________________ उत्तर :- लेश्या (1) लौकिक व्यवहार से किया गया भावों का एक पृथक्करण है। और कषाय, कर्मग्रन्थ शास्त्र की दृष्टि से किया गया पृथक्करण (विभागीकरण) है। इसलिए लेश्या भी एक प्रकार से कषाय ही है। कषायों में उनका समावेश होता हैं। और कषाय भी एक प्रकार की लेश्या ही है। याने कषाय के कर्म पुद्गलों में मिले हुए काले आदिरंग के जो कर्म पुद्गल है, वह द्रव्य लेश्या है। और वह द्रव्य लेश्या से उत्पन्न होनेवाला जीव का जो स्वभाव विशेष है वह भाव लेश्या है। .. (लेश्या को कषायन्तर्गत गिनें तो ११वां से १२वें गुणस्थानक तक शुद्ध आतमभाव को उपचार से शुक्ललेश्या माना जाता है अथवा शास्त्र में तीन योग में भी लेश्या के पुद्गलों को अन्तर्गत गिना है तेरहवां गुणस्थानक तक योग होने से, इस अपेक्षा से वहां तक लेश्या है।) गध | की द्रव्यलेश्या वर्ण रस / स्पर्श भावलेश्या * के नाम लागणी 1) कृष्ण | अतिकाला | अतिदुर्गंध | अति कडुआ अतिकठोर | अतिक्रूर 2) नील कमकाला | कमदुर्गंध / | कमकडुआ कमकठोर | कमक्रूर 3) कापोत | भूरा | अल्पदुर्गंध | | अल्पकडुआ अल्पकठोर| अल्पक्रूर 4) तेजो लाल - | अल्पसुगंधी | अल्पमधुर | अल्पस्निग्घ अल्प शांत 5) पद्म साफ पीला | सुंगधी | मधुर स्निग्ध | शांत फूटनोट : (1) जैनशास्त्र में इस तरह के अनेक पृथकरण दिखने में आते है, जैसे की संज्ञाए, वह भी एक प्रकार से मतिज्ञान का ही प्रकार है। लेकिन मति-श्रुतादि ज्ञान और लागणी के बारे में शास्त्रीय पद्धति के ज्ञान के अभाववाले अभ्यासी को प्राणीओंमें होनेवाली चेतनाशक्तिओं के बारे में किस तरह समझाया जायें ? इसलिए चार, दस, सोलह संज्ञाओं के भेद से यह बात समझायी है। और शास्त्रीय पद्धति के ज्ञाता को कर्मग्रंथ के सिद्धांतों से समझने से ये सब कुछ समझ में आ जाता है। दंडक प्रकरण सार्थ (20) कषाय - लेश्या द्वार