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________________ लक्ष्मेश्वरका लेख पराक्रमोकी प्रशस्ति है । इस लेखमें आये हुए ऐतिहासिक तथ्योका पूरा विवरण प्रो० भाण्डारकर और डा० फ्लीटने दिया है। इस लेख (या काव्य) का मुख्य भाग १७.३२ श्लोकोका है । इनको रविकीर्ति के आशयानुसार, रघुवशके (चौथे सर्गके) रघुदिग्विजयके समान, 'पुलकेशी सत्याश्रय दिग्विजय' कहा जा सकता है । इस काव्य (कविता) की रचनामें रविकीर्तिका कालिदासके रघुवशका तथा भारविके किरातार्जुनीयका गहरा अध्ययन स्पष्ट काम कर रहा है। इसलिए उन्हींके शब्दोमें उनका यह कथन कि 'स विजयतां रविकीर्ति कविताश्रितकालिदासभारवि-कीर्ति.' सचमुचमें ठीक है। श्लोक २२ में बताया गया है कि पुलकेशीका प्रताप इतना तेज था कि लाट, मालव और गूर्जर लोग अपने आप ही उनकी शरण आते थे, वलपूर्वक नहीं।] [इ० ए०, जिल्द ५, पृ० ६७-७१] लक्ष्मेश्वर-संस्कृत। -[१]जयत्यतिशयजिनै सुरस्सुरवन्दितः । श्रीमाजिनपतिस्सृष्टेरादेः कर्ता दयोदयः ।। देहहिसरि (इह हि खस्ति)॥ चालुक्यपृथ्वीवल्लभकुलतिलकेपु वहुप्रतीतेषु रणपराक्रमाङ्कमहाराजो भवत्तद्राजतनयः राजितनयो विवर्द्धितैश्चर्यश्चतुस्समुद्रान्तस्नाततुरङ्गेभपदातिसेनासमूह, एरैय्यनामधेयः श्रीमान् ॥ १ देखो प्रो० भाण्डारकरकी Early History of the Dekkan, 2nd ed, especially p. 51, 5 TỶo Frient Dynasties of the Kanarese Districts, 2nd ed. especially p 349 ff.
SR No.010007
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymurti M A Shastracharya
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1953
Total Pages455
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size12 MB
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