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________________ और दुःख मिश्र है, और देवगति के 13 दंडक में जो पौद्गलिक सुख है वह भी लोभवृत्ति की अधिकता की वजह से, वास्तविक रूप में दुःख है क्योंकि मनुष्य की तरह देवों में क्लेश, मारामारी, देवांगनाओं की चोरी, आपस में इर्ष्या इत्यादि होने से देवो की जिंदगी भी अध्यात्मिक जीवों के लिए तो सोने की बेडी की तरह दुःख देनेवाली लगती है इस तरह किसी भी दंडक में वास्तविक सुख नहीं है। सिर्फ मनुष्य के ही 1 दंडक में जो मन-वचन-काया का संयम किया जाय तो आत्मिक सुख में आगे-बढकर अंत में मोक्षपद को प्राप्त कर सकते है इसलिए यहां 24 दंडक के परिभ्रमण का खेद ग्रंथकार ने प्रकट किया है। 2) तीन दंड का त्याग :- संसार की सभी उपाधि और संसारभ्रमण का मूल कारण मन-वचन-काया का अशुभ योग है इसलिए इन तीन प्रकार के अशुभ योग का त्याग से दंडक भ्रमण सदाकाल के लिए नष्ट होता है और आत्मधर्म भी प्राप्त होता है इसलिए यह बात निश्चित है कि मन वचन काया की वृत्तियों का निरोध किया जाय तब ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। 3) मोक्षपद की इच्छा : आगे कहे अनुसार जीव को सभी स्थानों में वास्तविक दुःख ही है और अनंत सुख का धाम (स्थान) तो सिर्फ मोक्ष ही है। इसलिए आत्मिक सुख के अभिलाषी जीव को मोक्षपद चाहने योग्य है। प्रशस्ति-गुरु परंपरा-संबंध गाथा सिरि-जिणहंसमुणीसर-रजेसिरि-धवलचंदसीसेण। गजसारेण लिहिया, ऐसा विन्नति अप्पहिया॥४४|| संस्कृत अनुवाद श्रीजिनहंसमुनीश्वरराज्ये श्रीधवलचन्द्रशिष्येण। गजसारेण लिखिता, एषा विज्ञप्तिरात्महिता॥४४|| दंडक प्रकरण सार्थ (१२०)प्रशस्ति-गुल परंपरा-संबंध
SR No.004273
Book TitleDandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Original Sutra AuthorGajsarmuni, Haribhadrasuri
AuthorAmityashsuri, Surendra C Shah
PublisherAdinath Jain Shwetambar Sangh
Publication Year2006
Total Pages206
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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