________________ संस्कृत अनुवाद :सर्वेऽपिचतुष्कषाया. लेश्याषट्कंग जतिर्यग्मनुजयोः (जेषु)। नारकतेजोवायुविकलावैमानिकाश्च त्रिलेश्याः||१४|| अन्वय सहित पदच्छेद सवेअविचउकसाया, गब्भय तिरिय मणुएसुछगंलेस . नारयतेऊवाऊविगलायवेमाणि तिलेसा॥१४|| १०छद शब्दार्थ कसाया-कषायवाले तेऊ-तैजसकाय, अग्निकाय लेसा-लेश्या वाऊ-वायुकाय छग-छ ति-तीन लेसा-लेश्यावाले गाथार्थ सभी को चारों कषाय होते हैं / गर्भज-तिर्यंच और मनुष्य को 6 लेश्या होती हैं, नरक, अग्निकाय, वायुकाय, विकलेन्द्रिय और वैमानिक तीन लेश्यावाले होते हैं // 14 // विशेषार्थ :- छट्ठा कषायद्वार : सभी दंडकपदों में क्रोध-मान-माया और लोभ ये चार प्रकार के कषाय होते हैं। एकेन्द्रिय में उसका उदय अस्पष्ट होता है, बेइन्द्रियादिमें कुछ अधिकअधिक स्पष्ट होते हैं, कषाय रहित तो केवल वीतराग भगवंत और सिद्ध परमात्मा ही हैं। सातवा लेश्याद्वार : गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों को छ प्रकार की लेश्या होती हैं / एक समय में एक ही लेश्या अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः बदलकर दूसरी लेश्या प्रगट होती है इस तरह संपूर्ण भवपर्यन्त परावृत्ति से छह भी लेश्या द्रव्य से और भाव से | दंडक प्रकरण सार्थ (64) कषाय, लेश्या द्वार