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जैन - शिलालेख संग्रह
बाद कलि-कालका अवतार (उत्पत्ति ) हुआ और विभिन्न गणोंकी उत्पत्ति हुई ।
उनमें से कलिकालगणधर, शास्त्र-प्रणेता समन्तभद्र स्वामी हुए । उनकी शिष्य परम्परामै शिवकोट्याचार्य हुए, उनके बाद वरदत्ताचार्य्य; उनके बाद तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता आर्य्य-देव, उनके बाद सिंहनन्द्याचार्य जो गगराज्यके स्थापक थे | उनके बाद एकसन्धि सुमति भट्टारक हुए। इसके are अकलङ्क देव ( वादिसिंह ) हुए । पुन क्रमशः वज्रनन्द्याचार्थ, पूज्यपाद स्वामी, श्रीपाल भट्टारक, पुन. अभिनन्दनाचार्य; कवि परमेष्ठिस्वामी, त्रैविद्य देव, अनन्तवीर्य भट्टारक, जिन्होने अकलङ्क-सूत्रकी वृत्ति लिखी थी। इनके बाद कुमार सेन- देव; उनके बाद मौनि देव, उनके बाद विमलचन्द्र भट्टारक, उनके शिष्य कनकसेन- भट्टारक थे जो राजा राजमल्लके गुरु थे। उनके शिष्य थे दयापाल जिन्होने 'शब्दानुशासन' की 'प्रक्रिया' रूप-सिद्धि लिखी है- - तथा पुष्पसेन सिद्धान्त देव | वादिराज - देव ' षद-तर्कषण्मुख,' 'जगदेकमल्ल वादी' थे । श्रीविजय देव रक्क्स-गङ्ग-पेमनदि, चट्टल- देवि, बीर- देव तथा नन्नि-शान्तरके गुरु थे । विद्वानोको वे शास्त्र देते ये तथा जो शास्त्रका महत्त्व नहीं समझते थे उन्हें उनका महत्व समझाते थे, इसी कारण से उनका नाम श्रीविजय था तथा उन्हे 'पण्डित - पारिजात' भी कहते थे ।
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उपर्युक्त श्रीविजय भट्टारक और उनके शिष्य चोलट शान्त देव, गुणसेन देव, दयापाल देव, कमलभद्र देव, अजितसेन - पण्डित देव तथा श्रेयान्स पण्डित - देव | इनने ( उक्त मितिको ) उब्र्वी तिलक नामसे प्रसिद्ध पञ्चकूट-वसदिकी स्थापना की । बसदिकी मरम्मत, ऋषि-वर्गके आहार तथा पूजा के प्रबन्धके लिये, नन्नि-शान्तरदेव, ओडमरस, बम्म देव, तथा चहल- देवीने, – आचार्य कमलभद्र देवके पाद प्रक्षालन- पूर्व्वक ( उक्त ) गाँव दिये ।
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शेष भाग बहुत घिसा हुआ है । ]
[ EC, VIII, Nagar tl n° 35 }