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________________ संस्कृत अनुवाद योजनशतमुच्छ्रितौ. कनकमयौ शिखरिक्षुल्लहिमवन्तौ। रुक्मिमहाहिमवन्तौ द्विशतोच्चौ,रुप्यकनकमयौ॥२७॥ अन्वय सहित पदच्छेद सिहरिचुल्लहिमवंतासयंजोयण उचिट्ठाकणयमया। रुप्पिमहाहिमवंतादुसय उच्चारुप्पकणयमया॥२७॥ शब्दार्थ :उच्चिट्ठा- ऊंचा कणय- सुवर्ण मया- के रूप मय सिहरि-शिखरी पर्वत चुल्ल- लघु, छोटा हिमवंता- हिमवंत पर्वत रुप्पि- रुक्मिपर्वत महाहिमवंता- महाहिमवंत पर्वत ... स (सअ)- सो उच्चा-ऊंचा रुप्प- रूपा के चांदी के कणयमया- कनकमय, सुवर्णमय / गाथार्थ : शिखरी और लघु हिमवंत सो योजन ऊंचे सुवर्णमय है। रुक्मि और महाहिमवंत दो सो योजन ऊंचे और अनुक्रम से चांदी के तथा सुवर्णमय * है। गाथा : चत्तारिजोयणसए * उचिट्ठो निसढनीलवंतो। निसढोतवणिज्जमओ, वेरुलिओनीलवंतगिरि॥२८॥ फूटनोट :* सुवर्ण पांच वर्ण के होने पर भी पीला वर्ण मुख्य होने से यहां पर पीला वर्ण को लेना। * छपी हुई प्रत में तथा बृ. क्षेत्रसमास में 'उचिट्ठो' की जगह 'उविद्धो' पाठ है। लघु संग्रहणी सार्थ (178) पर्वतों का वर्ण एवं प्रमाण
SR No.004273
Book TitleDandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Original Sutra AuthorGajsarmuni, Haribhadrasuri
AuthorAmityashsuri, Surendra C Shah
PublisherAdinath Jain Shwetambar Sangh
Publication Year2006
Total Pages206
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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