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________________ स्फुरणा वचन के योग्य वर्गणा से बने हुए वचन की मदद से हो वह वचनयोग और जो स्फुरणा शरीर की वर्गणाओं से बने हुए शरीर की वजह से होती हो वह काय योग / कोई भी विषय का चिंतन करना वह मनोयोग, बोलना वचनयोग और हलन-चलन इत्यादि शरीर संबंधी क्रिया वह काययोग कहा जाता है। ये तीन मूल योग हैं। इसमें मनोयोग चार प्रकार, वचनयोग चार प्रकार, और काययोग७ प्रकार के, इस तरह 15 प्रकार के योग है। वह इस तरह है : मनोयोग-४ 1. सत्यमनोयोग :- जो वस्तु जिस तरह हो या उसका जो गुण, स्वभाव, धर्म जिस तरह हो, उसी तरह ही उस वस्तु का संपूर्ण विचार करना, ऐसा सोचते समय आत्मा का जो व्यापार हो उसे सत्य मनोयोग कहते है। 2. असत्य मनोयोग :- सत्य विचार से विपरीत विचार करते समय जो आत्मा में व्यापार होता है उसे असत्य मनोयोग कहते है। 3. सत्यमृषा (मिश्र) मनोयोग :- कुछ सत्य, कुछ असत्य सोचते समय आत्मा में होनेवाले व्यापार को मिश्र मनोयोग कहते है। ... 4. असत्यामृषा मनोयोग :- जिस विचार को व्यवहार दृष्टि से सच्चा भी न कहा जाय और गलत भी न कहा जाय। ऐसा सोचते समय आत्मा में जो व्यापार होता है उसे असत्यामृषा मनोयोग कहते है। दृष्टांत के रूप में : 1) वीतराग भगवंत को सुदेव, त्यागी गुरुदेव को सुगुरु और अहिंसामय शुद्ध धर्म को, सुधर्म के रूप में सोचना उसे सत्यमनोयोग कहते है। 2) सत्य से विरुद्ध याने वीतराग प्रभु को कुदेव, सरागी देव को सुदेव माने, सुगुरु को कुगुरु और हिंसादि के उपदेशक कुगुरु को सुगुरु माने, धर्म को अधर्म और हिंसादि अधर्म को सुधर्म के रूप में सोचे, वह असत्य मनयोग। | दंडक प्रकरण सार्थ (33) मनोयोग द्वार
SR No.004273
Book TitleDandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Original Sutra AuthorGajsarmuni, Haribhadrasuri
AuthorAmityashsuri, Surendra C Shah
PublisherAdinath Jain Shwetambar Sangh
Publication Year2006
Total Pages206
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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