्दानुशासनके लिये 'रूपसिद्धि' बनानेवाले दयापाल मुनीघर, पुष्पसेन सिद्धान्तदेव, श्रीविजय, इन सबका प्रशसापूर्वक उल्लेख। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचके लेख ३०९ चादिराजदेवकी प्रशंसा । कजितमेन मुनींद्रकी प्रशंसा । श्रेयांसपण्डितकी प्रशंसा। नोट.-इस शिलालेखमे समय (काल) का कोई निर्देश नहीं है और न किसी कार्य या दानका इनमे उल्लेख है । यह लेख शुद्ध प्रशंसात्मक है। LEC, TIII Xrgar,], 2° 39.] हुम्मच-मंस्कृत तथा कड़ [शफ ९९९=१०७७ ई०] (पश्चिम मुख) श्रीमत्परमगम्भीरत्याबाठामोघलाञ्छनन् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। तीसरी पत्तिम स्वालिसे लेकर १७ वीं पक्तिमें "यूडिर्प-सौभाग्यम" तक शि० ले० न. २१४ की ११ से ३१ की पंक्तिक मिलता है।) एनिसिद वीर-देवनन-तनयन् ॥] अरि-विरुद्ध-भूभुजर्कळ । विरुद्ध वेरिन्दे किर्तु वीर-श्रीयो । नरेन्टुपमातीतम् । धरेगेने भुजबळने गान्तरान्वय-तिलकम् ॥ विरुद-रिपु-नृपर शिरमम् । भरदि लेण्डाडि वीर-लब्मि यनोलिसल । नरपतिगारो धुरदोळ् । निहत निन्नन्ते नन्नि-शान्तर-नृपति ॥ उत्तर-मधुरावीश्वरम् । उत्तम गुणनुप्रयश-तितकं विवुध- । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जैन-शिलालेख संग्रह पर-वळ-कृतान्त । बिरद-गण्डर बदिसुन सामन्तर गण्ड । .........."गण्ट । समर-प्रचण्ड । नुडिदन्ते गण्ड । "..."पराङ्गनापुत्र । दायिगमुरारि बिनेपोपकारि । .... 'वल्लभ दुष्टाश्व-मल्ल भीतर कोल्ल हडिय मार्कोळुव दळुर वेड्कोळुत्रं । इडगूर-देवी-लब्धवर-प्रसाद । मृगमदामोड । यत्तिल-बन-विकासचन्द्र सदानन्दभोग-नागेन्द्र होयसळदेव-पादाराधकम् । पर-वळ-साधकम् । नीति-चाणुक्यं एक वाक्य वैरिमनो-भङ्ग । अय्यन सिङ्ग दायिग-दुट्टर गण्ड ! नप्पे तप्पुब । वीरदिन्दो-- पुत्र । सामन्तजगदळ । मलेय..... दुळिच । मलेगे "आने । येत्तिद मोनेगे मुन्तु के काळगके पिन्तु लट्टिद " "ळम् । चतुस्समयसमुत्रणनप्प श्रीमन् महा-सामन्त-माचाय्यनन्त्रयवेन्तेन्दडे । वेळुगेरेय माचेय-नायक-। ननुपम-गुण-रने माकल-देविय दानव्रतमेसेये चैत्य-गेहमु-1 मनत्तियोळोपे साकुमा-पट्टणटोळ ।। सारसनिगे रतिगे सीतेगे। तरि दोरेयेनिसिद मारेय-नायकन । सतिय धरेय वण्णिसुवुटु । निरन्तर नेगळ्ड बम्मियन्य पेन्यन् ।। सरणेने कायल वल्लम् । नरेदतियोळीय-वल्लनाश्रित-जनकन् । पर-वळ वैरि-भूपर। कोल बल्लं वेळुगेरेय वल्लनिम्मडि चल्ल॥ रुगुमिणि वेळगिढरुन्धति । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हणका लेख मिगिलेनिसिद सीतेयेम्ब सतियरोळीगळ् । समनेनिप सतियेनिसिद् । सति वल्लरे बल्लयनर्द्धाङ्गि केतवे देवियां वरेयो || ३१९ श्रीमतु सावन्त बलि-देवनङ्गिकेतवे नायकितिर देवियकनायकितियरुमवर सुपुत्र सुय्यदेव पेरुमाळु देव सावन्त-मारय्य माचि देवनु सुख-सङ्कता ( था ) -विनोदहिं राज्य प्युत्तिरे || सादिसिद्ध मोक्ष-लक्ष्मय - 1 नादरदिन्द भयरन्न-दान-विनोदम् । मेदिनियोळोप्पे माडव । सासल-चम्मय्य भव्य- तिळक वरेगेळ् भव्य-कुल-तिळकनोप्पुत्र । जज माणिक्य चाकि सेडियरनुजम् । एरका ट्टि सेट्टियेन्ती- 1 - पुरुपर नेगद दान- चिन्तामणिगळ || तर्क-व्याकरणदोळन् । वखाणगे वल्ल सकल- "क्तिगळिम् । निक्कदतिजाण वर्- । म्मक्कत्थंग नेगडि माचि-सेडिये धन्यम् ॥ आ-माचि तेट्टेयनुजं । भाविसे श्री जैन-धर्म-पुर- कुजदन्नङ्गार स्समनेनिलुकाइ परि । यीत्र गुण काळि - सेडियोरेग दोरेगम् ॥ कलि-काल-कल्प-वृक्षमन् । अलसदे नी बेडु काळि सेडिय सुतन पलवु पोन्नुं वलम | सले यीयल बल्ल मान्यना अम्मय्यम् ॥ आश्रित-जन-चिन्तामणि । विश्रुत-कीतीशननळ-बोधावीसं (श) श्री- श्रेयास-जिनेशं । वैश्रावण सेडिगीगे सुख-सम्पदमम् ॥ नुडिदेरड्डु- नुडिवचनलं । कडुइल आश्रित जनकन् Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह तेडेयुडुगदी त्र - दान- । व्रतियं कर्पूर - सेयं वेडु बुदा || कीर्त्ति - श्री रमणन-बोल | मूर्त्तियोळभिनव-मनोजन नम् । ३२० कूर्त्ता मसण-सेडिगे । मार्त्तण्डन मग नळ - ... मनुजर्गम् । मरे - वोक्करदि का बन्धु - जनकम् । नेरे पोत कल्प- तरुत्रम् । नेरे वणिपुर काचि-सेट्टियम् "नृपळवे ॥ ॥ गणधर - भूपनन्त्रय-शिखामणि गोत्र - पवित्रन - द्विपम् गुण-गण-नाथ गुण्पिन 'पेम्नि मेरु वोन्दू | अगणित- बाब सत्यद तबर्म्मने मानव-वन्यनेन्दोडिन्न् । एणे 'हट्टणदोळोप्पु माणिकनन्दि- देवरोळ् ॥ स्वस्ति स ( श) क - वरिस - सायिरद कालयुक्त-संवत्सरं प्रवत्तिसे नखर जिनालय के वि भूमि - ( यहाँ दानकी विगत आती है ) आ-पट्टणदलु नडत्र देव-दाय हत्तु हेरिने हाग देवरिगे सोडरेगेगे गाण १ ( हमेशा के शापात्मक वाक्य ) श्री-मूळ-सवढे सेय गणपोस्तक- गच्छकोण्डकुन्दान्वयद श्रीमतु नागचन्द्र- चान्द्रायण देवर-शिष्य रुणिकच्छगोण्डि - देवरु मदवळि बोपवे मगळु काचवे मलवे मादवे माचवे बाळ चन्द्र- देवरु | सेन्यि हल्लिय मलि-सेटि चिक्कसेनि तम्म सेट्टिगे विह भूमि जक्कसमुद्रदल्लि सलगे ५ * रोदद हलोजन मग वीरोज ई-शासनव होयिद || * यह पंक्ति पत्थर के सिरेपर है । • Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हट्टणका लेख ३२१ [जिनशामनकी प्रशसा। जिस समय, (उन्हीं गलुक्य पढो सहित) भूलोक्मल्ल सोमेश्वर-देवका विजयी राज्य प्रवर्द्धमान था. त्रिभुवनमल एरेयग-होयसळ-देव और एचल-देवीके छल्में उत्पन्न,स्वस्ति । जव (अपने पदों सहित) वीर-बल्लाल-देव पृथ्वीका शासन कर रहे थे, तत्पादपद्मोपजीवी, महा-सामन्त गण्डरादित्य और हुग्गियवे नायकित्तिके सामन्त सुव्वय, मातय्य, और बूबय्य उत्पन्न हुए थे। महा-सामन्त मावय्यकी प्रशंसा । उसकी कुछ उपाधियाँ । माचय्यकी उत्पत्तिका वर्णन । जिस समय सामन्त बलि-देव (माचव्य) अपनी दोनो स्त्रियों और चार लडकों सहित शान्ति और सुखसे राज्य कर रहा था;मासल बम्मय्य और उसके दो लड़कों माणिक्य और जाकि-सेट्टिका उल्लेख । माचि-सेहि और उसके लडके कालि-सेष्टि, फिर उसके लडके वम्मय्यका वर्णन । माणिकनन्दि-देवका उल्लेख । ( उक्त मिति को) नखर जिनालयके लिये (उक) भूमियाँ, दस गट्ठोंका दाम, एक कोल्हू दानम ढिये गये थे। श्री-मूलसघ, देशिय-गण, पोस्तक-गच्छ, तथा कोण्डकुन्दान्वयके नागचन्द्र-चान्द्रायणदेवके शिष्य राणिकच्छगोण्डिदेव थे, उनकी पत्नी बोप्पवे, बच्चे काचवे, मल्लवे, मादवे, माचवे और वालचन्द्रदेव थे। कुछ सेहियोंने और भी कुछ भूमियाँ दी। रोट हलोजके पुत्र बीरोजने यह शालन लिखा।] [EC, XII, Tiptur tl, n° 101] १ ऊपर जो १०७८ ई० काल दिया हुआ है, वह विनयादित्यके कालका है । उसके लडने वालदेवका (११०१-११०४ ई० ) नहीं, और न भूलोकमल (११२६-११३८ ई.) का। शि० २१ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जैन-शिलालेख संग्रह २१९ तट्टेकेरे-सस्कृत तथा कन्नड-भग्न [शक १००१-१०७९ ई०] [ तट्टेकेरे (शिमोगा परगना )मे, रामेश्वर मन्दिरके सामनेके पापाणपर] खस्ति सक-वर्षे १००१ नेय क्रोधन-संवत्सरद ज्येष्ठ बहुलचट्टि-बड्डवार शासन निन्दुदु । श्रीमत्-परम-गभीर-स्याद्वादामोध-लाञ्छनम् । __जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिन-गासनम् ॥ नमो वीतरागाय स्वस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय निळक चालुक्याभरणं श्रीमत्त्रिभुवनमल्ल-देवर कल्याणद-नेलवीडिनोळ् सुखटिं राज्य गेय्युत्तमि . जीयात् समस्त-ककुभान्तर-वत्ति-कीतिर इक्ष्वाकु-वंश-कुल-बारिधि-बर्द्धनेन्दुः । कैळाश-ौल-जिन-धर्म-सु-रक्षणार्थम् भागीरथी-वि . तो द्वितीयः ।। - स्वस्ति समस्त-भुवनाधीश्वरेक्ष्वाकु-का-कुल-गगन-गभस्तिमालिनी पराक्रमाक्रान्त-कन्याकुब्जाधीश्वर-शिरो..... " लि-मुखो पार्थिवपार्थः । समर-केलि-धनजयो धनञ्जयः। तस्य वल्लभा गान्धारि-देवी तत्सुतो हरिश्चन्द्रः। रोहि 'दडिग-माधवापरनामधेयः । आगङ्गान्वयदरसुगळेल्वेळ्गेपाडिवदचन्द्रनन्तुदितोदितवागि पल · ज्यं गेय्युत्तिरे तदन्वयाम्बर-धुमणियु गङ्ग-चूडामणियुमेनिसिद भुज-बळ गंगपेाडि ... गुणि वेळवत्यि-जनके दान-मणि दोर्-गर्बोद्धतामात-निर्घृण-वैरिप्रकरके बल्-कणि कळा-विन्यास-बारासि सत् Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तट्टेकेरेका लेख प ....... वेष्टितयां विक्रान्त-तुङ्ग नृपा- । प्रणियाद कलि- गंग- देवन सुत श्री वर्म्म-भूपाळकम् ॥ कन्द ॥ ... विवाहा । • परिवदिनरि-नृपरनलेदु सेले-योळ बोय्दुर र्व्वरे वण्णिसलेसेढं गं- । गर-भीमं लोकढोळगे भुजबळ - ...ग ॥ .....ळियेनिसिद पेमडि बम देवनं पाण्ड्य कुलोद्भवेयेनिसिद गङ्ग-महा-देवियर्गं रत्नत्रयं पुट्टुवन्ते वृ ॥ श्री - मारसिंग - नवनी-तळ रक्ष-पाळम् । कामोपमं भगीरथान्वय- रत्न - दीपम् । भीम-प्रताप नहिता सामान्यनल्लनुदितोदितनेकवाक्यम् ॥ 1 ३२३ आतनप्पुमा लोक-विख्यातमाद तदनन्तरदोळ् । स्वस्ति सत्य वर्म्म-धर्म्म-महाराजाधिराज परमेश्वर कुवळाल- पुरवरेश्वरम् । नन्दगिरि-नाथं राज-मान्धातम् । पद्मावती -लब्ध-वर-प्र... "चकिकामोदन् । असती-सहोदर वीर वृकोदरम् । सम्यक्त्व रत्नाकरं जिनपादशेखरम् । मद-गजेन्द्र लाञ्छनम् चतुर - वि ... ... गङ्गेयं शौचाञ्जनेयं । गङ्ग-कुल-कमळ-मार्त्तण्डम् दुर-गण्डम् । मन्निय गङ्गम् जयदुत्तरगं । श्रीमन्महा-मण्डलेश्वरम् त्रिभुवन मल्ल- गङ्ग-पेम्र्म्माडि- देवगङ्गवाडितोम्भत्तर-सा सिरम वाकेटिसि तदाभ्यन्तरद मण्डलिसासिरम श्रीमत् - त्रिभुवन मल्ल- देवर् इये - गेय्ये निधिनिधानमोळगागि त्रि-भागाभ्यन्तर - सिद्धिविन्दे सुखदं राज्यं गेय्युत्तिरे । कन्द ॥ श्रीगे नेलेयागि वचन । श्रीगागरमागि निजभुजार्जितविजय- । ***.**. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह श्रीगरुहनागिकीर्त्ति । श्रीगधिपतियागि सुखदिनिरे गङ्ग-नृपं ॥ वृ ॥ नुडिदुदे नन्नि माडिदुद्धे शासन इतदे रामरेख मार्- | पिडिदुदे वज्र - लेप सुरदिर्दुदे मृत्यु परोपकारदोळ् । नडेदुदे बड़े पड् गुणमे मेय्येने धर्म्मदोकोन्दि निन्नवोलू | नडेव नृपेन्द्रनावनखिळावनियोळ् कलि- गङ्ग-भूपति ॥ स्थिरने मेरु-गिरीन्द्रदोळ् सेणसुचं गंभीरने वार्द्धयोळ् । पुरुडिप्प कलिये सुरेन्द्र-सुतन मेच्च महा- दानिये | सुर-भूजक्कोरेगट्टव चदुरने पाञ्चालनिं मिक्कनेन्- । दिरदीगळ् धरे वण्णिकु रण-जय-प्रोत्तुङ्गनं गङ्गनम् ॥ क ॥ अमळ - चरित्रं पुरुषो । तमनेनिसिद गङ्ग-भूपनातन तम्मम् । विमळ या गोविन्दर - | नमोघ वाक्य कुमार - चूडा-रत्नम् ॥ अन्तिर्व्वरुं सुखद राज्य व्युत्तिरे । 1 ३२४ क ॥ धर्म्मका दयेगे त- । वने शिष्टेष्ट कल्प-भूज गोत्रा - गर्म्मम् कुलोत्तमं पोले । यम्मनेनल नलू - गुणक्के मच्चरमुण्टे || आ-गुणोत्तमनिसिद पोलेयम्मङ्ग रमणी -रत्नमेनिसिद केळेयब्बेग सु-पुत्रः कुळ-दीपक एनिसि नोकय्यं पुट्टि समर्थनागि मण्डलिय केश्चगावुण्डन मक्क्ळु काळेयव्वेयुम्मलियन्वेयुम मदुवैयागि काळवे-गावतिगे गुजणं पुट्टि तन्देगे पदिर्म्मडियागि पेम्र्म्माडि-गावुण्डनेम्व पेसरं पडेदम् । मल्लियव्वे जिनदासनेम्ब मगन पडेदळन्तिर्व्वर्म्मक्कळ वेरसु नोकय्यं सुखदिनिर्पुदु गङ्ग-पेम्र्माडि- देवर् तदेकेरेगे विजय गेन्दु समस्ताधिकारं मकुडे देवेन्द्र बृहस्पतियन्तु वळीन्द्र भार्गवनेन्तन्ते समस्तराज्य-भर-निरूपितमहामात्य - पदवी - विराजमान मानोन्नत प्रभु मनोत्साह-शक्ति-त्रय-सम्पन्न महा-महिमोत्पन्नम् । सुजन - जनाधार बान्धव- प्राकारम् । पुरुष - रत्नाकरं Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तट्टेकेरेका लेख ३२५ पर-च-मीकरम् । पति-कार्य्य-भार क्रमनसहाय विक्रमम् । उपार्जनाचार्य्यम् अचलित-धैर्य्यम् क्षार-समुद्र लञ्चकार - मुख-मुद्रं । पतिगे कळापम् जय-लक्ष्मी-निक्षेपम् । कोदण्ड- पार्थ सौजन्य-तीर्थम् | जिन1 पादाराधकम् । कलि-युग-साधकम् । गङ्गन हनुमन्तम् । जय-लक्ष्मीकान्तम् । श्रीमन्महाप्रधानम् । पिरिय-पेगडे नोक्कय्यम् । .. वृ || पार्थिवर निराकरिप दान- गुणोक्ति यिनथिंगर्त्यमम् । प्रात्थिदीव - कारण पेडे नोकणनी - परोपका रार्थमिढ शरीरमेनिपोन्दु पुराण- वरोक्ति यिन्दम । प्रात्थिित-दानदिन्दे नेगळ्वुन्नति सन्दुदिळा - तळाग्रदो ॥ मार्गदोळोळिपनोक् गुणदोळमिनोळा पिनोळा दोन्दु पेम्पार्गमसाध्यमिन्तिरित्र-काव-गुणगळे साजमेन्दु केट् । दगडु जेङ्कारिसे राज- गुणक्कळवट्ट नोक्कणम् । पेडेयेम्बुदे धुरके मार्गडेयं पतिगेक-साधनम् ॥ क || पेर्गडेतनमं बल्लर् । खखळ्या मनणमरियरुदिमात्यर् नोक्क ! पेर्गडे-गगन मनेयोळ्। मार्गडे सगरद मोनेयोळेने मेच्चदरार ॥ किरिटरोळळवडद मनं । नेरे पिरिदक्कासे गेय् बुद्धियिनातम् । तेरे - विडिदु जोन्नन्दिन । पेरेयन्ददे नोक्कनुत्तरोत्तरमाद || अगळिसिद केरेगे माडिसि । द गळ्देगेत्तिसिट देवता - गृहकरवणटगेगन्न-दानदेडेगी | जगदोळ पवणिल्लदेम् कृतार्थनो नोक्कम् ॥ सरनिधि वळसिदुदेम्बन्- । तिरलित्ता - तट्टेकेरेय पेगेरे सुत्त । पलिय नडुवमरसैळद । दोरेयेनिसिद तेरढे बसदि सोगयिसि तोर्कुम् ॥ 1 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जैन-शिलालेख संग्रह २२४ मदलापुर-कन्नड-भन्न [काल लुप्त,-पर सभवतः लगभग १०८० ई.] [मदलापुर (मल्लिपद्दण परगना)में, गोणि वृक्षके नीचे एक पाषाणपर] (सामने ) खस्ति श्रीमतुः 'वर्य-नल्लरस... "अरकेरेय बसदि माडितु इदके "वदु-गद्दे ' . मण्णु अय्-गण्डुग पिरिय""दोळय्गण्डुग-मण्णु विसवूर-मण्णु अय्-गण्डुग कोटेय मण्णु मु-गण्डुग इनितु बसदिगे सल्व-भूमि अदा-पदके अदटरादित्य अधिरत-पाण्ड्यय वेळ्तु ............."अरसर-कालदोळ् श्रीम' मन्ने-ग"सिबय्य.. गुड्डय... . ..."मण्डळ कलाचन्द्र-सिद्धान्त-देव-भट्टारर शिष्यर""" अमळचन्द्र-भट्टारकर” • “बसदिय माडि ... " सल्सिदु" (हमेशाका अन्तिम श्लोक)। सेनवोव दे ........." [ ...."नल्लरसने अरकेरेकी बसदि बनाई। ( उक्त) भूमिका दान उसके लिये किया । जो कोई इसे नष्ट करेगा, वह अदटरादित्यके क्रोधका पात्र होगा। • ...अरसके समयमें, .. • रमण्डल कलाचन्द्र-सिद्धान्तदेव-भट्टारके शिष्य अमलचन्द्र-भट्टारकने इस बसदिको बनवाया । हमेशाका अन्तिम लोक । सेनवोव दे.....] [EC, V, Arkalgud tl n° 2021 २२५ खजुराहो-संस्कृत [सं० ११४२=१०८५ ई०] [इस प्रतिमा-लेखके लेखका पता नहीं है, क्योकि यह लेख एक खण्डित प्रतिमापरसे ए. कनिंघमने लिया है, जो कि प्रतिष्ठाकाल और प्रतिमाके नामके सिवा और कुछ नहीं बताता । इस प्रतिमाकी प्रतिष्ठा या स्थापना Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचका लेख ३३३ श्रेष्ठी श्री वीवतसाह और उसकी पत्नी सेठानी पद्मावतीने की थी । इस लेखके ऊपरसे ए. कनिंघमने फलितार्थ यह निकाला हे कि प्राचीन बौद्ध मन्दिर ग्यारहवीं शताब्दि जैनोद्वारा अपने काम में लाया गया था। संभव हैवतकी हीनता के समय खजुराहामें जैनोंकी संख्या अधिक होनेसे उन्होने उस प्राचीन बौद्ध मन्दिरको अपना बना लिया हो, या हो सकता है कि कनिंघका यह अनुमान ही गलत हो कि गन्थरई- भग्नावशेष जैनोंका न होकर बौद्धोंका था । अस्तु, जो कुछ हो । इन खण्डित द्वि० जैन मूर्तियोंसे उस समय खजुराहो में जैनधर्मकी प्रधानता द्योतित होती है । ] [A Cunningham, Reports, II, p. 431, a ] २२६ हुम्मच - संस्कृत तथा कन्नड़ [ शक १००९ = ९०८७ ई० ] ( उत्तरमुख) स्वस्ति-श्री- लसदुग्रचंश-तिलकः श्री - वीर - देवात्मजः दृप्यद्-वैरि-निकाय-दर्प-दळन-प्रादुर्भवद् - विक्रम | सम्पूर्णेन्दु-करावदात-सु-यशो-व्यालिप्त-दिग्-भित्तिकः श्रीमान् विक्रमशान्तरो विजयते लक्ष्मी वधू- बल्लभः ॥ ओदेदु तटतटेम्ब पद - नाटनेयिन्दे दिशा-गजादिगळ् । मदमुडुगिळ्दुवञ्जि पुगुविर्पेडे गाणने नागराजनुम् । कळद गम्पदिन्दमेळे कम्पिसे कूडे कलङ्के सागरम् । विदिर्दलगिन्ढे तारकि कळल तरलो डुगनाईडोडुगुम् || अदिरढे वर्ष चप्परिप कप्परि पार्छलगोत्ति शास्त्रमम् । विदिर्दु मरल मरल्वेनुते कुत्तु कुत्तिठोडान्तु कडिदा - पददोळे सुत्ति मुत्तिदवोलेरने तोरुव गेण विन्नणक् । ओदवुव विन्नण नेगळलोड्डग नीनरसक-गाळनै ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जैन-शिलालेख-संग्रह परिदुदराग्नियं मरेदु तिन्द पेणगळिनादजीर्णदिम् । मरुळ बळाळि वैद्य-मरुळं वेसगोण्डडे दन्ति मद्देनल् । करियने नुनि सूडुकोळे वैद्य-मरुळ नगे वीर-लक्ष्मि नो। डरि-हर निन्निनायितदेने विक्रम-शान्तरनादनोड्डगम् ।। अन्तेनिसिद विक्रम-शान्तर-देवर स्स(श)क-वर्षे १००९ नेय प्रभव-संवत्सरद शुद्ध-पाडिवदन्दु पञ्च-बसदिय पूजा-विधान-जीर्णोद्धरणकमलिप ऋपि-समुदायकाहार-दानार्थमुमागि ॥ सरसति निनगिनितु कलापरिणति नेगर्दजितसेन-पण्डितरिन्दम् । दोरेवेत्तु देवियादी पिरियतन निन्नदल्तिदवर महत्वम् ॥ एनिसिद परवादीभसिंहापर-नामधेय-श्रीमत्-अजितसेन-पण्डितदेवर काल कर्चि धारा-पूर्वकमा-सम्बन्धद समुदाय मुख्यमागे कोट्ट ग्रामडळ (यहाँ दानकी विस्तृत चर्चा तथा वे ही अन्तिम वाक्यावयव और श्लोक आते है) द्रमिळ-गणो लसतितरा निरुपम-धी-गुण-महितैः ।। श्रीमत्-सेनवो शोभनय्यं दिगम्बर-दासि बरेदम् ॥ स्वस्ति । वीर-देवके पुत्र विक्रम शान्तरकी प्रशसा । उसका मूल नाम ओड्डग था । उसकी प्रशसाके श्लोक । ओडुग 'विक्रम-शान्तर' हो गया। विक्रम-शान्तर-देवने (उक्त मितिको ) पञ्चवसदिमे पूजाके लिये, मरम्मत तथा भपियोके आहारके लिये, वादीभसिंह इस द्वितीय नामसे प्रसिद्ध अजितसेन-पण्डित-देवके पैरोके प्रक्षालनपूर्वक (उक्त) गाँवोका दान, संपूर्ण करोंसे मुक्ति दिलाकर, किया । वे ही अन्तिम श्लोक । दमिळ-गणकी अत्यन्त शोभा है । सेनबोव शोभनय्य दिगम्बरदासिने इसे लिखा है। [EC, VIII, Nagar tl, n° 40 ( Part II)] Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ कोरका लेख २२७ C कोणूर ( जिला बेलगांव ) - कन्नड [ विक्रमादित्य चालुक्यका १२ वा वर्ष = १०८७ ई०] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनं जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासन || श्रीनारिप्रिये(य) कण्डु तन्न नयनद्वन्द्वाळकत्रात जैनान्त्रि (द्वि ) नखाळियोळमधुकरत्रात सरोजा ळियं तानेतिल्लेगे तन्दुदेन्दु वगेट मुग्धत्वदिन्दा जिन भूनाथेश्वरेश मोक्षुनिधिगंगी गायुम श्रीयुम ॥ स्वस्ति श्री भुवनाश्रय पृथुधराश्रीवल्लभ शूकरन्यस्ते ध्वजलाञ्छनं नुतमहाराजाधिराजं यशोविस्तार परमेश्वराकपरम भट्टारक शात्रवोन्मस्तन्यस्तपदाब्ज नूर्जितयगं चालुक्यकण्ठीरव ॥ सत्याश्रय-कुळतिळक सन्य युधिष्ठिरननेक विद्यानिपुण प्रत्यक्षविक्रमादित्यात्यतयगोविळासि त्रिभुवनम || तद्राज्यमुत्तरोत्तरवद्रिप्रभुचन्द्रसूर्यरुनेवर भद्रं सलुत्तमिरे रिपुविद्रावणतत्प्रियात्मजं जयकर्ण ॥ जयकर्णावनिपाळभालुरलसल्लालाटिक श्रीवधूनयनाळंकृतरूप नूर्जितयग. श्रीकामिनीवल्लभ जयकान्ताभुजदण्डनाहवगदादण्ड गुणोन्मण्डित नयदिं कूडिधराधिपत्यो िचामण्डदडाधिप || स्वस्ति समधिगतपच महास्तुत्यविराजमानशब्द महाश्रीविस्तार पृथुविमळगुणस्तोमं मण्डळेश्वर सेननृप ॥ बदन निवासदनवात्मीयोरुवक्ष लसत्सदळंकाररमाविळासनिळसल्लक्ष खदोर्दण्डवुन्मदवीरारिगिर. प्रकन्दुकहतिक्रीडोद्वदण्ड निजाभ्युदय सर्वजनानुरागदुदय श्रीसेन भूपाळन ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર્ जैन शिलालेख संग्रह ५३ दरम्। संभूयेदमकारयन्गुरुशिरः संचारिकेत्वंव (ब) रप्रांतेनोच्छलतेव वायुविहतेद्यमादिश[त्पश्य-] ५४ ताम् ॥ ० ॥ अद्वैतस्य जिनेश्वर मंदिरस्य निष्पादनपूंजनसंस्काराय कालान्तरस्फुटितत्रुटितप्रतीका ५५ रार्थं च महाराजाधिराजश्रीविक्रमसिंहः खपुण्यरासे (शे) रप्रतिहतप्रसरं परमोपचय चेतसि [[न] धाय ५६ गोणीं प्रति विगोपक गोधूमगोणी चतुष्टयवापयोग्यक्षेत्र च महा[चक्र ] ग्रामभूमौ रजक द्रहपू ५७ टिग्भागवाटिका वापीसमन्विता । प्रदीप मुनिजनशरीराभ्यजनार्थ करवटिकाद्वय च दत्तवान् । तच्चाच५८ द्रार्क महाराजाधिराजश्री विक्रमसिंहोपरोधेन । " व (ब) हुभिर्व्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य य ५९ स्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फल " मिति स्मृतिवचनानिजमपि श्रेयः प्रयोजन मन्यमानैः सकलैरपि ६० माविभिर्भूमिपाल: प्रतिपालनीयमिति ॥ ० ॥ लिलेखोदयराज या प्रस (शस्ति शुद्ध वीरिमाम् । उत्कीर्णवा६१ न् शिलाकूटस्तील्हणस्ता सदक्षराम् || संवत् १९४५ भाद्रपदसुदि ३ सोमदिने || मङ्गलं महाश्रीः || [ यह शिलालेख सन् १८६६ में कप्तान डब्ल्यू. आर. मैलबिलीको दुबकुढके एक मन्दिरके भग्नावशेषमे मिला था । इस लेखमे कुल ६१ पंक्तियाँ है । ५४ - ६१ की पक्तियोको छोड़कर शेष लेस लोकोमें है। इसको प्रशस्ति (पक्तियाँ ४७ और ६० ) कहा है। इसको विजयकीर्ति ( पं. ४६ ) ने धनाया, उदयराजने (पं. ६०) लिखा और उत्कीर्ण करनेवाला Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " दुवकुण्डका लेख ३४७ शिल्पी तिल्हण ( पं. ६१ ) था । इस सारे लेस में 'ब' 'व' अक्षरसे लिखा गया है । इस लेखका उद्देश्य एक जैनमन्दिरकी - जिसके कि पास यह शिलालेख मिला है - स्थापनाका उल्लेख करना है। इसकी स्थापना कुछ निजी आदमियोंने की थी और इस मन्दिरको कुछ दान महाराजाधिराज विक्रमसिंह ( पं. ५४ - ५८ ) ने दिया था । इस शिलालेख के लिखनेके समय, विक्रम स. १९४५ में, वे दुचकुण्डके आसपासके प्रदेशपर शासन करते थे । इस लेखके स्पष्टतः दो विभाग हो जाते है पहले विभागमे ( पंक्तियाँ १०-३२ ) युवराज विक्रमसिंह और उनके पूर्वजोका वर्णन है; दूसरे में (पक्तियाँ ३२- ५१ ) मन्दिर के सस्थापको ( या प्रतिष्ठापकों ) तथा उनसे सम्बद्ध कुछ मुनियोका वर्णन है । प्रारम्भके छह श्लोको ( पं १ - १० ) से कवि ऋपभस्वामी, शान्तिनाथ, चन्द्रप्रभ और महावीर इन तीर्थकरोकी, तथा गणधर गौतम, श्रुतदेवताकी जो पकजवासिनीके नामसे जगत्मे प्रसिद्ध है, स्तुति करते है । युवराज विक्रमसिंह वर्णन ( प. १० - ३२ ) मे ऐतिहासिक तथ्य इस प्रकार है. - कच्छपघात (कछवाहा ) वशमे - १ पांडु श्रीयुवराज ( ? ) हुए । उनके बाद उनके लडके--- २ अर्जुन हुए, जिन्होने विद्याधरदेवके कार्यसे, युद्धमें राज्यपालको मारा । उनके पुत्र ३ अभिमन्यु हुए, जिनके पराक्रमकी प्रशंसा राजा भोजने की थी । उनके पुत्र- ४ विजयपाल हुए, और फिर उनके पुत्र ५ विक्रमसिंह हुए, जिनके कालकी तिथि यह शिलालेख संवत् ११४५ भाद्रपद सुदि ३ सोमवार बतलाता है । दूसरे विभागके लेखका सार यह है कि विक्रमसिंहके नगरका नाम चदोभा था । यह चदोभा वर्तमान दुबकुण्ड ही होना चाहिये और उस समय यह एक बड़ा भारी व्यापारका केन्द्र रहा होगा । ३२-३९ की पंक्तियोंके श्लोको उस समय दो प्रसिद्ध जैन व्यापारियो का नाम - ऋषि और दाहड Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ जैन-शिलालेख संग्रह दिया हुआ है । विक्रमसिंहने उनको 'श्रेष्टि' की पदवी दी थी और इन्हींम से एक-साधु दाहड़-मन्दिरके मंन्यापकोमेसे है । अपि और टाइट दोनों ही जयदेव और उसकी पत्नी यशोमतीके पुत्र, तथा श्रेष्ठी जासूफके नाती थे। जासूस जायसवाल वंशके ये जो 'जायन' (एक गहर) से निकला था। ३९-४५ की पक्तियोमे कुल जन मुनियोका वर्णन है । उनमने अन्तिम विजयकीर्ति थे। उन्होने न केवल इस शिलालेसका लेप ही तैयार किया था, वरिक अपने धार्मिक उपदेशसे लोगोको इस मन्दिरके निर्माण के लिये भी, जिसका कि यह शिलालेय है, प्रेरणा की थी । वल्लेखित मुनियोंमसे सर्वप्रथम गुरु देवसेन है। ये लाट-बागट गणके तिलक थे। उनके शिष्य कुलभूषण, उनके मिष्य दुर्लभसेन सूरि हुए । उनके बाद गुरु शान्तिपेण हुए, जिन्होंने राजा भोजटेवकी गभामें पंडित गिरोरव अंबरसेन आदिके समक्ष सेकडों वादियोको हराया था। उनके शिष्य विजयकीनि थे। मन्दिरके सम्यापको से पंक्तियाँ ४८-५१ उनका नामोलेप इस प्रकार करती है. साधु दाहड़, कृकेक, मूर्पट, देवधर, महीचन्द्र, और रक्ष्मण ! इनके अलावा दूसरोने भी जिनका नाम यहाँ नहीं दिया गया है, इस मन्दिरकी स्थापनामें मदद दी थी। गद्यभागमे (५४ वीं पक्तिसे शुरू होनेवाला) कथन है कि महाराजाधिराज विक्रमसिंहने मन्दिर तथा इसकी मरम्मतके लिये तथा पूजाके प्रवन्धके लिये प्रत्येक गोणी (अनाजकी') पर एक विशोपक' कर लगा ढिया था तया महाचक्र गॉवमे कुछ जमीन भी दी थी तथा रजकद्रहमें कुमासहित बगीचा भी दिया था। दिए जलाने के लिये तथा मुनिजनोके शरीरमें लगानेके लिये उन्होने कितने ही परिमाणमे (ठीक ठीक परिमाण जाना नहीं जा सका, शिलालेखके शब्द है 'करवटिकाद्वय') तेल भी दिया। अन्तमें आगामी राजामोको भी उपर्युक्त दानको चालू रखनेकी प्रार्थना करनेके बाद, ६०-६५ पक्तियोम इस प्रशस्तिके लिसनेवाले और इसको खोदनेवाले दोनोंका नाम दिया है । लिखी जानेकी तिथिका उल्लेख करके यह शिलालेस समाप्त हो जाता है । ) [F Kielhorn, EL, II, n° XVIII (p. 237-240).] Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कणवेका लेख રૂર श्रवणबेलगोला-संस्कृत [बिना कालनिर्देशका] [देखो, जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथम नाग] कणवे-मस्कृत तथा कन्नड़-मन्न [वर्ष शु. १०९० ई. १ (लू. राइस)।] [क्णवेमें, कल्लु-बस्तिमें एक समाधि-पापाणपर] श्रीमत्परमगमीरस्याबाटामोवलाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनायव शासनं जिनशासनम् ।। साहस........ ......"महिम जिन-शत्रु वि...." 'होयसळा....." निळेयं सम्यक्त्व-चूडामणियने नेगळे मण्डारि-चन्टिमय्यन प्रियेयु जिनपाढान्वुजम मरियनुन दिवकेय्-दिदरेन्दोडे कृतार्थरिनार त्रिखावनियो । स्वस्ति समस्त-प्रशस्ति-महितं जिन-गन्धोटक पवित्रीकृतोत्तमाङ्गनु भव्य-रत्नाकरन सरखती-देवी-कर्ण-कुण्डलाभरगनप्प श्रीमन्महात्यवान होत्सव-देवन भण्डारि चन्दिमय्यन हेण्डति बोप्पच्वेयु शुक्ल-संवसरट पाय-मासन्धु सन्यासन गेनु समाधि सहित सोमवारदरडनेयजावदल स्वर्ग-प्रापितरावर [जिनशासनको प्रशंसा । प्रधान मत्री होरस-देवके वज्ञाञ्ची चन्दिमरयकी पत्नी बोप्पन्चने (उन्म मिनिको), मंन्यसन करते हुए, समाधिपूर्वक 'स्वर्ग' प्राप्त किया। [EC, TIII, Tirthahalli tl, n° 198.] Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जैन-शिलालेख संग्रह वाळहोन्नूर-संस्कृत [विना कालनिर्देशका,-पर सभवत लगभग १०९० ई० का ] वाळहोन्नूरम, दूसरी चट्टानपर] श्रीमदादीभसिंहम्याजितसन-महा-सुनेः । अपशिष्येण मारेण कृता सेयं निगीधिका ॥ अगणितगुणगणनिलयो जैनागम-वाधि-वर्द्धन-शशाङ्कः । ..."त्यूर्जित-मण्डलि ....."र-गणे नत-गणाधीशः ॥ [वादीमासिह मजितसेन महामुनिका यह स्मारक उनके प्रधान शिष्य मारके द्वारा बनाया गया था । ये गणाधीन अगणित गुणोंके निलय (स्थान) थे, जैनागमरूपी समुद्रके पानीको बटानेके लिये चन्द्रमा थे।) [EC VI, Koppati, n° 3 ] कणवे-संस्कृत तथा कन्नड [वर्ष पाङ्गिरस, १०९३ ई० ? (ल. राइस)।] [कणवेमे, एक दूसरे समाधि-पाषाणपर] श्रीमत्परम-गम्भीर-स्याहादामोव-लाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनायस्य शासन जिनशामनम् । श्री मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय-देशीयगण-पुस्तकगच्छ लोकियव्ये वसदिय प्र . "तळताळ बसदि बळ: 'रं बल्चुब लतान्त-सड्नि दि सञ्- 1 चठिसि पळञ्चि तू "रन नडिसि मेम्बगेयाद-दूसरं । कलयदे निन्द कबुनद कग्गिद विट्टिनमरक्केवेत्त क-। त्तळमेनिसित्तु पुत्तड मेय्य मल मलधारि-देवर ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमवारका लेख ३५१ स्वस्ति श्रीमदाङ्गिरस -संवत्सर - पौप्य मास बहुळ- सप्तमियादित्यवारदन्दु अवर शिष्यरु शुभचन्द्र-देवर समाधिविधियिं स्वर्गस्थ - रादरु | [ जिनशासनकी प्रशसा । श्री मूलसव, कोण्डकुन्दान्चय, देशिय गण और पुस्तक- गच्छ, लोकियन्ये बसदिकी तलताल सदिके मलधारि-देव थे, कठोर तपस्यासे जिनका मारा शरीर धूल-धूसरित हो रहा था, लोहे के समान बहुत समयतक जिसपर जङ्गमी चढी हुई थी, और वल्मीक ( चींटियोकी सोढ़ी हुई मिट्टीका ढेर ) के समान हो गया था । (उत मितिको ), उनके शिष्य शुभचन्द्र-देवने समाधिके वलसे स्वर्ग प्राप्त किया । ] [ EC, VIII, Tirthahall tl, n° 199 ] २३३ हळे-वेलगोला - संस्कृत तथा कन्नड [शक १०१५ = १०९३ ई० ] ( जैन गिलालेस संग्रह, प्र० भाग ) २३४ सोमवार - कन्नड भन्न [ शक १०१७ = १०९५ ई० ] [ सोमवार (मल्लिपट्टण परगने ) में, बसव मन्दिरकी एक सोटपर ] स्वस्ति''''भद्रमस्तु जिनशासनाय स्वस्ति शक वर्ष २०१७ नेय युवसंवत्सरद भाद्रपद मासद सुद्ध - सप्तमी - गुरुवार दन्दु मकर लग्नं गुरूद - यदल श्रीमत् सुराष्ट - गणद कल्नेलेय रामचन्द्र-देवर शिव्यन्तियरप्प अरसव्वे - गन्तियर (यहाँ सम्म हो जाता है ) । [ ( उक्त मिति को ) सुराष्ट- गणके कल्नेलेके रामचन्द्र देवकी शिष्या अरसव्वे-गन्ति 1 [ EC, V, Arkalgad tl, n° 96 ] ..... Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जैन-शिलालेख संग्रह २३५ दुवकुण्ड-स्तम्मपर-संस्कृत [संवत् ११५२८१०९५ ई.] संवत् ११५२-वैशाखसुदिपञ्चम्यां ॥ श्रीकाष्ठासंघमहाचार्यबर्यश्रीदेवसेनपादुकायुगलम् । [स्पष्ट है] [A Cunningham, Reports, XX, p 102 ] सोमवार-कन्नड़ [विना कालनिर्देशका, लेकिन सभवत. लगभग १०९५ ई.] [सोमवार (मल्लिपट्टण परगना)में, वसवण्ण मन्दिरके मुख-मण्डपके सामनेके पापाणपर] पतिय सन्ततिय पति पेळद-मार्गदिम् । पति-हितनागि निस्तरिसि तत्पति माडिप जैनगेहमुन्-। नति-वेरसिर....यनन्तदकहर-। प्पति-शशियुलिन निरिसि जकनिदेम् सुकृतार्थनादनो ।। दुद्दमल्ल-देवन वाणसि जक्कय्यं माडिसिदम् ॥ [अपने स्वामीके कुटुम्बमेंसे, उसी पद्धतिसे जिसे उसके स्वामीने बतला. या था, स्वामीके प्रति रहे हुए प्रेमसे उसने उसी मन्दिरको खड़ा किया जिसे उसका खामी बना रहा था। उसे आशा थी कि यह मन्दिर तब तक खड़ा रहेगा जब तक आकाशमें सूर्य और चन्द्र चमकते हैं । जक कितना भाग्यशाली था? दुद्दमल्ल-देवके रसोइये जक्कय्यने इसे बनवाया।] [ EC, V, Arkalgnd tl , n° 97 ] Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौदत्तिका लेख ३५३ सौंदत्ति - संस्कृत तथा कन्नड [विक्रमादित्य चालुक्यका २१ वा वर्ष=१०९६ ई. ] खस्ति समस्तभुवनाश्रय (यं) श्रीपृथ्वीवल्लभ (में) महाराजाधिराज(ज) परमेश्वर (२) परमभट्टारक | सत्याश्रयकुळतिलक (क) चालक्याभरणं श्री[ म] त्रिभुवनमल्लदेवविजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारबरं मलुत्तमिरे ।। तत्पादपद्मोपजीवि ॥ खस्ति समधिगतपचमहाशब्दमहामण्डलेश्वर । लत्तलूप्पुखराधीश्वर त्रिबळीर्यनिग्धोषणं । रट्टकुळभूषण । सिन्धुरलाञ्छन । विवेकविरिञ्चन । सुवर्णगरुडध्वजं सहजमकरद्व(व)ज नामादिसमस्तप्रस( श)स्तिसहित श्रीममहामण्डळेश्वरः कार्तवीर्यनृपः । रहवंशोद्भवः ख्यातो ननभूपस्य नन्दन. । श्रीमदाहबमल्लस्य पादपद्मोपसेवकः ॥ सहस्रबाहुरिव ख्यातः कार्तवीर्यः प्रतापवान् । कुहुण्डिदेशया( स्या )घाटं सादि( घि)त तेन भूभुजा ॥ राजन्वत्यः प्रजा जाता दापरिनाम भूभुजा । तस्यानुज. प्रतापी स्यात् कन्नकैरो महीपति. ॥ तस्याग्रनन्दनो भाति वाद्या विद्याविदो भुवि । एरगाख्यमहीप स्वादनुजोस्याक्रभूपतिः ॥ वाद्या विद्याधरस्याग्रसूनुः श्रीसेनभूपतिस्तस्याग्रमहिपी जाता मैळलादेविसर्जिता ॥ श्रीकाळसेनभूपस्य तस्यासीदग्रनन्दनः [1] कनकैरनृपः ख्यातो नृत्यगीतादिकोविदः ॥ तस्य गुरवः ॥ त्रैविद्यो राजते भूमौ सर्वशास्त्रविशारदः । कनकम(भोसिद्धान्तदेवो गणधरोपमः ॥ कनकप्रभदेवेभ्यः सक्रान्तो (न्तौ ) सत्तियौ तदा । निवर्तन द्वादश (श) दत्तं नमश्य (स्य ) नन्नभूभुजा ॥ तस्यानुजः ।। गम्भीरेण समुद्रोसि शि० २३ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जैन शिलालेखसंग्रह नैनन्दः । श्रीज्ञानीर्य के निकन्दः । ल कतनका ति लिन जवू 0 का मुन्टाइलिसन __॥ सुगन्धवहनबन्ने सननन रनिनिलिन हक नलै जित नतिः । ऋग्नान सेनगुना । ।। किन नयमिनिन्दिन । मानवानुमंवत्सर उल्का - विचमाज (1) श्रपाडिदेवन कायनागुन वनिम्न मन से, वान श्रीकनक गुरु काजशनिंन्न (वं, बस दिन लि, लगिना) म पलिगन्ति । दरिजिनले मुगवर्निर चिकुलाट उत्साहित कहा नही नाक बनल बनुनय कई कले नन्य मन्तितः यिन्त्रन भूयो नयाच्ने नन्द्र. निमुन कुन बिलिन्टि अट या नट लकान्द्र लोहन मुन्न। पनि नयने निः । वृत्त । नन्द (वि) नई विनिताई जुग । सहरमन्नायु श्रन्द ना...... बुन्डिननितिगत (क) कोटन (दु कुन दिन्न ईगु ।" " मानलंगको कारणाशि बर्च वगळलेचे Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुम्मचका लेख ३५५ [तु] कुळद्विजपुगवगोकुळमनळि दरिन्तिदनळिदर । वीरपेर्माडिदेवस्य जिनालय ॥ [इस लेखमे चालुक्य राजा पेर्माडिदेवके द्वारा शकवर्ष १०१९ मे जो धातु 'संवत्सर' था, १२ 'निवर्तन' भूमिके दानका उल्लेख है । तत्पश्चात् कन्नकेरके दानका उल्लेख है । यह दान उक्त दानसे पहलेका होना चाहिये । यह कन्नर, प्रथम या द्वितीय है, यह इस लेखपरसे कुछ पता नहीं चलता। अन्तमें यह लेख अपने साधारण तरीकेसे भूमिदान करनेके तथा पूर्ववर्ती राजाओंके दानोंकी रक्षा करनेके फायदोंके बतानेवाल श्लोकोसे समाप्त होता है। [JB,X, p 170-171 a, p. 194-198, t, p 199, tr , _ins n° 2, ( II part ) ] २३८ हुम्मच-कन्नड-भन्न [काल लुप्त, पर संभवत. १०९८ ई० १ (लुई राइस)] [पंचवस्तीके प्राङ्गणमे, दक्षिणकी ओरके एक पाषाणपर] स्वस्ति श्री-मूल-संघद ..."पुस्तकगच्छदोळे प्रसिद्धि-वडेद श्री ......"भट्टारक-शिष्यरप्प लक्ष्मीसेन-भट्टारक-देवरु चिरकाल तप गेय्दु.... ...॥ विदित-बहुधान्य ......"कार्त्तिक शुक्ल तृतीयार्कजवार-सूर्योदय""लक्ष्मीसेन-मुनिपरमरास्पदम ॥........ ....... . देवसेन-भट्टारक .......... चारित्र-गुणोल्लसित-श्री-पार्श्वसेन-भट्टारकएने जस बडे...॥ विदित-बहुधान्य-नामा । ब्ददोळोप्पुव-चैत्र-बहुळ-नवमी-कुजवा मूल लेखके अनुसार शक काल १०१८ बीतनेके बाद जो कि चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीयके राज्य प्रारम्भ होनेका २१ वॉ वर्प था। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जैन-शिलालेख संग्रह रढोळोड्डि समाधियि । रिददरनुपम-पार्श्वसेन-मुनिपर दिवमम् ।। [स्वस्ति । श्री-मूलसंघ और पुस्तक-गच्छमें प्रसिद्ध .... भट्टारकके शिष्य लक्ष्मीसेन-भट्टारक-देवने बहुत समयतक तप किया। (उक्त मितिको), सूर्योदयके समय लक्ष्मीसेन मुनिने अमरपद प्राप्त किया। पार्श्वसेन-भट्टारककी प्रशंसा, जिन्होंने उसी वर्षमें, समाधि-विधिके द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया। [ EC, VIII, Nagar ti , n° 42 ] २३९ चिक-हनसोगे-कन्नड़-भन्न [शक १०२१-१०९९ ई.] जिन-बस्तिमें, मन्दरके दरवाजे के दक्षिणको भोरके एक पाषाणपर ] भद् भूयाजिनेन्द्राणा शासनायाधनाशिने । कुतीर्थध्वान्तसद्धातप्रभिन्नघनभानवे ।। वननिधि-परिवृत-सीमा-बनियोळ् सले नेगळ्द कोण्डकुन्दान्वयदोळ् । पनसोगे-निवासि-महा-मुनि-वरश्री-कर-[विमुक्तरागम-युक्तर ॥ यमि-नायाग्रणि पूर्णचन्द्र-मुनिपत ... "दामणदि-मुनीन्द्रर तदपत्यरन्तवर शिष्य-श्रीधराचार्यर् आयमि-शिष्यर् म्मलधारि-देवस्वर्गादर् चन्द्रकीर्त्तिवति-प्रमुखतंत्तनुजातराततयशर सिद्धान्तचक्रेश्वरर् ॥ खस्ति यम-नियम-खाध्याय-ध्यान-मौन ..."परायणरप्प श्री-मूलसङ्घद देशि-गणद पुस्तक गच्छद श्री-दिवाकरनन्दि-सिद्धान्ति देवर .. ' न्तिसववे-गन्तियर सक-वरिष सायिरद इ १०२१ नेय Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिक्क-हनसोगेका लेख ३५७ प्रमादि- संवत्सरद फाल्गुण-सुद्ध-पञ्चमी आदिवारदन्दु य पाळि मूळपरिग्रहं चरियल ३० गद्याण " 'चन *********** ****** [ जिनशासनकी प्रशंसा । कोण्डकुन्दान्वयमें पनसोगे-निवासी मुनियों में प्रधान पूर्णचन्द्र मुनि थे। उनके शिष्य दामनन्दि-मुनीन्द्र थे, उनके शिष्य श्रीधराचार्य थे; उनके शिष्य मलधारी देव थे; उनके पुत्र चन्द्रकीर्त्तिव्रती थे । " मूलसंघ, देशिगण तथा पुस्तकगच्छकी दिवाकरनन्दि सिद्धान्त देवकी शिष्या, बेसववे-गन्विने" के करनेके लिये ३० गद्याण दिये । ] [ EC, IV, Yedatore tl, n' 24 ] २४० चिक्क-हन सोगे-कन्नड़ [ विना काल-निर्देशका, पर सम्भवत लगभग ११०० ई० ] [चिव-इनसोगे में, शान्तीश्वर वस्तिके दरवाजेके ऊपर ] श्रीमूलसङ्घद टेसिंग-गणद होत्तगे - गच्छद समुदाय मुख्यते रामस्वामि विपरमेश्वर - दत्तिगे ॥ उपवास-प्रोन्नत-विधि - | युपवासानेक चार - चान्द्रायणदिन्दर्प-मद- जयकीर्ति-मुनि- । प्रवरं श्री- पुस्तकान्त्रयाम्बुजसूर्य । दशरथसुतनु लक्ष्मणाग्रजनु सीता वल्लभनु इक्ष्वाकु कुलजनुमप्प रामन प्रतिष्ठे देसिग - गणद बसदि इल्लि ६४ रामम्र्म्माडे गङ्गपडि सलिसे वृन्द-तीर्थद-वसदिय यादवरप्प चनाकवरोळगे श्री राजेन्द्र-चोळ-नन्नि चाळव-देवर पुनर्नवं माडिदरीपनसोगेय देसि गणद होत्तगे गच्छद बसदि ४ के तले - कावेरिय वंसदिगळ्गु तत्समुदायमुख्य [ रामस्वामीके छोडे हुए (?) परमेश्वर-प्रदत्त (१) दानका प्रधान मूलसङ्घके देशी गणके होत्तगे गच्छका समुदाय है । पुस्तकान्वयरूपी कमलके लिये ....... Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह जयकीर्ति-मुनि सूर्यके ममान थे । ये अनेक उपवास और 'चान्द्रायण' व्रत करनेमें विख्यात थे। यहाँ दशरथके पुत्र, लक्ष्मणके बड़े भाई, मीताके पति, इक्ष्वाकुकुलोरपत्र रामके द्वारा प्रतिष्ठित टेसिग-गणकी ६४ बसदियाँ हैं। . बन्द-तीर्थकी बमदिको जिसे पहले रामने बनवाया था और जिसको गहोने दान किया था, चङ्गाल्ववशी यादवीय राजेन्द्रचोक नन्नि-चङ्गाबदेवने फिरसे बनवाया। इम पनसोगेमें देसिग-गणके होत्तरी गच्छकी १ वसदियों, और तलकावेरीकी बसदियोंका वही समुदाय मालिक है।] [EC, IV, Yedatore t), ao 26] २४१ चिक हनसोगे--कन्नड़ [विना काल-निर्देशका, पर सम्भवत लगभग ११०० ई० ? ] [चिक्क-हनसोगेमें, नेमीश्वर बस्तिके दरवाजे के ऊपर] श्रीमद्-देसिग-गण पुस्तक-गच्छद श्रीधर-देवर शिष्यरेळाचार्यरखर शिष्यद्दोमनन्दि भट्टारकरवर साधर्मिगळ् चन्द्रकीर्ति-भट्टारकरखर शिष्यदिवाकरणन्दि-सिद्धान्तदेवरवर शिष्यर्चान्द्रायणी देवापरनामधेयरप श्रीमजयकीर्ति देवरादियागा-समुदाय-मुख्यमी-बसदिगळेलवर्कमासमुदायद वशमल्लदवरना-समुदायमि? निर्दोडिसि पोरैमडिसि कळेबुदु । रामखामि बिट्ट परमेश्वर-दत्तिगे तोल्लडियिन्द बडगण तुम्विन नीर् वरिद नेलन विक्रमादित्यं विट्ठ १८ गेण कोलिन्द १५०० कम्म मोदलेरियल वेजिरिंगट्टद केळगे आ-कोलि(न्ट) २५० कम्म मण्ण तोण्टक्के चङ्गावं मदुरनहल्लियुमनल्लि ५००, कम्म मण्ण"". . Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्डका लेख ३५९ [ देसिग गण और पुस्तक- गच्छके श्रीधरदेव थे, जिनके शिष्य एलाचार्य थे, उनके शिष्य दामनन्दिभट्टारक थे, उनके साथी चन्द्रकीर्त्ति भट्टारक थे, उनके शिष्य दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव थे, उनके शिष्य जयकीर्त्ति देव थे जिनका दूसरा नाम चान्द्रायणी देव भी था, इन सबका समुदाय इन बसदियोका मालिक है । जो इस समुदायके अधीन नहीं है उन्हें यह समुदाय भगा देगा, बाहर भेज देगा । चङ्गाळवने, १८ बिलस्तके दण्डेके नापसे, विक्रमादित्यकी छोडी हुई और वोल्लडिकी उत्तरीय नहर या मोरीसे सींची गई तथा परमेश्वरकी दी हुई और रामस्वामीकी छोडी हुई १५०० 'कम्म' (एक नापविशेष ) जमीन दानमे दी, उसी नापसे वेजिरिगट्टकी २५० 'कम्म' जमीन बगीचेके लिये, और '५०० 'कम्म' मदुरनहल्लिमे दिये । ] [ EC, IV, Yedatore tl, २४२ अगडि - कन्नड़ - -ध्वस्त । n° 28] [ चिना काल-निर्देशका, पर संभवत लगभग ११०० (१) ई० का ] [ अगडि ( गोणीबीड परगना ) मे, बसदिके पासके पाषाणपर ] भद्रमस्तु जिनशासनस्य श्री ण गङ्गदासि सेट्टि सोमदि .... ......... धिय मुडिहिद प... क्षके मग चटयं निलिसिद सासन • [ जिन-शासनका कल्याण हो । गङ्गदास सेट्टिके मर जानेपर, उसके पुत्र वने यह स्मारक उसके लिये खड़ा किया । ] [ EC, VI, Mūdgere tl, n° 10] २४३ सण्ड संस्कृत तथा कन्नड़ - भग्न [ विना काल-निर्देशका, पर संभवत. लगभग ११०० ई० का ] [ सण्डमें, तालाबके प्रवेश-द्वारपरके एक पाषाणपर ] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।। खस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री पृथ्वी-वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय-कुळतिळक चालुक्याभरण श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल देवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रावतारम्बरं सलत्तमिरे ॥ तत्पादपद्मोपजीवि ॥ खस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महासामन्ताधिपति महा-प्रचण्ड-दण्डनायक विबुधबर-दायक सुजन-प्रसन्न नुडिदु मत्तेन गोत्र-पवित्र पराङ्गना-पुत्र...... ..."सोत्तुगनय्यन-सिङ्ग नामादि-समस्त-प्रशस्ति-सहित श्री .... वेडे मने-वेग्गडे-दण्डनायकननन्तपाळय्यं गजगण्ड-अरुनूरुमं वनवासे ......"मुम सप्ताद्ध-लक्ष्म(क्ष)यच्छ-पन्नाय-मुम पडेदु सुख-संकथा-विनोददि... तत्पादपद्मोपजीवि ॥ श्री-वनिता-कुच-सम्मृतपीवर-वक्ष-स्थळ लसद्गुण-मणी · । .............। .....'सकळ-विभु (बु) ध-जनता".""॥ आ-समस्त-गुण-गणाभरणनु विबुध-जन-पर... ... .."विळसितजगद्-वळय · वनु रण-रङ्ग भैरवन सकळ सु-कवि-जन-क"......." वीर-लक्ष्मी-विळासनुमनन्तपाळ-प्रसादनुदिताधिकार-लक्ष्मी-विळासनु" - " "[गोविन्दरसं वनवासे-पन्नि»सिरमुम मेल्पट्टेय वड्डरावुळमु........."नोददिं प्रतिपाठिसुत्तमिरे ॥ .... - श्रियं निज-भुजबळदिम् । " दायाद बळ ...................। -- Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्डका लेख .... 00 .....न-1 जेय रिपु- नृप-पयोज -सोम सोमम् ॥ आनेग............गळ महा . वैयोगेव वोलानत -रिपुयोगेद..... महीपति-प्रतिम प्रताप-निळ्य निज-सन्ततिगोसुगे पुढे रिपु ............. पुदि सोवरस || ... जमदनण्मिनार्ष्णेने कट्टायदे चलढोळोदविदुन्नति... रेम् पुट्टिदर ॥ नभम ३६१ शरणे मगेन्न देवदेमगे बेसनाबुदु बुद्धियेन्नम् । वरिसि नितान्तमेरिसिद विल्लव-वृत्ति ने पे- 1 डिर् केलदोळ् केळदु वीरुव विडे वीरुवधिक चैरि-भूपरनातनत्तर मरुळ तण्डम नोडने सोम-भूमिपम् ॥ किं कल्पद्रुम-वल्लरी किमु रतिः शृङ्गार - भङ्गी - गुरो. किं वा चान्द्रमसी कला विगलिता लावण्य-पुण्या दिवः । सम्यग्दर्शन- रेवती किमु परा सोमाविका राजते राज्ञी सा वनवासि - सोम-नृपतेर्जाता मनोवल्लभा ॥ लोक ॥ क्षीर-सिन्धोर्य्यया लक्ष्मीहिंमागोरिव दीधितिः । तथा तयोस्तुते जाते जिन - शासन-देवते ॥ पूर्वं वीराम्बिका जाता ततोऽजन्युदयाम्बिका । इति भेद तयोर्म्मन्ये सद् गुणैस्समता द्वयोः ॥ कि देवेन्द्र - विमान एप किमुत श्री नागराजाश्रयः कि हेमाचल-शैल इत्यनुदिनं शङ्का दधान जने । निशेषावनिपाल - मौलि- विलसन्- माणिक्य- मालाश्चितम् । भाट्यत्युन्नतिमज्जिनेन्द्र-भवन ताभ्या विनिर्मापितम् ॥ तोडरे तोडङ्क मच्चरिसे गण्टल सिल्किद- गाळ बुक्के मार- । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ जैन - शिलालेख संग्रह नुडिदडे जिम पिडिदु किळप तोडप्पिन पाशवेन्देडेन्त् । एडरुव (व ) रेन्तु मच्चरिपरेन्तु कर कडि केय्दु दप्पम [म् ] | लुडिदपरण्ण वार्षु मुद्रिम्बद जूजिनोन्य-भूभुज ॥ विडदेडरे सेणसि चुन्न । डिवरी-मनेयर वेन वार मिडियिम् । पेडेतले-वरम्माळ्पोत्तु । कडु - गलि शसि - विशद कीर्ति जुज कुमार ॥ जबनेरे वञ्चितेम्विनेगमान्तरि - भूपरनडि कोन्दु कू- । गुव तवे तिन्दु तेगुव तडगडिदि.... व वेन्न चारनेत्- | तुत्र पिडिदच्चि मुक्कुत्र पसुगरिडिं बडगिन्दियादुवा - | हव- भुज- शौर्य्यम · · · लि-वीरदनेन्दोड् इन्नार्गेर पोगर नेगब्द कुमार- गजकेसरियं ॥ अरमनेयोळे ....... ********* I ''न्दु विगिदु संगरमादन्दे । शिरलेय मुद्गाद्गेणेयनि- । परसर् पोल्तपरे .............डे मोगम तिरिपुवरिन्दडे नगुत्ररन्यरम्बद जूज ཧཱུཾ་་་་ य रिपु-जनक्कमत्थिं-जनक्कम् ॥ अनुपममे ........ वारितमेनिप दान - गुणदोळु मत्त 'तळदोळ् ॥ आतनळिय ॥ खण्डदोळि ...नेदुः मूळेगळम्मूरि• ....... • .... मुनि .... निसिद गुण वण दोरेय ... ******* ****** .. *********......... ... 11 ... Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयगिरिका लेख ३६३ [ जिन शासनकी प्रशंसा । जिस समय, ( चालुक्य उपाधियो सहित ), त्रिभुवनमल्ल- देवका राज्य चारो ओर प्रवर्द्धमान था और तत्पादपद्मोपजीवी मने वेडे दण्डनायक अनन्तपालय्य, गजगण्ड ६००, वनवासे १२०००, और सप्तार्द्ध - लक्ष (देश ) अच्छ - पन्नायको प्राप्त करके उनके ऊपर शासन कर रहा था, वत्पादपद्मोपजीची, जिस समय ( अनेक उपाधियो सहित ) गोविन्दरस बनवासे १२००० तथा मेल्पट्टे 'वड्ड-राकुळ' की शान्ति से रक्षा कर रहा था, उसका पुत्र ( प्रशसा सहित ) सोम या सोवरस था, जिसकी पत्नी सोमाबिका थी । उनकी वीराम्बिका और उदयाम्बिका, ये दो पुत्री थीं । इन दोनोंने एक जिनमन्दिर बनवाया । अम्ब जूज - कुमारके, जिसे कुमार गजकेसरी भी कहते थे, पराक्रमकी प्रशंसा । उसका दामाद, ' बहुत घिसा हुआ है ) (लेख ] [ EC, VII, Shikarpur tl, २४४ गुच्ची - कन्नड [ विना कालनिर्देशका ] ( देखो, जै० शि० सं० प्र० भाग ) n° 311] २४५ उदयगिरि ( कटकके पास ) - संस्कृत [ लगभग ईसाकी ११ वीं शताब्दि ] उद्योतकेसरीके समयका शिलालेख नोट – इस शिलालेखके लेखका कुछ पता नहीं है। इसका उल्लेख मात्र टी. ब्लॉक (T Bloch ) के Archaeological Survey of India, Annual Report 1902 1903, पृ० ४० के उल्लेख परसे हुआ है। [ उद्योतकेसरीके समयका यह शिलालेख, जो कि ई० ११ वीं शताब्दिका है, शुभचन्द्रके कुल और गणका उल्लेख करता है । शुभचन्द्रके शिष्यका Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ जैन- शिलालेख संग्रह नाम कुलचन्द्र था । ये ( कुलचन्द्र ) यहाँकी किसी गुफामे रहते थे और अपने गुरुकी तरह, अवश्य जैन रहे होंगे ] [T Bloch, A SI, Annual Report 1902-1903, p 40] २४६ नेसर्गी (जिला बेलगॉव ), कन्नड़ [ विना काल-निर्देशका, पर ई० ११ वीं या १२ वीं शताव्द्रिका ( फ्लीट ) ] बेलगाँव जिलेके सम्पगाँव तालुका नेसर्गीके एक छोटेसे तथा मईध्वस्त जैनमन्दिरकी एक खड्गासनस्थ बुद्ध प्रतिमा के चरणपाषाणपर निम्नलिखित अभिलेख पुरानी कन्नडके ई० ११ वीं या १२ वीं शताव्दिके अक्षरोंमे है. श्रीमूलसयद बलात्कारगणद श्री पार्श्वनाथदेवर श्रीकुमुदचन्द्रभट्टारकदेवर गुड्ड वाडिगसात्ति - सेवियर मुख्यवागि नख ( ग ? ) रङ्गळु माडिसिद नख ( ग 2 ) रजिनालय || [ श्रीमूलसंघ बलात्कारगणके, श्रीपार्श्वनाथदेवके श्री कुमुदचन्द्र भट्टारकदेवके शिष्य या अनुयायी वाडिगसात्ति सेट्टि जिनमे मुख्य था ऐसे नगरके ( व्यापारी लोगो ) द्वारा 'नगरका जिनालय' वनवाया गया । ] [IA, X, p 189, n° 16, t & tr ] २४७ ऐहोले- -कन्नड भन [विक्रमादित्य चालुक्यका २६ वाँ वर्ष, शक १०२३= ११०१ ई० ( फ्लीट ) ] [ ऐहोले गाँव के दक्षिण-पश्चिम दरवाजेके बाहर ही हनुमन्तकी आधुनिक कालकी वेदी है । इसके सामने 'ध्वजस्तम्भ' नामका एक पाषाण है। इस ध्वजस्तम्भके पादुकातलमे एक वीरगल या स्मारक पत्थर बनाया गया है जिसपर पुरानी कर्णाटकभाषामे एक शिलालेख है । इस लेखकी नकल भाग : Elliot MS. Collection पृ० ४१० पर दी हुई है । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ दानसालेका लेख पत्थरका ऊपरी हिस्सा दृष्टिसे मोझल हो गया है । लेकिन लेखकी तीन पंक्तियां द्रष्टव्य हैं। इनमे सोमवार दिन तथा विषु सवत्सरके, जो कि चालुक्य विक्रम-कालका २६ वाँ वर्ष अर्थात् , शक १०२३ (=११०१ ई०) होता है, श्रावणमासके शुक्लपक्षकी एकादशीका काल निर्दिष्ट है । पाषाणके दूसरे हिस्सेमें भगवान जिनेन्द्रकी मूर्ति है जो कि पद्मासन है और जिसके दोनो तरफ यक्षिणियाँ चवर ढोर रही है । पापाणका शेष हिस्सा दृष्टिमे नहीं आता है। लेकिन उसमें अव्यावोळे (ऐहोले) के पाँचसौ महाजनोंद्वारा दिये गये दानका उल्लेख है। ] [इ० ए०, ९, पृ० ९६, नं० ६९ ] २४८ दानसाले-संस्कृत तथा कन्नड [शक १०२५ ई० ११०३] [दानसाळेमें, दक्षिणकी ओर, वस्तिके पासके एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।। खस्ति समस्त-भुवनाश्रय श्री-पृथ्वी-बल्लभ महाजाराधिराज परमेश्वरपरम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ-तिळदा चालुक्याभरण श्रीमत्-त्रिभुवनमल्लदेवर विजय-राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतार सलत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि ॥ समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महा-मण्डलेश्वरनुत्तरमधुराधीश्वर पट्टि-पोम्बुर्चपुर-बरेश्वरम्महोग्र-वंशललाम पद्मावतीलब्ध-वर-प्रसादासादित-विपुळ-तुळा-पुरुप-महादान-हिरण्यगर्भ-त्रयाधिक दान वानर-ध्वज मृगराज-लाञ्छन-विराजितान्वयोत्पन्न बहु-कळा-सम्पन्न शान्तर-कुल-कुमुदिनी-शशाङ्क-मयूखाड्डर रिपु-मण्डलिक-पतग-दीपाकुर तोण्ड-मण्डळिक कुळाचळ-वज्रदण्ड विरुद-मेरुण्ड कन्दुकाचार्य मन्दर-धैर्य कीर्ति नारायण शौर्य-पारायण जिन-पादाराधकं परवळ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जैन-शिलालेख संग्रह साधक शान्तराठिन्य सकल-जन-स्तुत्यं नीति-शास्त्रज्ञ विरुद-सर्वज्ञ नामादि-समस्त प्रशस्ति-सहितं श्रीमन्महा-मण्डलेश्वरं त्रिभुवनमल्ल-सान्तर-देव ॥ ॥ वृत्त । कनकाद्रीन्द्रकमम्भोनिधिगमवनिग पेम्पिनोळ गुपिनोळ तिणपिनोळेन्तुं ताने पोपासटि सरि समनेन्टन्दढाव सम-स्कन्धनदा पोल्बनाव पडिय्ये निसुवव राज-सर्वजनोळ तैलनोळयिं-स्तोम-चिन्तामणियोळखिळ-भू-भागदोळ् नोपडेन्तुम् ।। व ॥ अन्तेनिसिद कलि-काल-कल्पावनिजङ्गा-महानुभावने जन्मनिळयमेनिसिद अखिळ-क्षत्रिय-कुलोत्तममुमद्वितीय मुमेनिसिदुर्गान्वयावतारमेन्तेन्टडे पार्श्वनाथ-सन्तानढोळनेकसमर-सम्मर्दित-रिपु-व्यूहराहने-बनुत्तर-मधुरा-पुरी-भुजङ्गनु प्रतिपाळिन-चतुस्समुद्र मुद्रितरुबरी-रगनु-मेनिसि राज्य गेय्दनातनिन्दनन्तरमार्थ-जन-कल्पभूरुहाकार-सहकारं राज्यभर-धुरन्धरनादनातन तनय ।। क ॥ जगदोळगण नृपरेल्लम् । मृगदन्तिरलात्म-विक्रम-प्राभवदिम् । मृग-रिपुविनतिरेसेदम् । नेगळ्दुमान्वय-नगेन्ददोळ् जिनदत्तम् ॥ व ॥ आ-नृपेन्द्रचूडामणि दुर्व्वार-भारत-समर-समय-समुदीर्ण-सौ-- लिरय-समरय-महारथार्द्धरय-समूह-सम्मईन-लब्ध-विजयलक्ष्मीविवाहोत्सवनुं त्रिविक्रम-कारुण्य-लब्ध-लसदेकशङ्खनु धनञ्जय-दत्त-शाखामृग-ध्वजनुमतर्व्य-विक्रमोपात्त-कण्ठीरव-ध्वजनुमागि दिग्-विजय-यात्रा-निमित्त दक्षिणदिशाभिमुखनागि विजय गेस्टुः समस्त-दैत्य-वशध्वंसन माडि पद्मावती Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ दानसालेका लेख पदाराधना-लब्ध-सप्ताङ्ग-राज्य-राजधानी- पोम्बुर्चदोलु सान्तर-पट्टम तादि सान्तळिगेशायिरमुमनेक-च्छत्र- च्छाय- यिन्दान्दु शान्तरमेम्वे - रडनेय पेसर पडेदनन्दि बलिग्रान्वये शान्तरान्वयाभिधानम पडेदुदातनिं वळिक्कमनेक-राज- सन्तानकमतिक्रान्तमागे तदन्वयदोळु ॥ वृ || विरुदर मृत्यु वीरद नवर्मने चागद जन्म भूमि शा- । न्तर- कुळ बाधि-वर्द्धन शरत्-समयेन्दु समस्त सत्-कळा परिणतनङ्गना-जन-मनोभवनेन्दोसेदन्धियिं बुधोत्करमभित्रणिसल्के नेगळ्ढ धरेयो विभु शान्तर - ओड्डग || क ॥ नव-जळदढल्लि मिष्नुम् सुवुदुवद शान्तरोडगं वाळू गित्तन्- । तेबोलादुढेन्दु पोगळ्व | भुवनाधिपनात्म-समेयोळा - भूपतिय || 1 आतननुज ॥ क || अदटिनिदिरान्त-भूपर- । नदटलदेरदर्थि-निकरम तणिपि जगद्- । विदित या नेगळ्द भू- । प दिलीप वैरि-वीर काळ तैल || तत्पुत्र || क || आयद कळे मदवद्- 1 दायाद-नृपाळ-द-विच्छेदनन- । त्यात दोर्द जय | जायापति दलित-रि-वीरं वीर ॥ अवन मनोरमे गङ्गा- । वाय- पीयूपत्रार्द्धि-सम्भवे लाव- । प्यवति मनोभव-राज्यो- | नव-विळ सज्जन्म भूमि बीरल-देवी ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जैन-शिलालेख संग्रह अवरिबर्गम् ॥ झुनवल-शान्तरनल्यु. य-जय-श्री-ललिन-वन-मुजा-दण्ट भू-। भुज-यन्धनबग्गे ताना। मजनाद रिपु-चाटवी-दवदान ॥ आतनि किरिय॥ वृ ।। शरणायान-भरण्याय-जन-कल्पक्ष्माजनन्यावनी- ! श्वर-सैन्यार्णव-वाडयानळनगेपाशावधि-न्यन्त-भा- । सुर-कन्हार-सुरापगा-निभ-यशश्श्रीवल्लभ नन्नि-गान् तर-देवं जगटेक-दानि नेगळ्ट विश्वम्भरा-भागटोळ् ॥ तदनुजन्मनोदुगनात ॥ का । विक्रम चक्रिय पुण्यदे। चक्र पुरुष-खरूपदि पुट्टितेनल् । विक्रमदिन्टेसेदान। विक्रम-शान्तरनेनिप्प पेसर पडेद ॥ व || आतन मनोरमे पाण्य-कुल-वियत्-तन-चन्द्र-लेखेयु अफरपताक-जय-पताकेयुमेनिसिद चन्दल-देविग ॥ क | उदयाचलदोळहिमकरन् ।। उदधियोळमृतकरनुदयिपन्तिरलवर्गन्द । उदयिसिदं सकळ कळा-। सदन महिमा-निलिम्प-शैल तैल ॥ अन्तु जगजनट पुण्यदि कल्पवृक्षमे क्षत्रिय-खरूपदिं पुट्टितेनि ।। पुष्टि सान्तळिगे-सायिरमुमनेक-च्छत्र-च्छायेयिं सुखं राज्य गेय्युत्तिरेसि Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९ दानसालेका लेख क ।। अरुमुळि-देवन गाव ब्बरसिय सुते वीर-भूपनत्तिगे वीर-। ब्बरसियरप्रजे तैलप-। धरणीश्वरनजि नेगळ्ट-चट्टल-देवि ।। भुजबळन गोग्गियोड्डग-। न जय-श्री-कान्तनेनिप वर्मन तायि वि- । श्व-जगद्-बन्ये तानव-। निजेगमरुन्धतिगमधिके चट्टल-देवि ॥ काञ्ची-नाथ-मनः-प्रिये । चञ्चजिन-समय-कामधेनु दिगन्त- । प्राञ्चित-कीर्ति-पताके वि-। रञ्चि-रमा-सदृशे नेगळ्द-चट्टल-देवि ।। व ॥ आ-जिन-समय-निदान-दीप-वति भुजवळ-शान्तर नन्निशान्तर विक्रम-शा [न] तरं वर्मदेवं मोदलागि निज-नन्दनसमेत सुखं राज्य गेय्युत्तिई राजधानि-पोम्बुर्चटोळु पञ्च-बसदियं माडिसि या-बसदिय खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धारकमल्लिप ऋपि-समुदायक्काहार-दानार्थमागि भुजवळ-गान्तर नन्नि-शान्तर विक्रमशान्तरतुं सूवरुमि? विट्ट ग्रामगळु रावनाडोळगण अग्रहारमानंदूरं (दूसरे स्थानों के भी नाम दिये है) विट्टरा-पञ्च-बसदिय प्रतिबद्ध मागियानन्दूरल चट्टल-देवियु श्रीमत्-त्रिभुवनमल्ल-शान्तर-देवनु वीरव्यरसियर्गे परोक्षविनयमागि यी-वसदिय श्रीमद्-द्रविल-सङ्घदरुङ्गलान्ययद वादि-घरट्टनेनिसिट श्रीमद् अजितसेन-पण्डित-देवर नामोच्चारणदिं केसर-कल्लिक्किसिद-वराचा-बलियेन्तेन्दडे श्री-बर्द्धमानस्वामिगळ तीर्थ प्रवर्तिसे शि० २४ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ૭૦ जैन-शिलालेख संग्रह गौतम गणधररागे तत्-सनातनदोळनेकरतिक्रान्तरागे कलियुग-गणधरर् दयापाळ देवरादरवरिं वळिक पट्-तर्क पण्मुखापर-नामधेय जगदेकमहल-वादिराज-देवरवरि ओडेय-देवरवार श्रेयान्स-पण्डितरवार वळिक ॥ क॥ दूरीकृत-दुरघ निर्- 1 हारित-मदन स्व-तर्क-विद्या-वळ-सम् ।। हारित-पर-समय वाक्-1 श्री-रमणी-रमणनजितसेन-मुनीन्द्र ॥ प्रद्युम्न-मद-विदारणन्-। उद्यद्गुण रत्न-बार्द्धिनगळ्द पेरदेन् । अद्यतन-गणधरं निर-1 वद्य श्रीमत् कुमारसेन-ब्रतिप॥ तार्किक-चक्रवर्तियु वादीभ-पञ्चाननमेनिसिद श्रीमदजितसेन पण्डिदेतवर गुड्ड ॥ क ॥ नृप-विद्याम्बुवि-पारगन् । अपरिमित-त्याग-गुणनराति-मुखेन्दु-। ग्लपन-रहा-राहु रिपु-। द्विप-सिंह शान्तरान्वयाम्बर-चन्द्र ॥ चागददगुन्ति याचकर-1 आगिसिदुदु पलवरर्सर वीरददोन्न् । ओगडिसटेन्गे वनचरर । आगिसिद्धटु पलवरहितर तेलुगन ॥ अवननुज निज-निति-। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख - संग्रह २५० होन्नूर कन्नड़ [ लगभग शक १०३०=११०८ ई० ( फ्लीट ) । ] [ कोल्हापुर के पास कागलले दक्षिण-पश्चिम की ओर दो मील दूरपर होन्नूरमे जैनमन्दिरके भीतर एक प्रतिमाके अभिषेक-स्थल ( पाण्डुक शिला ) के सामने यह प्राचीन कन्नड़का लेख है । प्रतिमा खड्गासनस्थ सिरपर सर्पके सप्तफणाधारी छत्रसे मण्डित पार्श्वनाथस्वामीकी है । इसके दोनों कोनोमें एक-एक झुकता हुआ या बैठा हुआ आकार (मूर्ति) है | लेख इञ्च ऊंची तथा २ फुट ७ इञ्च चौड़ी जगहको घेरे हुए है । यह कोल्हापुरके शिलाहारोंमे से बल्लाळ और गण्डरादित्यके समयका है, अर्थात् लगभग शक १०३० (११०८ - ९ ई० ) के समीपवर्ती है । ] लेख ३७४ स्वस्ति श्रीमूलसंघद पो(पु) न्नागवृक्षमूलगणद रात्रिम विकन्तियर गुड्ड वम्मगावुण्डं माडिसिद वसदिगे श्रीमन्महामण्डलेश्वरं बल्लाळदेवनु गण्डरादित्यदेवन्म ( नुम् ) आहारदानके विट्ट कम्मविन्नूरक्कं अरुगयि मने .......... de ... [ स्वस्ति । श्रीमन्महामण्डलेश्वर वल्लालदेव और गण्डरादित्यदेवने श्रीमूल संघके ( मेद ) पुन्नागवृक्षमूलगणके रात्रिमतिकन्तिके गुड्ड ( शिष्य या अनुयायी ) वम्मगावुण्डके द्वारा निर्मापित वसदिके लिये, ( तपस्वियोको ) आहारदान के लाभार्थ २०० 'कम्म' एव छ. हाथ या ३ गज़का एकभवन दानमें दिया । ] [IA, XII, p 102, n 6, t & tr ] निर्माण करता था उसको कुछ भूमि भेंट दी जाती थी, इसके तिवाय उस तालावसे फायदा उठानेवालोंसे तालाव के निर्माण करनेवालेको उत्पन्न ( फसल ) का १० वाँ हिस्सा या और कोई छोटा हिस्सा मिलता था । इसीका नाम 'दशवन्न' था । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेवण्डेका लेख ३७५ २५१ हेवण्डे-संस्कृत तथा कन्नड़-भन्न [वर्ष ३५ चालुक्य-विक्रम=१११० ई०] [ हेब्बण्डेसें, तालावके दक्षिण नष्ट हुए बाँधके पासके पापाणपर] श्रीमत्-परम ॥ ...."चालुक्याभरण श्रीमत्-त्रिभुवनमल्लदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रवर्द्धमानम्माचन्द्रार्क-तारं सलुत्तमिरे ॥ आतन मगं एरेयङ्ग (४ पक्तियाँ नष्ट हो गई है) विष्णुवर्द्धन-म ..............."एनिसि केतवडे (६ पक्तियाँ नष्ट हो गई है ) श्री शुभचन्द्र-देव.... .... .. .'' तुण्डरु बाढि-कोळाहळ · ........ "ख-समय-रक्षण-पक्षपाति ... ........ . ... एनिसिद कनकः "त्रैविद्यसिद्धान्तदेवर शिष्यरप्प मुनिचन्द्र-सिद्धान्त-देवर गुड्डि केतवे ... • ""विट्टि-देवतुं भुजवळ गंग-पेम्माडियु वम्म-गावुण्डनु नाम्-प्रभु चालक्यविक्रम-कालद ३५ नेय विकृत-संवत्सरद फाल्गुन-मासद शुद्धपञ्चमी वृहवारदन्दु"मुख्य-स्थानवागि'चन्द्रशेखर-वेगडे कट्टिसिद केरेय केळगे गळ्दे कम्म मूवोत्तु आ-केरेय तेङ्कण-कोडियल्लु वेदले मत्तरोन्दु मने आरु गाण बोन्दुः (हमेशाका अन्तिम श्लोक) श्रीमत कनकनन्दिविद्य-देवर गुड सेनवोव-योग-देवन वरह ॥ श्री [जिनशासनकी प्रशंसा। जब (लपनी उपाधियों सहित) चालुक्य त्रिभुवनमल्लका विजयराज्य चारो ओर प्रवर्द्धमान था। (इस स्थानपर होसलोके विवरण है, जो कि बहुत घिस गये हैं ।) शुभचन्द्र-देव (से परम्परागत माये हुए) कनकनन्दि विद्य-देवके शिष्य, मुनिचन्द्र-सिद्धान्तदेवके गृहस्थ शिष्य केतव्वेकी प्रशंसा । विट्टिदेव, भुजवळ-गंग-पेाडि, बम्म-गावुण्ड (? तथा) नाळ्-प्रभुने, चालुक्य-विक्रम-कालके ३५ वें वर्षमे, जो कि विकृत वर्ष था, ६ मकान और Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂદ जैन- शिलालेख संग्रह १ तेलकी चक्कीके साथ, (टक्क ) भूमिका दान किया । हमेशा के अन्तिम श्लोक | यह लेख कनक्मन्त्रिविध-देव गृहस्थ-विष्य, सेनवो योग देवके द्वारा रचा गया । ] [LIC, TII, Shimoga tl, n° 89] २५२ महोबा - संस्कृत [ संवत् १९६९, फाल्गुन सुदि ८ (१११२ ई० ) ] यह लेख संभवत जयवमेदेव कालका होना चहिये, जो, जैसा कि इतिहास कहता है, सिर्फ साल बाद, सं० १९७३ मे शासन कर रहा था । [A Cunningham, Reports, XXI p 73, a ] २५३ याहळ्ळि - संस्कृत तथा कन्नड़-भन [ वर्ष ३७ चालुक्य विक्रम=१११२ ई० ] [ लालहळ्ळि (होळ परगना ) में, तलवार के खेत से पापाणपर ] श्रीमन्परमगमीरस्याद्वादा मोबाञ्चनम् ॥ जीयात् त्रैलोक्य नायव शासन जिनशासनम् ॥ खस्ति समस्त सुवनाश्रय श्री - पृथ्वी चलम महाराजाधिराज परमेश्वरं परन-भट्टारकं सलाश्रय-कुळ तिळकं चालुत्याभरणं श्रीमत्-त्रिभुवनमलदेवर विजय राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रबर्द्धमानना-चन्द्रार्क-तारम्बर सलुत्तमिरे कल्याणपुरः- नेल्बीडिनो सुख-सकया- विनोददि राज्य व्युत्तिरे तत्पादपद्मोपजीवि । * महोबारे ये (न० २५२, ३२५, ३३७, ३८१, ३६०, ३६१, ३६५ ) अतिसक्षिप्त शिलालेख ए जैन मूर्तियां चर-पाषाणपर मिले थे । इनमंत्र कुछ शिलालेख बहुत काम है, क्योंकि उनमें जिस समय मूर्तिका निर्माण या प्रतिष्ठा हुई थी उस काल तथा उस समय त्रासन करनेवाले राजाका नाम, ये दोनों चीजें दी हुई है। कुछने शासन- राजा का नाम नहीं मिलता, पर काला उलेख मिलता है, कुछ वह भी नहीं मिलता । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलहळ्ळिका लेख ३७७ खस्ति समस्त-वस्तु-गुण-भूपणनब्धि-परीत-भूतळ-। प्रस्तुत-कीर्ति भावभव-मूर्ति जया-बनिता-प्रपूर्ण-वृ-। त्त-स्तन-हार'' 'वाञ्छित-कल्प-कुजानुसारन- । भ्यस्त-कळागम-ज्ञनेने गङ्गरसं सरसं धरित्रियोळ् ।। विनयाधारमुदारसुन्नति कुलङ्""श्वर्यमेम्ब् । । इनितु शोभिसे शोभे-वेत्तनेनुतु धात्री-तळ कूर्तु-की-। तने-गेय्गु जयदुत्तरंगननशेप-श्री ."वर्द्ध-प्रस- । गन् ....."वितरण-व्यासङ्गनं गङ्गनम् ॥ अन्तेनिसि नेगई नीतिवाक्य-कोङ्गुणिवर्म धर्म-महाराजाधिराज परमेश्वरं कुवळाळपुरवराधीश्वरं नन्दगिरिनाथं सकळ-गुण-सनाथ मदगजेन्द्र-लाञ्छन परिपूर्णीकृत-विबुध-जन-मनोवाञ्छन पद्मावती-लब्धवरप्रसादम् मृगमदामोदम् गङ्गकुळ-कुवळय-शरच्चन्द्र मण्डळिक 'द्र दर्पोद्धताराति-मण्डळिक-वनज-वन-वेदण्ड दुर्द्धर गण्ड नामादि-समस्तप्रशस्ति-सहित श्रीमन्महामण्डलेश्वर त्रिभुवनमल्ल भुजवळ-गंग-पेस्मोडिदेवर पट्टमहादेवी !! पुट्टिद'''अनुज । पट्टिग-देवङ्गे गङ्गवाडिगे तळेदळ् । पट्टमनेसेदिरे गगन । पट्ट-महादेवियन्तु नोन्तरुमोळरे । परिवार-सुरभिगन्तर्- । पुर-मुख्य-मण्डनेगे गङ्ग-मादेविगे नायकि । यरनद्""ओड सति । दोरे । .."नृप. पडेये ॥ अन्तवार्गे।। गङ्ग-कुळ-तिळकरेनिसिद । गङ्ग-नृपं मारसिंग नृप गोग्गि-नृपं । तुङ्ग-यशनेनिसिदं कलिय् । अङ्ग नृपं नेगर्दरेळेगे कुमाराप्रणिगळ् ॥ कोळालपुर-वरेश-नृ-पाळ-सुतर्मद-गजेन्द्र लाञ्छनररि-भूपाळ-कुळ-वनज-बन-शुण्डाळर्नेगर्दर् समस्त-सु-भटाग्रणिगळ् ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह अन्तेनिसि नेगर्द्दग ङ्ग-पेर्म्माडि-देवरु गङ्ग-महादेवियरु कुमार-वर्गमुं मण्डकि-सासिरदोळगणे डेहलिय वीडिनो सुख-संक्रया विनोददि राज्यं गेय्युत्त मिरला -महा-मण्डलेश्वरनर्द्धाङ्ग-लक्ष्मि || ३७८ श्री-धु जय त्रधु कीर्त्ति | श्री - बधु वाग्बधुवेनिप्प वधु गङ्ग नृप । ई - धुवे निसिद वाचल - देवियोळेणेयेन् वेनुळि नृप-वनितेयरम् ॥ ई-चतुरम्बुधि-वेष्टित- भू-चक्रद सतियरेन्नलाढढवेनो । वाचल-देविगे समन् "|-च-मणि प्रतति दोरेये चिन्तामणियो || काम-मढेभ-गामिनिगे‘''नमे पूज्यमेनिप्प पेम्पिनिन्द् । ईव म तणुपि कल्प- कुजक्केणे.... दू... • र-दान-गुण-भूपणे दान - विनोटे दान- चिन्- | तामणि दान-कल्प-लतेयेम्बिदु वाचल- देवि गोष्पदे || एरगदराति भूभुजरनाजियोळञ्जिसि निजाङ्घ्रिगळ | एरगिसुतिर्प दर्पद पोड गण्डनप्प त । न्नरेयन....... “तनगे गङ्ग-महीभुजन विलासदिन्द् । एरगिसि·--भाग्य-भरदुन्नति बाचल- देवि गोप्पुगुम् ॥ अन्तुमल्लदे ॥ अरि-विरुद - पात्र - जगदळ । धरेगेल्ल नीने राय जगदळे नानी | धरेगेल्लमेन्दु पिरिदा-। दरदिन्द सि पात्र - जगदळे - वेसरम् ॥ कुडे राय जगदळे-पेसर- । वडेद पडेदऴ् रायरोळप्प कुडे बाचल-देवि पात्र - जगदळे-वेसरम् ॥ मत्तम् ॥ 2030 · *** • ... ******* "मेवुदे-नडे- तन्न महत्त्व-वृत्तियं । वेडदे नोडिरे नेगब्द वाचल - देविय कीर्त्ति ........| ...डेय कडेय वडवुगळीयलू | Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलहळ्ळिका लेख ३७१ आडि दिगङ्गना-नटियरोळ् नणिविल्लढे मत्तविन्तु""" ..........वीर · पात्र......... मेले पात्रमुम् ॥ मत्तं स्वत्लनवरत-परन-कल्याणाम्युटय-सहन-फळ-भोग-भागिनि ललित-करण-गृहीत-भाव-प्रयोगिनि भुजबळ-गग-भूपाळ-विशाळ-वक्ष-स्थळ निवासिनि । नृत्ल-विद्या प्रभाव-प्रभूत निर्मळ-यशो-विभासिनि 'स्थानपात्र-मुख-मण्डने । प्रतिपन-गायिका-गान-नान-परिखण्डने । अनवरतदान-जनित-विबुध-जन-हर्षे । देवा"न" स " तर्षे"। चतुरविद्या-विनोदे । कस्तूरिकामोदे । अरि-विरुद्ध-पात्र-जगदळे । जिन-गन्धोदक-पवित्रीकृतविनीळ-नीळ-कुन्त । निखिन-कुळ-पाळिका-गीयमान-विशद-यशो-गीति " स्थान "जिन-शासन साम्राज्य-यशर-पताके । परोपकार कमळाकरचक्रवाके । सौभाग्य-सची-देवि श्रीमद्-नाचल-देवियर वणिकरेय त्रिभोगाभ्यन्तर-सिद्धिविन्द सुरवदिनिरप्प । जन-नुते वाचल-देविय...। जननिगे सरि दोरे समानमेनल्के केळवनियोळ् पडवळति... जननिय...'जननियरेणेये ॥ पडेटोडमे दान-धर्म-। कोडलु विशेषत्रतक्किनेने नेगब्द जसं । वडेदव्""मतिगे।"...."बदुधा-तळडोळ् ॥ आ-महानुभाबेयोडपुट्टिदम् ॥ जिन-पदाम्बुज-भृङ्ग । जिन-सनय-सरोजिनी-माता... । .......... 'प्रभ- 1 वेने नेगर्द बाहुबलि धरा-मण्डलडोळ् । एळेयं मुरडियं कोट् । अळिपदनो "............. । ..........."दिन्द् । उनिसिदप नम्म बाहु-बलिया-वलियन् ।। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૦ जैन - शिलालेख संग्रह अन्तेनिसि नेगर्द श्रीमद्-चाचल- देवि हुवलियण्णनु धर्म्म-कार्य्या .. लोचनमनाळोचिसि ॥ 1 • ई-भत्रनदोळेन्दु परि- । शोभितं.................... ••••••एन्देन्दाहा । राभय-भैपज्य-शास्त्र- दानमनेसेयल् || माडुब बगेयिं मण्डलि - | नाडोळगण वन्नि अनुनयदिन्दम् । माडिसिदऴ् जिन-गृहम । नाडाडिगळुम्बमेन्दु घरे पोगबिनेग || सङ्गगळोळगिदुत्तम । सङ्गं मूल सगमा सग -... | तुङ्ग देसिंग-गणमा-। सङ्गदोळा ....... गुड्डि वाचल- देवि ॥ देसढोळुत्तममेनिसुव । देसिंग-गणद ं माडिसिदळिदम् । देसिग गणक्के मण्डलि - । सासिरक तिळकमेनिप चैत्यालयमम् ॥ अल्लिगे ढेसिग - गणदव- । र्गलदे मत्ताय गणदलार्गन्दे कूळ् । अल्ल तेज बोन्दिप - । गल्लददेन्तु बुधाव्ज-वन- कळ-हसा ॥ घुर-मनुज-भुजग-भुवना- । न्तरदोळ् मुन्दादविन्नूदिप्पुवाविन्तिम् । दोरेये जिन - भवनमल्लेम्- । वर मातु दिट बुधाब्ज-वन-कळ-हंसा ॥ जळधि- परीत-भू-क्यूदोळ् नेगर्दोप्पुव गङ्गवाडि-ना- | डोळगे नेग-वेत्तेसेव मण्डलि - नाळके मुखक्के मूगेनिप्पू । अळवियनान्त बन्निकेरेयोळ् नेरेदोप्पुव पार्श्वनाथनीम् । अवि-कुल- नीट कुन्तळेगे बाचल-देविगभीष्ट सिद्धियम् ॥ ... ** अन्तेनिसि नेगर्द श्री-पार्श्वनाथ देवर्गे चालुक्य विक्रम वर्षद ३७ नेय नन्दन - संवत्सरद पौष्य-शुद्ध ५ बृहवारदुत्तरायण सङ्क्रान्तियदु मण्डलिसा सिरद वयि वाड वूडङ्गेरेयल वन्निकेरेयल तळवृत्ति गर्दे मत्तरु तोण्ट मत्तरोन्दु गाणवेरडु पुरद कोलियो... आ-येरहूर तळ-भण्डद सुकवोळगागि यिन्तिनितुम भुजबळ - गङ्ग-पेम्र्म्माडि- देवरु Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलहळ्ळिका लेख गङ्ग-महादेवियरु वर्गडे-घाचल-देवियरु कुमार गङ्ग-रसनु मारसिंग-देवनु गोग्गै-देवनु कलियङ्ग-देवनु समस्त-प्रधानर नाड-प्रभुगळ सन्निधानदल सर्च-बाधा-परिहार सर्च-नमत्यमागि ठेवर श्री-पादपद्ममूळढोळ् धारा-पूर्वक माडि विट्टरु ।। धरे पुसिबोगदे वेळगी- । धरेय भुज-चळढिनाळ्द भुजबळ-गङ्गम् । परेदि जैन-धर्म । धरेयोळ चन्द्राक-तारमुळेनेवरम् ॥ सकलोवी-स्तुतमप्प धर्ममनिद काद चिरैश्वर्य-भुम् । भुकनक्कु विपरीतहिं नडेदवगा-गझेया-धारणासि-कुरुक्षेत्रदोळेग्दे गो-द्विज-मुनि-स्त्रीयर्कळं कोन्द पातकनक्कु बिडढिकुमा-पुरुपनेन्तुं रौरव-स्थानमम् ॥ (हमेशाके अंतिम श्लोकके बाद) गासनमिदावुदेल्लिय । शासनमारित्तरेके सलिमुवे नानी-। शासनमनेम्ब पातक-ना-सकळ रौरवक्के गळगळनिळिगुम् ।। देवर श्री-पादोळु धारा-पूर्वकटिं पुर-वर्गद सुकव देवगै विट्टर वन्निकेरेयलु कल्लुकुटिग काळोज देव-दासिगळिगे विट वेदले गळेपल्लु मत्तरोन्दु ॥ श्री-देशी-गण-वार्धि-बर्द्धन- करश्चन्द्रोऽकलकासितस् । स्थेवान् श्री-मलधारि-देव-यमिनः पुत्र. पवित्रो भुवि ।। सद्-धमैक-शिखामणिर् जिनप 'चिन्तामणिस् । स-श्रीमान् शुभचन्द्र-देव-मुनिपरिसद्धान्त-रत्नाकरः ॥ श्री-लोक्किगुण्डिय प्रभु एरकणं श्री-पार्श्व-डेवरंग-भोगक्के वडिविन्द-क्षयमागि कोट्ट लोकिय गद्याण १ ।। मत्त वि गर्दै मत्तरोन्दु वेईले मत्तर मूरु॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ जैन-शिलालेख-संग्रह [जिनशासनकी प्रशंसा। त्रिभुवनमाल-देवके विजय-राज्यमे तापादपझोपजीवी गझरस था; इसको 'जयदुत्तरग' नाम भी दे रक्खा था । नीतिवाक्य कोगुणिवर्म धर्ममहाराजाधिराज परमेश्वर महामण्डलेश्वर त्रिभुवनमल्ल भुजवळ-गग-पेाडिदेवकी पहरानीने अपने छोटे भाई पट्टिग. देवके लिये गङ्गवाडिका मुकुट धारण किया। तमाम रानियो और राजाओसे वह ज्यादा प्रतिष्ठित थी। ___ उन दोनोंके चार पुत्र उत्पन्न हुए-गङ्ग, मारसिंग, गोग्गि, और कलिया । ये सब महान योद्धा थे। जिस समय गङ्ग-पेाडि-देव, गग महादेवी, और उनके लडके मण्डलि हजारमे अपने निवास स्थान एडेलिमे थे, उस महामण्डलेश्वरकी एक अन्य मङ्गिनी वाचल-देवी (उसकी प्रशंसा) थी। उसने अपने पतिको पानजग-दळे'की उपाधि दी थी। जिस समय (अनेक उपाधियोवाली) वाचल-देवी वनिकरेमे, अपनी तीसरी पीढीकी खुशीसे विश्रब्ध होती हुई, सुसपूर्वक रहती थी, उसने अपने बड़े भाई वाहवलीसे परामर्श करके वनिकरेमें एक सुन्दर जिनालय बनवाया। वाचल-देवी मूलसंघ, देशीगणकी गृहस्थ-शिष्या थी। उस देशीगणके लिये उसने चैत्यालय वनवाया। समुद्र-परिवेटित लोकर्म गङ्गवाडि-नाह प्रसिद्ध है और उसमे मण्टलि-नाइ प्रसिद्ध है। उसमे चेहरेपर जैसे नाक है उसी तरह वनिकरे था । पार्श्वनाथ भगवान के लिये चालुक्य विक्रमके ३७ व वर्षमै भुजवळ-गग पेडिदेव, गग-महादेवी, पेगडे-वाचल-देवी, और कुमार गङ्गरस, मारासिंग देव, गोग्गि-देव, कलिया-देव, और तमाम मन्त्रियोने, नाइ-प्रभुओकी उपस्थितिमें सब क्रो एच चुलियोले मुक्त, मण्डलिहजारके वृदशेने, वनिकेरेकी कुछ जमीन, एक बगीचा, दो कोल्हू, और उन दोनो शहरोकी कुछ चुङ्गीकी भामदनीका दान लिया। भाशीर्वचन और शापापापाण-शिल्पी कालोज (शासनके उत्कीर्ण करनेवाले) का नर्तकियोंक लिये दान । शुभचन्द्र-देव-मुनिपकी प्रशसा । लोशिशुण्डि प्रभु एरेकष्णन भगवानके भोगके लिये ११ लोकि गद्याण, तथा कुछ भूमि दान की। [RC, VII, Shamoga ti, n° 97] Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्तावारका लेख ३८३ २५४,२५५,२५६,२५७,२५८,२५९,२६०,२६१ श्रवणवल्गोला-संस्कृत तथा कन्नड (देखो जैनगिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग।) २६२ मत्तावार-कन्नड भन्न [शक १०३८८१११६ ई०] [मत्तावार पार्श्वनाथ वस्तिके प्राङ्गणमें एक पापाणपर] खस्ति श्री सक-वरुप १०३८ नेय दुर्मुकि संवत्सरद चैत्रमासद कृष्ण""" " यादिवार'.... ... 'चेटल्लियु मायन""मग मावण्णन शिप्यरु सन्यसन गेय्दु मुडिहिद निसिदि । [(उक्त मितिको), मायनका पुत्र और मावण्णका शिष्य सन्यसन (संन्यास-समाधि) धारण करके मर गया । उसका यह स्मारक है।] [ EC, VI, Chikn agalur tl, n° 51] २६३ तिप्पूर-सस्कृत तथा कन्नड [शक स० १०३९=११६७ ई.] [तिप्पूर (कुल्गेरी-प्रदेश )मे, गांवके उत्तर-पूर्व, पहाडीपर] भद्रमस्तु जिनगासनाय सम्पद्यता प्रतिविधानहेतवे । अन्यवादिमदहस्तिमस्तकस्फोटनाय घटने पटीपसे ।। श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ॥ स्वस्ति होयसल-बगाय यदु-मूलाय यद्भवः । क्षत्र-मौक्तिक-सन्तान पृथ्वी-नायक-मण्डनम् ॥ खस्ति श्रीजन्मगेह निमृत-निरुपमौर्वानळोदाम-तेज । विस्तारोपात्त-भू-मण्डलममल-यशश्चन्द्र-सम्भूति-धाम ।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेखसंह ब्लुमतोयानानिमाय-लसाळवं गीरं । प्रत्त्य निलमन्नानिमितिम्नेगुं तोयसकोळीश-वज्ञान् ।। अठरोग लौन्टन्दोलन गुगन देनेन्दुवान सदगुळ हिन्युिजलयलालगति रिजानहाल्द पेन्टनो ने नितान्त नादि नामले पुछिन् उजिनवीर-और विनयादित्यावनी-गलनन् । विनयादिसत नजना दुर्जन माननिय ते । जनिविले नय- भयन । बिनून नालो निलम् मण्डलमं ॥ अ-विनयादि-धु । भाववनव-ना-सन्निनदभावनगुग-वननखिललब्लिसिने क्येळेयचरसि यन्त्रलु पेसरि साउन्नतिने ननूमनन् । आद मचिगं मुराधिपतिगं नुन्न्त । आ जन्नन् अन्ने दिन प्राड- विरानङ्ग एरेयन-नृपं ।। गन् अखिोलि एनिलिई । ऐनगलतिलकन् अङ्गने चल्विंग नील-गुगदि । नरेन् एचल-देविन अन्तु नोन्नतनोळरे ।। एने नेगब्द अत्ररिलग। तन्म देगदर अन्ते बल्लाकं विष्णुचाम्लान् उदयादि । नेल पेरिलमखिळ-मुलतो । अरोक भग्नागियु धजिर पूर्णपरानोविद् एखुनि डे निनचुमेन्दु निज-बाहा-विनर की युअवन्दुित्तमनाउनुनपुगताका-याने ब्रा -चूडामणि यादगन्ज-निन- श्री-विष्णु-भूपालगन् । ॥ एलगेले कोयतूर तत् तम्चनपुरनले रामरायपुरन्धर पळबळे विष्णु-तेजोन उनले बन्च बहिट-रिपुदुर्गङ्गः ।। स्वति मगित--चन्ताशकं नहा-इले द्वारावती-पुरवरा Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ तिप्पूरका लेख धीश्वर यादवकुलाम्बरधुमणि सम्यक्त्व-चूडामणि मलपरोळनाण्डाद्यनेकनामावली-समलङ्कतर अप्प श्रीमत्-त्रिभुवनमल्ल तलकाड-गोण्ड भुजवळ वीरगङ्गविष्णुवर्द्धन होयसल-देवर-विजयराज्यप्रवर्द्धमानमाचन्द्रावतारं सल्लुत्तिरे तत्पादपद्मोपजीवी ॥ जनताधारनुदारनन्यवनितादूरं वचस्सुन्दरीघन-वृत्त-स्तन-हारनुग्र-रण-धीरम्मारनेनेन्टपै । जनक तानेने माकणब्वे विबुध-प्रख्यात-धर्म-प्रयुक्ते निकामात्त-चरित्रे तायेनलिदेनेच महा-धन्यनो ॥ उत्तमगुणततिवनिता- वृत्तियनोळकोण्डदेन्दु जगमेल कैप्येत्तुविनममळ-गुण-स- पत्तिगे जगदोळगे पोचिकव्ये नोन्तळ् ॥ अन्ते निसिदेचि-राजन पोचिकब्जेय पुत्रं श्रीमन्महाप्रधान दण्डनायक द्रोहघरट्ट गगराज चोळन-सामन्तर इडियम मोदलागि तळकाडवीडिनोळ पडियिप्पन्ति? चोळं को नाड कुडदे कादि कोल्लिमेने विजिगीषु- वृत्तियिन्देत्ति बलमेरडु सार्चिदल्लि ॥ इत्तण भूमि-भागदोळ् अदन्यरदेके भवत्प्रताप-संपत्तिय वर्णना-विधिगे गङ्ग-चमूप-जिगीषु-वृत्तियिन्द् । . एत्तिद निन्न कय्य निशितासिय तेमोने वेन्न-बारनेत् तुत्तिरे पोगि कञ्चि-गुर्रि-यप्पिनमोडिद दामनेयदने । आन् ओन्दे-मेय्योळ् एरिद नरसिंगचर्म-मोदलाद चोळन-सामन्तर एल्लर वेकोण्डु नाइ आदुद् एल्लमनेक-च्छत्रम्माडि कुडे कृतज्ञ विष्णु नृपति मेचिदम् वेडिकोलिमेने ॥ शि० २५ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ जैन-शिलालेख संग्रह अवनिपनेतगित्तपनेन्- दवरिवर-बोलळिद वस्तुवं वेडदे भूभुवनम्बण्णिसे तिप्पूर । वृत्तियं वेडिद जिनार्चन-लुब्धम् ॥ अन्तु वेडि कुडे पडेदु गाजलूरु-कुड्डुगेरॆय् ओळगाद तिप्पूर वृत्तियं शकवर्ष १०३९ नेय हेमण(ल?)म्वि-संवत्सरद उत्तरायणसंक्रमणदन्दु तम्म गुरुगळु श्रीमूलसङ्घद काणूरग्गणद तित्रिणिक गच्छद श्रीमन्मेषचन्द्र-सिद्धान्त-देवर काल कर्चि धारापूर्वक माडि विट्ट दत्ति ॥ प्रियदिन्दितिदनेग्दे काव पुरुषग्यु महाश्रीयुं अक्के इदं कायदे काव्य पापिगे कुरु-क्षेत्रोचियोळ् वाणरासियोळ् एकोटि-मुनीन्द्रर कविलेयं वेदाढ्यरं कोन्ददोन्द्अयसं सार्गुमिदेन्दु' सारिंदपुव ई-शैलाक्षरं सन्ततं ॥ [EC, III, Malavalla t), n° 31] [जिनशासनकी प्रशंसाके बाद पोयसल राजामोके वंशकी प्रशंसा । इसी वशमे विनयादित्य उत्पन्न हुआ उसकी प्रशसा । उससे और उसकी पत्नीसे एरैयङ्ग उत्पन्न हुमा । उसकी पत्नी एचलदेवी । उनसे बल्लाल, विष्णु, और उदयादित्य उत्पन्न हुए। उनमेसे बीचके विष्णुने पूर्व समुद्रसे पश्चिमतक सारी पृथ्वीपर कब्जा किया। उसके पराक्रमकी ज्वालाओस मजबूत छोटे शाही किले कोयतूर, तलवनपुर (जो कि रायरायपुरका ही दूसरा नाम है) नष्ट हो गये। उस समय वीरगन विष्णुवर्द्धन होयसलदेव अपनी चरमो नतिपर पहुँच कर राज्य कर रहे थे । एचि-राजाके पिता मार, माता माकणब्वे और पत्नी पोचिकन्नेकी प्रशसा । उनके पुत्र महाप्रधान एव दण्डनायक गङ्गराज हुए। चोलके अधीनस्थ शासक इडियम और दूसरे लोगोने जब चोल राजाके दिये हुए प्रदेशको देनेसे इन्कार कर दिया तब गह-चमूप (गङ्गराज) ने उनस वह प्रदेश लढाई लड़कर ले लिया। अकेले ही गङ्गसजने नरसिंग वर्म भोर Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामराजनगरका लेख ३८७ चोलके अधीनस्थ अन्य तमाम विपक्षी शासकोंको भगा दिया और नाड देशको एक छनके नीचे लाकर विष्णुवर्धनको सौंप दिया, जिसपर उसने गङ्गराजसे अपनी इच्छाके माफिक कोई वर मांगनेको कहा । उत्तरमें गगराजने तिप्पूर माँगा। इस प्रकार इच्छानुसार माँगे हुए और दिये हुए तिप्पूरका, जो कि गाजलुरु और गौडमेरीके बीचमें है, मूलसंघ, काणूर गण और तित्रिणिकगच्छके मेघचन्द्र-सिद्धान्त-देवको दान कर दिया।] - २६४ चामराजनगर-संस्कृत तथा कन्नड़ - [शक १:३९-१११७ ई.] [चामराजनगरमे, पार्श्वनाथस्वामीकी बस्तीके एक पापाणपर] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छन । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ॥ खस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्दमहामण्डळेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरद्युमणि सम्यक्त्व-चूडामणि मलेपरोलाण्डाद्यनेकनामावलीसमलकृतरप्प श्रीमद्भुजवल वीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन विट्टिग-होय्सल-देवरु गङ्गवाडि-तोम्भत्तरु-सासिर कोङ्गोळगागि एकच्छत्रछयेयिं तलेकाडलु कोळाल-पुरदल सुख-सङ्कया-विनोददि राज्य गोय्युत्तमिरे । श्रीमत्वामिसमन्तभद्रमुनिपो देवाकलङ्कस्तुतः श्रीपूज्याभिरुदात्तवृत्तनिलयो श्री-चादिराजाम्बुधौ । आचार्यो द्रविडान्वयो जिनमुनिश्श्रीमल्लियेण-व्रती श्रीपालः परिपालिताखिलमुनिस्सोऽनन्तवीर्यक्रमः ॥ जिननिष्ट-देवमजितं । मुनिपति गुरु पोयसळेशनाळ्दनेनल् सद् विनुतं माडिसिदं श्री-। जिनगृहम पुणस-राज-दण्डावीशं ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ जैन - शिलालेख संग्रह मित्र - कुलाब्धि-वर्द्धन-सुधाशु विरोधि - बलान्तकं महामात्य-कुलोद्भवं सकशासनवाचकचक्रवर्त्ति लोकत्रयवर्त्तिकीर्त्ति पुणिसम्म-चमूपनवङ्गे शुद्ध-चारित्रे पवित्रे पोचले मनः- प्रिय-वल्लभे तत्तनूभव ॥ चावणनाश्रितामर - महीरुहनुद्धृतमन्त्रिमन्त्रविद्रावणनातानं किरिय कोरपनन्वितसत्कळा-कळा- । पावृत-बोधनातननुजं सुजनाग्रणि नागदेवनाज्ञावनतान्य-मन्त्रि-निचय कवितागुण- पङ्कजासनम् ॥ पुणिस - चमूपनेम्वेसेव शासन-बान्चक चक्रवर्त्तिगेन्तेणिसलोड पोगर्त्त तनगागिरे पुट्टिद चामराज नाकण कुमरय्यनेम्व रतुन-त्रय-मूर्त्तिय पुत्रनोपिदं । पुणिसम-दण्डनाथनुढितोदित चाम- चमूप सम्भवम् ॥ अवरोळगे पिरिय चावन । युवतियरप्परसिकव्वेग चौण्डलेगं । भुवन-प्रसिद्धरात्मोद्- । भव [रादर् प् ] पुणिसमय्यनुं विट्टिगनुं कोळनेन्तम्भोजमुण्मल् नलिदु महिमेवेत्तिवन्तागळु श्री - | निळ विख्यातवृत्त पुणिसेगनवनिं बिट्टिगं पुढे मित्रगळिगेल्ल सम्पू'''''उद्भविसितखिळ- भव्य त्रज नाडेयु निश्चळ-चेतोजातरादर्द्धरेयोळेसेदुदन्ता-महामात्य - गोत्रम् ॥ चाबङ्ग सत्प्रियदिं । भावकियेनिपरसिकव्वेग सुतनोगेद | केत्रमे नेगर्द पोय्सल- । भू-चनितेश्वरन सन्धिविग्रहि पुणिसं ॥ तोदवनदिपि कोङ्गरनङ्गिसि पोलवरं पोरळिच मा- । णदे मलेयाळरम्मडिपि काळ - नृपालन तोळ विङ्कमम् । वेदासि पो नील- सिळे जयलक्ष्मिगे कीर्त्ति [...] मा Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ चामराजनगरका लेख डिद विभु विट्टि-देवन महा-सचित्र पुणिसं वळाधिकम् ।। अदटिं पोयसळ-भूपनोर्मे वेस नीळाद्रियं कोण्डु तन्न्- । ओदविन्दं मलेयाळरं कदनदोळ् वेड्कोण्डु तत्साहसा- । भ्युदयं कैकोळे केरळाधिपतियागिम् वयल्-नाडन । पदपि काणिसि कोण्डनिन्तु पुणिस-श्री-दण्डनायाधिप । के नियोगि बिट्टु मोदलिल्लदे बन्द कृषीवल मोदल् । गेट किरातनोलगिसलारदे सेवकनागे गेटुदम् । कोड निरन्तरं जगमनिन्तभिरभिसुतिर्ण पेम्पोडम्बहिरे दण्डनाथ-पुणिसं नेगळ्दं भुवनान्तराळ्दोळ् । दरमिर'""लीयदे ग- । गर परियिं गङ्गवाडि-तोम्भत्तरु-सासिरद बसदिगळनालङ्करिसिदपं पुणिस-राज-दण्डाधीशम् ॥ खस्ति श्रीमतु सक-वरूप १०३९ नेय दुर्मुखी-संवत्सरद जेष्ठबहुळ १ व मूलार्कवारदन्दु तुलारासिय बृहस्पति-लग्नदल एणेनाड अरकोत्तारदल श्री-सन्धि-विग्रहि दण्डनायकपुणिसमय्य माडिसिद त्रिकूटद-वसदियोळगागि बसदिगळ्गे विट्ट गद्दे आ-ऊर हडुवलु अण्णमारेय-गेरेय केळगे......"खण्डुग हट्टक्के गुळि १००० आ-ऊर तेङ्कण हेग्गेरेय कीळेरियल गद्दे खण्डुग ऐदके गुळि ५०० वेद्दले ... ... हरदरि खण्डुग एरडक्के ९ गुळि ४००० आ-ऊर हल्लि सहित जकिकोळग धर्म-गोळ दान-गोळग कळदु".""गुळि ओन्दु' होरे गाणदलोम्मान एण्णे तोण्टद गुळि १०० आ-ऊर बडगण कोडेयनहल्लि सहित....."पुणिस-जिनालयक्के धारा-पूर्वक माडि विट्ट दत्ति (रीतिके अनुसार अन्तिम श्लोक) Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० जैन-शिलालेख संग्रह बसदिगे विट्टी-धर्मम- । न ओसेदु कर सलिसदिईडं....! .....""ब्राह्मणन कोन्द गति समनिसुगुं॥ [जिनशासनकी प्रशंसा या स्तुति । इस समय अनेक पदोंसे अलङ्कृत वीरगङ्ग विष्णुवर्द्धन विष्टिग-होयसलदेव कोट्स तककी गङ्गवाडि ९६००० की जमीनके उपर तलकाड और कोळाल-पुरमें सुखसया-विनोदसे राज्य कर रहे थे। समन्तभद्र, देवाकलङ्क, पूज्यपाद, वादिराज, द्रविडान्वयके मल्लिपेण, श्रीपाल, और अनन्तवीर्य (इनका वर्णन किया गया है)। पुणस राज-दपडाधीशके देव जिन थे, गुरु अजित मुनिपति थे, और पोयसळ राजा उनका शासकथा । उन्होंने एक जिनमन्दिर बनवाया। पुणिसम्मकी पती पोचले थी। उनके पुत्र चावण, कोरप, और नागदेव थे। उनको क्रमसे चामराज, नाकण, और कुमरख्य भी कहते थे । वे रत्ननयमूर्तिके समान थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र चावण तथा उनकी पत्रियो अरसिकच्चे और चौण्डलेसे पुणिसमय्य और विष्टिग उत्पन्न हुए। चावन और परसिमच्नेका पुत्र पोयसळ राजाका सान्धि-विग्रहिक मन्त्री पुणिस हुआ। विहिदेवका महा-सचिव पुणिस था। विट्टिदेवने तोद लोगोको डरा रक्खा, कोग लोगोंको भूगर्भमें भगा दिया, पोलुव लोगोको करल कर डाला, मळेपाळ लोगोको मार डाला, काल नृपतिको भयभीत कर दिया और नील-पर्वतपर जाकर उसकी चोटीको जयलक्ष्मीके स्वायत्त कर दिया । पुणिस-दण्डनाथाधिपने एकवार पोसल राजाकी आज्ञा मिलनेपर नीलादिपर कब्जा कर लिया और मळेयाल लोगोका पीछाकर उनकी सेनाको कैदी बना लिया और इस तरह वह केरलाधिपति बन गया और इसके बाद फिर खुले मैदानमे आ गया। जो व्यापारी विगड गये थे, जिन किसानोके पास वोनेके लिए वीज नहीं था, जिन हारे गये किरात-सरदारोके पास कुछ भी अधिकार नहीं रह गया था और जो उसके नौकर हो गये थे, तथा सबको जिसका जो-जो नष्ट हो गया था वह सब उसने दिया और उनके पालनपोषणमें मदद की । विना किसी भय-सञ्चारके, गहोकी ही तरह, उसने गनवाडि ९६००० की वसदियोको शोभासे सजित किया। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हळेवीडका लेख एण्णे-नाड्के भरकोहारमें अपने द्वारा वनवाई गई त्रिकूट बसदिकी बसदियोंके लिये उसने भू-दान किया ।] [EC, IV, Chamarajnagar tl, n° 83.] २६५ . . मुगुलूर-कन्नड़ [वर्ष हेमलम्बी [१११७ ई० ? (लू० राइस)] (इस लेखकी पहली १४ पक्तियाँ इसी नामके तालुकेके ३८० वें लेखकी पंक्तियोसे मिलती हैं) . .........."पुष्पसेन-सिद्धान्त-देवरु अवर शिष्यरु वासुपूज्य-देवरु हेमलम्बि-संवत्सरद वैशाख-बहुल त्रयोदशी-बुधवारदन्दुः सल्लेखन-समाधि-मरणदि मुडिपि स्वर्गके सन्दरु मगलमहा श्री श्री श्री मिल संघान्तर्गत नन्दिसंघके अरुङ्गळान्वयकी प्रशंसा । पुष्पसेनसिद्धान्त-देवके शिष्य वासुपूज्य-देवने (उक्त मितिको), सल्लेखना धारण करके, देहत्याग किया और स्वर्गको पहुँचे ।] [EC, V, Hasan ti, n° 131.] २६६ हळेवीड-संस्कृत कन्नड-भन्न [काल लुप्त, लगभग १११७ ई.] [इसका लेख नहीं है, मात्र Mysone ims Translated' में नं० १५७ के शिलाशासनमें लुई राइसके द्वारा अनुवाद दिया हुमा है] [लेखमे सर्वप्रथम जिनेश्वर पार्श्वनाथको लक्ष्य करके मङ्गलाचरण है। पश्चात् राजा विष्णुवर्द्धन और उसके मन्त्री गगराजकी प्रशंसा है।] [Mysore ins translated, n° 117, tr'] ' १ अनुवाद लम्वा होनेसे मूल लेख मी लम्वा मालम पडता है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिलालेख संग्रह २६७ निदिगि— संस्कृत तथा कन्नड़-भन्न [ वर्ष ४२ वि. चा० = १११७ ई० ] [ निदिगि ( बिदरे परगना ) में, दोडुमने नविलप्प-गौढके खेतमें ३९२ एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम-भट्टारक सत्याश्रय-कुळ-तिलकं चालुक्याभरणं श्रीमत- त्रिभुवनविजय राज्यमु'''' त्तराभिवृद्धि - प्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारं वरं मल्लदेवर सलुत्तमिरे । तत्पादपद्मोपजीवि । उत्तममप्प... ""तोम्- | भत्तर- सासिरं विपयमाप्तननिन्द्य - जिनेन्द्रनाजि - रन् । गात जय जयं जिनमत मतमागिरे सन्ततं निजो- । दात्ततेयिन्दमा-दडिग-माधव-भूभुजराळ्दरुवियम् ॥ उत्तर-दिक् तटावधिगे तागे म... मूड तोण्डे-ना- । उत्तपराशेगम्बुनिधि चेर्बोळेयिप्प को म- । त्तित्तोळगुळ वैरिगळनिक्कि परावृत गङ्गवाडि - तोम् । बत्तरा -सासिरं-दले माडिदरिन्तुटु गङ्गरुज्जुगम् ॥ 1 ..... 1 •..• गंगनिं भय- । मिल्लद हरिवर्म विष्णु नृपनिं निजदिं । बल्ले तडङ्गाल्-माधव- । नलिं बाळ चुच्चुवाय्द- गङ्ग-नृपाळं ॥ श्रीपुरुषं शिवमारं । भूपाळ कृतान्त भूपना-सयिगोड्डम् | द्वीपाधिपरोळरि-नृप- । कोपानल - शिखेयेनिप्प विजयादित्यम् ॥ 1 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 निदिगिका लेख मरिद मारसिङ्गना । कुरुळ- राजिगं पेसर्वेत्ता । 1 .... मरुळं तन्नृप -तिळकन । पिरियमग सत्यवाक्यनचळितसौर्य्यम् ॥ गर्व्वद - गं वसुधेयो | ने कलि चागि शौचि गुत्तियगङ्गम दोविक्रमाभिरामन - | गुबिन कलि राचमल-भू-नृप -तिलकम् ॥ तेङ्गं मु''''हसिय कौ- । बुङ्ग पिडिढडसि कीळ्वना-मद-करिय पिङ्गद निलिसुव साहस - | तुंग केवळ नेगळ्द रक्कस गङ्गम् ॥ इन्तेनिसि नेगळ्द गङ्ग-बशोद्भवरोळा - दडिगन मग चुच्चुवाय्द-गङ्ग नातन सुतं दुर्विनीतनातन तनेय श्रीविक्रमनातन पुत्र भूविक्रमं । तत्सूनु श्रीपुरुष - महाराजम् । तत्-तनेयं सित्रमार- देवम् । तत्-तनूभवनेरेय'''' तत्पुत्रं वृतुगवेम्र्म्माडि । तदात्मजं मरुळ - देवं । तदनुज गुत्तिय - गङ्गनातन मर्म मारसिंग - देवनातन...ग क’''गदेवनात मग वर्म्म- देवनिन्तु गंग-बशोद्भवरु राज्य गेय्ये | दक्षिण- देश - निवासी गङ्ग-मही- मण्डलिक-कुल- सधरणः । श्री- मूलस-नाथो नाम्ना श्री सिंहनन्दि - मुनिः ॥ श्री- मूलसघ - वियदमृ- । तामळ -रुचि-रुचिर-कोण्डकुन्दान्वय-ल- । क्ष्मी-महितं जिन-धर्म्म-ल- । लाम क्राणूगणं जनानन्द - करम् ॥ आ-गणदन्वयदोळु । मणिरिव वनरागी मालिकेवामरादौ तिळकमित्र ललाटे चन्द्रिकेवामृताशौ । इव सरसि सरोजे मत्त भृङ्गी-निकायः समजनि जिनधर्मो निलो वाळचन्द्रः ॥ अवर शिष्यरु | विमल-श्री-जैनधर्म्माम्वर-हिमकरनुद्यत् - तपो-राज्य लक्ष्मी- । ३९३ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ जैन-शिलालेख-संग्रह रमण भूमण्डलाधीशनुमुभय-सिद्धान्त-रनाकरं ज-। गम-तीर्थ भव्य-वक्त्राम्बुज-खरकिरणं श्री-प्रभाचन्द्र-सिद्धा-1 न्त-मुनीन्द्रं क्षीर-नीराकर विशद-यगोवेष्टितागा-विभागम् ।। ___ अवर शिष्यरु। गुणियेने जिनमत-रक्षा- । मणियेने कवि-गमक-बादि-वाग्मि-प्रवरा-। अणियेने पण्डित-चूडा- । मणियेने गुणनन्दि-देवरेसेदर्द्धरेयोळ् ॥ तत्-सधर्मरु । अळवे पेळ नुडियल्के "विरुदं माण माणेले सांख्य वा-। ग्वळम नञ्चदे नीनडङ्गेडरदिर चार्वाकनैय्यायिका। मलेयल वेडिरु मट्टमेने चलदिन्दी-बन्दप केम्मनण-1 डलेयल् श्री-गुणचन्द्र-देवनमळ वादीभ-कण्ठीरवम् || तत्सधर्मरु । गङ्गा-वारि-सु-शैवळ सुर-करी दानाद्र-गण्ड-स्थळः । शम्भुः कण्ठ-विलग्न-घोर-गरळश्चन्द्रः कळङ्काङ्कितः। कैलासो वन-वल्लरी-परिवृतस्साम्य कथं वच्म्यहम् । कीया. सह माघनन्दि-अमिनश्चन्द्रातपोद्यच्छ्रिया ॥ आ-चारित्र-चक्रेश्वर-मुनि-राज-राजन शिष्यरु ॥ स्वस्ति समधिगतपञ्च-महा-शब्द-महा-कल्याणाट-महा-प्रातिहार्य-चतुत्रिंशदतिशय-विराजमान-भगवदहत्परमेश्वर-परम-भट्टारक-मुख-कमल-विनिर्गत-सदसदादि-बस्तु-खरूप-निरूपण-प्रवण-सिद्धान्तामृत-वार्द्धि-बात-विशुद्धेद्ध-बुद्धि-समद्धरु सकळ-भुवन-प्रसिद्धरु शम-दम-यम-नियम-नियमितान्तःकरणरु वाक्सुन्दरी-स्तन-मण्डन-रत्नाभरणरुमप्प श्रीमत्प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त-देवरेन्तेन्दडे। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदिगिका लेख आशीदाशान्तराळ-प्रथित-पृथु यत्रो व्योम - गंगा-तरंगः | चञ्चञ्चारित्र-धात्री- भवदति-ललितोदार- गम्भीर-मूर्त्तिः । वाक्-कान्तोत्तुंग-पीन-स्तन-कश-लसन्नूत-चूत-प्रवालः ॥ सिद्धान्त क्षीर- नीकर - हिमकिरणश्श्री प्रभाचन्द्रदेवः ॥ अभिनव - गणधर रूपं । त्रिभुवन-जन- विनुत- चरण - सरसिरुह-भृङ्ग । शुभ-मति-त्रैविद्यास्पद-। नुभय-कवीन्द्रोत्तम प्रभाचन्द्र- बुधम् ॥ अवर सधर्म्मरु | शशि-विशद-कीर्त्ति निर्म्मट नसदृश-गुण-रत्न वार्षि ऋाणूर्गणसद्बिसरुह-बनार्कनेम्बुदु । वसुमतियोळनन्तवीर्य्यसिद्धान्तिगरम् ॥ तत् धर्म्मरु | ३९५ 1 मन-वचन-काय-गुप्तिय । ननुनयदिं तळेदु पञ्च समितिय वादिन् । दनुवशनाद तपोनिधि | मुनिचन्द्र - प्रतिपनखिळ- राद्वान्तेशम् ॥ इन्तेनिसि नेगर्त्तेय तळेद श्रीमत् प्रभाचन्द्र - सिद्धान्त - देवर गुड्डुं भुजगंग-पेड - देव । वळवद् वैरिगळ पडल्पडिसि गेल्दुप्राजियोक माण्दने । चलढिन्द परियह वैरि-पुरमं तत्-कोटेयं तद्-मही । तळ कोण्डु वरित्रि वण्णिसुविन श्री वर्म्म- देवं मही । तळम तोळ्- बलदिं निमिर्चिदनिदेम् पेम्र्म्माड शौर्य्यात्मनो ॥ भरदिन्दान्तदटङ्गं । शरणेन्द नृपङ्गवेरदु बन्द नरङ्गम् | " I सुरगिरि वज्रागार सुर-भूज वर्म्म- देवनदटरदेवम् ॥ इन्तेनिसिद वर्म्म- देवन पट्ट -महादेवियेन्तेन्दडे | जिनेन्द्र- पादाम्बुज-मत्त भृङ्गी गुणावली - भूपण - भूपिताङ्गी । नितम्बिनीना कळशायमाना विराजते गङ्गमहाधिदेवी ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ जैन - शिलालेख संग्रह निजवेनिपी-नेगर्त्तेय महामतिगुत्सत्रमं निमिर्चुवा । त्मजरेनिसि तम्मुतो हुट्टिदरोप्पुत्र मार....... स- जयदे सत्य- गङ्गनृप कलि-रक्कस - गङ्ग-देवनुं । भुजबळ - गङ्ग-भूभुजनुमार्जिसिदर्जसमं निरन्तरम् ॥ स्थिरने मेरु- गिरीद्रनो सेणसुव गम्भीरने बार्धियो । पुरुडिप्पं कलिये सुरेन्द्र-सुतनं मे महा चागिये । सुर-भूजकोरेगाव चदुरने पाञ्चाळन गेल्दनन् - दिरदी- धारणि वण्णिकु रण-जय-प्रोत्तुगन गङ्गनम् ॥ नुडदुदे नन्नि माडिदुदे शासनमित्तु दे राम- रेसुमार - 1 प्पिडिदुदे वज्र-लेपसुरदिर्हुदे मृत्यु परोपकारदोळ् । नडेदुदे बडे सद्गुणमे मेय्येने निन्नबोलिन्तु नीतियोक् । नडेव नृपेन्द्रनावनिळेयोक् कलि-गंग-भूपती ॥ आतन तम्मम् । गज-रिपु- विष्टरादि- विभवोदय पार्श्व - जिनेन्द्र- पाद-पं- | कज-मद-भृङ्ग- गङ्ग-कुळ-मण्डन दण्डित वैरि-वर्ग भा वजनिभ मूर्त्ति दिग्बलय-वर्त्तित- कीर्त्ति समस्त धात्रियोळ् । भुजबळ - गङ्ग-भूप निनगार होरे मण्डळिकैक-भैरव ॥ आतन-पट्ट - महादेव || पट्टद''''रननुजं । पट्ट.''भूपङ्गे गङ्गत्राडिगे तळेदळू | पट्टमनेन्दडे गङ्गन | पट्टमहादेवियन्तु .........."}} गङ्ग-महादेवियर्ग भुजबळ - गङ्ग- देवनग्र-तनूजनेन्तेन्दडे | कलियनदिई 'एन्दु निमृदेत्तिद बाहुवे ........ | 'हळदू मरे...सले" Į 0808 ****** Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदिगिका लेख ३९७ .."नासे- गेयन् अवि......."नन्निय-गगनिन्तु मण्डळिक । ..''प्रद"""वेसरं देसेयन्तु वरं निमिर्चिद ॥ ... दाज्ञा-लते पवि-देण-देसेयोळं विद्युजय-स्तम्भचिन्त् । इवेनल् दिग्गजवत्यि..........."कट्टल् केटिदुत्तग-इस-॥ तवनान्तन्य-बळके दोर्प-नेवदि कोदण्डदत्त) नी । ळुव नीन. ये गगनात्मकर " सग्राम-रङ्गाग्रदोळ् ।। जस............. अखिळाशा-देवतापाङ्ग-रश्- 1 मि-सहस्र चमर करीन्द्र-रेपु"विक्रम......"आ-। गे सु-साम्राज्य""ताभिवृद्धि विभव मेञ्चुत्तिरल्"। ......."इरे सत्य गङ्गनेसेदं विश्वावनी-भागदोळ् ॥ खस्ति सत्यवाक्य-कोषणिवर्म धर्म-महाराजाधिराज परमेश्वर कुवळाळपुरवराधीश्वर नन्दगिरि-नाथ..."मद-गजेन्द्र लाञ्छनम् चतुर-चिरिश्चनं पद्मावती-देवी-लब्ध-वर-प्रसाद विचकिळामोद नन्निय ... त्तरंगं गग-कुळ-कुवळय""वेन्द्र दर्पोद्धताराति-वनज-बन-वेदण्डं कुसुमकोदण्ड गण्डरगण्डं दुरगण्ड नामादि-समस्त ......श्रीमन्ननिय-गङ्गं नेलेवीडिनल सुख-संकया-विनोददि राज्य गेट्युत्तिरे श्रीमतु कळंबूरुनगराविपति पट्टणस्थ ... .'' माडिसिद वसदियेन्तेन्दडे । इदु भू-देवते होत होगळशमो श्रेयस्सुधा-भार-पू-1 रदिना ............."त्रय-मण्डना-1 स्पदमो तानेन्दु ...... ....."लोक मनो-। मुददि वण्णिसे वम्मि-सेट्टि जिन-चैत्यावासमं माडिदम् ।। भुवन" ............"महत्त्वदि......"चातुर्वर्ण-सबक-भीष्ठमनित्तेत्तिसि जन-गेहमननुत्साह-सन्दोह......" Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......... ३९८ जैन-शिलालेख-संग्रह .............. .............." ""दनुजनिष्ट-शिष्ट-जन-कम्प-कुजं सदनोपशोभिताभ्युदय-विभूतिगास्पदनुदात्त-कठाधिपनीतनेम्ब...! ......"उदितोदितं नेगळ्दनी-वसुधा-तळदोळ् निरन्तरम् ।। बम्मि-सेट्टिय वनिते। तनगनुक्शेयेनिसि जग-। जन-सस्तुत-शील-गुण-गणाळ." ....... ...................."राजिसुतिर्दळ ॥ अवरिवर्गमगण्य-पुण्य-जनित-श्रीरायुरारोग्य-वैभव-सम्पन्-महिमौघ.... .........." ..................... .................माइतिर प्प विळास वेरसोन्पुवेत्तनवनी-चक्र मन-गोविनम् ॥ अन्तबर म्माडिसिद बसदिय पूजा-विधान............... र्षियग्गाहार-दानकं श्रीमचालुक्य-विक्रम-कालद ४२ नाल्वत्तेरडनेय मनुमथ-संवत्सरदुत्तरायण-संक्र ............"