________________ संबंध आत्मा और उसके नित्यत्व के द्वारा पुनर्जन्म और मोक्ष स्वीकार करने के बाद-अनन्त आत्माओं के स्वकर्मानुसार भिन्न भिन्न स्वरूप से उत्पन्न होने योग्य क्षेत्रों का विचार सहज रूप से जिज्ञासुओं को होता है, यह स्वाभाविक है। यह विचार होते ही लोकालोक रूपी अखिल विश्व का ज्ञान करना होता है / अनंत अलोक में बिन्दु तुल्य लोक है। यह लोक भी असंख्य योजन प्रमाण विस्तारवाला है। इसके मुख्य तीन विभाग है (1) उर्ध्वलोक, (2) अधोलोक, और (3) ति लोक कहते है। इन तीन लोक में हम कहां पर है ?' यह प्रश्न जिज्ञासुओं को होना स्वाभाविक है। ____ अथवा अब हम जिस जगह पर बैठे है, सोये है, या खड़े है, (वास्तविक रूपसे वह क्षेत्र स्वयं को उस समय के लिए उतना ही उपयोगी है।) वह क्षेत्र भी इतना ही परिमित नहीं है, उसके आसपास भी कुछ है, वह क्या है ? ऐसा विचार करने पर “जगत् लोक है” तो लोक के आसपास क्या है ? “अलोक है”। इस तरह क्षेत्र विचार भी आत्मविकास के साधनों में एक आवश्यक अंग है जबकि उसके बारे में संपूर्ण जानने की शक्ति हमारे में नहीं हैं। क्षेत्र है यह निश्चित है, लेकिन उसकी विशालता मापने का काम हमारी शक्ति के मर्यादा से बाहर है / फिर भी क्षेत्रों की परिस्थिति जानने के लिये, उन क्षेत्रों को केवलज्ञान से प्रथम देखनेवाले सर्वज्ञ प्रभु के वचन के सिवाय दूसरा कोई साधन नहीं है। इसलिए सर्वज्ञ प्रभु का वचन रूप जो शास्त्र है उनका अभ्यास करना चाहिए। लेकिन वे शास्त्र अति-गंभीर और दुर्गम्य होने के कारण बाल जीवों को समझने में कठिनाई होती है इसलिए परोपकारी पूर्वाचार्यो ने अनेक प्रकरण ग्रन्थों की रचना की है। उसमें भी सभी क्षेत्रों का मध्यबिन्दु की तरह रहा हुआ और हम भी जिसमें रहते है, उस जंबूद्वीप का स्वरूप संक्षेप में समझाने के लिए श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने इस जंबूद्वीप संग्रहणी नामक प्रकरण की रचना की है। | लघु संगहणी सार्थ 123