________________ पूर्ण नहीं होती है। 20) किमाहर ६-सबको 6 दिशा का आहार होता है। क्योंकि ये समू. पंचेन्द्रिय वसनाडी में ही रहते है। 21) संज्ञा 1- सबको 1 हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है शेष दो नहीं है। इन समूर्च्छिय जीवों को किंचित् द्रव्यमन होता है लेकिन अल्पत्व की वजह से मनोरहित ही जानना। 22) गति 22- समू. तिर्यंच पंचे. चारो गति में उत्कृष्ट से पल्योपम का असंख्यातवा भाग के आयु युक्त उत्पन्न होते हैं। नरकगति में पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के चौथा प्रतर तक उत्पन्न होते है 2) देवगति में भी भवनपति और व्यंतरों में उत्पन्न होते है लेकिन वहां पर पल्योपम के असंख्यातवा भाग का आयुवाले देव हो सकते है। अधिक आयुवाला नहीं 3) मनुष्यगति में उत्कृष्ट से अकर्मभूमि के युगलिक होते है और कर्मभूमि में संख्यातवर्षायु वाले मनुष्य होते है 4) तिर्यंच गति में अकर्मभूमि के युगलिक तिर्यंच होते है तथा एकेन्द्रियादि आठ दंडक में असंज्ञि तिर्यंच में और समू. मनुष्य में उत्पन्न होते है, इसलिए वैमानिक : और ज्योतिषी के सिवाय 22 दंडक में गति है। तथा समू. मनुष्य तो देवगति, नरकगति में उत्पन्न होते नहीं और तिर्यंच तथा मनुष्य में उत्पन्न होते है, तो युगलिक मनुष्य और युगलिक तिर्यंच सिवाय के सभी भेद में उत्पन्न होते है जिससे गति एकेन्द्रियादि 10 पद में-दंडक में है। 23) आगति ८-पांच प्रकार के समू. तिर्यंच पंचे. में एकेन्द्रियादि दश दंडक उत्पन्न होते हैं। समु-मनुष्य में तेउवायु के सिवाय 8 दंडक (3 एके. 3 विकल. 1 ग.ति, 1 ग.मनु., ये 8 दंडक) आकर उत्पन्न होते है। .. 24) वेद १-सबको एक नपुंसक वेद ही है। लिंग से सोचा जाय तो समू. तिर्यंच पं. तीन लिंगवाले है और समू. मनुष्य नपुंसक लिंगवाले है। 25) अल्पबहुत्व -समू. मनुष्य गर्भज मनुष्य से असंख्यात गुणा है और बादर | दंडक प्रकरण सार्थ (115) वेद द्वार