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________________ १३० जैन-शिलालेख संग्रह धापति-श्री-श्रीविजयराजेन निर्मापिता-(५ अ) य जिन-भवनाय मान्यपुरीपश्चिम-दिगगना-ललाम-भूताय चतुरविंशत्युत्तरेषु सप्तशतेषु शक-वर्षेषु समतीतेष्वात्मनः प्रवर्द्धमान-विज [य] संवत्सरे मान्यपुरमधिवसति विजयस्कन्धाबारे सोम-ग्रहणे पुप्य-नक्षत्रे शु [भ] लग्ने वार-विलासिनी-विरचित-तृत्त-गीत-वा( वा )।-बलि-विलेपन-देवपूजा-नव-कर्म-प्रवर्त्तनार्थ एदेदिण्डे-विषय-मध्य-चर्ति- पेडियर-नाम ग्राम सर्व-बाध-परिहार उदक-पूर्व दत्तः तस्य सीमान्तर (यहाँ सीमाये आती है) पादरि-ऊरुल् पत्तु-भागढोळोन्दु-भाग देवर्गे कोत्तु (हमेशाके चे ही अन्तिम श्लोक)। [विष्णुसे रक्षाकी कामना । पृथ्वीपर कृष्ण-राज विद्यमान थे। उनके धोर नामका एक पुत्र था। उसीके दूसरे नाम कलि-वल्लभ, वत्सराज, निरुपम थे। गुणी निरुपमसे गोविन्दराज उत्पन्न हुआ। जब यह राजा हुआ तो राष्ट्रकूट-वश दूसरे लोगो (वंशो) की प्रतियोगितासे ऊपर उठ गया। उसने गगको बन्धनसे छुडाया था, लेकिन अपने घमण्डी स्वभावके कारण शीन ही पुन बाँध लिया गया। उसकी बहुत-सी प्रशंसा । उसके पराक्रमोका वर्णन । उसने देव-भोग (मन्दिरके लिये दान) रूपसे भूमिदान किया। उसके बडे भाईका नाम शौच-कम्भ था। इसी शौच कम्भका दूसरा नाम रणावलोक था। __इस-विषय (देश) मे प्रसिद्ध शाल्मली नामक गाँवमे कोण्डकुन्दान्वयके उदारगणमे तोरणाचार्य हुए। पुष्पनन्दि-पण्डित उनके शिष्य थे। उनके शिष्य प्रभाचन्द्र थे। उनके एक बप्पय्य नामके भक्त श्रावक थे। उनका पुत्र शत्रुओका दण्ड देनेवाला था। अपने प्रिय पुनकी प्रार्थना सुनकर उन्होने, मान्यपुरके पश्चिममें जो जिनमन्दिर खडा हुआ था उसके लिये, उसके शासक श्रीविजय-राजकी कृपासे शक सं० ७२४ के बीतने पर, अपने ही विजय-वर्षमे, मान्यपुरमै पढे हुए अपने विजयी कैम्प (स्कन्धा
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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