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अनिवार्यता है धीरज, सब्र रखना। धीरे-धीरे यह सधती है, गहराई आती है। ज्योंज्यों हमारी धारणा मज़बूत, परिपक्व होती जाएगी त्यों-त्यों भीतर की नाड़ियाँ उनमें बहने वाली प्राण-ऊर्जा सक्रिय होती जाएगी।
नाभि जीवन का आधार है। माँ के गर्भ में हमारा पोषण नाभि के द्वारा ही होता है। जन्म के बाद माँ से अलग करने के लिए इस नाल को ही काटा जाता है। हमारे शरीर का सम्पूर्ण तंत्र नाभि से ही जुड़ा रहता है। नीचे मूलाधार की ओर स्थित कुंडलिनी का सम्बंध भी नाभि से नियोजित है। यहाँ पर ध्यान करने से पूरे शरीर का नाड़ी-तंत्र सक्रिय होता है, स्वस्थ होता है। नाभि पर ध्यान करने से अपने शरीर की संपूर्ण स्थिति का ज्ञान होता है।
योग-विज्ञान पर आचार्य महाप्रज्ञ ने बहुत काम किया है और उन्होंने बताया कि नाभि स्वास्थ्य चेतना का केन्द्र है। हठयोगी इसे मणिपूर चक्र कहते हैं लेकिन मैं तो इसे ध्यान करने का पहला बिंदु मानता हूँ कि जिसे भी ध्यान करना है वह पहले स्वयं को नाभिकेन्द्र पर एकाग्र करे। अपनी धारणा को वहाँ एकाग्र करे। जितनी भी ध्यान-पद्धतियाँ प्रचलित हैं उनके दो ही आधार हैं - एक तो इस देह में जितने भी अंग हैं या वेदना-संवेदनाएँ हैं, उन पर जागरूकता सधे या दूसरे रूप में षट्चक्रों पर ध्यान करें।
षट्चक्रों में पहला है कुण्डलिनी या मूलाधार। व्यक्तिगत रूप से मैं कुण्डलिनी पर ध्यान करने की सलाह नहीं दूंगा क्योंकि उसके करीब ही वह स्थान है जिसका संबंध मनुष्य की वासना, कामासक्ति से जुड़ा रहता है । यहाँ पर ध्यान करने से जो ऊर्जा का जागरण होगा अगर आप उसे ऊपर न चढ़ा सके या उस ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण न हो पाया तो वह ऊर्जा कामेन्द्रिय की ओर बहेगी। तब योग का परिणाम भोग हो जाएगा जोघातक है । यह ऊर्जा का पतन है। इसलिए मेरी सलाह है कि नाभि प्रदेश पर ध्यान करें। अन्यं चक्र हैं – स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र।
मूलाधार या कुण्डलिनी का स्थान है मल-मूत्र द्वारों के बीच में नीचे से एक डेढ़ इंच ऊपर। पेड़ के भाग के बराबर और पीछे मेरुदण्ड तक जो नाड़ी जाल है उसके भीतर की ऊर्जा स्वाधिष्ठान चक्र कहलाती है। नाभि से पीछे मेरुदण्ड तक जो घेरा है उसके भीतर रहने वाली चैतन्य-ऊर्जा मणिपूर-चक्र है। अनाहत-चक्र - हमारी पसलियों के बीच छाती का मध्य भाग अनाहत चक्र है। भारतीय योगियों ने इसे हृदय-कमल कहा है। यह वह हृदय नहीं है जो विज्ञान का हार्ट है। यह छाती के
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