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________________ हुआथा? इस कार्य का क्या परिणाम आयेगा? अब इनका क्या परिणाम होगा? अब क्या करना ? इत्यादि दीर्घकाल का विचार करनेके बाद में वह कार्य में प्रवृत निवृत होते हैं। इस संज्ञा का दूसरा नाम संप्रधारण संज्ञा है। . 3. दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा - यहां दृष्टि याने सम्यक्त्व सम्यग् दर्शन संबंधी वाद-कथन, उसका उपदेश-अपेक्षावाली अथवा दृष्टिवाद याने श्रुतज्ञान, उसका उपदेश-कथनवाली वह दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा / अर्थात् विशिष्ट श्रुतज्ञान के क्षयोपशम युक्त समकितवाली जो संज्ञा वह दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा, अर्थात् जो जीव सम्यग्दृष्टि है विशिष्ट श्रुतज्ञान के क्षयोपशम वाला हो और उसके साथ यथाशक्ति हेयोपादेय की प्रवृत्तिवाला हो अर्थात् अहितकर आचरण का त्याग करनेवाला और हितकर आचरण को आचरनेवाला हो ऐसे छद्मस्थ जीवों को यह संज्ञा होती है। और विशेषकर कितने मनुष्य को ही होती है। इन 3 संज्ञाओं का मुख्य विषय इष्ट विषय में प्रवृत्ति और अनिष्ट का त्याग, और वह भी अनुक्रम से अधिक-अधिक कक्षा का है क्योंकि हेतुपदेश संज्ञा वर्तमानकाल विषय का है। दीर्घकाल संज्ञा त्रिकाल विषयक है और वह दोनों संसार विषयक हैं। तीसरी संज्ञा में वह इष्ट प्रवृत्ति और अनिष्ट त्याग स्वरूप विषयक मोक्षमार्गाभिमुख है इसलिए सबसे श्रेष्ट कक्षा की यह तीसरी संज्ञा है। 22. गति कौनसे दंडक का जीव मरकर कौन-कौनसे दंडक में जाकर उत्पन्न होते है वह गति द्वार है। 23. आगति कौनसे दंडक में कौन-कौनसे दंडक में से जीव आकर उत्पन्न होते है ? उसके बारे में नियम दर्शाना वह आगति द्वार कहा जाता है। दंडक प्रकरण सार्थ (40) गति, आगति द्वार
SR No.004273
Book TitleDandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Original Sutra AuthorGajsarmuni, Haribhadrasuri
AuthorAmityashsuri, Surendra C Shah
PublisherAdinath Jain Shwetambar Sangh
Publication Year2006
Total Pages206
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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