SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २श्वांसंज्ञिद्वार गाथा चउविहसुरतिरिएसुनिरएसुयदीहकालिगीसन्ना। विगले हेउवएसा, सन्नारहिया थिरासव्वे|३२|| संस्कृत अनुवाद चतुर्विधसुरतिर्यक्षु, नैरयिकेषुच दीर्घकालिकीसंज्ञा .. विकलेहेत्वौपदेशिकी, संज्ञारहिताःस्थिराःसर्वे||३२|| अन्वय सहित पदच्छेद चउ विहसुर तिरिएसुय, निरएसुदीहकालिगीसन्ना विगले हेउवएसासव्वेथिरासन्नारहिया||३२|| शब्दार्थ चउविह-चार प्रकार के हेउवएसा-हेतुवादोपदेशिकी दीहकालिंगी-दीर्घकालिकी सन्ना-संज्ञा सन्ना-संज्ञा रहिया-रहित गाथार्थ चारप्रकार केदेव, तिर्यंच, और नरकको दीर्घकालिकी संज्ञा होती है विकलेन्द्रिय को हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा होती है और सभी स्थावर संज्ञा रहित है। विशेषार्थ २१वां द्वार में चार निकाय के देवो का १३दंडक, गर्भज तिर्यंच का 1 दंडक, सात नरक का 1 दंडक इन 15 दंडक के जीवों में 1 दीर्घ कालिकी संज्ञा कही है। क्योंकि इन जीवों की मनः पर्याप्ति होने से विशिष्ट मनोविज्ञान के बल द्वारा भूतकाल में इस कार्य का क्या परिणाम आया था? भविष्य काल में क्या | दंडक प्रकरण सार्थ (98 संज्ञिद्वार
SR No.004273
Book TitleDandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Original Sutra AuthorGajsarmuni, Haribhadrasuri
AuthorAmityashsuri, Surendra C Shah
PublisherAdinath Jain Shwetambar Sangh
Publication Year2006
Total Pages206
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy