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प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करता। किसी को कुछ भी हो सकता है। लेकिन यही विनम्रता है, जीवन का सद्गुण है, निरभिमानता है कि सहजता से कहीं भी चला जाए और सहजता से सभी के साथ व्यवहार करे। हम अपने अहंभाव को समझें और उसे तोड़ने का रास्ता भी खुद ही निकालें।
मैं रास्ते सुझाता हूँ - कभी झाडू लगा लो, कभी अपनी कार खुद ही धो लो, कभी बाथरूम साफ़ कर लो, प्रतिदिन बड़े-बुजुर्गों को नमन करने की आदत डालो, प्रतिदिन प्रभु की प्रार्थना, भक्ति करो। समर्पण के नाम पर लड्डू-पेड़े, चावल मत चढ़ाओ। ये हम क्या अर्पण कर रहे हैं? ये सब तो खुद प्रभु हमें दे रहे हैं। इसी से तो हमारा भरण-पोषण होता है। हम उन्हें क्या चढ़ाएँगे जबकि देने वाला ही वही है। दुनिया के किसी भी भगवान को कुछ नहीं चाहिए, शनि महाराज को तेल, गणपति को लड्डू, महावीर को आपके चावल या दीपक नहीं चाहिए। अगर चढ़ाना ही चाहते हो तो अपना अहंभाव चढ़ाओ।और कहो- प्रभु, जो करता है वह तू ही करता है। मेरे जीवन की खुशहाली में तेरी ही भूमिका है। तेरा अनुग्रह है तो मैं फल-फूल रहा हूँ अन्यथा मैं तो कुछ भी नहीं। बस प्रभु, कृपा रखना।आशीष बनाए रखना।
चित्त के संक्लेशों से मुक्त होने के लिए ज्ञान को महत्त्व दो और अज्ञान की जंजीरों को तोड़ो। खुशहाली में कर्त्ताभाव मत जोड़ो लेकिन गलती हो जाने पर तुरंत जानो कि गलतियाँ हमारे अज्ञान के कारण हो रही हैं। खुशहाली होने पर अहंकार भाव न हो जाए। इसलिए अपनी सफलता का श्रेय हमेशा ऊपरवाले को दो, दूसरों को दो। श्रीराम ने जब लंका विजय कर ली, रावण का वध कर दिया तब चारों ओर उनकी जय-जयकार होने लगी। तब श्रीराम ने कहा- यह मेरे अकेले की जीत नहीं है, यह आप सब लोगों की जीत है। आप सभी के सहयोग से ही लंका विजित हो सकी है। रावण को परास्त करना मेरे अकेले के वश में न था।
अपनी सफलता का श्रेय दूसरों को देना अहंकार तोड़ने की पहली सीढ़ी है। जब अहं पैदा होता है तो चित्त में क्लेश आता है जो हमारे लिए हानिकारक है। यदि हम अपनी सफलता का श्रेय ईश्वर को, गुरुजनों को, माता-पिता को, अपने शिक्षकों को, अपने बड़े भाई-बहिन को देते हैं, अन्यों को अपनी सफलता में सहभागी बनाते हैं तो हमारी सफलता का आनन्द दोगुना हो जाता है। तब वह आनन्द केवल स्वयं के लिए नहीं होता, उसमें अन्य लोग भी शरीक हो जाते हैं । अरे, वह आनन्द ही क्या जो तुम्हें अकेले उठाना पड़े। दस-बीस लोगों के शामिल हो जाने से वह आनन्द उत्सव बन जाता है। तब वह आनंद कभी दीपावली और कभी होली बन जाता है।
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