Book Title: Dandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Author(s): Gajsarmuni, Haribhadrasuri, Amityashsuri, Surendra C Shah
Publisher: Adinath Jain Shwetambar Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KOOKESOSOHDSCHOBROKETOOK दंडक प्रकरण सचित्र सार्थ तेईन्द्रीय OOR वनस्पति काय चउरिदिय 1 वायु काय गर्भज तिर्यंच तेऊकाय मनुष्य | व्यंतर अपकाय पृथ्वी काय भवन पति २४.वेद २१.संज्ञा २.अवगाहना २३.आगति / 1. शरीर Poed २२.गति वैमानिक 3. संघयण भवन पति वैमानिक २०.किमाहार नरक 4. संज्ञा 5. संस्थान 19. पर्याप्ति 6. कषाय 18. स्थिति ७.लेश्या यवन CARE 8. इन्द्रिय 8 17. च्यवन * समुद्घात 9 24 दंडक पद 16. उपपात R15. उपयोग 14. योग 13. अज्ञान 12. ज्ञान 11. दर्शन 10. दृष्टि लघु संग्रहणी सार्थ बालकामा करमा धम प्रमा संपादक प्राध्यापक सुरेन्द्रभाई सी. शाह *प्रकाशक श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर संघ श्री विजय लब्धि सूरि जैन धार्मिक पाठशाला चिकपेट, बेंगलोर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0.00000.000000000000000000000000000 امله / / श्री आदिनाथाय नमः / / ...... श्री गजसारमुनि विरचित हुण्डक प्रकरण एवं * श्री हरिभद्रसूरि विरचित जम्बुद्वीप संग्रहणी सार्थ * मूल गुजराती विवेचन कर्ता श्री जैन श्रेयस्कर मंडल, मेहसाणा (गुजरात) ............500000000000000004004AAAAA * हिन्दी भाषान्तर कर्ता * श्री लब्धि-विक्रम- स्थूलभद्रसूरि शिष्यरत्न पू.आ.देव श्री अमीतयशसूरीश्वरजी म.सा. ....... . *संपादक* प्राध्यापक सुरेन्द्र .सी. शाह प्रकाशक श्री आदिनाथ जैन श्वे. संघ श्री विजयलब्धिसूरि जैन धार्मिक पाठशाला श्री आदिनाथ जैन श्वे. मंदिर . चिकपेट बेंगलोर 9 4.64 .40.4 .4 .4 .4 .4 .4.64 .4 . 4 .4 . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OISSBN पुस्तक श्री दंडक - संग्रहणी कर्ता - श्री गजसारमुनि, पू.आ. हरीभद्रसूरि म.सा. हिन्दी भाषान्तरकर्ता पू. आ. देव श्री अमीतयश सूरीश्वरजी म.सा. सम्पादक प्राध्यापक सुरेन्द्र सी. शाह सह सम्पादक अध्यापकः सुरेश.जे.शाह, अध्यापक:-विक्रमभाई.एम.शाह अध्यापकःनटवरभाई .सी .शाह, प्रथम संस्करण : संवत 2062 आषाढ शुक्ल९ ता. 6-7-2006 | लागत मूल्य :5000 रूपये || प्रचार मूल्य :2500 रूपये प्राप्ति स्थान ___ श्री विजय लब्धिसूरि जैन धार्मिक पाठशाला 5 श्री आदिनाथ जैन श्वे. मंदिर ,चिकपेट बेंगलोर - 56 0 आवाहनमुद्रा स्थापनमुट्रा सन्निधानमुद्रा सनिरोधमुद्रा अवगुंठनमुद्रा ॥अजलीमुद्रा M मुद्रक :गुरूगौतम बेंगलोर फोन :080-2238962 N.100 ARE.. S क Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टण्डक प्रकरण (ग) जम्बुद्वीप संग्रहणी Virupee प्रकाशकीय (सचित्र पम्बद्धाप श्री जैन श्रेयस्कर मंडल मेहसाणा द्वारा गुजराती प्रकाशित दंडक प्रकरण एवं श्री जम्बुदीप संग्रहणी प्रकरण का प्रकाशन हमारे संघ के द्वारा हिन्दी भाषामें प्रथमबार ही हो रहा है जिसका हमें परम आनंद है / समग्र जैन संघ में शायद इन प्रकरणोंका हिन्दीमें प्रकाशन प्रथमबार हो रहा है यह हमारे लिए गौरवप्रद बात है / हिन्दी भाषी विधार्थिओंको अभ्यास के . लिए हिन्दी प्रकाशनों की सुविधा बिलकुल नहीं है और न कोई इस दिशा में प्रयत्न भी करते हैं अतः श्री विजय लब्धिसूरि जैन धार्मिक पाठशाला बेंगलोर द्वारा हिन्दी भाषा में पाठशाला उपयोगी प्रकाशन हो रहे हैं एवं सभी उसका उपयोग कर कृतार्थ बन रहे हैं। . हमारी पाठशाला में 38-38 वर्षोंसे अध्यापन कार्य में लगे प्रधानाचार्य सुरेन्द्रभाई.सी. शाह को इस कार्य में अतीव रूची है / संघ में भी इस कार्य में पूर्ण उत्साह होता है अतः उन्होंने इस कार्यको हाथ में लिया। पूज्य दक्षिणकेशरी आ. देव श्री स्थूलभद्र सूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न स्वाध्यायमन प्रशान्तमूर्ति आचार्यदेव श्री अमीतयश सूरीश्वरजी म.सा को हमने विनंति की, उन्होंने हिन्दी अनुवाद अत्यंत परिश्रम पूर्वक बेहद लागणीपूर्वक किया है। . पाठशाला द्वारा आगे भी पंचप्रतिक्रमण सार्थ - जीवविचार सार्थ. नवतत्त्व सार्थ आदि अनेक उपयोगी ग्रंथों का प्रकाशन सुरेन्द्रभाई सी. शाह ने संपादित कर प्रकाशित किये है। . आगे भी तीन भाष्य,कर्मग्रंथ आदि अभ्यासकीय ग्रंथ प्रकाशित करनेकी हमारी भावना है / शासन देव अवश्य पूर्ण करेंगे। कुछ चित्र जो पू. प्रवर्तक हरीशभद्र विजयजी म. सा. एवं श्री जैन तत्वज्ञान विद्यापीठ पूजा आदि से प्राप्त हए है हम उनके आभारी है। अग्रीम सहयोगी ज्ञान प्रेमी सज्जनों को तो कैसे भूल सकते हैं ? जिन्होंने अग्रीम सहयोग प्रदानकर अपनी ज्ञान भक्तिका परिचय दिया है ।इस अपूर्व प्रकाशन का भी संघमें अपूर्व स्वागत होगा। ऐसा हमारा विश्वास है। श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर संघ ... श्री विजय लब्धिमूरि जैत धार्मिक पाठशाला चिकपेट, बेंगलोर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // आत्म - कमल - लब्धि - विक्रम - स्थूलभद्रसूरीश्वरजी सद्गुरूभ्यो नमः॥ नमो अरिहंताणं श्री जिनेश्वर भगवंत ने शासन स्थापना करके भव्यात्माओं के उद्धार के लिए जगत को द्वादशांगी के भेट दी है / द्वादशांगी की आराधना और अभ्यास के लिए प्रायः करके साधु - साध्वीजी महाराज को अनुज्ञा पूर्वाचार्यों ने दी है / श्रावक - श्राविकाओं को वह द्वादशांगी सुनने का अधिकार प्राप्त है / वह द्वादशांगी में एक ही सूत्र का द्रव्यानुयोग चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोगे से चार चार अर्थ होते थे। लेकिन दुःषम काल के प्रभाव से बुद्धि का क्षयोपशम कम होने की वजह से द्रव्यानुयोगादि का चार चार अर्थ नही धारण कर पाने से आर्य रक्षितसूरीश्वरजी महाराज ने चार अनुयोग मय द्वादशांगी को एक अनुयोगमय की, जैसे आचारांग सूत्रादि चरणकरणानुयोगमय, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि गणितानुयोगमय, विपाकसूत्रादि धर्मकथानुयोगमय, भगवती सूत्रादि द्रव्यानुयोगमय किया / इस तरह वीर निर्वाण से 1000 साल तक चलता रहा / बाद मे देवर्धिगणि क्षमा श्रमणजी म.सा ने जीवो की बुद्धि की मंदता देखकर सभी सूत्रों ग्रंथारूढ किये / वह सूत्रों बुद्धिमानों के योग्य होने से पूर्वाचार्योने बालजीवों के उपकार करने के लिए बहुत प्रकरणादि ग्रंथ शास्त्र ज्ञान से वंचित न रहे इस हेतु से संस्कृत/ प्राकृत / गुजराती/हिन्दी आदि लोक भाषाओ में रचे / इस तरह विरहपदयुक्त श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी म.सा ने जंबुद्वीप संग्रहणी और गजसार मुनि ने दंडक प्रकरण की रचना की। जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति प्रकरण गणितानुयोगमय है / दंडक द्रव्यानुयोगमय ग्रंथ है / दंडक प्रकरण का दंडक विचार, षट्त्रिंशिका, विज्ञप्तिषट्त्रिंशका, विचार स्तव आदि नाम है / जंबूद्वीप संग्रहणीका लघु संग्रहणी ऐसा नाम भी है / ये ग्रंथ गुजराती में श्री जैन श्रेयस्कर मंडल और श्री Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला मेहसाणा की ओर से प्रकाशित हुआ है / श्री आदिनाथ जैन श्वे. संघ चिकपेट बेंगलोर द्वारा हिन्दी भाषा में जीव विचार और नवतत्त्व ये दो प्रकरण प्रकाशित हो चुके है / लेकिन हिन्दी में दंडक और जम्बूद्वीप संग्रहणी का प्रकाशन नही हुआ था / हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए यह प्रकाशन खास आवश्यक था / / वह कमी पूरी करने के लिए श्री विजय लब्धिसूरी जैन धार्मिक पाठशाला के प्रधानाध्यापक सुरेन्द्रभाई ने मेहसाणा से प्रकाशित दंडक और जंबूद्वीप संग्रहणी का हिन्दी में भाषांतर करने के लिए मुझे निर्देश किया, तब पू. गुरू भगवंत ने सम्मति देने पर मैंने यह भाषांतर किया है / हिन्दी में यह मेरा पहला भाषांतर है। कही भाषा की त्रुटियाँ हो सकती है इसलिए वह परिमार्जन करके पढ़ने का ख्याल रखें / परमोपकारी अरिहंत भगवंत के प्रभाव से तथा लब्धि -विक्रम पट्टालंकार स्व. पूज्यपाद दक्षिण केशरी गुरूदेव श्रीमद् विजय स्थूलभद्र सूरीश्वरजी म.सा की परम कृपा से यह भाषांतर हो सका है / इस का प्रकाशन श्री आदिनाथ जैन संघ चिकपेट की ओर से अनेक श्रुत प्रेमी दान दाताओं के सहयोग से हो रहा है / इसके प्रकाशन की पूर्ण व्यवस्था श्री विजय लंब्धिसूरीश्वरजी जैन धार्मिक पाठशाला के प्रधान अध्यापक श्री सुरेन्द्रभाई ने सुचारू रूप से सम्भाली है वह धन्यवाद के पात्र है / इस भाषांतर में जिनाज्ञा विरूद्ध कुछ भी लिखा गया हो उसका में मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ। यह ग्रंथ का पठन पाठन करके सभी मोक्ष सुख प्राप्त करें यही कामना करता हूँ। स्व. परम पूज्य दक्षिणकेशरी गुरूदेव श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा के शिष्य आचार्य श्री अमितयशसूरि का धर्मलाभ संवत२०६० प्र. श्रावण वद 7 नगरथपेट, बेंगलोर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -गणिवर्य प्रास्ताविकम् श्री जितरत्नसागरजी म.सा ''राजहंस" जब मैं शैशव के श्रृंगार से सज था तभी मेरे बाताजी श्री તીર્થરના શ્રીગી મ.સાં શી પ્રેરણા સે મુડો ભગવાન મહાવીર વગા૫ના. प्राप्त हो गया था। बाल्यकाल से ही अध्ययन में तीव्ररूचि होने से पहले ही चातुमार्स મેં પ્રdoloથે સ્વસ્થ હો ગયે થે | મન મેં તમન્ના થી પ્રસ્થા છે વર્થ करना। 30 दिनों पूज्य गुरूदेव अभ्युदयसागरजी म.सा. शंखेश्वर में आगम मलिहर के कार्य का मार्गदर्शन कर रहे थे अतः शंखेश्वर तीर्थ में अधिक रहते थे। हमने गुरूदेव से कहा 'हमें प्रकरण के अर्थ करना है आप कोई व्यवस्था करें। गुरूदेव बोले-'तुम मांडल चले जाओ वहाँ विदवान पंडितप्रवर श्री नेमचंदभाईरहते है- तुम्हें पढ़ाएंगे।' . हम गुरूदेव की आशीष लेकर मांडल गए / व्याकरण एवं प्रकरण ग्रन्थों का अभ्यास प्रारम्भ हुआ जो आज भी याद है / केसा भव्य क्षण था वह जब सारे दिन हम अध्ययन करते थे। प्रकरण ग्रंथों में कैसा तत्वज्ञान का खजाना भरा पडा है ? वह बात आज इसलिए याद आयी कि पूज्य आगमोध्दारक ध्यानस्थ - स्वर्गस्थ गुरूदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म.सा का जन्मोत्सव दिन बेंगलोर आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर ट्रस्ट के तत्त्वावधान में मनाया जा रहा था। उस समय विद्याप्रेमी एवं जन-जन के लाडले गुरूजी के प्यारे नाम से पुकारे जाने वाले श्री सुरेन्द्रभाई सी. शाह ने पाठशाला एवं अन्य अभ्यासियों के लिए प्रकरणग्रन्थ का प्रकाशन करने की बात रखी। पूज्य सागरानंदसूरिजी महाराज स्वयं आगम अभ्यासी थे और उनके जन्म दिन पर यह प्रकाशन होने की घोषणा हुई थी अतःलोगों में आनंद एवं उत्साह था। वास्तव में पुस्तकों का प्रकाशन करना उतना सरल नहीं है जितना हम लोग सोचते हैं। कई तकलीफों का सामना करना पड़ता है तब जाकर प्रकाशन होपाते हैं -फिर सुरेन्द्रभाई को एक कार्य नहीं है / वे बंगलोर की पाठशाला के प्राण है / मैने सुना है कि बेंगलोर की पाठशाला Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. श्री तिलक बुरूजी ने जमाइथी किन्तु चलाइ सुरेन्द्रगुरूजी ने / आज बेंगलोर में यदि संस्कार के दर्शन हो रहे है / तो यह सुरेन्द्रगुरूजी को आभारी है / क्योंकि आपकी लगन एवं कार्यनिष्ठा ने आज बेंगलोर की पाठशाला का नाम न सिर्फ दक्षिण भारत में बल्के देश-विदेश में विख्यात किया है। हमने चातुर्मास में सुरेन्द्रगुरूजी कों कार्य करते हुए देखा है। आज वेवर्षीतप कर रहे है शायद उन्हें दसवा वर्षीतप भी चल रहा है किन्तु पारणे में भी खाने पीने की कोई परवा उन्हें नहीं है / यू अगर देखा जाय तो आज वे अपनी उम्र के उत्तरार्ध में है किन्तु एक युवक कोशर्मा दे ऐसी उनमें फूर्ती है। वे आज भी दौडकरचारमंजील चढ़ जाते हैं। | उनका सारा जीवन यन्त्रवत् बन गया है !!! सारांक्ष में बात उतनी ही है कि सुरेन्द्रभाई द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान संस्कार युक्त है / पाठशाला की स्नात्र एवं संगीत आपकी ही देन है आप सारे दिन पाठशाला की प्रगति के लिये चिन्तीत रहते है / आपकी सादगी एवं अदम्य उत्साह देखते ही बनता है। अभी-अभी श्री सीमंधर शांतिसूरि जैन मंदिर की अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव था आपने जो विधियाँ करायी थी वाकई में लाजवाब थी सभी कामसमय पर होता था / प्रातः५ से रात्रि 12 बजे तक आप दौडते थे / आपने सेकडों अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न कराई हैं / आपका अद्भुत संगीत प्रेम उत्साह वास्तव में देखते ही बनता है। इन.सभी कार्यों के बीच आप हमेंशा अपनी पाठशाला की ड्यूटी को हमेशा ब्यूटीफूल बनाकर रखते है / कभी भी आप पाठशाला के समय अनुपस्थित नहीं रहते है। एवं समय - समय पर छोटे-मोठे प्रकाशन कार्य भी किया करते है / थोडा सा भी समय मिला कि आप कम्प्युटर पर बेंठकर डीझाइनें बनवाते रहते हैं। - आपने चातुर्मास में ही यह प्रकरण ग्रन्थ छपवाने के लिए तैयारियां की.थी एवं मुझे प्रस्तावना लिखने को कहा था और मेने लिखकर दे भी दी थी, किन्तु इनकी व्यस्तता के कारण वह कही रख दी / एवं फिर मेरा विहार हो गया था तभी से आप मुझे बार बार प्रस्तावना लिखने का आग्रह करते रहे किन्तु विहार के कारण हम व्यस्त थे एवं प्रस्तावना लिख न सका एवं विलम्ब होता ही रहा किन्तु पुनः सुरेन्द्रभाई का स्नेह और अपनत्व देखकर मुझे प्रस्तावना लिखने के लिए कलम और पेपर हाथ में लेने पडे और प्रस्तावना लिख पाया हूँ। ... प्रस्तुत पुस्तक में दो प्रकरण प्रकाशित किए जा रहे है / जीव विचार एवं वितत्व पहले पाठशाला द्वारा प्रकाशित किये जा चुके है जो | શાને શાપ મેં શ્રેષ્ઠ છે (7 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूं तो प्रकरण ग्रन्थ कई संस्थाओ ने प्रकाशित किए है किन्तु लब्धिसूरि पाठशाला एवं गुरूजी के माध्यम से प्रकाशित जीवविचार और.. नवतत्व श्रेषठ प्रकाशन है फिर इनकी भाषा भी हिन्दी है। अब जो दण्डक और लघु संग्रहणी अर्थ सहित हिन्दी में प्रकाशित की जा रही है यह चाबी है / चाबी के बिना ताले नही खुलते ठीक वैसे ही आगमों का अर्थादि ज्ञान पाने के लिए आगम खजाने खोलने के लिए दोनों ग्रन्थ चाबी का काम करेगे क्योकिं जीव विचार को ही दण्डक आगे बढ़ाता है एवं चौवीश दण्डक के माध्यम से जीवों पर विस्तृत प्रकाश डालता है यह जैन शासन का मौलिक ज्ञान है / प्राथमिक ज्ञान है इनके बिना कर्मग्रन्थ आदि पढ़ना एवं समझना आसान नहीं है / ठीक वैसे ही क्षेत्र समास, लोक प्रकाश, बृहद् संग्रहणी आदि एवं जम्बूद्वीप पन्नत्ति, सूर पन्नत्ति, द्वीपसागर पन्नत्ति आदि आगमों का ज्ञान पाना है तो आपको प्रथम लघुसंग्रहणी अवश्य पढ़नी ही पढ़ेगी उस दृष्टि से यह प्रस्तुत पुस्तक खूब ही उपयोगी है। __ लघुसंग्रहणी में यूं तो जम्बूद्वीप से सम्बन्धित पदार्थोका ही विवरण दिया गया है किन्तु वह रास्ता दिखाता है / आगे का हमें इसके अध्ययन से पता चलता है कि जैन धर्म के अनुसार पृथ्वी कितनी विशाल है ? उसका आकार प्रकार क्या है ? .. आज के भौतिक विज्ञान के जमाने में अपने आधे अधूरे ज्ञान के कारण वैज्ञानिकों ने पृथ्वी को जैसी बताई है ? जितनी बताइहै ? उससे विपरीत इस लघु संग्रहणी में पृथ्वी विशाल एवं विकसीत बताइ है इसका अध्ययन करने पर ही पता चल सकता है।। वर्तमान दृश्यमान पृथ्वी जैन दर्शन के अनुसार मात्र कुछ योजन ही है और यदि भरतक्षेत्र में ही समाई हुई है / पाँचों खण्ड की पृथ्वी भरत क्षेत्र में स्थित है / केवल भरतक्षेत्र 526 योजन और 6 कला जितना विशाल है यह बात लघुसंग्रहणी से समझ में आती है। सारांश में भूगोलखगोल का खजाना खोल दे ऐसी है यह लघुसंग्रहणी और दण्डक प्रकरण जीवों की स्थिति पर प्रकाश डालता है। दोनों नोधपद प्रकरण है आप पढ़े, आपके जीवन में नवप्रकाश का संचार होगा। लिखी जितरत्नसागरजी म.सा 'राजहंस" दक्षिण पावपुरी एरोड्रम के सामने ___ चैन्नई तमिलनाडु 8 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदिनाथ जैन श्वे.संघ बेंगलोर के अंतर्गत चल रही संस्थाएँ 1. श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर नगर का मुख्य मंदिर, श्री आदिनाथ भगवान की परम श्रद्वेय, चमत्कारी प्राचीन प्रतिमा। 2. श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर विशाल शिखर बद्ध, संगमरमर का जिन प्रासाद, शांत वातावरण / 3. श्री विजय लिब्धिसूरी जैन धार्मिक पाठशाला संपूर्ण भारत में प्रथम स्थान प्राप्त; करीब 900 की संख्या, अभ्यासकों के लिए अनेक आकर्षक योजनाएँ। 4. श्री विजय लब्धिसूरिजैन धार्मिक बाल मंदिर शाम को 4 से ६बजे तक 4 से 8 साल के बच्चों को मुंह जबान धार्मिक शिक्षण / 5. श्री विजय लब्धिसरि जैन संगीत मंडल * बालकों एवं युवानों के लिए रात को 8 से 9 बजे तक संगीत शिक्षण 6. श्री विजय लब्धिसूरि जैन संगीत महिला मंडल प्रति शनिवार एवं रविवार को दोपहर में महिलाओं के लिए संगीत शिक्षण 7. श्री विजय लब्धिसूरि जैन संगीत बालिका मंडल . बालिकाओंके लिए सायं 6 से 7 बजे तक संगीत शिक्षण / 8. श्री आत्म कमल लब्धि-लक्ष्मणसूरि जैन ज्ञान मंदिर 45 आगम अनेक ताडपत्रीय एवं अनेक मुद्रित ग्रंथों का संग्रह / 9. श्री वर्धमान तप आयंबिलं खाता . आयंबिल, गरम पानी तथा तपस्वी पारणों की समुचित व्यवस्था / 10. दानवीर सेठ श्री कपूरचंदजी राजमलजी जैन धर्मशाला जैनों के लिए जैन धर्मानुसार. मर्यादित समय रहने की व्यवस्था. अद्यतन सुविधा युक्त कमरे व हॉल / 11. श्रीमती शान्तिबाई प्रतापचंदजी राठोड जैन भोजनशाला जैन धर्मानुसारी, अद्यतन सुविधा युक्त शुद्ध सात्विक भोजन की व्यवस्था / 12. श्री आदिनाथ जैन सेवा फंड स्थानिक साधर्मिक भाई बहनों को तात्कालिक मासिक या व्यापार निमित्त ऋण के तौर पर सहायता द्वारा भक्ति / 13. श्री विजय लब्धिसूरी जैन हिन्दी पाठशाला 1 से 10 वी कक्षा तक हिन्दी माध्यम से व्यवहारिक शिक्षण / Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. भंडारी भबुतमल उमेदमल लब्धिसूरि जैन विद्यालय सेन्ट्रल बोर्ड की मान्यता प्राप्त अंग्रेजी मिडियम व्यवहारिक शिक्षण / 15. श्री आदिनाथ जैन सेवा मंडल धार्मिक कार्यक्रमो में सेवा द्वारा सहयोग / 16. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी जैन साधर्मिक सेवा केन्द्र साधर्मिक बन्धुओंको कम दाम पर राशन आदि सामग्री वितरण / 17. श्री आदिनाथ जैन तत्व प्रशिक्षण केन्द्र अध्यापक तैयार करनेवाली सस्था / 18.. श्री सी .बी .भंडारी जैन हाईस्कूल एवं जुनियर कॉलेज ____ सेन्ट्रल बोर्ड मान्यता प्राप्त अंग्रेजी मिडियम व्यवहारिक शिक्षण / श्री आदिनाथ जैन श्वे. संघ के अन्तर्गत चल रही भारत . भर में प्रथम स्थान प्राप्त श्री विजय लब्धि सूरि जैन धार्मिक पाठशाला के विशिष्ट आयोजन * हर सुदी 1 को प्रातः 6330 से 800 बजे तक स्तोत्र पाठ द्वारा मांगलिक / * हर वदि 1 को प्रातः 6-00 से 8-00 बजे तक पद्मावती पुण्य प्रकाश स्तवन आराधना * हर रविवार को प्रातः६-३० से 8:30 बजे.तक मधुरवाजित्रों व समुधर राग-रागिणी पूर्वक स्नात्र महोत्सव द्वारा प्रभु भक्ति / / * हर महिने की सुदी 5,8,14 वदी 8,14 को सायं प्रतिक्रमण अनुष्ठान / * हर चतुर्दशी को प्रातः७०० से 800 बजे तक राई प्रतिक्रमण / * हर चतुर्दशी को प्रातः 900 से 1030 तक स्व-द्रव्य से अष्टप्रकारी पूजा एवं अंगरचना (प्रेक्टिकल रूप में) ज्ञान पंचम, चौमासी, चतुर्दशी, मौन एकादशी एवं पर्युषण विशेष पर्व दिनों में विशेष आराधना प्रातः 5-30 बजे राईअ प्रतिक्रमण, प्रातः 7:00 से 9:00 बजे तक विशेष ठाठपूर्वक स्नात्र, 9:00 बजे व्याख्यान श्रवण, दोपहरमें देव-वन्दनादि, शाम को प्रतिक्रमण एवं भक्ति भावना / * प्रति शनिवार को सायं 7-00 से 8-15 तक जनरल ज्ञान हेतू विशेष क्लास * पर्वाधिराज श्री पर्युषण महापर्व व भगवान महावीर जन्म कल्याणक रथयात्रा एवं पू. गुरूभगवंतों के प्रवेश आदि प्रसंगों में स्वागत जुलूस आदि में झंडी लेकर कतार बद्ध चलते हए पाठशाला के अभ्यासक गण द्वारा रथयात्रा व शासन शोभा में अभिवृद्धि / * * * Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * दीपावली के दिनों में अभ्यासकों द्वारा पटाखे के लिये रकम बर्बाद न करते हुए उस रकम द्वार अनाथाश्रम, अस्पतालों आदि स्थानों में नोट बुक, फल, मिठाई,नमकीन आदि वितरण * विद्यार्थियों में वक्तृत्व, लेखन शक्ति व चित्रकला आदि का विकास हो, उसके लिए स्पर्धाओं के आयोजन व प्रोत्साहन हेतु विशिष्ट पुरस्कारों का वितरण। * अभ्यास एवं अनुष्ठान की नोंध रखने के लिये दैनिक पत्रक का आयोजन, ____ अभ्यास एवं अनुष्ठान के प्रति अभ्यासकों को प्रोत्साहन देने मासिक पुरस्कार की वितरण योजना। * पर्युषण पर्व के आसपास पाठशाला के अभ्यासकों की चातुमासार्थ बिराजमान पू मुनिभगवंतों अथवा सुयोग्य पंडितों द्वारा वार्षिक परीक्षा एवं .. अभ्यासकों के प्रोत्साहन हेतु व श्रूतभक्ति निमित्त वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह। * पढ़ाई का स्तर बढ़ाने के लिये मुम्बई आदि शिक्षण संस्थाओं की .. परीक्षाओं का आयोजन * पू. आचार्य भगवंत आदि साधु-साध्वीगण, पंडित वयों एवं शिक्षण | प्रेमी महानुभावों के पधारने पर विशिष्ट मुलाकातों का आयोजन / * हर सोमवार को सूत्र, अर्थ काव्य आदि का पुनरावर्तन कक्षा में कराया जाता उपरोक्त विशेषताओं के फलस्वरूप . वर्तमान में संपूर्ण भारत में अद्वितीय उदाहरण रूप 800 से भी अधिक बालक, बालिंकाएँ एवं महिलाएं सुन्दर ढंग से धार्मिक शिक्षण प्राप्त कर अपने जीवन को संसुस्कावी बना रहे हैं। . याद रखिए..... | बच्चा आपका...हमारा...और श्री संघका बहुमुल्य रत्न है अतःउसको आगे बढ़ने के | लिए प्रेरणा एवं प्रोत्साहन दीजिए एवं || नियमित पाठशाला भेजीए........ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगी भाग्यशाली - मोडर्न कट पीस सेन्टर श्रीमती पुष्पाबेन प्रकाशचंदजी शा ताराचंदजी प्रतापचंदजी राठोड शा मिश्रीमलजी नवरतनमलजी (अरिहंत) श्री हिन्दुस्तान क्लॉथ सेन्टर मेसर्स एम. अशोक एण्ड को. शा देवीचंदजी मिश्रीमलजी एण्ड को. शा मिश्रीमल भबुतमल एण्ड ब्रदर्स मेसर्स हीरा टेक्सटाईल्स (शा अशोकभाई संघवी) संघवी शा केवलचंदजी जीवराजजी पिरगल शा मगराज मानमलजी एण्ड को. श्री मंगल मोती सीन्डीकेट शा हीराचंद फुलचंद एण्ड को. श्री गणपति टेक्सटाईल्स श्री मोतीबा होजरी शा सुरजमल मगराज एण्ड को. शा प्रेमराजजी चंपालालजी श्री मेजन्टा मेडीको मेसर्स हेमंतकुमार सील्क हाऊस श्रीमती गटुबाई हीराचंदजी पगारिया मेसर्स बी. प्रवीणकुमार धन्यवाद सभी श्रुत प्रेमी महानुभावों को Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगी भाग्यशाली शा जयन्तिलाल दीपचंदजी शा मोटमलजी कानमलजी(स्व.मुकेश की स्मृति में) शा अमीचंदजी रणजीतकुमार सोलंकी गढसिवाना शा जुटमलजी मुलाजी (कर्णाटका उद्योग) मेसर्स मरक्युरी एजेन्सी (नयारोड़) पारस इलेक्ट्रीक कारपोरेशन (पेसोलाईट) मेसर्स जे.के. कम्पनी (कमलाबेन हेमराजजी) शा प्रकाशचंदजी चुनीलालजी सीरोही मेसर्स पी.सी.छाजेड एण्ड को. श्री पद्मावती हेन्डलूम श्री महावीर ग्लास हाऊसमेसर्स मेसर्स महेन्द्रा लाईट्स . मेसर्स मेन्स एवेन्यु बाई मिलन शा भवरलालजी तोलचंदजी कटारीया शा चंपालालजी ओपचंदजी ओस्तवाल (नवकार ज्वेलर्स) मेसर्स मेडल होजरी मेसर्स ममता टेक्सटाईल्स मेसर्स मदन ट्रेडर्स (श्री पनेचंदजी) मेसर्स मनमंदिर मेसर्स महावीर ट्रेडर्स (शंकर मार्केट) साधर्मिक बहन धन्यवाद सभी श्रुत प्रेमी महानुभावों को Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस प्राण ४.आर श्वासोच्छ्यास यास वचनथळ कायाळ . कान -आंख CS नाक जीभ चमडी पर्याप्ति सम्स्थावर ७दर लिंगी 5 इन्द्रिय चैतन्य कान छकाय पक्षीकाम | पसाय उनए सायन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . // ॐ अहम् नमः // ENIP श्री दंडक प्रकरण (वियार स्तव, विद्यार षट् त्रिशिका, विज्ञप्ति - षट् त्रिंशिका) सार्थ रचथिता: श्री गजसार मुनि इस ग्रंश्व के दूसरे नाम . (1). दंडक पदों को मुख्य रखकर विवेचन किया गया है अतः इस ग्रंथ का नाम दंडक प्रकरण है (2) दंडक पदों को मुख्य रखकर विवेचन किया गया है कि सभी उसके उपर जिन जिन द्वारों से आगमो में विचार किया गया है यह विचार महत्वपूर्ण होने से तथा प्रकरण की मूल गाथा 36 होने से : दूसरा नाम विचार षट् त्रिशिका है। (3) इस प्रकरण की रचना इस तरह की गई है कि दंडक पद पर विचार होता रहें एवं तीर्थंकर भगवंतो को विनति रूप स्तुति होती जाय अतः तीसरा नाम विज्ञप्ति षट् त्रिशिका भी है। (4) विचार एवं विनंति को साथमें जोडने से विचार और विज्ञप्ति याने विचार स्तव ऐसा चौथा नाम भी है (5) दंडक पदों पर आगमों में बहुत ही विस्तार से अनेक द्वारों का विवेचन मिल रहा हैं तब इस ग्रंथ में बताए द्वार. उनका मर्यादित . प्रचलित विशेष उपयोगी मुख्य संग्रह हैं / अतः लघु संग्रहणी . ऐसा पाँचवा नाम भी है। (3,4,10,16,17 वी गाथाएँ स्पष्ट रूप से अन्य ग्रंथोकी मालुम हो रही है / ) - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = संबंध जगत में हम अनेक सजीव निर्जीव पदार्थ देखते हैं, इस सबकी विविध विशेषता जाननेकी इच्छा जिज्ञासु को सदा होती रहती है / ज्ञानी पुरूषों ने जगतके समय पदार्थों का संक्षेप एवं विस्तृत स्वरूप मुमुक्षु आत्माओं के लिए आगमों में वर्णित किया है / उसमें भी सजीव पदार्थो का खूब ही विस्तृत वर्णन है / इन को समजने हेतु सभी सजीव पदार्थों का 24 विभागों में सामान्य संग्रह किया है। इन चोबीश सजीव पदार्थो के बारे में अनेक बातें समझाने वाले संख्यातीत द्वार आगम ग्रंथोमें है / एक द्वार पुरा होता है कि तुरन्त दूसरे द्वार की शुरूआत में पुनः२४ सजीव पदार्थोपर विवेचन इस तरह बार बार 14. सजीव पदार्थोका सूत्र पाठ आता रहे ऐसे बार बार आते और महत्व के सूत्र पाठों को दंडक पद कहते हैं। इस दंडक पदों मे बताये सजीव 24 पदार्थोकी हकीकत समझाने के लिए आगम ग्रंथों मे अनेक द्वार बताए हैं। साधारण बाल जीव उसमें जल्दी प्रवेश नही कर शकते अतः बालजीवों को सरलता से प्रवेश करने इस विषय का संक्षिप्त में स्वरूप बताने इस ग्रंथकीरचना उपकार बुद्धि से की है। जीवविचार - नवतत्व के विषय से इस ग्रंथका विषय एवं विषयका बंधारण (रचना) कुछ अलग प्रकार का है यह समझ में आता है। जीव विचार में सिर्फ जीवका स्वरूप एवं जीवों के भेद प्रभेदकी जानकारी है / नवतत्त्व में पूरे विश्वका तत्त्वज्ञान आता हैं उसमें से सिर्फ जीवतत्त्व के मुख्य भेदों के गुण स्वभाव आदि बताने इस प्रकरण कीरचना है। यानी कि एक ही विषय में जीवविचार से यह प्रकरण आगे बढ़ता है। - 6 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / / श्री आदिनाथाय नमः। श्रीदंडक प्रकरण सार्थ मंगल, विषय, संबंध, अधिकारी और प्रयोजन / गाथा: नमिउंचउवीस जिणे, तस्सुत्तवियारलेसदेसणओ; दंडगपएहिंते चियथोसामि,सुणेह भो? भत्वा||२|| संस्कृत अनुवाद : नत्वाचतुर्विंशतिजिनान, तत्सूत्रविचारलेशदेशनतः। दण्डकपर्दस्तानेव, स्तोष्यामिशृणुध्वं भो। भव्याः॥१|| शब्दार्थ :नमिउं-नमस्कार करके दंडगपएहिं-दंडक के पदों से चउवीस-चौवीस ते-उन जिनेश्वरों की जिणे-जिनेश्वरों को च्चिय-निश्चय, ही तस्सुत्त-उनके सूत्र का थोसामि-स्तुति करूंगा सिद्धांत का सुणेह-सुनियें वियार-विचार, स्वरूप भो-हे। लेस-अल्प भव्वा-भव्य जीवों। देसणओ-दिखानेसे। कहने से | अन्वय सहित पदच्छेद चउवीस-जिणे नमिउं, दंडग-पएहिं तस्सुत-वियार-लेस-देसणओ ते च्चिय थोसति, भो ! भव्वा ! सुणेह // 1 // | दंडक प्रकरण सार्थ (1) मंगलाचरण Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ चोवीस जिनेश्वरों को प्रणाम करके, दंडकपदों द्वारा उनके सूत्रों का विचार-स्वरूप के, अल्पभाग को दिखाते हुए, उनकी ही स्तुति करूंगा, अत: हे भव्य जीवों आप सुनियें। विशेषार्थ इस गाथा में मंगलाचरण, विषय, संबंध, प्रयोजन और अधिकारी का वर्णन किया गया हैं। 1. मंगलाचरण :- ग्रन्थरचना रूप उत्तम कार्य की पूर्णता में किसी भी प्रकार के विघ्न न आयें, इसलिए हितस्वी और आस्तिक शिष्टपुरुषों की आज्ञा अनुसार तपश्चर्या, गुरु आज्ञा, ध्यान-प्रणिधान, स्तुति, पवित्रमन आदि जो जो. मांगलिक क्रियाएँ ग्रंथारंभ करने के पहले आचार्य महाराज ने की हो, वह आचार शिष्यों को परम्परा में मिलता रहे, इसलिए 'नमिउं चउवीस जिणे' इस तरह मंगलाचरण के पद रखे हैं। 2. विषय :- दंडक पदों के बारे में श्री जिनेश्वरों के आगम में दर्शित विचार को, संक्षेप में समझाना है। 'दंडग-पएहिं वियारलेसदेसणओ' इन पदों से विषय दर्शाया गया है। . 3. संबंध :- ये विचार अपनी मति कल्पना से दर्शाया नहीं है। लेकिन जिनेश्वर प्रभु के शास्त्रों में जो दर्शाया गया है, उनके अनुसार कहा जायेगा। मतलब यह है कि आगम शास्त्रों के साथ इस प्रकरण का संबंध है। यह संबंध गाथा में तस्सुत्त-वियार' पदों से दर्शाया गया है। 4. प्रयोजन :- भविक बालजीवों को संक्षेप में ज्ञान कराने के लिए, और संसारी जीवों की मुसीबतें समझाकर मोक्ष के लिए उत्कंठित करने के लिए, तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए उत्सुक जीवों को मोक्ष के उपाय के रूप में श्री जिनेश्वर भगवंतों और उनके उपदेश का शरण स्वीकारने का सूचन करके परंपरा से स्व | दंडक प्रकरण सार्थ নালার Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पर के मोक्ष का निमित्तरूप होना प्रयोजन है। इसकाल के बालजीव विस्तार से, आगम के विचार समझ नहीं सकने की वजह से, वे शास्त्र बोध से वंचित रहते हैं, शास्त्र बोध से वंचित रहने की वजह से अधिगम नहीं होता, अधिगम नही हो, तो फिर सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् चारित्र की प्राप्ति किस तरह होगी? इसलिए संक्षेप में बोध कराने के लिए, इस प्रकरण की रचना आवश्यक है। प्रायोजन :-संक्षेप में पदार्थ का बोध कराना (लेस-देसणओ)' 2. पदार्थ का बोध कराके मोक्ष की अभिलाषा जागृत करनी। 3. मोक्ष की अभिलाषा जागृत करने के बाद अरिहंतों का शरण स्वीकार करने की सलाह अपने दृष्टांत से करना। तेच्चिय-थोसामि . (भगवान की स्तुति करना, यह भी एक सम्यक् चारित्र है। जिसके परिणाम में सम्यक् चारित्र हो वहीं सम्यग् ज्ञान कहलाता है।) 4. सम्यग् ज्ञान गर्भित सम्यक् चारित्र मोक्ष का मुख्य उपाय है। परंपरा से खुद को और श्रोताओं को मोक्ष प्राप्ति हो, यह भी प्रयोजन हैं। 5. अधिकारी :- इस ग्रंथ के श्रवण, अभ्यास और चिंतन के अधिकारी भव्य जीव हैं। क्योंकि भव्य जीवों में ही इस ग्रंथ का, अभ्यासादि का कुछ भी परिणाम आने की संभावना है। 'सुणेह भो / भव्वा' / इस पदसे गाथा में अधिकारी का सूचन किया गया है। अभव्य जीव मोक्षप्राप्ति के लिए अयोग्य होने से, उनको शास्त्रोपदेश देना निष्फल है। . 6. 24 की संख्या :- इस गाथा में चोवीस तीर्थंकर भगवंतों को प्रणाम रूप मंगलाचरण किया है। उन चोवीस तीर्थंकरों के एक समान अभिप्रायवाले सूत्रों के अनुसार ही चोवीस प्रकार के विचार, चोवीस दंडकों द्वारा समझाते-समझाते उन चोवीस तीर्थंकरों की स्तवना रूप इस ग्रंथ की रचना की जाती है। दंडक प्रकरण सार्थ (3) मंगलाचरण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. दंडक पद :- दंडक शब्द का अर्थ यह है कि मुख्य और अति महत्व के बारबार उपयोग में आनेवाले आगम सूत्रों के जो पाठ होते हैं वह दंडक पद - कहे जाते हैं। '(सामायिक दंडक उच्चरावोजी)' अथवा दण्डयन्ते जीवा यस्मिन्, स दण्डकः अर्थात् सिद्ध, बुद्ध, निर्मल, निरंजन, निराकार, अनंत बल, वीर्य, ज्ञान, दर्शनवंत आत्मा जिसमें कर्मादि दंडो से दंडित होता है, और अनेक विषम-स्थिति को भोगता है ऐसे पदों को दंडक पद कहा जाता है। (दंडगपय-भमण-भग्ग-हिययस्स (43)) इस गाथा की रचना बहुत गहरे रहस्यमय होने से, अच्छी तरह से ध्यान देकर समझें। 24 दंडक पद गाथा नेरइआ असुराईपुढवाईबेइन्दियादओचेवः गब्भयतिरिय-मणुस्सा, वंतर, जोइसिय,वेमाणी||२|| संस्कृत अनुवाद नैरयिका असुरादयः, पृथ्व्यादयोद्रीन्द्रियादयश्चैव। गर्भजतिर्यगमनुष्या, व्यंतरोज्योतिष्कोवैमानिकः॥२॥ शब्दार्थ :नेरइया-नारकों तिरिय-तिर्यंच असुराई-असुरकुमार आदि मणुस्सा-(गर्भज) मनुष्य पुढवाई-पृथ्वीकाय आदि वंतर-व्यन्तर बेइन्दियादओ-बेइन्द्रिय आदि जोइसिय-ज्योतिषी गब्भय-गर्भज वेमाणी-वैमानिक | दंडक प्रकरण सार्थ (4) 24 दंडक पद Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यवसहित पदच्छेद गाथावत् गाथार्थ नारक, असुरकुमार आदि, पृथ्वीकाय आदि, बेइन्द्रिय आदि, गर्भज तिर्यंच, और मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक // 2 // विशेषार्थ : 1. रत्नप्रभा नरक, २.शर्कराप्रभा नरक, 3. वालुकाप्रभा नरक, पंकप्रभा नरक, 5. धूमप्रभा नरक, 6. तमः प्रभा नरक, 7. तमस्तमः प्रभा नरक, इस तरह सात प्रकार पृथ्वी के भेद अनुसार सात प्रकार के नरक का एक दंडक गिना गया है। तथा 1. (1) असुरकुमार, 2. नागकुमार, 3. विद्युतकुमार, 4. सुवर्णकुमार, 5. अग्निकुमार, 6. द्वीपकुमार, 7. उदधिकुमार, 8. दिशिकुमार, 9. वायुकुमार, 10. स्तनित कुमार, इस तरह भवनपति देवों के 10 दंडक है। . 1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 3. अग्निकाय, 4. वायुकाय और 5. वनस्पतिकाय, इस तरह पृथ्वीकाय आदि पांच स्थावरों का या पांच एकेन्द्रियों के 5 (पांच) दंडक हैं। 1. द्वीन्द्रिय, 2. त्रीन्द्रिय, और 3. चतुरिन्द्रिय, इस तरह तीन विकलेन्द्रिय के तीन दंडक हैं। तथा गर्भज तिर्यंच का एक, गर्भज मनुष्य का एक, (2)16 व्यंतरों का फूटनोट :1) 15 प्रकार के परमाधार्मिक देवों को असुरकुमार निकाय में गिनना। 1- सब व्यंतर मिल के 105 प्रकार के होते है; उनके भेद दूसरे ग्रन्थ से जानना। | दंडक प्रकरणा सार्थ (5) दंहक प्रकरण सार्थ | Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक, 5 ज्योतिषी का एक, और +26 वैमानिक देवों का एक दंडक मिलकर 5 दंडक हैं। यह सभी मिलकर 24 दंडक होते हैं। प्रश्न :- दस भवनपति के दस दंडक गिनें और 16 व्यंतरों का, 5 ज्योतिषीओं का, 26 वैमानिकों का और 7 नरकों का एक-एक दंडक क्यों गिना ? तथा संमूर्छिम जीवों को दंडक के पदों में क्यो नहीं गिने ? उत्तर :- सिद्धान्त में पूर्वाचार्यों ने इस तरह से ही दंडक गिनती की है। इसलिए इस ग्रंथ में भी सिद्धान्त अनुसार दंडकों की संख्या बतायी गयी है। और सेन प्रश्न में भी कहा गया है कि “प्रश्न :- चतुर्विंशति दंडक मध्ये भवनाधिपानां दण्डक दशकं प्रोक्तमपरेषां व्यन्तरादि कानां दण्डक एकैक : प्रोक्तस्तत्रकिं कारणम् ? उत्तर : अत्र सूत्रकृतां विवक्षैव प्रमाणमिति।" प्रश्न :- 24 दंडक में भवनपति के दस दंडक कहें और व्यंतरादि का एक-एक दंडक कहा, इसका क्या कारण हैं ? उत्तर :- इसमें सूत्रकारों की विवक्षा (उस तरह से कहने की इच्छा) ही प्रमाण है। संमूर्छिम जीवों और संमूर्छिम मनुष्यों के बारे में प्रसंग अनुसार 40 वी गाथा के विवेचन में कहेंगें। २४द्वारों का संक्षिप्त संग्रह गाथा संखित्तयरी उइमा,सरीरमोगाहणायसंघयणा सन्नासंठाण कसाय, लेसिन्दियदुसमुग्घाया॥३॥ फूटनोट :+12 कल्पोपन्न, 9 ग्रेवेयक, 5 अनुत्तर पे 26 प्रकार के वैमानिक देव है। 3 किल्बिषिक देव :1. पहले-दूसरे देवलोक के नीचे, 2. तीसरे-चौथे देवलोक के नीचे, 3. छट्टे देवलोक के नीचे है। और 9 लोकान्तिक को पांचवे ब्रह्मकल्प देवलोक में गिनना। दंडक प्रकरण सार्थ (6) 24 द्धारों का संक्षिप्त संग्रह Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवीदंसणनाणेजोगुवओगोववायचवण ठिई: पज्जति किमाहारे,सन्नि गईआगईवेए|४|| संस्कृत अनुवाद संक्षिप्ततरात्वियंशरीरमवगाहनाचसंहननानि। संज्ञासंस्थानकषाय-लेश्येन्द्रियद्विसमुद्घाताः॥३॥ दृष्टिदर्शनं ज्ञानं,योगउपयोग उपपातश्च्यवनं स्थितिः। पर्याप्तिः किमाहार:संज्ञिर्गतिरागतिर्वेदः||४|| शब्दार्थ :संखित्तयरी-अति संक्षिप्त / दंसण-दर्शन उ-और नाणे-ज्ञान इमा-यह जोग-योग सरीरं-शरीर, देह / उवओग-उपयोग ओगाहणा-अवगाहना उववाय-उपपात जन्म संघयणा-संघयण चवण-च्यवन मरण सन्ना-संज्ञा ठिई-स्थिति, आयुष्य संठाणं-संस्थान पज्जति-पर्याप्ति कसाय-कषाय किमाहारे-किमाहार दिगाहार लेस-लेश्या. सन्नि-संज्ञि इंदिय-इन्द्रिय गई-गति दुसमुग्घाया-दो समुद्घात आगई-आगति दिट्ठी-दृष्टि | वेए-वेद अन्यवसहित पदच्छेद उसंखित्तयरीइमा,सरीरंओगाहणायसंघयणा सन्नासंठाण कसाय, लेसाइन्दियदुसमुग्घाया // 3 // दिवीदेसण नाणे, जोगउवओगउववायचवणठिई। पज्जति किमाहारे,सन्नि गईआगईवेए॥४॥ | दंडक प्रकरण सार्थ (7) 24 द्धाटों का संक्षिप्त संग्रह | Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ अति संक्षिप्त संग्रह इस तरह है :- शरीर, अवगाहना, संघयण, संज्ञा, संस्थान, कषाय, लेश्या, इन्द्रिय, दो समुद्घात, दृष्टि, दर्शन, ज्ञानअज्ञान, योग, उपयोग, उपपात, च्यवन, स्थिति, पर्याप्ति, किमाहार, संज्ञी, गति, आगति और वेद। विशेषार्थ 24 दंडक पद में उतारने योग्य याने जानने योग्य द्वार 24 से भी ज्यादा होने पर भी यहां पर अति संक्षेप से सिर्फ 24 द्वारों का ही संग्रह किया हैं। इसलिए मूल गाथा में संखित्तयरी उ इमा' (यह अति संक्षिप्त है) ऐसा कहा है। इसलिए टीकाकार ने भी इस प्रकरण का नाम लघु संग्रहणी रखा हैं। . 1. शरीर-५ औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण . 2. अवगाहना-६ औदारिक :- जघन्य - उत्कृष्ट वैक्रिय :- जघन्य-उत्कृष्ट आहारक :- जघन्य-उत्कृष्ट 3. संघयण 6 :-1. वज्र ऋषभ नाराच 4. अर्ध नाराच 2. ऋषभ नाराच ५.कीलिका 3. नाराच 6. छेवट्ठ ___4. संज्ञा 4-6-10-16 आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ओघ, लोक, क्रोध, मान माया, लोभ, मोह, धर्म सुख, दुःख, जुगुप्सा, शोक संस्थान 6 :-समचतुरस्र, न्यग्रोध परिमंडल 5. दंडक प्रकरण सार्थ (8) 24 दारों का संक्षिप्त संग्रह Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सादि , वामन, कुब्ज, हुंडक, 6. कषाय-४ - क्रोध,मान,माया,लोभ / 7. लेश्या-६-कृष्ण,नील,कापोत,तेजो,पद्म,शुक्ल। 8. इन्द्रिय-५ : 1. द्रव्य-१० :- अभ्यन्तर निवृत्ति-५ :- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र बाह्य निवृत्ति-५ :- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र / 2. भाव-१० :- लब्धि-५ उपयोग-५ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र 9. समुद्घात-२ :- जीव-अजीव जीव समुद्घात-७ :- वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तेजस, आहारक केवली। 10. दृष्टि-३ :- मिथ्या, मिश्र, सम्यक् 11. दर्शन-४ :- चक्षु,अचक्षु, अवधि,केवल 12. ज्ञान-५ :- मतिज्ञान,श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान,मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान। 13. अज्ञान-३ :- मतिअज्ञान श्रुतअज्ञान / विभंगज्ञान 14. योग-३ :- मन 4, वचन 4, काया 7 _मन 4 :- * सत्य मनोयोग असत्य मनोयोग सत्यासत्य (मिश्र) मनोयोग असत्य अमृषा मनोयोग वचन 4 :- सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग सत्यासत्य (मिश्र) वचनयोग, असत्यअमृषा वचनयोग दंडक प्रकरण सार्थ (9) 24 दारों का संक्षिप्त संग्रह Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काया-७ :- औदारिक काययोग वैक्रिय काययोग आहारक काययोग औदारिक मिश्र काययोग वैक्रिय मिश्र काययोग आहारक मिश्र काययोग तैजस कार्मण काययोग 15. उपयोग-१२ :- साकार 8, निराकार 4 / / साकार 8 :- मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मति अज्ञान श्रुत अज्ञान विभंग ज्ञान मनः पर्याय ज्ञान केवलज्ञान निराकार 4 :- चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन केवलदर्शन 16. उपपात :- एक समय में कितने उत्पन्न होवे ? कितने समय तक उत्पन्न नहीं होवे ? 17. च्यवन :- एक समय में कितने मरे ? कितने समय तक मरे नहीं ? 18. स्थिति :- आयुष्य : जघन्य और उत्कृष्ट | दंडक प्रकरण सार्थ (10) 24 द्धारों का संक्षिप्त संग्रह Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. पर्याप्ति-६ :-आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास भाषा मन . 20. किमाहार :- तीन दिशा का चार दिशा का पांच दिशा का छ दिशा का 21. संज्ञा-३ :- हेतुवादोपदेशिकी दीर्घकालिकी दृष्टिवादोपदेशिकी 22. गति :- कौनसे दंडक में जाते है ? * 23. आगति :- कौनसे दंडक में से आते हैं ? 24. वेद-३ :- पुरुष स्त्री .. नपुंसक 25. अल्प बहुत्व प्रासंगिक उपयोगी व्याख्याएँ 1. शरीर:- शरीर, देह, काया आदि पर्याय नाम है, शरीर का अर्थ होता है नाशवान। 'शीर्यते यत्, तत् शरीरम्' शरीर पांच प्रकार के हैं। औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण। दंडक प्रकरण सार्थ (11) ठपयोगी व्याख्याएँ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. औदारिक :- उदार वह औदारिक शरीर, उदार याने विशाल, उदारगुण, उत्तम, स्थूल, ऊंचा। 1. विशाल :- इस शरीर की विशालता इस तरह है कि यह देव और नरक के अलावा सभी जीवों को होता है। यह शरीर तीर्थंकर भगवंत को, चक्रवर्ती, गणधर, केवलि-महाराज, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव, नारद, रुद्र आदि महापुरुषों को भी होने से विशाल गुण धारण करता है। 2. उदारगुण :- मोक्ष और अनंत लब्धि भी इस शरीर के द्वारा ही प्राप्त होती है। 3. उत्तम :- अन्य चार शरीरों की अपेक्षा यह शरीर रचना, सुंदरता और कांति के बारे में उत्तमता धारण करता है। 4. स्थूल :- आठ ग्रहण करने योग्य वर्गणाओं में से औदारिक शरीर रूप मे से ग्रहण करने योग्य वर्गणा में पुद्गल परमाणु कम होते है लेकिन उनका परिणाम स्थूल होता है। ऐसी स्थूल वर्गणा से बना हुआ होने से स्थूल कहा जाता है। 5. ऊंचा-बड़ा :- अन्य शरीर की स्वाभाविक ऊंचाई से औदारिक शरीर की ऊंचाई सबसे ज्यादा है। याने हजार योजन से भी कुछ ज्यादा ऊंचाई होती है। 2. वैक्रिय शरीर :- विक्रियावाला जो होता है वह वैक्रिय। विक्रिया याने भिन्न-भिन्न प्रकार की क्रियाएँ, जैसे की छोटे से बड़ा होना, बड़े से छोटा होना, एक का अनेक, पृथ्वी पर फिरने वाला, आकाश में उडनेवाला, भारी हल्का, दृश्य, अदृश्य आदि विविध प्रकार की क्रियावान होना अथवा विशिष्ट अद्भुत क्रियाएँ जैसे लाख योजन से भी कुछ अधिक ऊंचाईवाला बन सकता है। और देवों के सौंदर्य की अपेक्षा से भी अद्भुत है। यह शरीर औदारिक शरीर से कुछ ज्यादा सूक्ष्म पुद्गलों की वर्गणाओं से बनता है। उसकी रचना स्वाभाविक रूप से होती है। लेकिन औदारिक शरीर की तरह सात धातुओं से नहीं होती है। | दंडक प्रकरला सार्थ (12) पयोगी व्याख्याए Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह शरीर देवों तथा नरक को भवप्रत्ययिक होता है। और लब्धिधारी, पंचेन्द्रिय, तिर्यंच-मनुष्य तथा बादर पर्याप्त वायुकाय को लब्धि प्रत्ययिक होता है। लब्धि प्रत्ययिक दो प्रकार का है - तपश्चर्यादि से मुनि भगवंत को जो होता है वह गुणप्रत्ययिक और वायुकाय, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि को तपश्चर्यादि बिना ही कार्य विशेष (प्रसंग) पर बनाने की जो शक्ति होती है वह लब्धि प्रत्ययिक कहा जाता है। दिगम्बर इसको भी भव प्रत्ययिक कहते है। 3. आहारक शरीर :- (१)आम!षधि आदि लब्धिवाले + चौद पूर्वधर मुनिमहाराज ही विशेषतः आहारक वर्गणा के पुद्गलों को आहारण याने ग्रहण करके बनाते है। इसलिए इसका नाम आहारक शरीर कहा जाता है। इस शरीर की रचना पूर्वधर पुरुषों को कोई संशय हो तो उसका निराकरण करने के लिए आहारक शरीर बना कर, पास में, या दूर रहे हुए विचरते केवलि भगवंत के पास या तीर्थंकर भगवंत के पास भेजते है और तीर्थंकर भगवंतों की समवसरणादि ऋद्धि को देखने के लिए एक हाथ प्रमाण का (बंध मुट्ठी वाले - एक हाथ) वैक्रिय शरीर से कई अधिक देदीप्यमान शरीर बनाकर भेजते है। वहां वंदनादिक कार्य समाप्त कर वापस आकर आत्म प्रदेशों मूल औदारिक शरीर में प्रवेश होते ही तुरंत वह बिखर जाता है। यह शरीर जब विद्यमान होता है तब उत्तर वैक्रिय शरीर की तरह मूल और बनाया हुआ दोनों शरीर के बीच में आत्म प्रदेशों की लंबी श्रेणी होती है। ___ इस शरीर की वर्गणाएँ वैक्रिय शरीर की वर्गणा से सूक्ष्म और तेजस्वी होती हैं यह शरीर संपूर्ण संसार चक्र में सिर्फ चार (4) बार ही किया जाता है। .4. तैजस शरीर :- तैजस वर्गणा के पुद्गलों में से इस शरीर की रचना होती है। शरीर में और जठर में जो गर्मी महसूस होती है वह इस शरीर की है। फुटनोट : .. ''आमर्षोंषधि याने शरीर में अथवा उनके किसी भी अंगोपांग में ऐसी लब्धि (शक्ति) उत्पन्न होती है। जिसके स्पर्श मात्र से सभी रोग नष्ट हो जाते है। + ये लब्धियां और चौद पूर्वधर के बिना आहारक लब्धि होती नहीं है। दंडक प्रकरण सार्थ (13) उपयोगी व्याख्याएँ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपश्चर्यादि के द्वारा इस शरीर को ऐसा बना सकते है कि जिससे किसी को क्रोध से श्राप आदि देकर जला सकते है और अनुग्रह (उपकार) बुद्धि से जलते हुए पदार्थ को शीतलता देकर बुझा सकते है। उस समय इस शक्तियों को तेजोलेश्या और शीतलेश्या लब्धि कहते है। इस शरीर का कार्मण शरीर के साथ अनादिकाल से संबंध है। और आहारक शरीर की वर्गणा से इस शरीर की वर्गणा में परमाणु ज्यादा होते है फिर भी उनका परिणाम आहारक शरीर से सूक्ष्म होता है। 5. कार्मण शरीर :- जीव हरेक समय कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके आत्मा के साथ उसी वक्त बांधता है। उसको कर्मबंध कहा जाता है। इस तरह तैजस वर्गणा से अति सूक्ष्म कार्मण वर्गणा को आत्मा के द्वारा ग्रहण कराते हुए पुद्गलों के एक प्रकार के समूह को आठ कर्म के रूप में बांटना, ऐसी रचना को कार्मण शरीर कहते है। यह शरीर आत्मा के साथ अनादिकाल से है। भव्य को मोक्ष में जाने तक और अभव्य को अनंत काल तक साथ में रहता है। यह शरीर जहां तक होता है वहां तक कर्मबंध होता रहता है। और आगे कहे हुए चारों शरीर को धारण करना पड़ता हैं / यह शरीर प्रतिघात रहित है अर्थात् किसीसे रुकता नहीं, किसीको रुकाता नहीं है। यह शरीर अपने आप धर्म-अधर्म, कर्मबंध-निर्जरा, सुखदुःख, हिंसा आदि कुछ भी नहीं कर सकता। परभव जाते समय जीव के साथ तैजस, कार्मण ये दो शरीर होते हैं। और उत्पन्न होते समय ही यह जीव इन दो शरीर की सहायता से ही प्रथम समय में आहार ग्रहण करता है। २.अवगाहना अवगाहना का मतलब है लंबाई, ऊंचाई। वह उत्कृष्ट (ज्यादा से ज्यादा) और जघन्य (कम से कम) ऐसे दो प्रकार की हैं। और वह मूल शरीर की तथा उत्तर शरीर की भी होती है। दंडक प्रकरण सार्थ (14) अवगाहना द्वार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३.संघयण संघयण याने हड्डीयों की रचना। कहा है कि “संघयणमट्ठि निचओं' वह छ प्रकार के हैं। 1. वज्रऋषभ नाराच 4) अर्ध नाराच 2. ऋषभ नाराच 5) कीलिका 3. नाराच 6) सेवार्त या छेवठ्ठ 1. वज्रऋषभ नाराच :- वज्र याने किल, ऋषभ याने पाटा, नाराच याने दोनों तरफ से मर्कटबंध / मर्कटबंध का मतलब है कि बंदरी को उसका बच्चा जिस तरह से चिपक कर रहता है, उसको मर्कटबंध कहते है। इस तरह से जो रचना होती है वह मर्कटबंध से बंधे हुए हड्डी के ऊपर ऋषभ याने पाटा लगाया जाता है और उसके ऊपर, आरपार जानेवाला किल लगाया जाता है तब जैसी मजबूती होती है उसे वज्र ऋषभ नाराच कहते हैं। 2. ऋषभ नाराच :- (वज्र-किल बिना का) मर्कटबंध के ऊपर पाटा होने से जो दृढ़तावाली हड्डी की रचना होती है वह ऋषभनाराच। 3. नाराच :- सिर्फ मर्कटबंध की दृढ़ता जैसी दृढ़तावाली हड्डी की जो रचना होती है वह नाराच। 4. अर्धनाराच :- आधा मर्कटबंध की दृढ़ता जैसी दृढ़तावाली हड्डी की रचना को अर्धनाराच कहते है। 5. कीलिका :- मर्कटबंध के बिना, दो सांधे के आरपार किल लगा होता हैं, तब जैसी दृढ़ता होती है ऐसी दृढ़तावाली हड्डी की रचना को कीलिका कहते है। 6. छेवढु अथवा सेवार्त :- संधिस्थान पर आमने-सामने आये हुए दो अंतिम भाग को खंडनी के अंदर रखे हुए मुशल की तरह एक भाग की खोभण (थोड़ा खाली भाग) में दूसरा भाग का बूठा भाग थोडासा उतरकर याने स्पर्श | दंडक प्रकरण सार्थ (15) संघयण द्वार Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके रहा हुआ होता है (१)इसलिए उसको छेदस्पृष्ट (हड्डी के दो भाग से स्पर्श किया हुआ) संघयण कहते है अथवा जिसके सांधे तेलादि मर्दन (मालिश) की सेवा से ही दृढ़ रहते है वह सेवार्त / तथा छेदवर्ति अथवा छेदवृत्त (हड्डी के अंतिम भाग को छेद कहते है, उससे वृत्त याने रहनेवाला उसको छेदवर्ति, छेदवृत्त भी कहते है। ४.संज्ञा 4-6-10-16 संज्ञानम्-संज्ञा :- जिससे जीव की चेतना जानी जा सके उसे संज्ञा कहते है, याने चेतना / वह दो प्रकार की है मति आदि 8 प्रकार की ज्ञान-संज्ञा और मोहनीय आदि कर्म के उदय से या क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाली अनुभव-संज्ञा कही जाती है। सिद्धांतों में अनुभव संज्ञा के लिए संज्ञा का अर्थ अभिलाषा किया गया है। अनुभवसंज्ञा 4-6-10 और 16 प्रकार की है वह इस प्रकार है :संज्ञा कौनसे कर्म के उदय से? 1. आहार-खाने की इच्छा अशाता वेदनीय के उदय से 2. भय-डर लगना भय मोहनीय के उदय से 3. मैथुन-विषय सेवनकी इच्छा वेद मोहनीय के उदय से 4. परिग्रह-संग्रह करने की इच्छा लोभ मोहनीय के उदय से (2)5. ओघसंज्ञा-१) पूर्वसंस्कार / / मति ज्ञानावरणीय तथा 2) मोघम-मुंगु 3) सामान्य शब्द / दर्शनावरणीय कर्म के अर्थ का भान 4) (दर्शनोपयोग) क्षयोपशम से फूटनोट :(१)इस तरह उखल (खंडनी) में मुसल की तरह स्पर्श करके रही हुई हड्डी, खींचने से या गिरने से जब उसके स्थान से निकल जाती है। हड्डी उतर गयी (मोच आ गई) ऐसा कहा जाता है। (2)1. वेलडीया (लता) सपाट (सीधी) भूमि छोडकर दिवार, पेड, थंभे आदि पर चढती है। तथा बालक जन्म के समय से ही स्तनपान करता है आदि को ओघ संज्ञा कहते है। दंडक प्रकरण सार्थ (16) संज्ञा द्वार Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16. लोकसंज्ञा-लौकिक व्यवहार को | मति ज्ञानावरणीय तथा अनुसरने की वृत्तिशब्द अर्थ का दर्शनावरणीय कर्म के विशेष ज्ञान (ज्ञानोपयोग) क्षयोपशम से 7.8.9.10. क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय मोहनीय के उदय से 11. मोह-ममत्व मोहनीय के उदय से 12. धर्म-धर्म करने की वृत्ति मोहनीय के क्षयादि से 13. सुख-सुख की आनंद की अनुभूति रति मोहनीय के उदय से 14. दुःख-दुःख खेद की अनुभूति अरति मोहनीय के उदय से 15. जुगुप्सा-अरुचि, कंटाला की . / जुगुप्सा मोहनीय के उदय से बेजारी की अनुभूति 16. शोक-शोक-दिलगीरी की अनुभूति | शोक मोहनीय के उदय से जीव को संज्ञी अथवा असंज्ञीं कहा जाता है वह अनुभव संज्ञा नहीं, लेकिन आगे कही गई दीर्घ कालिकी आदि संज्ञाओं से हैं। .. इन संज्ञाओं में से देवों को ज्यादातर परिग्रह और लोभ संज्ञा, नरकवालों को भय संज्ञा और क्रोधसंज्ञा, तिर्यंच को आहारसंज्ञा तथा मायासंज्ञा और मनुष्यों को मुख्यरूप से मैथुनसंज्ञा और मानसंज्ञा होती हैं। ५.संस्थान-६ _ (२)सामुद्रिक शास्त्र में कहे हुए प्रमाण से युक्त अथवा प्रमाण से रहित बना हुआ शरीर का जो आकार है उसे संस्थान कहते है। वह छ प्रकार के है :फूटनोट :(१)कूत्ते यक्ष है, कूत्ते यम को देखते है, ब्राह्मण देव है। कौआ ऋषि या पूर्वज है, मोरनी को मोर के पंख की हवा से या मोर के आंसू चाटने से गर्भ रहता है, कर्ण कान में से हुआ था, अगस्त्य ऋषि समुद्र पी गये थे, इत्यादि अनेक लौकिक कल्पनाओं को लोकसंज्ञा कहते है / (2)1. पुरुष अपने अंगुल से 108 अंगुल ऊंचा हो, उसमें भी गुल्फ (एडी ऊपर का ढेका का भाग) 4 अंगुल, जंघा (एडी से ऊपर का और गुडे (घुटने)) से नीचे का लंबा भाग) दंडक प्रकरण सार्थ (17 संस्थान द्वार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. समचतुरस्र संस्थान :- शरीर के सभी अवयव सामुद्रिक शास्त्र में बताये हुए प्रमाण से युक्त हो वह समचतुरस्र संस्थान कहा जाता है। गर्भज मनुष्य के बारे में सोचा जाये तो पर्यंकासन (पद्मासन) से बैठे हुए आदमी का 1) दाएँ घुटने से बाएँ खंधे तक। 2) बाएँ घुटने से दाएँ खंधे तक। 3) बाएँ घुटने से दाएँ घुटने तक। और 4) पर्यंकासन के मध्यभाग से लेकर नासिका के अग्रभाग तक, ये चारों माप में समान हो तो समचतुरस्र संस्थान कहा जाता है, सम-समान चतु-चारों (दो खंधे और दो घुटने) अम्र-कोने, जिसके चारों कोने समान.हो वह समचतुरस्र संस्थान कहा जाता है। 2. न्यग्रोध परिमंडल :- (न्यग्रोध याने वटवृक्ष की तरह, परिमंडल याने चारों ओर ऊपर से मंडलाकार / नाभि से ऊपर के अवयव प्रमाण युक्त हों और नाभि से नीचे के अवयव प्रमाण रहित हों वह न्यग्रोध संस्थान कहा जाता है। 3. सादि :- पांव के तल से लेकर नाभि तक का जो भाग है वह आदि याने शरीर का पहला आधा भाग प्रमाण युक्त हो और ऊपर का आधा भाग प्रमाण रहित हो वह सादि संस्थान। इस संस्थान को कितने ग्रंथकारों ने इसे साची (शाल्मली वृक्ष के आकार जैसा) भी कहा है। 4. वामन :- मस्तक, ग्रीवा, हाथ, पांब, ये चार अवयव प्रमाण युक्त हो और पीठ, उदर, छाती शेष अवयव प्रमाण रहित हो वह वामन संस्थान कहा जाता है। 24 अंगुल, जानु (गुडा का ढेका) 4 अंगुल, साथल 24 अंगुल, बस्ति (कुला का भाग) 12 अंगुल, उदर 12 अंगुल, छाती 12 अंगुल, ग्रीवा (कंठ-डोक) 4 अंगुल, मुख 12 अंगुल, इस तरह 108 अंगुल की ऊंचाई जाननी / तथा पायतल अंगुठे सहित 14 अंगुल लंबा और 6 अंगुल चौडा, केड की लंबाई 18 अंगुल, छाती का विस्तार 24 अंगुल, अंगुलीसहित हाथ की लंबाई 46 अंगुल, मस्तक की लंबाई 32 अंगुल, जंघा का परिधि 18 अंगुल, जानु की परिधि 21 अंगुल, साथल की परिधि 32 अंगुल, नाभि के नीचे भाग की परिधि 46 अंगुल, छाती और पीठ दोनो मिलकर परिधि 56 अंगुल, तथा ग्रीवा की परिधि 24 अंगुल, इत्यादि रीत से अंगोपांग के दूसरे भी छोटे-छोटे अनेक प्रमाण है। दंडक प्रकरण सार्थ (18) संस्थानद्वार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. कुब्ज :- वामन से विपरीत याने मस्तक आदि 4 अवयव प्रमाण रहित हो और पीठ आदि शेष अवयव प्रमाण युक्त हो, तो वह कुब्ज संस्थान कहा जाता है। 6. हुंडक :- प्रायः सभी अवयव प्रमाण रहित हो वह हुंडक संस्थान कहा जाता है। 6. कषाय-४ कषाय याने मलिनता, कर्मबंध का मुख्य हेतु है कषाय आत्मा की वैभाविक मलिनता है और कर्म संसार का कारण है, इसलिए कष्' याने संसार या कर्म, 'आय' याने लाभ करानेवाला वह कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ इस तरह चार प्रकार से प्रसिद्ध है। ___7. लेश्या -6 कभी-कभी कोई मनुष्य बहुत क्रोधी होते है, कोई मायावी, कोई लोभी, अभिमानी होते है ऐसे भाव किसी प्रकार के निमित्त से उत्पन्न होते है, उसे कषाय कहते हैं। फिर भी प्राणीमात्र के स्वभाव का जन्म से एक प्रकार का बंधारण बना हुआ होता है। अर्थात् प्रसंग आने पर प्राणी कषाय करते है लेकिन जन्म से ही एक प्रकार का स्वभाव होता है / जैसे कि कोई क्रोधी प्राणी, कोई शांत स्वभावी, कोई उग्र याने गुस्सेबाज, घातकी-क्रूर, दयालु, धैर्यवंत, जल्दबाजी वाले होते है। इस प्रकार स्वभाव के बंधारण को लेश्या कहते है। प्रश्न :- कर्मग्रन्थ के अभिप्राय से आठ कर्म और उनके उत्तर भेद बताये है, उसमें लेश्या के कर्म और उनके विपाक नहीं बताये है, तो फिर लेश्या यह कोई पदार्थ है, या पुद्गल की कोई असर है, या जीवात्मा की असर है ? | दंडक प्रकरण सार्थ (19) कषाय - लेरया द्वार Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर :- लेश्या (1) लौकिक व्यवहार से किया गया भावों का एक पृथक्करण है। और कषाय, कर्मग्रन्थ शास्त्र की दृष्टि से किया गया पृथक्करण (विभागीकरण) है। इसलिए लेश्या भी एक प्रकार से कषाय ही है। कषायों में उनका समावेश होता हैं। और कषाय भी एक प्रकार की लेश्या ही है। याने कषाय के कर्म पुद्गलों में मिले हुए काले आदिरंग के जो कर्म पुद्गल है, वह द्रव्य लेश्या है। और वह द्रव्य लेश्या से उत्पन्न होनेवाला जीव का जो स्वभाव विशेष है वह भाव लेश्या है। .. (लेश्या को कषायन्तर्गत गिनें तो ११वां से १२वें गुणस्थानक तक शुद्ध आतमभाव को उपचार से शुक्ललेश्या माना जाता है अथवा शास्त्र में तीन योग में भी लेश्या के पुद्गलों को अन्तर्गत गिना है तेरहवां गुणस्थानक तक योग होने से, इस अपेक्षा से वहां तक लेश्या है।) गध | की द्रव्यलेश्या वर्ण रस / स्पर्श भावलेश्या * के नाम लागणी 1) कृष्ण | अतिकाला | अतिदुर्गंध | अति कडुआ अतिकठोर | अतिक्रूर 2) नील कमकाला | कमदुर्गंध / | कमकडुआ कमकठोर | कमक्रूर 3) कापोत | भूरा | अल्पदुर्गंध | | अल्पकडुआ अल्पकठोर| अल्पक्रूर 4) तेजो लाल - | अल्पसुगंधी | अल्पमधुर | अल्पस्निग्घ अल्प शांत 5) पद्म साफ पीला | सुंगधी | मधुर स्निग्ध | शांत फूटनोट : (1) जैनशास्त्र में इस तरह के अनेक पृथकरण दिखने में आते है, जैसे की संज्ञाए, वह भी एक प्रकार से मतिज्ञान का ही प्रकार है। लेकिन मति-श्रुतादि ज्ञान और लागणी के बारे में शास्त्रीय पद्धति के ज्ञान के अभाववाले अभ्यासी को प्राणीओंमें होनेवाली चेतनाशक्तिओं के बारे में किस तरह समझाया जायें ? इसलिए चार, दस, सोलह संज्ञाओं के भेद से यह बात समझायी है। और शास्त्रीय पद्धति के ज्ञाता को कर्मग्रंथ के सिद्धांतों से समझने से ये सब कुछ समझ में आ जाता है। दंडक प्रकरण सार्थ (20) कषाय - लेश्या द्वार Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6) शुक्ल अति सफेद अति सुगंधी अति मधुर अति स्निग्ध अतिशांत इसमें तीन लेश्या अशुभ है और तीन शुभ है। चौदहवां अयोगी गुणस्थानक के अलावा दूसरे किसी भी गुणस्थानक में रहे हुए मनुष्यों का तथा पांचवे गुणस्थानक तक रहे हुए तिर्यंचों को उपरोक्त संभवित कोई न कोई लेश्या अंतर्मुहूर्तअंतर्मुहूर्त पर बदलती रहती है। तथा देव, नरक की लेश्या पश्चात् भव में आगे से और आगामि भव में अन्तर्मुहूर्त काल तक साथ में रहती है। लेश्या के भाव समझने के लिए जामुन खाने की इच्छावाले, छ भूखें आदमी का और छ डकैती डालनेवाले का दृष्ठांत बहुत उपयोगी है। जामुन खानेवाले के छ अभिप्राय :1) पेड़ को जड़ से उखाड़ दो। 2) नही, बड़ी-बड़ी शाखाए काटे। 3) नही, छोटी-छोटी शाखाए काटे। 4) नहीं, जामुन का गुच्छा ही तोडे। 5) नहीं, जामुन के सिर्फ फल ही तोडे। 6) नहीं, सिर्फ भूमि पर गिरे हुए ही खाये। ... डकैती डालनेवाले के छ अभिप्राय :1) मनुष्य और पशुओं सभी को काट डालो। 2) नहीं, सिर्फ मनुष्य को मारो। .3) नहीं, औरतों को नहीं मारना। 4) नहीं, पुरुषों में भी शस्त्रधारी के अलावा, सभी पुरुषों को नहीं. / 5) नहीं, प्रतिकार करनेवाले शस्त्रधारी को ही मारना। 6) नहीं. किसी को मारे बिना, सिर्फ धन-माल हड़प कर चले जायें दंडक प्रकरण सार्थ / कषाय - लेश्या द्वार Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. इन्द्रियां-५ हरेक प्राणी में रही हुई आत्मा की चैतन्य शक्ति छद्मस्थ जीव इन्द्रिय के द्वारा ही जान सकता है। इसलिए इन्द्रिय, आत्मा को पहचानने का चिह्न है। इन्द्रिय शब्द का अर्थ इस प्रकार है :- ‘इन्द्र' याने आत्मा और उसको ‘इय' प्रत्यय चिन्ह के अर्थ में लगाने से इन्द्रिय शब्द होता है। इसलिए इन्द्रिय का अर्थ आत्मा का चिन्ह होता है। 1. हर जीवित जीव के शरीर में ठंड़ा गरम आदि 8 प्रकार के स्पर्श को पहचानने के लिए स्पर्शनेन्द्रिय है, वह इन्द्रिय शरीर के अंदर और बाहर सभी जगह सूक्ष्म रूप से फैली हुई है। शरीर के ऊपर की त्वचा आदि में फैली हुई होने के कारण उनका बाराकार कोइ निश्चित नहीं है। फिर भी व्यवहार से बाह्य चमड़ी को लोक में स्पर्शनेन्द्रिय कहते है। शरीर के बाहर का, या अंदर का, कोई भी भाग इस इन्द्रिय के बिना नहीं होता है। याने शरीर के अंदर जठर, उदर, हृदय आदि कोई भी भाग पर गरम पानी डालने से उनको उष्णता महसुस होये बिना नहीं रहती है। 2. एकेन्द्रिय के सिवाय अन्य जीवों को मधुर, तीखा, कड़वा आदि रस को जानने के लिए रसनेन्द्रिय भी है। सामान्यतः प्राणीओं के मुंह में दिखनेवाली जीभ को रसनेन्द्रिय कहते है। _____3. एकेन्द्रिय और बेइन्द्रिय के सिवाय अन्य जीवों को सुगन्ध, दुर्गन्ध को पहचानने के लिए घ्राणेन्द्रिय भी होती है। सामान्यतः नाक को घ्राणेन्द्रिय कहते है 4. एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय के सिवाय अन्य जीवों को सफेद, लाल, पीला आदि रंगों को देखने के लिये चक्षुरिन्द्रिय भी होती है। सामान्यतः आंख को चक्षुरिन्द्रिय कहते है। 5. एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय के सिवाय अन्य जीवों | दंडक प्रकरण सार्थ - (22) . इन्द्रियांद्वार Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को शब्द, आवाज सुनने के लिये श्रोत्रेन्द्रिय भी होती है। सामान्यतः कान को श्रोत्रेन्द्रिय कहते है। सामान्यतः हमकों लगता है कि हमारे आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा हमको दिखाती है, सुनवाती है, सुंघवाती है, चखाती है और स्पर्श का अनुभव कराती है, लेकिन ऐसा नहीं है। उदाहरण :- दो अंधे आदमी के जीभ के अग्रभाग पर सफेद चमकता अलग-अलग प्रकार के दो कंकर रखे जाये तो एक बोलेगा ‘यह मीठा है' दूसरा बोलेगा ‘यह खट्टा है' क्योंकि पहलेवाला कंकर शक्कर था और दसरावाला फटकड़ी का था। इस मिठास और खट्टाश की पहचान करनेवाला कौन ? तो आप कहेंगे जीभ है, लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि अगर इस कंकर को जीभ के बदले नाक में रखी होती तो ‘यह मीठा है' ऐसा नहीं कह सकता, क्योंकि नाक में स्वाद पहचानने की शक्ति नहीं है। जीभ जो कि गंध की परीक्षा नहीं कर सकती, लेकिन स्वाद पहचानने मे तो वह उपयोगी हे न ? इसके बिना स्वाद मालुम ही नहीं पड़ता। लेकिन सिर्फ अकेली जीभ यह कार्य नहीं कर सकती। जीभ के भीतर अस्त्रा की धार जैसे, सूक्ष्म आकारवाले ज्ञानतंतु है, उसके साथ जीभ के ऊपर रखी हुई शक्कर का संबंध होता है तब मीठा रस जानने की आत्मा में रही हुई ज्ञानशक्ति प्रकट हो जाती है और उसको तुरंत जानकर दूसरी ज्ञानशक्ति से मन में निश्चय होता है कि यह रस मीठा है'। द्रव्य और भाव इन्द्रियां - अब यहां पर दो प्रमुख मुख्य कार्य हुए। शरीर और आत्मा का। जीभ और उसके अंदर का सूक्ष्म आकार का अवयव है, ये दोनों शरीर के तत्त्व से बने हुए है और उसकी वजह से आत्मा का जो ज्ञानगुण जागृत होता है वह ज्ञानगुण आत्मा का ज्ञान तत्त्व है। मीठा रस जानने की ज्ञान शक्ति आत्मा में है लेकिन निमित्त मिलने पर जागृत होती है और बाद में वस्तु के सही स्वरूप को जानकर | दंडक प्रकरण सार्थ (23) द्रव्य और भाव इन्द्रियां Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में निर्णय करती है। वह भी एक तरह से ज्ञानगुण की जागृति है। इसमें जीभ और उसकी भीतर के अवयव को निवृत्ति द्रव्य इन्द्रिय कहा जाता है। जिसमें स्वयं के विषय जानने की जो एक शक्ति है उसे उपकरण द्रव्य इन्द्रिय कहा जाता है। निवृत्ति-द्रव्य इन्द्रिय में जीभ के बाहर का जो अवयव है वह बाह्य निवृत्ति द्रव्य इन्द्रिय कही जाती है। और भीतर के अवयव को अभ्यन्तर निवृत्ति द्रव्य इन्द्रिय कहते है। और काम में आनेवाली, विषय जानने की शक्ति को उपकरण इसलिए कहते है कि उस शक्ति से बाह्य और अभ्यंतर अवयव भी पदार्थ को जानने के लिए समर्थ हो सकता है। ___ आत्मा में रही हुई ज्ञानशक्ति और उसकी जागृति को भावेन्द्रिय कहते है। उसे जिह्वेन्द्रिय मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम कहा जाता है। और वह एक प्रकार की शक्ति रूप होने से उसका नाम लब्धि भावेन्द्रिय कहा जाता है। लब्धि याने शक्ति। आत्मा में शक्ति होने पर भी जहां तक उसका उपयोग करने का अवसर नहीं मिलता वहां तक वह शक्ति ऐसी ही पड़ी रहती है। लेकिन जीभ पर शक्कर का कण रखते ही वह शक्ति जागृत हो जाती है। वह शक्ति जागृत होने की प्रक्रिया को उपयोग भावेन्द्रिय कहते है। इस तरह किसी भी इन्द्रिय के तेवीस विषयों में से अपने-अपने विषय के साथ बाह्य आकार के द्वारा भीतर के आकार के साथ संबंध होता है। और अपनी शक्ति से अपने विषय को जानने का प्रयत्न द्रव्य इन्द्रिय करती है तो तुरंत ही उसकी असर आत्मा में रहे हुए ज्ञानावरण के क्षयोपशम पर होता है। और वह जागृत होकर यह मीठा है ऐसा जानकर निर्णय करता है कि मैने मीठा रस चखा' इस अंतिम निर्णय को शब्द रचना में रखना वह श्रुतज्ञान का उपयोग समझना। लेकिन शब्द रचना न होने पर भी निश्चय होता है वहां तक जिद्वेन्द्रिय के निमित्त से उत्पन्न होनेवाला जिह्वेन्द्रिय मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम का उपयोग समझना। दंडक प्रकरण सार्थ (24) द्रव्य और भाव इन्द्रियां Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह सभी इन्द्रियों के बारे में समझना। सिर्फ द्रव्य इन्द्रियों के बाह्म आकार, प्राणीओं में भिन्न भिन्न तरह से देखने में आते है। जैसे कि हाथी की सूंढ़ वह उसका लंबा नाक है। और मनुष्य का नाक अलग तरह का ही है। और पशुपक्षियों का इससे भिन्न प्रकार का होता है। इसी तरह जीभ के बारे में सर्प- को जीभ में (चारी) फाड है। आंखों में भी किसी की गोल होती है और किसी की लंबगोल होती है। स्पर्शनेन्द्रिय को बाह्य निवृत्ति आकार अलग नहीं है, क्योंकि शरीर और इन्द्रिय अलग-अलग है। और चमड़ी शरीर में गिनी जाती है। बाह्य आकार भिन्न-भिन्न होने पर भी अभ्यन्तर निवृत्ति इन्द्रिय में निम्न मुताबिक सभी प्राणीओं को समान आकार होता है। 1) स्पर्शनेन्द्रिय का - अभ्यंतर आकार अलग, अलग प्रकार का है। 2) रसनेन्द्रिय का - अभ्यंतर आकार क्षुरप (अस्त्रा या खुरपी) जैसा है। 3) घ्राणेन्द्रिय का - अभ्यंतर आकार कदम्ब के पुष्प (वाद्य) जैसाक 4) चक्षुरेन्द्रिय का - अभ्यंतर आकार चंद्र का आकार (कीकी में है) जैसा। 5) श्रोत्रेन्द्रिय का - अभ्यंतर आकार पडघम के जैसा आकार होता है। . इस तरह सभी इन्द्रियों में स्पर्शनेन्द्रिय के 4 भेद और दूसरी इन्द्रियों के पांच-पांच भेद गिनने से बीस भेद, सब मिलाकर 24 भेद होते हैं : - उपकरण - जिह्वेन्द्रिय जिह्वेन्द्रिय द्रव्य जिह्वेन्द्रिय भाव जिह्वेन्द्रिय वित्ति जिह्वेन्द्रिय जिह्वेन्द्रिय ला उपयोग जिह्वेन्द्रिय . बाह्य निवृत्ति जिह्वेन्द्रिय दंडक प्रकरण सार्थ अभ्यंतर निवृत्ति जिह्वेन्द्रिय (25) द्रव्य और भाव इन्द्रिया Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. बाह्य निवृत्ति जिद्धेन्द्रिय- बाहर दिखाई देनेवाली जीभ। 2. अभ्यंतर निवृत्ति जिह्वेन्द्रिय- जीभ के भीतर रही हुई खुरपी जैसे आकार 3. उपकरण जिह्वेन्द्रिय- बाहर और भीतर के आकार में रही हुई तलवार के ___ धार में काटने की शक्ति की तरह विषय पकड़ने की शक्ति। 4. लब्धि भाव जिह्वेन्द्रिय- जिह्वेन्द्रिय मतिज्ञानावरणीय कर्मो के क्षयोपशम * अनुसार जिह्वेन्द्रिय मतिज्ञान शक्ति। 5. उपयोग भाव जिवेन्द्रिय- जिह्वेन्द्रिय मतिज्ञानावरणीय कर्मो के क्षयोपशमरूप जिह्वेन्द्रिय मतिज्ञान का व्यापार।. ९.समुद्घात-७ जीव और अजीव ऐसे दो प्रकार के समुद्घात है। आगे कहे जानेवाले केवलि समुद्घात की तरह कोई अनंत परमाणुओं से,बना हुआ अनंत प्रदेशी स्कंध तथाविध विश्रसा परिणाम से (स्वाभाविक रूप से) चार समय में पूरे लोकाकाश में फैल जाता है और दूसरे चार समय में अनुक्रम से संहरण बिखर जानेसे मूल अवस्था में याने अंगुल के असंख्यातंवे भाग प्रमाण होता है। उनको अजीव समुद्घात कहा जाता है। वह पूरा लोकाकाश में व्याप्त होने की योग्यता वाले या व्याप्त हुए पुद्गल स्कंध अनंत है। वे सभी अचित्त महा स्कंध के नाम से पहचाने जाते है। समुद्घात-इसका अर्थ यह होता है कि बलात्कार से आत्मप्रदेशो को अचानक बाहर निकाल कर अति पुराने कर्मो की उदीरणा करके, भोगकर नाश करने का जो प्रयत्न, उसे समुद्घात कहते है / सम्-एक साथ, उत्-जोर से प्रबलता से, घात-नाश, कर्मो का नाश करना। जिस प्रयत्न से एक साथ कर्मो का नाश होता है। उसे समुद्घात कहते है। | दंडक प्रकरण सार्थ (26) समुद्घात द्वार | Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ . समुद्घात: 1. वेदना समुद्घात :- (अशाता वेदनीय) वेदना से व्याकुल आत्मा, जिस प्रसंग पर अपने कुछ आत्म प्रदेश बाहर निकालकर उदर आदि की खाली जगह भरकर तथा खंधा आदि का आंतरा भरकर, शरीर की ऊंचाई और मोटाई जितना एक माप का दंडाकार बनाते है, और उस समय प्रबल उदीरणा करण के द्वारा अशाता वेदनीय कर्म के बहुत कर्म प्रदेशों को उदयावलिका में डालकर उदय में लाकर विनाश करता है। ___2. कषाय समुद्घात :- कषाय से व्याकुल आत्मा वेदना समुद्घात में कहे अनुसार, जिस समय दंडाकर होकर प्रबल उदीरणा के द्वारा कषाय मोहनीय कर्म के, अधिक कर्म पुद्गलो को उदयावलिका में डालकर उदय में लाकर विनाश करता है और बहुत नये कर्म प्रदेश का बंध भी करता है। .. 3. मरण समुद्घात :- मरणान्त समय में व्याकुल आत्मा मृत्यु के अन्तर्मुहूर्त पहले अपने कुछ आत्म प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर जहां उत्पन्न होना है, उस स्थान तक अपना देह प्रमाण मोटा (जाडा-चौडा) दंड आकार का जघन्य से अंगुल के असंख्यातवे भाग और उत्कृष्ट से असंख्य योजन तक फैलाकर अंतर्मुहूर्त काल तक ऐसी अवस्था में रहकर (कोई जीव वापस मूल शरीर में प्रवेश कर इसी तरह दंडाकर होकर अवश्य) मृत्यु पाता है। यह दंडावस्था में आयुष्य कर्म के अधिक पुद्गलों को प्रबल उदीरणा के द्वारा उदयावालिका में प्रवेश कराकर उदय में लाकर विनाश करता है। यहां पर नया कर्मबंध नहीं करता ___4. वैक्रिय समुद्घात :- वैक्रिय लब्धिवंत आत्मा अपने आत्मप्रदेश को शरीर से बाहर निकालकर उत्कृष्ट से संख्यात योजन लंबा और स्वदेह प्रमाण बड़ा दंडाकर बनाकर पूर्वोपार्जित वैक्रिय नामकर्म के बहुत प्रदेशो को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर नाश करने के साथ, बनाने के लिए सोचा हुआ वैक्रिय शरीर योग्य वैक्रिय पदगलों को ग्रहण करके वैक्रिय शरीर बनाते है। उस समय | दंडक प्रकरण सार्थ (27) समुद्घात द्वार | Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह समुद्घात होता है। ___5. तैजस समुद्घात :- तेजोलेश्या के लब्धिवंत आत्मा अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर उत्कृष्ट से संख्यात योजन दीर्घ और स्वदेह प्रमाण बडा दंडाकर बनाकर, पूर्वोपार्जित तैजस नामकर्म के प्रदेशों को प्रबल उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर क्षय करने के साथ तैजस पुद्गलों को ग्रहण करके तेजोलेश्या या शीतलेश्या छोडते है। इस प्रसंग पर यह समुद्घात होता है। 6. आहारक समुद्घात :- आहारक लब्धिवंत चौद पूर्वधारी मुनिमहात्मा श्री जिनेश्वर के समवसरण आदि ऋद्धि दर्शन या श्रुतज्ञान में उत्पन्न हुए सूक्ष्म संशय को निवारण करना इत्यादि हेतुओं से अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकालकर उत्कृष्ट से संख्यात योजन लंबा और स्वदेह प्रमाण बडा (मोटा) दंडाकर बनाकर, पूर्वोपार्जित आहारक नामकर्म के पुद्गलों को प्रबल उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर नाश करने के साथ आहारक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके आहारक शरीर बनाते समय यह समुद्घात करते हैं। __. केवलि समुद्घात :- जो केवलि भगवंत के नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मो की स्थिति अपने आयुष्य कर्म की स्थिति से अधिक भोग बाकी हो तब इन तीन कर्मो की स्थिति को आयुष्य कर्म के समान स्थितिवंत बनाने के लिए अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर पहले समय में लोक के अधोभाग के अंतिम भाग से लेकर ऊपर के अंतिम भाग तक चौद (14) रज्जु प्रमाण ऊंचा और अपने देह प्रमाण बडा (मोटा) आत्म प्रदेशों को दंडाकर बनाकर दूसरे समय में उत्तर से दक्षिण या पूर्व से पश्चिम लोकान्त तक का कपाट आकार बनाता है। तीसरे समय में पूर्व से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण तक दसरा कपाट आकर बनाकर मंथन आकार बनाकर चारों पंखों के अंतर भरकर चौथे समय में केवलि भगवंत की आत्मा संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाती है। इसके बाद पांचवे समय में मंथान के अंतर के आत्मप्रदेशों का संहरण | दंडक प्रकरण सार्थ (28) समुद्घात द्वार Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है / छट्टे समय में मंथान की दो पंखो का संहरण होता है। सातवें समय में कपाट का संहरण और आठवें समय में दंड का संहरण करके पूर्व की तरह संपूर्ण देहस्थ होता है। इस क्रिया को केवलि समुद्घात कहते है इसमें पूर्वोक्त तीनों कर्मो का प्रबल अपवर्तना करण द्वारा (उदीरणा द्वारा नहीं) बहुत क्षय होता है। 1) समुद्घात काल केवलि समुद्घात का 8 समय और दूसरे समुद्घात अंतर्मुहूर्त काल के हैं। (2) नवीन कर्मग्रहण-कषाय समुद्घात में नये कर्म का ग्रहण बहुत होता है और उनके प्रमाण में पुराने कर्म कम नष्ट होते हैं। _____3) पूर्व कर्मो का नाश :- वेदना, मरण और केवलि समुद्घात में पूर्व कर्मो का नाश होता है, लेकिन नये कर्म का बंध नहीं होता है। . 4) शरीर योग्य पुद्गलों का ग्रहण :- वैक्रिय, आहारक, तैजस इन तीन समुद्घात में, इन तीन शरीर की प्रकृति के पूर्व कर्म प्रदेश नष्ट होते है और नये कर्म बंध नहीं होते है, लेकिन शरीर रचना के लिए जरूरी वैक्रिय, आहारक, तैजस पुद्गलों को ग्रहण करना पडता है। 5) अनाभोगिक :- वेदना, कषाय, मरण ये तीन इच्छा पूर्वक नहीं कर सकते है। 6) आभोगिक :- वैक्रिय, आहारक, तैजस और केवलि इच्छा पूर्वक हो सकता है। 7) अनियतं :- वेदना, कषाय, मरण और केवलि समुद्घात वेदनादिक के सभी प्रसंग पर तथा हरेक केवलि को होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। 8) नियत :- वैक्रिय, आहारक, और तैजस ये तीन समुद्घात, यह शरीर बनानेवाले को, शरीर बनाने के अवसर पर अवश्य होता है। दंडक प्रकरण सार्थ (29) समुद्घात द्वार Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. दृष्टिद्वार-३ हरेक प्राणी सभी पदार्थो को भिन्न-भिन्न प्रकार से ध्यान (ख्याल) में लेते है। ख्याल में लेने की पद्धति को दृष्टि कहते है। 'दृश्यते यया सा दृष्टिः' वह तीन प्रकार की है। 1) मिथ्यादृष्टि :- गलत आभास, ख्याल / जो पदार्थ जैसा हो उससे भिन्न प्रकार का ही ख्याल। जैसे शराब पीया हुआ आदमी माता को स्त्री और स्त्री को माता समझता है, इस तरह मिथ्यात्व मोहनीय कर्म रूपी मदिरा के उन्माद से जिसका विवेक नष्ट हुआ है ऐसे विवेक विफल जीव सत् पदार्थ को असत् और असत् पदार्थ को सत् समझते है, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानते है या धर्म को मानते ही नहीं / इस तरह पदार्थ जो स्वरूप में है उस स्वरूप में न समझकर विपरीत ही समझें। उस दृष्टि का नाम मिथ्यादृष्टि। 2) सम्यग्दृष्टि :- सच्चा ख्याल या भास होना, वह मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम और उपशम से होता है, उसके प्रभाव से सभी पदार्थ जिस स्वरूप में है उसी स्वरूप में समझें। जैसे कि सत् को सत् रूप में माने और असत् को असत् रूप में माने उसे सम्यग्दृष्टि कहते है। ____3) मिश्रदृष्टि :- कुछ सही और कुछ गलत ख्याल होना, वह मिश्रदृष्टि / मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से वस्तु तत्व को समझने में मध्यस्थ रहे अर्थात् सर्वज्ञ के कहे हुए तत्व के प्रति रूचि भी नहीं. और.अरुचि भी नही; उस दृष्टि का नाम मिश्रदृष्टि। 11. दर्शन-४ पदार्थ में रहे हुए सामान्य और विशेष धर्म में से सिर्फ सामान्य धर्म जानने की, आत्मा की जो शक्ति है उसे दर्शन कहा जाता है। वह दर्शन चार प्रकार का है। | दंडक प्रकरण सार्थ (30) दृष्ठि और दर्शन द्वार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1) चक्षु दर्शन :- चक्षु से पदार्थ के रूप में रहे हुए सामान्य धर्म को जानने की जो शक्ति, वह चक्षु दर्शन। 