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________________ तपश्चर्यादि के द्वारा इस शरीर को ऐसा बना सकते है कि जिससे किसी को क्रोध से श्राप आदि देकर जला सकते है और अनुग्रह (उपकार) बुद्धि से जलते हुए पदार्थ को शीतलता देकर बुझा सकते है। उस समय इस शक्तियों को तेजोलेश्या और शीतलेश्या लब्धि कहते है। इस शरीर का कार्मण शरीर के साथ अनादिकाल से संबंध है। और आहारक शरीर की वर्गणा से इस शरीर की वर्गणा में परमाणु ज्यादा होते है फिर भी उनका परिणाम आहारक शरीर से सूक्ष्म होता है। 5. कार्मण शरीर :- जीव हरेक समय कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके आत्मा के साथ उसी वक्त बांधता है। उसको कर्मबंध कहा जाता है। इस तरह तैजस वर्गणा से अति सूक्ष्म कार्मण वर्गणा को आत्मा के द्वारा ग्रहण कराते हुए पुद्गलों के एक प्रकार के समूह को आठ कर्म के रूप में बांटना, ऐसी रचना को कार्मण शरीर कहते है। यह शरीर आत्मा के साथ अनादिकाल से है। भव्य को मोक्ष में जाने तक और अभव्य को अनंत काल तक साथ में रहता है। यह शरीर जहां तक होता है वहां तक कर्मबंध होता रहता है। और आगे कहे हुए चारों शरीर को धारण करना पड़ता हैं / यह शरीर प्रतिघात रहित है अर्थात् किसीसे रुकता नहीं, किसीको रुकाता नहीं है। यह शरीर अपने आप धर्म-अधर्म, कर्मबंध-निर्जरा, सुखदुःख, हिंसा आदि कुछ भी नहीं कर सकता। परभव जाते समय जीव के साथ तैजस, कार्मण ये दो शरीर होते हैं। और उत्पन्न होते समय ही यह जीव इन दो शरीर की सहायता से ही प्रथम समय में आहार ग्रहण करता है। २.अवगाहना अवगाहना का मतलब है लंबाई, ऊंचाई। वह उत्कृष्ट (ज्यादा से ज्यादा) और जघन्य (कम से कम) ऐसे दो प्रकार की हैं। और वह मूल शरीर की तथा उत्तर शरीर की भी होती है। दंडक प्रकरण सार्थ (14) अवगाहना द्वार
SR No.004273
Book TitleDandak Prakaran Sarth Laghu Sangrahani Sarth
Original Sutra AuthorGajsarmuni, Haribhadrasuri
AuthorAmityashsuri, Surendra C Shah
PublisherAdinath Jain Shwetambar Sangh
Publication Year2006
Total Pages206
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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