पुण्यतिथियन्दु श्रीमन्-नन्निय-गङ्ग-पेमाडि-देवनिन्द कुडल पडेटु मिसेट्टियर म्मेषपाषाण-गच्छाम्बर-शरच्चन्द्र 'शुभकीर्ति-देव-भट्टारकर कालं कर्चि धारापूर्वकं सर्व-नमस्य सर्व-बाधापरिहारवागि बसदिगे को वृत्ति (भागेकी ५ पक्तियोमें दान और सीमाकी चर्चा है तथा अन्तिम वाक्य. पद्धति) बहुभिर्वसुधा दत्ता राजमिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।। (हमेशाके अन्तिम श्लोक) [इस लेखमे न० २७७ शि० ले० के अनुसार ही गङ्ग राजाओंकी वंशा. चली तथा क्राणुर-गच्छके सिंहनन्दी भादि आचार्योंकी परम्परा दी हुई है। अन्तमे जिस बात के लिये यह लेख लिखवाया गया है वह यह है Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्बदहलिळका लेख ३९९ गद्ग महादेवी और भुजबल गङ्ग-देवका (प्रशंसासहित) ज्येष्ठ पुत्र नमिय गगन था, (जिसका छोटा भाई) सत्य गंग था। जिस समय सत्यवाक्य कोगुणिवर्म धर्ममहाराजाधिराज परमेश्वर ननिय गग सुख-शान्तिसे राज्य कर रहे थे कलम्बूर-नगराधिपति बर्मि-सेट्टिने एक जिनमन्दिर खड़ा किया (इसकी प्रशंसा)। अपनी बनवाई हुई बसदिकी पूजा तथा ऋपियोंके आहारदानके लिये ( उक्त मितिको) नलियभागपेादि-देवने (उक्त) भूमि दी और चम्मि सेट्टिने उसे लेकर मेप-पाषाण-- गच्छके शुभकीर्ति-देव-भट्टारकको पाद-प्रक्षालनपूर्वक अर्पित कर दिया ] [EC, VII Shimoga ti n° 57 ] २६८ श्रवणबेलगोल-संस्कृत तथा कन्नड़ [शक १०३९=१११७ ई.] [जै. शि. सं., प्र० भा०] २६९ कम्बदहळ्ळि-संस्कृत और कन्नड [शक १०४६, वर्ष विलम्बि (१०४० शरु-१११८ ई० [ लु. राइस ]) [ कम्बदहळ्ळि ( विण्डिगनवले प्रदेश )के, कम्बदराय स्तम्भपर ] (दक्षिणमुख) भद्रमस्तु जिन-शासनस्य ॥ श्री-सूरस्थ-गणे जातश्चारु-चारित्र-भूधरः । भूपालानत-पादाब्जो राद्धान्तार्णव-पारगः ॥ आदावनन्तवीर्यस्तच्छिप्यो बाळचन्द्र-मुनि-मुख्यस् तत्सूनुर्जितमदनस्सिद्धान्ताम्भोनिधिप्रंभाचन्द्रः॥ शिष्यं कल्नेले(?)देवस्तस्याभूत्तन्मनीपिणसूनुविध्वस्तमदनदो गुणमणिरप्टोपवासिमुनिमुख्यः ।। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह । तन्मौखो (2) विबुधाधीशो हेमनन्दिमुनीश्वरः । राद्धान्त - पारगो जातस्सूरस्थ-गण-भास्करः ॥ तदन्तेवासिनामाद्यो माद्यतामिन्द्रिय-द्विपाम् । यतिविनय नन्दीति विनेता भूत्तपोनिधिः ॥ नाडोळगिदेसेद गोसने । बाङ्गनोरेगिदन्देमुनिवनितेयरोळ् कुडिदनेम्बी- नुडियद- । नेडिपुदेले विनयनन्दि- देवरचरितं ॥ ओन्दने केळि बुध-जन- । मेन्टिङ्गं साक्षि नीमे वसुधा-तळदोळ् सन्दिद वधू निवहं । तन्देय वधुवेन्दपोम् प्रियम्वद - दानि || व्रत-समिति-गुप्ति-गुप्तो । जितमोह- परी हो बुध- स्तुत्यो । हत मदमायाद्वेषो यतिपति तत्सूनुरेकवीरोऽभूत् ॥ (पूर्वमुख) दानद पेम्पु दीन - जनकोटिगे कल्प- कुजाळि नोडे सन्मानद पेम्पु भव्य-जन-सङ्कुळमन्तणिपित्तु दान-सन्मान-तपोपवास-गुण-सन्ततियं सले ताब्दिदर्जगन्मानिगळेकवीर-मुनि-नाथरे जङ्गम-तीर्थवरे ॥ तस्यानुजस्सकळ-शास्त्र- महात्रोऽभूद् भव्याब्ज-पण्ड-दिनकृन्मुनि-पुण्डरीको । विध्वस्त-मन्मथ-मदोऽमळ-गीत- कीर्त्तिश्श्री पल्ल-पण्डित-यतिज्र्जितपापशत्रुः ॥ पल्लकीर्त्तिथा रूढः पुरा व्याकरणे कृती । तथामिमान-दानेषु प्रसिद्ध पल- पण्डितः ॥ ४०० पल्ल पण्डित नागेन ददता दानमद्भुतम् । भूषित कलि-कालेऽस्मिन् गङ्ग-मण्डल-काननं ॥ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्बदहल्लिका लेखसरस्थ-गण-गीर्वाण-मार्गमालम्बतेऽधुना। दान-प्रभा-प्रकाशोऽयं पल्ल-पण्डित-चन्द्रमाः ॥ दान-वारि-परिपूरित-सिन्धुनष्टमोहतिमिरो गुण-बन्धुः । भव्यलोककुमुदाकरचन्द्रः पल्लपण्डितमुनिहततन्द्रः ।। नानादेशसमागवेन गुणिना लोकेन संसेवितो जीर्णेनाभिनवेन नूतन-तनु-श्री-लक्षणैलक्षितः । शुम्भद्भरिगुणालयो मतिमता अग्रेसरो राजते देशेऽस्मिन्नभिमानदानिकमुनिस्सर्वार्थ-चिन्तामणिः ॥ विद्वज्जनानन्दनकारणेन दानेन भक्त्या मुनि-पुङ्गवेषु । दिगन्तविश्रान्तयशोनिधानं विराजते पण्डित-पुण्डरीकः ।। (उत्तरमुख) नानाभिमानिजन-दान-विधान-धीतो धीमानशेषजनता-मनसोऽभिरामः । जातोऽभिमानि-पद-पूर्वक दानि-नान्ना ख्यातः खलीकृन-महा-कळिकाळ-दोपः।। साभिमाने जनेऽभीष्टमभिमानमखण्डयन् जातोऽभिमानदानीह यथार्थः पल्लपण्डितः ।। अतिसयमागे दानदोळे वेरिदो पुनयोक्तियेम्ब सन्मतियोळे पुष्टि शास्त्रदोळे दाङ्गुडिवोगि विशेपमप्प सन् तुत-गुणदोकियिन्दे मंडलागि दिगन्तमनेय्दे पल्ल-पणडितर विलास-कीर्ति-लते पद्धिविगे चोद्यमप्पिनम् ।। सुर-कारय काम-धेनुव । सरदभ्रद कान्तिय पुदुङ्गोळिसुत्तु । शरदमळचन्द्रविम्बद । दोरेगे मिगिल् पाल्यकीर्ति देवरकीर्ति ॥ दानमपरिमितमोपभि- | मानं सत्कविते शास्त्रनिपुणते कीर्ति शि० २६ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह स्थानमेने सन्दरीगळ् । दानिगळभिमानदानिगळ् वसुमतियो || वननिधि-वेष्टित धात्रियो । ळनवरतं नरेद दीन - जनारेङ्गेलम् । धन-कनक माळपर सन् 1 मनदिन्दं पाल्यकीर्त्ति पण्डित - देवर् ॥ ए - वोगवुदण्ण विभुध-ज-1 नावळिगं वेडिदर्थि- जनकन्निञ्चन् । देवतरु कुडुव तेर्रदन्। तीवर्क्सले पल्ल - पण्डितर व्यसुमतियोऴ् ॥ ( पश्चिममुख ) पुडवियोळ गळनेगब्द दानिगळिनिचरन्नरारो पेळू । नुडियदिरारुम मरुळे कल्प- महीजद कोडिनन्ते को । उडुगदे नग्न-भग्न-नट-गायक- दीन- जनक्के सन्तोसंवडे कुडुति पेम्पिनळ्यञ्चरिपाय्तभिमानदानियोळ् ॥ ४०२ स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वर त्रिभुवनमल्ल तलेकाडु-गोण्ड भुजबळ वीर- गङ्ग होयसळ - देवरु सुखसंकयाविनोददिं राज्यं गेयुत्तमिरे तत्पाद पद्मोपिजीवि महासमन्ताधिपति श्रीन्महाप्रधानि द्रोह - घरट्ट पिरिय- दण्डनायक गङ्ग-राज तलेकार्ड कोळुवलि मुगोळ वेडि-कोण्डु गेल्दडे मेञ्चिदेम् बेडिकोळ्ळकेने श्री-विण्डिगन विलेयतीर्थर के तळ-वित्तियम्बेडे श्री विष्णुवर्धन होयसळ - देवरु कारुण्य गेय्दु कोडे कोण्डु शक-वरिस * १०४६ विलम्वि सम्वत्-सरद श्रीमूलसंघद देसिंग- गणद पुस्तकगच्छद कोण्डकुन्दान्वयद शुभचन्द्र-सिद्धान्त - देवर काल कि धारापूर्व्वकम्माडि बिट्ट दत्ति पिरिय-केर्रेय तूविन बडगण हळदिं तेङ्ककू कौङ्गिन तोण्ट ओळगागि बिट्ट गद्दे सलिगे मूवतु हळियमुन्दण लक्कसमु..................................म गट्टमुं अन्दूर - कि [रि ] यकेरेंयुं पक्षोपवासि... बसदिय हडवण-देसेवर | ई-धर्ममनळिदव गङ्गेय तडिय हदिनेण्टु1 सासिर कविले कोन्द दोसदल होद || १ लेकिन शक १०४६ = कोधि, विलम्बि= १०४० । ... Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ बकापुरका लेख [जिनशासनकी समृद्धि कामना। अनन्तवीर्य सूरस्थगणमें उत्पत्र हुए। उनके शिष्य बालचन्द्र मुनि उनके पुत्र प्रभाचन्द्र, उनके शिष्य करनेलेदेव, उनके पुत्र अष्टोपवासी मुनि उनके शिष्य हेमनन्दि मुनि । इनके शिष्योंमे एक विनयनन्दि नामक यति थे जिनके विषयमें नाइ-देशमे यह प्रवाद फैला कि वे शहरोंमें श्राविकामोके पास जाते है। लेकिन यह प्रवाद सही नहीं था। विद्वानो, इस बातको सुनो कि इस विषयमें स्वयं तुम्हीं लोग साक्षी हो कि वे अपने पिवाकी पत्नी (अर्थात् अपनी माँ) से जैसा वर्तन करते थे वैसा ही बर्ताव स्त्री-समुदायसे करते थे । उन अनन्तवीर्यका पुत्र एकवीर था जो अपने गुणोंसे 'जगमतीर्थ' कहलाता था। उसका छोटा भाई पल्ल-पण्डित था। जैसे पूर्वकालमे पाल्यकीर्ति न्याकरणमें प्रसिद्ध था वैसे ही दान देनेमे यह प्रसिद्ध था। आगे उसके दानोंकी प्रशंसा की गई है, उसको नाम भी 'अभिमानदानी' और 'पाल्यकीर्तिदेव' दिये गये है। जिस समय वीर गग-होयसल-देव शान्ति और बुद्धिमत्तासे अपना राज्य चला रहे थे; तत्पादपद्मोपजीवी गगराज महाप्रधानको, तळेकादुपर कब्जा करनेसे पहिले, उन्होंने कोई एक वर माँगनेको कहा । उत्तरमें गहराजने विण्डिगन जिलेके लिये भूमि-दान माँगा और विष्णुवर्द्धन होय्सल-देवने उसको वह दिया। गगराजने भी उक्त भूमि पाकर शुभचन्द्र-सिद्धान्तदेवके पादप्रक्षालन कर उन्हें सौंप दी।शुभचन्द्र-सिद्धान्तदेव मूलसघ, देसिग-गण, पुस्तकाच्छ तथा कोन्द-कुन्दान्वयके थे। शाप । [EC, IV, Nagamangala tl, n° 19] २७०,२७१ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कन्नड [क्रमश. शक १०४११११९ ई० और शक १०४२-११२० ई.] (जै० शि० सं० प्र० भा०) २७२ बकापुर-कन्नड़ [वि. चा० का ४५ वाँ वर्ष (-शक १०४२३११२०ई० [फ्लीट] । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जैन-शिलालेख संग्रह [बायें हायकी ओरके शिलालेखमें करीब १७-१७ अक्षरोंवाली ३७ पक्तियाँ हैं। इसमें एक दानका उल्लेख है जो मादिगवुण्ड और दूसरे गाँव-प्रमुखोंके द्वारा शुमकृत् संवत्सरमें, चालुक्य विक्रमके ४५ ३ वर्ष, किरिय बकापुरके जिनमन्दिरको किया गया था।] [LA, IV, 205, 2° 7, a.] मत्तावार-कन्नड [विना कालनिर्देशका पर संभवतः लगभग ११२० ई०] मचावारमें, पार्श्वनाय-यस्तिके प्राङ्गणमें एक पापाणपर] मरुळहळि-जकवे हटिदेडे गे "गन्ति मत्तवृरद वसदि तपसु माडि सिद्धियादळु अव्त्रेय माजकन मग मारे य] कल्ल निल्लिसिद [मरळहलळिके नकव्वेके द्वारा प्रेपित गे..... गन्तिने मत्त्वूरकी बस. दिमें तपश्चरण करके सिद्धि प्राप्त की । अत्रेय माजकके पुन मारेयने यह पाषाण स्थापित किया। [EC, VI, Chikmagalūr tl. n° 52] ૨૭૪ सुकदरे-संस्कृठ तथा कन्नड़ भन्न { काल लुस, पर लगभग ११००ई०] [सुक्दरे (होणकेरी परगता), लक्काम मन्दिरके सामने पड़े हुए पापाणपर] .... ..................... ................................ ........."कल्पवृक्ष-सदृश कीर्त्यङ्गनावल्लभम् श्री..........................."पुण्याकरम् ॥ श्रीमत्परमगंभीरत्याहादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनायस्य गासनं जिनशासनम् ॥ . . . . . . . . . . . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकदरेका लेख ४०५ नमोऽस्तु ॥ स्वस्ति समधिगतपञ्चमहागब्द महामण्डलेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरधुमणि सम्यक्त्वचूडामणि मलपरोळु गण्ड श्रीमत्रिभुवनमल तलकाडु गोण्ड भुजबल...."वर्द्धन पोसळ-देवरु सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेय्युत्तमिरे .........."व । जिननिष्टदेवमजितं । मुनिपति गुरु पोयसळेश.......... एचले तायेनेल्केनेसे-। दनो ता जकि सेट्टि यात्रेय-गोत्रपवित्र । ......."नेगळ्द जकि सेट्टिय गुरु-कुलमदेन्तेन्दडे । श्रीमद्राविडसंघ............"वळि-लीलेयिम् । श्रीमत्स्वामि-समन्तभद्ररवरिं भट्टाकलङ्काख्य"" । ....... .."हेमसेनरवरि श्रीवादिराजाङ्करन्त आमाहात्म्यविशिष्टरिन्दजितसेन............॥ ..."परम-मुनिय शिष्यर् । पापहरमल्लिपेण-मलधारि...। .................." । भूपालस्तुत्यरेसेदरवनीतळदोळ् । धनदोळ् धनद वि.""। साहसटिं चारुदत्त चागदोळे जीमूत जक्कि-सेट्टि.. ... । ..... दानि विद्वज्- । जनविनुतं धर्मजलधिवर्द्धितचन्द्रम् । मनु-नीति-मार्ग... | "......""जकि-सेट्टि गोत्र-पवित्रम् ॥ अन्तप्प जकि सेट्टि तम्मूर सुकु.........."माडिसियदक्के विट्ट दत्ति आवूर यीसान्यद केरेय कट्टिसि..... केरेयु वसदियिं बडगल्ल वेद्दले वेदे खण्डुग एरडु मत्त · ."वायाव्यद किरुकेरे सहितवागियु आ-ऊर देव-गोळग धर्म होरे-तिप्पे-सुङ्क गाणदलरवानेण्णे इन्तिवुम शक वर्ष"""""""संवत्सरद ज्येष्ठ शु० १२ वड्डवार स्वातिनक्षत्रदन्दु Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जैन-शिलालेख संग्रह वसदि....."करणकवाहारदानक दयापाल-देवर्गे धारापूर्वक ........ (सदाका अन्तिम श्लोक) मङ्गलमहा श्री श्री नमोऽहत्पा..........। ............"तन्नापिनि। मनमं तन्न वसके तन्दु बळियं सत्-क्षान्तियन् । अनेक-पुष्प-वरिष-प्रभावदि भावदि............। ."सुर-दुन्दुभिगळेसेये सूर-गणिकेय..........."पोगब्जिनेगं ॥ जकि सेट्टिय तम्मं....." [जिनशासनकी प्रासा । जिस समय (अपनी हमेशाकी उपाधियों सहित), विष्णुवर्द्धन पोयसळदेव शान्ति और बुद्धिमत्तासे अपने राज्यका शासन कर रहे थे मात्रेयगोत्रको पवित्र करनेवाले जकि-सेट्टिके 'जिन' इष्टदेव थे, अजितमुनिपति गुरु थे, पोयसल राजा थे और एचल माता थी। ___उस प्रसिद्ध जक्वि-सेटिकी गुर्वावली निन्न भाँति है: द्राविळ (इ) में........... स्वामी समन्तभद्र हुए, उनके बाद भट्टाकल, हेमसेन, उनके बाद वादिराज"... अजितसेन, परममुनिके शिष्य, पापहर मल्लिपेण मलधारी। लकि सेटिकी और भी प्रशसा । इस जवि सेहिने अपने गाँव सुकदरेमें एक 'वसदि' और उसके दक्षिण-पूर्वमे एक तालाव बनवाया । 'बसदि' और सरोवरके खर्चके लिये (लेखमें वर्णित) भूमिका दान दिया । साथमें दक्षिण-पश्चिममें स्थित एक छोटासा तालाव, देवका 'कोलग' बोझोंका खर्च और खादके गड्ढे, और तेलके कोल्हुभोंसे भाधा मन तेल, ये सब चीजें उत्सवों और आहारदानके लिये दी। ये सब चीजें दयापाल-देवको सौंप दी। जकि सेटि और उसके छोटे भाईकी प्रशंसा ।। [EC, IV, Nagamangal tis, n° 1031 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुत्तत्तिका लेख ४०५ २७५ मुत्तत्ति-कन्नड [विना कालनिर्देशका; बहुत करके लगभग ११२० ई. [माधवराय मन्दिरके नवरंग मण्डपके चार स्तम्भोंपर] (दक्षिण-पश्चिमी खम्भा) स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महा-शब्द महामण्डलेश्वर द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यादवकुलाम्बरद्युम (उत्तर-पश्चिमी) णि सम्यक्त्वचूडामणि तळेकाडु-गोण्ड भुजवळ वीरगन विष्णुवर्द्धन-पोग्सळदेवरु विनयादित्य-दण्ड-(दक्षिण-पूर्व खम्भा)नायक माडिसिद होयसळ-जिनालयके बिट्ट दत्ति श्री-मूलसंघ देशिय-गणद पो(पु)स्तकगच्छद कोण्डकुन्दान्वयद श्रीमन्मेषचन्द्र विद्य-देवर शिष्यरु (उत्तर-पूर्वी खम्भा) श्री-प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त-देव सक्रान्तिव्यतीपातदन्दु काल कर्चि धारा-पूर्वक माडि विट्ट दत्ति हिरिय-कैरेय केळगे मोदलेरिय गद्दे हत्तु-सलिगेयदु ओन्दु सलगे तोण्टेयदु बसदिय मुन्तन इम्मडल वेदलेयुम बळिगट्टमुम बसदिय बडगण........: (दक्षिण-पूर्वी खम्भा) विनयादित्यालय । [(भपने उन्हीं पदों सहित) विष्णुवर्द्धन-पोयसळ-देवने (उच) भूमिका दान श्री-मूलसंघ, देशीय-गण, पुस्तकाच्छ तथा कुन्दकुन्दान्वयके मेघचन्द्र-विद्य-देवके शिष्य प्रमाचन्द्र-सिद्धान्त-देवको विनयादित्य-दण्डनायकके द्वारा बनवाये गये होयसल-जिनालयके लिये किया।] [EC, V, Hassan tl., n° 112] . कोनूर (जि. बेलगाँव)-कन्नड़-भग्न [विक्रमादित्य चालुक्यका ४६ वॉ वर्ष-११२१ ई० ] Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह परिचय [ इस लेख में रायणय्य नायक, मारय्य नायक, तथा कोण्डनूरुके दूसरे नायकों द्वारा किये गये दानका उल्लेख है । ये दान महातीर्थ तटेश्वरदेवके मन्दिरकी तरफ से किये गये थे। उस समय कुण्डी ३००० में महासामन्त राजा कार्त्तवीर्य राज्य कर रहे थे । इनकी उपाधियोमे रहन्वश बतलाया गया है। पूर्ववर्ती रह शिलालेखोंकी अपेक्षा इनकी उपाधियाँ कलहोळी शिलालेखकी उपाधियों से ज्यादा मिलती हैं । इस लेखकी ४३ वीं पंक्ति में उनका नाम 'कत्तमदेव' दिया हुआ है, और ये संभवत. कार्त्तवीर्य तृतीय है, जैसा कि आगेकी वंशावलीसे प्रकट होगा । कालकी पंक्ति घिस गई है । ] ४०८ [JB, X p 181-182, p. p 287-292, t, p 293-298, tr, insn° 8, II part. ] २७७ कल्लूरगुड्डु —— संस्कृत तथा कन्नड [ शक १०४३ = ११२१ ई० ] [ कल्लुरगुड ( शिमोगा परगना ) मे, सिद्धेश्वर मन्दिरकी पूर्वदिशामे पढ़े हुए पाषाणपर ] १ इस शिलालेखका लेख वही है जो शिलालेख नं २२७ का अन्तिम भाग है । केवल अश- मेद है । २२७ नं का अश पहिला है और इस लेखका अश दूसरा है । पर यह अश-भेद सूक्ष्मरीतिसे अवलोकन करने पर भी, सिवाय तिथि (काल)- मेदके, ठीक-ठीक नहीं मालूम पडता । अत लेख ( जो २२७ वे शिलालेखका द्वितीयाश है) यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पाठक अपनी बुद्धिसे ही उसे निश्चित करें, क्योंकि हमको उक्त ( २२७ ) लेखमे 'रायणय्य नायक' तथा 'मारय्य नायक' ये दो नाम ( जिनके दानका उल्लेख इस लेख मे है ) कतई नहीं मिले हैं । 'कोण्डनूरु' का नाम अवश्य पाया जाता है, पर उसके अन्य 'नायक' का कुछ भी पता नहीं । अत हमें सन्देह है कि २२७ वे नं० के शिलालेखसे भिन्न कोई दूसरा लेख इस २७६ वे नं० का होना चाहिये । सभव है वह गल्तीसे लिखे जानेसे रह गया हो, या मूल 'JBX' पत्रिकामे ही छूट गया हो । सम्पादक Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूर गुडुका लेख श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ ४०९ स्वस्ति समस्त भुवनाश्रयं श्री - पृथ्वी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय-कुळ-तिळक चालुक्याभरणं श्रीमतत्रैलोक्यमलदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रबर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारं वरं सलुत्तमिरे । गङ्गान्वयावतारमेन्तेन्दोडे । 1 सले वृषभ-तीर्थ- काल | सुललितमेने सकळ भव्य चित्तानन्दम् । कलि-काल-निर्जित श्री- । ललना- लावण्य-वर्द्धनं क्रमदिन्दम् || सोगयिसुव-कालदोळ् की- । र्त्तिगे मूल स्तंभमेनिपयोध्या-पुरदोळ् । जगदधिनाथं पुट्टिद- । नगण्यनिक्ष्वाकु वंश - चूडारत्नम् ॥ . धरेगे हरिश्चन्द्र-नृपे । श्वरनोर्व्यने कान्तनागि दोर्ज्वलदिन्दम् । विरुदरनदिष्पिं विद्या-1 परिणतिथिं नेरेद् सुखदिनिरे पलकालम् ॥ वृ० ॥ आतऩ पुत्रनिन्दु-हर-हास -निभोज्वल-कीर्ति सद्गुणो । पेतनुदात्त वैरि-कुल- भेदनकारि कला- प्रवीण नुद्- | धूत-मलं सुरेन्द्र-सदृश भरतं कवि -राज- पूजितम् । ख्यात नतर्क्यपुण्यनिलयं सु-जनाग्रणि विश्रुतान्त्रयम् ॥ ऋजु-शील-युक्तेयेनिसिद । विजय- महादेवी तनगे सतियेने विबुधव्रज-पूज्यं भरत भा- । वज-सदृशं ताने सकळ धात्री तळदोळू || आ - विजय - महादेविगे गर्भ-दोहलं नेगळे । तरल-तरंग-भंगुर -समन्वितेयं झष - चक्रवाक-भा- । सुर-कळहंस- पूरितेयनुद्ध-लताङ्कित गात्रेयं मनो । हर- नव-य-मान्ध-शुभ गन्ध-समीर निवासेयं तळो । दरि नेरे गङ्गेयं नलिदु मीचभिवञ्च्छेयनेय्दे तादिदळू || Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह कळहस-याने पला । केदियरोड बोगि पूर्ण-गङ्गा-नदियम् । विळसितमं पोक्कु निरा कुलदिन्दोलाडि पाडि गाडियनान्तम् ।। अन्तु मनदलम्पु पोगे गङ्गा-नदियोळ ओलाडि निज-गृहक्के वन्दु नत्रमा नेरेदु पुत्रनं पडेदातङ्गे। गङ्गा-नदियोळु मिन्दु ल- ताङ्गि मग वडेदळाप कारणदिन्दम् । माङ्गल्य-नामवोन्दुदि- । लाङ्गनेगधिपतिगे गङ्गादत्ताख्यानम् ॥ आ-गङ्गदत्तने भरतनेम्ब मग पुट्टिदनातङ्गे गङ्गादत्तनेम्ब पुष्टि । गुण निधिगे गङ्गदत्तं- । गणुगिन पुत्रं विवेक-निधि पुष्टि दया-। प्रणियागि हरिश्चन्द्रं । प्रणुत-नृपेन्द्र धरित्रियोळ् गोभिसिदम् ।। मत्तमा नृपोत्तमझे भरतनेम्ब सुत पुट्टिदनातङ्गे गङ्गदत्तनेम्ब मगनागिमन्तु गङ्गान्वय सलुत्तमिरे। हरि-वा-केतु नेमी-। श्वर-तीर्थ बतिसुत्तमिरे गङ्ग-कुळा- । वर-भानु पुट्टिट भा- । सुर-तेज विष्णुगुप्तनेम्व नृपाळम् ।। आ-धराधिनाथ साम्राज्य-पदविय कैकोण्डहिच्छत्र-पुरदोळु सुखमिर्दु नेमितीर्थकर परम-देव- निर्वाण-काळ्टोळ् ऐन्द्रध्वजवेम्ब पूजेयं माडे देवेन्द्रनोसेदु । अनुपमदरावतमं । मनोनुरागदोळे विष्णुगुप्तङ्गित्तम् । जिन-पूजेयिन्दे मुक्तिय- । ननयमं पडेगुमेन्दोडुळिदुदु पिरिदे ॥ आ-विष्णुगुप्त-महाराजा पृथ्वीमति-महादेविग भगदत्तनुं श्रीदत्तनुमेम्ब तनयरागे भगदत्तने कलिङ्ग-देशम कुडलातनु कलिङ्ग-देशमनान्दु कलिंग-गङ्गनागि सुखदिन्दिरे । इत्तलदात्त-यशो-निधि । मत्त-द्विपमं समस्त-राज्यमुमं श्री। दत्त-नृपङ्गित्तं भू- । पोत्तमने निसिई विष्णुगुप्त-नरेन्द्रम् ।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूरगुडका लेख अन्तु श्रीदत्तनिन्दित्तलानेयुण्डिगे सलुत्तमिरे । प्रियवन्धु-वर्मनुदयिसि । नयदिन्दं सकल-धात्रियं पाळिसिद भय लोभ-दुर्लभं ल- 1क्ष्मी युवति-मुखाज-षण्ड-मण्डित-हासम् ॥ व ॥ अन्ता-प्रियवन्धु सुख-राज्यं गेय्युत्तमिरे तत्समयदोळु पार्श्वभट्टारकार्गे केवळ ज्ञानोत्पत्तियागे सौधर्मेन्द्र बन्दु केवळि-पूजेयं माडे प्रियबन्धु तानु भक्तियिं बन्दु पूजेय माडलातन भक्तिगिन्द्र मेच्चि दिव्यवप्पय्दु-तोडगेगळं कोड्ड निम्मन्वयदोळु मिथ्यादृष्टिगळागलोड अदृश्यङ्गळकुमेन्दु पेन्दु विजयपुरकाहिच्छत्रमेम्ब पेसरनिट दिविजेन्द्र पोपुदमित्तल गङ्गान्वय सम्पूर्ण-चन्द्रनन्ते पेछि वर्तिसुत्तमिरे तदन्वयदोळु कम्प-महीपतिगे पद्मनाभनेम्ब मगं पुष्टि । तनगे तनूभवरिल्लदे । मनदोळु चिन्तिसुतमिर्दु पद्मप्रमनार-। प्पिन-कणि शासन-देवते- यने पूजिसि दिव्य-मन्त्रदिं साधिसिदं ।। अन्तु साधिसि साधित-विद्यनागि पुत्ररिवरं पडेदु राम-लक्ष्मणरेम्ब पेसर-निट्ट । परमस्नेहदोनिज़र नडपे लीला-मात्रदि चन्द्रनन्त् । रे संपूर्ण-कळागरागि वेळेयल् विद्या-बलोद्योगमुर-। व्वरेयोळ् चोद्यमेनल् सछत्तमिरे कीर्ति-श्री दिशा-भागदोळ् । परेदाशा-गजमं पळञ्चलेये लक्ष्मी-भारदिन्दोप्पिदर ॥ अन्तु सुखदिन्दिप्दुमत्तलुजयिनी-पुराधिपति-महीपाल-तोडवुगळं वेडियट्टि दोडे पद्मनाभं कृतान्तनन्ते रौद्र-वेशम कैकोण्डु । एमगदनदृल्कागदु । तमगे तुडल् योग्यमल्ल सन्तमिरल वेळ् । समरके वन्दनप्पडे । निमिषदोळान्तिरिटु वीर-रसमं मेरेवेम् ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जैन शिलालेख संग्रह अन्तु मुडिदडे मन्त्रि-वर्गटोळालोचिसि तन्न तङ्गेय कन्नेयुं नात्वत्तेण्त्रराप्तरप्प विप्र-सन्तानमु वेरसु कळपिदोडवर्दक्षिणाभिमुखरागि वस्तुं राम-लक्ष्मण दडिग - माधवरेन्दु पेसरनि निच्च पयणदिम् । बन्दवर्गळुचित-पदमन- गुन्दलेयिं कण्डरमल -लक्ष्मी चित्ता - नन्दनम पेरूरं । मन्दार-नमेरु-पुष्पगन्धाद्रियुमम् ॥ व ॥ अन्तु गङ्ग-हेरूरं कण्डल्लिय तटाक तीरटोळु वीड वि चैयालयमं कण्डु निर्भर भक्तियिं त्रि-प्रदक्षिण गेय्दु स्तुतियिसि समस्त -विद्यापारावार-पारगरम् । जिन-समय- सुधाम्भोधि संपूर्ण चन्द्ररम् । उत्तमक्षमादि-दश- कुशळ-धर्म्म- रतरम् | चारित्र भद्र - वनरम् । विनेय-जनानन्दरम् । चतुस्समुद्र-मुद्रित यश :- प्रकाशरम् । सकळ - सावध- दूररम् । क्राणूणाम्बर सहस्रकिरणरम् । द्वादश-विधतपोनुष्ठान - निष्ठितरम् । गङ्ग-राज्य-समुद्धरणरम् । श्री-सिंहनन्द्याचार्यरं कण्डु गुरु-भक्तिपूर्वकं वन्दिसि तम्म बन्दभिप्रायमेल्लम तिळिय-पेळे कैकोण्डव समस्त-विद्याभिमुखर्म्माडि केलवा देवसदिं पद्मावती - देविय भक्ति-पूर्वकमाह्वान गेय्दु वर वडेदु खळगमु समस्त - राज्यमनवर्गे माडि | मुनि - पति नोडल विद्वज्- । जन-पूज्य माधवं शिलास्तम्भमनारनुगेदु पोय्यदु पुण्- | मेने मुरिदृदु वीर - पुरुपरेन माडर ॥ आ- साहस कण्डु | मुनि-पति कणिकारदेसको नेरे पट्टमनेय्दे कट्टि सज् - ' जन- जन-वन्धरं परिसि सेसेयनिक्कि समस्त धात्रियम् । मनमोसेदित्त कुञ्चमनविन केतनमागि माडि वर - नितु परिग्रहं गज-तुरङ्गमुमं निजमागे माडिदर || Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूरगुडका लेख ४१३ अन्तु समस्त-राज्यमं माडि बुद्धियनवर्गिन्तेन्दु पेन्दरु । नुडिदुदनारोळं नुडिदु तप्पिदोडं जिन-शासनकोडम्बडदडमन्य-नारिगैरेदट्टिदडं मधु-मास-सेवे गेय* दडमकुलीनरप्पवर कोळ्कोडेयादोडमथिंगर्थमम् । कुडटोडमाहवाङ्गणदोठोडिदड किडुगु कुल-क्रमम् ॥ एन्दु पेल्दुः । उत्तममप्प नन्दगिरि कोटे पोळल् कुवळालमागे तोम्-। वत्तर-सासिरं विषयमाप्तननिन्द्य-जिनेन्द्रनाजि-रगात्त-राज्यं जयं जिनमत मतमागिरे सन्तनं निजो-। दात्ततेयिन्दमा-दडिग-माधव-भूमुजराळ्दरुबियम् ॥ मत्तमा-नाडिने सीमे। उत्तर-दिक्-तटावधिगे तागे मदर्कले मूड तोण्ड-नाडत्तपरासेगम्बुनिधि चेरमेनिप्पेडे तेक कोडु मत्-। तित्तोळगुळ वैरिगळनिक्कि परावृत-गङ्गवाडि-तोम्। बत्तर-सासिरं दलेने माडिदरिन्तुटु गङ्गज्जुगम् ॥ अन्तु धरित्रिगधिपतियागि दडिग-माधवरिवर कोकण-विषय-साधन-निमित्तं वरुत्त मण्डलियं कण्डरदर प्रभाव मेन्तेने । नुत-महेन्द्र-पुरं धरा-तळदोनोप्पुत्तिई विख्यातियिम् । कृत-काल मदना-पुरं नेगळे मिक्का-त्रेतेयोळ् सज्जनस्तुत मण्डाल-पुरं तृतीय-पेसरि द्वापारदोळ् सन्ततोन् । नतिथि मण्डलियेम्बरिन्तु कलि कालं सन्दुदिन्ती-पुरम् ॥ अन्ता-नाल्कु-युगक नाल्कु-पेसरिन्दोप्पुव मण्डलिय बहि-गिदोल सौगन्धम कूडे पसरिसुव सहन-पत्रवप्पलई तावरेगलिं नाना-जलच्चरि Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जैन-शिलालेख संग्रह युलिपदिन्दोप्पुव हेग्गेरेयं कण्ड बीडं विट्ठ तद्-गिरिय रम्यम कण्डुमिल्लि चैत्यालयम माडिमेन्दुः क्राणूनण-तिळकर सिंहनन्याचार्य्यर प्पळे महाप्रसादमेन्दु चैत्यालयम माडिसि केलवानु दिवसदि कोळालके पोगि सुखदि राज्य गेय्युत्तमिरे गङ्गान्वयं पेचि वत्तिसुत्तिरे दडिगंगे माधवनेम्ब सुतनागि राज्यं गेय्यलातन मग हरि-वर्मनातन पुत्रं विष्णुगोपनेम्बनागि मिथ्यात्वक्के सल्खुवन्ता-तोडबदृश्यगळागि पोगे आतन मग पृथ्वी-गंगं सम्यग्दृष्टियातन मग विरुदरं तडङ्गाल वोग्दडि-गिडिसुव तडङ्गाल-माधवनातनमगम् अविनीत-गङ्गानेम्वं । भुवनक्कधिनाथनागि पुट्टि वुधर्गुत्-। सवम पुष्टिसिद माध-व-रायन मर्मनब्धियन्ते गभीरम् ।। अन्तु शत-जीवियेम्बादेशमं केन्दुः । भरदिन्द चुर्लु-वायद पोगळे बुध-जन बन्द कावेरियोळ् मीकरमागल वीर-लक्ष्मी-नयन-कुमुदिनी-चन्द्रमं निन्दु नोडल । परिवारं तन्न कीर्ति-प्रभे वळसे दिशा-भागम चोधमागल् । परम-श्री-जैन-पादं नेलसे हृदयदोळ् मेरु-शैलोपमानम् ॥ अन्तु चुच्चे-वायदु बर्दुविदनातनन्वयदोळु दुनिीत-गगनातङ्गे मुकर नेम्वनादनातङ्गे श्रीविक्रमनातन मग भूविक्रमनातन मगन्दिर नवकाम-श्रीएरगस्वरोळु एरेयन मगनेरेयानातनिन्दुदयिसिदं श्रीवल्लभनातले श्री-पुरुषनादनातड्ने शिवमारनेम्वनातङ्गे मारसिंहनुदयं गेय्दम् । अवयवदिन्दे साधिसिद माळववेळुवनेग्दे गङ्ग-मालववेनलक्करं बरेदु कल् निरिसुत्ते कळल्चि चित्रकून। टवतुरे कन्नमुजेय-नृपानुजन जयकेसियं महा, हवदोळे मारसिंह-नृपनिकि निमिचिदनात्म-शौर्य्यमम् ।। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूर गुडुका लेख तनयं श्री-मारसिंहंगनुपमित- जगत्तुंगनाद जगत्-पा-1 वन-लक्ष्मी-वल्लभङ्गिन्तुदियिसि नेगळ्दं राचमल्लावनीशम् । मनु-मागं गङ्ग - चूडामणि जय - वनिताधीश - भूवल्लमेशम् । जिनधर्माम्वोधि-चन्द्र गुण-गण-निळ्यं राज- विद्याधरेन्द्रम् ॥ अन्तातन मर्म्मन्दिर् मरुळय्यं ब्रूतुग-पेम्र्म्माडि तदपत्यनेरेयपं तत्सुत - वीरवेङ्गव । 1 ४१५ उदय गेदं विद्या- | सुदतीशं मार-रूपनुचित-विळासम् । विदित-सकलार्थ शास्त्रं । मृदु-वाक्यं राचमल्लन हितर- मल्लम् ॥ अन्ता राचमल्लनिन्देरेयङ्गनातन मग वृतुगनातन मगं मरुळ-देवनातनात्मज गुत्तिय - गङ्गनातनिन्द मरेयेरिद मारसिंगनातन सुत गोविन्दरनातन पुत्र सैगोड- विजयादित्यनातनिन्द राचमल्लनातर्नि मारसिंगनातन सुतं कुरुळ- राजिगनातनिन्दं गर्व्वद - गङ्गं गोविन्दरन तम्मन मगनप्प मम्म- गोविन्दरम् | तेङ्गनुडिदडर्दु किळ्त । कौन मिडुकदिरलेडद - कय्योळ् मद-मा-1 तङ्गमने पिडिदु निलिसिद । गङ्गं सामान्य नृपने रक्कस - गङ्ग || तदनुजं कलियङ्गनातनिन्दुत्तरोत्तर गङ्गान्वयं सलुत्तमिरे क्राणूग्गणदाचार्यावतारवेन्तेन्दोडे । दक्षिण- देश - निवासी गङ्ग-मही- मण्डलिक- कुळ-समुद्धरणः । श्री-मूल- संघ -नाथो नाम्ना श्री सिंहनन्दि - मुनिः || अवर तदनन्तरं अर्हद्बल्याचार्यरुं वेट्टद-दामनन्दि-भट्टारकरूं बाळचन्द्र भट्टारकरं मेघचन्द्र त्रैविद्य देवरु । गुणचन्द्र पण्डित-देवरवरिन्द | Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जैन-शिलालेख संग्रह एळेगे गुण-रुचियिनोळपग-1 गळिसिरे गुण-रुचि-विकाश-वाग्-रश्मियिनुच्। ___ चळिसे चदनेन्दु पेम्पम् | तळेदं गुणनन्दि-देव-शब्द-ब्रह्म । अवरि पलिकमकलंक-सिंहासनमनलकरिसि नेगई तार्किक चक्रे श्वररु । वादीभ-सिंहरं । पर-वादि-कुल-कमल-बन-मद-मातंगरुम् । बौद्ध-वादि-तिमिर-पतङ्गरम् । साख्य-वादि-कुळाद्रि-वज्रधररुम् । नैयायिकाचार्य-भूजात-कुठाररुम् । मीमासक-मत-धनाधन-प्रचण्ड-पवनाम् । सिद्धान्त-वाधि-वर्द्धन-सुधाकररुम् । सकळ-साहित्य-प्रवीणरुम् । मनोभवभय-रहितरं । जिन-समयाम्बर-दिवाकररुम् । अप्प श्री-मूल-संघद कोण्डकुन्दान्वयद काणूनगण मेषपाषाण-गच्छद श्रीमत्प्रभाचन्द्र-सिद्धान्तदेवरवर शिष्यरु। अनवद्याचारर् म्मा- । घनन्दि-सिद्धान्त-देवरधिकृत-जिन-शा-। सन-संरक्षकरेसेदर् । जिनमतसद्धर्म-सम्पद नेगळ-विनेगम् ॥ अवर शिष्यरु । चतुरास्य चतुरोक्तियिं प्रमुतेयिन्दीशं गुण-व्यापकस्थितियिं विष्णु सु-बुद्धि-विस्तरणेयिं बौद्धं टली-जैन-पद्धतियिन्दि मिदेम् विचित्रतरमो चातुर्य्यमादी-समुन्। नत-सिद्धान्त-विभूषणङ्गेनिसिद श्रीमत्प्रभाचन्द्रमम् ।। अवर सधर्मरु । नुत-सिद्धान्तमनन्तवीर्य-मुनिग शुद्धाक्षराकारदिम् । सतत श्री-मुनिचन्द्र-दिव्य-मुनिग संवर्तिमुत्तिकुम-1 प्रतिम तानेने पेम्पु-वेत्तर दितोदान्तर ज्जगद्-वन्द्यरूरजितरुयोतित-विश्वरप्रतिहत-प्रज्ञर् मही-भागदोळ् ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूरगुडुका लेख ४१७ अवर शिप्यरु | वाढि वन- दहन - हुतवह् । बादि मनोभव- विशाळ - हर-निटिलाक्षं वादि-मद-रदनि-विदुषं । भेटिप मृगराज जयतु श्रुतकीर्त्तिचुधम् ॥ कवि गमक-वादि- वाग्मिगळ् अवन्दिरं गेल्दु कनकनन्दि त्रैवि - - विलासं त्रिभुवन मल्ल वादिराज दलेनिसिद्ध नृप समेयोल ॥ अवर सधर्म्मरु | चारित्र - चक्रि संयम - धारि क्राणूरुग्गणाग्रगण्य सदयम् । श्री- रमण सिद्धान्त-वि । शारदनति - विशद - कीर्त्ति माधवचन्द्रम् ॥ अवर शिप्यरु | वर - शाखाम्बुधि-बर्द्धन । हरिणाङ्क विरुदयादि-मद- विस्फाळम् । निरुतं तानेनलेसेद । धरेयोळ् त्रैविद्य- बालचन्द्र यतीन्द्रम् ॥ श्री प्रभाचन्द्र- सिद्धान्त - देवर शिष्यरु । वसुमतिगोळप-वेत्त धवलातपवारणवागि कीर्त्ति नर् - त्तिसुवुदु पेम्पु त्रेत्त महिमोन्नति मेरुगे मण्डपन् दला-। गेसेबुदु सद्-गुण-प्रतति मौक्तिक-मालेय लीलेय समर्-। त्थिसुवुदु सज्जनक्के सहजातमेन बुधचन्द्र देवर || करव वारुणिगेन्दु' नीडि पिरिदु निस्तेजमेय्दिर्द्द तन्-। निरव नोडदे सत्पद-प्रभुतेय तादि दोपाकरम् । दोरेये पेळेनुत कळङ्क -रहित सदू - वृत्तदिन्द तिरस् करि चन्द्रननोoy बुधचन्द्र सन्ततोत्साह दिम् || नुडिगळ् सत्य- सुवर्ण-भूषण- गण चित्त सुरनङ्गम् । मडगिट्टि करण्डक तनु तपश्श्री - भामिनी - भासियेन् । शि० २७ 1 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह दडे दुष्कीर्तियनान्त मत्तिन शठर दुर्बोधरस्पृश्यरेम् । पडिये सद्-बुध-सेव्यनप्प बुधचन्द्र-ख्यात-योगीन्द्रनोळ् ॥ सुर-धेनु व्रति-रूपमं तळेदुदो गीर्वाण-भूजातवी-। धरेयोळ तापस-रूपदि नेलसितो पेळेम्बिनम् वर्पदम् । करदथि-प्रकरके कोड विपुळ-श्री-कीर्तिय ताब्दिदम् । निरुतं श्री-बुधचन्द्र-देव-मुनिप वात्सल्य-रत्नाकरम् ॥ इन्तेनिसि नेगळ्दाचार्य-परमेष्ठिगळन्वय-तिळकर जिनसम-निर्मापगरुमप्प बुधचन्द्र-पण्डित-देवरु प्रवर्तिसुत्तिरे । प्रभाचन्द्र-सिद्धान्तदेवर गुड्ड। जय-जया-वल्लभनन्- वय-वाधि सीतरोचि भुवन-स्तुत्यम् । प्रिय-मूर्ति जिन-पदाव्ज-। द्वय-भृङ्ग वर्मदेव भुज-वळ-गङ्गम् ।। अन्तेनिसि नेगई वर्मदेव भुज-वळ-गङ्ग-पेाडि-देवं मण्डलिय वेद मेले मुन्नं दडिग-माधवर म्माडिसिद वसदियं तम्म गंगान्वयदवर प्पडि सलिसुत्तुं बरलु तदनन्तरं मर-वेसनागि माडिसि मण्डलि-सासिरवेडदोरे-एप्पत्तर बसदिगनिनप्पुव मुन्नादुवकुं पट्टद-वसदिय प्रतिबद्धवागि समादेयर् म्मुख्यवागि विट्ट दत्ति तहकरे सर्व-बाधापरिहार मत्तं वसदियिं तेङ्कण केरेय केळगे तळ-वृत्ति गद्दे गळेय मत्तल मूरु वेहले गळेय मत्तलारुमिन्तु पट्टद-तीर्थद वसदिगे सलुत्तमिरे आतन तनूभवरु। जय-लक्ष्मी-पति मारसिंगननुज सत्य-प्रियं सन्द नन्। निय गङ्ग-क्षितिपाळकं तदनुज तेजखि विक्रान्त-चक्र-युतं रक्कस-गंगनातननुजं वीरानगण्य तदन। न्वय-लक्ष्मी-गृह-दीपकं भुजवळ-श्री-गण-भूपाळकम् ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूरगुड्डुका लेख ४१९ आ-मारसिंग -देवं आर्द्रवल्लियेम्बूरुमं वसदियाग्नेय कोणरे यिम्मूडलु गद्दे गळेय मत्तलोन्दु वेदले मत्तलेरडुमं विट्टम् । माघनन्दि सिद्धान्तदेवर गुड मारसिंग - देवं मत्तवातन तम्म प्रभाचन्द्रसिद्धान्त - देवर गुड्ड नन्निय-गङ्ग-देवम् सिरियुरगे येम्बूरुममागदेयिं तेङ्कण कोळद केळगे गळेय मत्तलोन्दु बेद्दले मत्तलेरडुम विट्टम् । बर्म्म-देव सक मारसिंग नन्निय-गङ्ग ९७६ विज [य]९८७ [ विश्वाव ] सु ९९२ सौम्य । अनन्तवीर्य्य-सिद्धान्त-देवर गुड्डुं रक्कस गंगं नन्निय गङ्ग वि गद्देयिं तेट्कल हरकेरिय सीमेन्त्ररं बिट्ट गद्दे गळेय मत्तलोन्दु वैद्दले गळेय मत्त - लेरडु इन्ती-वृत्ति मण्डलिय होलद भूमियिन्ती- हन्नेरडु मत्तल वेद्दलेय सीमे मूडण देसे तळवृत्तिय गरे । ते हरकेरिय सीमेय नट्ट कलुगळु हडुचलु पिरिवळु बडग मोरसर-कोळ मत्त कटकद गोव रक्कम -गन हूलि - यकेरेय गद्देयुमदर सुत्तण वेदलेयुमं विट्टनदर सीमे मूडल चिक्कत्रण - जिगनकेरे तेल केरेय गुड्डेय वडगद... नीर्व्वरि हडुवलु न कल्लिं बरलु गुड्डेय मूडण नीर्व्वरि बडगल वडगण दिम्बिन नीरि चिक्कवञ्जिगनकेरेय वडगण कोडि ॥ मुनिचन्द्र-सिद्धान्त - देवर गुड्डम् | भुज- वळदिं शत्रु-मही । भुज- कुजमं कित्तु मुत्ति कोण्डेगळं कोण - । डजित - वळनिसि गर्द | भुजबळ - गङ्ग - क्षितीशनवनिप-तिलकं ॥ इन्तेनिसि नेगर्छ भुजबळ - गंग-पेम्र्म्माडि- देव सक वर्ष १०२७ नेय सर्व्वजितु - फाल्गुण - मासद १ शुक्रवारदन्दु मण्डलिय पद-तीर्थद बसदिय नित्य-निवेद्य-पूजेग ऋपियर्गाहार-दानक्क बिट्ट दत्ति हेग्गणगिले येम्बूरं सर्व्वं बाधा - परिहारं माडि विट्टन् ( भागेकी ३ पक्तियो में Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह ४२० सीमाकी बची है) प्रभाचन्द्र - सिद्धान्त - देवर गुड्ड नन्नियगंग चर्चा पेमडि- देव । आ-भुजवळगङ्ग..... | ..वन भ्राजित मग - वुट्टिद..." | " दिक्-तट रा- । ज्याभिपवाधिपतियेनिप नन्निय- गङ्गम् ॥ देसेगळने दे पद लक्किदे ता नेलगट्टे निप्प बल्- | पेसेवुदु तोळोळेण -ढेसेय गण्डर मीसेय मेले मेले वर- । चिखुवुदु गण्ड - गर्वेद जसं बडवानिय वायनेग्दे वत्- | तिसुवुदु तेजमेनाधिकनादनो ननिय गङ्ग-भूभुजम् ॥ पद-नखदोळ् दशाननते नम्र- नृपालि-मुखादिं जया - | स्पद-जद मुखते दुर्जय-शक्ति-धरत्वदिं चतुर । र्व्वदनते वक्त्रदोळ् चतुर वाणियिनोप्पिरन्तु नोपडा- । भ्युदयमनेदिदत्तु पलवुं मुखदिं तवे कीर्त्ति गङ्गनोक || दिगिभमनोत्ति कीलिडिपनग्गद केसरिवोले वाय्दडम् | पुगिये तळ-प्रहारदोळे मग्गिनुडुटदिन्दे मीण्टुवम् । नगमनिव कवुङ्गुडिव तेह्रुडिबन्नने सम्बुशैलमम् । नेगपिद पन्ति-दोळवननेळिप नेम्बुदु मारसिङ्गेन ॥ खस्ति सत्यवाक्य- कोणि वर्म धर्म - महाराजाधिराजम् परमेश्वरम् । कोळालपुर-चरेश्वरम् । नन्दगिरि - नाथं मद - गजेन्द्र लाञ्छनम् चतुर - विरिश्वनं पद्मावती देवी-लव्ध-वर प्रसादम् विचकिळामोद नन्नियगङ्गं । जयदुरत्तङ्गम् । गङ्ग-कुल- कुवळय-शरच्चन्द्रम् । मण्डलिक- देवेन्द्रम् । दर्पोद्धताराति-नज-वन-वेदण्डम् । कुसुमकोदण्डम् । गण्डरगण्डम् । दुट्टरगण्डम् । नामादि- समस्त प्रशस्ति सहितम् । श्रीमन्न १ यहा 'मारसिंग' नन्निय—–गंगा ही दूसरा नाम मालूम पडता है । $ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूरगुट्टका लेख ४२१ निय-गङ्ग-पेाडि-देवम् तम्मन्ज वर्म-देव माडिसिद मण्डलिय पट्टद-तीर्थद वसदियं कलु-वेसनागि माडिसिद पट्टद-बसदिगे सकवर्ष १०४३ नेय शुभकृत-संवत्सरद भाद्रपद-मासद शुद्ध ५ वृहस्पति-चारदन्दु कुरुळिय-वसदियादियागि पञ्चविशति-चैत्यालयमं धर्मप्रभावनेबिन्द माडिसिद प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त-देवर शिष्यर् मुख्यवागि विट्ट वृत्ति वसदिय मुन्दे गद्देगळेय मत्तरोन्दु वेदलेगळेय मत्तरेरडु वसदियहल्लिय सुकमुमं विट्टरु मत्त ननिय-गङ्ग-देवनु पट्ट-महा-देवि कञ्चल-देवियरु पद्मावती-देविगे हरसि हेमाडि-देवनं हडेदु काणिकेय तन्नाव नार्गकोळु शर-मित-पणव कोट्टरा-चन्द्रार्क-तार-वरं । वुधचन्द्र-पण्डित-देवर गुड्डम् । मुनिसिं दिग्दन्ति-दन्तमळनवयवदिन्दोत्ति वेग छळलेम् । विनेग कित्तेत्तने तारगेगळनदटिन्दालिकल्लन्ददि सू-। ' सने वार्द्धि-बातमं सुरेने तवुविनेग पीरने कोपदि पोय- । यने चट्ट पिट्ट-पिट्टागिरे समरदोळी-वीर-पेम्माडि-देवम् ॥ (हमेशाका अन्तिम श्लोक) [इस समय त्रैलोक्यमल्ल-देवका विजयराज्य प्रवर्द्धमान है । गङ्गान्वय (वंश) का अवतार इस प्रकार हुमा वृपभ-तीर्थ-कालमें जव कि अयोध्यामें इक्ष्वाकु-वशमें राजा हरिश्चन्द्रको राज्य करते हुए बहुत समय हो गया था, उसका पुत्र भरत हुआ। उसकी पती विजय महादेवी थी। जब उसको गर्भ-दोहद हुआ तो उसे जोरसे नृत्य करनेवाली लहरोंसे मोतप्रोत, मत्स्य, चक्रवाक पक्षी तथा चमकीले हसोसे पूरित गङ्गामें नहानेकी इच्छा हुई। अपनी इस इच्छाको पूरा करनेके बाद, नौ महीने पूरे होनेपर उसे एक लडका हुमा । उस लडकेका नाम, चूंकि गङ्गामे नहानेके बाद वह उत्पन्न हुआ था अतः गगदत्त रक्खा गया। गङ्गदत्तका पुत्र भरत हुआ और उसका पुत्र गङ्गदत्त हुमा । इस गङ्गदत्तकी Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह ४२२ लडकीका लड़का हरिश्चन्द्र हुआ, उसका लडका भरत हुआ और उसका फिर गङ्गदत्त । गंग वशकी परम्परा इस प्रकार जारी थी, जब कि नेमीश्वरका तीर्थ चल रहा था, उस समय, राजा विष्णुगुप्तका जन्म हुआ । यह राजा भहिच्छत्र- पुरमें शान्ति से निवास कर रहा था, उसी समय नेमि तीर्थंकरका निर्वाण हुआ और उसने ऐन्द्रध्वज पूजा की, जिससे प्रसन्न होकर देवेन्द्रने उसे ऐरावत हाथी दिया । विष्णुगुप्त महाराज और पृथ्वीमति - महादेवीसे भगदत्त और श्रीदत्त नामके दो पुत्र हुए | पिताने भगदत्तको राज्य करने के लिये कलिंग-देश दे दिया और वह उसपर 'कलिंग गग ' नामसे राज्य करने लगा। दूसरी तरफ, उसने वह मत्त हाथी तथा शेष संपूर्ण राज्य राजा श्रीदत्तको दे दिया । इस प्रकार जब श्रीदत्तके समय से हाथीको मुकुटमें धारण किया गया था, -- प्रियबन्धुवने उत्पन्न होकर अपनी नीति से सारी पृथ्वीकी रक्षा की । जिस समय वह प्रियबन्धु शान्तिसे राज्य कर रहा था, उस समय पार्श्व-भट्टारक, (तीर्थंकर) को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, जिसकी पूजा के लिये सौधर्मेन्द्रने आकर केवली पूजा की। इसी अवसरपर स्वयं प्रियबन्धुने भी आकर केवलज्ञानकी पूजा की । उसकी श्रद्धा से प्रसन्न होकर इन्द्रने पाँच आभरण (अलङ्कार ) उसे दिये और कहा, "अगर तुम्हारे वंशमें आगे कोई मिथ्यामतका माननेवाला उत्पन्न होगा, तो ये ( आभरण ) लुप्त हो जायेंगे ।" ऐसा कहकर, और अहिच्छत्रका 'विजयपुर' नाम रखकर इन्द्र चला गया । दूसरी ओर, पूर्ण चन्द्रमाके समान, गंग-वश बढ़ता ही चला गया और इस वंशमे राजा कम्पके पद्मनाभ नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ । पद्मनाभके, शासन- देवताकी कृपासे, दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनका नाम उसने राम और लक्ष्मण रखा । जब ये दोनों कुमार शान्तिसे रह रहे थे, उज्जयिनी - शासक महीपालने उनको जा घेरा और उनसे इन आभूषणोंको माँगा । पद्मनाभने देनेसे इन्कार कर दिया । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूरगुहका लेख ४२३ इसके बाद अपने मन्त्रियोंकी सम्मतिसे, उसने अपने पुत्रोंको, अपनी कुमारी छोटी बहिन तथा ४० चुने हुए बाह्मणोके साथ बाहर भेज दिया, और चूकि वे दक्षिणको जा रहे थे, उनका नाम बदलकर क्रमसे दडिग और माधव रस दिया। चलते-चलते वे एक अत्यन्त मनोरम स्थानपर आये, जहाँ उन्हें विशाल पेरुर् (शायद कोई तालाब-विशेष) और एक पहाडी मिली जो पुप्पाच्छादित मन्दार, नमेरु तथा चन्दनके वृक्षोंसे आवृत थी। उस गहहेरूरको देखकर वहीं उन्होने एक तालावके किनारे अपने तम्बू तान दिये, वहाँ एक चैत्यालय भी उन्हें दिखाई दिया, जिसकी तीन प्रदक्षिणा करनेके बाद, स्तुति करते समय, क्राणूर-गण-माकाशके सूर्य, गग राज्यके प्रवर्धक श्री-सिंहनन्धाचार्य दिखाई दिये। गुरुमें श्रद्धा होनेके कारण उन्होंने उनकी विनय की और अपने माने का उद्देश्य कहा। इसपर वे उनको हाथ पकटकर ले गये और उन्हें विद्याकी कलामें प्रवीण किया, और कुछ दिनोके बाद अपने श्रद्धा-बलसे पद्मावती देवीको प्रकट कर वर प्राप्त किया, और उन्हें एक तलवार तथा सपूर्ण राज्य दिया। जिस समय मुनिपति ऊपरकी ओर देस रहे थे, माधवने अपनी तमाम शक्तिसे एक पापाण-स्तम्भपर प्रहार किया, और वह स्तम्भ कडकड करते हुए नीचे गिर पड़ा । मुनिपतिने इस शक्तिको देखकर उनको कर्णिणकारके परागोंसे तैयार किया गया एक मुकुट पहिनाया, उनके ऊपर अनाजकी वृष्टि की और बहुत खुशीसे तमाम पृथ्वीका राज्य देते हुए, झण्डेके लिये अपनी पीछीको चिह्न बनाया, तथा बहुतसे सेवक, हाथी और घोडे दिये। ___ तमाम राज्यका अधिकार देते हुए उन्होंने उन्हें इस उपदेशसे सावधान किया:-अपनी प्रतिज्ञात वातको यदि वे नही करेंगे, अगर वे जिनशासनको स्वीकार नहीं करेंगे, अगर वे दूसरोंकी स्त्रियोको ग्रहण करेंगे, अगर वे मांस और मधुका सेवन करेंगे, अगर वे नीचोंसे सम्बन्ध जोड़ेंगे, अगर वे मावश्यकतावालोंको अपना धन नही देंगे, मगर युद्ध भूमिसे भाग जायेंगे:-तो उनका वंश नष्ट हो जायगा। १ शिलालेख इस बातमें एक राय है कि यह प्रहार तलवारसे किया गया था। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जैन-शिलालेख संग्रह ऐसा कहनेके बाद, उच्च नन्दगिरि उनका किला हो गया, कुवलाल उनका नगर बन गया, ९६००० उनका देश हो गया, निर्दोष जिन उनके देव हो गये, विजय उनकी युद्धभूमिकी साथिन हो गई, जिनमत उनका धर्म हो गया। मागे गनवाडि ९६००० की चतुर्दिक्-सीमा दी है। राज्य प्राप्त करनेके वाद, दढिग और माधव दोनो, जव कोकण देशको अधीन करनेके लिये भा रहे थे, उन्होने मण्डलि देखी, जिसके बाहरी प्रदेशमे एक विशाल तालावको सफेद जल-कमलिनी और हजारपत्तेवाले विकसित कमल तथा बहुत-सी मछलियोंके शब्दोंसे आकर्षक जानकर वहीं उन्होंने अपने तम्बू गाड दिये । पहाडीकी सुन्दरता देखकर सिंहनन्धाचार्यने उन्हें वहाँ एक चैत्यालय निर्माण करनेकी प्रेरणा की, जिसे उन्होने मान्य किया। और कुछ दिनोंके बाद वे कोलाल चले गये और शान्तिसे राज्य करने लगे। जैसे जैसे गग-वश बढता गया, दडिगके माधव नामका एक पुत्र हुमा, जिसने राज्य किया । उसका पुत्र हरिवर्मा, उसका पुत्र विष्णुगोप, जिसके मिथ्यामतके माननेके कारण, वे आभूषण विलीन हो गये थे। उसका पुत्र पृथ्वी गङ्ग हुआ, जिसने सत्यमत अङ्गीकार किया । उसका पुत्र तडजाळ माधव था। ___ इसका पुत्र अविनीत गङ्ग था । यह अपनी शत-जीवी वातको सुनकर, परीक्षाके लिये, अत्यन्त भयानक वाढवाली कावेरीमें कूद गया और फिर तैर कर निकल आया। यह पहा जिनभक्त था । उसके बाद दुर्विनीत गङ्ग हुआ, जिसका पुत्र मुष्कर था। मुफ्करके बाद क्रमले एकके बाद एक श्रीविक्रम और भूविक्रम हुए। भूविक्रमके नव-क और एरंग पुत्र हुए। इनमेंसे एरगके एरेयग पुत्र हुआ; उससे श्रीवल्लभ, उससे श्रीपुरुष, उससे शिवमार और उससे मारसिह । ___ मालव सप्तको स्वाधीनकर और एक पाषाणपर 'गङ्ग-मालव' खुदवाकर मारसिंहने कन्नमुज्जेके राजाके छोटे भाई जयक्सीको युद्धमें मारा । मारसिंहका पुत्र जगत्तुंग हुमा; उसके राचमल्ल हुमा जो जिनधर्मसमुद्र के लिये चन्द्रमा था। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्लूरगुडका लेख ४२५ उसके नाती मरळय्य और वृतुगपेम्र्म्माडि हुए; वृतुगकी सन्तान एरेयप, उसका पुत्र वीरवेडंग, और उसके राचमल्ल उत्पन्न हुआ । राचमलसे एरेयङ्ग उत्पन्न हुआ; जिसका बूतुग, जिसका मरुळ - देव, जिसका गुत्तिय - गंग, जिससे मारसिंग, उसका पुत्र गोविन्दर, उसका सैगोड विजयादित्य, उससे राचमल्ल उत्पन्न हुआ; उससे मारसिंग, उससे कुरुळ- राजिग, उससे गर्वेदगङ्ग, गोविन्दरके छोटे भाईका पुत्र मम्मगोविन्दर था । ( उसकी प्रशसा ) उसका छोटा भाई कलियन था । उसके बाद जिस समय गंगवंश चल रहा था कारगण भाचायोंकी वंशावली निम्न भाति थी दक्षिण- देशवासी, गङ्ग राजाओ के कुलके समुद्धारक, श्रीमूलसंघके नाथ सिंहनन्दि नामके मुनि थे । तदनन्तर अर्हदल्याचार्य, बेहद दामनन्दि भट्टारक, बालचन्द्र भट्टारक, मेघचन्द्र त्रैविद्यदेव, गुणचन्द्र पण्डितदेव । इनके बाद शब्द ब्रह्म गुणनन्दिदेव हुए । इनके बाद महान तार्किक एवं वादी प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव हुए। वे मूलसंघ, कोण्डकुन्दान्वय, क्रानूर्गण तथा मेषपाषाण गच्छके थे । उनके शिष्य माघनन्दिसिद्धान्तदेव हुए । उनके शिष्य प्रभाचन्द्र हुए । ― इनके सधर्मा अनन्तवीर्य मुनि थे; सुनिचन्द्र मुनि भी। उनके शिष्य श्रुतकीर्ति | उनके बाद कनकनन्दि त्रैविद्य हुए, जिन्हें राजाओं के दरबारमे 'त्रिभुवन मल्ल वादिराज' कहा जाता था । इनके सधर्मां माधवचन्द्र थे । उनके शिष्य नैविद्य बालचन्द्र यतीन्द्र थे । प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवके शिष्य बुधचन्द्रदेव थे ( उनकी प्रशसा ) | जिस समय आचार्य - परमेष्टि अन्वयके तिलकस्वरूप बुधचन्द्र- पण्डितदेव विराजमान थे। -- प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त-देवके गृहस्थ- शिष्य भुजबल-गंग वम्मैदेव थे । इन प्रसिद्ध बर्मदेव, भुजवल-गग पेडि- देवने 'बसदि ' बनवाई | यह वही बसदि है जिसे पूर्वमे दडिंग और माधवने मण्डलिकी पहाडीपर बनवाई थी, और जिसके लिये उसके गगवशके राजाओने पूजाका प्रवन्ध जारी रखा था, और जिसे बाद मे उन्होने लकडीकी बनवा दी थी, यह Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जैन - शिलालेख संग्रह आजतककी बनी हुई तथा भविष्य में जो मण्डलि - हजारकी एडदोरे-सत्तर में बनेंगी उन सभी वसदियोंमें मुख्य थी। इसका नाम पद-बसदि ( शाही बसदि ) रक्खा था, और इसे ( उक्त ) भूमिदान दिया । बर्मदेवके ४ लडके थे - मारसिंग, उसका छोटा भाई नन्निय-गंग; उसका छोटा भाई रस-गंग; उसका छोटा भाई भुजबल-गंग । उक्त मारसिंग- देवने आर्द्रवल्लिमे ( उक्त ) कुछ भूमिका दान दिया । इसके अतिरिक्त, माघनन्दि सिद्धान्तदेवका गृहस्थ शिष्य मारसिंह देव ( शक ९८७ विश्वावसु ) और उसका छोटा भाई, प्रभाचन्द्र- सिद्धान्त-देवका शिष्य, नन्नियगङ्गदेव था । इन दोनोंने सिरियूर में ( उक्त ) कुछ भूमिका दान दिया । ( शक ९९२ सौम्य ) देवका दानका समय- - शक ९७६ विजय अनन्तवीर्य सिद्धान्त देवके गृहस्थ-शिष्य रकस-गहने (उक्त सीमासहित ) भूमिका दान दिया । मुनिचन्द्र- सिद्धान्त - देवके गृहस्थ शिष्य भुजवल - गंगने शक १०२७ में, सर्वजितु वर्षमें, ( उक्त ) भूमिका दान किया । नन्निय-गंग-पेर्मादि देवका 'नन्निय-गग' नामका लड़का हुआ । ( इसकी प्रशंसा ), इसने शक वर्ष १०४३ शुभकृत् वर्षमें मण्डलिकी पद-तीर्थ बसदिके लिये, २५ चैत्यालय और बनवानेके साथ-साथ, कुछ जमीनका दान दिया। इसकी पट्टमहादेवी कञ्चल देवी थी। ] २७८ श्रवणबेलगोला - संस्कृत तथा कन्नडै [ शक १०४३ = ११२१ ई० ] (जै० शि० सं० प्र० भा० ) " २७९ श्रवणबेलगोला - संस्कृत तथा कन्नड़ [ शक १०४४ = ११२२ ई०] (जै० शि० सं०, प्र० भा० ) Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ तेर्दाळका लेख ४२७ २८० तेर्दाळ-कन्नड़ [शक १०४५८११२३ ई०] [तेर्दाळ दक्षिण महाराष्ट्र के सांगली जिलेका एक बडा गाँव है। इस स्थानकी जैन 'बस्ति' में एक पापाण पीठ (stone tablet) है जिसपर ३ विमिन्न भागोंमें विभक्त एक अभिलेख है । यह लेख उसका प्रथम भाग है, यह इस समूचे लेखकी ५६ वीं पक्तिपर जाकर समाप्त होता है।] - [TA, XIV, P 14-26 (Lines 1-56)] श्रीमत्परमगमीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ॥ श्रीमन्नम्रसुरासुरोरगलसन्माणिक्यमौळिप्रभा- . स्तोमालकृतपादपद्मयुगल कैवल्यकान्तामनःप्रेमं सन्मति-नेमिनाथ-जिननाथ तेरिदाळातिशयश्रीमत् (द) भव्यजनक्के माकनुदिनं दीर्घायुमं श्रीयुमम् ॥ क्षितिभृत्त्राणप्रभावोत्करकरिमकरोद्यत्प्रयुक्ताधिवेलावृतजम्बूद्वीपमध्योद्भवकनकनगनीक्षिसल् दक्षिणाशाक्षिति कण्गोप्पिप्पुदत्त भरतविषयमा देशदोळ् कुन्तळोद्यत्क्षिति तोक्कू चेल्विनि तद्धरणियोळेसेगुं कूण्डिनामोद्घदेशम् ॥ तद्विषयमध्योदेशदोळ् ॥ निरुपमगन्धशाळिवनदिं वनटिं कोळदिं तटाकर्दि गिरिवन-तोयदुर्ग-कुळ दिन्दगळिं बुध-माधवार्क-शंकर-जिन-समदि विपणि-मार्गदिनोपुव तेरिदाळ पन्नेरडर चेल्लनेय ॥ १ यहाँपर यह लेख सुस्पष्ट और सरलतासे पढ़नेके लिये पतिवार न देकर नियमानुसार पठनीय साधारण शैलीसे दिया जाता है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जैन - शिलालेख संग्रह आ वीर-मल्लिदेव-महीवल्लभनर्धनारि गुणमणिगणदिं भूयधुगेणेयेने वाचलदेवि महीन्द्रजेगे सीतेगोरे दोरेयते ॥ त्रि ( वृ ) ॥ अवरिवर्गनुरागदिं सिरिगवा कञ्जोदरंगं मनोभवनद्रिप्रियपुत्रिगं शशिधरंग पण्मुखं वन्दु पुड्डुचवोलू पुट्टि विरोधि-मन्नेयघरट्ट तेरिदाळ - क्षितीश-विळासं परिरक्षिपं भुवनदो निश्शंकेयिं गोमेन् ॥ त्रि ( वृ) ॥ कन्तु विळास - लक्ष्मियेनिपग्गढ़ वाचळदेवि माते विक्रान्त-विभासि-मल्ल-महीप जनक मुनि माघणन्दिसैद्धान्तिकचक्रवर्त्ति गुरु मिजिन मनदिष्ट - देवोरतेने तेरिदाळद नृपाग्रणि गोकनिदें कृता - र्थनो || अडसुव कुत्तवोत्तरिप मृत्यु कडगुव मारि कोम्बिनिं तोड विरोधि पात्र पुलि पोय्व सिडिल पिडिवुग्र पन्नग सुडुब दवाग्निनाघे कडेगंचुवुदेन्दढे तेरिदाळदी कडुगलि गोक - भूपतिय भव्यते केवळ निरीक्षिसल् || पसिद सिताहि सोङ्किढोडे सकिसि मन्त्रद तंत्रदासेयिन्दसुवरेयागि विट्टिरदे पञ्च-पदङ्गळनोदि तद्विपप्रसरमनेन्दे पिसिसि जिन - व्रतढोळु दृढ़नाद तन्न पेम्पेसेदिरे तेरिदाळदरसं नेगळ्दं कलि गोङ्कभूभुजन् ॥ येत्तिसि तेरिदाळदोळगोप्पे जिनेश्वरसम्म समन्तेत्तिसिद जयध्वजमनुगेि दिग्-मुख- दन्ति-दन्तदोळ् तेत्तिसिद निजाङ्क-महिमा - क्षरमाळिकेयं गङुन्दडेनुत्तमभव्यनो जिनमताग्रणि सद्गुणि गोडभूभुजन् ॥ सतत कीर्त्तिसदिर्पपरार्भुवनदोळ् भव्यर्जगत्सेन्यनं जित-काळेय-कळङ्क-पङ्क-पटह- ध्वान्ताङ्कन गोङ्कनम् प्रतिपक्ष-क्षितिनाय-हृत्-सरसिजोद्यातङ्कनं गोङ्कनम् क्षितियोऴ् रञ्जिप तेरिदाळदेवी निश्शकन गोङ्कनम् ॥ १ 'म' अक्षर छन्दपूर्तिके लिये है, वैसे इसकी कोई जरूरत नहीं है । २ यह दूसरा 'प' गलत है । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेर्दाळका लेख ४३१ अन्तेनिसिद गोङ्कमहीकान्त श्री-माधणन्दि-सिद्धान्तिकरं भ्रान्तेन्तो कोल्लगिरदिं [दं] तरिसि समस्त-भव्यरभिवणिपिनम् ।। तदाचार्य्यप्रभाववेन्तेन्दडे ॥ धरे दुग्धाब्धियिनब्धि चन्द्रनिनिनं तेजोग्नियिन्देन्त [म]न्तिरली पोस्तक-गच्छ-देसिग-गण श्री-कोण्डकुन्दान्वयम् निरुतं श्री-कुळचन्द्रदेव-यतिपोद्यच्छिष्यरिं सद्गुणा कर-राद्धान्तिक-माघणन्दि-मुनियिं कण्गोपुगु धात्रियोळ् ॥ क॥ अगणित-गुण-जळधिगळेने नगधैर्य्याघणन्दि-सैद्धान्तिकरावगमेसेवर्सन्-मतियिं जगदोळ् सामन्त-निम्बदेवन गुरुगळ् ॥ वृ॥ सन्ततवन्य-चिन्तेगळनोक्कु जिनात्यविनिर्गतागमार्थान्तरचिन्तेयोळ् नेरेटु निल्लदे सिद्धर सद्गुणगळ चिन्तिसुतिर्प कोल्लगिरदग्गद सन्मुनि माघणन्दिसैद्धान्तिक-चक्रवर्ति जित-मन्मथ-चक्रियेनिप्पनुर्वियोळ् । वृ ॥ अन्तरिसिई जैन-समयकोगेदं जिननीगळोवनेम्वन्ते जिनवतङ्गळनगेषजनक्कुपदेशमित्तु सामन्तनेनिप्प निम्बनेरगल् नेगळ्दोप्पुव माघणन्दि सैद्धान्तिक-चक्रवर्ति जिन-धर्म-सुधाब्धि-सुधाशुवागने ॥ अवरअशिष्यरु ॥ __ क॥ वादि-विषोरग-तार्य-कादि-महा-गहन-दावदहन (ब) लव-वादीभसिंहरेसेदर्मेदिनीयोळ् कनकणदिपण्डित-देवर ॥ तत्परवादीभ-पञ्चाननर स-धर्मर ॥ श्रुतकीर्ति विद्य-न (ब )तिपर्षट्-तर्ककर्कगर पर-वादि-प्रतिभा-प्रदीप-प्रवन जिंतदोषर् नगळ्दरखिळभुवनान्तरदोळ् ॥ तत्परवादि-शिखरि-शिखर-निर्भेदनोचण्डपवि-दण्डर सधर्मर ।। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जैन-शिलालेख-संग्रह वृ ॥ जित-कुसुमायुधास्त्ररननिन्दितजनमतप्रसिद्धसाधितहितशास्त्ररं विदन्तिोन्मद-मान-विमोह-लोभ-भूभृत्-कुळिशास्त्ररं पदपिनि पोगगुं धरे चंद्रकीर्ति-पण्डितरनतळ-तार्किक-चतुर्मुखरं परवादिशूलरन् । तत्परवादिमस्तकशूलर सधर्मर ॥ वृ ॥ धृति भूभृत्पतिय गभीरवमृताम्भोराशियं साले सन्मति वाचस्पतिय पळचलेविनम्मेवेत्त सन्मार्ग-सन्ततियिन्द नेगळिई देशिग-गणाधीश-प्रभाचन्द्रपण्डितदेवोज्वळकीर्तिमूर्ति वडेदाट वर्तिकुं धात्रियोळ् ॥ तन्मुनीश्वरर सधर्मर् ॥ परवादिप्रकर-प्रताप-महिमृत्-प्रायोग्र-वर्गुणाभरणर श्रीवसुधैकवान्यवजिनेन्द्राधीश्वरोत्तुङ्गमदिरदाचार्य नगेन्द्र रुद्र-निभ-धैर्यवर्द्धमान-व्रती श्वररिन्ती धरेयोळ् नेगळ्ते-वडेद त्रैविद्य-विद्याधरर ॥ यिन्तु नेगळ्तेग पोगन्तेगमधीश्वरराद वर्धमान विद्यदेवरज्जगुरुगळप्प श्री-माघणन्दि-सैद्धान्तिक देवरदिव्यश्रीपादपद्मगळम् ॥ खस्ति समस्तभुवनाश्रयं श्रीपृथ्वीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वरं परमभट्टारक सत्याश्रयकुळतिळकं चालुक्याभरणं श्रीमद्-विक्रम-चक्रवर्तित्रिभुवनमल्लदेवर विजयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारम्बरम् कल्याणपुरद नेलेवीडिनोळ सुख-संकथा-विनोददि राज्य गेय्युत्तमिरे तत्पादपद्मोवजीवि ॥ स्वस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वरं लत्तनूरपुरवराधीश्वरं त्रिवलि-परेघोषण रट्टकुलभूपण सुवर्ण-गरुडध्वज सिन्धूर-लाञ्छनं विवेक-विरिश्चनं गण्डमण्डलिक-गण्डस्थळ प्रहारि देसकारर-देव मूरु-रायरा-स्थान कलि-बिरुदर-गण्ड नुडिदन्ते-गण्ड साहसोत्तुग सेननसिंह नामादिसमस्तप्रशस्तिसहित श्रीमन्महामण्डलेश्वरं Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेलका लेख कार्तवीर्य-देवरसरु सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेय्युत्तमिरल् तदाज्ञेयिम् ॥ खस्ति समस्तप्रशस्तिसहितं श्रीमन्मण्डलिकं परवळसाधक जीमूतवाहनान्वयप्रसूत शौर्य-रघुजात समर-जयोत्यु(त्तु)ङ्ग रणरङ्गसिङ्ग मयूर-पिच्छ-चश्चद्-ध्वज रूप-मकरध्वज- पद्मावतीदेवीलब्धवरप्रसाद जिनधर्म-केलि-विनोद भावनं-ककार मण्डलिक-केदार नामादिसमस्तप्रशस्तिसहित श्रीमत् गोति-देवरसर निज-राजधानियप्प तेरिदाळद मध्यप्रदेशदोळ् गोङ्क-जिनालयम निम्मिसि श्री-नेमि-जिननाथ-प्रतिष्ठेय राष्टकूटान्वय-शिरः-शिखामणि कार्तवीर्य-महामण्डलेश्वरं मुख्यवागि सद्भक्तियिं शुभदिनमुहूर्त्तदोळ् माडि तजिनमुनि-प्रधानरप्प देसिग-गण-पोस्तकगच्छद श्रीकोण्डकुन्दाचार्यान्वयद कोल्लापुरद श्री-रूपनारायणन वसदियाचार्यरु मण्डलाचार्यरु मेनिप्प श्रीमाधणन्दि-सैद्धान्तिक देवर वरिसि शक-वर्ष १०४५ नेय शुभकृत्-सवत्सरद वैशाखद पुण्णमि बृहस्पतिवारदल् गोङ्क-जिनालयके पन्निवर्गावुण्डगळुम समस्तपरीवारप्रजेगळुम आ स्थळद सेटि-गुत्त-मुख्य-समस्त-नकरङ्गळुम वरिसि नेमि-तीत्येश्वरन बसदिय ऋपियराहारदानक देवरष्टविधार्चनेग खण्डस्फुटितजीर्णोद्धारक पेस गोण्डु तन्मुनीश्वर दिव्य-श्री-पाद-पद्मगळं दिव्य-तीर्थ-जळङ्गळिं तोळेदु शातकुम्भ-कुम्भ-सभृत-जळङ्गळिं धारापूर्वकं माडि-तेरिदाळद पश्चिम-भागदोळ् हारुनगेरिय बट्टेयिं वडगल् यिप्पत्तनाल्गेण-कोलल् कोट्ट मत्तरेप्पत्तेरडु देवियण-बावियिं तेङ्कला कोलल् को तोण्ट मत्तरोन्दु अन्तु मत्तर ७२ तोण्ट मत्तर १ अल्लिय पनिवर्गावुण्डगळुमरुवत्तोकळु हन्नि-धान्यक्क रासिगोळगे व विटर अल्लिय सेट्टिगुत्त-मुख्य-नगरङ्गछ् तावु मार-कोण्ड भण्ड माणिकपट्ट-सूत्रवादड होगे वीस लाभायद अडके होगे हन्नोन्दु तावु तेगेद शि० २८ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जैन-शिलालेख संग्रह येलेय हेरिंग अग()द (न्तर वत्तिगरु नेगेट हेरिङ्ग नरेलेयिन्तिनितुव विट्टर तेल्लिगर मान्य-सान्यवेनटे देवर संजे-सोडरिंगं धूपारितेग गाणक्के सोल्लगे होरगणिं बन्द एण्णेय कोडक्के सोल्लगे यिन्तब विट्टर गण-कुम्भाररु देवर अष्टविधार्थने आहारदान नहवन्तागि दानशालेगे आवगेगळन बिट्टर हलसिगे-हनिसिरद हेबट्टेयल् नडेब गात्रिगर देवरिगे अष्टविधार्चने नडबन्तागि हेरिने नूरु बोक्छेलेयं विट्टर ॥ [IA, XIV, P_14-26 (lines 1-56), t tr] २८१-८२-८३ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कन्नड़ [शक १०४५=११२३ ई.] (०शि० सं० प्र० मा०) २८४ होसहोळलु-संस्कृत और कन्नड [विना कालनिर्देशका, पर संभवत. लगभग ११२५ ई० का] [होसहोळलु (कृष्णराजपेट परगना )में, पार्श्वनाथ वस्तिके दक्षिणकी ओरके पाषाणपर] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छन । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ।। भद्रमस्तु जिनशासनाय । खस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द-महामण्डलेश्वर-द्वारावतीपुरवराधीश्वर-यादवकुलाम्बरद्युमणिसम्यक्त्वचूडामणि मलेपरोळु गण्डायनेकनामालङ्कत........ त्रिभुवनमल्ल तळकाडुगोण्ड मुजबळ वीरगङ्ग होयसळ-देव पृथिवि-यराज्यं उत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारम्बरं सल्लुत्तमिरे गङ्गवाडि-तोम्भत्तरूं-सासिरमनेकच्छत्रच्छायदि पृथ्वी राज्यं गेयुत्तिरल्ल तत्पादपद्मोपजीवि । स्वस्ति समस्त Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... ...... होसहोळलुका लेख ४३५ भुवनविख्यात पञ्चस(श)तवीरशासनलब्धानेकगुणगणालङ्कृत सत्यसौ(शौ)चाचा [२] चारुचारित्र वीर-वळजधर्म-प्रतिपालन विसु(शुद्धगुटु-ध्वज-विराजिताम्बरं साहसोत्तुङ्ग चलदङ्कराम साहसभीमं दीनानाथबुधजन-कल्पवृक्षनुमप्प चवुण्डादि-द्वितीय-नामधेय-दोरसमुद्रपट्टण-खामि पोयसळ-सेट्टियराद नो [क] वि सेट्टि श्री शुभचन्द-सिद्धान्तदेवर गुड्डन् आप्रभुविन मनोनयन-वल्लमे जिन-गन्धोदक-पवित्रीकृतोत्तमाङ्गेयु आहाराभय-भैषज्य-शास्त्र-दान विनोदेयरुमप्प देमिकब्बेसेट्टियु मेदिनीदेवरु । वृत्त । मरु निरतमरेंगे वदन-तेजमनोत्ति............। स्तरमन ........................ .......... ............................ .... ...। .........."नोळवि-सेट्टिय ॥ कन्द ॥......."देमाम्बिकेय । उत्तमनेने सकळ जनम् । ....... ..... • ............ ..........."न॥ आप्त-चऊण्डादि-नामधेय ....."देमिकब्बेयु त्रिकूट जिनालयमं माडिसि श्रीमूलसङ्घद देसिग-गणद पोस्तक-गच्छद श्रीकोण्डकुन्दान्वयद श्री-कुक्कुटासन-मलधारिदेवर शिष्यरप्प तम्न गुरुगळु श्री-शुभचन्द्रसिद्धान्तदेव कोट्ट वसदिगे अर्हनहल्लियुमं बसदिय बडगलु तेलु नट्ट कल्लू मेरेयागि मूड करें-वरं परिदे केरियुमं मरे नडुवण-दान-सालेय मनेयुमं एरडुगाणमु एरडु तोण्टमुंवेट्ट-नायक न] मग गण्डनारायण सेट्टि कत्तरि घट्टद भूमियोळगे कणिय-समीपद कडवद कोळद केरे एरडुमै आ-केरेय् मूडण-कोडियिं परिद पळूदिं तेङ्कल-पडुवलाद गर्दै बेदलेयुमं बिट्टनन्तिनितुम ''"शुभचन्द्र-सिद्धान्त-देवर्गे धारा Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह पूर्वक माडि सर्वनमस्यबागि नोळवि-सेट्टियरु कोट्ट"श्री-मूलसंघद पुस्तक-गच्छदवगैल्लरु साम्यमिल्ल इन्त् ई-धर्मव (हमेशाकी वरह मन्तिम शब्दावली और श्लोक) [जिनशासनकी प्रशसा । जिस समय वीरगम होय्सल-देव इस पृथ्वीपर राज्य कर रहे थे उस समय उनके पादपमोपजीवी, शुभचन्द्र-सिद्धान्तदेवके गृहस्थ शिष्य नोळवि-सेहि नामके पोय्सल-सेष्टि थे। देमिकन्ने सेहिने त्रिकूट-जिनालय बनवार इसके सके लिये दानमें मनहलि गाँव दिया; इसीके साथ एक उत्तम तालाय, जिसके बीचमें दानशाला थी ऐसी एक गली या सडक, दो तेलकी चमियाँ और दो बगीचे भी दिये। यह जिनालय उन्होने मूलसंघ, देसिंग-गण, पोस्तकगच्छ और कोण्डकुन्दान्वय कुक्कुटासन मलधारिदेवके शिष्य और अपने गुरु शुभचन्द्रसिद्धान्त देवको समर्पित कर दिया । वेट्ट नायकके पुत्र गण्ड-नारायण-सेहिने निर्दिष्ट दूसरी जमीन दी । यह सब दान नोळवि-सेटिने शुभचन्द्र-सिद्धान्तदेव के स्वाधीन कर दिया। और मूलसंघके पोस्तक-गच्छका जो कुछ था, उस समीको चुगी और करसे मुक्त कर दिया। (EC, IV, Krishnurajapet t), no3] २८५ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कन्नड [शक १०४५८११२३ ई०] (जै०शि० सं०, प्र. भा०) हिरे-आवलि-कन्नड [विक्रमचालुक्यका ४९ वॉ वर्ष ?=११२४ ई०] [हिरे-आवलिमें, रामलिङ्ग मन्दिरके सामने पड़े हुए पत्थरपर ] स्वस्ति श्रीमतु विक्रम-चर्पद ४ [ ] नेय साधारण ]-संवत्सरद माघ-शुद्ध ५ वृ०-चारदन्दु श्रीमन्मूल-संघद सेन-गणद Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावनूरका लेख योगरि गच्छद चन्द्रप्रभ- सिद्धान्त-देव- शिष्यरम्प माधवसेनभट्टा रक-देचरु मनदिं जिनन पदङ्गळोळ् । अनुनयदिं निरिति पञ्च-पदमं नेनेयुत्त अनुपम-समाधि-विधियिम् । मुनि माघ............पडेदम् ॥ [ स्वस्ति । ( उक्त मितिको ), मूल- संघ, सेन गण और पोगरिगच्छके चन्द्रप्रभ-सिद्धान्त देवके शिष्य माधवसेन भहारक देव जिन चरणोंका मनन करके, पञ्च परमेष्ठिका स्मरग करके, समाधि-मरण धारण करके स्वर्गको गये।] 1 [ EC, VIII, Sorab tl, n° 127 ] २८७ चल (ल्य ) - कन्नड़ [ शक १०४७=११२५ ई० ] (जै० शि० सं०, प्र० भा० ) २८८ सावनूर-कन्नड [ वर्ष प्लवङ्ग ११२८ ई० ( लू. राइस) । ] ટ [. साबनूरुमें, मारि-कट्टे के दक्षिणसें पड़े हुए एक पापाणपर भद्रं भूयाज्जिनेन्द्राणा शासनायाधनाशिने । कुती -वात संघात - प्रभिन्न-धन- भानवे ॥ श्रीमत्-परम गम्भीर-स्याद्वादामोघलाञ्चनम्। जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिन - शासनम् ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ जैन- शिलालेख संग्रह स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री - पृथ्वी लम-महाराजाधिराज परमेश्वरपरमभट्टारक सत्याश्रय-कुळ-तिळक चाळुक्याभरण श्रीमत्-त्रिभुवनमलपेमडि- देवर विजय राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धि-प्रवर्द्धमानमा चन्द्रार्क- ना रम्बरं सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि || वृत्त | वनधि-व्याप्तावनी - चक्रदोळति-सुभट विक्रमायत्त चित्तम् । मुनिसिं माराम्पनात्र त्रिपुर - विजयिगं शूद्रक सुपर्णी- 1 तनयङ्ग फल्गुणङ्ग दशरथ-तनुजङ्ग सहस्रार्जुनङ्गम् । दनुजप्रध्वंसिग कौरव नृप-रिपुग पाण्ड्य-भूपाळकङ्गम् ॥ भरब्न्दिङ्ग-कलिङ्ग-वङ्ग-मगधं नेपाळ - पाञ्चाळ - गुरु- । जर-गौळ-द्रविळान्ध्र-माळव-तुरुष्का' सौराष्ट्र-वर- । .........मरोत् । व्वर-काश्मीर करम वेकोळुब भयङ्क......ण पाण्ड्य भूपाळकम् ॥ स्वस्ति समधिगत-पश्च-महा-शब्द महामण्डलेश्वरं काञ्ची -पुर-बराधीश्वरं यदुवशाम्वरमणि सु-भट-चूडामणि निज-कुळ-कमळ-मार्त्तण्डं परिच्छेदि-गण्ड राजिग-चोळ-मनो-भङ्ग श्रीमत् - त्रिभुवनमल्ल-देव-पादाब्जमृङ्गं नामादि- प्रशस्ति सहित भुवन दक्षिण-भुजा दण्डनेनिसि ॥ " वृत्त | सततं धमि धर्मजं ******** 1800 'ळा- 1 ..... सत्य-सङ्- । न्वितने हुँ कमलोद्भव पर हित व्यापार भू-तळ - स्तुत - विद्याधर....... गतने भास्कर-सूनु विक्र''''नं श्री सूर्य - दण्डाधिपम् ॥ प्रभु मनोत्साह-शक्ति-त्रय गुण भरितं मान-सन्मान दान- । ......नाराधकं नित्य-लक्ष्मी । 100111140* 10. 1980 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभुः शौचाचार - सार ..... सावनूरका लेख -- Gad -------.