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________________ आयेगा ? इत्यादि दीर्घकाल का विचारने की विशिष्ट ज्ञान संज्ञा होती है। तथा मनः पर्याप्ति के अभाव में विकलेन्द्रिय को वर्तमान समय का ही सुख-दुःख का विचार करने की ज्ञान संज्ञावाले होने से उनको हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा होती है। और स्थावर तो अव्यक्त चैतन्य वाले होने से उन सभी को संज्ञा रहित ही कहे है क्योंकि ये 3 संज्ञा स्पष्ट चैतन्यवाली है। प्रश्न :- एकेन्द्रिय को आहारादि 10 संज्ञा आगे कही है तथा विकलेन्द्रिय को उन 10 के अलावा अल्प स्पष्ट चैतन्य लागणी वाली हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा भी है। तो फिर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय संज्ञावाले होने पर भी संज्ञि क्यों नही गिना? उत्तर :- एकेन्द्रियादि को आहारादि संज्ञा होने पर भी वह अस्पष्ट चैतन्यवाली है इसलिए उस संज्ञा से यहा संज्ञित्व माननायोग्य नहीं है। और विकलेन्द्रिय को जो हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है वह अल्प स्पष्ट चैतन्यवाली होने से ऐसी संज्ञा से संज्ञि गिना नहीं जाता। क्योंकि अल्प धन से धनवान कहा नहीं जाता, अल्प रूप से रूपवान गिना नहीं जाता है, लेकिन बहुत धन से ही धनवान, बहुत रूप से ही रूपवान कहा जाता है / इस व्यवहार अनुसार बेइन्द्रियादि को असंज्ञि गिना है। प्रश्न :- तीन काल का विचार करनेवाले देव आदि दंडकों में एक दीर्घकालिकी . संज्ञा कहीं है। उनमें वर्तमान कालविषयक हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा भी हो सकती है, तो दो संज्ञा क्यों नही कहीं है ? उत्तर :- जैसे करोडपति शाहुकार के पास लाख रूपया होने पर भी वह लखपति नही कहा जाता क्योंकि करोड के अंदर लाख का समावेश हो जाता है इस तरह दीर्घकालिकी संज्ञा में हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा का समावेश हो जाता है इसलिए अलग नहीं गिना। संज्ञिद्वार चालु, 22-23 (१)गति-आगति द्वार। फूटनोट :(१)द्वारों के क्रम में प्रथमगति द्वार और बाद में आगति द्वार कहा है लेकिन यहां द्वारावतार में सभी जगह हर दंडक में पहले आगति और बाद में गति कही है। | दंडक प्रकरण सार्थ (19) गति - आगति द्वार चालु
SR No.004273
Book TitleDandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Original Sutra AuthorGajsarmuni, Haribhadrasuri
AuthorAmityashsuri, Surendra C Shah
PublisherAdinath Jain Shwetambar Sangh
Publication Year2006
Total Pages206
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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