2) अचक्षु दर्शन :- चक्षु के अलावा अन्य इन्द्रियों द्वारा और मन द्वारा पदार्थ के रसादि में रहे हुए सामान्य धर्म जानने की जो शक्ति है वह अचक्षु दर्शन। 3) अवधिदर्शन :- अवधिज्ञान के द्वारा जानने योग्य रूपी पदार्थों में रहे हुए सामान्य धर्म को जानने की आत्मा में रही हुई शक्ति, वह अवधिदर्शन। 4) केवलदर्शन :- जगत के सभी रूपी, अरूपी पदार्थ में रहे हुए सामान्य धर्म जानने की आत्मा में रही हुई जो शक्ति है उसे केवल दर्शन कहते हैं। 12. ज्ञान-५ - हरेक पदार्थ में रहे हुए सामान्य और विशेष धर्म में से विशेष धर्म जानने की आत्मा में रही हुई आत्मा की जो शक्ति वह ज्ञान है। ... 1. मतिज्ञान :- मन और इन्द्रियों के द्वारा विषयों मे रहे हुए विशेष धर्म जानने के लिए जो ज्ञान शक्ति जागृत होती है। उस ज्ञान शक्ति को मतिज्ञान कहते 2. श्रुतज्ञान :- शब्द के द्वारा अर्थ का और अर्थ के द्वारा शब्द का संबंध जानने की जो ज्ञानशक्ति है वह मन और इन्द्रियों के निमित्त से जागृत होती है। इस ज्ञानशक्ति को श्रुतज्ञान कहते है। 3. अवधिज्ञान :- इन्द्रियादि के निमित्त बिना, साक्षात् आत्मा के द्वारा रूपी पदार्थ में रहे हुए विशेष धर्म जानने की जो ज्ञानशक्ति जागृत होती है वह अवधिज्ञान कहलाता है। 4. मन :- पर्यव ज्ञान :- साक्षात् आत्मा के द्वारा ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञि जीवों के मनोगत भाव को जानने के लिए जागृत होती जो ज्ञानशक्ति है वह ... मन : पर्यव ज्ञान है। दंडक प्रकरण सार्थ (31) ज्ञानद्वार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. केवलज्ञान :- आत्मा साक्षात्कार रूप से सभी पदार्थ में रहे हुए विशेष धर्म का संपूर्ण ज्ञान जानने की जो शक्ति, वह केवलज्ञान। 13. अज्ञान-३ अज्ञान अर्थात् ज्ञान का अभाव ऐसा अर्थ न करना लेकिन कुत्सित, निंद्य, बुरा या विपरीत ज्ञान उसे अज्ञान कहा जाता है। पदार्थ जिस स्वरूप में हो, उस स्वरूप में न समझे लेकिन विपरीत तरह से जाने वह ज्ञान गलत माना जाता है। इसलिये अज्ञान कहा जाता है और इससे सद्गति या मोक्ष नहीं हो सकता इसलिए कुत्सित, निंद्य, बुरा कहा जाता है। अर्थात् विपरीत होने से निंद्य है। 1) मति अज्ञान :- गलत मतिज्ञान वह मति अज्ञान। 2) श्रुत अज्ञान :- गलत श्रुतज्ञान वह श्रुत अज्ञान। 3) विभंग ज्ञान :- गलत अवधिज्ञान वह विभंगज्ञान। वि-विरुद्ध, भंग-ज्ञान, विरुद्ध ज्ञान जिसमें हो वह विभंग ज्ञान / जैसे द्वीप समुद्र असंख्य है लेकिन शिवराजर्षि नामक ऋषि को सात द्वीप और सात समुद्र जितना अवधिज्ञान उत्पन्न होने पर इतने ही द्वीप समुद्र है ज्यादा नहीं, ऐसी श्रद्धा करने से वह अवधिज्ञान, विभंगज्ञान के रूप में गिना गया, और उसके बाद भगवंत के वचन से असंख्य द्वीप, समुद्र की श्रद्धा वाले हुए उसी समय वह अवधिज्ञान के रूप में गिना गया। और सत्य, असत्य विवेक बिना बोलनेवाले आदमी का सत्य वचन भी असत्य और असत्यवचन भीअसत्य माना जाता है। ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से विवेक रहित पुरुष का मतिज्ञानादि ज्ञान अज्ञान ही जानना। 14. योग-१५ योग याने आत्म प्रदेश में होनेवाला स्फुरण, व्यापार आंदोलन, हलनचलन, उथल-पाथल, वह पुद्गलों के संबंध की वजह से होता है. जो स्फुरणा मनोयोग योग्य वर्गणा के बने हुए मन की मदद से हो वह मनोयोग कहा जाता है। जो दंडक प्रकरण सार्थ (32) अज्ञान और योग द्वार Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुरणा वचन के योग्य वर्गणा से बने हुए वचन की मदद से हो वह वचनयोग और जो स्फुरणा शरीर की वर्गणाओं से बने हुए शरीर की वजह से होती हो वह काय योग / कोई भी विषय का चिंतन करना वह मनोयोग, बोलना वचनयोग और हलन-चलन इत्यादि शरीर संबंधी क्रिया वह काययोग कहा जाता है। ये तीन मूल योग हैं। इसमें मनोयोग चार प्रकार, वचनयोग चार प्रकार, और काययोग७ प्रकार के, इस तरह 15 प्रकार के योग है। वह इस तरह है : मनोयोग-४ 1. सत्यमनोयोग :- जो वस्तु जिस तरह हो या उसका जो गुण, स्वभाव, धर्म जिस तरह हो, उसी तरह ही उस वस्तु का संपूर्ण विचार करना, ऐसा सोचते समय आत्मा का जो व्यापार हो उसे सत्य मनोयोग कहते है। 2. असत्य मनोयोग :- सत्य विचार से विपरीत विचार करते समय जो आत्मा में व्यापार होता है उसे असत्य मनोयोग कहते है। 3. सत्यमृषा (मिश्र) मनोयोग :- कुछ सत्य, कुछ असत्य सोचते समय आत्मा में होनेवाले व्यापार को मिश्र मनोयोग कहते है। ... 4. असत्यामृषा मनोयोग :- जिस विचार को व्यवहार दृष्टि से सच्चा भी न कहा जाय और गलत भी न कहा जाय। ऐसा सोचते समय आत्मा में जो व्यापार होता है उसे असत्यामृषा मनोयोग कहते है। दृष्टांत के रूप में : 1) वीतराग भगवंत को सुदेव, त्यागी गुरुदेव को सुगुरु और अहिंसामय शुद्ध धर्म को, सुधर्म के रूप में सोचना उसे सत्यमनोयोग कहते है। 2) सत्य से विरुद्ध याने वीतराग प्रभु को कुदेव, सरागी देव को सुदेव माने, सुगुरु को कुगुरु और हिंसादि के उपदेशक कुगुरु को सुगुरु माने, धर्म को अधर्म और हिंसादि अधर्म को सुधर्म के रूप में सोचे, वह असत्य मनयोग। | दंडक प्रकरण सार्थ (33) मनोयोग द्वार Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3) आम आदि के बहुत पेड वाले वन को आम प्रधान की मुख्यता की अपेक्षा से आम का वन के रूप में सोचे, ऐसे मिश्र औपचारिक वाक्य सोचे वह मिश्र मनोयोग। 4) व्यवहार में हम जो जो अनेक प्रकार के आओ, बैठो' आदि काम करते समय जो वाक्य सोचा जाय और पशु आदि जो अस्पष्ट विचार करते है वे सभी इस चौथे प्रकार में आते हैं। वचनयोग-४ उपरोक्त ढंग से वचनयोग भी 4 प्रकार से समझना। काययोग-७ 1. औदारिक काययोग :- औदारिक शरीर की गमनादि क्रिया के . समय पर आत्मा में चलनेवाला जो व्यापार. 2. औदारिक मिश्र काययोग :- कार्मण शरीर और औदारिक शरीर या औदारिक शरीर और वैक्रिय शरीर या आहारक शरीर से मिश्रित शरीर की .. चेष्टा के समय पर आत्मा में चलता जो व्यापार वह औदारिक मिश्र। कितने आचार्य शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक मिश्र योग मानते है। और कितने आचार्य सर्व पर्याप्ति पूर्ण होने तक मिश्र योग मानते है। इनका मतलब यह है कि कितने शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद औदारिकादि काययोग मानते हैं और कितने सर्व पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद औदारिकादि काययोग मानते हैं। कर्मग्रंथ के मतानुसार वैक्रिय और आहारक शरीर की रचना और विसर्जन के समय पर वैक्रिय मिश्र और आहारक मिश्र है। सिद्धांतानुसार :- सिर्फ विसर्जन के समय पर ही वैक्रिय मिश्र और आहारक मिश्र हैं। __ औदारिक मिश्र योग :- 1. मनुष्य और तिर्यंचो को उत्पन्न होने के दंडक प्रकरण सार्थ (34) . मनोयोग द्वार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय पर कार्मण के साथ औदारिक मिश्र होता है / 2. उत्तरवैक्रिय शरीर की रचना के समय प्रारंभ में वैक्रिय के साथ मिश्रित होता है। 3. आहारक शरीर की रचना के समय प्रारंभ मे आहारक शरीर के साथ मिश्रित होता है / 4. केवलि भगवंत को केवली समुद्घात के ,2, 6 और 7 वें समय पर औदारिक मिश्र योग होता है। 3. वैक्रिय काययोग :- वैक्रिय शरीर की गमनादि चेष्टा के समय आत्मा में जो व्यापार होता है वह वैक्रिय काययोग। 4. वैक्रिय मिश्र काययोग :- वैक्रिय शरीर और कार्मण शरीर का तथा वैक्रिय शरीर और औदारिक शरीर के मिश्रणवाला शरीर की गमनादि क्रिया के समय आत्मा मे जो व्यापार होता है वह वैक्रिय मिश्र काययोग / यह शरीर देव, नरक को अपर्याप्त अवस्था में और उत्तर वैक्रिय शरीर बनाते समय होता है। मनुष्य, तिर्यंचों और वायुकाय को वैक्रिय शरीर बनाते समय होता है। तथा सिद्धांत के मत से वैक्रिय शरीर संहरण के समय भी होता है। 5. आहारक काययोग :- आहारक शरीर की गमनादि क्रियाओं के समय आत्मा में चलनेवाला व्यापार। 6. आहारक मिश्र काययोग :- औदारिक और आहारक शरीर का मिश्रण होते समय आत्मा में चलनेवाला जो व्यापार। ____ आहारक मिश्र, आहारक शरीर बनाते समय शुरु होता है और सिद्धांत के .. मत से संहरण के समय भी होता है। 7. कार्मण काययोग :- सिर्फ कार्मण और तैजस शरीर जब अकेले होते है तब उनकी चेष्टा समय आत्मा में चलता जो व्यापार वह कार्मण काययोग। ___ यह शरीर जीव को पर-भव जाते समय बीच में साथ में होता है, और केवली समुद्घात के समय 3-4-5 समय पर होता है। दंडक प्रकरण सार्थ मनोयोग द्वार Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. उपयोग-१२ . 1. साकारोपयोग :- पांच प्रकार की ज्ञानशक्ति और तीन प्रकार की अज्ञानशक्ति का उपयोग करना वह साकारोपयोग 8 प्रकार का है। - 2. निराकारोपयोग :- चार प्रकार की दर्शनशक्ति का उपयोग करना। वह निराकारोपयोग 4 प्रकार का है इस तरह बारह प्रकार का उपयोग है। 16. उपपात एक समय में कितने जीव कौनसे दंडक में उत्पन्न होते हैं। वह उपपात द्वार में कहा जायेगा। और कौनसे दंडक में कहां तक कितने समय तक कोई भी जीव उत्पन्न नहीं होता ? वह विरहद्वार भी अवसर आने पर विवेचन में कहा जायेगा। 17. च्यवन कौनसे दंडक में से एक समय में कितने जीव च्यवन-मरण पाते है ? और कहां तक कोई भी जीव मरता नही? वह च्यवन विरहद्वार भी कहा जायेगा। 18. स्थिति-२ स्थिति का अर्थ है आयुष्य। कौनसे दंडक के जीवों का कितना आयुष्य है ? वह आयुष्य काल का नियम दर्शाना / कम से कम कितना आयुष्य है उसका नियम कहना वह जघन्य स्थिति द्वार और ज्यादा से ज्यादा कितना आयुष्य है वह नियम कहना उत्कृष्ट स्थिति द्वार कहा जाता है। 19. पर्याप्ति-६ पर्याप्ति छ है / आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन। जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियां पूर्ण नहीं करनेवाले हो वह लब्धि अपर्याप्त कहा जाता है और जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियां पूर्ण करनेवाला ही हो वह लब्धि दंडक प्रकरण सार्थ (36) उपयोग, उपपात, यतता, स्थिति और पर्याप्ति बाट Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्त कहा जाता है।. ___शुरुआत की तीन पर्याप्ति पूर्ण करे या उसमें से कोई भी एक पूर्ण करे या स्वयोग्य जो जो है वह पूर्ण करे, इसकी वजह से वह करण पर्याप्त कहा जाता है। और शुरुआत की भी पूर्ण न की हो, या उसमें से जो जो पूर्ण की हो या स्वयोग्य जो जो है वह पूर्ण न की हो तो उसकी वजह से वह करण अपर्याप्त कहा जाता है। _आहारादि पुद्गलों का परिणमन करने के लिए उत्पत्ति समय से लेकर हर समय समय पर आते पुद्गलों के समूह में से आत्मा छह प्रकार की जीवन क्रियाएँ चलाने के लिए जो साधन प्राप्त करता है उसे पर्याप्ति कहते है और वह पर्याप्त और अपर्याप्त नामकर्म के उदय से प्राप्त होती है। इसका विशेष विचार नवतत्त्व की छट्ठी गाथा के विवेचन से जानना। 20. किमाहार-४ किम् ? आहार :- कौनसी दिशा का अथवा कितनी दिशा का आहार ? वह किमाहार द्वार अथवा दिगाहार नाम भी है। किसी भी जीव को कम से कम तीन दिशा में से आया हुआ आहार मिलता है। उससे बढ़कर चार, पांच, छ दिशाओं का भी आहार मिलता है इस तरह किमाहार द्वार चार प्रकार का है। दिशाएँ छह है :- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, उर्ध्व, अधो __एक चोरस डिब्बे में राई के दाने ठांस-ठांस के भरे हुए हैं। एक दाने के चारो ओर तथा ऊपर, नीचे की ओर इस तरह छह दाने रहे हुए होते हैं। उसके बीच में रहा हुआ एक दाना में कोई भी एक जीव हो तो वह अपने चारो ओर के छ: दानाओं की छः दिशा की ओर से आहार प्राप्त कर सकता है। . लेकिन बराबर ऊपर के कोने में रहा हुआ अंतिम एक दाने के दोनों तरफ और नीचे की बाजु में सीधे हार में रहे हुए दानों में से तीन ही दाने स्पर्श करके रहे है। इसलिए उनमें रहे हुए जीव को अन्य तीन बाजु की ओर से डिब्बा का पतरा दंडक प्रकरण सार्थ (37) किमाहार द्वार Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आने की वजह से तीन दिशा का ही आहार प्राप्त कर सकते है। इस तरह कोन में रहे हुए दानों की बाजु में नहीं ऊपर के भाग में अंतिम हार में रहे दाने को चार दिशा का आहार मिलेगा, क्योंकि उनकी एक और ऊपर के हार के दो बाजु दो और पीछे के हार के एक तथा नीचे के हार का अंतिम एक दाने के पास में आये है। सामने की ओर और ऊपर की ओर डिब्बा का पतरा आने की वजह से चार दिशा का आहार मिलता है। अब उसी ऊपर के भाग की अंतिम हार (श्रेणि) में रहे हुए दूसरे दाने के पास का दाना लो, उसके दोनों ओर एक-एक दाना है और अन्य दो बाजु पर दो हार है उसको एक-एक दानेका स्पर्श है। सिर्फ ऊपर की ओर डिब्बे का पतरा का स्पर्श है इस तरह इसके पांचो ओर, पांच दाने होने की वजह से पांच दिशा का आहार मिलता है। अब पांचो ओर राई के दाने आने की वजह से उसके नीचे के दाने की बाजु में छह दाने होने से नीचे के दाने को छह दिशा का आहार मिलता है। इस प्रकार चौदह राजलोक के अंतभाग में तथा कोने में आये हुए जीव को 3-4-5 दिशा का आहार मिलता है और बीच में रहे हुए जीव को छह दिशा का आहार मिलता है। चौदह राजलोक में इसी तरह आकाश प्रदेश भरे हुए है और उसकी छह दिशाओं में श्रेणियां है। लोक के बाहर अलोक है। कितने को लोकाकाश के अंतिम आकाश प्रदेशो के ऊपर रहे हुए जीवों को एक ओर से, कितने को दो ओर से, और कितने को तीन ओर से अलोक का स्पर्श होता है। इसलिए उस दिशाओं का आहार मिल नहीं सकता। और स्थावर जीवों को 3-4-5-6 दिशाओं का आहार मिलता है। | दंडक प्रकरण सार्थ (38) . किमाहार द्वार Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 21. संज्ञा-३ आगे चौथे द्वार में कही हुई आहार, भय, मैथुन आदि संज्ञाओं से यह संज्ञा अलग है। यह संज्ञा तीन प्रकार की है। वह इस प्रकार है : 1) हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा :- जिसमें वर्तमान काल के विषय का ही चिंतन, विचार और उपयोग हो वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कही जाती है। इस संज्ञावाले जीव वर्तमान काल में रहे हुए दुःख को दूर करने का और सुख की प्राप्ति का उपाय ढूंढते है और वह उपाय तुरंत स्वीकार करते है। फिर बाद में उस उपाय से भूतकाल में दुःख हुआ हो या भविष्य काल में दुःख होनेवाला हो, तब भी उनको इसके बारे में ख्याल नहीं रहता है। इस तरह की संज्ञा मनोविज्ञानरहित ऐसे असंज्ञि त्रस जीवों को (द्वि, तेई, चतु, और असं.पं) होती है क्योंकि ये जीव जिस स्थान पर रहते है उस स्थान में उनको अग्नि, ताप आदि का उपद्रव लगने से वे तुरंत वहां से हट जाते है लेकिन जहां से हटकर जिस स्थान में शांति प्राप्त की है उस स्थान में अग्नि और ताप आकर वापस उपद्रव करेगा या न करेगा, या पहले भी यह स्थान उपद्रव वाला था या नहीं, इत्यादि आगे-पीछे का कुछ भी नहीं सोचते, सिर्फ वर्तमानकाल के सुख का ही ख्याल करनेवाले होते है। इसलिए असंज्ञिओं को हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले कहते है। क्योंकि इन जीवों को विशिष्ट प्रकार की विचार शक्तिवाला मनोविज्ञान नहीं है। यहां हेतुवाद का अर्थ है इष्टप्राप्ति और अनिष्ट त्याग, उनके ही निमित्त कारण का उपदेश याने कथन जिसमें है वह हेतुवादोपदेशिकी और सम्-सम्यक् प्रकार का ज्ञा-ज्ञान वह संज्ञा। . . .. 2. दीर्घकालिंकी संज्ञा :- दीर्घकाल याने भूतकाल और भविष्यकाल की विचारशक्तिवाली संज्ञा वह दीर्घकालिकी संज्ञा / यह संज्ञा मनोविज्ञानवाले अथवा मनो पर्याप्तिवाले सभी संज्ञि जीवों को होती हैं। जीवों का संज्ञि और असंज्ञि ऐसे दो भेद जो बार-बार आते है वह दीर्घकालिकी संज्ञा से ही बने। अर्थात् दीर्घकालिकी संज्ञावाले संज्ञि जीव कहलाते हैं। ये जीव भूतकाल में क्या दंडक प्रकरण साई (39) संज्ञा द्वार Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआथा? इस कार्य का क्या परिणाम आयेगा? अब इनका क्या परिणाम होगा? अब क्या करना ? इत्यादि दीर्घकाल का विचार करनेके बाद में वह कार्य में प्रवृत निवृत होते हैं। इस संज्ञा का दूसरा नाम संप्रधारण संज्ञा है। . 3. दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा - यहां दृष्टि याने सम्यक्त्व सम्यग् दर्शन संबंधी वाद-कथन, उसका उपदेश-अपेक्षावाली अथवा दृष्टिवाद याने श्रुतज्ञान, उसका उपदेश-कथनवाली वह दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा / अर्थात् विशिष्ट श्रुतज्ञान के क्षयोपशम युक्त समकितवाली जो संज्ञा वह दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा, अर्थात् जो जीव सम्यग्दृष्टि है विशिष्ट श्रुतज्ञान के क्षयोपशम वाला हो और उसके साथ यथाशक्ति हेयोपादेय की प्रवृत्तिवाला हो अर्थात् अहितकर आचरण का त्याग करनेवाला और हितकर आचरण को आचरनेवाला हो ऐसे छद्मस्थ जीवों को यह संज्ञा होती है। और विशेषकर कितने मनुष्य को ही होती है। इन 3 संज्ञाओं का मुख्य विषय इष्ट विषय में प्रवृत्ति और अनिष्ट का त्याग, और वह भी अनुक्रम से अधिक-अधिक कक्षा का है क्योंकि हेतुपदेश संज्ञा वर्तमानकाल विषय का है। दीर्घकाल संज्ञा त्रिकाल विषयक है और वह दोनों संसार विषयक हैं। तीसरी संज्ञा में वह इष्ट प्रवृत्ति और अनिष्ट त्याग स्वरूप विषयक मोक्षमार्गाभिमुख है इसलिए सबसे श्रेष्ट कक्षा की यह तीसरी संज्ञा है। 22. गति कौनसे दंडक का जीव मरकर कौन-कौनसे दंडक में जाकर उत्पन्न होते है वह गति द्वार है। 23. आगति कौनसे दंडक में कौन-कौनसे दंडक में से जीव आकर उत्पन्न होते है ? उसके बारे में नियम दर्शाना वह आगति द्वार कहा जाता है। दंडक प्रकरण सार्थ (40) गति, आगति द्वार Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 वेद-३ वेद का अर्थ है विषयक्रीडा संबंधी अभिलाष, वह तीन प्रकार का है। 1) स्त्रीवेद 2) पुरुषवेद 3) नपुंसक वेद, उनका संक्षिप्त स्वरुप इस तरह है। 1) स्त्रीवेद :- पुरुष के साथ विषयक्रीडा भोगने की स्त्री की जो इच्छा वह स्त्रीवेद। 2) पुरुषवेद :- पुरुष को स्त्री के साथ विषय भोगने की जो इच्छा वह पुरुषवेद। 3) नपुंसक वेद :- स्त्री और पुरुष दोनों के साथ विषय सुख भोगने की इच्छा वह नपुंसकवेद। इन तीन वेदों में पुरुषवेद घास की अग्नि के समान है जो तुरंत उत्पन्न होता है और तुरंत शांत होता है। स्त्रीवेद छाने की आग के समान देर से उत्पन्न होता है और देर से शांत होता है। और नपुंसकवेद नगर दाह के समान याने बडे नगर में लगी हुई आग के समान शांत होना अशक्य होता है और बहुत उग्र होता है। . जिस जीव को जो वेद होता है उस जीव को उसके लिंग याने बाह्य निशानियां भी होती हैं / उसमें जिसको शुक्र-वीर्य धातु हो, शरीर में कर्कशता, दृढ़ता, पराक्रम, पुरुष चिन्ह (शिश्न) अक्षोभता (स्त्री को देखकर सच्चा पुरुष तुरंत चंचल नहीं बनता) गंभीर होता है, दाढी मूच्छ होती है, छाती आदि में बाल होते है। धैर्यता आदि बाह्यलिंग लक्षण हो वह पुरुष लिंग कहा जाता है। तथा योनि, सात धातुओं में शुक्र की जगह कामसलिल, रज-रुधिर, कोमल शरीर, मूर्खता, स्तन, चंचलता, अविचारीता, माया कपट, अधीरता आदि स्त्रीलिंग के लक्षण हैं। और पुरुष तथा स्त्री दोनों के लक्षणों का जिसमें भावाभाव हो जैसे कि पुरुषत्व के कितने लक्षण हो और कितने न हो तथा स्त्रीत्व के कितने लक्षण हो और कितने लक्षण न हो अथवा दोनो लक्षणों के मिश्रित लक्षणं हो। जैसे कि योनि, स्तन हो और दाढी मूंछ भी हो ऐसे लक्षणवाली स्त्री दंडक प्रकरण सार्थ वेद द्वार Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को नपुसंक स्त्री कहा जाता है। शिश्न, दाढी, मूछ होने पर भी स्त्री के जैसे स्वभाव . हो, कमर पर हाथ रखकर लटके से चले इत्यादि स्त्री योग्य बहुत आचार वाला .. वह पुरुष नपुंसक कहा जाता है। इस तरह तीन प्रकार के वेद और तीन-प्रकार के लिंग है। इन दोनों का प्रयोजन इस प्रकरण में है। . (१)२५अल्पबहुत्व .. कौनसे दंडक के जीव कौनसे दंडक के जीव से कम है या ज्यादा है। इसका विचार दर्शानेवाला अल्पबहुत्व कहा जाता है। .. इस तरह चोवीस (24) द्वारों का भावार्थ दर्शाकर अब 24 दंडक पदों में अनुक्रम से 24 द्वार समझने की गाथाओं का प्रारंभ होगा। // 24 दण्डकसे 24 द्वार की घटना॥ १.शरीरद्वार और२अवगाहनाद्वार गाथा चउगब्भतिरियवाउसु, मणुआणंपंचसेस तिसरीरा। थावरचउगेदुहओ, अंगुलअसंखभागतणु||५|| फुटनोट : ___(1) ज्ञानद्वार 12 वां कहा है, इस अज्ञान को उसके अंतर्गत गिने तो अल्पबहुत्व द्वार २४वाँ होता है, लेकिन ग्रंथकर्ता ने ही स्वकृत अवचूरि में अल्पबहुत्व बिना 24 द्वार गिने हैं। और टीकाकार ने भी अल्पबहुत्व बिना 24 द्वार गिने हैं / अल्पबहुत्व का विवेचन तो अंत में दिया है / तो इस तरह 25 द्वार होते हैं। प्रश्न :- ग्रन्थकार और टीकाकार ने अल्पबहुत्व को २५वें द्वार के रूप में क्यों नहीं गिना ? उत्तर :- लघुसंग्रहणी नामक ग्रंथ में से 24 द्वारों के संग्रहवाली दो गाथा इस प्रकरण में ली गई है इस कारण से इस प्रकरण के 24 द्वार ही है तब भी अल्पबहुत्व विशेष द्वार के रूप में कहा गया है इस कारण से २५वां द्वार के रूप में विवेचन में गिना है, लेकिन द्वार संख्या में अल्पबहुत्व की गिनती नहीं है। दंडक प्रकरण सार्थ (42) रारर और अवगाहना द्वार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद. चत्वारिगर्भजतिर्यग्वायुष,मनुष्याणांपञ्च,शेषेषुत्रीणिशरीराणि। स्थावरचतुष्केद्विधा, अइगुलासंख्येयभागतनुः||५|| शब्दार्थ :चउ-चार चउगे-चार भेद में वाउसु-वायुकाय में दुहओ-दो प्रकार से मणुआणं-मनुष्यों को अंगुल-अंगुल का सेस-शेष असंखभाग-असंख्यातवां भाग ति-तीन तणू-शरीर है। अन्वय सहित पदच्छेद गब्अतिरिय-वाउसु-चउ, मणुआणं पंचसेसति-सरीरा . थावरचउगेदुहओ, अंगुल-असंखभाग-तणू||५|| गाथार्थ .. .. .: गर्भज तिर्यंच और वायुकाय के चार, मनुष्यों के पांच और शेष रहे .. उनको तीन शरीर है, चार स्थावर दोनों तरह से अंगुल का असंख्यातवां भाग जितने शरीरवाले होते है। विशेषार्थ 24 दंडको में शरीर 1 पृथ्वीकाय / औदारिक / 1 नरक / वैक्रिय 1 अप्काय 10 भवनपति 1 तेउकाय 1 व्यंतर तैजस 1 वनस्पतिकाय 1 ज्योतिष्क 1 बेइन्द्रिय - कार्मण 1 वैमानिक _ कार्मण दंडक प्रकरण सार्थ (43) शरीर और अवगाहना द्वार Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्मण 1 तेइन्द्रिय 7 औदारिक 1 चउरिन्द्रिय तेजस कार्मण 1 वायुकाय 7 औदारिक | 1 मनुष्यों / औदारिक, वैक्रिय 15. तिर्यंच | वैक्रिय, तेजस आहारक, तेजस - कार्मण प्रश्न :- एक जीव को एक साथ में कितने शरीर होते हैं ? और वह कब-कब होता है ? उत्तर :- एक जीव को एक साथ में 2 शरीर, 3 शरीर, 4 शरीर होते हैं। और वह इस तरह से होते हैं : 1) तैजस और कार्मण ये दो शरीर जीव को एक भव में से दूसरे भव में . जाते समय होता है। 2) (अ) औदारिक, तेजस, कार्मण ये तीन शरीर लब्धि बिना के मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को और स्थावर तथा विकलेन्द्रियों को और वैक्रियलब्धि वाले मनुष्य, तिर्यंच और वायुकाय को लब्धि बिना के काल में होता है। (आ) वैक्रिय, तैजस, कार्मण देवों और नरक को सदाकाल होता है। 3) (अ) औदारिक, आहारक, तैजस, कार्मण ये चार शरीर आहारक लब्धिवंत, चौदह पूर्वधर मुनिवरों को होता है। (आ) औदारिक, वैक्रिय, तेजस, कार्मण ये चार शरीर वैक्रिय शरीर रचनेवाले गर्भज तिर्यंच, मनुष्य और वायुकाय को होता है। आहारक लब्धि और वैक्रिय लब्धिवंत मनुष्यों को एक साथ में औदारिक के साथ इन दोनों में से एक ही शरीर होता है। जब आहारक होता है तो वैक्रिय नही, वैक्रिय होता है तब आहारक नही, इसलिए एक साथ पांचों शरीर कभी भी किसी को होते नहीं हैं। दंडक प्रकरण सार्थ (44) शरीर और अवगाहना द्वार Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 2. अवगाहना द्वार पहले चार स्थावर अर्थात् पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय इनको दो प्रकार से याने उत्कृष्ट और जघन्य से अंगुल का असंख्यातवा भाग जितना शरीर होता है / लेकिन उत्कृष्ट शरीर जघन्य शरीर से असंख्यगुणा बड़ा समझना / ____ अवगाहना के माप में जो अंगुल गिना है, वह महावीर भगवान के आत्मांगुल से आधा प्रमाण का उत्सेधांगुल समझना चाहिए। और वह प्रमाण भी प्रभु की अनामिका या तर्जनी अंगुली की दूसरी पर्व रेखा से आधा गिनना, इस अंगुल का भी असंख्यातवा भाग लेना, वह अत्यंत सूक्ष्म होता है, इसलिए पृथ्वीकायादि चार का शरीर भी इतना सूक्ष्म होता है। पृथ्वीकायादि का एक शरीर भी सूक्ष्मदर्शक यंत्र के सर्वोत्कृष्ट कांच से भी नहीं देख सकते तो फिर चर्मचक्षु से तो कहां से दिखाई देगा? ऐसे असंख्य सूक्ष्म शरीर इकट्ठा होने पर जब एक पिंड बनता है। तब हम उसको देख सकते हैं। इसलिए कंकर, रेत, पत्थरादि जो पृथ्वीकाय आदि हम देखते है वह उनका एक शरीर नही है, लेकिन असंख्य शरीर का एक पिंड है। और वह हरेक एक-एक शरीर में पृथ्वीकायादि का एक-एक जीव रहा हुआ है। पृथ्वीकायादि की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवा भाग होने पर भी अरस-परस शरीर में जो अंतर है वह निम्न प्रकार से है : सूक्ष्म वनस्पतिकाय सबसे अल्प, उससे सूक्ष्म वायुकाय असंख्यगुणा बडा, उससे सूक्ष्म अग्निकाय असंख्यगुणा बडा, उससे सूक्ष्म अपकाय असंख्यगुणा बडा, उससे सूक्ष्म पृथ्वीकाय असंख्यगुणा बडा, उससे .. बादर वायुकाय असंख्यगुणा बडा, उससे दिंडक प्रकरण सार्थ (45) अवगाहना द्वार Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादर अग्निकाय असंख्यगुणा बडा, उससे बादर अपकाय असंख्यगुणा बडा, उससे बादर पृथ्वीकाय असंख्यगुणा बडा, उससे बादर निगोद असंख्यगुणा बडा, उससे बादर प्रत्येक वनस्पति असंख्यगुणा बडा, (1000 योजन से भी अधिक) गाथा सव्वेसिंपिजहन्ना, साहाविय अंगुलस्सऽसंखंसा। उक्कोसपणसयधणू, नेरइयासत्तहत्थसुरा|६|| संस्कृत अनुवाद सर्वेषामपिः-जघन्यास्वाभाविकीअइगुलस्यासंख्येयांशाः। उत्कृष्टतःपञ्चशतधनुष्कानैरयिकाःसप्तहस्ताःसुराः॥६ शब्दार्थ :सव्वेसिं-सभी दंडकों में उक्कोस-उत्कृष्ट से जहन्ना-जघन्य अवगाहना पणसय-पांचसो साहाविय-स्वाभाविक (मूल-शरीर संबंधी) | धणू-धनुष्य अंसा-भाग सुरा-देवो अन्वय सहित पदच्छेद सवेसिंपिसाहावियजहन्नाअंगुलस्सअसंखंसा। नेरइआउक्कोसपणसयधणूसुरासत्त-हत्य||६| गाथार्थ ___ सभी दंडको में स्वाभाविक शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवा भाग जितनी है। नरक की उत्कृष्ट अवगाहना पांचसो धनुष्य की है। देवों की सात हाथ होती है। | दंडक प्रकरण सार्थ अवगाहनाद्वार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषेषार्थ :- . प्रश्न :- अंगुल के असंख्यातवा भाग की जघन्य-उत्कृष्ट अवगाहना पृथ्वीकायादि की ही है। दूसरे किसी की भी है ? उत्तर :- सभी को जन्म समय के-उत्पत्ति के प्रथम समय पर शरीर की जघन्य __अवगाहना अंगुल के असंख्यातवा भाग की होती है। प्रश्न :- उत्पत्ति के प्रथम समय पर सभी दंडको में इतनी सूक्ष्म अवगाहना किस तरह हो सकती है ? उत्तर :- पूर्व भव में कितना भी बडा शरीरवाला जीव हो वह मृत्यु पाकर दूसरे भव में उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होते समय प्रथम अपनी आत्मा को अत्यंत संकुचित करके अंगल के असंख्यातवा भाग जितनी बनाकर, कोयले में गिरता हुआ अग्नि के कण के समान उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होता है और बाद में कोयले में गिरा हुआ अग्नि का कण धीरे-धीरे बढ़ता है वैसे वह जीव भी धीरे-धीरे अपना शरीर बड़ा बनाता है। दूसरे जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना नारक की उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष्य की, देवों की उत्कृष्ट अवगाहना सात हाथ की है। इस तरह सामान्य से नारकों और देवों की अवगाहना कही गई है। (1) फूटनोट :विशेषतः देव-नरको की अवगाहना इस तरह समझनी। नरक का नाम जघन्य शरीर उत्कृष्ट शरीर 1) रत्नप्रभा 3 हाथ 7|| ध.६ अंगुल 2) शर्कराप्रभा .. 7 / / ध.६ अं. 15 / / ध.१२ अंगुल 3) वालुकाप्रभा 15 / / घ.१२ अं 31 / घ. 4) पंकप्रभा . ३१॥ध 62 / / ध 5) धूमप्रभा 62 / / ध 125 ध 6) तमःप्रभा 125 ध 250 ध 7) तमस्तमःप्रभा 250 ध 500 ध | दंडक प्रकरण सार्थ (47) अवगाहना द्वार Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 हाथ का एक धनुष्य और 24 अंगुल का एक हाथ होता है। तथा 2000 धनुष का गाउ होता है। देवों को सात हाथ का जो शरीर है वह 10 भवनपति व्यंतर, ज्योतिषि और पहला सौधर्मदेवलोक, दूसरा ईशान देवलोक के वैमानिक देवों और देवियों का है। इनके अलावा अन्य देवलोक में शरीर का फर्क (अंतर) है वह इस तरह है :देवलोक | जघन्य शरीर उत्कृष्ट शरीर देवलोक | जघन्य शरीर उत्कृष्ट शरीर 3-4 कल्प में | 6 हाथ | हाथ 5 वे कल्प मे | 5 /,, हाथ | 6 हाथ ६वे में 5 हाथ 51,, हाथ | ७वे में 4'/,, हाथ | 5 हाथ | ८वें कल्प में | 4 हाथ | 417,, हाथ | ७वां ग्रै. | 2/,, हाथ | 2 7., हाथ ९वे कल्प में | 33/, हाथ | 4 हाथ ८वां ग्रै. | | 2'/,, हाथ | 22/,, हाथ १०वे कल्प में | 3 /,, हाथ 32/,, हाथ | ९वां ग्रै. | 2 हाथ ११वे कल्प में | 3 '/,, हाथ | 3 2/., हाथ | 4 अनुत्तर | 1 हाथ १२वे कल्प में | 3 हाथ 3./., हाथ | 1 सर्वार्थ | 1 हाथ ग्रैवेयके | 2/.. | 3 हाथ २रा | 27/,, 2,, | २६,,हाथ | 2'/,, हाथ 4 ग्रैवेयके 2'/,, हाथ | 26/,, हाथ | 2/,, हाथ | 2-7,, हाथ 6 ग्रैवेयके 23.. हाथ | 2/.. हाथ or Mor r mm 03 5 अवेयके यहां पर देव-नरक की जघन्य अवगाहना 1 हाथ और 3 हाथ आदि जो कही है वे सभी पर्याप्तिओं से पर्याप्त बने हुए संपूर्ण देहवाले देव-नरक की समझना, और ६ट्ठी गाथा के पूर्वार्ध में सभी दंडको की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवां भाग की कही है वह शरीर रचना के प्रारंभ समय की अपेक्षा से है। इसलिए परस्पर विरोध नहीं समझना। | दंडक प्रकरण सार्थ (48) अवगाहना द्वार Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा गब्भतिरिसहसजोयण, वणस्सईअहियजोयणसहस्सं नरतेइंदितिगाउ, बेइंदिअजोयणेबार||७|| संस्कृत अनुवाद गर्भजतिर्यञ्चःसहायोजना,वनस्पतिरधिकयोजनसहस्त्रम नरस्त्रीन्द्रियास्त्रिगव्यूता, द्वीन्द्रियायोजनानिद्वादश॥७॥ शब्दार्थ : सहस-हजार जोयण-योजन अहियं-कुछ ज्यादा ति-त्रण गाऊ-गाऊ, कोस अन्वय सहित पदच्छेद गन्मतिरिसहसोयण, वणस्सईजोयणसहस्संअहियं नर-तेइंदितिगाउ, बेइंदियबारजोयणे॥७॥ गाथार्थ : गर्भज तिर्यंच हजार योजन है, वनस्पति हजार योजन से कुछ अधिक है, गर्भज मनुष्य और त्रीन्द्रिय तीन गाउ और द्वीन्द्रिय बारह योजन है। ___ सिद्धांतों में तथा-प्रकरण ग्रंथो में उत्कृष्ट अवगाहना 1-2 देवलोक की 7 हाथ, 34 की 6 हाथ की, 5-6 की 5 हाथ, 7-8 की 4 हाथ, 9-10-11-12 की 3 हाथ, नवग्रैवेयक की 2 हाथ, और अनुत्तर, सर्वार्थ सिद्ध की 1 हाथ कही है वह उत्कृष्ट आयुवाले देवों को इनसे न्यून न होने की अपेक्षा से (वास्तविक रूप से तो वह जघन्य ही ) सामान्यतः कहीं है / और वास्तविक रूप से सोचने पर तो उपर कहे अनुसार ही जघन्य-उत्कृष्ट अवगाहना प्रकरणों में और सिद्धान्तों में आयुष्य के अनुसार ही कही है। | दंडक प्रकरण सार्थ (49) अवगाहनाद्वार Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ : गर्भज तिर्यंचों की उत्कृष्ट शरीर एक हजार योजन कहा है वह ढाईद्वीप के बाहर रहा हुआ अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र में रहनेवाले महामत्स्यरूप जलंचर जीवों का है। दूसरे तिर्यंचो का शरीर प्रमाण अन्य शास्त्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार से कहा है। ___ (1) वनस्पति का शरीर 1000 योजन से भी अधिक कहा है वह समुद्रों में उत्सेधांगुल प्रमाण से 1000 योजन के गहरे स्थान में (गोतीर्थादि स्थानों में) रहे हुए कमल आदि वनस्पति का है। सभी समुद्र प्रमाणांगुल से 1000 योजन गहरे हैं। समुद्रों में जो जो स्थान उत्सेधांगुल प्रमाण से 1000 योजन की गहराई हो और वहां जो जो कमलादि वनस्पति है वह 1000 योजन अवगाहनावाली समझना। दूसरे स्थान में (इनसे ज्यादा गहराई वाले स्थान में) कमलादि वनस्पति है वह सही वनस्पति नहीं है क्योंकि वहां आकार - वनस्पति का है लेकिन जीव पृथ्वीकाय के हैं। (1) - मनुष्यों का शरीर 3 गाऊ का है। वह देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र के युगलिक मनुष्य को जानना, जो 3 पल्योपम के आयुवाले भी हैं। दूसरे मनुष्यों का, शरीर प्रमाण उनसे न्यून-न्यून समझना। ___ फूटनोट :- 1) शंका :- यहां पर तात्पर्य है कि समुद्र और नंदिश्वर द्वीप की वावडीयां आदि जलाशयों की गहराई प्रमाणांगुल से 1000 योजन से कुछ ज्यादा है। उत्सेधांगुल से प्रमाणांगुल का माप बहुत बड़ा है। इसलिए वावडिया और समुद्र की गहराई बहत होती है तो बहुत गहरे जलाशयों में उत्सेधांगुल प्रमाण से 1000 योजन रूप अल्प प्रमाण वाली वनस्पति किस तरह रहती है ? समाधान :- बहुत गहराई वाले जलाशयों में भी किसी-किसी स्थानों पर गोतीर्थ जैसे (तालाब की तरह क्रमसर अधिक-अधिक गहराई ढाल पडने वाले) स्थानों में जहां जहां उत्सेधांगुल प्रमाण से 1000 योजन जितनी गहराई, अल्प गहराई होती है, वहां उत्सेधांगुल प्रमाण से 1000 योजन उंचाईवाले कमल आदि वनस्पति हो सकती है। उसमें जल के अंदर की | दंडक प्रकरण सार्थ (50) अवगाहना द्वार | Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2)(2) तथा तेइन्द्रिय का 3 गाऊ का और बेइन्द्रिय का 12 योजन का शरीर प्रमाण है। वह प्रायः करके ढाईद्वीप के बाहर के द्वीप समुद्र में उत्पन्न होनेवाले कान-खजुरा आदि का अनेक क्रोडो योजन विस्तारवाले समुद्र में उत्पन्न होनेवाले शंखादि द्वीन्द्रिय का जानना। गाथा जोयणमेगंचउरिंदि-देहमुच्चत्तणंसुएभणियं। वेउवियदेहपुण, अंगुलसंखंसमारंभे॥८॥ भूमि से उपर सपाटी तक कमल की नाल 1000 योजन ऊंची रहने से इतनी लंबी गिनी जाती है, और जल की सपाटी से कमल के पुष्प जितना ऊंचा रहे, इतनी अधिकता 1000 योजन उपरांत समझना। इसलिए "1000 योजन अधिक' वनस्पति प्रमाण कहा है वह उत्सेधांगुल प्रमाण से 1000 योजन ऊंचाईवाले वनस्पतिकायिक कमलादि है और पृथ्वीकायिक कमलादि भी संभवित है। उनसे भी अधिक गहराई में जो कमलादि है वह केवल पृथ्वीकाय रूप ही है। वह सर्वोत्कृष्ट ऊंचाईवाले पृथ्वीकायिक कमलादि वनस्पति के आकार समुद्र की सपाटी को शोभा देती है। .. उत्सेधांगुल, आत्मांगुल तथा प्रमाणांगुल ये तीन प्रकार के अंगुल का माप अन्य ग्रंथो से जान लेना। तथा वनस्पति की यह उत्कृष्ट अवगाहना जलाशयों में ही होती है, परन्तु स्थलों में होने वाली नहीं और कमलादि वनस्पति की उत्कृष्ट अवगाहना होती है लेकिन आम्रवृक्ष की नहीं, ऐसा विशेषतः जानना। फूटनोट :. . (2) अंतर्मुहुर्त आयुवाले और उत्पन्न होते ही 12 योजन के शरीरवाला होकर, तुरंत मृत्यु पाते ही भूमि पर इतना बडा खड्डा हो जाता है की चक्रवर्ति की सेना को भी जमीनमें गिरा देनेवाले ऐसे आसालिक जाति के सर्प को शास्त्र में (उर : परिसर्प ति.पं. और मतान्तरे) द्वीन्द्रिय भी कहा हा। वह महादेहवाले द्वीन्द्रिय ढाईद्वीप में भी होते है इसलिए प्रायः कहा है। | दंडक प्रकरण सार्थ (51) अवगाहना द्वार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद योजनमेकंचतुरिन्द्रियदेहोच्चत्वं श्रुतेभणितं। वैक्रियदेहःपुनरइगुलसंख्येयांशआरम्भे॥८॥ शब्दार्थ :देह-शरीर का वेउव्विय-वैक्रिय उच्चत्तणे-उच्चत्त्व पुण-और सुए-सूत्र में, सिद्धांत में संखस-संख्यातवां भणियं-कहा है आरंभे-प्रारंभ में अन्वय सहित पदच्छेद सुएचउरिंदिदेहं उच्चत्तणंएगंजोयणं भणियं। पुणवेउवियदेहंआरंभेअंगुल-संखंस||८|| गाथार्थ: . सिद्धान्त में चतुरिन्द्रिय के शरीर की ऊंचाई एक योजन प्रमाण कही है / और वैक्रिय शरीर की प्रारंभ में अंगुल के संख्यातवा भाग जितनी होती है। विशेषार्थ चतुरिन्द्रिय जीवों का शरीर एकयोजन प्रमाण कहा है वह मनुष्य क्षेत्र के बाहर रहे हुए द्वीप समुद्रों में रहनेवाले भ्रमरादि का जानना। भ्रमरादि की यह अवगाहना सिद्धांत में कही है। उत्तर वैक्रिय शरीर की अवगाहना जिस जिस दंडक पदों में आगे वैक्रिय लब्धि मालुम की गयी है वे उस-उस दंडक पदों के जीव जब वैक्रिय शरीर रचने का प्रारंभ करते है तब प्रारंभ में अंगुल के संख्यातवा भाग जितना छोटा वैक्रिय शरीर बनाते हैं, बाद में वह बढ़ता-बढ़ता एक लाख योजन से कुछ अधिक जितना हो जाता है। लेकिन प्रारंभ में तो छोटा ही होता है। | दंडक प्रकरण सार्थ (52) .अवगाहना द्वार Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां जानने की यह बात है कि जन्म के देह की रचना के समय पर वह प्रारंभ में अंगुल का असंख्यातवा भाग जितना ही छोटा होता है। और वह उत्तर वैक्रिय शरीर के प्रारंभ में अंगुल का संख्यातवा भाग प्रमाण छोटा बनता है। उत्तरवैक्रिय के प्रारंभ में जो अंगुल का संख्यातवा भाग की अवगाहना कहीं वह गर्भज तिर्यंच और मनुष्य तथा देव-नारकों की अपेक्षा से है। लेकिन वायुकाय जब वैक्रिय शरीर की रचना करता है तब उनका उत्तर वैक्रिय शरीर प्रारंभ में भी अंगुल का असंख्यातवां भाग जितना ही होता है। क्योंकि वायुकाय का कोई भी शरीर उत्कृष्ट से अंगुल के असंख्यातवां भाग जितना ही है। उत्तर वैक्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना गाथा ' देव नरअहियलक्खं, तिरियाणं नवयजोयणसयाई दुगुणंतुनारयाणं, भणियंवेउवियसरीरं॥९॥ संस्कृत अनुवाद . देवनराणामधिकलक्षं, तिरश्चांनवचयोजनशतानि॥ द्विगुणंतुनारकाणांभणितं वैक्रियशरीरम॥९॥ अन्वय सहित पदच्छेद . देव नरलक्खं अहिय,यतिरियाणं नवसयाइंजोयण। तुनारयाणं वेउल्लियसरीरंदुगुणंभणियं||९|| शब्दार्थ : लक्खं-१ लाख (योजन) सयाई-सो दुगुणं-द्विगुण, दुगुण | दंडक प्रकरण सार्थ (53) उत्तर वैकिय की उत्कृष्ठ अवगाहना Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ देवों का वैक्रिय शरीर एक लाख योजन का और मनुष्यों का वैक्रिय शरीर कुछ अधिक एक लाख योजन का है, तिर्यंचोका नवसो योजन का और नारकों का वैक्रिय शरीर दुगुणा है। विशेषार्थ अब उत्तरवैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना देव को संपूर्ण एक लाख योजन और मनुष्यों की कुछ अधिक एक लाख प्रमाण सिद्धांत में कही है। दंडक वृत्ति में देवों को और मनुष्यों को दोनों को अधिक एक लाख योजन की अवगाहना कही है। कुछ अधिक-४ अंगुल प्रमाण ही ज्यादा जानना, क्योंकि देवों का उत्तरवैक्रिय और मनुष्य का वैक्रिय शरीर शीर्ष भाग तो समान रहता है, लेकिन मनुष्य भूमि को स्पर्श करके खडा रहता है, और देव जमीन से 4 अंगुल अध्धर रहते है, इसी वजह से नीचे के भाग में मनुष्य का शरीर 4 अंगुल अधिक है, और देवों का शरीर मनुष्य से 4 अंगुल कम होने से पूर्ण एक लाख योजन का है। ऐसा महान वैक्रिय शरीर श्री विष्णुकुमार मुनि ने वर्षाकाल में एक स्थान पर स्थिर रहे हुए मुनि महात्माओं को धर्म द्वेष से देश में से चले जाने के लिए कहनेवाला और किसी भी तरह से नहीं समझने वाला महापापी नमुचिमंत्रि को सजा-शिक्षा करने के लिए श्री मुनिसुव्रत स्वामि के शासन में किया था। ग्रैवेयक और अनुत्तर देव उत्तरवैक्रिय शरीर बनाते नहीं हैं। शेष सभी देव उत्तरवैक्रिय शरीर बनाते हैं। तिर्यंचों का उत्तरवैक्रिय शरीर नव सो योजन और नरक को अपने शरीर प्रमाण से दुगुणा होता है। | दंडक प्रकरण मार्थ (54) उत्तर वैकिय की उत्कृष्ट अवगाहना | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // 24 दंडकों में जन्मदेह और उत्तरवैक्रिय की अवगाहना // दंडक गा रव्या जन्मदेह / उत्तरवैक्रिय जघन्य उत्कृष्ट | जघन्य उत्कृष्ट 1. वायुकाय अंगुल | अंगुल का अंगुल का अंगुल का असं. भाग. असं. भाग | असं. भाग 13 देव का 7 हाथ अंगुल 1 लाख योजन 1 ग.मनु. तीन गाऊ का | 1 लाख योजन से कुछ अधिक 1 ग.तिर्यंच 1000 योजन संख्यातवा 900 योजन 1 नरक 500 धनुष्य जन्मदेह से दुगुणा (1000 धनुष्य) 3 पृथ्वीकायादि वा अंगुल का असंख्यातवा भाग 1 बेइंद्रिय 12 योजन दंडको | दंडको 3 गाऊ 1 चउरिंद्रिय 1 योजन वैक्रिय | वैक्रिय 1 वनस्पति 1000 योजन से | शरीर नहीं है | शरीर नही है। कुछ अधिक भाग ___ इन 1 तेइंद्रिय . उत्तर वैक्रिय का विकुर्वणा का काल गाथा अंतमुहुतं निरए, मुहुत्त चत्तारितिरिय-मणुएसु। देवेसुअद्रमासो, उक्कोस-विउव्वणा-कालो॥१०॥ दंडक प्रकरण सार्थ (55) उत्तर वैकिय का विकुर्वणा का काल Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद अन्तर्मुहुर्त नैरयिके, मुहुर्ताश्चत्वारः तिर्यगमनुजेषु। देवेष्वर्धमास उत्कृष्टो विकुर्वणाकालः||१०|| अन्वय सहित पदच्छेद निरए अंतमुहुतं तिरिय-मणुएसुचत्तारिमुहुत्त। . देवेसुअदमासो, उक्कोस विउव्वणा कालो॥१०॥ शब्दार्थ :अंतमुहूत्त-अन्तर्मुहूर्त मुहुत्त-मुहूर्त (2 घडी) चत्तारि-चार अद्ध मासो-अर्धमास, 15 दिन विउव्वणा-विकुर्वणा | कालो-काल गाथार्थ : नरक में अंतर्मुहूर्त, (१)तिर्यंच और मनुष्य में 4 मुहूर्त, और देवों में आधामास, उत्कृष्ट विकुर्वणा का काल है। विशेषार्थ कहा हुआ यह काल पूर्ण होने पर उत्तर वैक्रिय शरीर अपनेआप नष्ट हो जाता है। काल के पहले इस शरीर की जरूरत न हो तो बुद्धिपूर्वक संहरण भी किया जाता है। वायुकाय में रचना और विलय अपने आप होता रहता है। फूटनोट : (१)दंडक प्रकरण की अवचूरी में (इस प्रकरण के कर्ता ने) लब्धि से किया गया वैक्रिय शरीर (गर्भज तिर्यंच, मनुष्य) का अवस्थान काल अंतर्मुहूर्त से ज्यादा नहीं हो सके ऐसा स्पष्ट निर्देश किया है। यहां पर 4 मुहूर्त कहा है। दिगम्बर आम्नाय में (परम्परा में) भी अंतर्मुहूर्त काल कहा है। श्री भगवती सूत्र में भी अंतर्मुहूर्त काल कहा है। यह गाथा श्री जीवाभिगम सूत्र की है। // दंडक प्रकरण सार्थ (५६)उत्तर वैकिय का विकुर्वणा का काल Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य तीन शरीरों की अवगाहना और कालः दंडक पदों में औदारिक का मूल और उत्तरवैक्रिय की अवगाहना तथा काल कहा है। और आहारक शरीर की अवगाहना तथा काल और तैजस, कार्मण शरीर की अवगाहना तथा काल नहीं कहा है। लेकिन वह इस प्रकार है :___आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना प्रारंभ के समय उत्तर वैक्रिय के समान अंगुल का असंख्यतवा भाग नहीं है लेकिन कुछ न्यून 1 हाथ प्रमाण है। और उत्कृष्ट अवगाहना पूर्ण 1 हाथ प्रमाण है। तथा काल जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है उसके बाद आहारक शरीर का विलय होता है और आत्मप्रदेश औदारिक देह में प्रवेश पाते है। .. ___तैजस, कार्मण की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवा भाग है अर्थात् सूक्ष्म वनस्पति का औदारिक शरीर जितना है। उत्कृष्ट से साधिक 1 लाख योजन प्रमाण है, वह उत्तरवैक्रिय शरीर की अपेक्षा से है। और केवलि समुद्घात की अपेक्षा से संपूर्ण लोकाकाश प्रमाण है। ३.संघयण द्वार गाथा थावरसुरनेरइया,अस्संधयणाय विगल छेवट्ठा। संघयण-छग्गंगब्भय-नर-तिरिएसुविमुणेयत्वं||११|| संस्कृत अनुवाद स्थावरसुरनैरयिका असंहननाश्च, विकलाःसेवार्ताः संहननषट्कंगर्भजनरतिर्यक्ष्वपिज्ञातव्यम्॥११|| अन्वय सहित पदच्छेद थावरसुरनेरइया, अस्संघयणाय विगल छेवट्ठा। गब्भय नरतिरिएसुअविछग्गंसंघयणमुणेयव्वं||११|| | दंडक प्रकरण सार्थ (57) संघयण द्वार Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ :अस्संघयणा-संघयण रहित संघयण-संघयण, संहनन विगल-विकलेन्द्रिय छग्गं-छह छेवट्ठा-सेवार्त्त संघयणवाला मुणेयव्वं-जाणना गाथार्थ . पांच स्थावर, देव और नारक संघयण रहित होते है। विकलेन्द्रिय में सेवार्त्त या छेवट्ठा संघयण है और गर्भज मनुष्य तथा तिर्यंचों को छ संघयण जानना। विशेषार्थ : __(1) पांच स्थावर, तेरह देव और एक नरक इन उन्नीस दंडकों में संघयणे नहीं है, क्योंकि इन जीवों के शरीर में हड्डी नहीं होती है, और संघयण तो हड्डी की रचना को कहते है / तथा शंख-छीप, कोडी आदि बेइन्द्रिय जीवों को तथा चींटीया आदि तेइंद्रिय जीवों और भ्रमर आदि चरिंद्रिय जीवों में कितने तो स्पष्ट कठीन-मजबूत हड्डी वाले होते है तो कोई अस्पष्ट सूक्ष्म हड्डीवाले होते है इसलिए इन तीन विकलेंद्रिय को सिर्फ एक ही छट्ठा सेवार्त्त या छेवट्ठा संघयण होता है। गर्भज तिर्यंचों और मनुष्य को छह संघयण होते है, लेकिन एक जीव को समकाल में तो एक ही होता है। ||24 दंडक में संघयण॥ 5 स्थावर- ) संघयण 3 विकलेन्द्रिय-१ सेवार्त्त 13 देव- रहित 1 ग.तिर्यंच-1 छह 1 नरक- 0 है। 1 गं. मनुष्य-J संघयण फूटनोट : (1) विकलेन्द्रिय में अलसियां आदि जीव बिना हड्डी के जैसे दिखाई देते है, लेकिन उदयस्थानक सोचने पर उन जीवों के अस्पष्ट रूप से भी संघयण संभवित है। श्री जीवाभिगम सूत्र में हड्डी की अपेक्षा से नहीं लेकिन बल की अपेक्षा से देवों को पहला संघयण और एकेन्द्रिय को छट्ठा कहा है। तथा नरक को असंघयणी कहे हैं। दंडक प्रकरण सार्थ संघयण द्वार Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४संज्ञा और५संस्थान द्वार गाथा सव्वेसिंचउदह वासन्ना, सव्वे सुरायचउरंसा,। नर-तिरिछस्संठाणा, हुंडा विगलिदिनेरइया।।१२।। संस्कृत अनुवाद सर्वेषांचतस्त्रोदशवासंज्ञा,सर्वेसुराश्चचतुरंशा (रस्त्राः) नरतिर्यवःषट्संस्थाना. हुण्डका विकलेन्द्रियनैरयिकाः॥१२|| अन्वय सहित पदच्छेद सव्वेसिंचउवादहसन्नायसवेसुरा चउरंसा। नरतिरिछस्संठाणा, विगलिंदिनेरइया हुंडा॥१२॥ शब्दार्थ :दह-दस चउरंसा-समचतुरस्त्र संस्थानवाले वा-अथवा छ-छ सन्ना-संज्ञा स्संठाण-संस्थानवाले हुंडा-हुंडक संस्थानवाले गाथार्थ: सभी को 4 या 10 संज्ञाएँ होती हैं। सभी देव समचतुरस्र संस्थानवाले, गर्भज मनुष्य और तिर्यंच को छ संस्थान होते हैं। विकलेन्द्रिय और नरक हुंडक संस्थानवाले हैं। . . . विशेषार्थ सभी दंडकों में 4 अथवा 10 संज्ञा है और कितने मनुष्यो को 16 संज्ञा होती है। वे संज्ञा संज्ञि पंचेन्द्रियों में तो स्पष्ट उपलब्ध होती है, और एकेन्द्रिय में दंडक प्रकरण सार्थ 59 संज्ञा, संस्थान द्वार Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यक्त - अस्पष्ट होती है। फिर भी कितने की तो बाह्य वर्तन से कोई-कोई संज्ञा एकेन्द्रिय में अनुमान से स्पष्ट समझ सके ऐसी होती है। वह इस तरह है। 1. पानी तथा छाना आदि खाद्य (खातर) से पोषण होने से आहार संज्ञा है। 2. लज्जा (शर्म) वाली वनस्पति को हाथ का स्पर्श होते ही तुरंत संकुचित हो जाती है, इसलिए भय संज्ञा है। 3. वेलडी वृक्ष को लगकर रहती है और श्वेत खाखर का पेड निधान पर ही मूल फैलाती है इसलिए परिग्रह संज्ञा है। 4. कुरुबक नाम का वृक्ष स्त्री के आलिंगन से फलता है। इसलिए मैथुन संज्ञा 5. कोकनद नाम का कंद हुंकार-फुफाड करता है इसलिए क्रोध संज्ञा है। 6. रूदन्ती वेल में से रस की बुंदे झरती रहती है, इसलिए मान संज्ञा है (इस वेल के रस से सुवर्णसिद्धि होती है, इससे मेरे होने पर भी लोक में .. निर्धनता क्यों ? ऐसा अभिमान संज्ञा से रूदन करने का अनुमान है।) 7. वेल अपने फलों को, अपने पत्तों से ढ़ककर रखते हैं इसलिए माया संज्ञा है। 8. बीली का वृक्ष तथा श्वेत खाखर अपना मूल निधानके ऊपर ही फैलाते है इसलिए लोभ संज्ञा है। 9. कमल रात्रिमें लोक संज्ञा से संकोच पाते है। . 10. वेलडी सभी मार्ग को छोड़कर दिवार पर अथवा वृक्ष पर ओघ संज्ञा से चढती है। इस तरह एकेन्द्रिय जीवों में अनुमान से संज्ञा सपष्ट रीति से समझ सकते है / द्वीन्द्रियादि सभी दंडकपदों में कम-ज्यादा संज्ञा अवश्य होती है। अभी चार गति आधार पर विचार करने से देवगति में परिग्रह तथा लोभ संज्ञा ज्यादा मुख्य है। मनुष्यगति में मान तथा मैथुन संज्ञा अधिक है, नरक गति दंडक प्रकरण सार्थ (60) संज्ञा, संस्थान द्वार | Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भय और क्रोध संज्ञा अधिक है, और तिर्यंच गति में माया तथा आहार संज्ञा अधिक है।) संस्थानद्वार सभी देवों को (याने देव के 13 दंडकों में) 1 समचतुरस्र संस्थान होता है अर्थात् किसी भी देव या देवी को समचतुरस्र सिवाय दूसरा संस्थान नहीं होता है परन्तु वह भवधारणीय (मूल) शरीर के अपेक्षा से जानना, क्योंकि देवों का उत्तर वैक्रिय संस्थान तो सिद्धान्त में अनेक प्रकार का कहा है। गर्भज मनुष्य और गर्भज तिर्यंचों को भी छ संस्थान होते है। युगलिक मनुष्य और युगलिक तिर्यंचों को तो देवों की तरह एक ही समचतुरस्र संस्थान ही जानना, और शेष (2) संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले मनुष्य-तिर्यंचों को यथा संभव 6 संस्थान होते है, परन्तु एक जीव को समकाल में कोई भी एक ही संस्थान होता - विकलेन्द्रिय और नरक को सर्व लक्षणहीन छट्ठा हुंडक संस्थान होता है फूटनोट : (१)चार गतिओं में आहारादि 4 संज्ञाओं का अल्प-बहुत्व शास्त्र में इस तरह से कहा है : किसी भी समय पर सोचने से नरंकगति में मैथुन संज्ञावाले जीव अल्प उनसे आहार संज्ञावाले संख्यातगणा, उनसे परिग्रह संज्ञावाले संख्यात गुणा उनसे भयसंज्ञावाले संख्यातगुणा। देवों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञावाले क्रमशः एक दूसरे से संख्यातगुणा है। मनुष्यों में भय, आहार, परिग्रह और मैथुन संज्ञावाले क्रमशः एक दूसरे से संख्यातगुणा है। पंचें. तिर्यंचों में परिग्रह, मैथुन, भय, आहार संज्ञावाले क्रमशः एक दूसरे से संख्यातगुणा है तथा एक समय में एक जीव को एक संज्ञा स्पष्ट अनुभव में होती है। अंतर्मुहूर्त के बाद हरेक जीवों की संज्ञाएं बदलती रहती ऊपर कही गई संज्ञाओं की उस-उस गति में अधिकता कही है वह ऐसे ऐसे संयोगो की वजह से होती है / पंचेन्द्रिय सिवाय के जीवों का अल्पबहुत्व कहा हुआ देखने में आया नही है। इसलिए उस जीवों में अनियमितता होगी, ऐसा लगता है। फूटनोट : ___(२)संख्यात वर्ष के आयुवाले मनुष्यों में भी सभी तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, प्रतिवासुदेव आदि समचतुरस्र संस्थानवाले होते है। | दंडक प्रकरण सार्थ (61) संस्थान द्वार चालु || Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें भी नरको का हुंडक संस्थान पंख उखडे हुए पक्षी समान अति बिभत्स और भयानक होता है। गाथा नाणाविह-धयसूई-बुब्बुयवणवाउते अपकाया,। पुढवी मसूरचंदा-कारासंठाणओभणिया|१३|| संस्कृत अनुवाद नानाविधध्वजसूचीबुदबुदा, वनवायुतैजसापकायिकाः। पृथ्वी मसूरचन्द्राकारासंस्थानतोभणिता॥१३॥ अन्वय सहित पदच्छेद संठाणयओवणनाणाविह, वाउधय, तेउसूई,अपकाया। बुब्बुयपुढवी मसूरचंदआकाराभणिया||१३|| .. शब्दार्थ नाणाविह-भिन्न भिन्न प्रकार के / अपकाया-अप्काय (जल) (अनेक प्रकार के आकार वाले) | पुढवी-पृथ्वीकाय धय-ध्वज (के आकारवाले) मसूर-मसूर की दाल(के आकारवाले) सूई-सोय/सूई चंदाकारा-अर्ध चन्द्र के आकारवाला बुब्बुय-परपोटे, बुद्बुद संठाणओ-संस्थान से, आकार से वण-वनस्पति भणिया-कहे है। तेउ-अग्निकाय गाथार्थ _ संस्थान से वनस्पतिकाय, वायुकाय, तेउकाय और अप्काय के अनुक्रम से अलग-अलग अनेक आकारवाले, ध्वजाके आकारवाले, सूई के आकारवाले, और परपोटेके आकारवाले, तथा पृथ्वीकाय मसूर की दाल के आकारवाले या अर्धचन्द्र के आकारवाले हैं। | दंडक प्रकरण सार्थ (62) संस्थान द्वार चालु Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ (1) एकेन्द्रिय जीवों के हुंडक संस्थान प्रत्येक वनस्पतिकाय के - अलग अलग अनेक आकार वायुकाय का - ध्वजा का आकार अग्निकाय का - सूई का आकार अप्काय का - बुद बुद (परपोटे) का आकार पृथ्वीकाय का - मसूर की दाल या अर्ध चंद्र का आकार प्रत्येक वनस्पतिकाय सिवाय के किसी का भी एक शरीर नहीं दिखाई देता। उससे उसके संस्थानों भी देख नहीं सकते। (1) // 24 दंडक में 6 संस्थान॥ 13 देवदंडक 1 समचतुरस्र 3 विकलेन्द्रिय-१ हुंडक . 1 ग.मनुष्य-६ 1 नरक-१ हुंडक . 1 ग.तिर्यंच-६ . . 5 स्थावर-१ हुंडक ६कषाय और७ लेश्या द्वार गाथा सब्वेवि चउकसाया, लेस-छगंगब्भतिरियमणुएसु। . नारयतेउवाऊ, विगलावेमाणिय तिलेसा॥१४॥ फूटनोट : (1) यहां पर सूक्ष्म पृथ्वी आदि का और बादर पृथ्वी आदि का भी हुंडक संस्थान आगे कहे अनुसार ही है। लेकिन विशेष यह है कि सूक्ष्म और बादर साधारण वनस्पति का संस्थान भी विविध आकृति के है ऐसा श्री जीवाभिगमादि सूत्र में कहा है। और संग्रहणी वृत्ति में निगोद का औदारिक शरीर स्तिबुक (बुद बुद) आकारवाला (याने नक्कर गोला) जैसा कहा है। जीवाजीवाभिगम के अभिप्राय से तथा द्रव्यलोक प्रकाश में अनित्थंस्थ (अनियत) संस्थान कहा है। वायुकाय वैक्रिय शरीर की रचना करे फिर भी ध्वजा के आकार से ही रचते हैं। तत्वार्थवृत्ति में प्रत्येक वन का अनित्थंस्थ संस्थान कहा है। | दंडकं प्रकरण सार्थ (63) कषाय, लेश्या द्वार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद :सर्वेऽपिचतुष्कषाया. लेश्याषट्कंग जतिर्यग्मनुजयोः (जेषु)। नारकतेजोवायुविकलावैमानिकाश्च त्रिलेश्याः||१४|| अन्वय सहित पदच्छेद सवेअविचउकसाया, गब्भय तिरिय मणुएसुछगंलेस . नारयतेऊवाऊविगलायवेमाणि तिलेसा॥१४|| १०छद शब्दार्थ कसाया-कषायवाले तेऊ-तैजसकाय, अग्निकाय लेसा-लेश्या वाऊ-वायुकाय छग-छ ति-तीन लेसा-लेश्यावाले गाथार्थ सभी को चारों कषाय होते हैं / गर्भज-तिर्यंच और मनुष्य को 6 लेश्या होती हैं, नरक, अग्निकाय, वायुकाय, विकलेन्द्रिय और वैमानिक तीन लेश्यावाले होते हैं // 14 // विशेषार्थ :- छट्ठा कषायद्वार : सभी दंडकपदों में क्रोध-मान-माया और लोभ ये चार प्रकार के कषाय होते हैं। एकेन्द्रिय में उसका उदय अस्पष्ट होता है, बेइन्द्रियादिमें कुछ अधिकअधिक स्पष्ट होते हैं, कषाय रहित तो केवल वीतराग भगवंत और सिद्ध परमात्मा ही हैं। सातवा लेश्याद्वार : गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों को छ प्रकार की लेश्या होती हैं / एक समय में एक ही लेश्या अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः बदलकर दूसरी लेश्या प्रगट होती है इस तरह संपूर्ण भवपर्यन्त परावृत्ति से छह भी लेश्या द्रव्य से और भाव से | दंडक प्रकरण सार्थ (64) कषाय, लेश्या द्वार Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी होती है। द्रव्यभाव का स्वरूप द्वारवर्णन में कहा हुआ है। १-नरक - 1 कृष्ण १-अग्निकाय - / / नील १-वायुकाय - कापोत / ३-विकलेन्द्रिय - 3 अशुभ) , वैमानिक तेजो आदि देवो को-३ शुभ (1) कौनसे नरक में कौनसी अशुभ लेश्या तथा कौनसे वैमानिक देव को कौनसी शुभ लेश्या होती है उसका विस्तार अन्य ग्रंथों से जानना। फूटनोट : (१)सात नरक में लेश्या का क्रम :1) रत्नप्रभा (2) शर्कराप्रभा में :- सभी नरक को कापोत लेश्या 3) वालुकाप्रभा में 3 सागरोपम के आयुवाले को कापोत और उनसे अधिक आयुवाले को नील लेश्या होती है। 4) पंकप्रभा में सभी को नील लेश्या। 5.) धूमप्रभा में साधिक 10 सागरोपम तक के आयुष्य को नील और उनसे अधिक आयुष्यवाले को कृष्ण-लेश्या होती है। (6-7) तमः प्रभा तथा तमस्तमप्रभा नरक में सबको कृष्ण लेश्या होती है। . यहां पर पृथ्वीओं के क्रमानुसार अधिक अधिक मलिन लेश्या जाननी। वैमानिक :- देवों में लेश्या का क्रम :1-2 देवलोक में तेजोलेश्या 3-4-5 देवलोक में पद्मलेश्या 6 से सवार्थसिद्ध अनुत्तर विमान तक सभी देवों को शुक्ललेश्या होती हैं। देवलोक के क्रमानुसार लेश्याएँ अधिक-अधिक विशुद्ध जाननी / . ८वां इन्द्रिय और ९वां समुद्धात द्वार | दंडक प्रकरण सार्थ (65) इन्द्रिय और समुद्धात द्वार Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा जोइसियतेउलेसा,सेसासवेवि हुंति चउलेसा इंदियदारंसुगम, मणुआणंसत्तसमुग्घाया॥१५|| संस्कृत-अनुवाद ज्योतिष्कास्तेजोलेश्यकाःशेषाःसर्वेऽपि भवन्ति / चतुर्लेश्या : / इन्द्रियद्वारंसुगम, मनुजानांसप्तसमुद्घाताः||१५|| ' अन्वय सहित पदच्छेद जोइसियतेऊलेसा,सेसासव्वेअविचउलेसाहुति। इंदियदारंसुगमं मणुआणंसत्तसमुग्घाया॥१५|| शब्दार्थ :तेउलेसा-तेजोलेश्यावाले इदियदारं-इन्द्रिय द्वार सेसा-शेष, बाकी रहे हुए सुगम-सुगम, सरल अवि-भी समुग्घाया-समुद्घाते गाथार्थ : ज्योतिषी तेजोलेश्यावाले हैं, और शेष सभी चार लेश्यावाले हैं इन्द्रियद्वार सुगम है। मनुष्यों को सात समुद्घात होते हैं। विशेषार्थ : ज्योतिषी देवों को सिर्फ तेजोलेश्या ही होती है दूसरे सभी भवनपति तथा व्यंतर ये ग्यारह दंडको में कितने तो संपूर्ण भवपर्यंत कृष्ण लेश्यावाले, कितने नील लेश्या, कितने देव कापोत लेश्यावाले और कितने तो तेजोलेश्या वाले हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, और वनस्पतिकाय इन तीन दंडक में प्रत्येक जीव को दंडक प्रकरण सार्थ (66) इन्द्रिय और समुद्धात द्वार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण-नील और काफेत ये तीन लेश्या परावृत्ति से (बदलती रहने से) होती है और चोथी तेजोलेश्या तो जब ईशानकल्प तक के तेजोलेश्या वाले कोई देव बादर लब्धि पर्याप्त पृथ्वी, बादर पर्याप्त अप्काय और बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते है तब ये पृथ्वी आदि तीन दंडक के जीवों को भव का पहले अन्तर्मुहूर्त में तेजोलेश्या अपर्याप्त अवस्था में होती है, पर्याप्त अवस्था में तो इन तीनों दंडक को पहली तीन लेश्या ही होती है। // 24 दंडक में६ लेश्या॥ 1 ग.तिर्यंच को 6 लेश्या 1 वैमानिक को - 3 शुभ लेश्याएँ 1 ग. मनुष्य को 6 लेश्या 1 ज्योतिषी को-१ तेजो 1 नरक को . 14 शेष दंडको को-४ पहेली लेश्याएँ 1 अग्निकाय 3 अशुभ 1 वायकाय को- लेश्याएँ 3 विकलेन्द्रिय को २४दंडक में इन्द्रिय द्वार 5 स्थावर को एक स्पर्शनेन्द्रिय होने से 1 इन्द्रिय है। बेइन्द्रिय को स्पर्श और रसना ये दो इन्द्रिय है। तेइन्द्रिय को स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय ये तीन इन्द्रिय है। चतुरिन्द्रिय को स्पर्शन-रसना-घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रिय है। और शेष 13 देवदंडक, 1 नरक, 1 गर्भज तिर्यंच और१ गर्भज मनुष्य, ये सभी मिलकर 16 दंडक को स्पर्शन-रसना घ्राण-चक्षु और श्रोत्र ये 5 इन्द्रियां हैं इस प्रकार यह इन्द्रियद्वार समझने में अत्यंत सरल है। . ९वां समुद्घात द्वार गर्भज मनुष्यों को सात समुद्घात होते हैं वहां संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले कर्मभूमि के गर्भज मनुष्य को ही यथासंभव 7 समुद्घात है और युगलिक मनुष्य | दंडक प्रकरण सार्थ (67) समुद्घात द्वार चालु Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को आहारक, वैक्रिय, तैजस और केवलि समुद्घात नहीं होता है। सिर्फ वेदना, कषाय और मरण ये तीन समुद्घात ही होते हैं। अयुगलिक गर्भज मनुष्यों में भी लब्धि रहित को पहले तीन समुद्घात और लब्धिवंत छद्मस्थ को (असर्वज्ञ को) यथासंभव केवलि समुद्घात के बिना 4-5-6 समुद्घात होते है वैक्रिय लब्धि तैजस लब्धि और आहारक लब्धि इन तीन लब्धि में से जिसको एक लब्धि हो उसको चार समुद्घात, दो लब्धिवंत को 5 समुद्घात और तीन लब्धि हो उनको 6 समुद्घात होते है श्री सर्वज्ञ भगवंत को सिर्फ एक केवलि समुद्घात ही होता है तथा सर्वत्र सामान्य से ऐसा नियम है कि अपर्याप्त अवस्था में भी किसी जीव को प्रथम के तीन समुद्घात हो सकते है। प्रश्न :- केवलि भगवंत अनंत लब्धिवाले होते हैं तो उनको वैक्रिय, आहारक और तैजस समुद्घात क्यों नहीं है और निर्वाण प्राप्त होने पर भी मरण समुद्घात क्यों नहीं ? उत्तर :- लब्धि को प्रगट करना वह प्रमादावस्था गिनी जाती है और केवलि भगवंत अप्रमादी है तथा उनको लब्धि प्रगट करने का प्रयोजन नहीं है। इसलिए वैक्रिय, तैजस और आहारक समुद्घात केवलि भगवंत को होता नहीं है तथा मरण समुद्घात पर-भव में उत्पन्न होनेवाले जीव को आत्मप्रदेशों का दीर्घ दंड करने से कितनेक जीवों को होते है लेकिन केवलि भगवंत को परलोक में उत्पन्न होने का नही होता है तथा निर्वाण के समय आत्मप्रदेश कंदुक की तरह पिंडित होकर मोक्ष में जाते है इसलिए मरण समुद्घात नही है। वेदनीय कर्म का उदय है, लेकिन व्याकुलता तथा उदीरणा न होने से वेदना समुद्घात नहीं है। फूटनोट : १६वी और 17 वी गाथा कोई दूसरे ग्रंथ की है। इसलिए इन दो को छोडकर १५वी से १८वीं जोडकर समुद्घात की विचारना करने पर 24 दंडकों में समुद्घात मिल जायेंगे। १६वीं गाथा नामों के लिए है और १७वीं गाथा उसके संबंध की वजह से आयी है। | दंडक प्रकरण सार्थ (68) समुद्घात द्वार चालु Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्घातों के नाम गाथा वेयण कसायमरणे, वेउवियतेयएय आहारे। केवलियसमुग्धाया, सत्तइमेहुतिसन्नीणं॥१६|| संस्कृत अनुवाद वेदनाकषायोमरणं, वैक्रियस्तैजसश्चाहारकः। केवलिकश्चसमुद्घाताः, सप्तेमे भवन्तिसंज्ञिनाम॥१६|| अन्वय सहित पदच्छेद वेयण कसाय मरणे, वेउवियतेयएयआहारे यकेवलिइमेसत्तसमुग्धायासन्नीणंहुंति॥१६|| शब्दार्थ वेदना-वेदना समुद्घात . . मरणे-मरण समुद्घात कसाय-कषाय समुद्घात वेउव्विय-वैक्रिय समुद्घात तेयए-तैजस समुद्घात य-और, तथा य-और, तथा समुग्घाया-समुद्घात आहारे-आहारक समुद्घात सत्त-सात केवलि-केवलि समुद्घात इमे-ये हुँति-होते हैं सन्नीणं-संज्ञि जीवों को गाथार्थ वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय तैजस, आहारक और केवलि समुद्घात है ये सात संज्ञि जीवों को होता हैं। / दंडक प्रकरण सार्थ (69) समुद्घातों के नाम Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ : आगे द्वार वर्णन में संज्ञा त्रिक के (3 संज्ञा के) द्वार में जो दीर्घकालिकी संज्ञा कही है, वह संज्ञा जिस जीवों को होती है वह संज्ञि जीव कहलाता है और उस संज्ञि जीव को इस गाथा में कहे हुए वेदना आदि सात समुद्घात यथासंभव होते है। गाथा एगिंदियाणकेवल-तेउ-आहारगविणा उचत्तारि। तेवेउव्वियवज्जा विगला, सन्नीणतेचेव॥१७॥ संस्कृत अनुवाद एकेन्द्रियाणां केवलतैजसाहारकान विना तु चत्वारः। ते वैक्रियवा विकलानांसंज्ञिनांतेचैव॥१७॥ अन्वय सहित पदच्छेद एगिंदियाणकेवल तेउआहारगविणा उचत्तारिश विगलावेउव्वियवज्जासन्नीणचेवते॥१७॥ शब्दार्थ :एगिदियाण-एकेन्द्रिय जीवों को केवल-केवलि समुद्घआत तेउ-तैजस समुद्घात आहारग-आहारक समुद्घात विणा-विना, सिवाय उ-तथा, और चत्तारि-चार समुद्घात / दंडक प्रकरण सार्थ / ते-वे (4 समुद्घात) वेउव्विय-वैक्रिय समुद्घात वजा-वर्जित, रहित, विना सिवाय के सन्नीण-संज्ञि जीवों को ते-वे (सातों) समुद्घात चेव-निश्चय (70) समुद्घातों के नाम Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ एकेन्द्रिय को केवलि, तैजस, और आहारक बिना चार समुद्घात होते है, और वैक्रिय समुद्घात बिना वही तीन विकलेन्द्रिय को होते है और संज्ञि पंचेन्द्रिय को वही (सात) समुद्घात होते हैं। विशेषार्थ एकेन्द्रियों को केवलि, तेजस, और आहारक ये तीन समुद्घात बिना शेष 4 समुद्घात है (वायुकाय की अपेक्षा से है।) वायुकाय के बिना पृथ्वीकायादि चार एकेन्द्रिय को तथा विकलेन्द्रिय को वैक्रियसमुद्घात बिना तीन समुदघात होते हैं और संज्ञि पंचन्द्रिय को तो सातों समुद्घात होते हैं। पुनः लोक के पर्यन्तंभाग पर निराबाध स्थान पर रहे हुए सूक्ष्मादि एकेन्द्रिय को तथा प्रकार के उपघात का अभाव होने से वेदना समुद्घात रहित 2 (दो) समुद्घात भी होते हैं और शेष सभी सूक्ष्म तथा बादर एकेन्द्रिय को तीन समुद्घात होते हैं। गाथा १०वां दृष्टि द्वार पण गब्भतिरिसुरेसु, नारयवाउसुचउर, तियसेसे विगल दुदिद्विथावर, मिच्छत्ति,सेसतिय दिट्ठी॥१८॥ संस्कृत अनुवाद पञ्चगर्भजतिर्यकसुरयो-नारकवाय्वोःश्चत्वारस्त्रयःशेषेषु विकले द्वेदृष्टि स्थावरेमिथ्येतिशेषेसुतिसोदृष्टयः॥१८॥ अन्वय सहित पदच्छेद गब्भ तिरिसुरेसुपण, नारयवाऊसुचउर, सेसेतिय विगलदुदिट्ठीथावर, मिच्छत्ति,सेसे तिय दिट्ठी॥१८॥ - दंडक प्रकरण सार्थ 71 दृष्ठि द्वार Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पण-पांच समुद्घात चउर-चार समुद्घात दिट्ठी-दृष्टि मिच्छ-मिथ्या दृष्टि ति-इति (यह नाम की) गाथार्थ ___ गर्भज तिर्यंच और देवों को पांच समुद्घात, नरक और वायुकाय को चार, और बाकी रहे उनको तीन समुद्घात होता हैं। विकलेन्द्रिय को दो दृष्टि, स्थावर जीवों को मिथ्यात्व इस नाम की एक दृष्टि, और बाकी रहे उनको तीन दृष्टि होती है। विशेषार्थ : गर्भज तिर्यंच को आहारक समुद्घात और केवलि समुद्घात सिवाय पांच समुद्घात होते हैं। क्योंकि तिर्यंच को चारित्र तथा पूर्वधर लब्धि होती नहीं इसलिए आहारक लब्धि नहीं है। तथा केवलज्ञान का अभाव होने से केवलि समुद्घात भी नहीं है। लेकिन कितने तिर्यंच पंचेन्द्रिय देश विरति चारित्र के योग्य व्रतनियम तपश्चर्या होने से ऐसे गर्भज तिर्यंचों को वैक्रिय लब्धि और तैजसलब्धि होने से वैक्रिय समुद्घात तथा तैजस समुद्घात हो सकता है। गर्भज तिर्यंच की तरह देवों को भी वैक्रिय तथा तैजस लब्धि व्रत तपश्चर्यादि गुण से नहीं किन्तु तथा प्रकार के भव स्वभाव से ही उत्पन्न हुई होती है। नरक तथा वायुकाय को वेदना, कषाय, मरण और वैक्रिय ये चार समुद्घात है। इन दोनों दंडक में भव स्वभाव से ही वैक्रिय लब्धि होती है। वैक्रिय वाले कितने पर्याप्त वायुकाय जीव देवों से भी असंख्य गुण है। बाकी रहे 7 दंडकमें वेदना कषाय और मरण रुप तीन समुद्घात है। | दंडक प्रकरण सार्थ (72) दृष्टि द्वार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -||24 दंडक में ७समुद्घात॥ 1 ग.मनुष्य को-७ 1 नरक को-४ 1 ग. तिर्थंच को-५ 1 वायु को-४ 13 देवदंडक मे-५ / 7 शेष दंडक मे-३ 10 वां दृष्टिद्वार विकलेन्द्रिय को मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये दो दृष्टि है मिथ्यात्व दृष्टि सभी विकलेन्द्रिय को सभी अवस्था में है। लेकिन सम्यक्त्व दृष्टि तो सास्वादन सम्यक्त्व वाला कोई जीव अन्य स्थान से आकर विकलेन्द्रिय में उत्पन्न हुआ हो, उस समय अपर्याप्त अवस्था हो तब होती है और पर्याप्त अवस्था में तो अवश्य मिथ्यादृष्टि ही होती है। __ तथा स्थावर के पांचों दंडक में 1 मिथ्यादृष्टि ही होती है और शेष 16 दंडक के जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिश्र ये तीने दृष्टिवाले होते है, हरेक दंडक में कौनसे-कौनसे जीव कौन-कौनसी दृष्टिवाले कब कब होते है उनका विचार अन्य ग्रंथ से जान लेना। 24 दंडक में 3 दृष्टिद्वार (1) 5 स्थावर को 1 मिथ्यादृष्टि। 3. विकलेन्द्रिय को - 2 मिथ्यात्व और सम्यक्त्व। 16 शेषदंडक में - 3 दृष्टि-मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व / फूटनोट : . (९)कर्मग्रंथ के अभिप्राय अनुसार तो बादर पृथ्वीकाय, अप्काय, और प्रत्येक वन में भी सास्वादन सम्यक्त्व कहा है इसलिए स्थावर को 3 दंडक में 2 दृष्टि और 2 दंडक में 1 दृष्टि कह सकते है लेकिन सिद्धांत में सब एकेन्द्रिय को सास्वादन सम्यक्त्व का अभाव कहा हुआ होने से इन पांचों दंडक में एक मिथ्यादृष्टि ही है। दंडक प्रकरण सार्थ (73) दृष्ठि द्वार | Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११दर्शनद्वार गाथा थावर-बि-तिसु-अचक्खु, चउरिंदिसुतदुगंसुए भणियं मणुआचउदंसणिणो,सेसेसुतिगंतिगंभणियं॥११॥ संस्कृत अनुवाद स्थावरद्वित्रिष्वचक्षुश्चतुरिन्द्रियेषुतद्धिकं श्रुतेभणितं। . मनुजाश्चतुर्दशनिनःशेषेषुत्रिकंत्रिकंभणितं॥१९॥ अन्वय सहित पदच्छेद सुएथावर बितिसुअचक्खु, चउरिंदिसुतदुगंभणियं . मणुआ चउदंसणिणो,सेसेसुतिगंतिगंभणियं॥१९॥ शब्दार्थ बि - बेइन्द्रिय भणियं-कहा है तिसु-तेइन्द्रिय को चउ-चार अचक्खु-अचक्षु दर्शन दंसणिणो-दर्शनवाले तद्-वह (दर्शन) तिगं-तीन दर्शन तिगं-तीन दर्शन सुए-सिद्धांत में, श्रुत में गाथार्थ सिद्धांत में स्थावर, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय को अचक्षु और चउरिन्द्रिय को दो दर्शन कहा है। मनुष्य को चार दर्शन कहा है। और बाकी रहे हुए को तीनतीन दर्शन कहा है। विशेषार्थ ___ पांच स्थावर, द्वीन्द्रिय, और त्रीन्द्रिय इन सात दंडक में 1 अचक्षुः दर्शन | दंडक प्रकरण सार्थ (74 _ दर्शन द्वार दुगं-दो Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही होता है। वह अचक्षु दर्शन स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र, और मन के भेद से 5 प्रकार का है उसमें पांच स्थावर को स्पर्शनेन्द्रिय का सामान्य उपयोग रुप अचक्षु दर्शन है। द्वीन्द्रिय को स्पर्शनेन्द्रिय और रसेन्द्रिय इन दो इन्द्रियों का सामान्य उपोयग रूप अचक्षुदर्शन है त्रीन्द्रिय को स्पर्श और रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रिय के द्वारा सामान्य उपयोग रूप अचक्षुदर्शन होता है। प्रश्न :- कोई जीव दर्शनगुण बिना के होते है या नहीं? उत्तर :- कोई भी जीव, किसी भी काल में दर्शन गुण बिना का नहीं होता है। प्रश्न :- तो फिर इन्द्रिय पर्याप्ति से अपर्याप्त को इन्द्रियों के बिना अचक्षु दर्शन किस तरह हो सकता है ? .. उत्तर :- जैसे मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपराम रूप ज्ञानशक्ति स्वरूप भाव इन्द्रिय होती है वैसे दर्शन शक्तिरूप भाव अचक्षु दर्शन होता है। यहां सूक्ष्म भाव-मन रूप अचक्षुदर्शन जानना क्योंकि एकेन्द्रियादि असंज्ञि को द्रव्य मन का अभाव होने पर भी क्षयोपशम रूप भाव मन तो अवश्य होता है। तथा चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन तथा अचक्षुदर्शन दो दर्शन है, क्योंकि चतुरिन्द्रिय जीवों को चक्षु इन्द्रिय भी है इसलिए स्पर्श, रसना और घ्राणेन्द्रिय का सामान्य उपयोग वह अचक्षुदर्शन है और चक्षु द्वारा जो सामान्य उपयोग वह चक्षु दर्शन है। गर्भज मनुष्यों को यथायोग्य चार दर्शन होता है उनको अचक्षुदर्शन पूर्वोक्त प्रकार से पांच प्रकार का है। चक्षु इन्द्रिय होने से चक्षु दर्शन भी है और चारित्रादि गुण से प्राप्त की हुई लब्धि प्रत्ययिक अवधि ज्ञानवंत और विभंगज्ञानी को अवधि दर्शन है तथा केवलि भगवंत को केवल दर्शन है। . बाकी रहे देवो के 13 दंडक, नारक का 1, गर्भज तिर्यंच का 1, दंडक में चक्षु दर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये 3 दर्शन है। गर्भज तिर्यंच को व्रत तपश्चर्यादि गुण से लब्धि प्रत्ययिक और 14 दंडक में भव स्वभाव के होने से भव-प्रत्यंयिक अवधि दर्शन है। दंडक प्रकरण सार्थ (75) दृष्ठि द्वार Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां एक जीव को लेकर समकाल में एक साथ किसी को अचक्षुदर्शन अथवा केवल दर्शन होता है इन दो में से एक होता है। किसी को अचक्षु और चक्षु ये दो दर्शन है किसी को इन दोनों के साथ अवधि सहित तीन दर्शन होते है। .. // 24 दंडक में 4 दर्शन॥ 5 स्थावर को 1 . 1 चुतरिन्द्रिय को 2 (च.अच.) 1 द्वीन्द्रिय को 1 (अचक्षु) 1 ग. मनुष्य को 4 . 1 त्रीन्द्रिय को 1 15 शेष में 3 (केवल बिना) 12 ज्ञान और 13 अज्ञान द्वार गाथा . अन्नाणनाणतिय तिय,सुरतिरिनिरए, थिरेअन्नाणदुर्ग नाणान्नाणदुविगलेमणुएपणनाणति अनाणा॥२०॥ / संस्कृत अनुवाद अज्ञानज्ञान (योः) त्रिकं त्रिकंसुरतिर्यग्रयिकेषु.स्थिरे अज्ञान द्विकं। ज्ञानाज्ञानद्रिकं विकले, मनुजे पंचज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि // 20 // अन्वय सहित पदच्छेद सुरतिरिनिरएतिय अनाण, नाण थिरेदुगंअनाण विगलेदुनाणअन्नाण, मणुएपणनाणति अनाणा ||20|| शब्दार्थ दुगं-दो थिरे -स्थावर में नाण-ज्ञान अन्नाण-अज्ञान दु-बे | दंडक प्रकरण सार्थ (76) ज्ञान - अज्ञान द्वार Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ देव, तिर्यंच और नरक को तीन अज्ञान और तीन ज्ञान हैं। स्थावर को दो अज्ञान, विकलेन्द्रिय को दो ज्ञान और दो अज्ञान हैं, मनुष्य को पांच ज्ञान तथा तीन अज्ञान होते हैं। विशेषार्थ देव के 13 दंडक, गर्भज तिर्यंच का एक दंडक और नरक का एक दंडक इन 15 दंडक में मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान, ये तीन अज्ञान और मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान है। सम्यग् दृष्टि जीवों को 3 ज्ञान यथा संभव होता है और मिथ्यादृष्टि जीवों को यथा संभव तीन अज्ञान होता है उसमें भी प्रत्येक जीव आश्रयी सोचने पर एक जीव को समकाल में किसी को अवधिज्ञान के बिना दो ज्ञान होतें है तो किसी को अवधिज्ञान युक्त तीन ज्ञान होते है। परंतु मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये जो ज्ञान हरेक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ जीव को समकाल में अवश्य होता है। इस तरह मिथ्यादृष्टि को मति अज्ञान और श्रुत * अज्ञान भी समकाल में अवश्य होता है अवधिज्ञान की लब्धिवाले ऐसे मिथ्यादृष्टि को विभंगज्ञान युक्त तीन अज्ञान समकाल में होते है। . स्थावर को पांच दंडक में हरेक जीव को समकाल में मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान ये दो अज्ञान होता है। (1) फूटनोट : . 1) यह सिद्धांत का अभिप्राय है। कर्मग्रंथ में तो बादर अपर्याप्त पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पति इन तीन दंडक में और विकलेन्द्रिय में भी अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन सम्यक्त्व कहा है। लेकिन सास्वदान सम्यक्तव को अज्ञानरूप मानकर इन आठ दंडक में दो अज्ञान कहे है। श्री तत्वार्थ सूत्र में आचारांग आदि शास्त्र के ज्ञानीओ को ही श्रुतज्ञान कहा है इसलिए ऐसे शास्त्रों के ज्ञानबिना के जीवों को मतिज्ञान रूप एक ही ज्ञान होता है / ऐसा भी कहा है। | दंडक प्रकरण सार्थ (77) ज्ञान - अज्ञान द्वार Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकलेन्द्रिय के 3 दंडक में दो ज्ञान और दो अज्ञान होता है पूर्व भव में मृत्यु के अन्तर्मुहूर्त के पहले उपशम समकिती होकर वापस समकित से गिरकर सास्वादन सम्यक्त्व युक्त मृत्यु पाकर विकलेन्द्रिय रूप से उत्पन्न होते हैं तब अपर्याप्त अवस्था में अल्प काल सास्वादन सम्यक्त्व होता है। इसलिए सास्वादन सम्यक्तव की अपेक्षा से अपर्याप्त अवस्था में विकलेन्द्रिय दो ज्ञानवाले कहे गये है और उसके बाद संपूर्ण भव पर्यंत मिथ्यादृष्टि होने से दो अज्ञान वाले कहे गये हैं। __गर्भज मनुष्य के एक दंडक में 5 ज्ञान और 3 अज्ञान होता है ।उसमें भी एक मनुष्य को समकाल में यथासंभव दो अज्ञान, तीन अज्ञान तथा एक ज्ञान केवल ज्ञान) दो ज्ञान, तीन ज्ञान (मनःपर्यव या अवंधिज्ञान सहित) अथवा 4 ज्ञान होता है। लेकिन समकाल में एक साथ 5 ज्ञान होता नहीं है। ज्ञान और अज्ञान ये दो भी एक साथ नहीं होता है। . // 24 दंडक में 5 ज्ञान और 3 अज्ञान॥ ज्ञान अज्ञान 3 दंडक ज्ञान अज्ञान 3 विकलेन्द्रिय में | 2 / 1 ग.मनुष्य mr ww 13 देवदंडक | 3 1 ग. तिर्यंच 1 नारक 5 स्थावर m my १४योगद्वार गाथा सच्चेअरमीसअसच्चमोसमण वय, विउवि आहारे। उरलं मीसा कम्मण, इयजोगादेसियासमए॥२१॥ | दंडक प्रकरण सार्थ (78) 78 योगद्धार Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-अनुवाद सत्येतरमिश्रासत्यामृषा, मनोवचसीवैक्रिय आहारकः। औदारिको मिश्राःकार्मण, एतेयोगादेशिताः समये||२|| अन्वय सहित पदच्छेद सच्चइअरमीसअसच्च-अमोस मणवय विउवि आहारे उरलं मीसा कम्मण,इयजोगासमएदेसिया ||2|| शब्दार्थ सच्च-सत्य मीसा-मिश्र योग (ये तीनों काय के) इअर-इतर (असत्य) .. इय-ये मीस-मिश्र जोगा-१५ योग असच्चमोस-असत्यामृषा, देसिया-दिखाया है, कहा है व्यवहार समए-सिद्धांत में, आगम में उरलं-औदारिक काययोग विउव्वि-वैक्रिय काययोग आहार-आहारक काययोग गाथार्थ सत्य, असत्य, मिश्र, और असत्यामृषा (व्यवहार) मन और वचन, वैक्रिय, आहारक, औदारिक और इन तीनों के मिश्र तथा कार्मण, इस तरह श्री आगम में योग कहे है। विशेषार्थ इन 15 योग का स्वरूप द्वार-वर्णन में कहें अनुसार जानना। गाथा इक्कारससुर निरए, तिरिएसुतेर, पन्नरमणुएसु। विगलेचउ, पणवाए, जोगतियंथावरेहोइ||२२|| दंडक प्रकरण सार्थ (79) . योगदार Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-अनुवाद एकादशसुरनैरयिकयोस्तिर्यक्षुत्रयोदश, पञ्चदश, मनुजेषु। विगले चत्वारपञ्चवाते (यौ), योगत्रिकंस्थावरेभवति॥ अन्वय सहित पदच्छेद सुरनिरए इक्कारस, तिरिएसुतेर, मणुएसुपन्नर। विगले,चउ,वाए,पण,थावरेतिगंजोगहोई||२२|| शब्दार्थ इक्कारस-ग्यारह योग / पन्नर-पंद्रह योग तेर-तेरह योग तिगं-तीन योग गाथार्थ देव और नारक को ग्यारह योग, तिर्यंच को तेरह योग और मनुष्य को . पंद्रह योग है विकलेन्द्रिय को चार वायुकाय को पांच और स्थावर को तीन योग है। विशेषार्थ 24 दंडक में 15 योग इस तरह है, देव के तेरह दंडक (13) और नरक का 1 दंडक इन 14 दंडक में मन के 4 योग, वचन के 4 योग तथा वेक्रिय वैक्रियमिश्र तथा कार्मण योग ये तीन प्रकार के काययोग, सभी मिलाकर ग्यारह योग होते है / (१)ये योग कौनसे समय पर कौन-कौनसे होते है ? वह स्वरूप ग्रंथान्तर से जान लेना। फूटनोट : ____(1)15 योग-कब-कब होते है उनको संक्षिप्त वर्णन 4 मनोयोग मनपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद पर्याप्त अवस्था में होते है। 