-.......... ******* ....अनवरत - विनुत- सुर-नर घटित-पद-कमल-युगल श्रीमदीश्वर.... पादाराधकं विरोधि-निकुरुम्गण्ड पाण्ड्य-मण्डलिकसभामण्डन प्रचण्ड- दण्डनाथ' • विराजमान सतत - स... नाभिमान" ..... मंत्रोत्साह-शक्ति-त्रय-गुण-गणं....त नियोगयोगन्धर निखिल-धर्मधारण' 'पाळ-मस्तक- खण्डन-प्रचण्ड-दोर- दण्ड पाण्ड्य - मण्डळिकदक्षिण ....... पर्व्वतारूढ नि • . 'वळ-विळ सत्-पाण्ड्य 'सूर्य- दण्डाधिनाथम् ॥ ... वृ ॥ दोरे मरु देवी" ऊढ़-प्रौढ़-नितम्बिनी-निकुरुम्बदिव्य.... श्रीमत् - त्रिभुवनमल्ल परिच्छेदि-गण्ड पाण्ड्य-मण्डलिक ........ शरणागतवज्र-पञ्जर । मृदु-मधुरदार- हित सतत दण्डनाथ कुळ-कमलिनी-विकासन सहस्रकिरण । वन्दि - जन-भरण.... ....त्रि सूर्य- दण्डाधिनाथम् ॥ • ***** कं ॥ आळापदिन्दे पाड्य-नृ- । पाळरगद विरोधि नृप .....सि पद - नतरं प्रति । पाळिसिद सु-भट...... दण्डाधीशम् ॥ ............ जिन-स्तवन'''सम्पू पवित्रोत्तमाङ्गदरदिं मुक्त ''चिनुरुतर-वज्र''''करतळ-रुचियिन्दोप्पुत· · · नत्र्थदिं भाखर-कान्ता - रत्नमे 11 कं ॥ मण्डळिय ....दडे ......केषेयेलु.......डगलेनरे ******* ... ४३९ ............ताम् । सरि नुत- लक्ष्मि तत् - सदृशमा- प्रियकारिणि देवियेन्दोडी - ** 1000 ******* 11 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जैन-शिलालेख संग्रह धरेय... ......"काळियकनोळ्। वर-गुण-बार्खियोळ् मुनि-जन-प्रिय दान-विनोद-चित्तेयोळ् ॥ पडेदयं कलरिं दायिगरिमळिपरिंभूपरि किञ्चिनिन्दम् । किडुगं तानन्तदेम् शाश्वतमेनि""शाश्वतं मनेन्दा-। गडे पूण्डि पूर्ण-चन्द्रानने जिनपति-सद्-गोहम सेम्वनूरोळ् । कडु-रय्य तानेनल् माडिसिदळधिक-सद्-भक्तियिं काळियकम् ॥ खस्ति समस्तवस्तुविस्तार-गोचर ......"जगान-जिनेश्वर-चरण-सरसिरहमधुकरोपमान-कुटिल-कुन्तळ-कळापे मृदु-मिधुर-सतत-सत्य-बचनालापे । शृङ्गार विरचित"...."जन्मभूत......."मान-सूर्य-दण्डाधिनायविशाल-वक्षस्-स्थळस्थित-लक्ष्मी.."ने सम्मान-दाने तार-हार-हरहासा"शशि-विशद-कीर्तिविराजित-प्रबर्द्धमान-गुणवति पद्मावती-देवीलब्ध-वर-प्रसादे जिन-पूजा-विनोदे धवळ-विशाळ-कुमुद-नेत्रे गोत्र-पवित्रे निश्शंकादि-गुण-मणि-गण-विराजिते सम्यक्त्व-रत्नाकरे पश्चाणुव्रत-गुणाकरे सकळ-विनेय-जन-चिन्तामणि वनिता-निकर-चूडामणि नामादि-प्रशस्तिसहितेयप्प श्री-सूर्य दण्डनायकन पिरिय-दण्डनायकित्ति काळियकम् ।। वृ ॥ जिन-धर्म प्राणि.."म्म तनगदु कुल-धर्म जिन-स्वामि देवम् । जनकं मिकास्तवम्म जननि तनगे जक्कन्चे भव्यर्कळेन्दुम् । तनगाप्तर तन्न त""गुणि कलि-देव लसत्- शौर्य-धैर्य । तनगी सूर्य-दण्डाधिपनेने तळेद कीतियं काळियकम् ।। सूर्य-चसूपन तम्मम् । धैर्य-महा-मेरु वैरि-जन-लय "वत्। चौर्य स्वामि-प्रिय-कर कार्य दण्डाधिनाथनादित्याख्यम् ।। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावनूरका लेख . खस्ति समधिगत-पश्च-महा-शब्द महा-सामन्ताधिपति महाप्रचण्डदण्डनायक चालुक्य-विक्रमादित्य-देव-सभानग्र्य-वस्तुनायक प्रमुमत्रोत्साह-शक्ति-गुण-मणि-गणालङ्कत-शरीर । भय-लोभ...""त्रिभुवनमल्ल-पेोडि-देवदक्षिण-भुजा-दण्ड रिपु काळ-दण्ड । प्रसिद्ध-सेनवरदण्डनाथ-प्रिय-पुत्र चार-चरित्र । सतत-धार्मिक-धर्मनन्दन । खामि. प्रिय-मरुन्नन्दन । हर-चरण-कमल""सळ-सततानत-मधुकर । सकळगुणाकर । समग्र-वैरि-कुळ-कुधर-कुळिश-दण्ड । समर-प्रचण्ड । दुर्द्धरदुर्विनीत-दण्डनाथ-वश-वन-कुठार । सभाम-धीर""आयदा-चार्य मन्दर-धैर्य आन्ध्री नीरन्ध्र-कुचकळश-दर्पण वन्दि-सन्तर्पण कुन्तळीकुन्तळ-सुवर्ण-कुसुमाभरण अनिन्दिताचरण पुरुषार्थ-वा-कृत-जीमूतवाहन मान-विळसद्धन सतत-दान-सन्तर्षित-दीनानाथ-यूय नामादिप्रशस्ति-सहितं श्रीमदादित्य-दण्डाधिनाथम् ॥ प्रभु-मन्त्रोत्साह-शक्ति-त्रय-गुण-गणदोळ् सन्ततैश्चर्य्यदोळ् सू-। क्त-भवोद्यद्-भक्तियोळ् सद्-विनय-नय-सदाचारदोळ् चित्तभूसन्। निभ-भद्राकारदोळ् तद्-वितरण-गुणदोळ् धार्मिक-खान्तदोळ् सत्प्रभवछिन्नरारेम्विनमेसेढपनादित्य-दण्डाधिनाथम् ।। श्रीमद्-द्रविळ-संघेऽस्मिन् नन्दि-संवेऽस्त्यरुङ्गळः । . अन्वयो भाति योऽशेप-शास्त्र-वारासि-पारगैः॥ अवटु-तटमटति झटिति स्फुट-पटु-वाचाट-धूर्जटेरपि जिह्वा । - वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तव सदसि भूप कास्थान्येपाम् ।। इन्तेनिसिद समन्तभद्रस्वामिगळ सन्तानदोळु.॥ एकत्र गुणिनस्सवें वादिराज त्वमेकतः । तस्यैव गौरवं तस्य तुळायामुन्नतिः कथम् ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ अवर शिष्यरु || जैन - शिलालेख संग्रह इन्दोश्च कान्तमति- विस्तृतमम्वराच भूमेश्च भूरि जळवेश्च गभीरमास्ते । मेरोश्च तुङ्गमजितेश यास्तवोर्व्याम् मत्तेभ - विम्वमित्र मानव - तारकेऽद्य ॥ - इन्तेनिसिदजितसेन - भट्टारकरप्र-शिष्यरु || घन वद्ध-क्रोध-धात्रीघर कुळ-कुळिशं मान-माद्यद्-गजाल्फान-भद्रेभरि माया - गहन दहन - दावानळं संस्फुरल्लो- । भ-नितान्त-ध्वान्त-विध्वसन -खर - किरण श्राव्य-काव्य-प्रियं भव्य-निकायाम्मोधि-संबर्द्धन-हिमकरणं मल्लिपेण-व्रतीन्द्रम् ॥ एने गळ्द मलिपेण-मलधारि - देवर शिष्यरु || आळापं वेड नैय्यायिक निज-मतम नच्चदिर् स्साख्य माणू वा । चाळलं सल्ल मीमासक तोडरदेले बौद्ध पो पोगु वादि - । व्याळेभोत्तुग-कुम्भ-स्थळ विदळन - कण्ठीरव वन्दपं श्री - 1 पाळ-त्रैविद्य-देवं जिन-समय-सुधाम्भोधि-सम्पूर्णचन्द्रम् ॥ खस्ति श्रीमच्चाळुक्य-विक्रम - कालद ५३ य कीलक-संवत्सरदुत्तरायण-संक्रमणदन्दु श्रीमत् - सेम्यनूर स्तानाचार्य शान्तिशयनपण्डितर कम्यलु श्रीमत्-पिरिय-दण्डनाय किति काळिकवेगळु धारापूर्व्वक माडिसि कोण्डु पार्श्व-देवर कूटक्कं देवर वि... पूजारिय वियक्क हलकट्टद केळगे बिट्ट गद्दे कम्म ४५० आ-केरेय हडुवण - कोडियोळगे वेब्दले मत्त १ इन्ती-धर्म्ममना रोर्व्वरचिय स्थानाचार्यरु देवगुत्तरं.... निर्व्वरु वेस-वक्ककुं तप्पदे प्रतिपालिसुवरु मत्त स्थानिकेरेय केळगण Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावनूरका लेख ग¥यु अदर वळसि वेदलेयुम्.........."मं प्रतिपा (शेष पदे जानेके योग्य नहीं है)। [EO, XI, Davangere tl , n° 90] [जिनशासनकी प्रशंसा । स्वस्ति । जब, (उन्हीं चालुक्य उपाधियों सहित), त्रिभुवनमल्ल-पेमाडि-देवका विजयी राज्य प्रवर्द्धमान था तब तत्पादपद्मोपजीवी राजा पाण्ड्य था । पृथ्वीपर उसका सामना करनेवाला कोई भी न था । उसने शिव (त्रिपुर), शूद्रक, गरुड, अर्जुन (फाल्गुन), राम, सहस्रार्जुन, कृष्ण, भीम, इन सबको जीता था। उसका दण्डाधिप सूर्य यादव-वंशका सूर्य और राजिग-चोळके प्रयतोंका विफल करनेवाला था। उसकी पत्नी कालियके थी। जो धन चोरों, सगेसम्बन्धियो, लोभियो, राजाओं, या अग्निसे नष्ट किया जा सकता है, उसकी प्राप्तिमें क्या स्थिरता है, इसलिए उसने उसकी स्थिरताके लिये सेम्बनूरमे जिनपतिका एक उत्तम मन्दिर बनवाया। उसकी प्रशंसा । कालियकेके पिता माप्तवर्मा, माँ जकम्वे,....""कलि-देव थे। सूर्य-चमूपका छोटा भाई भादित्य-दण्डाधिनाथ था। उसकी प्रशंसा । द्रविण-संघके नन्दि-संघमे अरुङ्गलान्यय चमकता है। उसमें समन्तभद्र, वादिराज, उनके शिष्य भजितेश (मजितसेन-भट्टारक) उनके ज्येष्ठ शिष्य मल्लिपेण-मलधारी, उनके शिष्य श्रीपाल विद्य-देव हुए। प्रत्येकका एकएक श्लोक्में गुणवर्णन। (उक्त मितिको), सेम्बनूरके मन्दिर-पुरोहित शान्तीशयन-पण्डितके हाथोमे, ज्येष्ठ दण्डनायकिति कालियकन्वेने जलधारापूर्वक पार्श्वदेव और उनकी पूजा तथा पुजारीकी आजीविकाके लिये (उक्त) भूमिदान किया । कल्याणकामना और शाप] २८९-९ श्रवणबेलगोला-संस्कृत तथा कंझड [शक ३०५०=११२९ ई० (कीलहॉर्न)] (जै०शि० सं०, प्र० भा० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह २९१ " ऊद्रि-कन्नड [विक्रम वर्ष कीलक ११२९ ई० (लु. राइस)।] [अनिमें चौथे पापाणपर ] स्वस्ति श्रीमद्-विक्रम वर्पद कीलक संवत्सरद माग (घ)-शुद्ध १३ श्रीमन्महामण्डलेश्वरं एक लरस-देवरुद्धरेयोळ सुख-सकया-विनोददि राज्यं गेय्युत्तिरे ॥ परम-जिनेश्वर तनगीश्वरनुलसच्चरित्र"। गुरु हरिण[न्दि]देव-मुनिपोत्तमनग्गढ दण्डनायकम् । वर-गुणि-बोप्पणं जनकनुन्नत-शीलद नागियक मातरेयेनलेम् कृतार्थनो धरित्रिगे सिंगण-दण्डनायकम् ।। * गुणद कणि जैन-चूडा'मणिं वैरि-बलक्के समर-मुखढोळ् सुभटा, अणि जिन-पदङ्गळ सिङ् गण-दण्डाधिपति नेनेदुः सद्-गति-वेत्तम् ।। स्वन्ति । (उक्त मितिको), जिस समय महा-मण्डलेश्वर एक्लरस-देव, शान्ति और बुद्धिमत्तासे राज्य करते हुए उद्धरेमें विराजमान थे उस समय सिंगण दण्डनायक था। वह बडा भाग्यशाली था, क्योकि उसके परम-जिनेश्वर अधीश्वर (इष्ट देव) थे, हरिनन्दि-देव-मुनि उसके गुरु, महान् दण्डनायक बोप्पण उसके पिता, और नागियच उसकी माता थी। यह दण्डनायक अपने समयका जैन-चूडामणि था, समरमे सामना करनेवाले सुभटोंमे अग्रणी था,-जिनपदोंका ध्यान करते हुए उसको सद्गति मिली थी।] . [EC, VIII, Sorab ti, n° 149] Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूनशीकट्टिका लेख २१२ हूनशी कट्टि (जिला बेलगाँव ) - कन्नड़ [ शक १०५२=११३० ई० (प्लीट ) ] [१] खस्ति श्रीमद्-भूलोकमल्लदेवर वर्ष ६ नेय सावा (धा) रण संव - [ २ ] सरद फाल्गुन शु ५ आदिवारढन्दु श्रीमन्महामं[ ३ ] डलेश्वरं मारसिंहदेवरसरु अग्रहारं कोडन-पूर्व्व[ ४ ] दवयि माणिक्यदेवर वसदिय सम्बन्धियेकसा[५] लेय- पार्श्वनाथदेवर विविधपूजाविधान के बिट्ट [ ६ ] गय सीमेय गुड्डे [ ॥ ] मङ्गलश्री [ ॥ ] શ [ मंगल हो । रविवार, साधारण 'संवत्सर' जो कि श्रीमान् भूलोकमलदेवका छठा साल था, फाल्गुन शुक्ला पञ्चमीको, – महामण्डलेश्वर मॉरसिंहदेव रसने कोडन पूर्वदवलि (गाँव) के माणिक्यदेव (देवता) की बसदि (मन्दिर) के एकसालेय-पार्श्वनाथदेव ( भगवन्त) की अनेकविध रीतियोंकी पूर्ति के लिये धान्य ( चावल ) के बहुतसे क्षेत्र दिये । ] [ इ० ए०, १०, पृ० १३१ - १३२, न० ९८ ] २९३ हन्तूरु — संस्कृत तथा कन्नड़ [ शक १०५२ = ११३० ई० ] [ हन्तूरु ( गोणी वीड परगना ) में, ध्वस्त जैन-वस्तिके पाषाणपर -] श्रीमत्परमगभीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ॥ १ भूलोकमलका दूसरा नाम सोमेश्वर तृतीय भी है । यह राजा पश्चिमी चालुक्य वशका है । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દ્ जैन - शिलालेख संग्रह जयति सकळविद्यादेवतारत्तपीठम् हृदयमनुपलेपं यस्य दीर्घ स देवः । जयति तदनु शास्त्रं तस्य यत् सव्य-मिय्या - । समय - तिमिर- घाति ज्योतिरेकं नराणाम् ॥ स्वस्ति समधिगत-पश्ञ्च-महा-शब्द महामण्डलेश्वरं द्वारावतीपुरवराधीश्वरं यदु-कुळ कळा-कनि-नृप-धर्म्म-हर्म्यमूळ-स्तम्भन् । अप्रतिहत-प्रताप-विदित-विजयारम्भ । शशकपुर- निवास - वासन्तिका -देवीलब्ध-वर प्रसाद । श्रीमन्मुकुन्द - पादारविन्द - चन्दन - विनोद नित्यादि-नामावळीसमन्त्रितरण श्रीमत्- त्रिभुवनमल्ल तळकाडु-गोण्ड भुजबळ वीर-गङ्गविष्णुवर्द्धन - होयसळ - देवरु मूडलु नंगलियघट्ट तेङ्कल कोड चेरमनमले हडुबलु बारकनूर घट्ट बडगल सावि मलेयिनोळगाढ भूमिय भुज-बळावष्टम्भदिं परिपाखित्तुं दोरसमुद्रद नेलेवीडिनोछु सुख-संकथा - विनोददिं राज्यं गेय्युत्तमिरे । वृत्तं ॥ प्रकटाटोपद चक्रगोदोडेयं सोमेश्वरं वल्के त- । न्न कराळासिय-कूपनेम्मेरदनो गौडान्धकार- प्रचरण्- । करं माळ मेघजाळ - पवनं चोळोग्रकाळानळम् । त्रि-कळिङ्ग- त्रिपुर- त्रिणेननदटं श्री विष्णु-भूपालकम् ॥ इन्तेनिसि नेगर्द श्री विष्णुवर्द्धन - अग्र-तनूज निज-वशाम्बर-थमणि । वन्दि-जन-चिन्तामणि । सत्य - शौचाचार - सम्पन्न | बुध - जन-मनःप्रसन्नन् । आळिम्मुन्निरिव सौर्यम मेरेव । श्रीमत् - त्रिभुवनमल्ल कुमारबल्लाळ-देवननवरत-मनोरथावाप्तियिं राज्य गेय्युत्तभिरे । क || कळके बयलुगेक्क तुळक्क् । एळेयो माराम्परिल्लदा - दिगधि-परम् । शेळदु नेलक्किक्कलु कौ- | बळिपुदु रिपु-नृप - कुमार - भैरवन मन ॥ - Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हन्तुरका लेख आवङ्गमात्र धनमुम- । नीव महा-दानि युद्ध - विजयमना-मा- | देवङ्गमयददटर | देवं बल्लाळ - देवनप्रतिम-बल ॥ अन्तेनिसि नेगर्द श्रीमत्कुमार बल्लाळ देवनग्रानुजे हरियब्बरसियेन्तप्पळेन्दडे सरस्वतियेन्ते सत्- कळान्विते । सीतेय ते विनीते । सुसीमा - देवियन्ते सुशीले रुग्मिणियन्ते गुणाग्रणि । अनल्प-कल्प-शाखानीकदतनून-दान-जनित-जन-मनः पुळकेयुं । भगवदर्हत्-परमेश्वर-चरण-नख-मयूख -लेखा-विळसित-ललाट-पळकेयुम् । चातुर्वर्ण--वणितागण्य-पुण्यजन-शिखा-मणियुम् । सम्यक्त्व - चूडामणियुमेनिसि । वृत्त ॥ धरेयोळनन्त- दिव्य-यति-सन्ततिगन्नमनाद-मीतियिम् । वरे पलरञ्जलेम्बभय-वाक्यमनातुररागि वेर्णव । इरदे शरीर-रक्षणमनोदल शास्त्रमनी पेम्पिनम् । हरियवे ताब्दिदळू पर-हितोक्त- चतुर्विध-दान-शक्तियम् ॥ पर-वळ-दानव-संहा- । रारुण जळ -लिप्त खर्गनुन्नततेजम् । वर - विबुध-विभव विभवं । हरि- कान्ता- कान्तनेसदपं विभुसिंग ॥ हरि-कान्तेयुमी - कान्ते । दोरेगे वरल कोरळेम्व निम्मदद गुणोत्करमनोळकोण्डु हरियवे । पर हितदिं धरेयोदे जसम तळेदऴ् || | अन्तेनिसि नेगर्द श्रीमतु-हरियल- देवियर गुरुगळे तप्परेन्दडे श्रीमूलसंघद कोण्डकुन्दान्त्रयद डेसिग - गणद पुस्तक - गच्छद श्री मांघगन्दि- सिद्धान्त - देवर शिष्यरु । वृ ॥ मोहान्धकार-रिपु-शाक्य- नवोत्पळारि‍ । चार्वाक-चन्द्र- किरण प्रतिनाश- हेतुस् । सदू -भव्य-वारिज- महोत्सव तेज- राजिर । उज्जृम्भितो जगति गण्डविमुक्त-भानुः ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઘટ जैन - शिलालेख संग्रह अन्तु जगद्विख्यातरम्प श्रीमत् गण्डविमुक्त सिद्धान्त - देवर गुड्डि हरियव्वरसियर कोडङ्गि - नाड मलेवडिय हन्तियूरलने क- रत्नखचित-रुचिर-मणि-कॅळा-कति कूट-कोटि-घटितमप्प उत्तुंगचैत्यालयमं माडिसि खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धरणक्क नित्य पूजेग ऋषियरज्जियकळाहारदानक्कं सित-परिह/रक्कः श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल होयसळ देवर कम्यळु -सर्वबाधा परिहारबागि गुत्तिय चिण्णन दीवर धम्मनन्तिर्व्वरदु हणविन मण्णुम विडिसिकोण्डु शक-वर्षद १०५२ नेय सौम्य-संवत्सर दुत्तरायण संक्रान्तियन्दु तम्म गुरुगळप्प गण्डविमुक्त-सिद्धान्तदेवर काल का धारा- पूर्व्वकं माडि कोहरु || ( हमेशा के अन्तिम श्लोक ) श्रीमन् - मल्लिनाथं विरुद लेखक-मदन- महेश्वरं वरेदम् । नागरादिनागरिक- द्रविळ - समुद्धरणनप्प माणिमोजन मग विरुदरूवारि-वेश्याभुजङ्ग बलकोजं कण्डरिसिदं मङ्गलम् ॥ [ जिनशासनकी प्रशंसा । ( अपने पदों सहित ) विष्णुवर्द्धन - होयसळ - देव अपने निवासस्थान दोरसमुद्रमे विराजमान थे । राजा विष्णुने चक्रगोटके स्वामी सोमेश्वर को अपनी तलवारकी धारसे दराया । वह गौड, मालव, चोळ, त्रिपुट, त्रि-कलिंग सबके लिये भयावह था । जब विष्णुवर्द्धनका ज्येष्ठ पुत्र श्रीमत् त्रिभुवनमल कुमार बल्लालदेव राज्य कर रहा था:( उसकी शूरवीरता और औदार्यकी प्रशंसा करते हुए उसकी स्तुति ) । कुमार वल्लाल देवकी वहिनोंमें सबसे बडी हरियव्बरसि थी । उसका वर्णन . - ( जैन रूपसे उसकी भक्तिका प्रदर्शन, उसकी प्रशसा ) । उसका पति सिंग था, ( उसकी प्रशंसा ) | उस हरियब्ब देवीके गुरु श्री-मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, देसिंग-गण तथा पुस्तक- गच्छके माधनन्दि- सिद्धान्तदेवके शिष्य गण्डविमुक्त-सिद्धान्तदेव थे; ( उनकी प्रशंसा ) जगद्विख्यात गण्डविमुक्त-सिद्धान्त देवकी गृहस्थ-शिष्या हरियव्वर सिने कोढगि नाइके मलेवडिके इन्तियूरमे, गोपुरों या शिखरोंसे - जिनमें रत्रोंसे Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्बदहल्लिका लेख जड़ित चोटियाँ यी-समन्वित एक विशाल चैत्यालय, तथा मन्दिरकी मरम्मत करने, पूजाका प्रबन्ध करने, ऋषि और वृन्द सियोको माहारदान देने, तथा शीतसे रक्षा करनेके लिये-त्रिभुवनमल्ल होरपल-देवके हाथोंसे तमाम चुगियों व करोसे मुक्त भूमि गुत्तिके चिन्न और बम्म मछुएसे ५ हमके किरायेसे लेकर (उक्त मितिको), अपने गुरु गण्डविमुक्त-सिद्धान्तदेवके पैरोंका प्रक्षालन करके उन्हें दी । (हमेशाके मन्तिम श्लोक) मल्लिनायने इसे लिसा और माणिमोजके पुत्र बलकोजने उत्कीर्ण किया। [EC, VI, Mudgere th, n° 22] २९४ कम्बदहल्लिकनड़-भम [विना काल-निर्देशका, पर सम्भवत लगभग ११३० ई०] [कम्बदहल्लिमे, जैन बस्तिके सामनेके पाषाणपर ] खस्ति यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यान-धारण-मौनानुष्ठान-जप-समाधिशील-गुण-सम्पन्नरप्प श्री-मूलसंघद कोण्डकुन्दान्वयद देशियगणद पुस्तकं गच्छद श्री-प्रभाचन्द्रसैद्धान्तिकर शिप्यितियरम्प ." ......"कय रुकमब्वे जक कन्तियर्गे तव "निसिधिय माडिसि ................"स्वर्गस्थर........... ... [(सर्वसाधुगुणसम्पन) प्रभाचन्द्र-सैद्धान्तिककी शिष्याएँ रुकमवे और जकन्वे-कान्तिररी स्मृतिमे 'स्मारक बनवाया।] . [EC, IV, Nagamangala tl, no 21] . तगदुरा-कन्नड़ [विना कालनिर्देशका] (जै०शि० म०, प्र० भा०) शि० २९ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० जैन-शिलालेख संग्रह २९६ श्रवणबेलगोला-कढ़ [विना कालनिर्देशका] (०शि० म०, प्र० भा०) २९७ आवल्वाडी-कन्नड-मग्न [शक सं० १०५३ (?)=११३१ ई.] [आवख्वाडी ( कोप्प तालुका)में, सीमाकी दीवालके पास] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासन जिनशासनम् ॥ खस्ति समधिगतपञ्चमहाशब्द महामण्डलेश्वरं द्वारावतीपुर-वराधीम्वरं दसकाष्ठनिवास वासन्तिका-देवि-लब्ध-वर-प्रसाद दशदिश"" तिलक कि....""कुन्दपादा "तमन्ट म""करन्द नन्द""""रपालमाथि ""क्यं अरि-भीमज रिपुः "जर".......""कु गण्डं विश्व-विद्याविचार""दला..............."मटि समस्त .................."गवाडि नोणम्बवाडि गोण्ड'""वीरगङ्गा विव....... यिसळ विष्णुवर्द्धन .........""दुष्टनिग्रहशिष्ट-प्र""सु.........दोळे.""के जबर"" ........... विष्णु"तारम्बरदोळु.. रण""ळु मल्लिनाथ ॥ आतन समस्तभुवनख्याति.................."गोत्र'""ळर सूत्र............ मारसमन्वितनिरु""गोत्र .............."चूडा"" ॥ तत्पा..." ....... परम-ज......धर्म · भीमं ॥ .."रशः....... माचिकेय धर्म............य बं.................. पाद"""""" .."न्द्व-जन"नरुळ.....""गरगं ।। ..............'यना""जात ." गेने पुण्य'"""ळिगळू श्री तरव'"...."प्राप्तरु सि""सायरागि तत् Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवल्वाडीका लेख स""न''''श्री मूलसंघ देशिय-गणद पुस्तक-गच्छद सिद्धान्तचक्रवर्ति दर्मण""तार-देवर सधर्मरप्प श्री. "द्र-सिद्धान्त-देवर शिध्या ।। राम.. जदि-पुर-गत धूत-कषायर् अतुल-रत्नत्रय-स"........ तदोळु श्रीमन्नयकीर्ति-भानुकीर्ति-मुनीन्द्रर् ॥ सतिय "कधोक्ष-वा ""हतिय् अदनोन्दु हृदयदळिप् सिगळ""त्येम्बुदे नयकीर्ति-तिनाथनोळ् अतनु"दावानळनोळु ॥ विनुत""रुडकादान्वित विमलवियत्-तिग्म-रुग्-मण्डलं व्रज..... मेनित् अनित् आतलरु""नकरं प्रस्फुरदर्प"डप्पन कोट्यज् ज""प्रहरणन् उपमानित-पुण्य""चा ..."णिकति पतिने विश्वविद्यानिदानम् ॥ अरित-बातमुमतिशान्ततेयु ....... र-करनुव वात-किरणनुमूर्ध्नि "दोळेसेवन्तिरेसगु श्रुत-सरसिजभानु-भा 'कीर्ति-व्रतियोळु ॥ आ-मुनि-मुख्यस्य यम "ड तन स गरुगळे... रेया"हियाद""ळ गुण-शीळ-व्रत-निधि मल्लिनाथनोल मनुज"""सि पोगर्ने नेगर्ते'""पेगडे मल्लिनाथ "सदियं माडिसि शक-वर्ष १३ नेय साधारण-संवत्सरद फाल्गुण बहुळ ३ सोमवारदन्दु कीर्तिभट्टार काल कर्चि'. पूजेगं खण्ड-स्फुटित-जी र्णोद्धारक देवर केय केळगण """यल हन्नेरडु सलिगे गद्देयु बसदि .."मह""रणज".................."लघट्टमु विडिसिद नामहरन प..."क्षदोळु तदनुजम् ॥ वस"वाग्-वि................... .............. ................"एणु-भूपर्ने वसु-ममनिरुतमाकेयन् अहरयन......"लिया....."श सिम........ ......"दिन पेम्पु ..."सि श्री-पुल्लिन बसदि""गनिद बहिः.........."गन् उद्ध"""""" ......"सत्-सर"तरसु...... समस्त-गुण..... ........."श्री चळुन विमळ".......""सबाहिर .... ........ .............. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ च........... ..................................................................... ****** जैन - शिलालेख संग्रह .......चक्रवर्त्तिगळ् एनिसि............... • पूजेयगळु ...... *T T ****** • हेगड' "हा.... सर्व्व.... ***** ............ 'तिरें यदा रा.............. ..... सादी... देन्दु " .....द माचण -[ जब कि ( अपनी विशाल पदवियोंके साथ ) विष्णुवर्द्धन इस जगत्पर राज्य कर रहे थे:-- मूलसंघ, देशियगण और पुस्तकगच्छके.....द्रसिद्धान्तदेव शिष्य मुनि नयकीर्त्ति और भानुकीर्त्तिके भक्त पेडे मल्लि नाथने जैन- बसदिका निर्माण किया और इसे धनसे पुष्ट किया । ] [EC, III, Mandya tl, n° 50] २९८ श्रवणबेलगोला - संस्कृत तथा कन्नड़ [ शक १०५३ = ११३१ ई०] 10008 (जै० शि० सं०, प्र० भा० ) २९९ पुरले - संस्कृत तथा कन्नड [ शक १०५४ वर्ष नन्दन = ११३२ ( ठीक १११२) ई०] [ पुरले ( बिदरे परगना ) में, गाँव के दक्षिण-पश्चिम वीर-सोमेश्वर मन्दिर के सामने पडे हुए एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादा मोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन - शासनम् ॥ वस्ति समस्त-भुवनाश्रयं श्री - पृथ्वी वल्लभं महाराजाधिराज परमश्वर परम भट्टारकं सत्यांश्रय कुळ-तिलकं चालुक्याभरणं श्री त्रिभुवनमल्लदेवर विजय - राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारम्वरं सलु - तमिरे । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरलेका लेख एनगेन्दा-विक्रमाकं गड निगळमनिकिटनो वोगे कीनाशनवोळेप्तन्दु काय्यि किळदे तलेयना-वीरनेम् माणवने-गेय्- । वेनेनुत्त मीतिय-पट्टदने कनसु-गण्डुम्मळं-गोण्डु चोद्यम् । ' ननसेन्देचट्टिरुत् तन्नेय तलेयनति-भ्रान्तनन्दिन्दु नोकुम् ॥ तत्पादपद्मोपजीवि ।। श्रीमदेरेयङ्ग होयसळनळियं हेम्माडियरसन कीर्ति-विशारदमेन्तेन्दडे । इबनिन्द कण्डेने-कडल कडेयनेलु कुमृत्-कूटम दिग्- 1 धव-दन्ति-बातम लोकद पवणनेनुत्तुं यशो-लक्ष्मि । ......."त तन्नोन्दरिविनळवु तन्नायु तन्नेळ्गे तन्न...। ...विळासं तन्न पेम्पट्टळगमेनिसिदं हेर्म मान्धात-भूपम् ।। स्वस्ति श्री-जन्म-गेहं निभृत-निरुपमौर्बानळोदाम-तेजम् । विस्तारोपात्त-भू-मण्डलममळ-यशश्चन्द्र-सम्भूति-धामम् । वस्तु-बातोद्भव-स्थानकमतिशय-सत्त्वावलम्ब गभीरम् । प्रस्तुत्य नित्यमम्भोनिधि-निभमेसेगु होयसळोवीश-वशम् ।। अदरोळ् कौस्तुभटोन्दनर्ध-गुणमं देवेभदुद्दाम-स-1 त्वदगुल्य हिमरश्मियुज्वळ-कळा-सम्पत्तियं पारिजा-1 तदुदारत्वद पेम्पनोचने नितान्त तान्टि तानल्ते पुट्न । टिदनु।जित-वीर-वैरि विनयादित्यावनीपालकम् ॥ . मदवद्धूप-बळान्धकार-हरण तेजोधिक सन्तता-1 . भ्युदयं संहृत-विद्विषत्-कुवळय-(य) श्रीकं सुहृचक्र । मद-सम्पादन-हेतु सत्पथगतं पद्मोद्भवोद्भावकम् । विदिताानुग-नामनल्ते विनयादित्यावनीपालकम् ॥ विनयादित्य-नृपं सज्जनगं दुर्जनार्गमात्म-विनयं तेजम् । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जा ४५४ जैन-शिलालेख संग्रह जनियिसे नयम भयमं । विनूतनान्दोम् विशाल-भूमण्डलमम् । आ-विनयादित्यन वधु । भावोद्भव-मन्त्र-देवता-सन्निमे सद्-। भाव-गुण-भवनमखिल-क-1ळा-विळसिते केळयवरसियेम्बळ् पेसरिं। आ-दम्पतिगे तनूभव-। नादोम् सचिगं सुराधिपतिगं मुन्नन्त । आद जयन्तनन्ते वि-1 पाद-विदूरान्तरंगनेरेयङ्ग-नृपम् ।। ॥ आतं चालुक्य-भूपालकन बलद-भुज-दण्डमुद्दण्ड-भूप-1 बात-प्रोत्तुग-भूभृदु-विदळन-कुळिश वन्दि-सश्यौघ-मेघम् । श्वेताम्भोजात-देव-द्विरदन-शरदभेन्दु-कुन्दावदात-। योत-प्रोद्यद्यशश्श्री-धवळित-भुवन धीरनेकाङ्ग-वीरम् ।। मालव-सेनेयं तुळिदु धारेयनोवदे सुटु तून्दि तच्- । चोळननीन्दु तत्-कटकम कड्डुपिन्नेरे सूरे-गोण्ड दोश्- 1 शाळि कलिङ्गनं मुरिदु' भङ्गिसिदात्म-भुज-प्रतापमम् । केळे दिशाधिपं नेगळ्दनी-तेरदिन् [] एरेयङ्ग भूभुजम् ॥ एरेयनखिलोविंगेनिसिदै । रेयग-नृपाळकनङ्गने चेल्विंग्-। एरेवडु शील-गुणदिं । नरेडेचल-देवियन्तु नोन्तरुमोळरे । एने नेगळदवरिवर्ग तनूभवर्नेगळ्दरल्ते वाळं वि-। ष्णु-नृपाळकनुदयादिना त्यनेम्ब पेसरिन्दमखिळ-वसुधा-तळदोळ् ।। वृ ॥ अवरोल् मध्यमनागियुं धरणिय पूर्वापराम्भोधियेय्- । दुविन कूडे निमिर्चुवोन्दु-निज-वाहा-विक्रम-क्रीडेयुद्-। भवदिन्दुत्तमनादनुत्तम-गुण-बातैक-धामं धरा-। धव-चूडामणि यादवाव्ज-दिनपं श्री-विष्णु-भूपाळकम् ॥ एळेगेसेव कोयतूर त्तत्त्-। अळवनपुरमन्ते रायरायपुरं वळ् । पळ वलद विष्णु-तेजो- । ज्वळनदेवेन्दबु बलिष्ट-रिपु-दुर्गङ्गम् ।। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरलेका लेख कमलाक्ष पुरुषोत्तम 'काइलादनं द्विष्ट-दैन । त्य-मद-ध्वसननन्त-भोग-युतनुज़-भार-धौरेयनुत्- । तम-सत्वान्वितनुद्घ-यादव-कुळाळकारनेन्दिन्तु वि- । ष्णु-महीशं सले ताने विष्णुवेनिय लक्ष्मी-वधू-वल्लभम् ।। क॥ लक्ष्मी-देवि-खगाधिप-। लक्ष्माङ्गेसेदिई विष्णुग् यन्तन्ते वलम् । लक्ष्मा-देवि लसन्मृग- । लक्ष्मानने विष्णुगग्र-सतियेने नेगर्दल ।। अवगै मनोजनन्ते सुदती-जन-चित्तमनिळ्कोळल्के साल्व्- । अवयव-शोमेयिन्दतनुवेम्बभिधानमनानदङ्गना- । निवहमन्..........."वीररनेच्चि युद्धदोळ् । तविसुवनादनात्मभवनप्रतिमं नरसिंह-भूभुजम् ।। रिपु-सर्पद्-दर्प-दावानळ-बहळ-शिखा-जाळ-काळाम्बुवाहम् । रिपु-भूपोद्दीप-दीप-प्रकर-पटु [तर-स्फार-ज(झ)झा-समीरम् । रिपु-नागानीक-ताक्ष्य रिपु-नृप-नळिनी-पण्ड-वेतण्ड-रूपम् । रिपु-भूभृद्-भूरि-वज्र रिपु-नृप-मद-मातग-सिंह नृसिंहम् ॥ स्वस्ति श्री-यदु-वंश-मण्डन-मणिः क्षोणीश-चूडामणिस् । तेजःपुञ्ज-विनिर्जिताम्बर-मणिस्सद्वन्ध-चूडामणिः । यस्योद्यत्-सु-यशस्सुपर्च-सरिता लोकत्रयं शोभते। जीयात् पाद-युगानमन्-नृप-कुळश्री-नारसिंहो नृपः ॥ श्री-मूलसंघ-विख्याते मेषपापाण-गच्छके । क्राणू-गण-जिनावासो निर्मितं हेम्मभूभृत. ॥ स्वस्ति समधिगत-पञ्च-महाशब्द महा-मण्डलेश्वर द्वारावतीपुरवराघीम्वरं......"दावानळ पाण्ड्य-कुन-कमळ-वन-वेदण्ड गण्ड-मेरुण्ड मण्डलिक-वेण्टेकार परमण्डल-सूरेकार सग्राम-भीम कलि-काल-काम Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ जैन - शिलालेख संग्रह सकल - वन्दि-वृन्द सन्तर्पण-समर्थ-वितरण- विनोद वासन्तिका- देविलब्ध-बर-प्रसाद मृगमदामोद यादव कुलाम्बर-धुमणि मण्डलिक-मकुटचूडामणि कदन-प्रचण्ड मलेपरोळ् गण्ड नामादि- समस्त प्रशस्ति- सहितं श्रीमत् त्रिभुवन मल्ल तळेकाडु कोङ- नङ्गळि - गङ्गवाडि-नोळम्ववाडि - बनवसे-हानुङ्गल-हुलिगेरे चेंळुवलं- गोण्ड भुज-वळ वीर गङ्ग प्रताप- नारसिंहदेवरु सकळ - मही- मण्डळम दुष्ट-निग्रह - शिष्ट-प्रतिपाळनदिं सुख-संकथा- विनोददि दोरसमुद्रद नेळेवीडिनोकु राज्यं गेय्युत्तमिरे । तत्पादपद्मोपजीवि । तद्राज्ये बुध-कोटि- सम्पदवन-प्राज्ये प्रधानाप्रणी ॥ उन्मीत् सुकृताम्बुराशि... सम्पत्ति - चन्द्रोदय:, । श्रीमत्-तिप्पण-भूपतिस्समुद गादुद्दान-धारा-जलैर् । द्धात्री सम्प्रतिपद्यते प्रतिदिन ... मा... सस्याश्रया ॥ तस्य श्लाघ्य-गुणोदयस्य धरणी-वन्द्योनुजातस्स्वयम् । श्रीमन्नाग-चमूपति" ....यत्त यः । यत्तेजः - प्रकरैरजायत परं पद्मानुराग- प्रदै - I दृप्यद्वैरि-तमो-घटा-विघटनैर्देवोऽय... ग्रामणीः ॥ ******* श्रीमच्चामल - देवि भाति भवतीत्येव बुधैर्य्या स्तुता । तद्वंशे गुण-संगमे नर-मणि ...............णिः । सा जाता भुवनाभिराम-विभवैर्लावण्य- पुण्योदयैर् । द्देवि ( सम्प्रति ) यन्मुखपङ्कजे विजयते वाणी जगत्पावनी ॥ गङ्गरधा त्रियोळवनी- । मगळमेनिसिई आ-स्त्री-रत्नम् । .... 404100 ..........आगिरे कोट्टं ॥ तुङ्ग - जन..." | वचन || (यू) इक्षुवाक- (क्ष्वाकु वंशावतारमदेन्तेन्दडे ।'' सले वृषभ-तीर्थ-काल सु-ललितमेने सकळ -भव्य-चित्तानन्दं । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलेका लेख १ - कलिकालनिर्जितं श्री - । ललना- लावण्य-वर्द्धन मदिन्दम् ॥ सोगेयिसुव-काळदोळूं की र्त्तिगे मूल स्तम्भयेनिपयोध्या-पुर- दोळ् । जगदधिनाथ पुट्टिद - | नगण्य निक्ष्वाकु चरा-चूडारत्नम् ॥ धरेगे हरिश्चन्द्र-नृपे । श्वर नोर्व्वने कान्तनागि दोळदिन्दम् । विरुदरनदिपि विद्या । परिणतिथिं नेरेद्र सुखविनिरे पल-कालम् ॥ वृ ।। आतन पुत्रनिन्दु-दर-हास- निभोज्वळ - कीर्त्ति सद्-गुणो- । पेतनुदात्त- वैरि-कुळ-भेदन - कारि कला - प्रवीणनुद्- | धूत- माळं सुरेन्द्र-सहा भरतं कवि - राज - पूजितम् । ख्यातनतर्क्स-पुण्य-निळ्यं सु-जनाणि विश्रुतान्वयम् ॥ E ऋजु शील-युक्तेयेनिसिद | विजय - महादेवि तनगे सतियेने विबुधव्रज-पूज्यं भरतं भा । वज-सदृग नेगळे सकळ -धात्री - तळदोळ् ॥ वचन | आ-विजय महादेवि गर्भ-दोहळ गळे | घृ ॥ तरळ-तरंग-भङ्गुर-समन्वितेयं क्र(झ)त्र-चक्रवाक-भा- । सुर-कळ-हंस- पूरितेयनुद्ध-लताङ्कित - गात्रेयं मनो । हर-नव-शैत्य-मान्द्य-शुभ- गन्ध- समीर -निभास्येयं तळो - 1 दरि नेरे गङ्गेयं नलिदु मीत्रभिन्ाञ्छेयनेग्दे ताकिददळ् || कल - हस-याने पoरु | केळदियरोड वागि पूर्ण गङ्गा- नदियम् । विळसितमं पोक्कु निरा- । कुळदिन्दोलाडि पाडि गाडियनान्तऴ् ॥ अन्तु मनदलम्पु पोम्पुरि-योगे गङ्गा- नदियोळोळाडि निज - गृहके वन्दु नव - मासं नेरेदु पुत्रन पडेदातने । गङ्गा- नदियोळु मिन्दु ल - | ताङ्गि मगं बडेदळप्प कारणदिन्दम् । माङ्गल्य-नाममादुदि । ळाङ्गनेगधिपतिगे गङ्गदत्ताख्यानम् ॥ व || आ गङ्गदत्ताने भरतेनम्व मगं पुदिनात गङ्गदत्तनेवं मगं पुविदम् । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैन - शिलालेख संग्रह कं ॥ गुण-निधिगे गङ्गदत्तं । गणुगिन पुत्रं विवेक निधि पुट्टि दया । प्रणियागि हरिश्चन्द्र- । प्रणुत-नृपेन्द्र धरित्रियोक् शोभिसिदम् ॥ मत्तमा-नृपोत्तमाङ्ग भरतनेम्ब सुतं पुट्टिदनात गङ्गदत्तनेम्व मगनागिन्तु गङ्गान्त्रय सलुत्तमिरे । कं ॥ हरिवंश -केतु नेमी- । श्वर तीर्थं वर्त्तित्तमिरे गङ्ग- कुञबर- भानु पुट्टिदं भासुर-तेजं विष्णुगुप्तम्व नरेन्द्रम् || व || आ-धराधिनाथ साम्राज्य-पदविय क्यूकोण्डु अहिच्छत्र-पुरदो सुखमि । व ॥ नेमि तीर्थकर परम-देवर निर्माण-कालदो केन्द्र-ध्वजमेम्व पूजेयं माडे देवेन्द्रनोसेदु । कं ॥ अनुपमदैरावतमं । मानोनुरागदोळे विष्णुगुप्ताङ्गित्तम् । जिन-पूजेयिन्दे मुक्तिय- | ननर्घ्यमं पडेगुमेन्टोडुळि दुदु पिरिडे ॥ व ॥ आ-विष्णुगुप्त-महाराज पृथ्वीमति महादेविगं भगदत्तं श्रीदत्तनेम्व तनयरागे । व ॥ भगदत्ताने कलिङ्ग-देशम कुडलातनु कलिङ्ग-देश मनाळ्डु कलिङ्ग - गङ्गनागि सुखढिनिरे । I (यू) इत्तलुदात्त-यशो-निधि | मत्त द्विपम समस्त राज्यमुम । श्रीदत्त-नृपाङ्गित्तं भू- । पोत्तमनेनिसि६ विष्णुगुप्त - नरेन्द्रम् || अन्तु श्रीदत्तनिन्दित्तलानेयुण्डिगे सलुत्तमिरे । प्रियवन्धु-वर्म्मनुदयिसि । नयदिन्दं सकळ धात्रिय पालिसिदम् । भय-लोभ-दुर्लभं ल- । क्ष्मी- युवति सुखाब्ज -पण्ड - मण्डित -हासम् ॥ अन्ता-प्रियबन्धु सुखदिं राज्य गेय्युत्तमिरे तत्-समयदोळु पार्श्व- भट्टार कर्गे केवळ्ज्ञानोत्पत्तियागे सौधर्मेन्द्रं वन्दु केवळ पूजेय माडे प्रिय Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरलेका लेख ४५९ बन्धुवु तानु भक्तियिं वन्दु पूजेयं माडलातन भक्तिगिन्द्र मेचि दिव्यमप्यप्दु तुडुगे-गळं कोट निम्मन्वयदोळु मिथ्यादृष्टिगळागलोड अदृश्यङ्गळकुमेन्दु पेन्दु विजयपुरक्कहिच्छत्रमेन्दु पेसरनिट्ठ दिविजेन्द्रं पोपुदित्तल गङ्गान्वये संपूर्ण-चन्द्रनन्ते पेर्चि वर्तिसुत्तमिरे तदन्वयदोळु कम्प-महीपतिगे पद्मनाभनेम्ब मगं पुट्टि। कं ॥ तनगे तनूभवरिल्लदे । मनदोळ् चिन्तिसुतमि? पद्मप्रभना-1 पिन कणि सासन-देवते- । यने पूजिसि दिव्य-मन्त्रदि साधिसिट व ॥ अन्तु साधिसि (दि) शाधित-विद्यनागि पुत्ररिवरं पडेदु राम-लक्ष्मणरेन्दु पेसरनिहुँ। वृ॥ परम-स्नेहदोळिरं नडपि लीला-मन्त्रदिं चन्द्रनन्- । तिरे सपूर्ण-कळाङ्गरागि वेळेयल् विद्या-वलोद्योगमुर् रेयोळ् चोद्यमेनल सलुत्तमिरे कीर्ति-श्री दिशा-भागदोळ् । पेरेदाशा-गजमं पळञ्चलेये लक्ष्मी-भारदिन्दोप्पिदर || व॥ अन्तु सुखदिमिर्पदु मत्तलुजेनिय-पुराधिपति-महीपाळनातुडुगेगळ वेडियट्टिपडे पद्मनाभ कृतान्तनन्ते रौद्र-वेशमं ककोण्डु । क॥ येमगढनलिकागदुः । तमगे तुडल योग्यमन्तु सन्तमिरल वेळ । समर्के वन्दनप्पडे । निमिपदोळान्तिरिदु वीर-रसम मेरेवेम् ॥ व । अन्तु नुडिदट्टि मन्त्रि-वर्ग डोळाळोचिसि तन्न तङ्गेयाळब्वेयु नावतेणबराप्तरप्प विप्र-सन्तानमं वेरसि कळिपिदडबईक्षिणाभिमुखरागि वरुत्तं राम-लक्ष्मणर्गे दडिग-माधवरेन्दु पेसरनिङ निच्च-वयणदिं वरुत्तमिरे । क॥ वन्दवर्गचित-पदमन-। गुण्डेलेयिं कण्डरमळ-लक्ष्मी-चित्ता-। नन्दनम पेसरं । मन्दार-नमेस्-पुष्प-गन्धादियुमम् ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० जैन-शिलालेख-संग्रह व ॥ अन्तु गङ्ग-हेरूरं कण्डल्लिय तटाक-तीरदोळु वीडं विट्ट चैत्यालयम कण्डु निर्भर-भक्तियिं त्रि-प्रदक्षिणं गेय्दु स्तुतियिसि समस्तविद्या-पारावार-पारगर जिन-समय-सुधाम्भोधि-संपूर्ण-चन्द्रमुत्तमक्षमादि-दश-कुशळ-धर्म-निरतरं चारित्र-चक्र-धररं विनेय-जनानन्दरं चतुस्समुद्र-मुद्रित-यशः-प्रकाशरं सकळ-सावद्य-दूररं क्राणूर-ग्गणाम्बरसहन-किरणरं द्वादश-विधतपोनुष्ठान]-निष्ठितरं गङ्गराज्य-समुद्धरणरं श्रीसिंहनन्धाचार्यरं कण्डु गुरु-भक्ति-पूर्वकम् वन्दिसि तम्म बन्दभिप्रायमेल्लम तिळिय पेळे कयूकोण्डवर्गे समस्त-विद्याभिमुखाडि केलवानु दिवसदिं पद्मावती-देविय विधि-पूर्वकमाह्वानं गेट्दु' वर बडेदु खळगमुम समस्त-राज्यमनवर्गे माडे । क ॥ मुनि-पति नोडल विद्व- । जन-पूज्यं माधवं शिलास्तम्भमना-। ईनुगेय्दु पोथ्यलदु पु- । मेने मुरिदुदु वीर-पुरुपरेनं माडर् ॥ व ॥ आ-साहसम कण्डु । वृ ॥ मुनि-पति कणिकारदेसळोळ नेरे पट्टमनेरदे कटि स-। जन-जन-बन्धरं परसि सेसेपनिकि समस्त-धात्रियम् । मनमोसेदित्तु कुञ्चमनगुबिन केतनमागि माडि वे। पनितु परिग्रह गज-तुरङ्गमुमं निजमागे माडिदर् ।। . व ॥ अन्तु समस्त-राज्यम माडि बुद्धियनिवगिन्तेन्दु वेससिदरु वृ ॥ नुडिदुदनारोळ नुडिदु तप्पिदडं जिन-शासनकोडम् । वडदडमन्य-नारिगेरेदट्टिदडम्मधु-मास-सेवे गे-। यदडमकुळीनप्वर कोळ्कोडेयादडमर्थिगर्थमम् । कुडदडमाहवङ्गणदोळोडिदडं किडुगुं कुल-क्रमम् ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरलेका लेख ॥ उत्तममप्प नन्दगिरि कोटे पोळल् कुवळालमाके तोम् । भत्तरु-सासिरं विषयमाप्तननिन्द्य-जिनेन्द्रनाजिरं-। गात्त-जय जयं जिन-मत मतमागिरे सन्ततं निजो- । दात्ततेयिन्दमा-दडिग-माधव-भूभुजराब्दरुर्वियम् ॥ उत्तर-दिक्-तटावधिगे तागे मोद [क] ले मूड तोण्डे-ना-। उत्तपराशेगम्बुनिधि चेरोडेयिर्प तेक कोड म-। त्तित्तोळगुळ वैरिगळनिक्कि परावृत-गनवाडि-तोम्- । भत्तर-सासिर दळेले माडिदनिन्तुटु गङ्गनुज्जुगम् ॥ अन्तु शत-जीवियेम्बुदा-शब्दम केन्दु । भरदिन्दं चुर्चुबारदं होगळे बुध-जन बन्दु कावेरियोळ् भी-} करमागल वीर-लक्ष्मी-नयन-कुमुदिनी-चन्द्रम निन्दु नोडल् । परिवारं तन्न कीर्ति-प्रमे वळसे दिशा-आगमं चोद्यमागल् ।' परम-श्री-जैन-पाद नेलसे हृदयदोळ् मेरु-शैलोयमानम् ॥ . क ॥ कर' अरिट गङ्गनि भय-। मिल्लद हरिवने विष्णुभूपनि निजदि । वल्लं तडजाळ्-माधव- । नल्लिं बळि चुर्चुवायद-गङ्ग-नृपाळम् । श्रीपुरुष शिवमारं । ळ कृतान्त-भूपना-सयिगोट्टम् । द्वीपाधिपरोळरि-नृप-। कोपानळ-शिखेयेनिप्प विजयादित्यम् ॥ • "रे येरिद मारसिंगना- । कुरुळ-राजिग पेसर-ज्वेत्ता-॥ मरुळ तन्नृप-तिळकन । पिरिय मगं सत्य-वाक्यनचलित-शौर्य गर्बद-गङ्ग वसुधेयो-। कोर्वने कलि चागि शौचि गुत्तिय-गंग। दोविक्रमाभिरामन- । गुर्विन कलि राचमल्ल-भूभृ " " || तेन मुरिवं हसिय क-1 अङ्ग पिडिदडसि कीळ्वना-मद करियम् । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર जैन - शिलालेख संग्रह पिङ्गदे निलिखुव साहस । तुङ्ग केवळ नेगळ्द रकस गङ्गम् ॥ अवयवदिन्दे साधिसिद. माळमेळुमनेडे गङ्ग-मा- । ळवमेनलक्करं वरेदु कल् निरिखुत्ते कल्चि चित्रकूट - । मनुरे कन्नमज्जेय- नृपानुजन जयकेसिय महा- 1 हवदोळे मारसिंग नृपनिक्कि निमिचिदनात्म- शौर्य्यमम् ॥ तनयं श्री - मारसिंहङ्गनुपम - जगदुत्तुगनाद जगत्-मा- | वन लक्ष्मी वल्लभङ्गिन्तुदयिसि नेगब्द राचमल्लावनीशम् | मनु-मार्ग गङ्ग-चूडामणि जय वनिताधीश - भूवल्लमेशम् । जिन - धर्माम्भोधि-चन्द्रं गुण-गण-निळय राज-विद्या-धरेन्द्रम् ॥ इन्तेनिसि नेगळ्द गङ्ग-वंशोद्भवरा - द डिगन मगं चुर्धुवाद - गङ्गनातन सुतं दुर्बिनी तनातन तनय श्री ... नु श्रीपुरुषमहाराज तत्- तनयं देव तत्-तनूभवनेरेयङ्ग- हेम्माडि तत्पुत्र वृतुग- हेम्माडि तदात्मजरु देव तदनुज गुत्तिय - गंगनातन मोम्म मारसिंग -देवनातन मगं कलियङ्गदेवनातन मग बर्म्म-देवनिना गङ्गोद्भव राज्यं गेये । .... दक्षिणदेशनिवासी । गङ्ग-मही- मण्डलिक- कुळ-संधरणः । श्री-मूल- संघ -नाथो । नाम्ना श्री - सिंहनन्दि-मुनिः ॥ श्री-मूल-संघ - वियदमृ- । ताम-रुचि-रुचिर'-"जय-ल- । क्ष्मी-महित जिन-धर्म्म-ल। लामं काणूर-ग्गण-जना ''''करम् ॥ गणद अन्यदोळु । मणिरिव वनराशौ माळिकेवामराद्रौ तिळकमित्र ललाटे चन्द्रिकेचामृतांशौ । इत्र सरसि सरोजे मत्त भृङ्गी निकामम् समजनि जिनधर्म्मा निर्मळो चालचन्द्रः ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरलेका लेख ४६३ अवर शिष्यर। विमळ-श्री-जैन-धर्माम्बर-हिमकरनुयत्-त""लक्ष्मी-। रमणं भूमण्डलाधीश-नुतनुभय-सिद्धान्त-त्नाकरं ज-1 गम-तीयं भव्य-वक्त्राम्बुज-खर-किरणं श्री-प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त-मुनीन्द्र क्षीर-नीराकर-विशद-यशो-वेष्टिताशा-विभागं ॥ मनम नियमिसलरिय- | तनुव" 'तोर्प मुनियु मुनिये । मनम तनुवं नियमिस- । ळनुदिनमी-नेमि-देवनोलने वल्लं ।। अवर शिष्यरु। - गुणियेने जिनमतरक्षा-। मणियेने कवि-गमक-बादि-वाग्मि-प्रवराप्रणियेने पण्डित-चूडा- । मणियेने गुणनन्दि-देवरेसेदर द्धरेयोळ् । तत्सधर्मरु । अळवे पेलू नुडियल्के निन्न विरुद माण माणेले सांख्य वा-। ग्-बळम नच्चदे नीनडङ्गेडरदिर्चा के नैय्यायिका । मलेयळ् वेडिह मन्तमेके चलदिन्दी-भण्डप केम्मनण्- 1 डलेयल् श्री-गुणचन्द्र-देवनमळं वादीभ-कण्ठीरवम् ॥ तत्सधर्मरु । गङ्गा-वारि सु-शैवलं सुर-करी दानार्द्र-गण्ड-स्थलः । शम्भुःकण्ठ-विलग्न-घोर-गरलः चन्द्रः कळकाङ्कितः। कैलाशो वन-वल्लरी-परिवृतस्साम्य कथं वच्म्यहम् -, . कीयां तैस्सह माघनन्दि-यमिनश्चन्द्रातपोधच्छ्रिया (म्)। आ-चारित्र-चक्रेश्वर-मुनि-राज-राजन शिष्यरु वस्ति समधिगत-पञ्चमहा-शब्द महा-कल्याणाष्ट-महा-प्रातिहार्य चतुस्त्रिंशदतिशय-विराजमानभगवदर्हत्-परमेश्वर-परम-भट्टारक-मुख-कमळ-विनिर्गत-सदसदादि-वस्तु Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह खरूप-निरूपण-प्रवण-राद्धान्तामृत - बार्द्धिवर्द्धन- रात्र्या भरणरुमप्प श्रीमतप्रभाचन्द्र-सिद्धान्त - देवरेन्तेन्दडे | आसीदाशान्तराळ-प्रबळ-पृथु-यशोव्योम-गङ्गा-तरङ्गः चञ्चच्चारित्र-धात्रीभवदतिललितोदार-गंभीर-मूर्त्तिः । સદ્દક वाक् कान्ता-तुग-पीन-स्तन- कळश-लसनूत-चूत-प्रवाळ : सिद्धान्त-क्षीर-नीराकर-हिमकिरणः श्री प्रभाचन्द्र-देवः ॥ .. अभिनव - गणधर । त्रि-भुवन-जन-विनुत-चरण- सरसिरुहयुगं । शुभमति'‘'रुह-बनार्कनेग्बुदु । वसुमतियोळनन्तवीर्य्य-सिद्धान्तकरम् ।। वादिवन- दहन - हुतवह। वादि - मनोभव- ( वादि) - विशाळ हर-निटलाक्षम् । बादि-मद-दनि-विडुव । भेदिप मृगराज जयतु श्रि ( श्रुतकीर्त्ति बुधं ॥ तत्- सधर्म्मरु | कवि-गंमक-वादि-वाग्मिग- । ळेवेम्बरं गेल्दु कनकनन्दित्रैविद्यविळांसं त्रिभुवन-प्र-। ल-बादिराज दलेनिसिद नृप समेयोक् ॥ अवर सधर्म्मरु | मन-वचन-काय -गुप्तियो । कनुनयदि तळदु पञ्च समितिय वशदिन्दनुवशनाद तपोनिधि | मुनिचन्द्र- व्रतिपनखिळ-राद्धान्वेशम् ॥ अवर शिष्यरु | पिरिदं पोगळवडेङ्गळ | पुरुळुण्टे - माडलेन्दु मुनि - पतियेम्बी- । वर-चिन्तामणि'' ं । कुरुळि सु-सन्मान-ध्यानदुरुळियेनिक्कुम् ॥ तपोनुष्ठा [न] निष्टितरारेन्दडे | कनकचन्द्र- मुनीन्द्रन पादम । मैनेत्र भव्य-समूहद पाप - सम्- 1 हंननमप्पुदु तप्पदु निश्चयम् । मन.....'' निच्चळुम् ॥ अवर सधर्म- । " . Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरलेका लेख मुनिय..........."अनवद्याचा(च)रणे जैन-शा- । सन-रक्षामणि शान्तने सकळ-राग-द्वेप-दोष-प्रभञ्- । जननुर्ची नुतने गुण-प्रणयितं तानेम्बिन वीर मे- । दिनियो"धवचन्द्र-देवनेसेद चारित्र-चक्रेश्वरम् ॥ तत्-सधर्मरु । वर-शास्त्राम्बुधि-बर्द्धन- । हरिणाई-विरुद-वादि-मद-विस्फाळम् । निरुतं तानेनलेसेद । धरेयोळ् त्रैविद्य-चाळचन्द्र-मुनीन्द्रम् ।। अवर सधर्मरु । वृ॥......."आन्दु धर्ममनुपेक्षिसि तक्केडेगीयदागळुम् । पीन-नितम्बम घन-कुच-द्वयम मरेगोण्डु म-यो-। धानमनोल्दु पोक्कु नेरे नील-पटाश्रितरप्प योगिगळ् । दान-विनोदनोळ दोरेगे-चप्परे माधवचन्द्र-देवनो...॥ . ...."सत्य-गङ्गं कुडे कुरुळियोळादन्न-दान-प्रभा-वि-। स्तरदिं श्री-चालचन्द्र-व्रति-पति पडेद दानदिं जीयनल्कुरव्वरेय सम्पूर्णमागल् तणिसिदमिदु वल्-चोद्यमक्षीण-रिद्धि-। स्फुरित कयगणिम पोणमुत्तिरे........ ..... ज्यनादम् ॥ अवर सधर्मरु । चतुराश्य-कोटि-कूटदो- । ळतिशयमेनिसिई कोपण-तीर्थदोळीगळ् । नुतियिप वड्डाचार्य-1 तिपतिये नेमि-देवरिन्दमे पूज्य ॥ स्थावर-जगममनितुं । पावनमाद............... ...जीयेनिसि वावडिगळ । जीय श्री-नेमि-देवरुदयिसे शुभद ।। अवर सधर्मरु । अधनराश्रितर्गिष्ट-सन्ततिगे चातुर्वर्ण-संघक्के तान् । शि०३० Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह अधिकोत्साहदिन् ‘वयकेयम्बेपर्थमं वाञ्छेयम् । बुध-चिन्तामणि...... ..... • . कूर्त्तित्तु मा-। धवचन्द्रं पडेद समस्त-भुवन-प्रस्तुत्यम स्तुत्यमम् ॥ अवर सधर्मरु । साधिसि गुरूपदेशदो- । ळाधिक्यतेयास्तु सकळ-पट-कर्मगळु । वेदान्तर म...दरिव- । ग्र्गोधूम-घरट्टनोडने तोडम...॥ शाकिनि-डाकि...... -किनि-चोरारि-मारि-देव्येयरनितु । लोकमरियल्के... । सकळमनरिये विरुद देवेन्द्रनुमम् ।। इन्तेनिसि नेगळ्तेयं तळेद श्रीमत्-प्रभाचन्द्र-सिद्धान्त-देवर गुड्ड भुजवळ-गङ्ग-हेाडि-बर्म-देव ।। बलवद्वैरिगळं पडल्-वडिसि गेल्दुमाजियोळ माण्दने । चलदिन्ट परियितु वैरि-पुरमं तत्-कोटेय तद्-मही- । तळम कोण्डु धरित्रि बण्णिसुविन श्री-वर्म-देवं मही-। तळम तोळ्-वळटिं निमिचिदनिढम् हेम्मोडि सौर्य्यात्मनो ॥ आतन पट्ट-महादेवियेन्तेन्दडे । जिनेन्द्र-पादाम्बुज-मत्त-भृङ्गी...... भूपण-भूपिताङ्गी । नितम्विनीना तिळकायमाना विराजते गङ्ग-महाधिदेवी ।। वृ ॥ निजवेनिपी-नेगर्तेय महासतिगुत्सब मि] म् निमिर्चुवा- । त्मजरेनिसिई तम्मुतोडहुटिदरोप्पुव मारसिंगनुम् । स-जयदे सत्य-गङ्ग-नृपर्नु कलि-रकस-गङ्ग-देवनुम् । भुजवळ-गण-भुजनुमाजिसि पेजसम निरन्तरम् ।। गजरिपु-विष्टराजि-विभवोदय-पार्श्व-जिनेन्द्र-पाद-पङ् । कज-मद-भृङ्ग गङ्गा-कुळ-मण्डन दण्डित-रि-वर्ग भा-1 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरलेका लेख ४६७ वज-निभ-मूर्ति दिग-बळय-वर्तित-कीर्ति समस्त-धात्रियोळ् । भुजवळ-गङ्ग-भूप निनगादारे मण्डलिकैक-भीरत्र ।। आतन पट्ट-महादेवि । [..."]आलु-वरननुज । दिट्टभूपङ्गे गङ्गवाडिगे तळेढळ् । पट्टमनेन्दढे गगन । पट्टमहादेवि यन्तु नोन्तरुमोळरे ।। वृ !! मारिट्टाशान्तमं वदलळेहुदधि-त्रातम गे सन्दा-1 मेरु-ओणीन्द्रमं त्राशिनोळेणिसि तरङ्गोण्डु नक्षत्रमं पेळ् । आरातुं वल्लरे बल्लडे पोगळो विश्वम्भरा-भार-वीर-। • श्री-रामालीढ-वज्र-ढिम-घन-भुज-स्तम्भनं गङ्ग निन्नम् ।। अन्नेयवागिदूटिसुव""मोले'""प्रकास येल्लयो । रनवे हेण्डिरोळ् मनेगोरुढारेयरण्ण हुरे । हुन्नियबुडेम् जगदोळोवळे भागिये ताने लेसे हुह-। नन्नियोचिन्तु गर्वितेयरार्गळ चन्दल-देवियन्ददिम् ।। श्रीमद्-भुजवल-ग[ग] देवङ्ग गङ्ग-महादेविगं पुटिद सत्यगगन प्रतापमेन्तेने। जसमुद्यद्धवलातपत्रमखिळाशा-देवतापाङ्ग-र-1 रिम सह......" गजेन्द्र-रिपु-पीठं विक्रमं तानदा-1 गे सु-साम्राज्य-लताभिवृद्धि-विभव मय्वेत्तिरल् वल्लिदर । व्वेसकेय्युत्तिरे सत्यगङ्गनेदं विश्वावनी-भागढोळ् ॥ आतन-अरसि। पति सत्य-गङ्ग-देवं । गति "दार-लक्ष्मि तानेनिसि"""। ....."तळेढळेम्.... "आरो राणि कञ्चल-देवि ॥ भावभवने रूप मद-सामज-चैरिंगे विक्रम-क्रम सुरेन्- । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह द्रावनिजक्के दान-गुणमधिगे गुण पमराचळक्के सं- । भावित-धैर्यमग्गलिपुदेन्दडे गङ्ग- कुभृत् कुमार """ । ........ पाळकंगे दोरेयप्परे मिक्क कुभृत् कुमारकर ॥ ......... यिन्दं क्षीराब्धियु- । मसवसर्दि पेच्चुवन्ते गङ्गान्वयमु । पसरिसे पेर्चुगे निन्निन्दसदळमौदार्य शौर्य गङ्ग - कुमारा || श्रीमन्महामण्डलेश्वरनेरेयङ्ग- होय्सण- देवनव्यिं गण्डर दावणि हुसिबर शूल मावन गन्ध-वारण हेम्माडि - देवनेडेदोरे "सायिरमुम हरिगेय नेलेवीडिनोळु सुखदिनाळुत्तिर्छु कुन्तलापुरदोळु चैत्यालयमं माडि देवर पूजा-विधानक्क चातुर्वर्ण- सघ- समुदाय चतुस्- समयदाहारदानक खण्डस्फुटित जीर्णोद्धारक समुदाय मुख्य स्थानं माडि येडदोरे - मण्डलिनाडप्रभु-गावुण्डुगळकरेयलडि धर्म्म आरके येन्दु शक-वर्ष ९८९ नेय लवंग- संवत्सरद पुष्य-सु १३ दशि- गुरुवार - वुत्तरायण-संक्रमणदन्दु तम्म गुरुगळु श्री - प्रभाचन्द्र- सिद्धान्त - देवर काळं क िधारा- पूर्व्वक (क)माडि विट्ट दत्तिया ग्राम - दुभय • • • सर्व्व-नमस्यचल्लि हुनुवायदाय-सुङ्क-निधि - निक्षेप सर्व्व- वाधा - परिहार ॥ .. ४६८ मत्ता -राज- सर्व्वन्य सत्य- गङ्ग-देव नेडेहलिय नेलेवीडिनोळु सुखदिं राज्यं गेय्युत्तिर्दल्लि कुरुळिय - तीर्थदल गङ्ग - जिनालयन माडि सकवर्ष १०५४ नेय नन्दन - संवत्सरद चैत्र -सुपुण्णमियादिवारसोम-ग्रहणदन्दु तन्त्र गुरुगळु श्री माधवचन्द्र देवर काल कर्चि धारा - पूर्वक माडि वि दत्ति ... वण्ण ****** स्वस्ति श्रीमन्-महामण्डलेश्वर गङ्ग- हेम्र्म्माडि देवर सन्निधियल्लि सर्वाधिकारि वागिय हेग्गडे लोक्किमय्यन मग हेग्गडे - चन्दिमय्यं १ लेकिन १०५४=परिधावि, नन्दन = १०३४ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरलेका लेख कुरुळिय तम्म गौडिकेयं कलियर-मल्लि-शेट्टि मारं कोण्डु अरसर सन्निधियलु पाळचन्द्र-देवर्गे धारा-पूर्वकं माडि विट्टरु ॥ ___ मत्त सिरियम-सेट्टियुमातन मकलु'""आतन गौडि केय ननियरस-देव हळवुरदल बाळचन्द्र-देवगर्गे धारा-पूर्वक माडि कोहरु ।। अन्तुभय-ग्रामद"...."साम्य सुन सहित सर्व-वाधा-परिहार ........... (भागेकी ५ पक्तियोमे सीमाओकी चर्चा तथा हमेशाके मन्तिम श्लोक हैं) [जिनशासनकी प्रशंसा । जिस समय त्रिभुवन-मल्ल-देवका राज्य प्रवर्धमान था; आगेके श्लोकका प्रकरणसे कोई सम्बन्ध नहीं है, सिवाय इसके कि विक्रमांकने, जो कि त्रिभुवन-मल्ल है, बहुत भय उत्पन्न किया। तत्पादपद्मोपजीवी एरेयग होयसळका दामाद हेम्माडि-अरस था। उसकी प्रशंसा। होयसल राजाओंके वंशकी प्रशंसा । विनयादित्यसे लेकर नरसिंह तकके राजामोंकी परम्परा। मूलसंघके मेष-पापाण-गच्छके क्राणूर-गणका एक जैनमन्दिर राजा हेम्मने बनवाया। जिस समय प्रताप-होय्सल-नारसिह देव दोरसमुद्रमे राज्य कर रहा था-उसका प्रधान मंत्री (प्रशसासहित ) तिप्पण भूपति और उसका छोटा भाई नाग-चमूपति था, जिसकी पत्नी चामल-देवी थी। उसने .. .. का दान किया। पश्चात् इक्ष्वाकुवंशका अवतार दिया है । इस भागकी १७० पक्तियोंमें पूर्वके शिलालेख न० २७७ और २६७ के भाग ज्यो-के-त्यो मिलते हैं । न० २७७ "सले वृषभतीर्थ-काल" से लेकर “परावृत-गनवाडितोम्भत्तरसासिरं" तक १०१ पंक्तियाँ, और "अन्तु शत-जीवियेम्बुदा-शव्दमं केल्दु" से लेकर "मे-शैलोपमानम्" तक ५ पक्तियाँ। नं० २६७ "कर "अरिद गङ्गानि भय-" से लेकर "रकस गङ्गम्" तक ११ पक्तियाँ । नं० २७७ "अवयवदिन्दे' से लेकर राज विद्याधरेन्द्रम्" तक ८ पक्तियाँ। नं० २६७ "इन्तेनिसि नेगल्द" से लेकर "अनन्तवीर्यसिद्धान्तकरम्" तक ४५ पंक्तियाँ। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिलालेख संग्रह श्रुतकीर्तिकी प्रशंसा । पश्चात् क्रमसे सधर्मा कनकनन्डि, मुनिचन्द्र व्रतीकी प्रशसा | सुनिचन्द्रके शिष्य कनकचन्द्र-मुनीन्द्र, उनके सधर्मा माघवचन्द्र-देव; उनके सधर्मां त्रैविद्य बालचन्द्र-मुनीन्द्र और उनके सधर्मा माधवचन्द्र देव | सत्य गंगने कुरुळिमें बालचन्द्र व्रतिपतिको दान दिया। उनके धर्मा वडाचार्य प्रतिपत्ति थे । उनके सधर्मा माधवचन्द्र थे । ४७० इसके बाद भुजबळ हे मडि-व-देवकी प्रशंसा । उनकी पट्टमहिषी महादेवी तथा इन दोनोंके चार लडके मारसिंग, सत्य-गंग, कलि-रक्सगंग और भुजबल गगका उल्लेख । भुजबल - गगदेव और गग- महादेवीसे सत्य-नानकी उत्पत्ति | उसकी प्रशसा | उसकी रानी कञ्चल - देवी । ( उनके पुत्र गंग- कुमार की प्रशसा ) | जिस समय एरेयस होयसल देवका दामाद हेम्र्म्माडिदेव हरिगे के निवासस्थानमे था और एडेडोरे - ( मण्डलि ) हजारका शासन कर रहा था, कुन्तलापुरसे उसने एक चैत्यालय बनवाया और उसके लिये तमाम करो इत्यादि मुक्त, एक गाँवका दान दिया । इसके अतिरिक्त, जब सत्य-गङ्ग-देव, अपने एडेहल्लिके निवासस्थानमे सुख और शान्तिसे राज्य कर रहा था, उसने फुरली तीर्थमे गङ्ग जिनालय वनवाया, और शक वर्ष १०५४ में अपने गुरु माधवचन्द्र देवके पैरोका प्रक्षालनपूर्वक, ....... का दान किया । और गंग हेम्र्म्माडि- देवकी उपस्थितिमे सर्वाधिकारी, वामिके हेगडे, हेगडे चन्दिमय्यने कुरुलीकी अपनी 'गौडिके' भूमि कलियर - मलि-सेहिको बेची और उसने वह भूमि बालचन्द्र देवको दान कर दी । और सिरियमसेहि तथा उसके पुत्रोंने हलवुरकी अपनी 'गौडिके' भूमि, नन्नियरसदेवके सामने, बालचन्द्र-देवको भेट कर दी । ( यहाँ सीमाएँ और हमेशा श्लोक जाते हैं । ] [ EC, VII, Shimoga tl, n° 64 ] १ ये अङ्क १०३४ होने चाहिये, क्योंकि शक वर्ष १०५४ - विरोधिकृत नन्दन = १०३४ । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्रदहळ्ळका लेख ३०० चहकिल - कन्नड [विक्रम वर्ष ५८ = ११३३ ई० ] [ चत्रदद्दलिमे, अमृतेश्वर मन्दिरके सामनेके वीरकलके ऊपर ] स्वस्ति श्रीमतु विक्रम संवत्सरद ५८ परिधावि-संवत्सरदास्वचिजन्च ५....... श्रीमतु सृलगंघद देसिंग-गणद श्री - माघणन्दिभट्टारक-देवर गुढं गङ्गवलिय दास गाउण्डन मग चोप्पय समाधिविधियि मुडिपि स्वर्गस्थनाउनु ॥ [ स्वति । ( उक्त मितिको ), मूलसंध और देसिग गणके मावनन्दिभट्टारक - देवके एक गृहस्थ-शिष्य, गङ्गनलिय दाम-गाण्डके पुत्र वोप्पय, समाधि विधिले मरण कर, स्वर्गको गये । ] [ EC, VIII, Sorab tl, n° 97 ] ३०१ हळेबीड - संस्कृत और कन्नड़ ૪૦o [ वर्ष प्रमादिन्, ११३३ ई० ( ० राइम ) ] [ हळेबीडसे लगी हुई बस्तिइकिल में, पाश्र्श्वनाथ बालिके बाहर की दीवाल एक पाषाणपर ] श्रीमत्परम गंभीरस्याद्वादामोवलाञ्चनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥ जयतु जगति नित्य जैनस धोदयार्कः प्रभवतु जिनयोगीत्रात पद्माकरश्रीः । समुदयतु च सम्यग्दर्शन-ज्ञान-वृत्तप्रकटित-गुण-भाव-भव्य-चक्रानुरागः ॥ जगत्रितयवल्लभः श्रियमपय्यवाग्दुर्लभः । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- शिलालेख संग्रह सितातप निवारणन्त्रितयचामरोद्भासनः । ददातु यदधान्तकः पदविनम्रजम्भान्तकः स नस्सकल-धीश्वरो विजय- पार्श्वतीर्थेश्वरः ॥ सिद्धं नमः ॥ ४७२ श्रीमन्नतेन्द्रमणिमौलिमरीचिमाळामाळार्चिताय भुवनत्रयधर्मनेत्रे | कामान्तकाय जितजन्मजरान्तकाय भक्त्या नमो विजय-पार्श्व- जिनेश्वराय || होयसळोव्वारा वंशाय स्वस्ति वैर - महीभृताम् || खण्डने मण्डलाग्राय शतधाराग्रजन्मने ॥ तदन्वयावतारम् ॥ नेगळ्दा ब्रह्मनिनत्रि सोमनेसेवा - श्री सोमज भूतल पोगळुत्ति- पुरूरवो पति सन्दायु-महीवल्लभं । सोगयिप्पा - नहुषं ययाति यदुवेम्बुवश - सन्तानदोळ् । नेगळ्द श्री-सळनानतान्य-निकरं सम्यक्त्व - रत्नाकरम् ॥ आ-सळ - नृपतिय राज्यश्री-संवर्द्धन मने दे माडुत्र बगेय | वासव वन्दित- जिन-पूजा सहित सकल-मंत्र-विद्या-कुशलम् ॥ मुदर्दि जैन-व्रतीशं शशकपुरद पद्मावती - देविय म- । त्रदिनादं साधिसल् विक्रियेयोळे पुलि मेल् पाये योगीश्वर कुंचद-काविन्दान्तदं पोयसळ एनलभय पोखुदु पोय्सळाङ्कम् । यदु-भूपग्र्गादुदन्दिन्देसेदुदु सेळेयिं लोक- शार्दूल- चिह्नम् ॥ आ - सन्द-पक्षी - वरदो वसन्तं । लेसागे तात्कालिक नामदिन्द । वासन्तिका देवतेयेन्दु पूजा । व्यासङ्ग व माडिदना-नृपाळम् || Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलेवीडका लेख क्यू- सार्दिरे पुलि युण्डिगे | कय-साहिरे वीर-लक्ष्मी रिपु- नृप - राज्यम् । कय्-साहिंरे पल्राढर् । प्पोयसळ - नामदोळे यादवोर्त्रीपतिगळ् || सत्कुलढोळगिन्दु माही - | भृत्-कुळदोळगचळ-नाथनेसेवन्तेसेदं । तत्कुलद्रोळ् विजितारि-कु- । मृत्कुळनादित्य- मूर्ति विनयादित्यम् ।। तदपत्य रिपु नृप - भुज- 1 मद-मर्दनन खिळ विबुध- जनता - सौख्य- । प्रदनुदितोदित-महिमा | स्पदनेनिपेरेयङ्ग-भूपनङ्गज-रूपम् ॥ एरेयङ्गन कूरसि तले । गेरगदे मुन्नार बन्दु पदकेरगढवर् । प्परिये तले मुरिये निट्टेल्व् । ओरदुगे विसु-नेत्तरेरगदिपरे धुरदोळ् || ई-सुवे पोगळलेचल - | देविगवेरेयङ्ग नृपतिगत्रै पुरुषर् । तावेनलाढला | ळावनिपति विष्णु- नृपतियुदयादित्य ॥ अन्तवरोळ् विष्णु मही । कान्त निमिर्देसेये कूर्षुमाğ जसमा । ૪૦૨ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख-संग्रह दन्तोळगि वेळगे पेर्मय- 1 नान्त नळ-नहुप-भरत-चरित-प्रतिमम् || स्थिरमागि विष्णुवर्द्धन-1 धरणीपाळगे पट्टमागलोड सा-1 गरदन्तनहित-धरणी-। श्वररोडनेव्दित्तु विशदकीर्तिप्रसरम् ॥ पोडरटे साध्यमायतु मलेयेल्लमुना-तुल्लु-देशवेल्लमु । नडेये कुमार-नाडु-तळकाडुगळेम्बिवु करगे सार्दुव- । त्तडियिडे मुचि कच्चि वेसकेन्दुदु विष्णु-नृप कृपाणम । जडियठे मुन्ने कोङ्ग नृपरित्तरिभङ्गळनेम् प्रतापियो । चोळ-नृपाळ-पाण्ड्य-नृप-केरळ-भूप-भुजावलेप-वि- । स्काळननन्ध्र-गन्ध-गज-केसरी लाट-वराट-धारिणी- । पाळ-धनानिळ कन्न-सूर-कदम्ब-वनाग्नि विष्णु-भू-। पाळनवार्य-शौर्य-निधियातन शौर्य्यमनारो कीर्तिपर ।। श्रीमन्महामण्डलेश्वर । द्वारावतीपुरवराधीश्वरं । यादवकुलाम्बरद्युमणि मण्डलिक-चूडामणि शशकपुर-वसन्तिका-देवी-लब्धवर-प्रसादम् । दरदळन्-मल्लिकामोढम् । परिहसित-शरदुदित-तुहिनकर-कर-निकर-हरहसन-सु-रुचिर-विनद-यशश्चन्द्रिका-श्री-विलासम् । निरतिशय-निखिलविद्या-विलासम् । विनमदहित-महिप-चूडालीढ-नून-रत्न-रस्मि-जालजटिलिन-चरण नख-किरणम् । चतुत्समय-समुद्भरणम् । कर-कराळकरवाल-प्रभा-प्रचलित-दिशा-मण्डलम् । वीर-लक्ष्मी-रत्नकुण्डलम् । हिरण्यगर्भ-तुळापुरुषाश्व-रय-विश्वचक्र-कल्पवृक्ष-प्रमुख-मख-शतमखम् । राजविद्या-विलासिनीसख । स्थिरीकृत-यादव-समुद्र-विष्णुसमुद्रोत्तुग-रङ्गद् Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हळेबीडका लेख ४७५ वहळतर-तरङ्गौघाच्छादित-दिशा-कुञ्जरम् । शरणागतवज्र-पञ्जरम् । आमलक-फळ-तुळित-मुक्ता-लता-लक्ष्मी-लक्षित-वक्षम् । विबुध-जन-कल्पवृक्षम् । विजयगज-घटोत्तरळ-कढलिका-कदम्ब-चुम्बिताम्बुदम् । प्रतिदिन-प्रवर्द्धमान-सम्पदम् । रिपु-नृप-लय-समय-क्षुभित-वार्द्धि-वीचि-चयोच्चळित-जात्यश्व-हेपा-रवपूरित-दिशा-कुञ्जम् । गस्तोदात्त-पुण्य-पुञ्जम् । इन्दुमन्दाकिनी-निश्चळोदात्त-गुण-यूयम् । गण्डगिरि-नाथम् । चण्ड-पाण्ड्यवेदण्ड-कूट-पाकलम् । जगदेव-बळ-कळकळं । चक्रकूटाधीश्वर-सोमेश्वरमदमर्दनम् । तुल-नृपासुर-जनाईनम् । कळपाळ-तारक-मयूर-वाहनम् । नरसिंह-ब्रह्मसम्मोहनम् । इरुङ्गोळ-वळ-जळधि-कुम्भ-सम्मवम् । हत-महाराज-वैभवम् । दळितादियम-राज्य प्रभावम् । कदम्बवन-दावम् । चेगिरि-वळ काळानळम् । जयकेगी-मेवानिळनेन्दिवु मोदलागे समस्तप्रशस्ति-सहितम् । तळकाडु-कोड-नङ्गलि-गङ्गवाडि-नोळम्बवाडिमासवाडि-हुलिगेरे-हलसिगे-चनवसे-हानुङ्गल्लु-नाडु-गोण्ड त्रिभुवनमल्ल भुजबळ चीर-गङ्ग-होय्सकदेवम् ॥ निरुपमिताङ्गिय रुचिर-कुन्तळेय नुत-मध्येय मनो-। हरतर-काञ्चिय धृतसरस्वतिय विलसद्विनीतेयम् । स्फुरदुरु-कीर्तिमन्मधुरेय स्थिरवागिरे तन्न तोलोनोल्द् । इरिसिदनुराङ्गनेयनप्रतिम विभु-विष्णु-भूभुजम् ॥ तदीय-पाद-पद्मोपजीवि । निरन्तर-भोगानुभावि । जिनराज-राजत्घूजा-पुरन्दरम् । स्थैर्य-मन्दिरम् | कौण्डिन्यगोत्र-पवित्रम् । एचिराजप्रिय-पुत्रम् । पोचाम्बिकोदारोदन्वत्-पारिजातम् । शुद्धोभयान्वयसञ्जातम् । कर्णाटधरामरोत्तस । दानश्रेयासम् । कुन्देन्दु-मन्दाकिनीविशद-यशःप्रकाश । मन्त्र-विद्या-विकाशम् । जिन-मुख-चन्द्र-वाकू Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिलालेख संग्रह चन्द्रिका-चकोरम् । चारित्र-लक्ष्मी - कर्णपूरम् । धृतसत्य- वाक्यम् । मन्त्रि-माणिक्यम् । जिन-शासन - रक्षामणि । सम्यक्त्व - चूडामणि । विष्णुवर्द्धन - नृप राज्य चार्द्धि-संवर्द्धन -सुधाकरम् । विशुद्ध रत्नत्रयाकरम् । चतुर्विधानूनदानविनोदम् | पद्मावती देवी लब्ध-वर प्रसादम् । भयलोभदुर्लभम् । जयाङ्गना भम् । वीर - भट ललाट-पट्टम् | द्रोहघरट्टम् । विबुध-जन-फ-प्रदायकम् । हिरिय दण्डनायकं । अप्रतिमतेजम् । गङ्ग-राजम् । ४७६ मत्तिन मातवन्तिरलि जीर्ण- जिनालय कोटियं क्रम- । वेत्तिरे मुन्निनन्ते पल-मार्गडोळ नेरे माडित्तवत्य्- | उत्तम-पात्र ढानदोढवं मेखुत्तिरे गङ्गवाडि-तोम्- | बत्तरु- सासिरं कोपणवादुदु गङ्गण-दण्डनाथनिम् ॥ नुडि तोढळाढोडोन्दु पोणईञ्जिढोडन्तेरडन्य-नारियोऴ् । डिगेडेयागे मूरु मरे चोक्करनोपिसे नाल्कु वेडिदम् । पडेयदोडय्दु कूडिदेडेगोगटोडारविपट्ने तप्पि व- । ईडे गडिबेलुवेळु-नरकङ्गळिवेन्दपनल्ते गङ्गणम् ॥ आ-गङ्ग-चमूपतिग । नागल - देवीगमधीत शास्त्र पुत्रम् । चागढ वीर निवियुम् | भोग- पुरन्दरनुमप्प बोप-चमूपम् ॥ परमार्थे विद्वदर्थं तविसदनधन व्यर्थवेन्दत्र्थिसात्र्त्यम् । निरवद्य ज्ञातविद्यं दति रिपु- मनोद्य तिरस्कारिताद्यं । घरे तन्नं कीर्त्तिपन्नं विवुध-ततिगे पोन्न विपश्चित्प्रसन्नं करेदीव बोप्प-देवं समर-मुख दशप्रीत्रनुद्यत्प्रभात्रम् ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हळेबीडका लेख समरायाताहित-क्षोणिभृदतुळबळोद्यानदोळ् पावकानु- । क्रमदिन्दं क्रीडित्तु रिपु-नृपति- शिरः- कन्दुकक्रीडितं तत्समयोद्भूतारुणाम्भो - भरित-समर-धात्री - सरो-मध्यदोळ वि- । क्रम-लक्ष्मी-लोलनोला डुवनेरेद-बुधप्प दण्डेश-वोप्पम् ॥ लोभिगळं पोलिपुदे य- । शो-भाजननध्प बोप- दण्डेशनोटिन् । ई-भू-भुवनदोळाहा- । राभय-भैषज्य - शास्त्र दानोन्नतियिम् ॥ ४७७ तदीय-गुरु-कुलम् ॥ गौतम गणधररिन्दा-यात- परम्परेय कोण्ड कुन्दान्चय-वि-ख्यातमलधारि-देवर । पूत- तपोनिधिगळा - मुनीश्वर - शिष्यर् ॥ श्री-राद्धान्तसुधाम्बुधि- पारग-शुभचन्द्र-देव-मुनि पर्व्विमळा- चार-निधि-गङ्ग-राजन | धीरोदात्ततेयनान्द बोप्पन गुरुगळ् ॥ जिन-धर्म्म- वनघि-परिवर्द्धनचन्द्रं गङ्ग-मण्डलाचार्य्यर्-पावन-चरितरेन्दु पोगळ्वु [दु] जनं प्रभाचन्द्र-देव-सैद्धान्तिकरम् ।। इवप्प-देवन देवतार्च्चन- गुरुगळ् ॥ जळजभवङ्गविन्तु वरेयल् कडेयल करुविट्टु गेय्यल - । वेनिपुद तोळप वेलिय- बेने पोल्वुद जगत्- | तिलक मनी - जिनालयमनेत्तिसिद विभु चोप्प - देवन- । गयि राजधानिगळोळोप्पुव दोरसमुद्र - मध्यदोळ् ॥ गङ्ग-राजने परोक्षविनयवागि देवर्गे । सासिर देवत्तैन -ला-शकनद्व प्रमादि - माधव - बहुळ । श्री-सोमज - पश्चमियो-कैसेने बोप्पं प्रतिष्ठेयं माडिसिदम् ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह प्रतिष्ठाचार्य्यर् श्री-नयकीर्त्ति - सिद्धान्त - चक्रवर्त्तिगळ् || भ्रान्तिनोळेनो मुन्नेगळ्द चारण-शोभित कोण्ड कुन्देयोक् । शान्त-रस-प्रवाहवेसेटिपिनविद्द मुनीन्द्र - कीर्त्तिया - | शान्तत्रनेण्डितन्तत्रर सन्ततियो नयकीर्त्ति - देव- सै- । द्धान्तिक - चक्रवर्त्ति जिन - शासनम बेळगल्के पुट्टिदं || श्री - मूलतंघट देशिय - गणद पुस्तक-गच्छद कोंडकुन्दान्वयद हनसोगेय बळिय द्रोहघरट्ट - जिनालय [म्]-प्रतिष्ठानन्तर देवर शेपेयनिन्द्रर् कोण्डु-पोगि विष्णुवर्द्धन- देवर्गे वङ्कापुरदोळ् कुडुवबसरदोळ् । कवियेरिंगेन्दु वन्दा-मसणनसम - सैन्यङ्गळ विष्णु - भूप । तवे कोन्दा प्राज्य- साम्राज्यमनतुळ-भुजं कोळवुद पुट्टिद भूभुवनक्कुत्साहमागुत्तिरे बुध-निधि लक्ष्मी-महा-देविगागळ् । रवि-तेज पुण्य-पु दशरथ नहुपाचार - सार कुमारम् ॥ भूभृत्-पति-मद-करि-हरि - शोभास्पद नचळता - समुत्तुङ्ग श्री- । प्राभवनुदिताखण्डळ-वैभवनेम् गोत्र - तिळकनादनो पुत्रम् ॥ अन्तु विजयोत्सवमु कुमार-जन्मोत्सव मुमागे सतुष्ट-चित्तनागिर्द विष्णुदेवं पार्श्व- देवर प्रतिष्ठेय गन्धोदक- पगळं कोण्डु बन्दिर्द्दिन्द्ररं कण्डु बरवेन्दिदिरेहु पोडे गन्धोदकमु शेपेयुम कोण्डेनगी- देवर प्रतिष्ठेय-फलर्दि विनोत्सव कुमार-जन्मोत्सवमुमादुवेन्दु सन्तोप - परम्परेयनेग्दि देवर्गे श्री- विजय पार्श्व - देवरे व पेसरुम कुमारंगे श्री विजय - नारसिंह देव नेम्व पेसरुमनि कुमारगभ्युदय निमित्तमु सकळ - शान्त्यर्थमुमागि विजयपार्श्वदेवरचतुर्विधति तीर्थङ्कर त्रि काल - पूजार्चनाभिषेकक्कमी बसदिय खण्डस्फुटित जीर्णोद्धारणकं जितेन्द्रियरप्प तपोधनराहार- दानकं आसन्दि Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हळेबीडका लेख ૨૦૧ नाड जागल्लुमं वसदियिं वडगण वेनकन गण्ठेयदि मूडलु राज - हस्तदल् नूरेण्भत्तु-हस्त-प्रमाण-भूमियोदैिरडु केरियुमनल्लिन्दाग्नेयद गोण्टिनलि नट्ट कल्लिन्दिर्व्वङगलागिर्द्देरडुं केरियुं तेल्लिंगरिप्पतोक्कलवनल्लिं पडल् माधवचन्द्र-देवर वसदिवरविह केरियुमनल्लिं पडुवण हिरिय - दण्डनायकर मनेमिं पडुवल तेक देय राज-वीथिय मूडण वेलहूर केरिय हित्तिल् मेरेयागिर्ह भूामेयुमनल्लि वडग शिरियगडिये गडि आसिरियगडिय मूडण-कडे यरडङ्गडियु । जावगल्लु-सीमे ( आगेकी ५ पगो सीमाकी चर्चा है) इन्ती-स्थळविनितुमं श्री विष्णुवर्द्धन होय्सळ-देवं श्री-विजय-पार्श्व-देवर्गे धारा-पूर्वकं माडि कोट्टम् (वे ही अन्तिम श्लोक ) विदिताशेप-पदार्थ-नूत्न-विजय - श्री पार्श्व - देवोल्लसत्- । पद - पूजा - निचयके दान-महित केयू गद्देय पुण्य- वी - | जट पेचि नित्रासम सकळ भव्याम्भोजिनीभास्करम् । मुदर्दि तेल्लिंग -दास गौण्ड - विभु को सन्ततं सल्विनम् || इदनूर्जितमेने नीग्मा - | पुदेन्दु तेल्लिगर दास-गावण्ड पु- । य-देव- पूजाकर- शानू । ति-देव-विभुगमळ -वारि-धारेयनित्तम् ॥ दासगौण्डनहल्लिय कुम्वार - गडद केळगण - मडुविन मोहमेडिवेयल मूवत्त- कोळग-गद्दे आ-यरडु-को "" नडुबण एरेय-के युद्धनितु मूडलु ताव - रेयकेरे हडुवलु होल सीमे गडियागिह भूमियुद्धनितुमं तेल्लिगर - दासगावुण्डनुं राम-गावुण्डनु उत्तरायण सक्रमणदल श्री विजय-पार्श्वदेवरष्ट-विधानेगे सर्व्ववाधा - परिहारबागि पूजकर शान्तय्यङ्गे धारा - पूर्व्वक कोदृरु ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - शिलालेख संग्रह आरुं पोल्वरे युद्ध-दैत्य-विजय - श्री पार्श्व-भट्टारकोदार-श्री-पद-पङ्कज-भ्रमरन सौजन्य - वाक्- सारनम् । सारोदार जिनेश्वराचैन - नियोगोद्योग - विश्रान्त... | .... श्री - वधु -कान्तनं पृथुल - कीर्त्याशान्तन शान्तनं ॥ श्री विजय पार्श्व देव वि जावगल गङ्गऊरदलि खण्ड- स्फुटितजीर्णोद्वारके जावगल्लु । रङ्ग-भोगद विद्यावन्तरिगे गङ्गऊरु । श्रीमन्नयकीर्त्ति - सिद्धान्त - चक्रवर्त्तिगळ शिष्यरु नेमिचन्द्र पण्डित - देवर श्री-मूलसघद समुदायङ्गळु अवर शिष्य - सन्तानगळे ई-धर्म्मवना-चन्द्रार्कतारंबरं सलेसुरु || ૨૮૦ [ जिनशासनकी प्रशंसाके बाद पार्श्व- जिनेश्वर का माहात्म्य । होय्सल राजाओं के वशकी परम्परा ब्रह्म-अत्रि-सोम पुरुरव आयु नहुष-ययाति-यदु, जिसके वंश में सल उत्पन्न हुआ। जिस समय, सलके राज्यकी समृद्धिके लिये, कोई जैन- त्रतीश मन्त्रोंare raagrat पद्मावती देवीको वशमे कर रहा था, एक चीतेने उछल कर आक्रमण किया, चीता इससे उसकी सिद्धि भंग करना चाहता था । उसी समय योगीश्वरने अपने चामर ( या पंखे ) की मूठको पकडकर कहा 'पोयू सल' (सल, मारो ). इतना उनके कहते ही उसने निडर होकर उसे मार दिया; उस समयसे यदु राजाओंका नाम 'पोयसळ' पड गया और उनके झण्डेवर चीतेका चिह्न फहराने लगा । उस 'यक्षी' के प्रसादसे ऋतु वसन्त हो गई और उसी ऋतुके नामसे राजाने उसका 'वासन्तिका' देवीके नामसे पूजन किया । + उसी वशमें विनयादित्य उत्पन्न हुआ । उसका पुत्र एरेयंग था । उससे एचल- देवी के द्वारा, ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी तरह, बल्लाल, विष्णु और उदयादित्य उत्पन्न हुए । इन सबमे विष्णुका नाम सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हुआ । ( उसकी दिग्विजयका वर्णन, उसकी प्रशंसा ) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हळेबीडका लेख (उसके पदों और उपाधियोंका वर्णन) उसने तलकाहु, कोङ्ग, नङ्गलि, गनवाडि, नोळम्ववाडि, मासवाडि, हुळिगेरे, हलसिगे, वनवसे और हानुझल्पर अधिकार कर लिया था । इतना ही नहीं, बङ्ग, कुन्तल, मध्यदेश, काञ्ची, विनीत और मधुरा (वर्तमानका मदुरा) ये सब उसीके मधीन थे। . .. तत्पादपद्मोपजीवी पुराना दण्डनायक गणराज था। (उसकी बहुत-सी उपाधियोंका उल्लेख) उसने भगणित ध्वस्त जैन मन्दिरोंका पुनर्निर्माण कराया। अपने अनवधि दानोंसे उसने गङ्गवाडि ९६००० को कोपणके समान चमकावा | गंगकी रायमें सात नरक ये थे:-झूठ बोलना, युद्धमे भय दिखाना, परदारारत रहना, शरणार्थियों को शरण न देना, अधीनस्थोंको अपरितृप्त रखना, जिनको पासमें रखना चाहिये उन्हें छोड देना, और स्वामीसे द्रोह करना । गंग-चमूपति और नागल-देवीसे बप्प-चमूप उत्पन्न हुआ । (उसकी प्रशंसा)। उसका गुरु-कुल-गौतम गणधरकी परम्परामें विख्यात मलधारिदेव हुए, जो कुन्दकुन्दान्वयी थे। उनके शिष्य शुभचन्द्रदेव बोप्पके गुरु थे । गंगमण्डलाचार्य प्रभाचन्द्र-देव-संद्धान्तिक उसके पूजनीय गुरु थे। यह जिनमन्दिर-जिसकी शोभा रजतमय कैलाशके समान थीवोपदेवने दोरसमुद्रके वीचमें बनवाया । गङ्गराज (अपने पिता) की मृत्युके स्मारकमें (उक्त तिथिको) बोपने मूर्तिकी स्थापना की, प्रतिष्ठापक नयकीर्ति सिद्धान्त-चक्रवती थे। (उनकी प्रशंसा)। श्री-मूलसंघ, देशियमाण, पुस्तक-गच्छ, कोण्डकुण्डान्वय तथा हनसोगेचलिके इस द्रोह-घरह (पाप-नाशक) जिनालयकी स्थापनाके बाद, जिस समय पुरोहित (इन्द्रलोग) चढ़ाये हुए भोजन (शेष) को विष्णुवर्द्धनके पास वसापुर ले गये, उस समय राजा विष्णुने मसणको, जो अपार सेनाके साथ उसपर टूट पडा था, हराकर मार डाला, तथा उसका सारा साम्राज्य जब्त कर लिया, और उसी समय (रानी) लक्ष्मी-महादेवीके एक पुत्र उत्पन्न हुमा, जो गुणोंमें दशरथ और नहुपके समान था, (अन्य प्रशंसाएँ), तब शि० ३१ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ जैन-शिलालेख-संग्रह राजाने उनका स्वागत कर प्रणाम किया तथा यह समझकर कि इन्हीं पार्श्वनाथ भगवानकी स्थापनासे उसकी युद्ध में विजय तथा पुत्रोत्पत्ति तथा सुख-समृद्धि हुई है, उसने देवताका नाम विजयपाच तया पुत्रका नाम विजय नारसिंह-देव रक्खा। __ अपने पुत्र की समृद्धि तथा विश्व शान्तिको बढ़ानेके लिये उसने भासन्दिनाड्के जावगळ्का इस मन्दिरके लिये दान किया । और भी (उक्त) बहुत से दान दिये। तेली दासगौण्डने भगवान के लिये पुरोहित शान्ति-देवको भूमि-दान किया । पार्श्व-जिनकी अष्टविध पूजाके लिये दास-गौण्ड और राम-गोण्डने 'उत्तरायण संक्रमण के समय (उक्त) दान दिये । शान्तिकी प्रशंसा। नेमिचन्द्र-पण्डित-देव इस कामकी व्यवस्थापर रक्खे गये । ये नयकीर्तिसिद्धान्त-चक्रवर्तीके शिष्य थे।] [EO, V, Belur tl., n° 124 ] कोल्हापूर-संस्कृत [११३५ ई० (फ्लीट)] मूल लेख अक्टूबर १९०० ई० तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ था, ऐसा मि. जे. एफ फ्लीटका कहना है । उन्होंने जो इस लेखका उल्लेख या संकेत किया है वह एक पाण्डुलिपि परसे किया है। [यह लेख १५३५ ई० का है और कोल्हापुरमें पाया गया है । इसमें व वाया गया है कि कवडेगोल्लुके सन्तेय-सुदगोडेमें 'महासामन्त' निम्बदेवरसके द्वारा निर्मापित एक जैनमन्दिरके मूलनायक पार्श्वनाथ भगवानको कुछ स्थानीय महसूलोंका दान किया गया । लेखमें ७ व्यकि तथा उनके स्यानो नाम दिये हैं जिन्होंने दान किया था । यह दान कोल्हापुरकी रूपनारायण 'वसदि के आचार्य श्रुतकीर्ति त्रैविधदेवके लिये किया गया था। इस लेखमें 'कुण्डिपट्टन' नामके नगरका उल्लेख है। इस नगरके नामले देशका नाम भी वही पड गया था।] [IA, XXIX, P 280, .] Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 इस अनुक्रमणिका जैन मुनि, आर्यिका, कवि, संघ, गण, गच्छ, ग्रन्य तथा राजा, रानी, गृहस्थों और सब प्रकारके स्थानोंके नाम समाविष्ट किये गये हैं । नामके पश्चात् के अंक लेख नम्बर समझने चाहिये । अ [ कक ] अकलक अकालवर्ष अक्षपाद अंग अदेव भटार अङ्ग अचलदेवि अनुक्रमणिका । [ विशेष नाम-सूची ] ४४ | अनन्तकीर्तिदेव २०७,२१३,२१४,२१५, अनन्तपाळय्य अजितसेन भट्टारक अजनन्दि अडकल अत्तिकाम्बिका अत्तिलिनाण्डु अदरादित्य afteछात्रा अचला अजितसेन अजितसेन देव २१४ अजितसेनपण्डित १६८, २४८, २६६ | अव्वलब्बा अजितसेनपण्डितदेव २२६ / अन्य अवरसेन ૨૮ २१७,२७७ | अनन्तवीर्य २१३,२६४,२६७,२६९ ९५,१२४,१२७ | अनन्तवीर्य्यसिद्धान्तकर २७७,२९९ २१५ | अनन्तवीर्य्यय अनवद्य-दर्शन २ १९३ | अन्दरि (नगर) २८८ | अन्दरि-आलत्तूर २१३ | अन्धकासुर ७३ अन्धासुर २१५,२३१,२७४ | अन्ध्र १३४, १३५, १४४ अव्वलदेवि २२४ अभणन्दि (अभयनन्दि ) अभयणन्दि- पंडित - देवर अभिनन्दनाचार्य १८६ अभिमन्यु १४४ | अभिमानदानी २०८ २४३ अमळचन्द्र ७ / अमोघवर्ष १५४ १४५ १२१,१२२ १४२ २१३ २१३ ३०१ २१३ १४२ २७३ २२८ ९५ १५० २१३ २२८ २६९ २२४ १२७,१४२,१८२ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮૪ ५२ अय्यप अग्यपोटि १५० अमोहिनि । ५ अर्यनन्दि अम्बलिमण्णु ___९५ अर्यवेरिअम्मराज १४३, १४४ अर्यशिरिकी (संभोग) अयस [] मि [क] .. . .६३ अर्यक्षेर अयहाहि [कुल] - ८० अयंगरिक अयोध्यापुर २७७ अर्य-[ दत्त] अय्यणचन्दरसङ्ग २१३ अर्यदेव अय्यभिरत्त [[अ] यंपाल अय्यवेरि (शाखा), अ[>मि ] [हि] लो] १४४ अयंसीह __. . १४४ अर्यहाटकिय - १७ अरकमहळ्ळी १८९ अर्हणन्दि १४४,१६०,२०५ अरफेरे अर्हद्भक्त अरट्टि अर्हद्वलि २७७ अरसय्येगन्तियर अर्हनहळ्ळि -२८४ अरसायं अलताक (नगर) १०६ अरसर अवन्ति २१७ अरसिकन्चे १९८,२६४ अवरवाडि १२७ अरह अविनीत ९५,१२१,१२२,१४२,२१३ अरिष्टणेमि अविनीत-गङ्ग २७७ अरुसळ, १८८,१८९,१९०,१९२, | अश्वपति ___ २०२,२१५,२१६,२४८,२८८ अष्टोपवासिगन्ति २१० अरुमुळिदेव . २१३,२४८ अष्टोपवासिमुनि २६९ अरुमोळि ... १७१ असा अर्ककीर्ति १२४ अहरिष्टि १०४ अर्जुनभूपति २२८ अहिच्छत्र-पुर २७७,२९९ अर्जुनवाद (ड) १०६ | अळवनपुर २९९ अम्मोनिदेव १६० ) अळचपुर १४२ २३४ १३७ २२४ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनलारु २७७ १०७ एकदेव २६९ १६४ उदयराज २२८ | एरग २३७,२७७ उदयादित्य २०७,२६३,२९९,३०१ एरेगित्तूर १२१ उदयाम्बिका २४३ | एरेनल्लूरा १२१ १२७ | एरेय २६७ उमुकिदेवन २१३ | एरेयग २१३,२१८,२७७,२९९ उम्मलियब्वे २१९ एरेय उरनूरार्हत (आयतन) एयज्ञ २६३ उनी तिळक एरेयप्प-रस १३८ रेथ्य १०९ ऋषभ एळगामुण्ड एळाचार्य २४१ १४९ एळे (रे) गङ्गदेव १४२ एकवीर एळेव-बेडग एकसन्धि भट्टार २१३ एकलरस-देव २९१ ऐरावत एचल देवि १९२,२१८,२६३,२९९, ३०१ २७४ एचिराज ओखारिका एखलदेवि [ओ] घ एडदोरे ओडेयदेव २१४,२१६,२४८, एडय्य ओहग २१३,२२६ एडेमले ओहमरस एडेहळि ओहविपैय एदेदिण्डे (विपय) ओहिटगे १२७ एरकगं २५३ ओद (शाखा) एरकाहिसेहि २१८ ओहमरस एरकोटि १२७ / ओहनदि एचले ओखा ८८ २१३ १२३ ७६ ४७-८ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ ५७ २३५ rommmmm कवि १४३ | कनकनन्दिपण्डितदेवर २८० कनकप्रभदेव ककसपत्त कनकप्रभसिद्धान्तदेव २३७ ककुम कनकसेन १३७,१३९ ककराज कनकसेनदेव २१४ कनकसेनपण्डितदेव कनकसेनभट्टारक कञ्चयगर करकगिरिय-तीयं कच्छेयगड १४२ कनकपुर कचरसस्संगो गा १८२ कनियसिका (कुल) कवरिगुण्ड १४४ कनिष्क १९,२५ कालदेवि २१३,२७७,२९९ कान्तियर-नाकय्य २१० २६३ कन्दवर्ममालक्षेत्र १३७ कटकराज १४३ कन्दुकाचार्य २१३,२४८ कटकाभरण (जिनालय) कन १३०,२०५,२२७,२९९ कणिष्क कनकर कण्ठिका १८६ कम्णेश्वर २०४ कण्हबेना कन्नमुझे कदम्ब (कुल) ९५,९७,९८,९९, कनर-देव १००,१०१,१०४,१०५,१०८,११४ कन्नरसान्तर २१३ १२९ कन्याकुब्ज २१३,२१९ कदम्ब-दिसायर २४९ स्मलदेव १२८ कदम्मा (म्बा) कमळभद्र कनक (कुल) २७७ कनकचन्द्र कम्मनाण्ड १४३ कनकनन्दि २७७ कनकनन्दि-त्रैविद्य करण्डिग १०६ कनकनन्दि-विद्य-देव २५१ 'करदूपण १४३ कन्नडिगे १२४ कनपार्य २७७ १४० २१३ १४६ २९९ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० १४३,१४४ १७० १४४ २६९ १७९ कईमपटि १७ २१९ कर्पूरसेटि कर्मगलूए कर्मटेश्वर १०७ २५३ १४३ २१३ कसुथ करहड १८६ / कलिविट्टरसर करहाट २०४ कलिविष्णुवर्द्धन कर १२७ / कलुकरें-नाइ काहस्थ ५८ कलचुम्बर कर्णाट ३०१ कल्नेके (१) देव कल्नेके देवर कर्नाट कर्पटि कल्वप्पु तीत कल्याण कल्याणपुर कल्पकुरु कल कविपरमेष्ठिखामि कलञ्चुरि कश्शपीय कलसराजा कलाचन्द्र-सिद्धान्त-देव कस्तूरि-भट्टार कलि गंग देव कळपाळ कळंबूरु नगर कलिगत भूपति कळम्बडि २१९ कलिग कलिङ्ग कलिंग १०६,१०८ क्येळेयब्बरसि कलिंगजिन कळालपुर कलिङ्ग २१७,२८८,२९९ क्षेम कलिङ्ग-देश कलिदेव २१७,२२७ काकुस्थराज कलिया २७७ काकुत्सवर्मा कलिया देव २५३,२९९ काकुस्थवर्म कलिया-नृप २५३ काकेयनूर कलियर महिशेष्टि २९९ / काकोपल कलि-रक्कसभा २६७,२९९ / काणि वर्मा २ १८३ कलि गङ्ग ૨૭ १८६ २०४ का ९९,१०२ ९६ १०० १२७ १०६ १२२ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ २५३ १२२ काचवे २१० काळोज काची ११४,२४८ कागीनाथ २१४ किणयिग (ग्राम) काम्धीपुर १०८,२८८ कित्तवोले १२७ कार्वावर १०१ किन्नरी (क्षेत्रं) १०९ काडवमहादेवि २१३ फिरणपुर १४३ काहवेहि २१३ किविरियथ्य ૧૮૪ काणूरगण २६३,२९९ किश्वेपूर (ग्राम) काण्वायन की ९४,९५,१२१ कीतिवम्मै १०७ कात्तिकेय ११४ कीर्त (ति) नन्द्याचार्य १२१ कादम्ब (कुळ) २०६ कीर्तिवर्मा १०८,११४ कादरूवाल्लि १८२ कीर्तिदेव २०९ कारेय १३०,१८२ कीर्तिनारायण १६४ कारेयवार कीलनाड १२७ कार्तवीर्य १३०,२३७,२७५,२७६ कार्तवीर्यदेव २८० फुफुटासन-मधारिदेव २८४ कार्तवीर्य फुकुम्वाळु (ग्राम) कालवा (ग्राम) हम-महादेवि २१० कालिदास १२० काल्क-देवयसरन् (अन्वय) १४० कुण्डकुन्द (अन्वय) २०९ कावेरि १०८,२७७,२९९, फुण्डकुन्दाचार्य २०९ काश्मीर ૨૮૮ कुनुनिगल (देश) काळ कुन्तलापुर २९९ काळसेन कुन्तळ २०४,२०९,२८० कालिदास १९८ | कुन्तळी ૨૮૮ २१३ काळियक काळिसेटि | फुन्दवैजिनालय १७४ २१९| कुन्दशक्ति काळेयब्बे १०९ २३७ १०८,२१३ फुडलूरद १२४ २२० २१८ कुन्दवाण Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दाचि कुन्दूर (विषय) कुप्पटूर कुबेरगिरि कुब्जविष्णु कुब्ज विष्णुवर्द्धन कुमरमित कुमरय्य कुमार- गङ्ग-रस कुमार गजकेसरि कुमारदत्त कुमारनन्दि कुमारपुर (ग्राम) कुमार चलाळदेव कुमार भट कुमार मित्रा कुमारसेनदेव कुमारसेन देवर कुमारसेन-तिप कुमार - सेनाचार्य कुमारीपवत कुमुदचन्द्र भट्टारकदेव घुम्वयिज कुम्वशिक कुम्बसे पुर कुम्मुदवाड कुरु कुरळराजिग ४९० १२१ | कुरुळि १०३ | कुरुळियतीर्थ २०९ कुलचंद्र १९८ | कुलचन्द्रदेवमुनि १४४ | कुवलालपुर १४३ २६४२ | कुहुण्डि (देश) २६४ | कुण्डी (विषय) २५३ २४३ [ कू] केक कूण्डि १०० ६४,१२१ ९० २९३ ४२ ४२ | कृष्ण २१४ | कृष्णराज कृष्णवर्म २१३ कृष्णव कृष्णवल्लभ २४८ १३७ २ २४६ २६७,२७७ (कूरगन्पाडि (ग्राम) कूर्चक | कूविलाचार्य | केथगावण्ड | केतलदेविय कू ८२,१३१,१३९,२१९, २५३,२६७, २७७,२९९ २३७ १०६ कृ २९९ २९९ २४५,२८० २०७ s २२८ २२७ १६७ ९९,१०३ १२४ १०५, १४२ १२३,१३०,१४३ ९५,१०५, १२१, १२२ १४२ १३७, १४४ २१९ १८६ २१८ २५१ २ १०६ | केतवेदेवि १४६ | केतव्वे १४६ | केतुभद १८२ केदल १२७ २०४ | केरल १०६, १०८, ११४, १७४,२०४, २६४,३०१. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ १४३,१४४ कोण्डकुन्दाचार्य केशवनन्दि १८१/ कोड शिनाड केसरिवर्म १६७ कोडो १४० केसवदेव कोडनपूर्वदवलि (ग्राम) २९२ केळ्यबरसि २९९ कोण्डकुन्द (अन्वय) ९५,१२२,१२३, केळेयब्बरसि २१३ १५०,१५८,१६६,१८०,२०४, केळेयन्त्रे २१९ २२३,२३२,२३९,२६७,२६९, २७५,२७७,२८०,२८४,२९४, को [ कु] न्तिदेवी ११८ ३०१ कोविलि २१३,२१४ कोगळि-नाडोळ २४९ / कोण्डनूर २२७ कोहण १०८,२७७ कोन्दकुन्द (अन्वय) १२७ कोड़ २६४ | कोपण-तीर्थ २९९ कोणि ९५ कोप्परकेशरिपन्मरान १७४ कोगणिवर्म ९४,१३१,१४९,१५४, कोमरन्चे (ग्राम) १०६ कोजाळव १८८,१९० | कोमर-वेडे १४२ कोड । २९९,३०१ कोमारसेन-भधारर १३८ कोढुणि .. १८२] कोम्मराज १८६ कोडणिवर्म ९०,१४२ कोयतूर २६३,२९९, कोगोळ २६४ कोरप २६४ कोछि कोरिकुन्द (विषय) कोटिमडवगण १४३ कोरूकोलनु १४४ १७४ कोलनूर १२७ कोहसे १२७, कोलनूरात १२७ कोटिय (गण) ३५,५५,५६,५९,६८, कोल्लगिरि २८० ७०,७४,९२, कोल्लविगण्ड १४४ कोष्टिया (कुल) १८,१९,२०,२२,२३, कोल्लापुर __ २५,२९,३०,३१,४२, कोविराज केसरिवर्मन् १७१ ५४,६० कोशलैनाडु कोडनाळ १८४/ कोशिकि ९४ कोहन २८० १७४ ७१ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ १९ कोसल -१०८ गङ्गण - ३०१ कोळालपुर १५४,२०७,२५३,२७७ | गजदत्त २७७,२९९ कोळ्ळिप्पाक्कैयु १७४ गङ्गदासि-सेहि २४२ कौण्डिन्य ३०१ | गन नृप २१९,२५३ काणूर (गण) २०९,२१९,२६७, गापेम्माडि १४९,२१९ २७७,२९९ गडपेर्मनाडि २१५ गजमण्डल . १२२, १४२ खचर-कन्दर्प-सेनमार | गङ्ग-महादेवि २१९,२२२,२५३, खर्ण २६७,२९९ खस २०४ गङ्ग-मादेवि २५३ खारवेल २ गहमालच २१३,२७७ खुडा १९ गयरस २५३ खेटग्राम ९६,१०० गङ्ग-राज २६३,२६६,२६९ [खो] मि [त्त] गङ्गवळ्यि হয় २१३ गह [प्र] कि [व] ३७ गङ्गवाडि (गंगवाडि) १२७,१८२, १४३ २५३,२६४,२६७,२७७,२८४, गंग-नारायण १४२ २९९,३०१ गंगपेमनडि १७२ गङ्गहेरूर २७७,२९९ गंगमण्डलेश्वर १७२ गङ्ग-हेाडि-देव २९९ गंगर-भीम २१९ गयि १६७ गंगराज (कुल) गजसेलेय चाड (गझवाडि) २१९ गण ( उदार) गङ्गा १२३,१८२,२०४ गणधर गा (कुल) ९९,१३८,२१३,२९९ गणपति १२७ गाकन्दर्प १४९ गणिशेखरमरुपोरियन् गङ्ग-कुमृत कुमार २९९ गण्ड-नारायण सेट्टि गह-कुमार २१८ गा-गाजेय - १४२ गण्डरादित्यदेव २५० ग गंगकूट १ १२३ २४८ १७१ २९९ गण्डरादित्य Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ २९३ १४४ गण्डविमुकसिद्धान्तदेव २९३ गुणसेन २०२,२१३, गन्धिक ४१ गुणसेन-पण्डित १७७,१९२ गवंद-गंग २६७ गुणसेन-पण्डित-देव १८८,१८९, गलिङ्ग-नांग २७७ १९०,१९१,२०१,२०२ [ग]गवाडि २९७ गुत्ति गवद-गह २७७ गुत्तिय-गङ्ग २६७,२७७,२९९ गाढक २३ गुम्सिमिय गागी १४१ गुर्जर १०८ १२३,२८८, गान्धारी देवी २१३, २१९ गुल्हा २३ गामण्ड २२७ गोग्गि २१४,२१६ • गावव्वरसिं २१३,२४८ गोग्गिग २१३,२१४ गिवसेन ३६ गोग्गि-नृप गुजण २१९ गोग्गियोडुग २४० गुहम् २७७ गोग्गै-देव २५३ गुडिगेरे २१० गोक गुडिवयल गुणकीर्ति गुणकीर्तिदेव १८९ गुणग-विजयादित्य १४४ गोणसेन-पण्डित-भट्टारकर गुणचन्द्र १०६,३०१, गुणचन्द्र देव गुणचन्द्र पण्डित-देव २७७ गोती गुणचन्द्रभटार १५० १ गोदास गुणणन्दि ९५ गोपाली गुणदुत्तरङ्ग १४२ गोरधगिरि गुणनन्दि-देव २६७,२७७,२९९ गोल्लनिगुण्ठ गुणभद्रदेव २१७ गोव गुणवीरमामुनिवन् १७१ गोवपय्यन् १९९. २८० १९७ गोकन १३० गोटिक १८२ गोडल १५४ ९५ गोण्ड २६७,२९९ गोतिपुत्र Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोवर्धन १७४ गोविन्दर २७७ २४३ १२२,१२३ २४८ २०४ ___ २४८,२९९ १३४ घोषको गोविन्द १२७,१४४,२१३, २१९,२४८ चक्रगोट्ट गोविन्दचन्द चदणन्दि चङ्गाल्व २४१ गोविन्दर २१४ चलाळ्वतीर्थ २२३ गोविन्दरस चटयं गोविन्दराज १२४,२०४ चलदेवि २१३,२१४,२१५,२१६, गोविन्दराजदेव गोगर्म चले २१३ -गोष्ट चडोभ ૨૨૮ गोळ्यय्यन (वसदि) चन्दणन्दियव्यन् १५४ गौड चन्दल-देवि गौडिके चन्दबुर-पन्द-वल्लि (ग्राम) १०६ गौतम चन्दिकच्चे १६० नहीं चन्दिमव्य २३०,२९९ [ग्रह चन्दियब्वे-गावुण्डि १८३ ग्रहदत चन्द्रकीर्ति २१२,२२७,२८० नवल चन्द्रकीर्तिवाति ग्रहमित्रपालित चन्द्रकीर्तिभट्टारक २४१ ग्रहशिरि ४०१ चन्द्रमान्त ग्रहसेन ३६ चन्द्रगुप्त ग्रहहय ३७ चन्द्रनन्दी ९४,१२१ चन्द्रप्रभ-सिद्धान्त-देव घकरव ५२ चन्द्रार्य 'घटिकाक्षेत्रम् १०९ / चन्द्रिकाम्बिका १४५ घस्तुदस्ति चाकिराज १२४ १२७ चाकिसेट्टि २८८ ___ २३९ سه ५७,५० १३८ ध २८६ १३७ वोर २१८ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ २१३ २६७ १ १८ २१ २४१ चोळप २२५ १४४ बागल-देवि १९८ | चिक-वीर-शान्तर ! २१३ चागि २१३ | चिण्ण २९३ रागि-समुद्र | चित्रकूट २७७,२९९ चागिसान्तर चीरे चाङ्कणार्य चुच्चेवायदाङ्ग वाकिमय्य चुलुक्य १०८ चाङ्गळ (वसदि) चेटिय चाशिराज चेतराज चाणक्य ५१,१०६, चाण्डराय १८ चोक १७०,२१३,२९३, चान्द्रायणदभटार चोल १०६,१०८,११४,१७१,१७२, १५० चान्द्रायणीदेव २०४,२९७,३०१, चामण्ड चौण्डसे २६४ चामराज चामलदेवि जकवे २९४ चामुण्डपै २१७ चामेकाम्बा १४४ जकय्य २३६ चालुक्य १०६,१०८,१०९,११४, जकि १९३ १२२,१२३,१२४,१२७,१४३,१४४, जक्यिन्ने १४०,१८३,२१३ १६०,१८६,१९८,२०४,२१०,२१७, जकि सेटि २७४ २१८,२२७,२३७,२६७,२९९ जविलियोळ १४० चालुक्यमीम १४३ चालुक्य-विक्रमादित्यदेव जगत्तुंग २७७ चावण जगत्तुङ्गदेव १२७ चावुण्डमय्य जगदुत्तरङ्ग चिनकूटान्नाय २०८ जगदेकमलदेव २०४ चिर्दै | जगदेकमलवादिराजदेव २४८ चिकाये १३७ । जजाहुवि १८१ १७४ जब्बे २८८ २१७ २१३ २१३ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ 10 जयकर्ण २२७ २४ ९५ जिनदत्त जयदास ३५ / जाकलदेवि २१३ जभ [क] | जाकियब्वे-गन्ति १८५ जम(व)म्म जान्हवेय (कुल)) ९४,९५,१२१ ज[-मित्र] मायस' २२८ जम्बहळ्ळि जाया ३६ जय जालमंगल १२४ जासूक २२८ जयकीर्ति जयकीर्तिदेव | जिहुळिगे १८१,२१७ जयकीर्तिमुनि २४० जितसेनपण्डित २१३ जयकेशि २१३,२७७,२९९ जितामित्रा ४१ जयज्ञोण्डचोळमण्डल (विषय) १७४ | जिनचन्द्र १८२ जयणन्दि १९८,२१३,२४८ जिनदत्तराय १४६ जयदुत्तरज जिनदसि जयदेव २२,४४,१४९,२२८ | जिनदास जयदेवपण्डित जिनदासि जयनाग जिननन्दि १०६,१४३ जयभट्ट जिवनन्द्याचार्य १०६ जयभ[टि] जिनवर्म १८६ जयभूति जीवदेव जयवर्म | जीवा जयवाल जूजकुमार २४३ जयसिह १०६,१४३,१४४,२१३ जेष्टहस्ति २२,२३ जयसिंहवल्लभ १०८ ज्येष्ठलिङ्ग (भूमि) जयसिङ्ग १७४ जयसेन १२ | ठानिया (कुल) २९,३०,४०,६८,७९ जण २४ जसहितदेव १२१ ढुक २१९ १०९ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९७ १७४ गन्दि [आ] वर्त गेडेहळ्ळि २९९ २६३ १३९ २१३ | तिनगर तिप्पण-भूपति २५३ तिप्पूर तिप्पेयूर १७४ तियगुडिय १४२ तिरुनन्द तिरुप्पानमलै २१३,२६७,२७७ तिरुमल १७४ तिबुळ (गण) १४९ तीर्थदरगळ ( अन्वय) तील्हण तकणलाड तापुरी तटेकेरे तडजाल-माधव तण्डयुत्ति तपसीग्राम तर्द्धवाडि २१९ १७४ १६७ १७४ १९० २१३ १८६ तलकाडु तुगभद्रा तुरष्क .५० २२८ २५३ १२३ २०४,२८८ ३०१ तलवनपुर तलेकाड तले-कावेरि M तलेयूर २८० तेरिदाळ [ते] सनंदिक । ३०१ तेवणी २३२ तेल ९५ २९९ तेलहदेव तैलपदेव २१३,२१४,२१६,२४८ १६०,२१३,२४८ २१२ २४८ १४४ ने तळकाड तळताळ (वसदि) तळवित्ति 'तळेकाडु तातविकि तालनृप तालप तालराज तालिखेड ताळकोल (अन्वय) तित्रिणीके तित्रिणिक (गच्छ) शि० अ० ३२ १४३ तैल्पदेव १४४ तोण्ड २१३ १४३ . तोण्ड-मण्डळिक १२७ तोद २०४ तोरणाचार्य २०९ तोलापुरुष २६३ तोलडि २४८ २६४ १२२,१२३ १३२,१४५ २४१' Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० धनहाय धम्मबुरम् धर्म धर्मनन्द्याचार्य ६८ [न] न्दि १४३ । नन्दिगच्छ ५० नन्दिगण १०५ नन्दिघोष १०४ नन्दिगि (ग्राम) नन्दिप्पोत्तरग १४३ नन्दिवर्मा नन्दिसर १२१,१८८,१८९,१९०, १८९ १९२,२०२,२१६,२८८. २१३,२१५ ८१ धर्मकीर्ति न धर्मपुरी ११५ ११२ १३ नन धम्मवृद्धि धर्म-रोहि धम्मसोमा धवलजिनालय चवळ (विषय) धामघोषा वाम [ था] घारागज २०५,२३७ १७४ नन्नप्पयन् १३७ / नन्नि-वगाव-देव १९५,१९६ १२ ननियाग १४२,२६७,२४७ ननियगह-पेम्माडि २२२,२६७,२७७ ११ ननियरम-देव १२३,१२४,१२७ / नन्निगान्तर २१३,२१४,२१५, २९९ २१६,२४८, २९७,३०१ २२७ धारावर्ष धारे २९९ घागराज धुति १४७ नयकीर्ति घोर ध्वजतटाक नयनन्दि नरवर नरनिंग २१३,२६३ नरसिंघदेव नगदत १४२ २९९,३०१ नालि नहळि नजयन नगडवर ऋगि नरसिंह ३०१ / नरिंदो २९९ / नरिन्दक २१३ नरेन्द्रमृगराज १४० नलमार्यन्दम्ब १४३,१४४ ৫ শন नन्दगिरिनाय १५४,२५३,२३७,२७७ | नवकाम १०८ २२४ १२१,१२२,२७७ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवनेदिकुल नवहस्ति नहुष नळ नंदगिरिनाथ नंदराज नाकण नागचन्द्र- चान्द्रायण नागचन्द्र-देव नागचन्द्रमुनीन्द्र नागचमूपति नाग [ण ] न्दि नागदिन नागदिना नागदेव नागदेव्य नागपुर (ग्राम) नागभूतिक्रिया नागरखण्ड नागलदेवि नागव नाग - वर्म्स - पृथ्वीराम नागसेण नागार्जन नागा नागियक्क नाडिक (कुल) नाड़ नाणव्बेकन्ति नादा ५०१ १७४ | [ ना ] दिअ [र] ३६ / नामणैकोण १०८, ३०१ | नारणज ३०१ | नारसिंह १३८ | नारायण २ | नाळ्कोटे २६४ | निगठ २१८ | निडुतद १४५ | निडुम्बरे १८२ | निधियगामण्ड २९९ / निन्नम ११५ निम्मडिवल ३० निम्मडिधोर ३० / निरवद्यधवल १०६, १४२,२६४ निरवद्यय्य १०६ | निर्प्रन्य १४९ | निर्ग्रन्थमहाश्रमण २४ नीजिक १४०, २०७ नीजियच्चरति ३०१ । नीतिमारी १४०,१४२,१८१ | नीतिवाक्य -कोणिवम्मे १२७ नीर्गुन्द नील ४५ १४० | नीलगुन्दगे १३७ | नृप काम २९१ नेपाळ ८२ | नेमिचन्द ३०१ | नेमिचन्द्र १५० | नेमिदेव ८ नेमीश्वरतीर्थ ३५ १७४ ११५ २९९ ९०,९४ १४२ १ १८९ २१३ २२७ २९९ २१८ १५० १४३ १९३ ९९ ९८ १६० १६० १३९,१४२,२१३ २५३ - १२१ १०६ १२७ २१३ ૧૦ ११ २२७,३०१ २९९ २७७ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमेस नेरियो नेहवत्ति नोय नोक्य सेट्टि नोकिय नोटवराष्ट्र नोग नोणम्यवादि नोळवि-सेट्टि नोटस्वादि पंचाणचद पंडराजा पद्मळना पचप्पलि पलदेव पचवमदि पट्टण खामि पद (मदि) पल्वार्दिक (अन्वय) पहिग- देव पटिपोम्बुपुर पटियर-दोरपन्य पडिलगेोरे प पण्डर पण्डित पण्डित पारिजात पतनम् ५०२ १३ | पदिर्कण्डुगं १२७ | पद्म २१९ | पद्मगन्दिविद्धान्तचक्रवर्ति २१९ | पद्मनन्दी १९७,२१२ | पद्मनाभ १९८ १४३ ૨૪૮ २९७ ૨૪ २९९,३०१ पद्मप्रभ पद्मावती पनसवाढि पनसोग पन्तिगणग ११ पन्दङ्गचलि २ पप्पक १४४ पनदि २५३ पर्मनडीय १२१ २१९ २०९ २०९ ९०,९४,९५,१२१,१४९, १७४ | परचकराम १७४ | परमगूळ २१३ | परमेश्वर २१३ | परतूर ( गण ) १९७-२१२ | परिधासिका (कुल) २२२ | परियल- देवि २७७ २२७ १९८,२१३,२४८,२७७, २९९,३०१ २१९ २२३,२३९,२४० १०६ १०६ १७३ १४३ १२१ १९६,२४०,२४१ १०७ ६९ २०१ १७२ १३१ १०५ २१३,२४८ | पर्व्वत १५० पर्श्व १२७ | पलाशिका ९६,९९,१००,१०१,१०२ १०२ १७९ परकीर्ति २१३ | पत्रपण्डित १६० पलव १०३,१०४ २६९ २६९ ९९,१०८, १२१, १२३, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ १३६ योग २१३ भारवि २१४) भावदेव बोप्पय २७७,२९९ बेलगोळ १३० भद्रयश बेलेस १२७/ भरत २७७,२९९,३०१ बेसववेान्ति मवणन्दि बेहेरू १२७, भागवत वेळियूर १३१ भागवे २१७ बेलुगेरे २१८ भानुकीर्ति १५८,२९७ बेलुवलं २९९ भानुवर्मा १०२ बेळगोळ १५४ मानुशक्ति १०४ बोडेयदेवर १०८,२१३ १७३ बोगादि १४२/ भीमसेन १४४,२२८ बोधिनदि ३७ भुजगेन्द्र (अन्वय) १०९ बोप्पण २९१ भुजवळगंग २२२,२५१,२५३,२६७, ३००,३०१ बोप्पवे २१८,२३० भुजवळ शान्तर २१२,२१३,२१४, बोप्पुगन २४८ २१६,२४८ बोम्म २१४,२९६ भुवनैकमल वोम्मरसगौढ २०४,२०५,२०७ १४६ भूकियर-कावण्ण २१० भूलोकमल्लदेवर बह्मजिनालय २९२ भूलोकमल सोमेश्वर २१८ ब्रह्मदासिका १९,२०,२२,२३,३१,३५, भूविक्रम १२१,१२२,१४२,२१३, ब्रह्मसेन भगदत्त २६७,२७७ २७७,२९९ भट्टाकल १७४ भट्टारि (क्षेत्रम्) भटिभव | भोजदेव १२८ भट्टि [ से ] न मंगध २१७,२८८ भट्टिसोमो ९३ मगली (ग्राम) १०६ भद्रनदि १४३ भद्रबाहु १३८,२०९,२१३,२१४ मंगि युवराज १४३ ३६ २७४/ भूशु भोजकर मंगि Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nor महिन्द्रचन्द्रक १४८ मादेय सेनवोव १४५ महिलन २१ माधव ९५,१२१,१२२,१४२,१४८, महीचन्द्र २२८, १४९,२१३,२१९,२६७,२७७,२९९ महीदेव-भटार १९३) माधवचंद्र विद्य-देव १४५ महीपाल १४९,१७४,२७७,२९६ माधवचन्द्रदेव ३०१ महेन्द्रपुर २७७ माधवत्ति १०७ महेन्द्र-बोळ १९३ / माधववर्म ९०,९४ महोत्र(फुल) १३२ माधवसेन-देव १९८ मलिहारि(नदी) २६७ माधव सेन भट्टारक-देव २८६ मारुणचे २६३ मानव्यस (गोत्र ) ९७,९८,१००, माफलदेवि २१८ १ ०३,१०४,१०५,१०६,११४ मागध मान्धात भूप २९९ मापनन्दि २०४,२६७,२७७,२८०, मान्यखेट १२७ २९२,३०० मान्यपुर १२१,१२२,१२३,१२४ माघहस्ति ५५ मायन २६२ माव्यरति २१३ मार १७९,२३१ माचव्य माचवे २१८ मारय्य-माचि देव २१८ माचिसेहि २१८ मारसिंग २१९,२२२,२५३,२६७, माचेय नायक २१८ २७७,२९९ माजक २७३ मारसिंह १२२,१४९,१९६,२१३, माणिकनन्दिदेव २१८ २७७,२९२ माणिक पोसळाचार २०१ माराशन १२३ माणिक्य २१८,२९२/ मारिषेण माणिमोजन २९३ मारे य] मातृदिन २९/मारेयनायक २१८ मानिदिन ३३ / मालव १०८,१२३,२०४,२०८,२८८, मादवे २१८ २९३,२९९ मादिगवुड २७२/ मावण्ण २१८ मारण्य २७६ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ५१३ १५३ १४१ २१३ वासव वजनागरी (शाखा) ८० वादिराज २१३,२१४,२१५,२१६, वजरनय २६४,२७४,२८८ वनणन्याचार्य २१३ वादीभसिंह २१४,२२६,२७७ वजदाम वाया वज्रपाणि पण्डित देव १७९,१८५ वाधर वहरावुळ २४३ वाधिशिव वहाचार्य प्रतिपति २९९ वानसवंश १८६ वतक ५६ वानसानाय ૧૮૬ वत्सराज १२३,१२७,१६. वारणा १७,३४,३७,४१,५८,७६,८० वनवासी १०८,१७४,१८१,२०९ वयरसिंह वारिषेणाचार्यसद्ध १०३ वरण वाल्मीकि ४४,४७,५२ २१३ वरण]हस्ति वरदत्ताचार्य वासन्तिका २१३ २९७,२९९ वासवचन्द्र १४७ वराळ वासा वरण वर्गडे घाचल-देवि वासुदेव ६२,६५,६९,१०७ वासुदेवा वर्धमान ५,८,९,३०,३४,३७,४२,५२ २२७,२६५ वर्म १७४ वलहारि १४४ विक्रम १२२,१४२,२१३,२६७,२७७ वल्लभ १२२,१२३,१२४,१२७,१४४, विक्रमचकि २२७ १४९,२१३,२४८,२७७ / विक्रमशान्तरदेव २१३,२१४,२२६, वसुल २४८ वसुलवाटकं १०३ /विक्रमसिंह २२८ वहसतिमित २,६ / विक्रमादित्य ११४,१३२,१४३,१४४, वागठ २२८ १९६,२०४,२१७,२२७,२४१ वाणसकुल १८६ | विजयकीर्ति ९४,१२४,२२८ वातापिपुरी १०८ / विजयपार्श्वदेव शि० अ० ३३ ७५,१०५,१७३,२०४.२४ वासुपूज्य २३ विकिरमवीर २६,६३ ३०१ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गमिक सहक साहला सत्यगंग सलनीतिवाक्य सत्यवाक्य सत्यवाक्य कोजाणिव सत्यवाक्य जिनालय सत्याश्रय सथिसहा सवि सन्ति सन्दिग सन्धि स [न्धि ] क समण ५१७ २६ | सातव्य ९१ सादिता १०६,१०८,१०९,११४, सान्तोज १४३,१४४,१८६,२१७,२१८, २२७, २३७, २४८ | सामिय १७ सामियन्त्रे ३५ सामियार सयिगोट्ट स- दण्डाधिप सर्व्वगन्दि सहकार सळ सकित संगम १४३ सान्तर २२२,२६७, २९९ सान्तलिगे १४२ | सान्तळिगेशायिर २१३,२६७ | सान्तलिंगे सायिर १४९, २७७ | सान्तळिगे-सासिरम १३१ | सान्तियब्बरसि सघनधि साईआ सातकणि, सामरिवादो (ढो) (ग्राम) १३९,१४५,२१३,२४८ २९ सासल• बम्मय्य १४० | सासवेवादु ३६ | ति [ किमत्रि' ] गिरि [ पि ] डल्लु १२७ 1 २१७ २४ | सिम १,२ चिज्ञण २१० समन्तभद्र २०७,२१३, २१४,२१७, सिङ्गिदेव २१३ २६४, २७४, २८८ | सिद्धनन्दि १०६ २१२ ७५ १०९ २६७ | सिद्धान्तरत्नाकरदेव २८८ | सिनविषु १३१,२०४ | सिन्देश्वर ( क्षेत्रम् ) २१३,२४८ - ३०१ १४३ १२७ ६० १४१ सिरिणन्दि सिरिपत्ति (ग्राम) सिरिपुर सिरियनन्दि सिरियमसेटि २. सिरियुर २१८ ર * २१३ ૨૪૦ १९७ ૧૬૮ २१३ २१९ १०६ १४२ १४५ १०६ २१८ १२७ २१० १०६ १९३ २१० २९९ २७७ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवदास सिवमार- देव सिवार सिहक सिहदता सिह्नादिक सिहमित्र सिंग सिंग- दण्डनायक सिंगण दण्डाधिपति सिंहनन्दि सिंहनन्याचार्य्यं सिंहपथ सिंहरथ सिंहल सिंहसेनापति सीवट सीवटे सीह सुकोशल सुगन्धवर्ति सु [ चिल] सुन्दर सुव्वय सुमतिभट्टारक सुय्यदेव सुराष्ट्र ( गण ) सुधाटवी सुल ५१८ ४३ / सून्दी २६७ | सूरस्थ-गण १०६ | सूर्पट ७१ सूर्य्य चमूप ४४ सूदण्डनायक ७१ से (चे) लकेतन १७ | सेदोजन १२०, २९३ सेन ४७,४८,६२,१८६,२०५,२१७, २९१ २२७, २३७, २८६ 1 } २९१ |सेनवोव २६७,२७७,२९९ | सेनवोव-योग देव २१३,२१४,२७७, सेनवर • दण्डनाथ २९९ सेन्द्र सेन्द्रक २१३ सेवनूर १०६ | सैगोह १०३ | सैंगोदृपेर्मानडि १६०,२७७ सैगोट्ट-विजयादित्य १३० ३२,५५ सोम | सोमाविका २०४ | सोमिल १३०,१६०,२३७ 1 २९ १७४ २१८ सोमेश्वर सोरिगाव, सोवर १४२ १८५,२६९ २२८ ૨૦૦ २१३ | सोसवूर २१८ सोसेवर २०४, २३४ | सौराष्ट्र ૨૦૦ १२७ १३१ २१०,२२६ २५१ ૨૦૦ १०९ १०४,१०६ २८८ १८२,२१३ १८२ २७७ ' २१७, २४३,३०१ २४३ ९३ २०४,२९३,३०१ २२७ २४३ १७९,१८५,१९४ २०० २१७, २८८ / ९३ १४२ | स्कन्दगुप्त १२७ स्थानिय (कुल) ४२,५४,५५,५६,८३ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ १०६ | हिर [हुन हरिगे स्थिर २२ / हस्तहस्ति हगनूरु १२७ हळदुर २९९ हगिनंदि ४५/ हानुजलु २९९,३०१ [ह] गु[ देव] ३१ हारिती ९७,९८,१००,१०३,१०४, हटिकिय १०६,११४ २१८ हारुवनहळ्ळि हनूमान हिरण्यगर्भ २१३ हन्तियूर | हिरियकरे २२२ हब्वण्ण हिरियदण्ड-नायक ३०१ हरकेरे २२२ हरदेव हुग्गियवे हरि (वंश) २१८ २१९ हुलिगेरे २९९,३०१ हरिण (न्दि) देव मुनि २९१ हुलियकेरे २२२ हरितमालकढि ४५ हुलियमरसतुं १२७ हरिति ५ हुविष्क ३९,४३,४५,५०,५६ हरियब्बरसि २९३ हेग्गणगिले २७७ हरियलदेवि २९३ | हेमनन्दि हरिवर्म ९०,९४,९५,१०३,१०४, हेमसेन २७४ १२१,१२२,१४२,१४९,२१३,२६७, ,२१३,२६७, हेमसेनमुनि २१३,२१५ २७७,२९९ हरिश्चन्द्र २१३,२१९,२७७,२९९ १२२ हर्म होत्तगे (गच्छ) २४० १२७ होनेश्वर (क्षेत्रम्) १०९ हलतिगे हलोजन २१८ होयसळ २३०,२६३,२९९,३०१ १२७ हचुम्ब्वे १६६ । होसजललु २६९ “२७७,२६९ हेमाडि २९९ ३०१ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- _