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जैन-शिलालेख संग्रह
२३५ दुवकुण्ड-स्तम्मपर-संस्कृत
[संवत् ११५२८१०९५ ई.] संवत् ११५२-वैशाखसुदिपञ्चम्यां ॥ श्रीकाष्ठासंघमहाचार्यबर्यश्रीदेवसेनपादुकायुगलम् ।
[स्पष्ट है]
[A Cunningham, Reports, XX, p 102 ]
सोमवार-कन्नड़ [विना कालनिर्देशका, लेकिन सभवत. लगभग १०९५ ई.] [सोमवार (मल्लिपट्टण परगना)में, वसवण्ण मन्दिरके मुख-मण्डपके
सामनेके पापाणपर] पतिय सन्ततिय पति पेळद-मार्गदिम् । पति-हितनागि निस्तरिसि तत्पति माडिप जैनगेहमुन्-। नति-वेरसिर....यनन्तदकहर-। प्पति-शशियुलिन निरिसि जकनिदेम् सुकृतार्थनादनो ।।
दुद्दमल्ल-देवन वाणसि जक्कय्यं माडिसिदम् ॥ [अपने स्वामीके कुटुम्बमेंसे, उसी पद्धतिसे जिसे उसके स्वामीने बतला. या था, स्वामीके प्रति रहे हुए प्रेमसे उसने उसी मन्दिरको खड़ा किया जिसे उसका खामी बना रहा था। उसे आशा थी कि यह मन्दिर तब तक खड़ा रहेगा जब तक आकाशमें सूर्य और चन्द्र चमकते हैं । जक कितना भाग्यशाली था? दुद्दमल्ल-देवके रसोइये जक्कय्यने इसे बनवाया।]
[ EC, V, Arkalgnd tl , n° 97 ]