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दुवकुण्डका लेख
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शिल्पी तिल्हण ( पं. ६१ ) था । इस सारे लेस में 'ब' 'व' अक्षरसे लिखा गया है ।
इस लेखका उद्देश्य एक जैनमन्दिरकी - जिसके कि पास यह शिलालेख मिला है - स्थापनाका उल्लेख करना है। इसकी स्थापना कुछ निजी आदमियोंने की थी और इस मन्दिरको कुछ दान महाराजाधिराज विक्रमसिंह ( पं. ५४ - ५८ ) ने दिया था । इस शिलालेख के लिखनेके समय, विक्रम स. १९४५ में, वे दुचकुण्डके आसपासके प्रदेशपर शासन करते थे । इस लेखके स्पष्टतः दो विभाग हो जाते है पहले विभागमे ( पंक्तियाँ १०-३२ ) युवराज विक्रमसिंह और उनके पूर्वजोका वर्णन है; दूसरे में (पक्तियाँ ३२- ५१ ) मन्दिर के सस्थापको ( या प्रतिष्ठापकों ) तथा उनसे सम्बद्ध कुछ मुनियोका वर्णन है । प्रारम्भके छह श्लोको ( पं १ - १० ) से कवि ऋपभस्वामी, शान्तिनाथ, चन्द्रप्रभ और महावीर इन तीर्थकरोकी, तथा गणधर गौतम, श्रुतदेवताकी जो पकजवासिनीके नामसे जगत्मे प्रसिद्ध है, स्तुति करते है ।
युवराज विक्रमसिंह वर्णन ( प. १० - ३२ ) मे ऐतिहासिक तथ्य इस प्रकार है. -
कच्छपघात (कछवाहा ) वशमे -
१ पांडु श्रीयुवराज ( ? ) हुए । उनके बाद उनके लडके---
२ अर्जुन हुए, जिन्होने विद्याधरदेवके कार्यसे, युद्धमें राज्यपालको मारा । उनके पुत्र
३ अभिमन्यु हुए, जिनके पराक्रमकी प्रशंसा राजा भोजने की थी । उनके पुत्र-
४ विजयपाल हुए, और फिर उनके पुत्र
५ विक्रमसिंह हुए, जिनके कालकी तिथि यह शिलालेख संवत् ११४५ भाद्रपद सुदि ३ सोमवार बतलाता है ।
दूसरे विभागके लेखका सार यह है कि विक्रमसिंहके नगरका नाम चदोभा था । यह चदोभा वर्तमान दुबकुण्ड ही होना चाहिये और उस समय यह एक बड़ा भारी व्यापारका केन्द्र रहा होगा । ३२-३९ की पंक्तियोंके श्लोको उस समय दो प्रसिद्ध जैन व्यापारियो का नाम - ऋषि और दाहड