________________ गाथा मणुआणदीहकालिय, दिद्विवाओवएसिआकेवि.. पज्जपणतिरिमणुअच्चिय, चउविहदेवेसुगच्छंति॥३३॥ . संस्कृत-अनुवाद मनुजानांदीर्घकालिकी, दृष्टिवादोपदेशिकाः केऽपि . पर्याप्त पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुजाएवचतुर्विध-देवेषु गच्छन्ति // 33 // अन्वय सहित पदच्छेद मणुआणदीहकालिय,केदिद्विवाओवएसिआअवि : पञ्च पण तिरिमणुअचिय, चउविहदेवेसुगच्छन्ति॥३३॥ शब्दार्थ दीहकालिय-दीर्घकालिकी के-कितने को दिट्ठिवाओवएसिआ-दृष्टि अवि-भी वादोपदेशिकी संज्ञा गच्छन्ति-जाते है पज्ज-पर्याप्त पण-पंचेन्द्रिय गाथार्थ मनुष्यों को दीर्घकालिकी संज्ञा होती है और कितनेक मनुष्यों को तो दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा भी होती है। पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ही चार प्रकार के देवों में जाते है। विशेषार्थ मनुष्यों को विशिष्ट मनोविज्ञान होने से दीर्घकालिकी संज्ञा तो है ही, लेकिन कितनेक मनुष्यों को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा भी है। क्योंकि मनुष्यों में कितने सम्यग्दृष्टि होकर विशिष्ट श्रुतज्ञान के क्षयोपशमवाले भी होते हैं इसलिए द्वादशांगी दंडक प्रकरण सार्थ (100) गति - आगति द्वार चालु