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लक्ष्मेश्वरका लेख शम्यः । पश्चिमस्या दिशि श्वेतपापाणादेकशमी उत्तरस्या दिशि आनीलपाषाणात् प्राक्प्रकाशिततटाकात् पूर्वस्या दिशि अरुणपाषाणात् पूर्वोक्तव्यक्तकिन्नरपापाणसंगता सीमा ।।
स्व दातु सुमहच्छक्य दुःखमन्यस्य पालनम् । दानापालनाचेति (दान वा पालन चेति) दानाच्छ्योऽनुपालनम् ॥ न विष विषमित्याहुः ढेवस्व विषमुच्यते । विपमेकाकिनं हन्ति देवस्व पुत्र-पौत्रिकम् ॥ स्वदत्ता परदत्ता वा यो हरेत वसुन्धराम् ।
पष्टि-वर्षसहस्राणि विष्ठाया जायते कृमिः ॥ प्रथ्यताम् जिनशासनम् [1] [इ० ए०, जिल्द ७, पृ० १०१-१११, नं० ३८ (पक्तियाँ ६१-८२)] [यह लेख उस बडे लेख (न. ११९) का तीसरा व अन्तिम भाग (पक्तियाँ ६१-८२ तक) है । यह पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीयका लेख है। यह उसके राज्यके द्वितीय वर्षका है जव कि शक वर्ष ६५६ (७३४-५ ई०) व्यतीत हो चुका था, और फलत पूर्व किसी लेख (शिलालेख या ताम्रपन्न) से यहाँ निश्चय या सुरक्षाके लिये दुहराया गया है। यह लेख उसकी छावनी 'रक्तपुर' से निकाला गया है । 'रकपुर' आजकलका कौन-सा स्थान है, यह नहीं कहा जा सकता।
इससे 'पुलिकर'-पूर्वके दो शिलालेखोका 'पुलिगेरे'-शहरकी 'शङ्खतीर्थवसति' तथा 'धवलजिनालय' नामके एक दूसरे मन्दिरकी सजावट तथा मरम्मतका उल्लेख है और कहा गया है कि 'जिन' की पूजाके प्रबन्धके लिये कुछ भूमिदान किया गया। __ यह लेख अपने वशावली-परिचायक भागमे पश्चिमी चालुक्योके शिलालेखोसे मिलता है । इसमे दो आगेकी पीढ़ियोका-विजयादित्य और विक्र. मादित्य द्वितीयका, जो विनयादित्यके क्रमश पुत्र और पौत्र हैं,-भी उल्लेख है।]