________________ यहां जानने की यह बात है कि जन्म के देह की रचना के समय पर वह प्रारंभ में अंगुल का असंख्यातवा भाग जितना ही छोटा होता है। और वह उत्तर वैक्रिय शरीर के प्रारंभ में अंगुल का संख्यातवा भाग प्रमाण छोटा बनता है। उत्तरवैक्रिय के प्रारंभ में जो अंगुल का संख्यातवा भाग की अवगाहना कहीं वह गर्भज तिर्यंच और मनुष्य तथा देव-नारकों की अपेक्षा से है। लेकिन वायुकाय जब वैक्रिय शरीर की रचना करता है तब उनका उत्तर वैक्रिय शरीर प्रारंभ में भी अंगुल का असंख्यातवां भाग जितना ही होता है। क्योंकि वायुकाय का कोई भी शरीर उत्कृष्ट से अंगुल के असंख्यातवां भाग जितना ही है। उत्तर वैक्रिय की उत्कृष्ट अवगाहना गाथा ' देव नरअहियलक्खं, तिरियाणं नवयजोयणसयाई दुगुणंतुनारयाणं, भणियंवेउवियसरीरं॥९॥ संस्कृत अनुवाद . देवनराणामधिकलक्षं, तिरश्चांनवचयोजनशतानि॥ द्विगुणंतुनारकाणांभणितं वैक्रियशरीरम॥९॥ अन्वय सहित पदच्छेद . देव नरलक्खं अहिय,यतिरियाणं नवसयाइंजोयण। तुनारयाणं वेउल्लियसरीरंदुगुणंभणियं||९|| शब्दार्थ : लक्खं-१ लाख (योजन) सयाई-सो दुगुणं-द्विगुण, दुगुण | दंडक प्रकरण सार्थ (53) उत्तर वैकिय की उत्कृष्ठ अवगाहना