4 वचनयोग भी पर्याप्त अवस्था में होते है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक योग तीनों अपनी-अपनी पर्याप्त अवस्था में होते है। औदारिक मिश्र उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था तक (कितने आचार्य के मतानुसार शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो वहां तक) तथा केवलि समुद्घात में 2-6-7 वे समय पर, इस तरह कर्मग्रंथानुसार दो तरह से है दंडक प्रकरण सार्थ (80) योगद्वार Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भज तिर्यंच के 1 दंडक में औदारिक और औदारिक मिश्र ये दो काययोग मिलाकर (पूर्वोक्त 11 योग सहित) तेरह योग होते है, गर्भज मनुष्य में 15 योग है। विकलेन्द्रिय के 3 दंडक में औदारिक, औदारिक मिश्र, कार्मण ये तीन काययोग और असत्यामृषा (व्यवहार) नाम का वचनयोग मिलाकर 4 योग होते ___वायुकाय के दंडक में औदारिक, वैक्रिय, औदारिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र और कार्मण ये पांच प्रकार के काययोग है क्योंकि कितने बादर पर्याप्त वायुकाय जीव वैक्रिय लब्धिवाले होते है। स्थावर के 4 दंडक में औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्मण ये तीन काययोग ही होते है। // 24 दंडक में 15 योग॥ 13 देव के दंडक में 11 - 3 विकलेन्द्रिय को-४ 1 नरक के दंडक में 11 1 वायुकाय को-५ 1 ग. मनुष्य को 15 4 स्थावर को-३ 1 ग. तिर्यंच को 13 १५उपयोग द्वार गाथा तिअनाणनाणपण, चउदंसण,बारजिअलक्खणुवओगा। इयबारस उवओगा, भणिया तेलुक्कदंसीहिं||२३|| तथा सिद्धांत अनुसार उपरोक्त दो प्रकार और उत्तर वैक्रिय तथा आहारक शरीर के प्रारंभ में इस तरह चार प्रकार औदारिक मिश्र समझना। वैक्रिय मिश्र मूलवैक्रिय की अपेक्षा से उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था तक और तिर्यंच मनुष्य के उत्तर वैक्रिय के प्रारंभ और संहरण में इस तरह कर्मग्रंथ के अभिप्राय अनुसार तीन प्रकार से है। सिद्धांतानुसार उत्तर वैक्रिय प्रारंभ में न होनेसे दो प्रकार से है। आहारक मिश्र, आहारक शरीर के प्रारंभ में और संहरण मे इस तरह दो प्रकार से कर्मग्रंथ मतानुसार से है सिद्धांतानुसार प्रारंभ के बिना एक ही प्रकार से है। तैजस कार्मण योग वक्रगति द्वारा परभव में जाते समय 1-2-3 समय तक तथा केवली समुद्घात में 3-4-5 वां ये तीन समय तक तथा उत्पत्ति के पहले समय पर होता है। दंडक प्रकरण सार्थ उपयोग द्वार Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-अनुवाद त्रीण्यज्ञानानि, ज्ञानानिपञ्च, चत्वारिदर्शनानिद्वादश . जीवलक्षणोपयोगाः / एतेद्वादश उपयोगाभणितास्त्रैलोक्यदर्शिभिः||२३|| अन्वय सहित पदच्छेद तिअनाण,पणनाण,चउदंसण,बारजिअलक्खणउवओगा इयबारसउवओगातेलुक्कदंसिटिंभणिया॥२३॥. .. शब्दार्थ जिअ-जीव के तेलुक्क-तीनलोक (तीन जगत का) लक्खण-लक्षणरूप दंसिहीं-दर्शिता ने इय-ये, पूर्वोक्त देखनेवालो ने '५नवालान गाथार्थ तीन अज्ञान, पांचज्ञान और चार दर्शन ये 12 जीव के लक्षणरूप उपयोग है। ये बारह उपयोग तीन जगत के पदार्थ देखनेवाले श्री जिनेश्वर भगवंत ने कहा है। गाथा उवओगा मणुएसुबारस,नव निरय तिरियदेवेसु। विगलदुगेपण, छक्कं चरिंदिसु,थावरेतियगं||२४|| संस्कृत अनुवाद उपयोगा मनुजेषुद्वादश, नवनैरयिकतिर्यग्देवेषु। विकलद्रिकेपञ्च, षट्कं चतुरिन्द्रियेषुस्थावरेत्रयः॥२४|| अन्वय-सहित पदच्छेद मणुएसुबारस उवओगा निरय तिरिय देवेसुनव। विगलदुगेपण, चउरिंदिसुछक्कं,थावरेतियगं॥२४|| | दंडक प्रकरण सार्थ (82) उपयोग द्वार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ दुगे-द्विक में, 2 भेद में पण-पांच उपयोग छक्कं-छह उपयोग | तियगं-तीन गाथार्थ ___उपयोग मनुष्य में 12, नरक तिर्यंच और देवों में 9, विकलेन्द्रिय के दो भेदो में 5, चउरिंद्रिय में 6 और स्थावर में 3 होते है। विशेषार्थ आगे की गाथा में कहे हुए 12 प्रकार के उपयोग में से गर्भज मनुष्य को यथायोग्य 12 उपयोग होते हैं। नरक के दंडक में मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, केवलदर्शन के बिना 9 उपयोग है और गर्भज तिर्यंच तथा देवों के 13 दंडकों में भी यही 9 उपयोग है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय इन दो विकलेन्द्रिय में दो ज्ञान, दो अज्ञान, और एक अचक्षुदर्शन, सभी मिलाकर 5 उपयोग है चउरिंद्रिय में इन पांच उपयोग के साथ छट्ठा चक्षुदर्शन गिनने से छह उपयोग होते हैं स्थावर के पांचों दंडक में 2 अज्ञान और 1 अचक्षुदर्शन मिलने से 3 उपयोग होते हैं। यहां कौनसा ज्ञान तथा अज्ञान है वह ज्ञान-अज्ञान द्वार के अवसर पर 20 वीं गाथा में कहा गया है तथा एक जीव को एक साथ कितने उपयोग होते है ? वह 19 वीं तथा २०वीं गाथा के अर्थ से समझ लेना। // 24 दंडकों में 12 उपयोग। 1. ग. मनुष्य-१२ 1 द्वीन्द्रिय-५ 1 नरक-९ १त्रीन्द्रिय-५ 1 ग.तिर्यंच-९ 1 चउरिन्द्रिय-६ 13 देव-९ 5 स्थावर-३ | दंडक प्रकरण सार्थ (83) उपयोग द्वार Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 उपपात द्वार गाथा संखमसंखासमए गब्भयतिरिविगलनारयसुराय। मणुआनियमासंखा, वणंता,थावर असंखा॥२५|| संस्कृत अनुवाद संख्येयाअसंख्येयाःसमयेगर्भजतिर्यग्विकलनारकसुराश्च। मनुजा नियमात्संख्येया, वनाअनंता:स्थावरा असंख्येयाः॥२५॥ अन्वय सहित पदच्छेद समएगब्भ तिरिविगल नारययसुरासंखं असंखा। मणुआनियमासंखा, वणअणंता,थावराअसंखा||२५|| शब्दार्थ संखं-संख्यात असंखा-असंख्यात, असंख्य समए-एक समय में नियमा-नियम से, निश्चित . संखा-संख्यात ही वण-वनस्पति जीवों अणंता-अनंत असंखा-असंख्य / गाथार्थ (1) एक समय में गर्भज तिर्यंच, विकलेन्द्रिय नरक और देव (१)संख्यात अथवा असंख्यात, मनुष्य संख्यात ही, वनस्पति के जीव अनंत और स्थावर जीव असंख्यात उत्पन्न होते हैं। फूटनोट : (1) संख्यात, असंख्यात और अनंत ये तीनों क्रमानुसार अधिक अधिक संख्यागणित के 3 भेद हैं, उसका स्वरूप चतुर्थ कर्मग्रंथ आदि ग्रंथों से जानना। | दंडक प्रकरण सार्थ 84 ঠgয়ন জe Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ १६वां उपपात द्वार में गर्भज तिर्यंच का एक दंडक, विकलेन्द्रिय के 3 दंडक, सात नरक का एक दंडक और देवों के (2)13 दंडक, सब मिलकर 18 दंडक के जीव एक समय में एक साथ 1-2-3 इत्यादि संख्या से संख्यात या असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं क्योंकि इन हरेक दंडक के जीव उत्कृष्ट से असंख्य असंख्य है इसलिए एक समय में उत्कृष्ट से असंख्य भी उत्पन्न होते हैं। गर्भज मनुष्य एक समय में निश्चय से 1-2-3 इत्यादि संख्या से अवश्य संख्यात ही उत्पन्न होते है। लेकिन असंख्य या अनंत उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि गर्भज मनुष्यों की इस जगत में सब मिलाकर (3)29 अंक जितनी ही संख्या है। स्थावर के पांच दंडक में 1 वनस्पतिकाय का जीव एक समय में अनंत उत्पन्न होते है क्योंकि सूक्ष्म निगोद और बादर निगोद रूप वनस्पति के जीव इस जगत में जघन्य से भी अनंत है किन्तु असंख्यात या संख्यात नहीं। यहां यह विशेषता है कि प्रत्येक वनस्पति के जीव अनंत नहीं लेकिन असंख्य ही है इसलिए प्रत्येक वनस्पति के जीव एक समय में असंख्य ही उत्पन्न होते है शेष चार स्थावर के सूक्ष्म या बादर जीव भी जगत में असंख्य-असंख्यात ही है, अनंत या संख्यात नहीं है। इसलिए इन चार दंडक के जीव एक समय में एक साथ असंख्यात ही उत्पन्न होते है। 1-2-3 इत्यादि संख्यात नहीं होते है परन्तु असंख्यात उत्पन्न होते है। फूटनोट : .(२)देवों के वैमानिक दंडक में यह विशेषता कि 9 वें देवलोक से अनुत्तर देवलोक तक के वैमानिक देवों में उत्पत्ति और च्यवन एक समय में संख्यात जीवों का ही होता है क्योंकि इन देवों की गति आगति सिर्फ गर्भज मनुष्यों में ही होती है। (३)गर्भज मनुष्यों 79228162, 5142643, 3759354, 3950336 इतनी संख्या ही है। इनसे ज्यादा कभी भी नहीं होते है। दंडक प्रकरण सार्थ उपपात द्वार Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपपात चालु, 17 वां च्यवन द्वार, १८वां स्थितिद्वार। गाथा असन्नि नरअसंखा, जहउववाएतहेवचवणेवि। बावीससग तिदसवास-सहस्सउक्किट्ठपुढवाई||२६|| संस्कृत अनुवाद असंज्ञिनराअसंख्येया,यथोपपातस्तथैव च्यवनमपि, द्वाविंशतिसप्तत्रिदशवर्ष-सहसा उत्कृष्टं पृथ्व्यादयः॥२६|| अन्वय सहित पदच्छेद असन्निनरअसंखा, जहउववाएतहएवचवणेअवि. पुढवि आईउक्किट्ठबावीससगति दससहस्सवास॥२६|| शब्दार्थ असन्नि नर-असंज्ञि, सम्मुर्छिम मनुष्य / अवि-भी असंखा-असंख्य सग-सात जह-जैसा, जिस तरह, जो ति-तीन तह-वैसा, उस तरह, वे वास-वर्ष एव-ही उक्किट्ठ-उत्कृष्ट से पुढवाई-पृथ्वीकायादि गाथार्थ (1) असंज्ञि याने सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्य है। जैसा उपपात, वैसा च्यवन है। पृथ्वीकायादि चार भेद उत्कृष्ट से बावीस, सात, तीन और दस हजार वर्ष तक रहते है। फूटनोट : ____(1) इस प्रकरण के दंडकों में असंज्ञि मनुष्य नहीं गिने है फिर भी यहां पर उपपात च्यवन द्वार में प्रसंगानुसार सम्मुर्छिम मनुष्य के बारे में बताया गया है। / दंडक प्रकरण सार्थ (86) उपवात, च्ववत, स्थिति द्वाट चालु Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ समूर्छिम मनुष्य असंख्यात ही है, जो मनुष्य के 14 अशुचि स्थानों में जैसे कि विष्टा, मूत्र, पसीना आदि में उत्पन्न होते है, वे इस जगत में सब मिलकर असंख्यात ही होते है इसलिए एक समय में उनकी उत्पत्ति और मरण एक साथ असंख्य जितना ही होते है / कभी कभी ये समूर्च्छिम मनुष्य 24 मुहूर्त तक बिल्कुल नहीं होते है ऐसा भी होता है / एक मुहूर्त याने 48 मिनिट या दो घडी। १७वां च्यवन द्वार में सभी दंडकों का च्यवन(मरण) की एक साथ (समकाल) की संख्या भी पूर्णतया १६वां उपपात (उत्पत्ति) द्वार के समान ही जानना। // 24 दंडक में समकाल में उपपात च्यवन की संख्या। 1 ग. तिर्यंच 3 विकलेन्द्रिय | संख्यात 1 नरक असंख्यात 13 देव 1 ग.मनुष्य संख्यात .. . 1 वनस्पति अनंत 4 स्थावर असंख्य फूटनोट :- . . विरह का अर्थ यह है कि जहां जितना विरह कहा गया है वहा उतने काल तक कोई नया जीव उत्पन्न नहीं होता है उसे उपपात विरह कहते है और उतने काल तक उस दंडक में से कोई भी जीव मरण न पाये वह च्यवन विरह कहा जाता है। दंडक प्रकरण सार्थ (87) उपपात, च्ववन, स्थिति द्वार चालु Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसंगतः विरहद्वार सात नरक के एक दंडक में ओघ याने सामान्य से 12 मुहूर्त का उत्कृष्ट से विरह काल है। और प्रत्येक नरक पृथ्वी का अलग-अलग इस प्रकार है। पहली पृथ्वी में 24 मुहूर्त का पांचवी पृथ्वी में 2 महिने. दूसरी पृथ्वी में 7 दिन का छट्ठी पृथ्वी में 4 महिने तीसरी पृथ्वी में 15 दिन का सातवीं पृथ्वी में 6 महिने चौथी पृथ्वी में 1 महिने का और सभी में जघन्य से 1 समय का विरह काल है। चारों निकाय के देवों मे ओघ (सामान्य से) 12 मुहूर्त का उत्कृष्ट विरह काल है और भिन्न भिन्न निकाय का विचार किया जाये तो 10 भवनपति में, व्यंतर में और ज्योतिषी में (इन 12 दंडक में) प्रत्येक में 24 मुहूर्त का विरह है। तथा वैमानिक देवो में सामान्य से (24) मुहूर्त का है। और भिन्न-भिन्न देवलोक में इस तरह कहा है : भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष / 1-2 रा देवलोक में ३रा देवलोक में 9 दिन 20 मुहूर्त का 4 थे देवलोक में 12 दिन 10 मुहूर्त / 5 वे देवलोक में 22 // दिन ६वे देवलोक में 45 दिन ७वे देवलोक में 80 दिन 8 वे देवलोक में 100 दिन 9 वे देवलोक में 10 महिने 10 वे देवलोक में 11 महिने 11-12 देवलोक में 100 वर्ष प्रायः पहले 3 ग्रैवेयक में 1000 साल के अंदरका दंडक प्रकरण सार्थ (88) विरहद्वार Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे ३-ग्रैवेयक में 1 लाख वर्ष के अंदर तीसरे 3 ग्रैवेयक में 1 करोड साल के अंदर चार अनुत्तर में पल्योपम का असंख्यातवा भाग, सर्वार्थसिद्ध विमान में पल्योपम का संख्यातवा भाग का उत्कृष्ट विरह काल है। और सभी का जघन्यसे विरह काल एक समय का है। गर्भज तिर्यंच में 12 मुहूर्त का उत्कृष्ट विरह काल है। गर्भज मनुष्य में 12 मुहूर्त, 5 एकेन्द्रिय में विरहकाल नहीं है, 3 विकलेन्द्रिय में प्रत्येक में एक-एक मुहूर्त का विरह काल है। सभी का जघन्य विरह काल एक समय का है। // 24 दंडक में स्थिति द्वार॥ १८वे स्थिति द्वार में पृथ्वीकाय का 22000 वर्ष का आयुष्य कहा है वह बादर पर्याप्त खर पृथ्वीकाय के जो रत्न, मणि आदि का जानना ये रत्न, मणि आदि नक्कर पृथ्वीकाय के जीव विशेष प्रकार के निराबाध स्थान में रहे हो तो इतने वर्ष तक जीवित रहते है और (१)दूसरे पृथ्वीकाय के जीवों का आयुष्य उनसे कम कम अनेक प्रकार से जानना। * इस प्रकार बादर पर्याप्त अप्काय, वायुकाय, और प्रत्येक वनस्पतिकाय का क्रमानुसार 7000, 3000 और 10000 वर्ष का आयुष्य है ये भी विशेष प्रकार के निराबाध स्थान में रहे हुए स्थिर अपकायादि का जानना। गाथा तिदिणग्गि, तिघल्लाउनरतिरि,सुरनिरयसागर तित्तीसा वंतरपलं, जोइस-वरिसलवखाहियंपलियं॥२७॥ फूटनोट : - (1) जैसे कि :- सुवर्ण का 10000 वर्ष, खडी का 12000 वर्ष, रेती का 14000 वर्ष, मणसिल का 16000 वर्ष, कंकर का 18000 वर्ष इत्यादि आयु निराबाधस्थान में रहे हुए सुवर्ण आदि का है। दंडक प्रकरण सार्थ (89) विरहद्वार Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-अनुवाद त्रिदिनोऽग्निस्त्रिपल्यायुष्कौ नरतिर्यचौसरनैरयिको सागरत्रयस्त्रिंशत्को व्यन्तरस्यपल्यं, ज्योतिषोवर्षलक्षाधिकंपल्यम्॥२७॥ अन्वय सहित पदच्छेद .. अग्गिति दिण, नरतिरितिपल्ल आऊ,सुर निरय तित्तीसासागर, वंतरपल्लं, जोइसलक्खवरिसअहियंपलियं॥२७॥ शब्दार्थ ति दिण-तीन दिन पल्ल-एक पल्योपम अग्गि-अग्निकाय का वरिस-वर्ष ति पल्ल-तीन पल्योपम लक्ख-एक लाख आऊ-आयुष्य अहियं-अधिक सागर-सागरोपम पलियं-पल्योपम तित्तीसा-तेत्तीस गाथार्थ अग्निकाय का तीन दिन, गर्भज-मनुष्य और तिर्यंच का तीन पल्योपम देव और नरक का तेत्तीस सागरोपम व्यंतर एक पल्योपम, और ज्योतिषी देवों का एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम का आयुष्य है। विशेषार्थ निराबाध स्थान मेंरहे हुए बादर पर्याप्त अनिकाय का आयुष्य तीन दिन का है। प्रश्न :- द्वारिका नगरी का अग्निदाह छ महिने तक रहा ऐसा सुना जाता है। इस तरह अग्नि का छ महिने जितना लंबा आयु क्यों नहीं हो सकता ? | दंडक प्रकरण सार्थ (90) . विरहद्वार Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर :- इस तरह विचार करे तोपर्वतों और पृथ्वीओंअनेक करोडो सालोसे है। नदीया और समुद्र भी अनेक करोडो साल से है। तो पृथ्वीकाय और अप्काय का आयुष्य 22000 वर्ष तथा 7000 वर्ष का किस तरह गिना जाय ? इसलिए यहां पर उन कायों का पिंड का आयुष्य नहीं कहा है। किन्तु उन कायो की पिंड में रहे हुए पृथ्वीकायादि एक-एक जीवों का आयुष्य कहा गया है। इसी कारण से द्वारिका की अग्नि छ महिने तक रही। वह अनेक बार अनेक अग्नि के जीवों का जन्म-मरण के प्रवाह रूप से रही थी। इसलिए अग्नि के एक जीव का आयुष्य भी सर्वज्ञ भगवंत ने तीन दिन का देखा है ऐसा जानना / मनुष्य और तिर्यंचो का आयुष्य 3 पल्योपम का कहा है, वह देवकुरु, उत्तरकुरु के उत्कृष्ट आयुष्यवाले युगलिक मनुष्य तथा युगलिक तिर्यंचो का आयुष्य है। वैमानिक देवों का तथा नरक का आयुष्य 33 सागरोपम का है वह पांच अनुत्तर विमान के देव तथा सातवीं नरक के जीवों का उत्कृष्ट आयु की अपेक्षा से है। व्यंतरोका उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपम है। लेकिन देवीओं का उत्कृष्ट आयु आधा पल्योपम है। ज्योतिषी में 1 लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम आयुष्य है वह चन्द्र विमानवासी पुरुषदेवों का है तथा चन्द्र का अपना (इन्द्रका) है ऐसा जानना। गाथा असुराणअहियअयर,देसूणदुपल्लयंनव निकाए। बारस-वासुणपणदिण-छम्मासुकिट्ठविगलाऊ||२८|| संस्कृत-अनुवाद असुराणामधिकमतरं, देशोनद्विपल्यंनवनिकायेषु द्वादशवर्षेकोनपञ्चाशद, दिनषष्ठमासाउत्कृष्टंविकलायुः॥२८॥ अन्वय सहित पदच्छेद असुराणअयरंअहिय,नवनिकाएदेस्ण दुपल्लयं विगलउक्किद्वआउ-बारसवास,ऊणपणदिण,छमासा||२८|| | दंडक प्रकरण सार्थ (91) विरहदार Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ असुराण-असुरकुमारों का निकाए-निकायो में अहिय-कुछ अधिक बारस-१२ (पल्योपम का असंख्यातवां भाग) | वास-वर्ष अयरं-१ सागरोपम ऊणपण-उनपचास देसूण-कुछ कम (पल्यो दिण-दिन - का असंख्यातवां भाग कम) छम्मासा-छ महिना दु पल्लयं-२ पल्योपम उक्किट्ठ-उत्कृष्ट नव-(नागकुमारादि)नव आऊ-आयुष्य गाथार्थ . उत्कृष्ट आयुष्य-असुरकुमारादि का कुछ अधिक याने पल्योपम का .. असंख्यातवा भाग अधिक एक सागरोपम, नव निकाय में दो पल्योपम में पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम इतना आयुष्य है। और विकलेन्द्रिय का अनुक्रम से 12 वर्ष, उनपचास दिन और छ महिने है। विशेषार्थ // 24 दंडक में उत्कृष्ट आयुष्य:स्थिति॥ 1 पृथ्वीकाय 22000 वर्ष 1 व्यंतर -1 पल्योपम 1 अप्काय 7000 वर्ष 1 ज्योतिषी-१ पल्योपम और 1 वनस्पति काय 10000 वर्ष 1 लाख वर्ष 1 वायुकाय-३००० वर्ष 1 असुर-साधिक 1 सागरोपम 1 अग्निकाय-३ दिन 9 भवन-देशोन 2 पल्योपम 1 ग.मनुष्य-३ पल्योपम 1 बेइन्द्रिय-१२ वर्ष 1 ग.तिर्यंच-३ पल्योपम 1 तेइन्द्रिय-४९ दिन 1 वैमानिक-३३ सागरोपम 1 चउरिंद्रिय-६ महिना 1 नरक का-३३ सागरोपम दंडक प्रकरण सार्थ (12) . विरहद्वार Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जघन्य आयुःस्थिति गाथा पुढवाइदसपयाणं अंतमुहुतंजहन्न आउठिई। दससहसवरिसठिइआ भवणाहिवनिरयवंतरिया ||29|| संस्कृत अनुवाद पृथ्व्यादिदशपदाना-मन्तर्मुहूर्तजघन्यायुःस्थितिः। दशसहसवर्षस्थितिका भवनाधिपनैरयिकव्यन्तराः 29|| अन्वय सहित पदच्छेद पुढविआईदस पयाणंजहन्न आउठिईअंतमुहुत्तं। भवणाहिव निरयवंतरिया,दससहसवरिसठिइआ||२९|| शब्दार्थ पुढवाइ-पृथ्वीकायादि दस सहस-दस हजार दस पयाणं-दस पदों का वरिस-वर्ष ___ (10 दंडक पदों का) ठिइआ-स्थितिवाला, आयुष्यवाला अंतमुहूत्तं-अंतर्मुहुर्त भवणाहिव-भवनाधिप, . आउठिई-आयुष्यस्थिति भवनपति गाथार्थ पृथ्वीकायादि दस दंडकों की जघन्य आयुस्थिति अंतर्मुहूर्तकी है, भवनपति, नरक, व्यंतर का दस हजार वर्ष का आयु है। विशेषार्थ यहां पर जो दश पद या दंडक कहे हैं वह पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्य ये दंडक प्रकरण सार्थ (13) जघन्य आयुः स्थिति Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश जानना, इनका जघन्य आयुष्य अंतर्मुहूर्त का है। आगे भी जहां-जहां दस पद कहा जाय वहां वहां यही दस पद समझना। व्यंतर, पहली नरक और भवनपति का दस हजार वर्ष का जघन्य आयु है। आयु:स्थिति चालु, १९वां पर्याप्ति द्वार। गाथा वेमाणिय-जोइसियापल्ल-तयद्वंस आऊआहुति। सुरनरतिरिनिरएसुछपज्जत्तीथावरे चऊगं, ||30|| संस्कृत अनुवाद वैमानिकज्योतिष्काः, पल्यतदष्टांशायुष्काभवन्ति सुरनरतिर्यगनैरयिकेषुषट्पर्याप्तयःस्थावरे चतुष्कम् // 30 // अन्वय सहित पदच्छेद वेमाणिजोइसिया पल्ल-तय अट्ठअंस-आऊआहुति सुरनर तिरिनिरएसुछपज्जती,थावरे चऊगं॥३०॥ शब्दार्थ पल्ल-१ पल्योपम आउआ-आयुष्यवाले तय-उसका (पल्योपमका) | हुंति-होते है अटुंस-आठवां भाग चउगं-४ पर्याप्ति पाथार्थ वैमानिक और ज्योतिषीका अनुक्रमसे पल्योपम और पल्योपमका आठवा भागका आयुवाले होते है। देव, मानव, तिर्यंच और नरक को 6 पर्याप्ति है, स्थावर को 4 पर्याप्ति है। | दंडक प्रकरण सार्थ पर्याप्ति द्वार Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ ___वैमानिको का जघन्य आयु 1 पल्योपम का है यह सौधर्म देवलोक के पहले प्रकार के देवों की अपेक्षा से है। तथा ज्योतिषी का जघन्य आयु पल्योपम का आठवा भाग याने '/, पल्योपम का है वह तारा की देवीओं का है। अन्य ग्रंथों में साधिक 1 पल्योपम याने पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक एक अष्टमांश पल्योपम कहा है। वह किंचित् अधिकता की यहां विवक्षा नहीं की है। ऐसा जानना। // 24 दंडक में जघन्य आयुष्य॥ 10 पृथ्वीकायादि-अन्तर्मु. 1 व्यंतर-१०,००० वर्ष 10 भवनपति-१०,००० वर्ष 1 वैमानिक-१ पल्यो 1 नरक-१०,००० वर्ष 1 ज्योतिषी-१/८ पल्यो . पर्याप्ति द्वार देवो के 13, ग. तिर्यंच का 1, ग. मनुष्य का 1, और सात नरक का 1 ये 17 दंडक में आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोश्वास, भाषा और मन ये छ पर्याप्ति होती है, तथा स्थावर के पांच दंडक में भाषा और मन के बिना 4 पर्याप्ति होती हैं। पर्याप्ति द्वार चालु २०वां किमाहार और २१वां संज्ञि द्वार। गाथा विगले पंच पजती, छदिसिआहारहोइसव्वेसिं पणगाइपएभयणा, अहसन्नितियंभणिस्सामि // 31|| संस्कृत अनुवाद विकले पञ्चपर्याप्तयः, षइदिगाहारोभवतिसर्वेषाम पनकादिपदेभजना, अथसंज्ञित्रिकंभणिष्यामि // 3|| दंडक प्रकरण सार्थ (95) पर्याप्ति किमाहार संज्ञि द्वार Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वय सहित पदच्छेद विगले पंच पज्जत्ती,सब्वेसिंछ दिसि आहारहोई पणगआईपएभयणा,अहसन्नितियंभणिस्सामि // 31 // शब्दार्थ छद्दिसि-६ दिशा का पए-(दंडक) पद में आहार-आहार भयणा-भजना होई-होता है हो या न हो अनियम। सव्वेसिं-सभी दंडक के जीवों को | अह-अब पणगाई-सूक्ष्म वनस्पति आदि (5) | भणिस्सामि-कहता हूं, कहूंगा गाथार्थ विकलेन्द्रिय को पांच पर्याप्ति है। सभी को छ दिशा का आहार होता है लेकिन सूक्ष्म वनस्पति आदि रूप पनग आदि पदों की भजना अनिश्चितता है। अब 3 संज्ञि कहूंगा (द्वार)। विशेषार्थ विकलेन्द्रिय को मन पर्याप्ति के बिना 5 पर्याप्ति होती है। // 24 दंडक में६ पर्याप्ति॥ 13 देव को-६ . 5 स्थावर को-४ 1 ग. मनुष्य को-६ 3 विकलेन्द्रिय को - 5 1 ग. तिर्यंच को-६ 1 नरक को-६ दंडक प्रकरण सार्थ (16) पर्याप्ति किमाहार संज्ञि द्वार Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . किमाहारद्वार अब बीसवां किमाहार द्वार में चोवीस दंडक के जीवों को छ दिशा से आहार मिलता है क्योंकि छ दिशा का आहार लोकाकाश के अंदर के भाग में रहे हुए चोवीस दंडक के जीवों को होता है लेकिन पनग आदि वनस्पति याने सूक्ष्म वनस्पति आदि पांच दंडको में अर्थात सूक्ष्म वनस्पति सूक्ष्म वायु, (१)बादर वायु, सूक्ष्मअग्नि, सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म पृथ्वी ये पांच सूक्ष्म और एक बादर मिलाकर छ प्रकार के जीवों में वायु दो प्रकार का गिनने से दंडकों तो पांच ही होते है। दंडक में छ दिशा का आहार की भजना याने अनिश्चितता, अनियमता जानना अर्थात् पांच दंडको में छ दिशा का आहार होना ऐसा कोई नियम नहीं होता है क्योंकि कितने जीवों को तो 6-5-4-3 दिशा का भी आहार होता है। वह इस तरह है। लोकाकाश के पर्यंत भाग मे रहे हुए इन पांच दंडको को आगे किमाहार द्वार के वर्णन में कहें मुताबिक 3-4-5 दिशा का आहार होता है और पर्यंत भाग को छोडकर, या पर्यंत भाग से थोडा हटकर लोकाकाश के अंदर रहे हुए इन पांच दंडक के जीवों को छ दिशा का आहार होता है। वहां पूर्वादि चार दिशाए तथा उर्ध्व और अधो ये छ दिशा जाननी। 4 विदिशा में से पुद्गल ग्रहण नहीं होता है / इसलिए 4 विदिशाओं का आहार कहा नही है। // 6 दिशा का आहार॥ - 19 दंडक मे 6 दिशा का। 5 स्थावर को 3-4-5-6 दिशा का फूटनोट : . (1) लोक के पर्यन्त भाग में बादरवायु के अलावा दूसरे बादर एकेन्द्रिय न होने से यहां पर सिर्फ बादर वायु कहा है क्योंकि एकेन्द्रिय के 22 भेद में से लोक के पर्यंत भाग में 12 जीव भेद ही है 10 भेद नहीं है। दंडक प्रकरण सार्थ किमाहार द्वार Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २श्वांसंज्ञिद्वार गाथा चउविहसुरतिरिएसुनिरएसुयदीहकालिगीसन्ना। विगले हेउवएसा, सन्नारहिया थिरासव्वे|३२|| संस्कृत अनुवाद चतुर्विधसुरतिर्यक्षु, नैरयिकेषुच दीर्घकालिकीसंज्ञा .. विकलेहेत्वौपदेशिकी, संज्ञारहिताःस्थिराःसर्वे||३२|| अन्वय सहित पदच्छेद चउ विहसुर तिरिएसुय, निरएसुदीहकालिगीसन्ना विगले हेउवएसासव्वेथिरासन्नारहिया||३२|| शब्दार्थ चउविह-चार प्रकार के हेउवएसा-हेतुवादोपदेशिकी दीहकालिंगी-दीर्घकालिकी सन्ना-संज्ञा सन्ना-संज्ञा रहिया-रहित गाथार्थ चारप्रकार केदेव, तिर्यंच, और नरकको दीर्घकालिकी संज्ञा होती है विकलेन्द्रिय को हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा होती है और सभी स्थावर संज्ञा रहित है। विशेषार्थ २१वां द्वार में चार निकाय के देवो का १३दंडक, गर्भज तिर्यंच का 1 दंडक, सात नरक का 1 दंडक इन 15 दंडक के जीवों में 1 दीर्घ कालिकी संज्ञा कही है। क्योंकि इन जीवों की मनः पर्याप्ति होने से विशिष्ट मनोविज्ञान के बल द्वारा भूतकाल में इस कार्य का क्या परिणाम आया था? भविष्य काल में क्या | दंडक प्रकरण सार्थ (98 संज्ञिद्वार Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयेगा ? इत्यादि दीर्घकाल का विचारने की विशिष्ट ज्ञान संज्ञा होती है। तथा मनः पर्याप्ति के अभाव में विकलेन्द्रिय को वर्तमान समय का ही सुख-दुःख का विचार करने की ज्ञान संज्ञावाले होने से उनको हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा होती है। और स्थावर तो अव्यक्त चैतन्य वाले होने से उन सभी को संज्ञा रहित ही कहे है क्योंकि ये 3 संज्ञा स्पष्ट चैतन्यवाली है। प्रश्न :- एकेन्द्रिय को आहारादि 10 संज्ञा आगे कही है तथा विकलेन्द्रिय को उन 10 के अलावा अल्प स्पष्ट चैतन्य लागणी वाली हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा भी है। तो फिर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय संज्ञावाले होने पर भी संज्ञि क्यों नही गिना? उत्तर :- एकेन्द्रियादि को आहारादि संज्ञा होने पर भी वह अस्पष्ट चैतन्यवाली है इसलिए उस संज्ञा से यहा संज्ञित्व माननायोग्य नहीं है। और विकलेन्द्रिय को जो हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है वह अल्प स्पष्ट चैतन्यवाली होने से ऐसी संज्ञा से संज्ञि गिना नहीं जाता। क्योंकि अल्प धन से धनवान कहा नहीं जाता, अल्प रूप से रूपवान गिना नहीं जाता है, लेकिन बहुत धन से ही धनवान, बहुत रूप से ही रूपवान कहा जाता है / इस व्यवहार अनुसार बेइन्द्रियादि को असंज्ञि गिना है। प्रश्न :- तीन काल का विचार करनेवाले देव आदि दंडकों में एक दीर्घकालिकी . संज्ञा कहीं है। उनमें वर्तमान कालविषयक हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा भी हो सकती है, तो दो संज्ञा क्यों नही कहीं है ? उत्तर :- जैसे करोडपति शाहुकार के पास लाख रूपया होने पर भी वह लखपति नही कहा जाता क्योंकि करोड के अंदर लाख का समावेश हो जाता है इस तरह दीर्घकालिकी संज्ञा में हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा का समावेश हो जाता है इसलिए अलग नहीं गिना। संज्ञिद्वार चालु, 22-23 (१)गति-आगति द्वार। फूटनोट :(१)द्वारों के क्रम में प्रथमगति द्वार और बाद में आगति द्वार कहा है लेकिन यहां द्वारावतार में सभी जगह हर दंडक में पहले आगति और बाद में गति कही है। | दंडक प्रकरण सार्थ (19) गति - आगति द्वार चालु Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा मणुआणदीहकालिय, दिद्विवाओवएसिआकेवि.. पज्जपणतिरिमणुअच्चिय, चउविहदेवेसुगच्छंति॥३३॥ . संस्कृत-अनुवाद मनुजानांदीर्घकालिकी, दृष्टिवादोपदेशिकाः केऽपि . पर्याप्त पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुजाएवचतुर्विध-देवेषु गच्छन्ति // 33 // अन्वय सहित पदच्छेद मणुआणदीहकालिय,केदिद्विवाओवएसिआअवि : पञ्च पण तिरिमणुअचिय, चउविहदेवेसुगच्छन्ति॥३३॥ शब्दार्थ दीहकालिय-दीर्घकालिकी के-कितने को दिट्ठिवाओवएसिआ-दृष्टि अवि-भी वादोपदेशिकी संज्ञा गच्छन्ति-जाते है पज्ज-पर्याप्त पण-पंचेन्द्रिय गाथार्थ मनुष्यों को दीर्घकालिकी संज्ञा होती है और कितनेक मनुष्यों को तो दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा भी होती है। पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ही चार प्रकार के देवों में जाते है। विशेषार्थ मनुष्यों को विशिष्ट मनोविज्ञान होने से दीर्घकालिकी संज्ञा तो है ही, लेकिन कितनेक मनुष्यों को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा भी है। क्योंकि मनुष्यों में कितने सम्यग्दृष्टि होकर विशिष्ट श्रुतज्ञान के क्षयोपशमवाले भी होते हैं इसलिए द्वादशांगी दंडक प्रकरण सार्थ (100) गति - आगति द्वार चालु Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ज्ञान प्राप्त कर सकते है और देश विरति तथा सर्वविरति का चारित्र ग्रहण करके यथायोग्य अहित मार्ग का त्याग करके हितकारक मार्ग का स्वीकार करते 1. कितनेक ग.पंचेन्द्रिय तिर्यंच भी सम्यक्तव तथा देशविरति चारित्र (रूप हेयोपादेयत्व) प्राप्त करने से उनको भी दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होती है। लेकिन वह अल्प प्रमाण में होने से शास्त्र में नही कहा है। (१)सिर्फ सम्यग्दृष्टित्व की अपेक्षा से विचार किया जाय तो देवादि चारोगतिवाले जीवों में दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होती है लेकिन विशिष्ट श्रुतज्ञान तथा हेयोपादेय रूप चारित्र का अभाव होने से उनको इस संज्ञा की मुख्यता नहीं मानी है।(२) // 24 दंडक में 3 संज्ञा॥ 13 देव में-१ / | दीर्घकालि - ३विकलेन्द्रिय को-१(हेतुवा.) 1 ग.तिर्यंच को 5 स्थावर को-० 1 नरक को _ " 1 ग.मनुष्य को-२(दीर्घ.दृष्टि) गति-आगति द्वार देव में आगति पर्याप्त गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा पर्याप्त गर्भज मनुष्य ही चार प्रकार के देवो में (10 भवनपति, 1 व्यंतर, 1 वैमानिक, 1 ज्योतिषी स्वरूप 13 दंडक में) उत्पन्न होते है। यह सामान्य से कहा है विशेष स्वरूप से 563 भेद की गतिआगति में सोचेंगे। फूटनोट :(1)1. दंडक प्रकरण की अवचूरी में तथा वृत्ति में भी तिर्यंच पंचे, को दृष्टिवाद. संज्ञा कहीं है लेकिन अल्पत्व की वजह से गिना नहीं है। (२)इस अपेक्षा से ही शास्त्रों में सभी मिथ्यात्विओं को असंज्ञि कहा है। | दंडक प्रकरण सार्थ (101) गति - आगति द्वार चालु Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव की गति गाथा संखाउ-पज्जपणिंदि-तिरियनरेसु, तहेवपज्जत्ते। भूदगपत्तेयवणे, एएसुच्चियसुरागमणं||३४|| संस्कृत अनुवाद संख्येयायुष्कपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्नारेषुतथैव पयप्तिषु। भूदकप्रत्येकवनेषु.एतेष्वेवसुरागमनम्॥३४॥ अन्वय सहित पदच्छेद संख आउपज्ज पणिदितिरियनरेसुतह एव पज्जते भूदगपत्तेयवणेएएसुच्चियसुरआगमणं॥३४॥ शब्दार्थ संखाउ-संख्यात आयुष्यवाले | दग-अप्काय (में) पज-पर्याप्त पत्तेय-प्रत्येक पणिंदि-पंचेन्द्रिय वणे-वनस्पतिकाय में तहेव-उसी तरह एएसु-इन (5) दंडक पदमें पज्जत्ते-पर्याप्त च्चिय-निश्चय, ही। भू-पृथ्वीकाय (में) गाथार्थ ___ संख्यात् वर्ष के आयुवाले पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में तथा बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय इनमें ही देवों की आगति होती है। नरक की गति-आगति गाथा पज्जत्तसंखगब्भय-तिरियनरा निरयसत्तगेजति,। दंडक प्रकरण सार्थ (102) गति - आगति द्वार चालु Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयउव्वट्टाएएसुउववज्जंति, नसेसेसु॥३५|| संस्कृत अनुवाद पर्याप्त संख्येयायुर्गर्भजतिर्यनारानरकसप्तकेयान्ति। नरकोदवृत्ताएतेषूपपद्यन्ते, नशेषेषु।।३५|| अन्वय सहित पदच्छेद पज्जतसंख गब्भय तिरिय नरा निरयसत्तगेजंति निरय उव्वट्टा एएसुउववज्जतिनसेसेसु॥३५|| शब्दार्थ पजत्त-पर्याप्त निरय-नरक से संख-संख्यात वर्ष का आयुष्य उव्वट्टा-निकले हुए, उद्धर्तित हुए सत्तगे-सातो नरक में एएसु-इन (दो) दंडक में जंति-जाते है उववजंति-उत्पन्न होते हैं न सेसेसु-शेष दंडक में नहीं गाथार्थ पर्याप्त संख्यात वर्षायु वाले गर्भज तिर्यंच और मनुष्य सातों नरक में उत्पन्न होते हैं या जाते हैं और नरक में से निकले हुए (नरक के जीव) इन दो दंडक में ही उत्पन्न होते हैं। दूसरी जगह नहीं होते हैं। पृथ्वी, अप् और वनस्पति में आगति गाथा पुढवी-आउ-वणस्सइ-मज्झेनारयविवज्जियाजीवा। सवेउववज्जति निय-निय-कम्माणुमाणेणं॥३६|| दंडक प्रकरण सार्थ (103) गति - आगति द्वार चालु Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद पृथिव्यब्वनस्पतिमध्ये नारकविवर्जिताजीवाः। सर्वे उत्पद्यन्ते निजनिजकर्मानुमानेन॥३६|| अन्वय सहित पदच्छेद पुढवीआउवणस्सइमज्झेनारय विवज्जियासवेजीवा निय नियकम्म अणुमाणेणंउववज्जति॥३|| शब्दार्थ मज्झे-में, मध्ये उववजंति-उत्पन्न होते, पैदा होते है विवजिया-विवर्जित, रहित | नियनिय-अपना-अपना .. बिना, सिवाय कम्म-कर्म जीवा-जीवों अणुमाणेणं-अनुसार सव्वे-सभी २३(दंडक)जीव गाथार्थ पृथ्वीकाय, अप्काय, और वनस्पतिकाय में नरक के सिवाय सभी जीव अपने अपने कर्मानुसार उत्पन्न होते हैं। पृथ्वी, अप्-और वनस्पति की गति-तेऊ-वायु की आगति। गाथा पुढवाइदसपएसुपुढवी-आउ-वणस्सईजन्ति। पुढवाइ-दसपएहियतेउवाउसुउववाओ॥३७॥ संस्कृत अनुवाद पृथिव्यादिदशपदेषु, पृथव्यब्वनस्पतयोयान्ति पृथिव्यादिदशपदेभ्यश्च, तेजोवाय्वोरुपपातः॥३७।। दंडक प्रकरण सार्थ (104) गति - आगति द्वार चालु Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वय सहित पदच्छेद पुढवी आउवणस्सईपुढवीआइदसपएसुजन्ति यतेउ-वाउसुपुढवीआईदसपएहिउववाओ॥३७॥ शब्दार्थ पएसु-पदों में पुढवाई-पृथ्वीकायादि दस-दश पएहिं-पद में से (दंडकों में से निकले हुए जीव) उववाओ-उपपात, उत्पन्न गाथार्थ पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय पृथ्वीकायादि दस पदों में जाते है। अग्निकाय और वायुकाय में पृथ्वीकायादि दस पदों में से निकले हुए जीवों की उत्पत्ति होती हैं। - तेउ, वायु की गति-विकलेन्द्रियों की गति-आगति गाथा तेउवाऊ-गमणं पुढवीपमुहंमि होइपयनवगे। पुढवाइठाणदसगा विगलाई(इ)तियंतहिंजंति॥३८॥ संस्कृत अनुवाद तेजोवायुगमनं, पृथ्वीप्रमुखेभवति पदनवके। पृथ्व्यादिस्थानदशकाद, विकलत्रिके (विकलादि) त्रिकं तत्रयान्ति // 38 // अन्वय सहित पदच्छेद तेऊवाऊगमणं, पुढवीपमुहंमिपयनवगे होइ पुढवीआईठाणदसगा विगलाईतियंतहिंजंति॥३८॥ दंडक प्रकरण सार्थ (105) गति - आगति द्वार चालु Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पमुहंमि-आदि में नवगे-नव में ठाण-स्थान, दंडक दसगा-दस में से, दस तियं-त्रिक, तीन तहिं-वहां, पृथ्वी आदि 10 पद में जंति-जाते हैं। गाथार्थ ___अग्निकाय और वायुकाय की गति (जाना) (मनुष्य के सिवाय) पृथ्वीकायादि नव पदों में होती है। पृथ्वीकायादि दस पदों में से विकलेन्द्रिय त्रिक में जाते है और विकलेन्द्रिय त्रिक वहां पृथ्वी आदि दस में जाते हैं। ... गर्भज तिर्यंचों और मनुष्यों की गति-आगति गाथा गमणागमणंगब्भय-तिरियाणंसयलजीवठाणेसु। सव्वत्थजंतिमणुआ, तेऊवाउहिंनोजंति॥३९॥ संस्कृत अनुवाद गमनागमनं गर्भज-तिरश्चांसकलजीवस्थानेषु सर्वत्र यान्ति मनुजास्तेजोवायुभ्यांनोयान्ति॥३९॥ अन्वय सहित पदच्छेद गब्भय तिरियाणंगमणआगमणंसयलजीवठाणेसु मणुआसव्वत्यजंति, तेउवाउहिंनोजंति॥३९॥ शब्दार्थ गमण-जाना, गति, उत्पत्ति आगमणं-आना, आगति दंडक प्रकरण सार्थ सव्वत्थ-सर्वत्र, सभी दंडक _ पदों में सब जगह (106) गति - आगति द्वार चालु Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयल-सकल सर्व, सभी जंति-जाते है, उत्पन्न होते है। जीवठाणेसु-जीवस्थानो में, तेउ-तेजस्काय, जीवभेदो में, दंडकों में। नो-नही वाउहिं-वायुकाय में से जंति-जाते है, उत्पन्न होते है गाथार्थ गर्भज तिर्यंचों का गमनागमन सभी जीव स्थानों में होता है। मनुष्य सभी में जाते है, अग्निकाय और वायुकाय, मनुष्य में आते नहीं है। विशेषार्थ 24 दंडको की गति-आगति कोष्टकों में बंताई है। विस्तारसे गति-आगति द्वार गति-आगति द्वार के अंकों की समझ 5 पर्याप्त गर्भज (जलचर, स्थलचर, खेचर, उर: परिसर्प, और भुजपरिसर्प) तिर्यंच 15 पर्याप्त गर्भज कर्मभूमि के मनुष्य 16 15 कर्म. के मनुष्य, 1 पर्याप्त गर्भज जलचर 17 15 कर्म. के मनुष्य, 1 पर्याप्त गं.जलचर, 1 पर्या.ग. उरपरिसर्प 18 15 कर्म. के मनुष्य, 1 पर्या.ग.जल. 1 पर्या ग.उर., 1 पर्या.ग. स्थलचर 19 15 कर्म. के मनुष्य, 4 जल स्थल खे.उर. ये 4 ग. पर्याप्त 20 15 कर्म. के मनुष्य, 5 पर्या.ग. (जलचरादि) तिर्यंच पंचेन्द्रिय 23 15 कर्म. के मनुष्य, 5 पर्यां.ग. तिर्यंच, 3 पृथ्वी.,अप., प्र. वन. ये 3 - बादर पर्याप्त 25 15 कर्म. के मनुष्य, 5 पर्यां.ग. तिर्यंच, 5 पर्या.सम्मू.तिर्यंच, पंचेन्द्रिय 40 15 कर्म. के मनुष्य, 5 पर्या.ग. तिर्यंच, 20 पर्याप्त अकर्मभूमि (5 हिमवंत 5 हिरण्यवंत रहित) के गर्भज मनुष्य। दंडक प्रकरण सार्थ (107) विस्तार से गति- आगति द्वार Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 तिर्यंच के सर्व भेद 50 15 कर्म. मनुष्य 30 अकर्म. के युगलिक मनुष्य, 5 ग.पर्या.तिर्यंच .. 102 10 भवनपति, 15 परमाधामी, 16 व्यंतर, 10 तिर्यग् जुंभकदेव ये 51 देव पर्याप्त और 51 अपर्याप्त मिलकर 102 / ये पातालवासी 51 देव के भेद जानना। 111 101 ग.पर्या. मनुष्य, 10 पर्या, तियेच पंचेन्द्रिय, (5 ग.५ समू.) . 126 102 पातालवासी देव, 20 ज्योतिषी भेद, 2 सौधर्म दो पर्या. अपर्याप्त, 2 सौधर्म किल्बिषिक पर्या. अपर्याप्त 128, 126 उपरोक्त तथा 2 इशान पर्या. अपर्या. देव 171, 30 कर्म. मनुष्य (15 पर्या.१५ अपर्या) 101 समू.मनुष्य 40 तिर्यंच, (4 अग्निंकाय और 4 वायुकाय के भेद बिना) 179 30 कर्म. मनुष्य, 101 समू. मनुष्य और 48 तिर्यंच। / 243 30 कर्म. मनुष्य, 101 समू. मनुष्य और 48 तिर्यच 51 पर्याप्त पातालवासी देव, १०पर्या. ज्योतिषी,२ पर्यां सौधर्म, इशान देव, 1 पर्याप्त सौधर्म किल्बिषिक। 