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स्थिति ही वास्तव में योग है ।
मन को शुद्ध करना योग का उद्देश्य नहीं है क्योंकि मन तो चित्त की अभिव्यक्ति है । चित्त और मन में तो सागर व उसकी लहरों जितना अंतर है । लहरें अर्थात् मन और उसके विकल्प, सागर अर्थात् चित्त । फ्रायड ने जिसे अचेतन मन कहा है सबकांशस माइंड, भारतीय मनीषियों की भाषा में वही चित्त है । जब हम ध्यान-साधना करते हैं तो मन के रूप में एक तत्त्व का स्पष्ट अनुभव करते हैं, क्योंकि विचार और विकल्पधारा के रूप में वह भीतर बहता रहता है। ऐसी स्थिति में लगता है कि हमें चित्त का अनुभव तो होता ही नहीं। जब हम समुद्र को देखते हैं तो लहरें दिखाई देती हैं लेकिन बिना समुद्र के लहरें कहाँ से आ सकती हैं। लहरें तो उठेंगी ही । मन के भीतर विचार - विकल्प की लहरें तो हिलोरें लेंगी ही । लहरों के उद्वेलन में, उतार-चढ़ाव में फ़र्क़ आ सकता है, पर लहरें तो उठती रहती हैं ।
योग का उद्देश्य व्यक्ति के मन को समाप्त करना नहीं है, अपितु जिसकी वज़ह सेक्रोध, मोह, माया, लोभ, राग-द्वेष जैसी वृत्तियाँ उदित होती हैं उस चित्त का निरोध करना, उसे शुद्ध करना, परिमार्जित करना योग का उद्देश्य है। योग शरीर को स्वस्थ अवश्य करता है, पर उसकी प्रवृत्तियों को समाप्त नहीं करता । आहार, निद्रा, मैथुन जैसी मूल प्रवृत्तियाँ योग करते हुए भी विद्यमान रहती हैं, लेकिन जो अचेतन मन है, भीतर जो चित्त व्याप्त है, जो वृत्तियों का समूह है उनका निरोध करना, उन पर अंकुश लगाना, उन्हें परिमार्जित करना योग का काम है । चित्त और मन की स्थिति पानी में डूबी हुई बर्फ़ की तरह है अर्थात् जो बर्फ पानी में डूबी है वह दिखाई नहीं देती यही चित्त है और जो बर्फ़ बाहर नज़र आ रही है वह मन है । विचार - विकल्प के रूप में जो अनुभव होता है वह तो दस प्रतिशत है क्योंकि जब हम सो जाते हैं तो यह दस प्रतिशत मन तो सो जाता है और बचा हुआ नब्बे प्रतिशत वाला चित्त कार्यशील हो जाता है ।
ध्यान के द्वारा चित्त का परिमार्जन, निरोध होता है। ध्यान में हमारा लक्ष्य ही यही होता है कि हम अपने चित्त का निरोध करें। पतंजलि कहते हैं - अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और मृत्यु का भय - ये चित्त के क्लेश हैं। पतंजलि ने कहा है कि चित्त के भीतर क्लेशकारी और अक्लेशकारी दो प्रकार की वृत्तियाँ ऐसी होती हैं जिनके कारण हमें कष्ट, दुःख, वेदनाएँ, आर्तध्यान और रौद्र ध्यान जैसी स्थितियों से गुज़रना पड़ता है। लेकिन कुछ वृत्तियाँ ऐसी होती हैं जो जीवन में सुखदायी लगती हैं । प्रेम, करुणा, शांति, दया आदि वृत्तियाँ हमें सुखकर लगती हैं। योग एवं ध्यान से
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