________________ 6. हैरण्यवंत | शिखरी पलंग जैसा | पूर्व- पश्चिम 105 /..योजन लंब चोरस लवणसमुद्र पलंग जैसा | पूर्व- पश्चिम 3052 / .."." लंब चोरस | लवणसमुद्र रोटी की टूटी | तीन बाजु 526:/... किनारी जैसा | लवणसमुद्र | कुल 1,00,000 योजन 7. ऐरावत 1. ऊपर दर्शाये गये क्षेत्रो और पर्वतों का प्रमाण-माप उत्तर दक्षिण चौडाई का है, लंबाई में महाविदेह क्षेत्र 100000 योजन लंबा हैं, उसके दक्षिण की तरफ तीन क्षेत्र, तीन पर्वत है तथा उत्तर की तरफ भी दक्षिण की तरह तीन क्षेत्र और तीन पर्वत हैं उनकी लंबाई एक समान नहीं हैं। 2. कर्मभूमि याने शस्त्र व्यवहार रूप असि, लेखन व्यवहार रूप मषि और खेती व्यवहार रूप कृषि ये तीन मुख्य कर्म जहां चलते है और राज्य व्यवस्था समाज (वर्ण) व्यवस्था, स्वामी-सेवक, लग्न, रसोई बनाकर खाना आदि कार्य जहां होते हो उसे कर्मभूमि कहते है, वह भरत, ऐरावत और महाविदेह (देवकुरु, उत्तरकुरु सिवाय पूर्व और पश्चिम महाविदेह) क्षेत्र हैं। 3. अकर्मभूमि याने कर्मभूमि में दर्शाये गये जो व्यवहार है वे जहां न होते हो। तथा साथ में युगलिक रूप जन्मे हुए भाई बहन ही पति-पत्नि भाव से रहते हो उसे अकर्मभूमि या भोगभूमि कहते है। वहां के मनुष्य युगलिक कहे जाते हैं। उनके शरीर के सर्वांग सुंदर और सुलक्षणवंत होते हैं। और ये प्रजा बहुत सुखी होती हैं। वे लोग अपने जीवन की तथा भोग-उपभोग की सभी सामग्रीयां कल्पवृक्ष के द्वारा प्राप्त करते है, वे अकर्मभूमि-हिमवंत, हरिवर्ष रम्यक् और हिरण्यवंत हैं। (तथा महाविदेह में देवकुरु - उत्तरगुरु) क्षेत्र हैं। ऊपर बताये हुए क्षेत्र के नाम अनादिकाल से इस तरह शाश्वत रूपसे निहित हैं अथवा उस उस क्षेत्र के अधिष्ठायक देव के नाम के आधार पर ही ये नाम हैं। अर्थात् उस क्षेत्र के अधिष्ठायक देव का नाम भी इस तरह का है। लघु संग्रहणी सार्थ वासक्षेत्र और पर्वत