267 30 कर्म. मनुष्य, 101 समू. मनुष्य, 48 तिर्यंच, 81 सहस्रार तक पर्याप्त देव (9-10-11-12 वे कल्प और 14 कल्पातीत ये 18 रहित), 7 पर्या. नरक) 276 30 कर्म. मनुष्य, 101 समू. मनुष्य, 99 पर्याप्तदेव, 6 तमः प्रभा तक (6 पृथ्वी के) पर्याप्त नरक, और 40 तिर्यंच (4 अग्नि-४ वायु रहित) 395 30 कर्म. मनुष्य, 101 समू. मनुष्य, 48 तिर्यंच, 112 अंतर्वीप मनुष्य, 102 पातालवासीदेव, 2 पहेली पृथ्वी के नरक। 517 303 मनुष्य, 4 नरक (पहली 2 पृथ्वी का), 48 तिर्यंच, 162 आठवे कल्प तक (पर्या. अपर्या.) देव। 519 (तीसरी पृथ्वीका) 2 नरक सहित 517 (फूटनोट पीछे है - साथ में है।) 521 (तीसरी-चौथी पृथ्वी के) 4 नरक सहित 517 / | दंडक प्रकरण सार्थ (108) विस्तार से गति - आगति द्वार Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 523 (3-4-5 पृथ्वी के) 6 नरक सहित 517 527 303 मनुष्य, 14 नरक, 48 तिर्यंच. 162 आठवे कल्प तक देव। 563 सभी जीव भेद। 563 जीवभेदों की गति-आगति नरक के 14 भेद में आगति 1 पर्याप्त रत्नप्रभा 1 पर्याप्त शर्करा 1 पर्याप्त वालुका 1 पर्याप्त पंकप्रभा 1 पर्याप्त धूमप्रभा 1 पर्याप्त तमः प्रभा 16 से 1 पर्याप्त तमस्तमः (1)7 अपर्याप्त नरक पर्याप्तवत् 25 से 20 से १९से 18 से 17 से 16 से फूटनोट : (१)नरक और देव अपर्याप्त अवस्था में मृत्यु प्राप्त नही करते इसलिए गति के स्थान में शून्य (0) रखा है तथा नरक और देव के भेद में जो अपर्याप्त भेद कहे है वह करण अपर्याप्त समझना लब्धि अपर्याप्त नहीं, शेष सभी भेदों में लब्धि अपर्याप्त जानना। | दंडक प्रकरण सार्थ (109) जीव भेदों की गति - आगति Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 से 20 में देवों के 198 भेदोंमें आगति गति 51 भवन.१०, परमा. 15, व्यंतर 16, तिर्यग्भक 10, ये पर्याप्त 111 से 23 में 10 पर्याप्त ज्योतिषि 1 सौधर्म 50 से 23 में 1 पर्याप्त सौधर्म किल्बि. 50 से 23 में 1 पर्याप्त इशान 40 से 23 में 6 सनत से सहस्रार 20 से २०में 9 पर्याप्त लोकान्तिक 2 पर्याप्त किल्बि. 20 से 20 में 18 पर्याप्त आनत से सर्वार्थ तक . . 15 से 15 में 99 अपर्याप्त देव | पर्याप्त वत 0 में तिर्यंच के 48 भेद में आगति | गति 3 बा.पर्या.पृथ्वी.अप्.प्र.वन. 243 से 179 में 2 बा.पर्या. अग्नि, वायु 179 से 48 में (1)11 पृथ्व्यादि के शेष (11) भेद में | 179 से 179 में (2)6 अग्नि-वायु के शेष 48 से 48 में 6 विकलेन्द्रिय 179 से 10 सम्म तिर्थंच पंचेन्द्रिय 179 से |395 में 1 पर्या. गर्भज जलचर / 267 से |527 में 1 पर्या. गर्भज स्थलचर . 267 से |521 में 1 पर्या. गर्भज खेचर 267 से 519 में 1 पर्या. गर्भज उर: सर्प 1 पर्या. गर्भज भुजसर्प 267 से |517 में 5 अपर्या. गर्भज तिर्यंच पंचे. 179 से 179 में (१)पृथ्वी आदि के 3 सूक्ष्म पर्याप्त, अपर्या. गिनने से भेद, 1 बादर अपर्या. पृथ्वी, 1 बादर अपर्या. अप् 1 बादर अपर्या. साधारण वनस्पति, 1 बादर पर्या. साधारण वनस्पति, 1 बादर अपर्या. प्रत्येक वन. 6+1+1+1+1+1=11 (२)सूक्ष्म अग्निकाय और सू. वायुकाय के पर्या. और अपर्या. के 4 भेद तथा 1 बा. अपर्या. अग्नि, 1 बा. अपर्या. वायु. 4+1+1=6 | दंडक प्रकरण सार्थ (110) जीव भेदों की गति - आगति کک ک ک m Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 से | मनुष्य के 303 भेद में आगति गति | 15 पर्याप्त कर्मभूमि के 15 अपर्या. कर्मभूमि के | 179 में 5 पर्याप्त हिमवंत के | 126 में 5 पर्याप्त हिरण्य. के 20 से 126 में 5 पर्याप्त हरिवर्ष के | 128 में 5 पर्याप्त रम्यक् के 20 से | 128 में 5 पर्याप्त उत्तरकुरु के 20 से 128 में 5 पर्याप्त देवकुरु के | 128 में 56 पर्याप्त अन्तीप के 25 से 102 में 86 अपर्या. सभी युगलिक (30+56) | ०(अथवा इस क्षेत्र मुताबिक)२० 101 सम्मू. मनुष्य युगलिक चतुष्पद 171 से 179 में उस उस क्षेत्र के | युगलिक खेचर (अन्तर्वीपवत्) | युग. मनुज वत् 25 से 102 में ... यहां युगलिक चतुष्पद को आयु. 30 अकर्मभूमि और 56 अंतर्वीप के समान है और युगलिक खेचर का आयु 56 अंतर्वीप के समान ही है इसलिए उस उस क्षेत्र में युगलिक मनुष्यों के समान युगलिक चतुष्पद और खेचर की आगतिगति कहना / जलचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प तो युगलिक होते नहीं है। 24 वेदद्वार गाथा - वेयतिय तिरिनरेसु.इत्थीपुरिसोयचउविहसुरेसु। थिरविगलनारएसुनपुंसवेओहवइएगो॥४oll फूटनोट : (१-२)अपर्याप्त युगलिक मनुष्य मृत्यु पाते नहीं है इसलिए गति के स्थान में शून्य है। और युगलि मनुष्य को लब्धि अपर्याप्तपणा होता नहीं इसलिए आगति भी नही है, यदि करण अपर्याप्तत्व माने तो आगति में उस उस क्षेत्र के पर्या. युगलिक मनुष्य के समान जानना। दंडक प्रकरण सार्थ (111) वेद द्वार Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद वेदत्रिकंतिर्यनारयोः, स्त्रीपुरुषश्च चतुर्विधसुरेषु। स्थिरविकल नारकेषु, नपुंसकवेदोभवत्येकः॥४०॥ . अन्वय सहित पदच्छेद तिरिनरेसुतियवेय, चउविहसुरेसुइत्थीयपुरिसो थिरविगल नारएसु, एगोनपुंसवेओहवइ||४|| शब्दार्थ इत्थी-स्त्री वेद / चउविह-चार प्रकार के (13 दंडक के) पुरिसो-पुरुष वेद / नपुंसवेओ-नपुंसक वेद य-और हवइ-है। गाथार्थ तिर्यंच-और मनुष्य में तीन वेद है, चार प्रकार के देवों में स्त्री और पुरष वेद है। स्थावर, विकलेन्द्रिय और नरक में सिर्फ एक नपुंसक वेद है। विशेषार्थ युगलिक तिर्यंच और युगलिक मनुष्य में नपुंसक वेद नहीं है एकेन्द्रिय को भी १२वीं गाथा में मैथुनादि संज्ञा कहीं है इसलिए अस्पष्ट नपुंसकवेद है और सनतकुमार देवलोक से सर्वार्थसिद्ध विमान तक देवो में एक पुरुष वेद ही है। // 24 दंडक में 3 वेद॥ 1 ग. तिर्यंच को (3 वेद) 13 देव मे 2 (स्त्री, पुरुष) 1 ग. मनुष्य का (3 वेद) ९शेष दंडक मे 1 (नपु.) ॥सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा सम्मू. मनुष्य में 24 द्वारो॥ 1) शरीर 3- सबको औदारिक-तेजस-कार्मण ये तीन शरीर / 2) अवगाहना- दोनों को जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग है | दंडक प्रकरण मार्थ (112) वेद द्वार - - Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / सम्मूर्छिम विर्यंच की उत्कृष्ट अवगाहना में जलचर की 1000 योजन, चतुष्पद की गाऊ पृथक्त्व (दो से नव गाउ) खेचर के धनुष्य पृथक्त्व (2 से 9 धनुष्य'५): उर:परिसर्प की योजन पृथकत्व, भुजपरिसर्प की धनुष्य पृथक्त्व है / सम्मूर्छिम मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल का असंख्यातवा भाग है। 3) संघयण दोनों को एक छेवट्ठा संघयण होता है। 4) संज्ञा- सभी को 4-10 संज्ञा होती है। संस्थान- सबको एक हुंडक संस्थान होता है। कषाय ४-सबको क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार कषाय होतें हैं। लेश्या ३-कृष्ण-नील-कापोत ये तीन लेश्या सबको होती है। 8) इन्द्रिय ५-सबको पांच इन्द्रिय होती है। समुद्घात ३-सबको वेदना-मरण-कषाय ये 3 समुद्घात् होतें हैं। 10) दृष्टि- मिथ्या दृष्टि और 1 सम्यग् दृष्टि ये 2 दृष्टि सम्मू. तिर्यंच पंचेन्द्रिय को है, वहां अपर्याप्त अवस्था में विकलेन्द्रिय की तरह सास्वादन सम्यक्त्व का सद्भाव होने से सम्यग्दृष्टि कितनेक सम्मू. तिर्यंच पंचेन्द्रिय को होता है, और पर्याप्त अवस्था में सब मिथ्यादृष्टिवाले ही होते है तथा सम्मू. मनुष्य में को तो दोनों अवस्था में 1 मिथ्या दृष्टि ही होती है। 11) दर्शन 2- सबको 1 चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ऐसे दो दर्शन होते है। 12) ज्ञान 2- श्री सिद्धांत के अभिप्रायानुसार सास्वादन सम्यक्त्व में ज्ञान होने से सम्मू. तिर्यंच पंचेन्द्रिय को अपर्याप्त अवस्था में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान माने है, और कर्मग्रंथ के अभिप्राय से सास्वादन समकित में अज्ञान माना हुआ होने से समू. पंचे. तिर्यंच को ज्ञान माना नहीं है इसलिए अज्ञान है तथा समू. मनुष्य को तो ज्ञान का अभाव याने अज्ञान है। फूटनोट : (१)महोरग जाति के समू. उरपरिसर्प तो शतपृथकत्व (200 से 900) योजन प्रमाण के भी होते है, लेकिन किसी भी अपेक्षा की वजह से वह अवगाहना शास्त्र में नहीं मानी है। लेकिन बृहत् संग्रहणी की वृत्ति में कोई आचार्यकृत् गाथा में ये समू. महोरगो की अपेक्षा से ‘मच्छुरगा जोयण सहस्सं' ऐसा चौथा पद कहा है। दंडक प्रकरण सार्थ (113) वेद द्वार Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13) अज्ञान २-सबको मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान ये दो अज्ञान है। 14) योग 4- 1: असत्यामृषा वचनयोग, 2) औदारिक काययोग, 3) औदारिक मिश्र४) तैजस कार्मण ये चार योग पर्याप्त अवस्था में, अपर्याप्त अवस्था में वचनयोग के बिना 3 योग है। समूर्छिम मनुष्य अपर्याप्त ही होते है इसलिए उनको असत्यामृषा वचन योग के बिना 3 काययोग है। 15) उपयोग ६-समू. पंचेन्द्रिय तिर्यंच को ज्ञानद्वार के अनुसार सिद्धांत के मत से १)मतिज्ञान २)श्रुतज्ञान ३)मतिअज्ञान ४)श्रुतअज्ञान ५)चक्षुदर्शन ६)अचक्षुदर्शन ये छ उपयोग होते है और कर्मग्रंथ के मत से दो ज्ञान के बिना 4 उपयोग है वह उपयोग अपर्याप्त अवस्था में होता है / पर्याप्त अवस्था में तो 4 उपयोग ही है। समूः मनुष्य को दोनों मत से चार उपयोग ही होते है। उपपात -एक समय में जघन्य से 1-2-3 और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्पन्न होते है। 17) च्यवन-एक समय में जघन्य से 1-2-3 और उत्कृष्ट से असंख्यात च्यवन-मरण होते है। विरह-समू. तिर्यंच पंचे. के 5 भेद में से प्रत्येक भेद में जघन्य विरह 1 समय, तथा उत्कृष्ट विरह अंतमुहूर्त का है और समू. मनुष्यों का जघन्य विरह 1 समय तथा उत्कृष्ट विरह 24 मुहूर्त का है। . 18) स्थिति :- समू. तिर्यंच पंचे. को पांचों भेद का जघन्य आयु अंतर्मुहूर्त का है उत्कृष्ट आयु जलचर का 1 पूर्व करोड वर्ष, चतुष्पद का 84000 वर्ष, उरपरिसर्प का 57000 वर्ष का, भुजपरिसर्प का 42000 वर्ष का और खेचर का 72000 वर्ष का है। समू. मनुष्यों को दोनो तरह से अंतर्मुहूर्त का आयु है। पर्याप्ति 5- सबको पांच पर्याप्ति है समू. तिर्यंच पंचे. पर्याप्त और अपर्याप्त दोनो तरह के होते है इसलिए उनको पांचो पर्याप्ति हो सकती है और समू. मनुष्य अपर्याप्त अवस्था में ही मृत्यु पाते है इसलिए उनको पांचो पर्याप्ति दंडक प्रकरण सार्थ (114) वेद द्वार 19) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण नहीं होती है। 20) किमाहर ६-सबको 6 दिशा का आहार होता है। क्योंकि ये समू. पंचेन्द्रिय वसनाडी में ही रहते है। 21) संज्ञा 1- सबको 1 हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है शेष दो नहीं है। इन समूर्च्छिय जीवों को किंचित् द्रव्यमन होता है लेकिन अल्पत्व की वजह से मनोरहित ही जानना। 22) गति 22- समू. तिर्यंच पंचे. चारो गति में उत्कृष्ट से पल्योपम का असंख्यातवा भाग के आयु युक्त उत्पन्न होते हैं। नरकगति में पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के चौथा प्रतर तक उत्पन्न होते है 2) देवगति में भी भवनपति और व्यंतरों में उत्पन्न होते है लेकिन वहां पर पल्योपम के असंख्यातवा भाग का आयुवाले देव हो सकते है। अधिक आयुवाला नहीं 3) मनुष्यगति में उत्कृष्ट से अकर्मभूमि के युगलिक होते है और कर्मभूमि में संख्यातवर्षायु वाले मनुष्य होते है 4) तिर्यंच गति में अकर्मभूमि के युगलिक तिर्यंच होते है तथा एकेन्द्रियादि आठ दंडक में असंज्ञि तिर्यंच में और समू. मनुष्य में उत्पन्न होते है, इसलिए वैमानिक : और ज्योतिषी के सिवाय 22 दंडक में गति है। तथा समू. मनुष्य तो देवगति, नरकगति में उत्पन्न होते नहीं और तिर्यंच तथा मनुष्य में उत्पन्न होते है, तो युगलिक मनुष्य और युगलिक तिर्यंच सिवाय के सभी भेद में उत्पन्न होते है जिससे गति एकेन्द्रियादि 10 पद में-दंडक में है। 23) आगति ८-पांच प्रकार के समू. तिर्यंच पंचे. में एकेन्द्रियादि दश दंडक उत्पन्न होते हैं। समु-मनुष्य में तेउवायु के सिवाय 8 दंडक (3 एके. 3 विकल. 1 ग.ति, 1 ग.मनु., ये 8 दंडक) आकर उत्पन्न होते है। .. 24) वेद १-सबको एक नपुंसक वेद ही है। लिंग से सोचा जाय तो समू. तिर्यंच पं. तीन लिंगवाले है और समू. मनुष्य नपुंसक लिंगवाले है। 25) अल्पबहुत्व -समू. मनुष्य गर्भज मनुष्य से असंख्यात गुणा है और बादर | दंडक प्रकरण सार्थ (115) वेद द्वार Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निकाय से असंख्यातवा भाग के जितने है / समू. तिर्यंच पंचे. का अल्पबहुत्व गर्भज तिर्यंच पंचे. के समान ही जानना क्योंकि समू. तिर्यंच पंचे. का अल्पबहुत्व शास्त्रों में अलग देखा नहीं है। अल्प बहुत्व गाथा पज्जमणु, बायरग्गी,वेमाणिय,भवण, निरय,वंतरिया. जोइस, चउ, पणतिरिया,बेइंदि,तेइंदि.भू,आऊ|४|| वाऊ,वणस्सइ,च्चिय,अहिया अहियाकमेणिमेहुंति। सब्वेविइमेभावाजिणा! मएणंतसोपत्ता॥४२॥ संस्कृत अनुवाद पर्याप्तमनुजबादराग्निवैमानिक भवनपति नैरयिकत्यन्तरकाः ज्योतिश्चतुःपञ्चेन्द्रियतिर्यचो,द्रीन्द्रियत्रीन्द्रियभ्वापः॥४|| वायुर्वनस्पतिश्चैवाधिकाऽधिका क्रमेणेमेभवन्ति सर्वेऽपीमेभावाजिना! मयाऽनन्तशःप्राप्ताः॥४२|| अन्वय सहित पदच्छेद पज्जमणुबायरअग्गी, वेमाणिय भवण निरयवंतरिया जोइसचउपण तिरिया, बेइंदितेइंदिभूआऊ||४|| वाउवणस्सइइमेकमेणच्चियअहिया अहियाहृति। (हे) जिणाइमेसवेअविभावामएअणंतसोपत्ता॥४२|| शब्दार्थ बायर-बादर वाऊ-वायुकाय आऊ-अप्काय अग्गी-अग्नि पत्ता-प्राप्त किये च्चिय-निश्चय | दंडक प्रकरण सार्थ (116) . अल्प बहुत्व | Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भू-पृथ्वीकाय . अहिय अहिय-अधिक अधिक इमे-ये(२४ दंडक पद) सव्वेवि-सभी मए-मैने वणस्सई-वनस्पतिकाय कमेण-अनुक्रम से हुंति-होते है भावा-भावो अणंतसो-अनंतबार गाथार्थ सबसे अल्प पर्याप्त मनुष्य उनसे (पर्या.) बादर अग्निकाय, 0 वैमानिक देव 0 भवनपति० नरक, 0 व्यंतरदेव, 0 ज्योतिषि देव, 0 चउरिन्द्रिय, पंचे. तिर्यंच, द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, 0 पृथ्वीकाय, 0 अप्काय, * वायुकाय, उससे अनंतगुणा वनस्पतिकाय क्रमानुसार ये सभी अधिक अधिक है। हे जिनेश्वर ! ये सभी भाव मैने अनंतबार प्राप्त कियें है (41-42) विशेषार्थ इस तरह 24 दंडक का अल्पबहुत्व कहकर अब ग्रंथकर्ता इस दंडक प्रकरण की रचना का प्रयोजन के रूप से दुःख प्रकट करते हे कि 'हे जिनेश्वर भगवंतो ! मैने इन सभी दंडक में अनंतबार भ्रमण किया है।' . यहां पर समझने की बात यह है कि आत्मधर्म सन्मुख नहीं हुआ हो ऐसे जीव इन 24 दंडकों में अनंतबार भ्रमण किया है करते है, और अनंतकाल भ्रमण करेंगे। प्रायः करके कोई भी जीव भेद ऐसा नहीं है कि जिसमें जीव ने अनंतबार भ्रमण न किया हो कहा है कि फूटनोट : ) इस निशानी के स्थान पर अधिक याने पूर्व संख्या से असंख्यात गुणा जीव जानना। 2) इस निशानी के स्थान पर अधिक याने पूर्व संख्या से विशेषाधिक जीव जानना, विशेषाधिक का अर्थ संपूर्ण दुगुणा नहीं। / दंडक प्रकरण सार्थ अल्प बहुत्व 11 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नसा जाई,नसाजोणी,नतं ठाणं, नतंकलं। नजाया, नमुआ, जत्थ, जीवा, वार अणंतसो|||| अर्थ :- एकेन्द्रिय आदि ऐसी कोई जाति नहीं है चोराशी लाख योनि में से ऐसी कोई योनि नहीं, चौद राज लोक में ऐसा कोई स्थान-क्षेत्र नहीं है तथा ऐसा कोई कुलकोडी में कुल नहीं है। जहां पर सब जीव ने अनंतबार जन्म न पाया हो, मृत्यु न पाया हो, अर्थात् सभी जाति, योनि, स्थान और कुल में इस जीव ने अनंतबार जन्म और मृत्यु को प्राप्त किया हुआ है। ... संसार से मोक्ष के लिए प्रार्थना गाथा संपइतुम्हभत्तस्सदंडगपयभमणभग्गहिययस्स। दंडतियविरय (इ)सुलहलहु मम दिंतु मुक्खपयं॥४३|| संस्कृत अनुवाद संप्रति तवभक्तस्य,दण्डकपदभ्रमणभग्नहृदयस्य दण्डत्रिकविरत (ति) सुलभ, लघुममददतुमोक्षपदम्॥४३॥ अन्वय सहित पदच्छेद संपइदंडगपयभमणभग्ग हिययस्सतुम्हभत्तस्सममलहु तियदंडविरय (इ)सुलहंमुक्खपयंदितु॥४३॥ फूटनोट : इसमें ग्रंथकार ने 'विरय' पद द्वारा 'विरक्त हुए जीवों का' ऐसा अर्थ स्वयं ने स्वोपज्ञ अवचूरि में लिखा है और वृत्तिकार ने 'विरई' पद द्वारा विरति से ऐसा अर्थ किया है ये दोनो अर्थ अनुकुल ही है। दंडक प्रकरण सार्थ (118) संसार से मोक्ष के लिए प्रार्थना Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ तुम्ह-आपका दंडतिय विरह-तीन दंड से भत्तस्स-भक्त को विरक्त हुए, निवृत्त हुए जीवों संपइ-अब, वर्तमान काल में को या तीन दंड की विरति दंडगपय-दंडक पदों में निवृत्ति से। भमण-भ्रमण करने से सुलह-सुलभ, सहज रूप से भग्ग हिययस्स-भग्न हृदयवाला लहु-शीघ्र, जल्दी से ___या खेदित हुआ हृदयवाला मम-मुझे दिंतु-दो, प्रदान करो मुक्खपयं-मोक्षपद गाथार्थ अबदंडकपदों में भ्रमण करने से खेदित (हताश) हृदयवाले आपके भक्त को तीन दंड की विरति-निवृत्ति से सहज रूप में प्राप्त होनेवाला शीघ्र मोक्षपद प्रदान करे। विशेषार्थ ___गाथा में कहा है कि 'हे श्री 24 जिनेश्वरों' अब इन 24 दंडको में भ्रमण करने से अति खेदित हुआ हृदयवाला इस आपके भक्त को तीन दंड की याने मनदंड, वचनदंड और कायदंड की निवृत्ति से (त्याग से सुलभ ऐसा मोक्षपद मुझे शीघ्र प्राप्त हो। - ग्रंथकर्ता की मोक्षपद की इस प्रार्थना में (1) दंडक भ्रमण से उत्पन्न होता हुआ खेद (2) तीन दंड का त्याग (3) (तीन दंड के त्याग से) मोक्षपद की ही प्राप्ति, ये तीन मुख्य विषय है इसके बारे में संक्षेप से जानकारी इस प्रकार है : 1) दंडक भ्रमण से खेद :- तिर्यंचगति के 9 दंडक में तथा नरक का 1 दंडक में जो दुःख है वह सबको मालूम है। उसी तरह मनुष्य के 1 दंडक में सुख दंडक प्रकरण सार्थ (119) संसार से मोक्ष के लिए प्रार्थना Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और दुःख मिश्र है, और देवगति के 13 दंडक में जो पौद्गलिक सुख है वह भी लोभवृत्ति की अधिकता की वजह से, वास्तविक रूप में दुःख है क्योंकि मनुष्य की तरह देवों में क्लेश, मारामारी, देवांगनाओं की चोरी, आपस में इर्ष्या इत्यादि होने से देवो की जिंदगी भी अध्यात्मिक जीवों के लिए तो सोने की बेडी की तरह दुःख देनेवाली लगती है इस तरह किसी भी दंडक में वास्तविक सुख नहीं है। सिर्फ मनुष्य के ही 1 दंडक में जो मन-वचन-काया का संयम किया जाय तो आत्मिक सुख में आगे-बढकर अंत में मोक्षपद को प्राप्त कर सकते है इसलिए यहां 24 दंडक के परिभ्रमण का खेद ग्रंथकार ने प्रकट किया है। 2) तीन दंड का त्याग :- संसार की सभी उपाधि और संसारभ्रमण का मूल कारण मन-वचन-काया का अशुभ योग है इसलिए इन तीन प्रकार के अशुभ योग का त्याग से दंडक भ्रमण सदाकाल के लिए नष्ट होता है और आत्मधर्म भी प्राप्त होता है इसलिए यह बात निश्चित है कि मन वचन काया की वृत्तियों का निरोध किया जाय तब ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। 3) मोक्षपद की इच्छा : आगे कहे अनुसार जीव को सभी स्थानों में वास्तविक दुःख ही है और अनंत सुख का धाम (स्थान) तो सिर्फ मोक्ष ही है। इसलिए आत्मिक सुख के अभिलाषी जीव को मोक्षपद चाहने योग्य है। प्रशस्ति-गुरु परंपरा-संबंध गाथा सिरि-जिणहंसमुणीसर-रजेसिरि-धवलचंदसीसेण। गजसारेण लिहिया, ऐसा विन्नति अप्पहिया॥४४|| संस्कृत अनुवाद श्रीजिनहंसमुनीश्वरराज्ये श्रीधवलचन्द्रशिष्येण। गजसारेण लिखिता, एषा विज्ञप्तिरात्महिता॥४४|| दंडक प्रकरण सार्थ (१२०)प्रशस्ति-गुल परंपरा-संबंध Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वय सहित पदच्छेद सिरिजिणहंसमुणीसर(मुणिइसर) रजेसिरिधवलचंदसीसेण गजसारेणअप्पहियाएसा विन्नतिलिहिया||४४|| शब्दार्थ सिरि-श्री रजे-राज्यमें-शासन में जिणहंस-जिनहंस नाम के सिरि-श्री मुणीसर-(मुनि का ईश्वर) आचार्य का | धवलचंद-धवलचंद मुनि का सीसेण-शिष्य विन्नति-विज्ञप्ति, विनंति गजसारेण-गजसार मुनि द्वारा अप्पहिया-आत्महितकारी लिहिया-लिखी है . या अपना हित करनेवाली एसा-यह गाथार्थ . आत्महितकारी ग्रह विज्ञप्ति श्री जिनहंससूरीश्वरजी के राज्य में श्री धवलचंदमुनि के शिष्य श्री गजसार मुनि ने लिखी है। विषेशार्थ ___ इस प्रकरण के कर्ता श्री गजसार मुनि श्री जिन हंससूरी नामक आचार्य के राज्य में-शासन में हुए थे। श्री जिनहंससूरी खतरगच्छ के आचार्य थे, तथा श्री गजसार मुनि श्री धवलचंद्रमुनि के शिष्य थे। संविग्नपंडित श्री अभयोदयणि के पास उनका लालन पालन हुआ था (इसलिए उनके पास दीर्घकाल तक रहे थे) उन्हीं श्री गजसार मुनि ने ही इस दंडक प्रकरण के स्वरूप में श्री 24 जिनेन्द्रों की स्तुति विनंति की है और वह विनंति अवश्य आत्म कल्याण करनेवाली है, क्योंकि ग्रंथरचना में पर-अन्य जीवों का कल्याण भजनीय-अनियत है और स्व-कल्याण तो अवश्य है, इसलिए कहा है कि : | दंडक प्रकरण सार्थ (१२१)प्रशस्ति-गुरु परंपरा-संबंध Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न भवति हिधर्मः श्रोतुः, सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात बुवतोडनुग्रहबुद्धया, वक्तुस्त्वेकान्ततोभवति॥१॥ अर्थ :- कल्याणकारी वचन सुननेवाले, सभी श्रोताओं धर्म को प्राप्त करेंगे ही, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। लेकिन उपकार बुद्धि से बोलनेवाले वक्ता को तो धर्म होता ही है ऐसा एकान्त नियम है, पुनः ऐसा भी कहा है कि : अस्तुवामाऽस्तुवा बोधः परेषांकर्मयोगतः। तथापिवक्तुमहतीनिजरागदिता जिनैः||२|| .. . अर्थ :- कर्म के योग से अन्य जीवों को बोध (ज्ञानप्राप्ति धर्मप्राप्ति) हो या न हो, परन्तु बोध वचन कहनेवाले वक्ता को तो अवश्य महानिर्जरा होती है। ऐसा श्री जिनेश्वरों ने कहा हैं। उपरोक्त दंडक प्रकरण के अर्थ में मतिमंदता से, जानते-अजानते, सूक्ष्म अथवा स्थूल भूल-चूक रही हो तो, उसे आप सज्जनों सुधारकर, शुद्धिपूर्वक पढेंगे, ऐसी हमारी अभिलाषा है ऐसा हमारा सूचन है। दंडक प्रकरण समाप्त श्रीमद यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला द्वारा प्रकाशित दंडक प्रकरण का प्. आ. देव श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न पू. मु. श्री अमीतयशविजयजी म. सा. द्वारा हिन्दी अनुवादित एवं प्राप्यापक सुरेन्द्र सी. शाह द्वारा संपादित दंडक प्रकरण सार्थ विवेचन सह संपूर्ण हुआ। | दंडक प्रकरण सार्थ (122) प्रशस्ति-गुल परंपरा-संबंध Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंध आत्मा और उसके नित्यत्व के द्वारा पुनर्जन्म और मोक्ष स्वीकार करने के बाद-अनन्त आत्माओं के स्वकर्मानुसार भिन्न भिन्न स्वरूप से उत्पन्न होने योग्य क्षेत्रों का विचार सहज रूप से जिज्ञासुओं को होता है, यह स्वाभाविक है। यह विचार होते ही लोकालोक रूपी अखिल विश्व का ज्ञान करना होता है / अनंत अलोक में बिन्दु तुल्य लोक है। यह लोक भी असंख्य योजन प्रमाण विस्तारवाला है। इसके मुख्य तीन विभाग है (1) उर्ध्वलोक, (2) अधोलोक, और (3) ति लोक कहते है। इन तीन लोक में हम कहां पर है ?' यह प्रश्न जिज्ञासुओं को होना स्वाभाविक है। ____ अथवा अब हम जिस जगह पर बैठे है, सोये है, या खड़े है, (वास्तविक रूपसे वह क्षेत्र स्वयं को उस समय के लिए उतना ही उपयोगी है।) वह क्षेत्र भी इतना ही परिमित नहीं है, उसके आसपास भी कुछ है, वह क्या है ? ऐसा विचार करने पर “जगत् लोक है” तो लोक के आसपास क्या है ? “अलोक है”। इस तरह क्षेत्र विचार भी आत्मविकास के साधनों में एक आवश्यक अंग है जबकि उसके बारे में संपूर्ण जानने की शक्ति हमारे में नहीं हैं। क्षेत्र है यह निश्चित है, लेकिन उसकी विशालता मापने का काम हमारी शक्ति के मर्यादा से बाहर है / फिर भी क्षेत्रों की परिस्थिति जानने के लिये, उन क्षेत्रों को केवलज्ञान से प्रथम देखनेवाले सर्वज्ञ प्रभु के वचन के सिवाय दूसरा कोई साधन नहीं है। इसलिए सर्वज्ञ प्रभु का वचन रूप जो शास्त्र है उनका अभ्यास करना चाहिए। लेकिन वे शास्त्र अति-गंभीर और दुर्गम्य होने के कारण बाल जीवों को समझने में कठिनाई होती है इसलिए परोपकारी पूर्वाचार्यो ने अनेक प्रकरण ग्रन्थों की रचना की है। उसमें भी सभी क्षेत्रों का मध्यबिन्दु की तरह रहा हुआ और हम भी जिसमें रहते है, उस जंबूद्वीप का स्वरूप संक्षेप में समझाने के लिए श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने इस जंबूद्वीप संग्रहणी नामक प्रकरण की रचना की है। | लघु संगहणी सार्थ 123 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप यह द्वीप सभी द्वीपों और समुद्रों के बीच (मध्य) में आया है। जंबुद्वीप के आसपास लवण समुद्र है, उसके आसपास धातकी खंड़ है, उसके आसपास समुद्र, उसके आसपास द्वीप, इस प्रकार असंख्य द्वीप और समुद्र वलयाकार से एक दूसरे को घेरे हुए हैं / इस तरह सभी द्वीप समुद्र जो इस लोक में है उसे. ति लोक या मध्यलोक भी कहते हैं। ति लोक संपूर्णलोक के मध्यभाग में होने से जंबुद्वीप भी लोक के मध्यभाग में है। और समभूतला आदि मर्यादासूचक स्थान और लोक का मध्यभाग भी जंबुद्वीप में है। जंबुद्वीप थाली के जैसा सपाट और वर्तुलाकार का है। उसके आसपास समुद्र होने से उसे द्वीप कहते है। इस द्वीप के मध्य में जंबु के वृक्ष के आकार जैसा पृथ्वीकायमय, शाश्वत, स्थिर, अकृत्रिम महाजंबूवृक्ष है। उसके आसपास दुसरे 12050120 छोटे छोटे शाश्वत जंबुवृक्षों का बना हुआ जंबुवन है और इस द्वीप का अधिष्ठायक अनादृत देव इस महाजंबुवृक्ष पर रहता है। इसलिए इस द्वीप का नाम जंबूद्वीप है। इस जंबूद्वीप में अनेक स्थान और पदार्थ हैं / उनका विस्तार से वर्णन किया जाय तो बडा ग्रंथ हो जाता है। इसलिए उनको जानने के योग्य मुख्य-मुख्य शाश्वत स्थानों की हकीकत अति संक्षेप में समझाई गई है। यह द्वीप लाख योजन लंबा चौड़ा है, इसके मध्यमें मेरू-पर्वत है, इस द्वीप के भरत क्षेत्र के माप के खंड अथवा एक चोरस योजन माप के खंड, परिधि, क्षेत्रफल, मनुष्यों के रहने योग्य क्षेत्र, पर्वत, उनके शिखर, हूद (सरोवर) तीर्थ, विजय, श्रेणियों, नदीयां, नदीओं के मुख, मुख का विस्तार आदि मुख्य-मुख्य पदार्थ इस प्रकारण में समझाया गया है। | लघु संग्रहणी सार्थ (124) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल, विषय, प्रयोजन और संबंध। गाथा: नमिय जिणंसवनुजगपुज्ज,जगगुरुं महावीरं। जंबूदीव पयत्थे, वुच्छंसुत्तासपरहेऊ॥२॥ संस्कृत अनुवाद नत्वा जिनंसर्वज्ञ,जगत्पूज्यंजगद्गुरुं महावीरं जम्बूद्वीपपदार्थान, वक्ष्येसूत्रात्स्वपरहेतोः॥२॥ अन्वय सहित पदच्छेद सव्वल्लुजगपुज्जंजगगुरुं महावीरंजिणंनमिय स-पर-हेऊसुत्ताजंबूदीवपयत्थेवुच्छं॥२॥ शब्दार्थ :नमिय- नमस्कार करके जंबुद्वीप- जंबूद्वीप में रहे हुए जिणं- जिन को, जितनेवाले को | पयत्थे- पदार्थो को सव्वन्नु- सर्वज्ञ, केवलज्ञानी / वुच्छं- कहुंगा जगपुजं- तीन जगत के पूज्य सुत्ता- सूत्र में से उद्धार करके, सूत्रानुसार जगगुरुं- तीन जगत के गुरु . स-पर-अपने और दूसरों के हेतु- (कल्याण के लिए) अर्थे गाथार्थ : सर्वज्ञ, जगत्पूज्य, जगद्गुरु श्री महावीर जिनेश्वर को नमस्कार करके अपने और दूसरों के (ज्ञान) लिए, सूत्रों में से जंबूद्वीप के पदार्थ कहुंगा। | लघु संग्रहणी सार्थ (125) अनुबंध चतुष्ठय वर्णन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ : 1) आधी गाथा में भगवान महावीर स्वामी की स्तुतिरूप मंगलाचरण है, 2) जंबूद्वीप के शाश्वत पदार्थो का वर्णनरूप विषय है, 3) 'स्वपर के बोध के / लिए' यह प्रयोजन है, 4) सूत्रों में से उद्धार करके यह संबंध है। अपायापगमातिशय, ज्ञानातिशय, पूजातिशय, और वचनातिशयरूप चार अतिशय अनुक्रम से सूचित किया है। विश्व के पदार्थो को जानना, यह छद्मस्थ मनुष्यों के लिए अति दुष्कर है। सर्वज्ञ भगवंत के अलावा उन पदाथों को कोई भी. नहीं जान सकता। प्रभु महावीरस्वामीने अपने केवलज्ञान से, सर्वज्ञत्व की वजह से जाने हुए पदार्थो को जगत्गुरु के रूप में जगत के जीवों को केवल उपकार के लिए ही कहा है। क्योंकि जिनेश्वर प्रभु होने से स्वार्थ और रागद्वेष से रहित थे। उनके वचनों पर अविश्वास करने का कोई भी कारण नहीं है। जगतपूज्य प्रभु के . वचन में अंश मात्र भी शंका करने का अवकाश नहीं है इतने विस्तृतरूप से और निश्चित संख्या से कोई भी असर्वज्ञ मनुष्य ऐसा स्वरूप कहने में समर्थ नहीं हो : सकता। नजदीक का ज्ञान प्राप्ति, और परंपरा से मोक्ष-प्राप्ति यह प्रयोजन है। संबंध चार प्रकार के होते हैं / 1) वाच्य-वाचक, 2) गुरु पर्वक्रम, या ने गुरु परंपरा 3) साध्य-साधन, 4) उपायोपेय / सम्यग् चारित्र के लिए सम्यग् ज्ञान प्राप्त करने की इच्छावाले सम्यग् दर्शनी भव्य आत्माएँ, तथा अधिगम सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए पदार्थो का अधिगम (ज्ञान) करने की इच्छावाले मार्गानुसारी भव्य आत्माएँ भी अधिकारी गिने जाते हैं। जम्बूद्वीप का प्रमाण जंबूद्वीप की लंबाई तथा चौडाई 1,00,000 एक लाख योजन है। उसकी मोटाई भी 1,00,000 योजन हैं। क्योंकि जंबूद्वीप के मध्य में 99,000 योजन ऊंचा मेरू-पर्वत है और 1000 योजन जमीन के नीचे है। अथवा महाविदेह क्षेत्र में 1000 योजन नीचे अधोग्राम है। लघु संग्रहणी सार्थ (16) अनुबंध चतुष्ठय वर्णन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशाओं का स्पष्टीकरण जब हम मेरूपर्वत की ओर मुंह करके खडे रहते है तब दाहिने हाथ की तरफ विजयद्वार आता है इसलिए उस ओर की दिशा पूर्वदिशा है। और बायें हाथ की ओर वैजयन्त द्वार है इसलिए उस तरफ की दिशा पश्चिम है। हमारी पीछे अपराजित द्वार आता है। उस तरफ की दिशा दक्षिण है। और हमारे सामने, मेरूपर्वत के दूसरी तरफ ऐरावत क्षेत्र के पास जयन्तद्वार है, उस तरफ की दिशा उत्तर है। दिशाओं के व्यवहार के लिए शास्त्रों में अनेक प्रकार कहे हैं, परन्तु यहां पर ऊपर कहें अनुसार दिशा व्यवहार समझना / दूसरे क्षेत्रों में भी इस नियम के अनुसार दिशा व्यवहार कर सकतें है। यह व्यवहार लोक प्रसिद्ध सूर्य-दिशा से मिलता है। . मुख्य दश पदार्थ गाथा: खंडाजोयण वासा, पव्वय, कूडायतित्थसेढीओ; . विजयद्दहसलिलाओपिंडेसिंहोइसंघयणी||२|| संस्कृत अनुवाद : खण्डानियोजनवर्षाणि, पर्वतकूटाश्च तीर्थ श्रेणयः विजयहृदसलिला:पिण्डएतेषांभवतिसंग्रहणी||२|| * फूटनोट :मेरुपर्वत की ओर जो दिशा वह उत्तर दिशा और उसके सामने की जो दिशा-वह दक्षिण / इस व्याख्या से दिशाएं फिरती रहेगी क्योंकि मेरुपर्वत जंबूद्वीप के मध्य में आया है लेकिन यह व्यवहार यहां नहीं लेना। लघु संग्रहणी सार्थ (127) मुख्य दरा पदार्थ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वय सहित पदच्छेद खंडाजोयण वासा पव्वय कूडाय तित्थसेढीओ: विजयद्दहसलिलाओएसिं पिंडसंघयणीहोइ||२|| शब्दार्थ खंड- खंड, विभाग विजय- विजय, छ खंड का देश . योजन-योजन दह- द्रह, सरोवर वासा-वर्षो-क्षेत्रो. सलिलाओ- नदीयाँ . .. पव्वय-पर्वतो पिंड- पिंड, संग्रह, समूह कूडा- कूट, शिखरो एसिं- इन दस पदार्थो का तित्थ- तीर्थ संघयणी- संग्रहणी सेढीओ- श्रेणिओं गाथार्थ: खंडो, योजनो, वासक्षेत्रो, पर्वतो, शिखरो (कूटो), तीर्थो , श्रेणियो, विजयों, ह्रदों (सरोवर) और नदीयां; इनके संग्रह को संग्रहणी कहते है। विशेषार्थ : 1) खंड- भरत अथवा ऐरावत क्षेत्र की * चौडाई जितने (लंबाई जितने नहीं) कितने खंड होते है ? अथवा चोरस योजन प्रमाण कितने खंड होते है ? 2) योजन- विष्कंभ की परिधि पर से क्षेत्रफल के योजन की संख्या कहना। 3) वर्ष- मनुष्यों के रहने योग्य क्षेत्र की संख्या। * फूटनोट :1) उत्तर से दक्षिण की जो लंबाई है वह चौडाई समझना और पूर्व से पश्चिम की जो लंबाई है वह लंबाई ही समझना। | लघु संग्रहणी सार्थ (128) मुख्य दश पदाथ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4) पर्वत- पर्वतो की संख्या। 5) कूट- पर्वतों के ऊपर रहे हुए शिखर तथा सिर्फ भूमि पर रहे हुए शिखर / 6) तीर्थ- समुद्रमें उतरने के लिए जो बडे ओवारे उतारा या घाट की संख्या। 7) श्रेणी- वैताढ्य पर्वत के ऊपर विद्याधरों के शहेर (नगर) तथा आभियोगिक देवों के भवनों की श्रेणी। 8) विजय- चक्रवर्ती राजाओं को विजय प्राप्त करने योग्य क्षेत्र। 9) द्रहो- कुंडो, हूदो, -छोटे सरोवर 10) नदीयां- बडी नदीयां, उनसे मिलनेवाली दूसरी छोटी नदीयां / * उपरोक्त दश द्वारों का वर्णन इस प्रकरण में किया जायेगा। १.खंड गाथा:णउअसयंखंडाणं.भरहपमाणेण भाइएलक्खे। अहवाणउअसयगुणं.भरहपमाणंहवइलक्खं|३|| संस्कृत अनुवाद : नवति(त्यधिक)शतंखण्डनांभरतपमाणेनभाजितेलक्षे, अथवानवति(त्यधिक)शतगुणं,भरतपमाणंभवतिलक्षम||३|| अन्वय सहित पदच्छेद भरहपमाणेण लक्खे भाइए,खंडाणंणउअसयं। अहवाणउयसय गुणंभरहपमाणंलक्खं हवइ||३|| * फूटनोट :2) ये 14,56,000 नदीओं में भरत ऐरावत क्षेत्र की 56000 परिवाररूप नदीओं अशाश्वत हैं। और शेष क्षेत्र की सभी नदीयां शाश्वत हैं / भरत-ऐरावत की दो-दो महानदी तो शाश्वत हैं। दूसरे सभी पदार्थ शाश्वत हैं। लघु संग्रहणी सार्थ (129) स्वंह का प्रमाण Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ :णउअ- नब्बे (90) से अधिक | भाइए- भाजित करने पर सयं- शत या सो (100) लक्खे- एक लाख (योजन) को भरह- भरतक्षेत्र के गुणं- गुणने पर पमाणेण-प्रमाण से गाथार्थ :___भरतक्षेत्र के प्रमाण से एक लाख को भाजित करने पर एक सो नब्बे (190) खंड होते हैं। या एक सो नब्बे को भरत के प्रमाण से गुणा करने पर एक लाख होता है। विशेषार्थ : 5266/19 योजन की चौडाईवाले भरत और ऐरावत क्षेत्र ये दो छोटे क्षेत्र है। भरत के माप को एक खंड गिने तो ऐसे 190 खंडो का जंबुद्वीप होता है। ' 526 योजन 6 कला को 190 से गुणा किया जाय तो 526 6/19X 190= 1,00,000 योजन का जम्बूद्वीप होगा। अथवा 1,00,000 योजन को 526 योजन 6 कला से भाजित किया जाय तो 1,00,000 526-6/ 19 = 190 / अथवा 1,00,000 2 190 = 526-6/19 / __कला का अर्थ है अंश-भाग, एक योजन की 19 कला होती है। एक योजन की 19 कला या भाग करके उसमें से 6 भाग लेना। यह अर्थ 6 कला का समझना। अथवा योजन की कला बनाकर भी यह भागाकार कर सकते है। 526 योजन X 19 = 9994 + 6 = 10,000 कला. 1,00,000 योजन X 19 = 19,00,000 + 10,000 = 190 | लघु संग्रहणी सार्थ (130) खंड का प्रमाण Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह। गणित के चिह्नों की जानकारी + सरवाला, - बाद बाकी, x गुणाकार, भागाकार वर्ग का अर्थ है :जो संख्या हो उसको उससे ही गुणा करना। जैसे दो को दो से, चार को चार से गुणना वह वर्गमूल (करणी) = गणित का परिणाम या जवाब है। गाथा : अहवेगखंडभरहे,दो हिमवंते अहेमवइचउरो। अट्ठ महाहिमवंते.सोलसखंडाइंहरिवासे॥४॥ बत्तीसंपुणनिसढे, मिलिया तेसद्विबीयपासेऽवि। चउसट्ठीउविदेहे, तिरासिपिंडे उणउअसयं॥५|| संस्कृत अनुवाद : अथवैकखण्डं भरते, द्वौ हिमवन्ते चहेमवतिचत्वारि। अष्टौ महाहिमवन्ते,षोडशखण्डानिहरिवर्षे ||4|| द्वात्रिशंत पुनर्निषधे, मिलितास्त्रिषष्टि द्वितीयपाद्येऽपि चतुःषष्टिस्तुविदेहेत्रिराशिपिण्डेतुनवति(त्यधिक)शतम||५|| अन्वय सहित पदच्छेद :अहवा भरहे एगखंडं, हिमवंते दो अहेमवइचउरो महाहिमवन्ते अट्ठ, हरिवासेसोलसखंडाइं|४|| पुण निसढेबत्तीसं, मिलिया तेसद्विबीयपासे अवि। उविदेहेचउसट्ठी, तिरासि पिंडे उणउयसयं|५|| शब्दार्थ :- (गाथा 4 :-) अहवा- अथवा, या खंड-खंड हिमवंते- हिमवंत पर्वत में अ-और हेमवइ- हिमवंत क्षेत्र में चउरो- चार खंड | लघु संग्रहणी सार्थ (131) गणित के चिह्नों की जानकारी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाहिमवंते- महाहिमवंत पर्वत में | हरिवासे- हरिवर्ष क्षेत्र में खंडाइं- खंड शब्दार्थ (गाथा ५):निसढे- निषधपर्वतमें से विदेहे- महाविदेह क्षेत्र में मिलिया- सब मिलकर ति- तीन तेसट्ठी- त्रेसठ खंड राशि-राशि, अंकसमूह .. बीय पासे अवि- दूसरी ओर भी | | पिंडे- इकट्टे करने पर चउसट्ठी- चोसठ खंड उ- और (छंद पूर्ति के लिए) उ- और. णउअसयं- एकसो नब्बे (190) गाथार्थ : खंडो- भरतक्षेत्र का एक, हिमवंत पर्वत के दो, हिमवंत क्षेत्र के चार, महाहिमवंत पर्वत के आठ, हरिवर्ष क्षेत्र के सोलह, और निषध पर्वत के बत्तीस, ये सब मिलकर त्रेसठ, दूसरी ओर भी इस तरह सठ, तथा विदेह के चोसठ - (63 + 63 + 64 = 190) एक सो नब्बे होते है। विशेषार्थ :खंड संख्या क्षेत्र व पर्वत का नाम | खंड संख्या क्षेत्रवपर्वत का नाम 1 ('.266/19) भरत क्षेत्र 1 (5265/19) ऐरावत क्षेत्र 2 (1052 12/19) हिमवंत पर्वत / 2 (1052 12/19) शिखरी पर्वत 4 (21055/19) हिमवंत क्षेत्र | 4 (21055/59) हिरण्यवंत क्षेत्र 8 (4210 10/19) महाहिमवंत पर्वत | 8 (4210 10/19) रुक्मि पर्वत 16 (84211/19) हरिवर्ष क्षेत्र / 16 (84211/19) रम्यक् क्षेत्र 32 (16842 2/19) निषध पर्वत / / 32 (16834 2/19) नीलवंत पर्वत 63 64. 336844/19 - महाविदेह क्षेत्र | लघु संग्रहणी सार्थ. (132) गणित के चिह्नों की जानकारी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 + 63 + 64. = 190 खंडो - 1,00,000 लाख योजन इस तरह खंडों की संख्या, क्षेत्रों और पर्वतों के अनुसार समझना। योजन प्रमाणखंड गाथा : जोयणपरिमाणाई,समचरंसाइंइत्थखंडाइं। लक्खस्सयपरिहीए, तप्पायगुणेयहुंतेव||६|| संस्कृत अनुवाद :योजनप्रमाणानिसमचतुरसाण्यत्रखण्डानि लक्षस्यचपरिधेस्तत्पादगुणितेच भवन्न्येव॥६॥ अन्वय-सहित पदच्छेद इत्थजोयण परिमाणाइंसमचउरंसाइंखंडाइं। यलक्खस्सपरिहीए. तप्पायगुणे हुंति एव||६|| शब्दार्थ :परिमाणाइं- प्रमाणवाले समचउरसाई- समचोरस इत्थ- यहां, जंबुद्वीप में लक्खस्स-लाख योजन के परिहीए- परिधि को . तप्पाय- उसके चौथे भाग से गुणे- गुणाकार करने पर गाथार्थ : यहाँ लाख योजन की परिधि को उसके पा भागे गुणने पर योजन प्रमाण के समचोरस खंड होते है। નિષ્ણુ મંast માર્થ (13) ગંતૂલીવ છે ભાંકો Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिधि और गणित पद (क्षेत्रफल) निकालने की पद्धति गाथा :विक्खंभवग्गदहगुण-करणी वट्टस्सपरिरओ होइ। विक्खंभपायगुणिओ, परिरओतस्स गणियपयं॥७॥ संस्कृत अनुवाद :विष्कम्भवर्गदशगुणकरणीवृतस्यपरिरयोभवति विष्कम्भपादगुणितःपरिरयस्तस्यगणितपदम्॥७॥ अन्वय सहित पदच्छेद :विक्खंभवग्गदह गुण करणी वट्टस्सपरिरओहोइ / परिरओविक्खम्भपाय गुणिओतस्सगणियपयं॥७॥ शब्दार्थ :विक्खम्भ- विष्कम्भ (व्यास) के पाय- चौथे भाग से (पाव) वग्ग-वर्ग को गुणिओ- गुणने पर दहगुण- दस से गुणाकार करके तस्स- उन वृत्त पदार्थ का करणी- वर्गमूल गणियपयं- गणितपद, क्षेत्रफल वट्टस्स- वृत्त (गोल) वस्तु की परिरओ- परिधि (विस्तार) गाथार्थ: विष्कंभ (व्यास) के वर्ग का दस गुणा करना। यह गोल वस्तु की परिधि है। एवं विष्कंभ के चतुर्थ भाग से गुणित परिधि गोल वस्तु का गणित पद है। लघु संग्रहणी सार्थ (134) जंबूद्वीप के खंडो Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ :- . 1. विष्कम्भ, व्यास, वृत्त विष्कम्भ- याने वृत्त (गोल) पदार्थ की चौडाई। 2. परिधि, परिरय - याने वृत्त (गोल) पदार्थ का विस्तार। 3. गणितपद, क्षेत्रफल - याने किसी भी माप का समचोरस खंडो से पूरे क्षेत्र का माप निकालना। 4. इस गाथा में बताये हुए गणित की पद्धति अनुसार परिधि की संख्या का जवाब आठवी गाथा में तथा गणित पद की संख्या का जवाब 9 वीं-१० वी गाथा में बताया है। विष्कम्भ x विष्कम्भ-गुणाकार X गुण्य 100000 X 100000 = 10000000000 X 10 = गुणाकार योजन - गाऊ धनुष्य 1,00,000,000,000 = 396227 -3 - 128 अंगुल विष्कम्भ का चौथा भाग = जंबुद्वीप का क्षेत्रफल 13 / / 30373/1054094 25000 = 7905694150 १-गाऊ, १५१५-ध०, 60 अंगुल * * फूटनोट :वर्गमूल की रीत तथा स्पष्ट गणित परिभाषा-भाज्य- जिस संख्या का भाग करना हो, वह संख्या भाजक- जिससे जो संख्या से भाग किया जाय, भागाकार- भाग की हुई संख्या शेष-भाग करने के बाद बाकी रही हुई संख्या / वर्ग- किसी भी संख्या को, उसी संख्या से गुणा करना वर्गमूल- कोइ भी दो समान संख्या के गुणाकार वाली संख्या की मूल संख्या को खोज निकालना, वह वर्गमूल, वर्गमूल की संख्या को उसी वर्गमूल वाली संख्या से गुणा करने से, फिर से वही वर्गवाली संख्या आनी चाहिए। उदा :- 16 मूल संख्या है, उसको 16 से गुणा करने पर 256 का वर्ग होता है। उसका वर्गमूल निकालें तो वो ही मूल संख्या आती है, इसी वर्गमूल को फिर से वर्गमूल 16 से गुणा किया जाय तो मूलवर्ग 256 आती है। अंक का गणित हमेशा दाहिनी ओर से बायी और होता है। याने एकम संख्या का दाहिनी ओर | लघु संगहणी सार्थ (135) जंबूद्वीप का क्षेत्रफल Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा :परिहि तिलक्ख-सोलस-सहस्सदोयसयसत्तवीसहिया कोसतिगठावीसं.धणुसयतेरंगुलदहियं // 8 // अंत होता है, और दशक संख्या बायी ओर बढती जाती है। संख्या का पठन बांयी ओर से होता है. और गणित (भागाकार के अलावा) दाहिनी ओर से होता है जैसे - 16256 उसका पठन सोलह हजार दो सौ छप्पन होता है और गणित 26256 x 4 = पांच चोक बीसौं वहां से गणित होता है इसलिए - वर्गमूल निकालने की रीत: -अंतिम एकम के अंक का एकी अंक के ऊपर पहले ऐसा निशान करें और बाकी संख्या के ऊपर ऐसा-निशान करो एकी अंक को विषम संख्या कही जाती है और बेकी अंक को सम संख्या कही जाती है। ऐसा निशान करने का कारण यही है कि वर्गमूल का भागाकार करते समय पहले अंक पर विषम निशान हो तो एक ही अंक से वर्गमूल का शोधन शुरु करना, और जो पहले अंक पर सम निशान हो तो दो अंक से वर्गमूल का शोधन करना, और बादमें एकी निशानवाली संख्या क्रमशः उतारनी, क्योंकि एक साथ बडी संख्या का भागाकार तथा वर्गमूल कर नहीं सकते / इसलिए क्रमसर संख्या उतारकर उसका वर्गमूल करते करते पूर्ण संख्या का वर्गमूल कर सकते है। . .. सामान्य भागाकार में एक एक संख्या उतारी जाती है और वर्गमूल में, वर्गमूल खुद अपनी ही संख्या से गुणा हुआ होने से उसका मूल निकालने के लिए दो अंक उतारे जाते है / अब सभी विषम अंक पर / ऐसा निशान करो और सम अंक पर - ऐसा निशान करो। 1) बायें हाथ ओर की विषम चिह्नवाली संख्या तक की संख्या में से ही कोई भी संख्या का वर्ग बाद हो सकता है। उसी वर्ग के मूल को भाजक रखना और भागाकर में भी वही अंक रखना। विषम संख्या ...... बाद भाजक का वर्ग, भाजक का वर्ग का मूल, वही पहला भाजक और वही भागाकार की संख्या, क्योंकि वर्गमूल निकालते समय भाजक की कोई भी संख्या दी हुई नही होती है इसलिए इस तरह से वह पहलेसे ही खोजने की होती है। 2) बाद में विषम निशानवाली संख्या बाकी रहे हुए शेष के आगे रखनी उसमें से बाद (भाजक + भागाकार x 10 + नया भागाकार = निश्चित हुआ नया भाजक X नया भागाकार की संख्या) इस तरह अंत तक सभी संख्यांक पूर्ण हो वहां तक करना। यहां पर समनिशान पहला है इसलिए पहले दो अंक पकडकर विषम संख्या में से वर्गमूल खोजना अथवा - संख्या में से बाद - (कुल भागाकार X 2 X 10 + नया भागाकार = नयाभागाकार X नया भागाकार की संख्या / | लघु संग्रहणी सार्थ (136) जंबूद्वीप का क्षेत्रफल Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद :परिधिस्त्रिलक्षा: षोडशसहस्त्राःद्वेचशतेसप्तविंशत्यधिके क्रोशत्रयमष्टाविंशंधनुःशतंत्रयोदशाइगुलमर्दाधिकम्॥८॥ ------ 1000 0 0 0 0 0 0 0 0 यो. 3 003900 0. Halalxe. 3756 001440 12644 0175600 126484 04911600 + 6 4427127 0484471 शेष Yद 484471 4 1937884 40522 गाउ 63245416324542 632454 ++ 632 X10 6320 + 2 . 40522 2000 44944 40522000 316227 ____+ 2 315227 316227 6324 X10 . 63240 - 31622943 - 376776 = 0 हाथ 44944.4 316227 1 X - = 179776 316227 = 0 हाथ 63240 નg iાદofી સાર્થ (13) ગંતૂકીu 6ii વહિa Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वय सहित पदच्छेद परिही तिलक्खसोलससहस्सयदोसयसत्तवीस अहिया तिगकोससयअट्ठावीसंधणुअद्धसहियंतेर अंगुल || 63242 +2 63244 X10 179776 16227.9 105409 1438208 632440 =632447 632454 (ध्रुवभाजक) 67891 . 2 135782 30373 ,30373 आधा अंगुल 13 // - 10540941 - 105409 1105409 भाषा 105409 इस तरह मूल गाथा में है। परन्तु नीचे के प्रमाण अनुसार शेष का गणित करने पर अंत में 54 शेष आता है। 30373 x 8 = यव, शेष x 8 = युका, शेष x 8 = लिख, शेष x 8 = वालाग्र, 105409 शेष x 8 = रथयेणु, शेष x 8 = त्रसरेणु, शेष x 8 = व्यावहारिक बादर परमाणु, शेष x 174 = सूक्ष्मखंड बादर परमाणु, शेष x 361 = सूक्ष्मतरखंड बादर परमाणु, शेष 54 यो. गाऊ धनुष अंगुल यव युका लिख 316227 3 128 13 / / 1 1 1 वालाग्र रथरेणु त्रसरेणु बादर परमाणु 6 सूक्ष्मखंड बादर परमाणु सूक्ष्मतरखंड बादर परमाणु शेष 30(174 भाग के) 3(174 x 361) 54 इस प्रकार परिधि का सूक्ष्म गणित हैं। | लघु संग्रहणी सार्थ (138) जंबूद्वीप की परिधि Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ . परिही- परिधि ति लक्ख- तीन लाख सहस्स- हजार सय- सो तिग-त्रण धणुसय- सो धनुष गाथार्थ परिधि- तीन लाख, सोलह हजार, दोसोसत्तावीस योजन से अधिकतीन गाऊ, एक सो अट्ठावीस धनुष और तेरह अंगुल से अधिक। गणित पद-क्षेत्रफल गाथा : सत्तेवयकोडिसया,णउआछप्पन्न सयसहस्साइं। चउणउयंचसहस्सा,सयं दिवइढंचसाहियं|९|| गाउअमेगंपनरस-धणूसया तहधणूणिपन्नरस। सद्धिंच अंगुलाइंजंबूदीवरसगणियपयं॥१०॥ संस्कृत अनुवाद सनैवचकोटिशतानि नवतिः षट्पञ्चाशच्छतसहस्राणि चतुर्नवतिचसहस्राणिशतं द्वितीयाचसाधिकम्॥९॥ गव्यूतमेकंपञ्चदशधनुःशतानि तथाधनूंषिपञ्चदश षष्टिश्चाइगुलानिजम्बूद्वीपस्य गणितपदम्॥१०॥ अन्वय सहित पदच्छेद सत्तसयाणुउआकोडिएवयछप्पन्न सयसहस्साइं च चउणउयंसहस्साच दिवइढंसयंसअहियं॥९॥ एगंगाउयंपनरससयाधणूतह पन्नरसधणूणि लघु संग्रहणी सार्थ (139) गणित पद-क्षेत्रफल Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चसदिअंगुलाइंजंबूदीवस्सगणियपयं||१०|| शब्दार्थ सत्त- सात कोडि- क्रोड सया- सो णउआ- नब्बे सयं-सो दिवड्डं-डेढ साहियं-अधिकता सहित गाउयमेगं- एक गाऊ (कोस) सया-सो छप्पन्न- छप्पन्न सयसहस्साई- (सो हजार)-लाख चउणउयं- चउरानवे सहस्सा- हजार . . धणूणि- धनुष पनरस- पंद्रह सट्ठि-साठ अंगुलाई- अंगुल गाथार्थ : सात सो नब्बे क्रोड, छप्पन्न लाख, चउरानवे हजार, देढ सो योजन से अधिक= एक गाउ, पंद्रह सो पंद्रह धनुष्य और साठ अंगुल७९०५६९४१५० योजन, 1 गाउ, 1515 धनुष्य, 60 अंगुल जंबूद्वीप का क्षेत्रफल है। विशेषार्थ : जंबूद्वीप के क्षेत्र में 1 योजन लंबी, 1 योजन चौड़ी इट के टुकडे रखे जाय तो 7905694150 इट रख सकते है, फिर भी थोडी जगह खाली रहती है उसमें 1. 1 गाऊ चौडा और 1 योजन लंबा टुकडा एक। 2. 1515 धनुष चौडा और 1 योजन लंबा टुकडा एक। 3.60 अंगुल चौड़ा और 1 योजन लंबा टुकडा एक। इस प्रकार तीन टुकडे रखने | लघु संग्रहणी सार्थ (140) गणित पद-क्षेत्रफल Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से जंबुद्वीप का क्षेत्र लगभग पूर्ण हो जाता है। समचोरस योजन की वजह से ऊपर बताये गये प्रमाण के लंबचोरस तीन टुकडो से क्षेत्र पूर्ण हो सकेगा। जंबुद्वीप के गोल आकार की वजह से खांचा भरने के लिए इस तरह का गणित करने में आता है। ... विष्कम्भ के आधे भाग को त्रिज्या कहते है। उसके वर्ग का वर्ग करके 10 से गुणाकार, वर्गमूल निकालकर अभी (वर्तमान काल में) क्षेत्रफल निकाला जाता है। इस प्रकार 150 धनुष का अंतर आने पर भी लगभग समान गणित है। 3. वासक्षेत्र और 4. पर्वत गाथा: भरहाइसत्त वासा, वियड्ढचउचउरतिसवट्टियरे। सोलसवक्खारगिरि,दो चित्त विचित्तदोजमगा||११|| दोसय कणयगिरीणं, चउगयदंतायतहसुमेरु। छवासहरा पिंडे, एगुणसत्तरिसयादुन्नी॥१२॥ फूटनोट :1. योजन 316227 x 25000 = 7905675000 योजन 2. गाऊ 34 25000 = 75000 गाऊ 3. धनुष 128 x 25000 = 3200000 धनुष 4. अंगलु 13|| x 25000 = 337500 अंगुल यव आदि को भी 25000 से गुणन करने पर निश्चित क्षेत्रफल आता है लिकिन ऐसा गणित करना विद्यार्थी के लिए बहुत कठिन होना संभव है, फिर भी जिसकी शक्ति हो वे स्वयं कर सकते है। 1. अंगुल - 337500 96 = 3595 60/96 3515 ध. 2. धनुष - 3200000 + 3515 = 3203515 धनुषः 2000 = 1601 1515/2000 ध. 3. गाऊ - 75000 + 1601 = 76601 गाऊ 4 = 19150 1/4 योजन 4. योजन - 7905675000 + 19150 = 7905694150 योजन 1 - गाऊ 1515 - धनुष 60 - अंगुल जंबुद्वीप का क्षेत्रफल - નg સંવાદળી સાર્થ (24) વાસક્ષેત્રે શોટ વર્વત Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-अनुवाद भरतादीनिसप्तवर्षाणि,वैताढयाश्चत्वारश्चतुस्त्रिंशदवृत्तेतराः षोडशवक्षस्कारगिरयो, द्रौ चित्र विचित्रौद्रौयमकौ॥१२. द्वेशतेकाञ्चनगिरीणां, चत्वारोगजंदन्ताश्च तथासुमेरुश्च षड्वर्षधराः, पिंडे, एकोनसप्तति (त्यधिक)शतेद्वे॥१२॥ अन्वय सहित पदच्छेद भरहआइसत्तवासाचउवट्टवियड्ढचउरतिसइयरे / सोलसवक्खार गिरि, चित्त विचित्तदोदोजमगा|११|| दोसय कणयगिरीणंयचउगयदंता तहसुमेरु / छवासहरा, पिंडे-दुनिसयाएगऊणसत्तरी॥१२॥ शब्दार्थ दो- दो . . वियड्ढ- वैताढ्य पर्वत चउ- चार चउरतिस- चौतीस वक्खार- वक्षस्कार दोसय- दो सौ कणयगिरीणं- कंचनगिरि गयदंता- गजदंतगिरि सुमेरू- मेरू पर्वत वासहरा- वर्षधर (महाक्षेत्र की मर्यादा बांधनेवाला) चित्त- चित्र पर्वत विचित्त- विचित्र पर्वत जमगा- यमकगिरि पिंडे- सब मिलकर एगुणसत्तरि- उनसत्तर सया- सो दुन्नी- दो गाथार्थ भरतक्षेत्रादि सात मनुष्यों के रहने योग्य क्षेत्र हैं। चार वृत्त (गोल) और चौंतीस दीर्घ वैताढ्य पर्वत है। सोलह वक्षस्कार पर्वत हैं। दो चित्र लघु संग्रहणी सार्थ (142) वासक्षेत्र और पर्वत Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्र पर्वत तथा दो यमक, (समक) पर्वत हैं। दो सो कंचनगिरि, चार गजदंत पर्वत, 1 मेरू पर्वत, छ वर्षधर पर्वत हैं। सब मिलाकर दो सो उनसत्तर (269) पर्वत होते हैं। विशेषार्थ वासक्षेत्र | वर्षधर पर्वत आकार स्पर्श प्रमाण 1. भरत रोटी की टूटी तीन बाजु 526),. योजन हुई किनारजैसा लवणसमुद्र क्षुल्लहिमवंत पलंग जैसा पूर्व- पश्चिम 105212/.." लंबा चोरस लवणसमुद्र 2. हिमवंत पलंग जैसा पूर्व- पश्चिम | 2105 /... लंबा चोरस लवणसमुद्र महाहिमवंत पलंग जैसा पूर्व- पश्चिम 42102,." लंबा चोरस लवणसमुद्र 3. हरिवर्ष पलंग जैसा पूर्व- पश्चिम |84211/.." लंबा चोरस लवणसमुद्र निषध पलंग जैसा |पूर्व- पश्चिम |16842 2/.." लंबा चोरस लवणसमुद्र 4. महाविदेह . पलंग जैसा पूर्व- पश्चिम |33684/.." लंबा चोरस लवणसमुद्र ... नीलवंत पलंग जैसा पूर्व- पश्चिम 16842 2/.." लंबा चोरस लवणसमुद्र 5. रम्यक् पलंग जैसा पूर्व- पश्चिम |84211/.." लंबा चोरस लवणसमुद्र पलंग जैसा पूर्व- पश्चिम |42100/.." लंबा चोरस लवणसमुद्र | लघु संग्रहणी सार्थ (143) वासक्षेत्र और पर्वत रुक्मि Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. हैरण्यवंत | शिखरी पलंग जैसा | पूर्व- पश्चिम 105 /..योजन लंब चोरस लवणसमुद्र पलंग जैसा | पूर्व- पश्चिम 3052 / .."." लंब चोरस | लवणसमुद्र रोटी की टूटी | तीन बाजु 526:/... किनारी जैसा | लवणसमुद्र | कुल 1,00,000 योजन 7. ऐरावत 1. ऊपर दर्शाये गये क्षेत्रो और पर्वतों का प्रमाण-माप उत्तर दक्षिण चौडाई का है, लंबाई में महाविदेह क्षेत्र 100000 योजन लंबा हैं, उसके दक्षिण की तरफ तीन क्षेत्र, तीन पर्वत है तथा उत्तर की तरफ भी दक्षिण की तरह तीन क्षेत्र और तीन पर्वत हैं उनकी लंबाई एक समान नहीं हैं। 2. कर्मभूमि याने शस्त्र व्यवहार रूप असि, लेखन व्यवहार रूप मषि और खेती व्यवहार रूप कृषि ये तीन मुख्य कर्म जहां चलते है और राज्य व्यवस्था समाज (वर्ण) व्यवस्था, स्वामी-सेवक, लग्न, रसोई बनाकर खाना आदि कार्य जहां होते हो उसे कर्मभूमि कहते है, वह भरत, ऐरावत और महाविदेह (देवकुरु, उत्तरकुरु सिवाय पूर्व और पश्चिम महाविदेह) क्षेत्र हैं। 3. अकर्मभूमि याने कर्मभूमि में दर्शाये गये जो व्यवहार है वे जहां न होते हो। तथा साथ में युगलिक रूप जन्मे हुए भाई बहन ही पति-पत्नि भाव से रहते हो उसे अकर्मभूमि या भोगभूमि कहते है। वहां के मनुष्य युगलिक कहे जाते हैं। उनके शरीर के सर्वांग सुंदर और सुलक्षणवंत होते हैं। और ये प्रजा बहुत सुखी होती हैं। वे लोग अपने जीवन की तथा भोग-उपभोग की सभी सामग्रीयां कल्पवृक्ष के द्वारा प्राप्त करते है, वे अकर्मभूमि-हिमवंत, हरिवर्ष रम्यक् और हिरण्यवंत हैं। (तथा महाविदेह में देवकुरु - उत्तरगुरु) क्षेत्र हैं। ऊपर बताये हुए क्षेत्र के नाम अनादिकाल से इस तरह शाश्वत रूपसे निहित हैं अथवा उस उस क्षेत्र के अधिष्ठायक देव के नाम के आधार पर ही ये नाम हैं। अर्थात् उस क्षेत्र के अधिष्ठायक देव का नाम भी इस तरह का है। लघु संग्रहणी सार्थ वासक्षेत्र और पर्वत Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 269 पर्वत 4 वृत्त वैताढय' शब्दापाती | विकटापाती | गंधापाती | माल्यवंत कहां हिमवंत के | हरिवर्ष के | रम्यक के | हिरण्यवंत के मध्य में / मध्य में | मध्य में | मध्य में मूल में विस्तार 1000 योजन 1000 योजन 1000 योजन 1000 योजन मध्य में विस्तार 1000 योजन 1000 योजन 1000 योजन 1000 योजन ऊपर में विस्तार |1000 योजन 1000 योजन 1000 योजन 1000 योजन ऊंचाई में विस्तार 1000 योजन 1000 योजन 1000 योजन 1000 योजन आकार गोल प्याले | गोल प्याले गोल प्याले | गोल प्याले | के जैसा | के जैसा . | के जैसा / के जैसा 34 दीर्घ वैताढय कहां / भरत के बीच | महाविदेह के बीच / ऐरावत के बीच ऊंचाई | 25 योज़म 25 योजन (हरेक की) 25 योजन आकार | पूर्व. प. लंबा | पूर्व- पश्चिम लंबा / पूर्व प. लंबा 16 वक्षस्कार चित्रकूट आदि सोलह वक्षस्कार पर्वत महाविदेह क्षेत्र में आये है महाविदेह के पूर्व और पश्चिम इन दोनों दिशाओं में दो-दो भाग में विभाजित सोलह सोलह विजयों हैं, उसमें विजय-वक्षस्कार-विजय-अंतर नदी-विजय-वक्षस्कारविजय-अंतरनदी, इस क्रमानुसार हरेक भाग में 4-4 वक्षस्कार पर्वत है। चारो भाग के मिलकर सोलह वक्षस्कार पर्वत है। फूटनोट :1) नदी द्वारा रोके हुए क्षेत्र के (सिवाय) क्षेत्र का विभाग करनेवाला ऐसा शब्दार्थ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति की वृत्ति में है। | लघु संगहणी सार्थ (145) वृत्त वैताढय Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ नाम | कहां पर है | आकार | ऊंचाई चौडाई १.चित्रकूट 1-2 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक 500 योजन २.ब्रह्मकूट |3-4 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक 500 योजन 3. निलिनिकूट |5-6 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक |500 योजन ४.अंकुशैल 7-8 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा 400/500 यो. तक | 500 योजन ५.त्रिकूट 9-10 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक 500 योजन ६.वैश्रमण |11-12 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक 500 योजन 7. अंजन |13-14 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा 400/500 यो. तक |500 योजन ८.मालंजन |15-16 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक |500 योजन ९.अंकावती |17-18 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक | 500 योजन 10. पद्मावती |19-20 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक | 500 योजन ११.आशिविष |21-22 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक 500 योजन 12. सुखौय |23-24 विजयकेबीचमें | उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक 500 योजन 13. चंद्रकूट 25-26 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो.तक |500 योजन १४.सुरकूट |27-28 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक | 500 योजन 15. लागकूर 29-30 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक 500 योजन १६.देखकूट |31-32 विजयकेबीचमें उत्तर-दक्षिणलंबा |400/500 यो. तक |500 योजन जिस तरह विजयो आमने-सामने है उसी तरह ये पर्वत भी आमने-सामने आते हैं। अर्थात् एक पर्वत निषध के पास से निकलकर उत्तर की ओर जाता है। सामनेवाला पहाड नीलवंत के पास से शुरु होकर दक्षिण की ओर जाता है। दोनों की शुरुआत में ऊंचाई 400 यो. है और आगे बढ़ते-बढते अंत में 500 यो. की ऊंचाई होती हैं। इसलिए अश्व के डोंक (गर्दन) की तरह आकार होता है तब ऐसा लगता है कि जैसे दोनों पर्वत आमने सामने खुल्ली छाती करके आलिंगन करने के लिए आते हो, अथवा विजयों की मर्यादा बनाकर रक्षा करने के लिए छाती के आकार से खडे हो ऐसे दिखते हैं इसलिए उनका नाम वक्षस्कार पर्वत है वक्ष = छाती, सीना। 00 यो. वक्षस्कार पर्वत 500 यो. 500 यो. वक्षस्कार पर्वत 400 यो. | लघु संग्रहणी सार्थ 146 16 वक्षस्कार Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १चित्र 1 विचित्र पर्वत ये दोनों पर्वत देवकुरु क्षेत्र में आये हुए है एक पूर्व की ओर है और दूसरा पश्चिम की ओर है। ऊंचाई | मूल का विस्तार | ऊपर विस्तार | आकार 1000 यो.। 1000 यो. / 500 यो. | गोल है .1 यमक और 1 समक पर्वत इन दो पर्वतों का माप, विस्तार, आकारादि चित्र, विचित्र पर्वत की तरह ही जानना। सिर्फ क्षेत्र उत्तर कुरु, और एक पूर्व में तथा दूसरा पश्चिम की ओर है। - 200 कंचनगिरि देवकुरु में पश्चिम में 1 ले सरोवर के पास 2 रे सरोवर के पास 3 रे सरोवर के पास 4 थे सरोवर के पास 5 वे सरोवर के पास 0 0 0 or or or or 0 | 0 कुल पश्चिम में उत्तर कुरु में 1 ले सरोवर के पास २रे सरोवर के पास ३रे सरोवर के पास 4 थे सरोवर के पास 5 वे सरोवर के पास कुल | लघु संग्रहणी सार्थ (147) चित्र-विचित्र और यमक-समपर्वत Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये सभी पर्वत सुवर्णमय रंग के 100 योजन ऊंचे, भूमि पर है और अनुक्रम से 100 से 50 योजन तक कम होते होते शिखर के आकार के बनते है। ये पर्वत भूमिकूट जैसे होने पर भी पूर्वाचार्यो ने भूमिकूट के रूप में गिने नहीं है, और दिक्कुमारीओं को खेलने के लिए सुवर्ण सोगठा हो, ऐसे लगते है। 4 गजदंत पर्वत - ये चार पर्वत हाथी दांत के समान आकारवाले हैं। मूल में चौडे, अंत में पतले, लंबे और बीच में टेढे हैं। हाथी के दांत जैसे होने से उनका नाम गजदंत हैं अंत सौमनस | विद्युतप्रभ | माल्यवंत / गंधमादन कहां है | देवकुरु के पास देवकुरु के पास उत्तरकुरु के पास उत्तरकुरु के पास दिशा पूर्व में पश्चिम में पूर्व में पश्चिम मूल निषध के पास | निषध के पास नीलवंत के पास नीलवंत के पास | मेरु के पास | मेरु के पास मेरु के,पास मेरु के पास मूल में चौडे 500 यो. - | 500 यो, 500 यो. 500 यो. अंत में चौडे अंगुल का | अंगुल का / अंगुल का | अंगुल का असंख्यातवा भाग | असंख्यातवा भाग असंख्यातवा भाग | असंख्यातवाभाग मूल में गहरे 100 यो. 100 यो. | 100 यो. |100 यो. अंत में गहरे 125 यो. 125 यो. | 125 यो. 125 यो. मूल में ऊंचे 400 यो. 400 यो.. | 400 यो. 400 यो. अंत में ऊंचे 500 यो. 500 यो. | 500 यो. 500 यो. |30209 यो 30209 यो. 30209 यो. 30209 यो. |6 कला 6 कला 6 कला 6 कला | श्वेत | लाल / नीला पीला ये पर्वत भी वक्षस्कार पर्वत की तरह मूल में 400 यो. की ऊंचाई होने से और अंत में 500 योजन की ऊंचाई होने से घोडे के गर्दन की तरह आकारवाले | लघु संग्रहणी सार्थ (148) गजदंत पर्वत वर्ण Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, पहले दो पर्वतों ने देवकुरु को घिरा है और दूसरे दो पर्वतों ने उत्तरकुरु क्षेत्र की घेरा लगाकर रहे है, इसलिए इनका वक्षस्कार ऐसा नाम भी है। गजदंत पर्वत मेरू पर्वत जंबूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र के बीच में मंदर देव के नाम से मंदर-मेरू पर्वत .. the ऊंचा बाहर- 99000 यो. अंदर- 1000 यो. कुल - 1,00.00 योजन नीचे चौडा | शिखर पर चौडा | आकार / रंग 10000 यो.. 1000 यो. गोल, | पीला 10090 10/11 यो. | सुवर्णमय इस पर्वत के तीन कांड (विभाग) होते हैं, इसके ऊपर तीन तथा एक तलेटी में इस प्रकार चार वन है। मेरु के शिखर ऊपर 4 शिला और 6 सिंहासन होते है। ६वर्षधर पर्वत हिमवंत | महाहिमवंत निषध नील वंत | रुक्मि शिखरी। 100 यो. 200 यो. 400 यो. 400 यो. 200 यो. 100 यो. 25 यो. 50 यो. 100 यो. 100 यो. 50 यो, | 25 यो. 1052"/... 4290 " / .. | 16842 /... 168422/4210 / 1052"., लघु संग्रहणी सार्थ (49) वर्षधट पर्वत Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। आकार लंब चोरस लंब चोरस | लंब चोरस लंब चोरस | लंब चोरसलंब चोरस रंग पीला पीला लाल नीला श्वेत पीला .' किसका सुवर्णमय सुवर्णमय | तपाया वैडूर्यरत्न | रूप्यमय सुवर्णमय बना हुआ है | सुवर्णमय वर्ष अर्थात् क्षेत्र, उसकी सीमा को धर अर्थात् धारण करनेवाले अर्थात् दो क्षेत्रों के बीच में सरहद पर रहे हुए हैं, ऐसा शब्दार्थ समझें। वे कौन-कौनसे क्षेत्र के बीच में आये हुए हैं, वह वासक्षेत्र के वर्णन में समझाया हुआ हैं। 4- वृत्त वैताढय / 200- कंचनगिरि 34- दीर्घ वैताढय | 4- गजदंत पर्वत 16- वक्षस्कार | 1- मेरु पर्वत 2- चित्र-विचित्र | 6- वर्षधर पर्वत 2- यमक-समक | कुल- 269 पर्वत हैं। पर्वतों के शिखर गाथा: सोलसवक्खारेसु, चउचउकूडायति पत्तेयं। सोमणसगंधमायण,सत्तद्वयरुप्पिमहाहिमवे||१३|| चउतीसवियडेसु.विज्जुप्पहनिसढनीलवंतेसु तह मालवंतसुरगिरि, नवनवकूडाइंपचेयं॥१४|| हिमसिहरिसुइक्कारस,इयइगसट्ठीगिरिसुकूडाणं एगत्तेसव्वधणं,सयचउरोसत्तसट्ठीय॥१५| संस्कृत अनुवाद षोडशवक्षस्कारखुचत्वारिचत्वारिकूचनिभवन्तिप्रत्येकं सौमनसगन्धमादनयोःसप्ताष्टचरुक्मिमहाहिमवंतयोः॥१३॥ लघु संग्रहणी सार्थ (150) पर्वतों के शिखर Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु संग्रहणी सार्थ 25 269 पर्वतों का संक्षिप्त यंत्र |संख्या पर्वतों के नाम | स्थान | ऊंचाई / विस्तार . आकार वर्ण और किससे बने हुए है | कूट | (योजन) (योजन-कला) लघु हिम. भ.-हिम. के मध्य में 100 1052-12 लंब चोरस पीला (सुवर्ण का) महा हिम. | हिम.-हरि के मध्य में 200 4210-10 निषध | हरिः-महा. के मध्य में 400 16842-2 लाल (तपनीय सुवर्ण का) | 9 नीलवंत महा.-रम्यक के मध्य में 400 16842-2 वैडूर्य श्वेत रत्न रुक्मि रम्य.-हैर. के मध्य में . 200 4210-10 पीला (रूपा का) शिखरी - हैर.-ऐरावत के मध्य में 100 1052-12 श्वेत (सुवर्ण का) वृत वैता. 4 युगल क्षेत्र में 1000 . 1000 पल्य जैसा श्वेत (रत्न का) दीर्घ वैता. 34 विजय में 50 लंब चौरस श्वेत (रूपा का) |306 वक्षस्कार महाविदेह में 500 500 पीला (सुवर्ण का) चि. विचि. देवकुरु में 1000 1000 | उर्ध्वगोपुच्छ यमक-समक कंचनगिरि 100 देवकुरु में 100 उत्तरकुरु में 100 गजदंत 1 देवकुरु के अंत में अश्व स्कंध और | लाल पीला श्वेत | 1 उत्तरकुरु के अंत में 500 500 | हाथी के दंतशूल| नीला (सुवर्ण रत्न के) मेरुपर्वत महाविदेह में 1 लाख 100900/.. | उर्ध्व गोपुच्छ / पीला (सुवर्ण का) 269 467 - र. ome (151) 299 पर्वतों का संक्षिप्त यंत्र मक | उत्तरकुरु में Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिंशद्वैताढयेषु, विद्युत्प्रभनिषधनीलवन्तेषु तथा माल्यवंतसूरगिरयोर्नवनवकूटानि प्रत्येकम॥१४|| हिमवच्छिखरिणोरेकादशेत्येकषष्टिगिरिषुकूटानाम एकत्वेसर्वधनंशतानि चत्वारिसप्तषष्टिश्च॥१५|| अन्वय सहित पदच्छेद वक्खारेसुपत्तेयं चउ चउकूडा हुंतिय सोमणसगंधमायणसत्त, यरुप्पिमहाहिमवेअट्ठ||१३|| चउतीस वियड्ढेसु विज्जुप्पह निसढ नीलवंतेसु .. तह मालवंत सुरगिरिपत्तेयं नव नव कूडाइं॥१४॥ हिम सिहरिसुइक्कारस, इय इगसट्ठी गिरिसुकूडाणं। एगत्तेसवधणं,चउरोसययसत्तसट्ठी॥१५|| शब्दार्थ सोमणस- सोमनस गजदंतगिरि पर | महाहिमवे- महाहिमवंत गंधमायण- गंधमादन गजदंतगिरि पर | पर्वत पर / रुप्पि- रुक्मि पर्वत पर शब्दार्थ :चउतीस-चौंतीस वियड्ढेसु- वैताढ्य पर्वत पर विजुप्पह- विद्युत्प्रभ गजदंत गिरि के ऊपर निसढ- निषध पर्वत ऊपर नीलवंतेसु-नीलवंत पर्वत ऊपर तह- तथा माल्यवंत-माल्यवंत गजदंत गिरि ऊपर सुरगिरि-मेरु पर्वत ऊपर नव नव- नव नव कूडाइं-कूट, शिखर पत्तेयं- प्रत्येक ऊपर | लघु संगहणी सार्थ (152) शिखर द्वार Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ :हिम- हिमवंत पर्वत ऊपर सिहरिसु- शिखरी पर्वत ऊपर इक्कारस- ग्यारह इय-इस प्रकार से सव्व-सर्व, कुल धणं- धन, संख्या सय- सो इगसट्ठी-एकसठ गिरिसु- पर्वतो के ऊपर कूडाणं- कूटों की, शिखरों की एगत्ते- एकत्र करने पर चउरो-चार सत्तसट्ठी- सडसठ य- और गाथार्थ ___ सोलह वक्षस्कार पर्वतों में हरेक पर्वत के चार-चार शिखर है। सौमनस और गंधमादन के सात-सात शिखर है, तथा रक्मि और महाहिमवंत पर्वत के आठ-आठ शिखर हैं। // 13 // ____ चौतीस वैताढ्य पर्वत, विद्युत्प्रभ, निषध, नीलवंत तथा माल्यवंत और मेरु पर्वत, इन हरेक पर्वत पर नव नव शिखर हैं // 14 // हिमवंत और शिखरी पर्वत पर ग्यारह-ग्यारह शिखर है। इस तरह एकसठ (67) पर्वत पर कूटों अर्थात् शिखरों की संख्या मिलाने से चार सो सडसठ (467) होती है // 15 // विशेषार्थ : शिखरों का विशेषार्थ : कोष्टक में देखें। | लघु संगही सार्थ (153) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरों का विशेषार्थ पर्वत शिखर कुल मूल विस्तार | उपर विस्तार| शिखर किसके तथा ऊंचाई बने है ? 16 वक्षस्कार | 4 500 यो. 250 यो. रत्नमय 1 सौमनस 1 गंधमादन |7 1 रुक्मि 8 1 महाहिमवंत 8 34 वैताढय | 9 306 (सवा 6) यो. 3 यो. से | (6) रत्नमय अधिक (3) सुवर्णमय 1 विद्युतप्रभ | 9 | 9 (8) 500 यो. 250 यो. रत्नमय (1) 1000 यो. 500 1 माल्यवंत | 9 / 9 (8) 500 यो. 250 यो. | (1) 1000 यो. 500 1 निषध 9 | 9| 500 यो. 250 यो. 1 नीलवंत | 500 "| 250" | (8) 500 यो. 250 (1) 1000 यो. 500 1 लघु हिम. | 11 | 11/ 500 यो. 250 यो. 1 शिखरी | 11 | 11 || 61 पर्वत 5555 1 मेरु 467 1. विद्युत्प्रभ, माल्यवंत और मेरु पर्वत, इन तीनों पर्वत के नव-नव शिखरों में एक शिखर सहस्रांककूट कहा जाता है। अर्थात् वे शिखर 1000 यो. ऊंचे है उन शिखरों के नाम अनुक्रम से हरिकूट, हरिसहकूट और मेरु के ऊपर नंदनवन में | लघु संग्रहणी सार्थ (154) शिखटों का विशेषार्थ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आया हुआ बलकूट है। इनका मूल विस्तार 1000 यो. है इसलिए 250 यो. 250 योजन दोनों ओर बिना आधार ही रहे है और शिखर पर 500 योजन के विस्तारवाले हैं। 2. वैताढ्य के 306 गिरिकूटों 6 / योजन ऊंचे, 6 / योजन मूल में विस्तारवाले और ऊपर 3 योजन से कुछ ज्यादा विस्तारवाले हैं। 3. शेष 158 गिरिकूट 500 यो. ऊंचे 500 योजन मूल में विस्तारवाले और 250 योजन शिखर ऊपर विस्तारवाले हैं। इसलिए ऐसे शिखर धीरे-धीरे कम होते हुए शिखर पर आधे विस्तारवाले होने से ऊपर कीये हुए गोपुच्छ के आकार के होते है। 4. वैताढ्य पर्वत के नव शिखरों में से बीच के तीन सुवर्णमय हैं और आस-पास के छह रत्नमय हैं। .. 5. इगसठ (61) पर्वतों के कूटों में अंतिम रहा हुआ कूट है, उस एक कूट को सिद्धकूट कहा जाता हैं / हरेक सिद्धकूट ऊपर एक सिद्धायतन (शाश्वत जिनेश्वर का मंदिर) है। उस मंदिर के मध्यभाग में 108 प्रतिमाएँ है और हर द्वार पर चार-चार प्रतिमाएँ होनसे, सब मिलकर 120 शाश्वत जिन प्रतिमाएँ हैं। सभी प्रतिमाजी 500 धनुष की है। उनके भिन्न-भिन्न अवयव, भिन्न-भिन्न रत्नों में से बने है। 61 सिद्धायतन चैत्यों की कुल 7320 शाश्वत प्रतिमाओं को मैं मन-वचन काया से वंदन करता हैं। 6. सिद्धकूट के सिवाय 406 गिरिकूटों पर यथासंभव देव-देवीओं के समचोरस प्रासाद होते हैं। उसमें उस उस कूट के अधिष्ठायक देव-देवी रहते है। . 7. इन सिद्धायतनों को पश्चिम दिशा में द्वार नहीं होने से तीन द्वार ही है। 8. 269 पर्वत में से 61 पर्वत पर कूट है शेष 200 कंचन-गिरि, 2 यमक-समक, 2 चित्र-विचित्र, तथा 4 वृत्त वैताढय पर कूट नहीं है 200+2+2+4208 / लघु संग्रहणी सार्थ (155) शिखटों का विशेषार्थ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.सिद्धायतन तथा प्रासाद का प्रमाण 34 वैताढय के | लंबाई | विस्तार | ऊंचाई 34 सिद्धायतन | 1 गाऊ | || गाऊ | कुछन्यून 1 गाऊ 34 प्रासादो ०॥गाऊ 1 गाऊ शेष 27 पर्वत के | लंबाई | विस्तार | ऊंचाई शेष 27 सिद्धायतन| 50 यो. 25 यो. / 36 यो. . . . शेष 27 प्रासाद | 31 / यो. / 31 / यो. | 62 // यो. दूसरी तरह से गिरिकूटों की संख्या गाथा: चउसत्त अट्ठनवगेगारसकूडेहिंगुणहजहसंखं। सोलसदुदुगुणयालं, दुवेयसगसहिसय चउरो॥१६| संस्कृत अनुवाद चतुःसप्ताष्टनवकैकादशकूटैर्गुणयतयथासंख्यम्। षोडश द्वेद्वे एकोनचत्वारिंशत द्वेचसप्तषष्ट्यधिकानिशतानि चत्वारि॥१६॥ अन्वय सहित पदच्छेद जहसंखंचउसत्त अट्ठनवगएगारसकुडेहिं सोलसदुदुगुणयालंयदुवेचउरोसयसगसहि॥१६|| शब्दार्थ कूडेहिं- शिखरों से गुणयालं- उनचालीस गुणह- गुणाकार करने से सगसट्टी-सडसठ जहसंखं-यथा संख्य सय चउरो-चारसो अनुक्रम से | लघु संग्रहणी सार्थ (156 सिद्धायतन तथा प्रासाद का प्रमाण | Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथार्थ :-. चार, सात, आठ, नौ, ग्यारह, कूटों को अनुक्रम से सोलह, दो, दो, उनचालीस और दो से गुणा करे तो चारसो सडसठ (467) होते हैं। भूमि कूटों (शिखर) गाथा: चउतीसुविजएसुं.. उसहकूडा अट्ट मेरुजंबुम्मि। अद्वयदेवकुराए, हरिकूडहरिस्सहेसट्ठी॥१७॥ ___(इय अडवनं धरणिकूडा पाठांतरम्) संस्कृत अनुवाद चतुस्त्रिशत्सुविजयेषु,क्रषभकूटान्यष्टौ मेरौजम्ब्वां अष्टौ च देवकुरुषु.हरिकूट हरिस्सही षष्टिः॥१७॥ अन्वय सहित पदच्छेद * चउतीसुं विजएसुंउसह कूडाअट्ठमेरुजंबुम्मि यअट्ठदेवकुराए, हरिकूडहरिस्सहेसट्ठी॥१७॥ शब्दार्थ :चउतीसुं- चौंतीस देवकुराए- देवकुरु क्षेत्र में विजएसुं- विजयों में (शात्मलिवृक्ष के वन में) उसहकूडा- ऋषभकूट हरिकूड- हरिकूट * फूटनोट :1. उसुकूडा' ऐसा पाठ भी है। 2. जंबूद्वीप संग्रहणी मूल में हरिकूड हरिस्सहे सट्टी' पाठ है लेकिन वृत्तिकार ने ‘इय अडवनं धरणिकूडा' पाठ होना चाहिए ऐसा कहा है। | लघु संग्रहणी सार्थ (157) ભૂમિ તો Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबुम्मि-जंबूवृक्ष के वन में | हरिस्सहे-हरिसहकूट (उत्तर कुरु क्षेत्र में) | सट्ठी-ये 60 (=58) भूमिकूट हैं। गाथार्थ : चौंतीस विजयों में चौतीस ऋषभकूट, मेरु और जंबू वृक्ष पर आठआठ, देवकुरु में आठ, हरिकूट और हरिस्सह कूट ये सब मिलकर साठ कूट है। 2 यो. विशेषार्थ :कहां पर 34 विजयों में / मेरु के ऊपर | जंबूवृक्ष पर शाल्मलिवृक्ष पर . उत्तरकुरु क्षेत्र में | देवकुरु क्षेत्र में कूट के नाम | 34 ऋषभकूट | 8 करिकूट 8 जंबुकूट 8 शाल्मलिकूट ऊंचाई | 8 यो. 500 यो. | 8 यो. . 8 यो. गहराई | 2 यो. 125 यो. 2 यो. मूल में विस्तार |12 यो. 500 यो. | 12 यो. .12 यो. शिखर पर विस्तार 4 यो. 250 यो. | 4 यो. यो.. आकार | गोल उर्ध्व गोपूच्छो हाथी का आकार | गोल उर्ध्वगोपूच्छो गोल उर्ध्वगोपूच्छो वर्ण | जंबूनद सुवर्णमय | सुवर्णमय | जंबूनद सुवर्णमय रुप्यमय 2. इसके उपरांत हरिकूट और हरिस्सह कूट को गिनने पर कुल 60 भूमिकूट होंगे। इन दोनों कूटों को आगे सहस्रांक कूट के रूप में गिना है इसलिए 58 भूमि कूट गिने जाते हैं। 3. भूमिकूट याने पर्वत के ऊपर का शिखर नहीं परन्तु मूल से ही भूमि पर शिखर होते हैं। 4. ऋषभकूट :- 34 विजयों में आमने-सामने के पर्वतों से निकली हुई दो-दो मुख्य नदियां जहां-जहां अपना प्रपात कुंड में गिरकर मोड लेती है वहां | लघु संग्रहणी सार्थ (158) भूमि कूटों Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस प्रपात कुंडों के बिच में एक ऋषभकूट आया है। हरेक विजय के छह (6) खंडों में से चौथे खंड में ऋषभकूट होता है। वहां पर ऋषभनाम का अधिष्ठायक, देव होता है, इसलिए उसका ये नाम हैं। जब चक्रवर्ति चौथा खंड का दिग्विजय करके लघु हिमवंत का हिमवंत देव को जीतकर वापस लौटते है तब ऋषभकूट को अपने रथ की नोंक (अणी) से तीन बार स्पर्श करते है और काकिणी रत्न से पूर्व दशिा में अपना नाम लिखते है। 5. करिकूटों :- महाविदेह क्षेत्र में मेरु की तलहटी में भद्रशाल नामक वन में दिशा और विदिशाओं के मध्य में आठ अंतर में आठ हाथी के आकार के भूमि पर शिखर है। उनको दिग्गजकूट, हस्तिकूट, करिकूट कहते है उस पर उस-उस कूट के नाम वाले आठ देवभवन है। ये आठ भूमि कूट मेरु के पास में भद्रशालवन में होने से गाथा में मेरु कूट कहां है। 6. जंबूकूट :- महाविदेह क्षेत्र के उत्तरकुरु क्षेत्र में जंबूद्वीप के अधिष्ठायक अनादृत देव को निवास करने योग्य छोटे-बडे जंबूवृक्षों का परिवार वाला महान जंबूवृक्ष है। उसके आस-पास 100-100 योजन के विस्तारवाले तीन वन लपेटे हुए (घिरे हुए) हैं। उसके पहले वन में आठ विदिशाओं में जंबूनद सुवर्णमय ऋषभकूट जैसे 8 भूमिकूट पर्वत है, उन सबके ऊपर 1 गाउ लंबे, 0|| गाऊ चौडे और कुछ न्यून (कम) 1 गाऊ ऊंचे शाश्वत सिद्धायतन है। 7. शाल्मलिकूट :- गरुडवेग देव को निवास योग्य जंबूवृक्ष जैसा ही शाल्मलिवृक्ष देवकुरु में है। उसके पहले वन में रूप्यमय शाल्मलिकूट है। उसका स्वरूप जंबूकूटों की तरह ही है, ये सभी देवकुरु में होने से गाथा में देवकुरु कहा है। .. ... 8. हरिकूट और हरिस्सहकूट :- ये दो सहस्रांक कूट, अनुक्रम से विद्युत्प्रभ और माल्यवंत गजदंत के नव कूटों में गिने है। ये दोनों कूट पर्वतपर है, परन्तु दोनो और से 250-250 योजन निराधार स्थिति में है। इसलिए इनकी चौडाई भी 1000 योजन है। लघु संग्रहणी सार्थ (159) भूमि कूटों Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. तीर्थ गाथा: मागहवरदामपभास-तित्थ-विजयेसुएरवय भरहे। चउतीसा तीहिंगुणिया, दुरुत्तरसयंतु तित्थाणं||१८|| संस्कृत अनुवाद :मागधवरदामप्रभासतीर्थानि विजयेषुऐरावतभरतयोः चतुस्त्रिंशत् त्रिभिर्गुणिता द्वयुत्तरशतंतुतीर्थानाम॥१८॥ अन्वय सहित पदच्छेद विजयेषुएरवयभरहेमागधवरदाम पभास तित्थं। . तुचउतीसा तिहिंगुणिया, दुरुत्तरसयं तित्थाणं||१८|| शब्दार्थ :मागह- मागध तीर्थ एरवय- ऐरावत क्षेत्र में वरदाम- वरदाम तीर्थ तिहिं- तीन से पभास-प्रभास तीर्थ गुणिया-गुणने पर तित्थं- तीर्थ (जल में दुरुत्तर- दो ज्यादा (दो उत्तर) (उतरने योग्य स्थान सयं- सो बडे देवस्थान तित्थाणं- तीर्थो की संख्या, तीर्थो विजयेसु - 32 विजय में गाथार्थ : 32 विजयों में ऐरावत और भरत में मागध, वरदाम, और प्रभास नाम के तीर्थ है। चौंतीस को तीन से गुणने पर एक सो दो तीर्थ होते है। लघु संग्रहणी सार्थ (160 તીર્થો Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ:-. 1. तीर्थ याने पूज्य पुरुषों, जलाशय, पवित्र यात्रास्थल, धर्म-संस्था, पानी में उतरने के स्थान (घाट), नदी आदि जलाशयों का संगम स्थान, प्रथम गणधर, चतुर्विध संघ आदि अनेक अर्थ हैं। 2. इस गाथा में तीर्थ याने जलाशय में उतरने का ढाल-ओवारा, जलाशय में प्रवेश मार्ग ऐसा अर्थ समझना। 3. इस भरतक्षेत्र में गंगा और सिंधु का समुद्र के साथ का संगम स्थान याने जहां से लवण समुद्र में उतर (प्रवेश) सके, ऐसे मागध और प्रभास नाम के दो तीर्थ है इसके अलावा लवण समुद्र में उतरने के लिए बीच में वरदाम नाम का तीर्थ है। 4. इस प्रकार भरत-ऐरावत और महाविदेह की 32 विजयों में तीन-तीन तीर्थ होने से सब मिलाकर कुल एकसो दो (102) तीर्थ होते हैं। 34 4 3 = 102 / 5. हरेक तीर्थ समुद्र के किनारे से 12 योजन दूर मागध आदि तीर्थ के अधिष्ठायक देव की राजधानीवाले मागध आदि द्वीप है। 6. जब चक्रवर्ती दिग्विजय करने के लिए निकलता है तब पहला खंड जीतने के समय पर मागध तीर्थ के पास जाकर छावणी का पडाव डालते है, वहां अट्ठम का तप करने के बाद चार घोडावाला रथ में बैठकर, आधे पहिये पानी में डुबे वहां तक जाकर अपने नामवाला बाण मागध द्वीप की ओर छोडते है। वह बाण 12 योजन जाकर मागध देव की सभा में गिरता है। तब उस बाण को देखकर मागध देव को क्रोध आता है, लेकिन बाण पर चक्रवर्ती का नामादि पढकर ‘नया चक्रवर्ती' उत्पन्न हुआ हैं। ऐसा जानकर शांत होकर भेटना लेकर चक्रवर्ती के पास आते है और “हे देव ! आपके क्षेत्र की सीमा में रहनेवाला मै आपकी आज्ञा में हुं" ऐसा कहकर नम्रता दिखाता है। चक्रवर्ती भेटना तथा बाण लेकर सत्कार पूर्वक उनको विसर्जन करते है। इस प्रकार वरदाम और प्रभास तीर्थ को भी वश करते हैं। ला संग्रहणी सार्थ (161) तीर्थों Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. श्रेणियां गाथा :विज्जाहर-अभिओगिय,सेढीओदुन्नि दुन्नि वेयड्ढे। इयचउगुण चउतीसा, छत्तीससयंतुसेढीणं॥