________________ यह समुद्घात होता है। ___5. तैजस समुद्घात :- तेजोलेश्या के लब्धिवंत आत्मा अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर उत्कृष्ट से संख्यात योजन दीर्घ और स्वदेह प्रमाण बडा दंडाकर बनाकर, पूर्वोपार्जित तैजस नामकर्म के प्रदेशों को प्रबल उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर क्षय करने के साथ तैजस पुद्गलों को ग्रहण करके तेजोलेश्या या शीतलेश्या छोडते है। इस प्रसंग पर यह समुद्घात होता है। 6. आहारक समुद्घात :- आहारक लब्धिवंत चौद पूर्वधारी मुनिमहात्मा श्री जिनेश्वर के समवसरण आदि ऋद्धि दर्शन या श्रुतज्ञान में उत्पन्न हुए सूक्ष्म संशय को निवारण करना इत्यादि हेतुओं से अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकालकर उत्कृष्ट से संख्यात योजन लंबा और स्वदेह प्रमाण बडा (मोटा) दंडाकर बनाकर, पूर्वोपार्जित आहारक नामकर्म के पुद्गलों को प्रबल उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर नाश करने के साथ आहारक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके आहारक शरीर बनाते समय यह समुद्घात करते हैं। __. केवलि समुद्घात :- जो केवलि भगवंत के नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मो की स्थिति अपने आयुष्य कर्म की स्थिति से अधिक भोग बाकी हो तब इन तीन कर्मो की स्थिति को आयुष्य कर्म के समान स्थितिवंत बनाने के लिए अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर पहले समय में लोक के अधोभाग के अंतिम भाग से लेकर ऊपर के अंतिम भाग तक चौद (14) रज्जु प्रमाण ऊंचा और अपने देह प्रमाण बडा (मोटा) आत्म प्रदेशों को दंडाकर बनाकर दूसरे समय में उत्तर से दक्षिण या पूर्व से पश्चिम लोकान्त तक का कपाट आकार बनाता है। तीसरे समय में पूर्व से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण तक दसरा कपाट आकर बनाकर मंथन आकार बनाकर चारों पंखों के अंतर भरकर चौथे समय में केवलि भगवंत की आत्मा संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाती है। इसके बाद पांचवे समय में मंथान के अंतर के आत्मप्रदेशों का संहरण | दंडक प्रकरण सार्थ (28) समुद्घात द्वार