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का नाम है। एक वाक्य में समझते हैं बिखरे हुए चित्त को अपने आप में लौटा लाना, बिखरी हुई इन्द्रियों को विषयों से विमुख करके अपने आप में लौटा लाना प्रत्याहार है
और नाभि-प्रदेश, हृदय-कमल, दोनों भृकुटियों के मध्य, ब्रह्मरंध्र पर अपने चित्त को केन्द्रित करना, टिकाना धारणा है। देह के इन चक्रों पर जब चित्त को केन्द्रित करते हैं तो यह बार-बार भटकता है लेकिन पुनः पुनः इसे अपने स्थान पर ले आना धारणा है। धारणा वह एकाग्रता है जहाँ बार-बार व्यवधान होने पर भी अर्थात् नई वृत्तियों के उदित होने से जो बाधा आती है और ध्यान भंग करती है उस स्थिति में प्रयासपूर्वक साधी गई एकाग्रता धारणा होती है और जब बिना किसी बाधा के, बिना विकल्प विचार के हम स्वयं को नाभि पर, हृदय पर या अपने ललाट प्रदेश पर,अपने आज्ञाचक्र या ज्ञान-चेतना पर एकाग्र करने में सफल हो जाते हैं, वह स्थिति ध्यान कहलाती है। चित्त की शांत, मौन निर्मल स्थिति ही ध्यान है।
एकाग्रता में जब अन्य किसी वृत्ति का उदय या व्यवधान आने लगे तो धारणा हो जाती है लेकिन जब वही धारणा एकतान हो गई, ध्याता और ध्येय के मध्य एकलयता सध गई तो ध्यान बन जाती है।
प्रत्याहार - चित्त का स्वयं में लौटना, इन्द्रियों का चित्त में लौटना। धारणा - चित्त का व्यवधान-सहित केन्द्रीकरण। ध्यान - व्यवधान रहित, वृत्तियों का विलीनीकरण, एकलय हो जाना। योग: चित्तवृत्ति निरोधः- एकलय हो जाना, चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाना।
ध्यान की स्थिति में पहुंचने पर ही योग अपना परिणाम देता है। ध्यान की पूर्वभूमिका धारणा है। धारणा तो प्रतिदिन होती है। ध्यान हो या न हो हमारा प्रयत्न, हमारी जागरूकता, हमारी सचेतनता इस बात की हो कि ध्यान सधे, हम ध्यानस्थ हों। ध्यान न भी हो, पर धारणा तो अवश्य होती है। धारणा ही हमें ध्यान की ओर ले जाती है। आप सभी धारणा से ध्यान की ओर अग्रसर हों।
इसी मंगलभावना के साथ.....
नमस्कार!
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