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जैन-शिलालेख संग्रह [इस शिलालेखमे शम-दमवाले किसी व्यक्तिद्वारा पार्श्वनाथ जिनेन्द्रकी प्रतिमाकी कार्तिक वदी पचमीके दिन स्थापनाकी बात है। यह प्रतिमा किसी गुफाके द्वारपर खडी की गई थी। इस प्रतिमाफी स्थापना करने वाला या उमको खड़ा करनेवाला आचार्य गोशर्माका शिप्य था। ये गोगर्मा आचार्य भद्रके वशमें हुए थे, इनकी परम्परा आर्यकुलकी थी और अश्वपति योद्धाके लडके थे। ये अश्वपति सङ्घल (या सिंहल) के नामसे प्रसिद्ध थे और इन्होंने जिनदीक्षा लेने के बाद अपना नाम शंकर रक्खा था।]
[इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द ११, पृ. ३१०]
मथुरा-सत्कृत।
[गुप्तकाल, वर्ष ११३] १ सिद्धम् । परमभट्टारकमाहाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्य विजयराज्यस [१०० १०] ३ क... • 'न्तमा "[ढि ]-स २० अस्या ५ [ पूर्वाया ] कोटिया गणा
२ विद्याधरी नो] शाखानो दतिलाचाव्यप्रज्ञपिनाये शामाख्याये भट्टि भवत्य वीतु ग्रहमित्रपालि [त] प्रा [ता] रिकम्य कुटुम्विनीये प्रतिमा प्रतिष्ठापिना। __ अनुवाद-सिद्धि हो । परमभहारक महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तके विजयराज्यके ११३ ३ वर्षौ, गीतऋतु महीने ] कार्तिक २० वे दिन, कोहियगण (तथा) विद्याधरी शाखाके दतिलाचार्य (दत्तिलाचार्य) की आज्ञाले शामाल्य (श्यामात्य) ने एक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करवाई । श्यामाय भट्टिमवकी वेटी (और) ग्रहमित्रपालित प्रातारिक (घाटी या नाविक) की पत्नी थी।
[EI, II, n° XIV, n° 391