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________________ अव्यक्त - अस्पष्ट होती है। फिर भी कितने की तो बाह्य वर्तन से कोई-कोई संज्ञा एकेन्द्रिय में अनुमान से स्पष्ट समझ सके ऐसी होती है। वह इस तरह है। 1. पानी तथा छाना आदि खाद्य (खातर) से पोषण होने से आहार संज्ञा है। 2. लज्जा (शर्म) वाली वनस्पति को हाथ का स्पर्श होते ही तुरंत संकुचित हो जाती है, इसलिए भय संज्ञा है। 3. वेलडी वृक्ष को लगकर रहती है और श्वेत खाखर का पेड निधान पर ही मूल फैलाती है इसलिए परिग्रह संज्ञा है। 4. कुरुबक नाम का वृक्ष स्त्री के आलिंगन से फलता है। इसलिए मैथुन संज्ञा 5. कोकनद नाम का कंद हुंकार-फुफाड करता है इसलिए क्रोध संज्ञा है। 6. रूदन्ती वेल में से रस की बुंदे झरती रहती है, इसलिए मान संज्ञा है (इस वेल के रस से सुवर्णसिद्धि होती है, इससे मेरे होने पर भी लोक में .. निर्धनता क्यों ? ऐसा अभिमान संज्ञा से रूदन करने का अनुमान है।) 7. वेल अपने फलों को, अपने पत्तों से ढ़ककर रखते हैं इसलिए माया संज्ञा है। 8. बीली का वृक्ष तथा श्वेत खाखर अपना मूल निधानके ऊपर ही फैलाते है इसलिए लोभ संज्ञा है। 9. कमल रात्रिमें लोक संज्ञा से संकोच पाते है। . 10. वेलडी सभी मार्ग को छोड़कर दिवार पर अथवा वृक्ष पर ओघ संज्ञा से चढती है। इस तरह एकेन्द्रिय जीवों में अनुमान से संज्ञा सपष्ट रीति से समझ सकते है / द्वीन्द्रियादि सभी दंडकपदों में कम-ज्यादा संज्ञा अवश्य होती है। अभी चार गति आधार पर विचार करने से देवगति में परिग्रह तथा लोभ संज्ञा ज्यादा मुख्य है। मनुष्यगति में मान तथा मैथुन संज्ञा अधिक है, नरक गति दंडक प्रकरण सार्थ (60) संज्ञा, संस्थान द्वार |
SR No.004273
Book TitleDandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Original Sutra AuthorGajsarmuni, Haribhadrasuri
AuthorAmityashsuri, Surendra C Shah
PublisherAdinath Jain Shwetambar Sangh
Publication Year2006
Total Pages206
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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