१९|| संस्कृत अनुवाद विद्याधराभियौगिकश्रेण्यौद्रेद्वेवैतादये। इतिचतुर्गुणचतुस्त्रिशतषत्रिशदुतरशतंतुश्रेणीनाम||१९|| अन्वय सहित पदच्छेद वेयइढे विज्जाहर अभिओगिय दुन्नि दुन्निसेढीओ। इयचउतीसाचउगुणतुसयंछतीससेढीणं॥१९॥ शब्दार्थ :विजाहर- विद्याधर मनुष्यों की | दुन्नि दुन्नि- दो - दो अभियोगिय- अभियोगिक देवों की | छत्तीसयं- एकसो छत्तीस सेढीओ- श्रेणियां, नगर की पंक्तिया सेढीणं- श्रेणियों की संख्या गाथार्थ : वैताढय पर्वत ऊपर विद्याधर मनुष्यों और अभियोगिक देवोंकी दो दो श्रेणियां है। इस तरह चौंतीस को चार से गुणा करने पर एकसो छत्तीस श्रेणियां होती हैं। विशेषार्थ : विद्याधर की श्रेणियां :- वैताढ्य पर्वत पर 10 योजन की ऊंचाई पर जाने से वहां 10 योजन चौडाई का और वैताढय जितनी लंबाई वाले उत्तर और लघु संग्रहणी सार्थ (162) श्रेणियां Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण दिशा में दो दो मेखला (सपाट- प्रदेश) आते है। उसमें उत्तर तरफ की समभूतल प्रदेश ऊपर रथनूपुर आदि 60 शरह और दक्षिण तरफ की समभूतल प्रदेश पर गगनवल्लभ आदि 50 शहर है और उसमें प्रज्ञप्ति आदि विद्यादेवीओं की मदद से मनचिंतित कार्य करने की शक्तिवाले विद्याधर जाति के मनुष्य रहते हैं। उत्तर की ओर 60 और दक्षिण की ओर 50 नगर होने का कारण उत्तर की ओर पर्वत की लंबाई ज्यादा है और दक्षिण की ओर पर्वत की लंबाई कम है। ऐरावत क्षेत्र में मेरु की ओर पर्वत की लंबाई ज्यादा होने से दक्षिण दिशा में 60 नगर और उत्तर दिशा में 50 नगर है। इन राजधानी के नगरों के साथ दूसरे भी अनेक गांव भी होते हैं। महाविदेह की हरेक विजय के वैताढ्य पर्वत पर भी दो-दो मेखलाएँ है उनके ऊपर 55-55 नगर होते है। इस प्रकार 34 विजयों के 68 विद्याधर के नगरों की श्रेणियां हैं और 3740 कुल नगर है। 68 x 55 = 3740 / आभियोगिक श्रेणियां:- ऊपर कही हुई मेखलाओं से ऊपर 10 योजन ऊपर जाने से वहां 10 योजन विस्तारवाली वैताढय की दोनो ओर दूसरी दो समभूतल प्रदेशवाली मेखलाएँ आती है। दोनों पर अभियोगिक पदवी के तिर्यग्नुंभक व्यंतर देवों के भवन है। ____मेरु से दक्षिण की तरफ 16 महाविदेह की विजय और भरत की विजय के वैताढय उपर सौधर्म इन्द्र के लोकपाल के अभियोगिक तिर्यग्भक व्यंतर देव रहते हैं। और उत्तर तरफ की 16 विजय के और 1 ऐरावत के वैताढय पर ईशानेन्द्र के लोकपाल के अभियोगिक तिर्यग्भक व्यंतर देव रहतें हैं। . सोम-यम-वरुण-और कुबेर इन चार जाति के लोकपाल देवों के साथ संबंध रखनेवाले आभियोगिक देव व्यंतर देव है। (आभियोगिक याने नौकरचाकर के रूप में काम करनेवाले देव)। | लघु संग्रहणी सार्थ (163 (163) श्रेणियां Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हरेक वैताढ्य ऊपर 4-4 श्रेणियां गिनने से कुल 136 एकसो छत्तीस श्रेणियां होती हैं। 8. विजय और 9. हृदों गाथा: चक्कीजेअव्वाइं.विजयाइंइत्थहंतिचउतीसा। महद्दह छप्पउमाई, कुरुसुदसगंतिसोलसगं॥२०॥ संस्कृत अनुवाद : चक्रिजेतव्या विजया अत्र भवन्ति चतुस्त्रिंशत्। महाद्रहाःषइपद्मादयःकुरुषुदशकमितिषोडशकम्॥२०॥ अन्वय सहित पदच्छेद इत्थचक्कीजेअत्वाइंविजयाइंचउतीसाहुति। पउम आईछ महद्दह कुरुसुदसगंइति सोलसगं॥२०॥ शब्दार्थ :चक्की- चक्रवर्ति को जेअव्वाइं-जीतने योग्य क्षेत्र विजयाई-विजय कहलाती है इत्थ- यहां, जंबुद्वीप में मह- महान, बडा दह- द्रह, सरोवर, हृद प्पउमाई- पद्मसरोवर आदि कुरुसु- कुरुक्षेत्र में (देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र) दसगं- दस सरोवर है इति- इस प्रकार सोलसगं- सब मिलकर सोलह गाथार्थ : यहां चक्रवर्ति को जीतने योग्य चौंतीस विजय हैं। पद्मसरोवरादि छह बडे सरोवर हैं और कुरुक्षेत्र में दस इस तरह सोलह 16 सरोवर हैं। | लघु संग्रहणी सार्थ (164) विजय औट हृदों Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ :- . भरत, ऐरावत, और महाविदेह की• 32 विजय यह सब मिलकर 34 विजय क्षेत्र हैं क्योंकि इन हरेक विजय के छ खंड को चक्रवर्ति संपूर्ण जीतते हैं। इसलिए वह विजयक्षेत्र कहलाते है। इन 34 क्षेत्रों के अलावा दूसरे हिमवंत आदि कोइ भी क्षेत्र ऐसे नहीं है कि जिसमें चक्रवर्ति को विजय पाने के लिए प्रयत्न करना पडे, क्योंकि वहां पर चक्रवर्ति आदि व्यवस्था ही नहीं है। जीतने योग्य 6 खंड का अनुक्रम :1. दक्षिणार्ध मध्य खंड 4. उत्तरार्ध मध्यखंड 2. दक्षिणार्ध पश्चिमखंड 5. उत्तरार्ध पूर्वखंड 3. उत्तरार्ध पश्चिमखंड . 6. दक्षिणार्ध पूर्वखंड _ इस प्रकार अनुक्रम से 6 खंडो को 34 विजयों में जानना। इन 34 विजय में भरत तथा ऐरावत क्षेत्र 5266/19 योजन विस्तारवाला है और कच्छ आदि हरेक विजय 2212 7/8 योजन विस्तारवाले हैं। . महाविदेह की 32 विजयक्षेत्र के नाम पूर्व महाविदेह में 16 पश्चिम महाविदेह में 16 1. कच्छ 9. वत्स 17. पद्म 25. वप्र 2. सुकच्छ 10. सुवत्स. 18. सुपद्म 26. सुवप्र 3. महाकच्छ .11. महावत्स 19. महापद्म 27. महावप्र 4. कच्छावती 12. वत्सावती 20. पद्मावती 28. वप्रावती * फूटनोट :थाली जैसा गोल, चारो ओर तीक्ष्ण धारवाला, दांतवाले तथा वज्ररत्न से बना हुआ चक्ररत्न नाम का मुख्य शस्त्र जिसके पास हो तथा 6 खंड को पूर्ण रूप से जीते वह चक्रवर्ती कहलाता है। (वासुदेव के पास चक्ररत्न होने पर भी वह तीन खंड को ही जीतते है इसलिए वह चक्रवर्ती नहीं है।) लघु संग्रहणी सार्थ (165) विजय और हृदों Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. आवर्त्त 13. रम्य 21. शंख 29. वल्गु 6. मंगलावर्त्त 14. रम्यक् 22. कुमुद 30. सुवल्गु 7. पुष्कलावत 15. रमणिक 23. नलिन 31. गंधिल 8. पुष्कलावती * 16. मंगलावती 24. नलिनावती * 32. वधिलावती उत्तर दिशा में दक्षिण दशिा में दक्षिण दिशा में उत्तर दिशा में 9. हृदो 6. महाहृदो नाम / कहां | लंबाई / चौडाई गहराई | किसका निवास 1. पद्महद हिमवंत पर्वत पर 1000 यो,५०० यो. 10 यो. श्री देवी 2. महापद्महद महाहिमवंत पर्वत पर 2000 यो 1000 यो.१० यो. ही देवी 3. तिगिच्छहद निषध पर्वत पर 4000 यो,२००० यो.१० यो.| धी देवी 4. पुंडरिकहद शिखरी पर्वत पर 1000 यो 500 यो. 10 यो. लक्ष्मी देवी 5. महापुंडरिकहदरुक्मि पर्वत पर 2000 यो 1000 यो.१० यो. षुद्धि देवी 6. केसरिहद नीलवंत पर्वत पर 4000 यो. 2000 यो.१० यो... कीर्ति देवी . उपरोक्त देवीयां अपने परिवार सहित मुख्य कमलों में निवास करती हैं। उनकास्वरूप जानने योग्य है। 10 लघुहृदो देवकुरु में उत्तरकुर में 1. निषध 6. नीलवंत 2. देवकुरु 7. उत्तर कुरु * फूटनोट :इन चार विजयों में वर्तमानकाल में भी श्री सीमंधरस्वामी श्री युगमंधरस्वामी - श्री बाहुस्वामी - श्री सुबाहुस्वामी इन चार नाम के तीर्थंकर भगवंत विचरते हैं। वे विहरमान भगवान कहलाते है। उनको मेरा त्रिकरण पूर्वक नमस्कार हो। | लघु संगहणी सार्थ (166) लघु एवं महाहृदो Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. सुरप्रभ | 8. चंद्र 4. सुलस 9. एरावत 5. विद्युत्प्रभ 10. माल्यवंत इन पांच हृदो को भेदकर सीतोदा नदी | इन पांच हृदों को भेदकर सीता नदी बहती है। इसलिए उनके दो-दो भाग | बहती है। इसलिए उनके दो-दो हो जाते है। भाग होते है। ये दस हृद पद्महद के प्रमाण ही लंबे-चौडे-गहरे और उस-उस नाम के ही देव उसमें रहते हैं। ___ महाविदेह की अंतरनदियां गंगा-सिंधु से भी बडी होने पर वे मुख्य न होने के कारण महानदी में इनकी गिनती नहीं की जाती। इसी प्रकार लघुहृद और पद्महद समान प्रमाणे के होने पर भी महाहृद में नहीं गिने जाते। हृद-द्रह-सरोवर / ये पर्यायवाची शब्द हैं। 10. नदियां गाथा : गंगा सिंधुरता, रत्तवईचउ नईओपत्तेयं। चउदसहिंसहस्सेहिं .समगंवच्चंतिजलहिंमि॥२१॥ संस्कृत अनुवाद गङ्गा सिन्धूरक्तारक्तवतीचतस्त्रोनद्यः प्रत्येकम्। चतुर्दशभिःसहस्त्रैःसमकंव्रजन्तिजलधौ॥२|| अन्वय सहित पदच्छेद गाथावत-परंतुजलहिँभि वच्चंति। . * फूटनोट : छपी हुई किताब में 'समग्ग' पाठ और छपी हुई सटीक प्रत में समगं' पाठ मूल में है। अर्थ भी 'समगं' का ही किया है। इसलिए यहां भी 'समगं' शब्द ठीक संबंधवाला लगने से रखा है। | लघु संग्रहणी सार्थ 167 नदियाँ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ :गंगा- गंगानदी सिंधु-सिंधुनदी रत्ता-रक्तानदी रत्तवई-रक्तवती नदी नईओ- नदीयां हैं चउदसहिं- चौदह सहस्सेहिं- हजार समगं- सहित वच्चंति-जाती हैं जलहिंमि-समुद्र में गाथार्थ ___ गंगा, सिंधु, रक्ता, और रक्तवती ये चार नदियां हरेक चौदह, चौदह हजार के साथ समुद्र में जाती हैं। विशेषार्थ : भरत-क्षेत्रमें गंगा और सिंधु ये दोनो महानदी लघु हिमवंत पर्वत पर रहा हुआ पद्मह्रद में से निकलकर छोटी चौदह हजार दूसरी नदियाँ के साथ अनुक्रम से पूर्व और पश्चिम की ओर बहती हुई आगे लवणसमुद्र से मिलती हैं। इसी तरह ऐरावत क्षेत्र में रक्तवती तथा रक्ता नदी शिखरी पर्वत पर रहा हुआ पुंडरीक हृद में से निकलकर छोटी चौदह हजार दूसरी नदीयों के साथ अनुक्रम से पश्चिम (वहां के सूर्योदय की अपेक्षा से पूर्व) तथा पूर्व (वहां के सूर्योदय की अपेक्षा से पश्चिम) की ओर बहती हुई आगे लवणसमुद्र से मिलती है। नदीयां का परिवार गाथा : एवं अख्तिरिया चिउरोपुणअट्ठवीससहस्सेहिं पुणरविछप्पन्नेहिं, सहस्सेहिंजंतिचउसलिला||२२|| * फूटनोट :"अब्भंतरगा” - ऐसा पाठ भी है। નવુ મંago માર્શ (68) વહિયાં ઘરિવાર Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद :एवमाभ्यन्तरिकाश्चतस्त्रःपुनरष्टाविंशतिसहसैः। पुनरपिषट्पञ्चाशतासहस्रान्ति चतस्त्रः सलिलाः॥२२|| अन्वय सहित पदच्छेद पुणएवं अख्तिरिया चउरोअट्ठवीससहस्सेहिं पुणअवि चउसलिलाछप्पनेहिंसहस्सेहिंजंति॥२२|| शब्दार्थ :अभिंतरिया- मध्यक्षेत्र की चउरो- चार नदिया अट्ठवीस- अट्ठाईस . / सहस्सेहिं- हजार सलिला- नदी गाथार्थ : तथा इस तरह अंदर के प्रदेश की चार नदी, अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार नदीयों के साथ और दूसरी चार नदी छप्पन्न-छप्पन्न हजार नदीयों के साथ समुद्र में जाती है। विशेषार्थ : हिमवंत, हिरण्यवंत, हरिवर्ष, और रम्यक् ये चार क्षेत्र अभ्यंतर क्षेत्र है / क्योंकि भरत, ऐरावत बाह्य क्षेत्र है। महाविदेह मध्य क्षेत्र है। बाह्य और मध्य के बीच रहे हुए होने से वे अभ्यंतर क्षेत्र कहलाते है और इस क्षेत्र में बहनेवाली नदीयां भी अभ्यंतर नदी कही जाती है। रोहिता- हिमवंत क्षेत्र में / पूर्व की ओर बहती है / 28000 नदी परिवार के साथ रोहितांशा-हिमवंत " | पश्चिम " सुवर्णकुला-हिरण्यवंत " | पूर्व " | लघु संग्रहणी सार्थ (169) वदियाँ का परिवार " Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 0 0 पूर्व " रुप्यक्ला हिरएयवंत क्षेत्र में पश्चिम की ओर बहती है| 28000 नदी परिवार के साथ रूप्यकुला- " | पश्चिम " 28000 हरिसलिला-हरिवर्ष " 56000 हरिकान्ता- " पश्चिम " 56000 नरकांता- रम्यक् " 56000 नारीकांता- " पश्चिम " 56000 ये आठ नदीयां अपने-अपने परिवार के साथ लवण-समुद्र मे मिलती . है। 14000+14000+14000+14000+112000+224000+12 मुख्य नदीयां=३९२०१२ नदीयां यहां तक समझना। महाविदेह क्षेत्र की नदियां गाथा: कुरुमज्झेचउरासी-सहस्साइंतहय विजयसोलससु। बत्तीसाण नईणं, चउदससहस्साइंपत्तेअं(यं) |23|| संस्कृत अनुवाद कुरुमध्ये चतुरशीतिसहस्राणि तथाच विजयषोडशसु। द्वात्रिंशतो नदीनां, चतुर्दशसहसाणि प्रत्येकम्॥२३॥ अन्वय सहित पदच्छेद कुरु मज्झेचउरासीसहस्साइंतहय विजयसोलससु बत्तीसाण नईणंपत्तेयंचउदससहस्साइं|२३|| * फूटनोट :जंबू. संग्रहणी की वृत्ति में यह गाथा केवल पूर्व महाविदेह क्षेत्र के बारे में ही (सीता नदी के संबंध में ही) वर्णन किया हुआ है, लेकिन यह गाथा दोनो नदी के संबंध में और दोनो महाविदेह के संबंध में घट सकती हैं। | लघु संग्रहणी सार्थ (170) महाविदेह क्षेत्र की नदियां Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ :-- कुरुमज्झे-कुरु (उत्तरकुरु) क्षेत्र में / बत्तीसाण नईणं- बत्तीस-नदीओं चउससी- चौरासी सहस्साइं- हजार सहस्साइं-हजार पत्तेअं-प्रत्येक, हरेक गाथार्थ : कुरु में चोरासी हजार (84000) तथा सोलह विजय की बत्तीस नदीयों की हरेक को चौदह-चौदह हजार नदीयां है। विशेषार्थ :कुरु में नदीयों का परिवार तथा विजयों में नदीयों का परिवार : सीतोदा - 84000 + 16 X 2= 32 X 14000 = 448000 / 84000 + 448000 = 532000 = कुल परिवार सीतोदा नदी निषध पर्वत के तिगिच्छ सरोवर में से निकलकर सीतोदा के प्रपातकुंड में गिरकर देवकुरु में से बहती हुई मेरु के पास मोड लेकर देवकुरु में 84000 नदियों के परिवार के साथ तथा 16 पश्चिम विदेह की हरेक विजय की दो-दो नदिओं का परिवार तथा 6 अंतरनदी का परिवार कुल मिलाकर 532000 परिवार के साथ पश्चिम दिशा की ओर बहती हुई लवणसमुद्र में मिलती है। 84000 + 448000 + 6 = 532006 / ...' सीता नदी :- इसी तरह सीता नदी नीलवंत पर्वत के केसरि हृद (सरोवर) में से निकलकर सीता प्रपातकुंड में गिरकर उत्तरकुरु क्षेत्रमें बहती हुई मेरु के पास मोड लेकर उत्तरकुरु में - 84000 नदीयों के परिवार के साथ और 16 पूर्व विदेह विजय की दो मुख्य नदीयों का परिवार 2 414000 = 28000 x 16 = 448000 / 16 X 2 = 32 नदीयां x 14000 = 448000 तथा + 6 अंतरनदी ये सब मिलकर 84000 + 448000 + 6 = 532006 परिवार के | लघु संग्रहणी सार्थ (171) महाविदेह क्षेत्र की नदियां Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ पूर्व दिशा की ओर बहती हुई लवणसमुद्र में मिलती है। इन दोनों नदीयों का परिवार 532006 532006 1064012 + 64 (32 विजयों की दो दो मुख्य नदीया). 1064076 ___ + 2 (सीता - सीतोदा) = 1064078 आगे के क्षेत्रों की 392012 + 1064078 कुल = 1456090 नदीयां ___ विजयों की६४ नदीयां कच्छ आदि 1 से 8 विजयों में तथा पद्मादि 17 से 24 विजयों में गंगा, सिंधू नामक और दूसरी 9 से 16 तथा 25 से 32 विजयों में रक्ता रक्तवती नामक नदीयां है। उनका प्रवाह, गहराई आदि भरत ऐरावत क्षेत्र के अनुसार है 8 गंगा, 8 सिंधु, 8 रक्ता, 8 रक्तवती ये 32 पूर्व-पश्चिम बहनेवाली नदीयां निषधनीलवंत के हृद में से निकलकर अपने चौदह - चौदह हजार परिवार के साथ, सीत-सीतोदा नदी में मिलती है। महाविदेह की 12 अन्तरनदीयां पूर्व महाविदेह में :- ग्राहवती. द्रहवती. पंकवती, तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला पश्चिम महाविदेह में :- क्षीरोदा, सिंहस्रोता, अर्न्तवाहिनी, उन्मालिनी, - फेनमालिनी, गंभीर मालिनी इस प्रकार 12 नदीयां है इनकी चौडाई 125 योजन गहराइ 2 // योजन है। | लघु संग्रहणी सार्थ (172) विजयों की एवं अन्तरादियाँ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये सभी निषध और नीलवंत पर्वत के उस नदी के नामवाले हृदों में से निकलकर पश्चिम ओर की 6 नदीयां सीतोदा में और पूर्व ओर की 6 नदीयां सीता नदी में मिलती है। आदि से अंत तक समान प्रवाहवाली ये नदीयां परिवार बिना की है। मतान्तर से उनका भी परिवार है, वह आगे की मतान्तर गाथा में मालुम पडेगा। सीता-सीतोदा के परिवार के स्थल का मतान्तर गाथा: चउदससहस्सगुणिया, अडतीसनइओ विजयमग्झिला। सीओयाए निवडंति. तहयसीयाईएमेव||२४|| संस्कृत अनुवाद चतुर्दशसहस्रगुणिता, अष्टात्रिंशन्नद्यो विजयमध्यकाः। सीतोदायांनिपतन्ति, तथाचसीतायामेवमेव||२४|| अन्वय सहित पदच्छेद . विजयमग्झिलाअडतीसनइओ चउदससहस्सगुणिया सीओयाए निवडंतितहयसीयाइएवंएव॥२४॥ शब्दार्थ :मज्झिला- में, विजय में रही हुई सीओयाए- सीतोदा नदी में निवडंति- गिरती है, मिलती है सीयाइं- सीता महानदी में एवं- इस तरह गाथार्थ:___चौद हजार से गुणी हुई विजयों में रही हुई अड्तीस नदीयां सीतोदा में मिलती है, और इसी तरह सीता नदी में भी जानना। | लघु संग्रहणी सार्थ (173) ता-सीतोदा राहिलाट के सवाल et alsoट 173 ) सीता-सीतोदा के परिवार के स्थल का मतात Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ : समझने योग्य यह है कि - यहां कुरुक्षेत्र की 84000 नदीओ की। जगह 6 अंतरनदीयों के परिवार की 84000 नदीयां गिनी है। जिससे बहुत . योजन तक कुरुक्षेत्र से होकर ये दोनो महानदी बहती हुई होने पर भी (कुरुक्षेत्र में ) एक भी नदी इन नदीयों से नहीं मिलती ऐसा अभिप्राय प्रगट होता है और यहीं मतान्तर है। ____ इस मतांतर का मुद्दा यह है कि देवकुरु क्षेत्र और उत्तरकुरु क्षेत्र की चोराशी, . . चोराशी हजारकी संख्या कौनसे मद्दे पर ग्रहण करनी ? हरेक अंतरनदीयों का 14000 परिवार गिनने से उनका 84000 की संख्या होती है। दूसरी तरह से विचार करे तो इन अंतरनदीयों को विजयों की चौदह चौदह हजार के परिवार की नदी के रूप में माने तो अंतरनदियों का अलग परिवार कहां से हुआ ? पांच लाख बत्तीस बजार के बारे में दोनों मत का एक ही अभिप्राय है सिर्फ चौरासी हजार के संख्या की गिनती किस तरह करना, उनके बारे में मतभेद है। गाथा:सीयासीओयाविय, बत्तीससहस्सपंचलक्खेहिं। सव्वेचउदसलक्खा ,छप्पन्नसहस्समेलविया|२५|| संस्कृत अनुवाद सीताशीतोदाऽपिच, द्वात्रिंशत्सहस्राधिकपञ्चलक्षैः। सश्चितुर्दशलक्षाणि, षट्पञ्चाशत्सहस्राणिमेलिताः||२५|| * फूटनोट :कुरु की चौराशी हजार नदी' वाला मत ज्यादा ठीक लगता है। क्योंकि अंतरनदीयों का प्रवाह एक समान है। यदि उसमें दूसरी नदीयां मिलती हो तो उसका प्रवाह अधिक चौडा होता जाये और वे नदीयां वैताढय की तरह दो विजयों की सीमा में हैं। विजय की चौदह हजार परिवारवाली दो नदीयां सीधी उत्तर-दक्षिण बहती हुई सीता-सीतोदा में मिलती है। इसलिए वे वास्तविक रूपसे अंतरनदी के परिवार में नहीं है। | लघु संग्रहणी सार्थ १७४)श्रीता-सदा के परिवार केशल Dillide Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वय सहित पदच्छेद सीयायसीओया अविपंच लक्खेहिं बत्तीससहस्स सब्वे मेलविया चउदसलक्खा , छप्पन्न सहस्स॥२५|| शब्दार्थ :सीया- सीता नदी / मेलविया- सब मिलाकर सीओया- सीतोदा नदी गाथार्थ : * (उन दोनो मतों से) पांच लाख, बत्तीस हजार के साथ सीता और सीतोदा (जाती है) सब मिलकर चौदह लाख, छप्पन्न हजार होती है। नदीयों के मूल तथा अंत का विस्तार गाथा: छज्जोयणेसकोसे, गंगासिंधूण वित्थरोमूले। दसगुणिओपज्जंते, इयदुदुगुणणेणसेसाणं॥रक्षा संस्कृत अनुवाद षड़योजनानिसकोशानि, गङ्गासिन्ध्वोर्विस्तरोमूले। दशगुणितःपर्यन्ते. इति द्विद्विगुणनेनशेषाणामारा। अन्वय सहित पदच्छेद मूले गंगासिंधूण वित्थरोसकोसेछज्जोयणे। पज्जतेदसगुणिओ, इयसेसाणदुदुगुणणेणारा फूटनोट :24 वीं गाथा मतांतर की है और वह एक ही गाथा में विदेह की 1064000 नदीयां संपूर्ण गिनी है। इसलिए २३वीं गाथा के साथ 25 वी. गाथा का संबंध जोडना अथवा दोनो के साथ भी संबंध ठीक लगता हैं। लघु संग्रहणी सार्थ (१७५वेदीयों के मूल तथा अंत का विस्तार Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ :स- सहित दसगुणिओ- दस गुणा कोसे- एक कोस, एक गाऊ / पजते- पर्यंन्त में, अंतभाग में गंगा- गंगा नदी (जहां नदी समुद्र में मिलती है वहां) सिंधूण- सिंधू नदी का इय- इस प्रमाण से वित्थरो- विस्तार दुदु- दो-दो (दुगुणा-दुगुणा) मूले- मूल में (जहां से नदी गुणणेण- गुणा करने पर . . . निकलती है वहां) सेसाणं- शेष गाथार्थ : गंगा और सिंधू का विस्तार मूल में एक गाऊ युक्त छह योजन है और अंतभाग में (मूल से) दसगुणा है इस तरह दुगुणा शेष नदियों का विस्तार है। विशेषार्थ : _____ गंगा-सिंधु-रक्ता-रक्तवती इन चार बाह्य क्षेत्र की नदीयों का प्रवाह सरोवर में से जहाँ निकलता है वहां प्रारंभ में एक गाउ छह योजन याने सवा छह (6 / ) योजन चौडा है और उसके बाद 14000 नदीयों का पानी मिलने से क्रमसर प्रवाह बढता बढता जहां समुद्र में मिलता है. वहां 62 / / (साडे बासठ) योजन * फूटनोट :गंगा-सिन्धु का जो 62 // योजन का प्रवाह और चार नदीयां का निर्गम इत्यादि कहा हुआ उत्कृष्ट स्वरूप वर्तमानकाल संबंधी नहीं है। लेकिन अवसर्पिणी का पहला तथा उत्सर्पिणी का अंतिम आरा आश्रयी इन नदीयों का स्वरूप समझना / हिमवंतादि क्षेत्र की 10 महानदीयां का पूर्वोक्त स्वरूप सदाकाल के लिए समान रहता है। इसलिए वर्तमानकाल की गंगा-सिन्धु का विलक्षण स्वरूप देखकर उपरोक्त स्वरूप को गलत मानने की चेष्टा न करें। भरत और ऐरावत इन दो क्षेत्र में कुदरती रूपसे ही क्षेत्र और काल में ऐसे बडे विलक्षण परिवर्तन होता रहता है जिससे इनका कोई लघु संग्रहणी सार्थ (१७६सदीयों के मूल तथा it col diedle Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितना बडा विस्तारवाला होता है तथा हिमवंत और हिरण्यवंत क्षेत्र की चार नदीयां प्रारंभ 12 // योजन चौडा और अंत में 125 योजन चौडा प्रवाहवाली है। तथा हरिवर्ष और रम्यक् क्षेत्र की चार नदीयां प्रारंभ में 25 योजन और अंत में 250 योजन प्रवाहवाली है। तथा सीता-सीतोदा नदी प्रारंभ में 50 योजन और अंत में 500 योजन चौडा प्रवाहवाली हैं। प्रश्न :- नदीओं का प्रवाह विस्तार के बारे में कहा, लेकिन गहराई कितनी ? उत्तर :- गहराई गाथा में तो नहीं बताई है। फिर भी हरेक नदी अपने प्रवाह से. हर स्थान पर पचासवा भाग जितनी गहरी होती है। इसलिए गंगादि चार नदीयां प्रारंभ में 0 // (आधा गाऊ) गहरी है। और अंत में 5 गाऊ गहरी है। इस प्रकार सभी नदीयों की गहराई भी अंत में बताई हुई है वहां से देखलेना। पर्वतों के प्रमाण तथारंग (वर्ण) गाथा : जोयणसयमुचिट्ठा, कणयमया सिहरिचुल्लहिमवंता। रुप्पिमहाहिमवंता, दुसउच्चारुप्पकणयमया||२७|| भी स्वरूप निश्चित रूप से नही लिख सकते / इन दो क्षेत्र में निश्चित रूपवाला 1) वैताढय पर्वत 2) ऋषभकूट और दो महानदीयों के प्रपात कुंड है। लेकिन वहां जाना असंभव है तथा गंगादि चार महा नदीयों का जघन्य से रथ मार्ग जितना और गहराई भी बहुत छीछरी कही है। * फूटनोट :शास्त्र में हर स्थान पर जो नियम प्रवाह तथा गहराई कही है। वह मूल तथा अंत के अनुसार कही है। इसलिए कहीं कहीं पर हीनाधिक प्रवाह और गहराई न हो, ऐसा नही जानना। * फूटनोट :छपी हुई प्रत में 'उच्चिट्ठा' की जगह ‘उब्विद्धा' पाठ है। | लघु संग्रहणी सार्थ (177) पर्वतों का वर्ण एवं प्रमाण Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद योजनशतमुच्छ्रितौ. कनकमयौ शिखरिक्षुल्लहिमवन्तौ। रुक्मिमहाहिमवन्तौ द्विशतोच्चौ,रुप्यकनकमयौ॥२७॥ अन्वय सहित पदच्छेद सिहरिचुल्लहिमवंतासयंजोयण उचिट्ठाकणयमया। रुप्पिमहाहिमवंतादुसय उच्चारुप्पकणयमया॥२७॥ शब्दार्थ :उच्चिट्ठा- ऊंचा कणय- सुवर्ण मया- के रूप मय सिहरि-शिखरी पर्वत चुल्ल- लघु, छोटा हिमवंता- हिमवंत पर्वत रुप्पि- रुक्मिपर्वत महाहिमवंता- महाहिमवंत पर्वत ... स (सअ)- सो उच्चा-ऊंचा रुप्प- रूपा के चांदी के कणयमया- कनकमय, सुवर्णमय / गाथार्थ : शिखरी और लघु हिमवंत सो योजन ऊंचे सुवर्णमय है। रुक्मि और महाहिमवंत दो सो योजन ऊंचे और अनुक्रम से चांदी के तथा सुवर्णमय * है। गाथा : चत्तारिजोयणसए * उचिट्ठो निसढनीलवंतो। निसढोतवणिज्जमओ, वेरुलिओनीलवंतगिरि॥२८॥ फूटनोट :* सुवर्ण पांच वर्ण के होने पर भी पीला वर्ण मुख्य होने से यहां पर पीला वर्ण को लेना। * छपी हुई प्रत में तथा बृ. क्षेत्रसमास में 'उचिट्ठो' की जगह 'उविद्धो' पाठ है। लघु संग्रहणी सार्थ (178) पर्वतों का वर्ण एवं प्रमाण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-अनुवाद चत्वारियोजनशतान्युच्छितो निषधोनीलवांश्च। निषधस्तपनीयमयो, वैडूर्यको नीलवान गिरिः॥२८|| अन्वय सहित पदच्छेद निसढोअनीलवंतो. चत्तारिसए जोयण उचिट्ठो। . . निसढोतवणिज्जमओ, नीलवंत गिरिवेरुलिओ॥२८॥ चार शब्दार्थ :चत्तारि-चार सय- सो . उचिट्ठो-ऊंचा . निसढ- निषध पर्वत निलवंतो-नीलवंत पर्वत अ- और, तथा निसढो- निषध पर्वत तवणिज- तपनीय (तपा हुआ) ___ लाल सुवर्ण मओ- मय, रूप, का वेरुलिओ-वैडूर्य रत्न (पानां, पन्ना) का नीलवंत-नीलवंत गिरि- पर्वत गाथार्थ : निषध और नीलवंत चार सो योजन ऊंचे है। निषध तपनीयमय है और नीलवंत पर्वत वैडूर्य रत्नमय है। पर्वतों कीभूमि में गहराई गाथा : सव्वेविपत्वयवरा, समयक्खित्तम्मिमंदरविहूणा। धरणितलेउवगाढा, उस्सेहचउत्थभायम्मि॥२९|| | लघु संगहणी सार्थ (179) पर्वतों की भूमि में गहराई Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत अनुवाद सर्वेऽपिपर्वतवराः, समयक्षेत्रे मन्दरविहीनाः। धरणितलेउवगाढाउत्सेधचतुर्थभागे॥२९॥ अन्वय सहित पदच्छेद समयक्खित्तंमिमंदरविणा,सब्वेअविपव्वयवरा। उस्सेहचउत्थभायंमि,धरणितलेउवगाढा||२९|| शब्दार्थ: पव्वय- पर्वत वरा- श्रेष्ठ समयखितम्मि-समयक्षेत्र में अढीद्वीप में, मनुष्य क्षेत्र में मंदर- मेरु पर्वत विहूणा-बिना, सिवाय धरणि- पृथ्वी तले- तल में, अंदर उवगाढा-दटेहुए, जमीन के भितर रहे हुए। उस्सेह- उत्सेध, ऊंचाई चउत्थ- चौथा भायम्मि-भाग में गाथार्थ : समयक्षेत्र याने ढाईद्वीप में रहे हुए मेरु के सिवाय सभी मुख्य पर्वत भूमि में अपनी ऊंचाई से चौथे भाग के, (पाव भाग) दटे हुए हैं। विशेषार्थ : सूर्य-चन्द्र की गति से उत्पन्न हुआ समय आदि काल (2 // द्वीप के बाहर सूर्यादि स्थिर होने से वह समयक्षेत्र नहीं) अर्थात् (सयम, आवलि, मुहूर्त इत्यादि अनेक भेदवाले काल) जिस क्षेत्र में चलता है वह समयक्षेत्र 2 // द्वीप प्रमाण है। लघु संग्रहणी सार्थ (180) पर्वतों की भूमि में गहराई Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह• समयक्षेत्र 4500000 (= पैंतालीस लाख) योजन प्रमाण है। इसका दूसरा नाम * मनुष्यक्षेत्र भी है। यह समयक्षेत्र * पांचो मेरु के सिवाय सभी पर्वत (उपलक्षण से भूमिकूट पर्वत भी) अपनी-अपनी ऊंचाई से भूमि में चौथे भाग जितने गहरे दटे हैं। * प्रश्न :- पर्वतों की गहराई और ऊंचाई के योजन अलग-अलग गिनना, अथवा साथ में गिनना? उत्तर :- पर्वतों की गहराई के योजन और ऊंचाई के योजन अलग गिनना / जो पर्वत 100 योजन ऊंचे है वे भूमि में 25 योजन गहरे जानना। क्योंकि शास्त्र में फूटनोट :. 1 लाख योजन का जंबूद्वीप है उसके चारो और 2 लाख योजन का लवणसमुद्र, उसके चारो ओर 4 लाख योजन का धातकी खंड, उसके चारो ओर 8 लाख योजन का कालोदधि समुद्र और उसके चारो ओर सोलह लाख योजन का पुष्करवरद्वीप का आधा भाग याने 8 लाख योजन का आधा पुष्करवर द्वीप हैं / इस प्रकार दो समुद्र और ढाई द्वीप है / उनका 1+2+4+8+8+8+8+4+2=45 लाख योजन होता है। ढाईद्वीप में ही मनुष्य रहते है और जन्म-मरण होता है ढाईद्वीप के बाहर लब्धिधारी मनुष्य का गमनागमन है लेकिन जन्म-मरण-निवासादि नहीं है इसलिए ढाईद्वीप का नाम मनुष्यक्षेत्र ___पांचों मेरु में जंबुद्वीप के मेरु की ऊंचाई 99000 योजन और गहराई 1000 योजन है। जिससे मेरु पर्वत 100000 (एक लाख) योजन का है। और दूसरे दो द्वीप के चार मेरु की ऊंचाई 1000 योजन की गहराई युक्त 85000 योजन का है। 84000 + 1000 = 85000 योजन / . गाथा में समयक्षेत्र के पर्वत ऐसा कहने से समय क्षेत्र बाहर पर्वतों की गहराई के बारे में "ऊंचाई का चौथा भाग की गहराई” का नियमित नियम नहीं है क्योंकि समयक्षेत्र के बाहर * (मनुष्यक्षेत्र की तरह अनेक पर्वत न होने से) 'पर्वत नही है ऐसा कहा है। और मानुषोत्तर, कुंडल रुचक, अंजनगिरि, दधिमुख, रतिकर तथा इन्द्रों का उत्पात पर्वत आदि जो पर्वत हैं। उसमें मानुषोत्तर, रतिकर उत्पात पर्वत ऊंचाई के चौथे भाग की गहराईवाले और शेष 1000 यो. की गहराईवाले हैं। कुंडल, रुचक और अंजनगिरी मूल से 85000 यो. ऊंचे हैं। दधिमुख मूल से 65000 यो. ऊंचा है / इत्यादि विशेषता होने से 'मंदर-विहूणा उवगाढा उस्सेह चउत्थ भायम्मि', यह वाक्य समयक्षेत्र में ही संभवित है। इसलिए गाथा में समय क्खित्तम्मि' पद है। लघु संग्रहणी सार्थ (181) पर्वतों की भूमि में गहराई। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरु पर्वत के सिवाय बाकी सभी पर्वतों की ऊंचाई मूल भाग से नही लेकिन भूमि . . के उपरी तल से गिनी हैं। उपसंहार और कर्ता का नाम गाथा : खंडाईगाहाहिं दसहिंदारेहिंजंबूदीवस्स। संघयणीसम्मता, रइया हरिभद्दसूरीहिं॥३०॥ .. संस्कृत अनुवाद खंडादिगाथाभिर्दशभिद्धरिजम्बूद्वीपस्य। . संग्रहणीसमाप्ता रचिताहरिभद्रसूरिभिः॥३०|| अन्वय सहित पदच्छेद खंडआईगाहाहिं दसहिंदारेहिं हरिभद्दसूरीहिंरइया। जंबूदीवस्ससंघयणीसम्मत्ता ||30|| शब्दार्थ :खंडाई- खंड आदि (खंड जम्बूदीवस्स-जंबूद्वीप की वासा इत्यादि) ___ संग्रहणी (संग्रह-पद्धति) गाहाहि- गाथाओं मे कहे हुए सम्मत्ता- समाप्त हुई दसहिं- दस रइया- रची हुई दारेहिं- द्वारो द्वारा हरिभद्दसूरीहिं- श्री हरिभद्रसूरि के द्वारा) गाथार्थ : खंडादि गाथाओं द्वारा कहे गये दस द्वारोवाली श्री हरिभद्रसूरिजी म.सा. द्वारा रची हुई जंबूद्वीप संग्रहणी पूर्ण हुई। * फूटनोट :-- 'गाहाहिं' की जगह 'गाहाए' ऐसा भी पाठ है। | लघु संगही सार्थ (182) उपसंहार और कर्ता का नाम Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषार्थ : ग्रंथ में कहे हुए दस पदार्थो के अलावा भी दूसरे अनेक शाश्वत पदार्थ इस जंबूद्वीप में है। उनका स्वरूप दूसरे ग्रंथों से जानना। . जंबूद्वीप संग्रहणी प्रकरण के अर्थ लिखने में मतिदोषादि कारण से, जो कोई भूल-चूक हुई हो तो सज्जन पुरुषों क्षमा करके शुद्धि पूर्वक पढ़ें, ऐसी हमारी प्रार्थना है। -: ग्रंथ समाप्त : परिशिष्ट अन्य भी कुछ शाश्वत पदार्थ यहां दिए गये है। 1. जंबूद्वीप में 2 सूर्य 2 चंद्र जंबूद्वीप में दो सूर्य और दो चंद्र है जो सूर्य चंद्र आज उदित हुए हो वह कल उदित न होकर, तीसरे दिन उदय होता है। हर चन्द्र का परिवार 28 नक्षत्र आदि होने से दुगुणा परिवार जैसे 56 नक्षत्र, 176 ग्रह, 133950 कोडाकोडी तारा जंबूद्वीप में हैं। 2. जंबूद्वीप की जगती और 4 द्वार - इस द्वीप के चारो ओर एक कोट है जो मूल में 12 यो. चौडा, ऊपर 4 यो. चौडा और 8 यो. ऊंचा है और द्वीप की परिधि जितनी लंबाईवाला वलयाकार से रहा है, उसे जगती कहते है उसके पूर्वादि दिशा में अनुक्रम से विजय, वैजयन्त, जयंत, अपराजित नाम के 4 बडे दरवाजे है। ___3. 34 वैताढय की 68 गुफा हर वैताढ्य पर्वत की तमिस्रागुफा और खंडप्रपातागुफा नामक दो बडी गुफाएं है, जो चक्रवर्ति के राज्यकाल के समय पर खुली रहती है। और राज्यकाल | लघु संग्रहणी सार्थ (183) परिशिष्ट Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अलावा सदाकाल बंध रहती है। वह गुफा 12 यो. चौडी, 8 यो. ऊंची और 50 यो. लंबी है। चक्रवर्ति एक गुफा में से होकर काकिणी रत्न से दोनों ओर दिवार पर प्रकाशमंडल का आलेखन करके दूसरी ओर भी निकलकर वहां के .. तीन अनार्यखंड जीतकर दूसरी गुफा से होकर वहां पर भी उसी तरह प्रकाशमंडल का आलेखन करके वापस अपने खंड में आते है, इस तरह गुफाओं में प्रकाश मंडलों के प्रकाश से दूसरी ओर के खंडो में आने-जाने का व्यवहार सुलभ होता है। 4. वैताढय के 144 बिल वैताढय में दक्षिण और उत्तर की ओर गंगा सिन्धु आदि महानदी के दोनो और नव-नव बिल होने से एक वैताढय में 72 बिल अर्थात् छोटी गुफाए हैं। भरत-ऐरावत के दोनो वैताढय के मिलकर 144 बिल हैं। अवसर्पिणी के छठे आरे में जब अतिताप और ठंडी आदि उपद्रवों से मनुष्य पशुओं का प्रलय (संहार) काल आता है तब इन बिलों में रहे हुए मनुष्य और पशु ही जीवित रहेंगे और पुनः मनुष्य की और पशुओं की वृद्धि, ये बीज रूप रहे हुए मनुष्य और पशुओं से ही होगी। 5.4 और 34 तीर्थंकर पूर्वोक्त 34 विजयों में जब 1-1 तीर्थंकर होते है तब उत्कृष्ट काल में 34 तीर्थंकर होतें हैं और जघन्य से 4 तीर्थंकर भगवंत महा विदेह में विचरतें हैं। मतांतर से दो तीर्थंकर भी महा विदेह में ही विचरते हैं। 6. चक्रवर्ति-वासुदेव-बलदेव 4 और 30 महाविदेह में उत्कृष्ट से (28 विजय में) 28 चक्रवर्ति अथवा 28 वासुदेव और 28 बलदेव होते है और उसी समये भरत-ऐरावत में भी चक्रवर्ति आदि हो तो जंबूद्वीप में उत्कृष्ट काल में 30 चक्रवर्ति आदि होते हैं। अन्यथा जघन्य से 4 होते हैं, वे महाविदेह में ही होते हैं। जब महाविदेह की 28 विजयों, 28 चक्रवर्ति | लघु संगहणी सार्थ (184) परिशिष्ठ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त होती है तब शेष चार विजयों में 4 वासुदेव 4 बलदेव होते है लेकिन एक ही विजय में चक्रवर्ति और वासुदेव दोनों साथ में नहीं होते हैं। इस नियम से गिनती करना। 7. पांडुकवन में 4 अभिषेक शिला मेरु पर्वत के शिखर पर पांडुकवन नामक वन है उसमें 500 यो. लंबी, 250 यो. चौडी, 4 यो. जाडी (ऊंची) ऐसी अर्जुन (श्वेत) सुवर्ण की 4 महाशिलाएं चार दिशाओं में हैं। उन शिलाएं पर उस-उस दिशा में जन्मे हुए तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। 8.2 महावृक्ष भूमिकूट के वर्णन में कहे हुए 1) जंबुवृक्ष जो उत्तरकुरु में और 2) शाल्मलीवृक्ष जो देवकुरु क्षेत्रमें ऐसे दो वृक्ष है। वे दोनों 8 यो. ऊंचे 0 // यो. गहरे और 8 यो. के विस्तारवालें हैं। जंबूवृक्ष पर जंबूद्वीप का अधिष्ठायक अनादृत देव तथा शाल्मलीवृक्ष पर गरुड देव रहता है। दोनो वृक्ष पृथ्वीकायमय रत्न के शाश्वत है। परन्तु उसका आकार वृक्ष का होने से उन्हे वृक्ष कहते है। उस वृक्ष के आसपास दूसरे ऐसे अनेक छोटे-बडे वृक्ष हैं / 9.34 राजधानी .. चौंतीस विजयों में अयोध्या आदि नामवाली 34 मुख्य नगरीयां है, वे 34 राजधानीयां कहलाती है। .. .. . 10.90 कुंड 14 महानदीयां जिस जिस पर्वत पर से निकलती है उन पर्वत के नीचे उस-उस नदी के नामवाले प्रपातकुंड है। जिसमें नदी का प्रवाह इसी कुंड पर से गिरता है बाद में वह बाहर निकलता है वे 14, तथा महाविदेह की 64 विजयगत नदीयां और 12 अन्तर्नदीया जो निषध और नीलवंत पर्वत के पासमें रहे हुए कुंड में से निकलती है वे 76+14=90 कुंड हैं। लघु संवाहणी सार्थ (185) परिशिष्ट Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11.8 महावन महाविदेह के अंत में जगती के पास दो-दो वन रहें हैं वे 4 वन तथा मेरुपर्वत के भद्रशाल, नंदन, सौमनस और पांडुकवन नाम के 4 वन सब मिलकर / 8 महावन हैं। 12. अनेक वेदिका और वनखंड जंबूद्वीप में जो-जो शाश्वत पदार्थ है जैसे पर्वत, कूट, नदी, सरोवर, . कुंड, श्रेणी, मेखला, महावृक्ष, शिला, जगती देवप्रासाद के और सिद्धायतन के विभाग-तीर्थादि अनेक पदार्थों में से कितने यथायोग्य 1 वेदिका 1 वन से अथवा कितने 1 वेदिका 2 वन से और दो महावृक्ष अनेक वेदिका और अनेक वन से घीरे हुए है। 13. 306 महानिधि 34 विजयों की हर विजय में नैसर्प आदि नामवाले 9-9 निधि पांचवे खंड में महानदी के किनारे के पास है। जैसे गंगा महानदी के.पूर्व किनारे पर 9 निधि भूमि में है, वे 12 यो. लंबी, 9 यो. चौड़ी और 8 यो. ऊंची ऐसी बड़ी पेटीओं के जैसे आकारवाली है तथा सवर्ण से बनी हई और आठ-आठ पहियों (चक्रो) पर आग-गाडी के डिब्बे की तरह रहे हुए है। उसमें हर स्थिति को बतानेवाले शाश्वत पुस्तके होते है अथवा उस-उस प्रकार के तैयार पदार्थ मिल सके ऐसा होता है। हर निधि में अपने-अपने नामवाले अधिष्ठायक देव होते है। पांचवे खंड की साधना करके चक्रवर्ति इन नव-निधि को भी सिद्ध करतें हैं। चक्रवर्ति जब दिग्विजय करके अपने नगर में आते हैं तब वे निधियों भी पाताल मार्ग से चक्रवर्ती के नगर के वाहर आ-जाती है। 14. 420 रत्न हर चक्रवर्ति के चक्र-छत्र-दंड-चर्म-खड्ग-मणि-काकिणी ये सात एकेन्द्रिय रत्न तथा सेनापति-गाथापति-वार्धकी-पुरोहित-अश्व-हस्ति और स्त्री ये 7 पंचेन्द्रिय रत्न मिलकर 14 रत्न होते है। जिससे उत्कृष्ट काल में 30 चक्रवर्ति | लघु संग्रहणी सार्थ (186) परिशिष्ठ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने से जंबूद्वीप में 210 एकेन्द्रिय रत्न और 210 पंचेन्द्रिय रत्न मिलकर 420 रत्न चक्रवर्ति के होते हैं। ये जंबूद्वीप के प्रसिद्ध पदार्थ बताये है इसके उपरान्त दूसरे भी कोटीशिला आदि अनेक पदार्थ जंबूद्वीप में है, वे दूसरे ग्रंथो से सविस्तार जानने योग्य है। -: परिशिष्ट समाप्त : -: उपयोगी विशेष माप: 1 योजन = 4 गाऊ 1 गाऊ 2000 धनुष 1 धनुष = 4 हाथ 1 हाथ - दो वेंत (24 अंगुल) ___ 12 अंगुल 1 अंगुल. = 8 यव 1 यव = 8 युका 1 युका . = 8 लिख 1 लिख = 8 वालाग्र 1 वालाग्र = 8 रथरेणु 1 रथरेणु = 8 त्रसरेणु 1 त्रसरेणु = 8 व्यावहारिक बादर परमाणु 1 व्या.बा.प. = 174 सूक्ष्म खंड बादर परमाणु १सू.बा.प. = 361 सूक्ष्मतर खंड बादर परमाणु - लघु संग्रहणी सार्थ (187) 187 _ परिशिष्ट Page #205 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे द्वारा प्रकाशित प्राध्यापक श्री सुरेन्द्रभाई सी. शाह द्वारा संपादित *पाठशाला उपयोगी हिन्दी प्रकाशन * 2. अभ्यासक्रम भाग - 1 (सचित्र) 2. अभ्यास क्रम भाग - 2 (सचित्र) 1 से 4 वर्ग 3. दो प्रतिक्रमण सूत्र 4. नवकार से प्राणातिपात सार्थ / 5. दो प्रतिक्रमण सार्थ (बम्बई कोर्ससह) 6. नवकार से संसारदावा (हिन्दी- अंग्रेजी) 7. पंचप्रतिक्रमण मूलसूत्र 8. पंच प्रतिक्रमण विधिसह 9. पंच प्रतिक्रमण नवस्मरण सार्थ 10. जीवविचार सार्थ (सचित्र) 11. नवतत्त्व सार्थ (सचित्र) 12. दंडक संग्रहणी सार्थ / 13. महामंगलकारी नवस्मरण (पोकेट) 14. स्नात्र पूजा सार्थ / 15. पर्युषण सौरभ स्नात्र प्रश्नोत्तरी 16. अभ्यासक्रम (वर्ग 1 से 12 का संकलन) 17. स्नात्र पूजा रंगीन 18. अक्षय निधितप विधि / 19. नवपद आराधना विधि 20. श्रावक की जयणा पोथी 21. लब्धि स्वाध्याय (प्रकरण भाष्यादि) 22. अरिहंत वंदनावलि 23. दीपावलि पूजन विधि 24. लधु पूजा संग्रह विधि सह 25. देव वंदन माला 26. समाधि की सीढ़ी। 27. समाधि के सोपान 28. स्वस्तिक दर्शन 29. वीश स्थानक तप आराधना विधि 30. अंतराय कर्म निवारण पूजा सार्थ 31. दैनिक पत्रक (विद्यार्थियों की नोंधपोथी)। 32. पुण्य प्रकाश पद्मावती आराधना 33. दो प्रतिक्रमण (हिन्दी-अंग्रेजी)। श्री विजय लब्धि सूरि जैन धार्मिक पाठशाला श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर चिकपेट, बेंगलोर - 560053 फोन: 080- 22873678, 22389620 प्राप्ति स्थान (URU OUTA onopP3896